NCERT Solutions Class 7th History Chapter – 6 ईश्वर से अनुराग (Devotional Paths to the Divine)
Textbook | NCERT |
Class | 7th |
Subject | Social Science (इतिहास) |
Chapter | 6th |
Chapter Name | ईश्वर से अनुराग (Devotional Paths to the Divine) |
Category | Class 7th Social Science (इतिहास) |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
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NCERT Solutions Class 7th History Chapter – 6 ईश्वर से अनुराग (Devotional Paths to the Divine)
Chapter – 6
ईश्वर से अनुराग
Notes
परमेश्वर का विचार
बड़े-बड़े राज्यों के उदय होने से पहले, भिन्न-भिन्न समूहों के लोग अपने-अपने देवी-देवताओं की पूजा करते थे। जब लोग, नगरों के विकास और व्यापर तथा सम्राज्यों के माध्यम से एक साथ आते गए, तब नए-नए विचार विकसित होने लगे यदि मनुष्य भक्तिभाव से परमेश्वर की शरण में जाए तो परमेश्वर, व्यक्ति को इस बंधन से मुक्त कर सकता है।
श्रीमद्भगवद्गगीता में व्यक्त यह विचार, सामान्य सन (ईस्वी सन) की प्रारंभिक शताब्दियों में लोकप्रिय हो गया था। विशद धार्मिक अनुष्ठानो के माध्यम से शिव, विष्णु तथा दुर्गा को परम देवी-देवताओं के रूप में पूजा जाने लगा।
दक्षिण भारत में भक्ति का एक नया प्रकार- नयनार और अलवार – सातवीं से नौवीं शताब्दियों के बीच कुछ नए धार्मिक आंदोलनों का प्रादुर्भाव हुआ। इन आंदोलनों का नेतृत्व नयनारों (शैव संतों) और अलवारों (वैष्णव संतों) ने किया। ये संत सभी जातियों के थे, जिनमें पुलैया और पनार जैसी ‘अस्पृश्य’ समझी जाने वाली जातियों के लोग भी शामिल थे।
वे बौद्धों और जैनों के कटु आलोचक थे और शिव तथा विष्णु के प्रति सच्चे प्रेम को मुक्ति का मार्ग बताते थे। उन्होंने संगम साहित्य (तमिल साहित्य का प्राचीनतम उदाहरण और सामान्य सन् यानी ईसवी सन् की प्रारंभिक शताब्दियों में रचित) में समाहित प्यार और शूरवीरता के आदर्शों को अपना कर भक्ति के मूल्यों में उनका समावेश किया था। नयनार और अलवार घुमक्कड़ साधु-संत थे। वे जिस किसी स्थान या गाँव में जाते थे, वहाँ के स्थानीय देवी-देवताओं की प्रशंसा में सुंदर कविताएँ रचकर उन्हें संगीतबद्ध कर दिया करते थे।
दक्षिण भारत में भक्ति
नयनार और अलवार सातवीं से नौवीं शताब्दियों के बीच कुछ नए धार्मिक आंदोलनों का प्रादुर्भाव हुआ। इन आंदोलनों का नेतृत्व नयनारों (शैव संतो) और आलवारों (वैष्णव संतों) ने किया। ये संत सभी जातियों के थे, जिनमें पुलैया और पनार जैसी ‘अस्पृश्य‘ समझी जाने वाली जातियों के लोग भी शामिल थे।
वे बौद्धों और जैनों के कटु आलोचक थे और शिव तथा विष्णु के प्रति सच्चे प्रेम को मुक्ति का मार्ग बताते थे। उन्होंने संगम साहित्य में समाहित प्यार और शूरवीरता के आदर्शो को अपना कर भक्ति के मूल्यों में उनका समावेश किया था। नयनार और अलवार घुमक्क्ड़ साधु-संत थे। वे जिस किसी स्थान या गाँव में जाते थे, वहाँ के स्थानीय देवी-देवताओं की प्रशंसा में सुंदर कविताएँ रचकर उन्हें संगीतबद्ध कर दिया करते थे।
दर्शन और भक्ति
शंकर भारत के सर्वाधिक प्रभावशाली दार्शनिकों में से हैं। जिनका जन्म आठवीं शताब्दी में केरल प्रदेश में हुआ था। वे अद्वैतवाद के समर्थक थे, जिसके अनुसार जीवात्मा और परमात्मा (जो परम सत्य है), दोनों एक ही हैं। उन्होंने यह शिक्षा दी कि ब्रह्मा, जो एकमात्र या परम सत्य है, वह निर्गुण और निराकार है।
शंकर ने हमारे चारों ओर के संसार को मिथ्या या माया माना और संसार का परित्याग करके संन्यास लेने और मोक्ष प्राप्त करने के लिए ज्ञान के मार्ग को अपनाने का उपदेश दिया। रामानुज ग्यारहवीं शताब्दी में तमिलनाडु में पैदा हुए थे।
वे विष्णु भक्त अलवार संतो से बहुत प्रभावित थे। रामानुज ने विशिष्टाद्वैत के सिंद्धांत को प्रतिपादित किया जिसके अनुसार आत्मा, परमात्मा से जुड़ने के बाद भी अपनी अलग सत्ता बनाए रखती है। उनके अनुसार मोक्ष प्राप्त करने का उपाय विष्णु के प्रति अनन्य भक्ति।
बसवन्ना का वीरशैववाद – हमने पहले पढ़ा कि तमिल भक्ति आंदोलन और मंदिर पूजा के बीच क्या संबंध थे। इसके परिणामस्वरूप जो प्रतिक्रिया हुई, वह बसवन्ना और अल्लमा प्रभु और अक्कमहादेवी जैसे उसके साथियों द्वारा प्रारंभ कि गए वीरशैव आंदोलन में स्पष्टतः दिखलाई देती है।
यह आंदोलन बारहवीं शताब्दी के मध्य में कर्नाटक में प्रारंभ हुआ था। वीरशैवों ने सभी व्यक्तियों की समानता के पक्ष में और जाति तथा नारी के प्रति व्यवहार के बारे में ब्राह्मणवादी विचारधारा के विरुद्ध अपने प्रबल तर्क प्रस्तुत किए। इसके अलावा वे सभी प्रकार के कमर्कांडों और मूर्तिपूजा के विरोधी थे।
महाराष्ट्र के संत
तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक महाराष्ट्र में अनेकानेक संत कवि हुए, जिनके सरल मराठी भाषा में लिखें गए गीत आज भी जन-मन को प्रेरित करते हैं। उन संतो में सबसे महत्वपूर्ण थे – ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ और तुकाराम तथा सखुबाई जैसी स्त्रियाँ तथा चोखामेळा का परिवार, जो ‘अस्पृश्य‘ समझी जाने वाली महार जाति का था।
भक्ति की यह क्षेत्रीय परंपरा पंढरपुर में विठ्ठल (विष्णु का एक रूप) पर और जन-मन के ह्रदय में विराजमान व्यक्तिगत देव (ईश्वर) संबंधी विचारों पर केंद्रित थी। इन सब संतो-कवियों ने सभी प्रकार के कर्मकांडो, पवित्रता के ढोंगों और जन्म पर आधरित सामाजिक अंतरों का विरोध किया। तथा दूसरो के दुखों को बाँट लेना, जरूरत मंद की सेवा करना। इससे एक नए मानवतावादी विचार का उद्भव हुआ।
इस्लाम और सूफ़ी
संतो और सूफ़ियों में बहुत अधिक समानता थी, यहाँ तक की यह भी माना जाता है की उन्होंने आपस में कई विचारों का आदान-प्रदान किया और उन्हें अपनाया। सूफ़ी मुसलमान रह्स्य्वादी थे। वे धर्म के बाहरी आंडबरों को अस्वीकार करते हुए ईश्वर के प्रति और भक्ति तथा सभी मनुष्यों के प्रति दयाभाव रखने पर बल देते थे।
इस्लाम ने एकेश्वरवाद यानि एक अल्लाह के प्रति पूर्ण समर्पण का ढृढ़ता से प्रचार किया। आठवीं और नवीं शताब्दी में धार्मिक विद्वानों ने पवित्र कानून (शरिया) और इस्लामिक धर्मशास्त्र के विभिन्न पहलुओं को विकसित किया।
ईस्लाम धीरे-धीरे और जटिल होता गया जबकि सूफ़ियों ने एक अलग रास्ता दिखाया जो ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत समर्पण पर बल दिया सूफ़ी लोगों ने मुसलिम धार्मिक विद्वानों द्वारा निर्धारित विशद कर्मकांड और आचार-संहिता को बहुत अस्वीकार कर दिया।
वे ईश्वर के साथ ठीक उसी प्रकार जुड़े रहना चाहते , जिस प्रकार एक प्रेमी , दुनिया की परवाह किए बिना अपनी प्रियतमा के साथ जुड़े रहना चाहता है। औलिया या पीर की देख-रेख में ज़िक्र, चिंतन, रक्स, निति-चर्चा, साँस पर नियंत्रण सूफी सिलसिलाओं का प्रादुर्भाव हुआ।
ग्यारहवीं शताब्दी से अनेक सूफी जन मध्य एशिया से आकर हिंदुस्तान में बसने लगे थे। जैसे – अजमेर के ख़्वाजा मुइनुद्दीन, दिल्ली के क़ुत्बुद्दीन बख़ितयार काकी, पंजाब के बाबा फ़रीद, दिल्ली के ख़्वाजा निजामुद्दीन औलिया और गुलबर्ग के बंदानवाज गीसुदराज़।
उत्तर भारत में धार्मिक बदलाव
तेरहवीं सदी के बाद उत्तरी भारत में भक्ति आंदोलन की एक नयी लहर आई। यह एक ऐसा युग था, जब इस्लाम, ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म, सूफ़ीमत, भक्ति की विभिन्न धाराओं ने और नाथपंथियों, सिद्धों तथा योगियों ने परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित किया उनमें कबीर और बाबा गुरु नानक जैसे कुछ संतो ने सभी आडंबरपूर्ण रूढ़िवादी धर्मों को अस्वीकार कर दिया।
तुलसीदास और सूरदास जैसे कुछ अन्य संतों ने उस समय समय विघमान विश्वासों तथा पद्धतियों को स्वीकार करते हुए उन्हें सब की पहुँच में लाने का प्रयत्न किया। असम के शंकरदेव ने विष्णु की भक्ति पर बल दिया। इस पंरपरा में दादू, रविदास और मीराबाई जैसे संत भी शामिल थे।
कबीर – पंद्रहवी-सोलहवीं सदी में एक अत्यधिक प्रभावशाली संत थे। कबीर, निराकार परमेश्वर में विश्वास रखते थे। उन्होंने यह उपदेश दिया कि भक्ति के माध्यम से ही मोक्ष यानी मुक्ति प्राप्त हो सकती है। हिंदू तथा मुसलमान दोनों लोग उनके अनुयायी हो गए।
बाबा गुरु नानक – कबीर की अपेक्षा बाबा गुरु नानक (1469-1539) तलवंडी (पाकिस्तान में ननकाना साहब) में जन्म लेने वाले बाबा गुरु नानक ने करतारपुर में एक केंद्र स्थापित करने से पहले कई यात्राएँ की। धर्मिक कार्यों के लिए जो जगह नियुक्त की थी, उसे ‘धर्मसाल‘ कहा गया आज इसे गुरुद्वारा कहते है। लंगर की शुरुआत की सिक्खों के पवित्र ग्रंथ साहब के रूप में जाना जाता है।
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