Home Last Doubt किन्हीं दो पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए: सामाजिक धार्मिक आंदोलन एवं भारतीय पुनर्जागरण

किन्हीं दो पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए: सामाजिक धार्मिक आंदोलन एवं भारतीय पुनर्जागरण

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किन्हीं दो पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए: सामाजिक धार्मिक आंदोलन एवं भारतीय पुनर्जागरण

उत्तर-

1. सामाजिक धार्मिक आंदोलन एवं भारतीय पुनर्जागरण

परिचय पुनर्जागरण को अंग्रेजी भाषा में रिनेसा कहा गया है या यों कहे कि अग्रेजी भाषा में रिनेसा शब्द का पुनर्जागरण हिन्दी रूपान्तर है। यह मूत रूप से फ्रांसीसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है। “फिर से जागना” आधुनिक युग का प्रारम्भ पुनर्जागरण से प्रारम्भ होता है। किन्तु हम यहां पुनजगित भारत की बात कर रहे। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलने ने जन आन्दोलन का रूप धारण कर लिया था राजाराम मोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का जनक कहा जाता है ब्रह्मसमाज की स्थापना

राजा राममोहन राय आधुनिक शिक्षा के समर्थक थे तथा उन्होंने गणित एवं विज्ञान पर अनेक लेख तथा पुस्तकें लिखीं। 1821 में उन्होंने ‘यनीटेरियन एसोसिएशन की स्थापना की हिन्दू समाज की कुरीतियों के घोर विरोधी होने के कारण 1828 में उन्होंने ब्रह्म समाज नामक एके नये प्रकार के समाज की स्थापना की। 1805 में राजा राममोहन राय बंगाल में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में सम्मलित हुए और 1814 तक वे इसी कार्य में लगे रहे। नौकरी से अवकाश प्राप्त करके वे कलकत्ता में स्थायी रूप से रहने लगे और उन्होंने पूर्ण रूप से अपने को जनता की सेवा में लगाया। 1814 में उन्होंने आत्मीय सभा की आरम्भ किया। 20 अगस्त, 1828 में उन्होंने ब्रह्मसमाज की स्थापना की। 1831 में एक विशेष कार्य के सम्बंध में दिल्ली के मंगल सम्राट के पक्ष का समर्थन करने के लिए इंग्लैंड गये। वे उसी कार्य में व्यस्त थे कि ब्रिस्टल में 27 सितंबर, 1833 को उनका देहान्त हो गया उन्हें मंगल सम्राट की ओर से ‘राजा’ की उपाधि दी गयी अपने सब कार्यों में राजा राममोहन राय को स्वदेश प्रेम अशिक्षितों और निर्धनों के लिए अत्यधिक सहानुभूति की भावना थी अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह के सम्भव होने के कारण उन्होंने अपने देशवासियों में राजनीतिक जागृति की भावना को प्रोत्साहित करने के लिए जनमत को शिक्षित किया। उन्होंने सम्भव उपायों से लोगों की नैतिक उन्नति के यथासम्भव प्रयत्न किए।

धार्मिक सुधारक

राजा राममोहन राय एक धार्मिक सुधारक तथा सत्य के अन्वेषक थे। सभी धर्मों के अध्ययन से वे इस परिणाम पर पहुंचे कि सभी धर्मों में अद्वैतवाद सम्बधी सिद्धांतों का प्रचलन है। मुसलमान उन्हें मुसलमान समझते थे, ईसाई उन्हें ईसाई समझते थे, अद्वैतवादी उन्हें अद्वैतवाती मानते थे तथा हिन्दू उन्हें वे स्वीकार करते थे। वे सब धर्मों की मौलिक सत्यता तथा एकती में विश्वास करते थे।

सती प्रथा

राजा राम मोहन राय के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी सती प्रथा का निवारण। उन्होंने ही अपने अथक प्रयासों से सरकार द्वारा इस कुप्रथा को ग़ैर-क़ानूनी दण्डनीय घोषित करवाया। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा को मिटाने के लिए प्रयत्न किया। उन्होंने इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध निरन्तर आन्दोलन चलाया । यह आन्दोलन समाचार पत्रों तथा मंच दोनों माध्यमों से चला। इसका विरोध इतना अधिक था कि एक अवसर पर तो उनका जीवन ही खतरे में था। वे अपने शत्रुओं के हमले से कभी नहीं घबराये। उनके पूर्ण और निरन्तर समर्थन का ही प्रभाव था, जिसके कारण लॉर्ड विलियम बेण्टिक 1829 में सती प्रथा को बन्द कराने में समर्थ हो सके। जब कट्टर लोगों ने इंग्लैंड में ‘प्रिवी कॉउन्सिल’ में प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया, तब उन्होंने भी अपने प्रगतिशील मित्रों और साथी कार्यकर्ताओं की ओर से ब्रिटिश संसद के सम्मुख अपना विरोधी प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया। उन्हें प्रसन्नता हुई जब ‘प्रिवी कॉउन्सिल’ ने ‘सती प्रथा’ के समर्थकों के प्रार्थना पत्र को अस्वीकृत कर दिया। सती प्रथा के मिटने से राजा राममोहन राय संसार के मानवतावादी सुधारकों की सर्वप्रथम पंक्ति में आ गये।

आलोचना

इस धार्मिक समाज ने मूर्तिपूजा की आलोचना की और सती, बाल विवाह आदि जैसी सामाजिक बुराइयों की निंदा की और उन्होंने मानवीय गरिमा पर बहुत जोर दिया। उन्होंने अवतारों में विश्वास को त्याग दिया और जाति व्यवस्था के खिलाफ थे। ब्रह्म समाज का एजेंडा हिंदू धर्म को शुद्ध करना और एकेश्वरवाद का प्रचार करना था। मानवतावाद पर बल दिये जाने के कारण धर्म तथा जातिगत आधार पर विभेद तथा छुआछूत की भावना में कमी आई और एकता की भावना में वृद्धि हुई।

निष्कर्ष

राजा राम मोहन राय ने निष्कर्ष निकाला कि धार्मिक सुधार, सामाजिक सुधार और राजनीतिक आधुनिकीकरण दोनों हैं। राम मोहन का मानना था कि प्रत्येक पापी को अपने पापों के लिये प्रायश्चित करना चाहिये और यह आत्म शुद्धि और पश्चाताप के माध्यम से किया जाना चाहिये न कि आडंबर और अनुष्ठानों के माध्यम से स्पष्ट है कि पुनर्जागरण से प्राचीन प्रेरणाओं पर आधारित एक नया प्रयोग शुरू हुआ, जिसमें सामंजस्य एवं मौलिकता थी। मनुष्य के सामाजिक मूल्य की पुनर्प्रतिष्ठा शुरू हुई। वास्तव में पुनर्जागरण एक सन्धिकाल था जिसमें प्राचीन एवं आधुनिक काल दोनों की विशेषताएँ मौजूद थीं।

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