NCERT Solutions Class 7th History Chapter – 5 जनजातियाँ, खानाबदोश और एक जगह बसे हुए समुदाय (Tribes, Nomads and Settled Communities)
Textbook | NCERT |
Class | 7th |
Subject | Social Science (इतिहास) |
Chapter | 5th |
Chapter Name | जनजातियाँ, खानाबदोश और एक जगह बसे हुए समुदाय (Tribes, Nomads and Settled Communities) |
Category | Class 7th Social Science (इतिहास) |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NCERT Solutions Class 7th History Chapter – 5 जनजातियाँ, खानाबदोश और एक जगह बसे हुए समुदाय (Tribes, Nomads and Settled Communities) Notes in Hindi शासकों और इमारतों क्या है?, पितरा दूरा क्या है कक्षा 7?, पिएत्रा ड्यूरा क्लास 7 शॉर्ट आंसर क्या है?, भारत में पिएत्र ड्यूरा की शुरुआत किसने की थी?, पिएत्र ड्यूरा का आविष्कार किसने किया था?, एक मंदिर एक राजा के महत्व को कैसे दर्शाता है?, पिएत्रा ड्यूरा क्लास 3 क्या है?, पिएत्र क्या है?, आर्किटेक्चर का ट्रैबीट सिद्धांत आर्कुएट संक्षिप्त उत्तर से कैसे भिन्न है?, राजनीतिक शक्ति और वास्तुकला वर्ग 7 के बीच क्या संबंध है?, मध्ययुगीन भारत में कौन सी स्थापत्य शैली उभरी?, कम उम्र के दौरान वास्तुकला क्या हैं?, बंबई के संदर्भ में वास्तुकला की किस शैली ने भारतीय वास्तुकला में योगदान दिया?, वास्तुकला का जनक कौन है?, वास्तुकला कितने प्रकार के होते हैं?, वास्तुकला के जनक कौन थे? इस अध्यये के Notes को पढ़ेंगे |
NCERT Solutions Class 7th History Chapter – 5 जनजातियाँ, खानाबदोश और एक जगह बसे हुए समुदाय (Tribes, Nomads and Settled Communities)
Chapter – 5
जनजातियाँ, खानाबदोश और एक जगह बसे हुए समुदाय
Notes
बड़े शहरों से परे जनजातीय समाज – अलबत्ता, दूसरे तरह के समाज भी उस समय मौज़ूद थे। उपमहाद्वीप के कई समाज ब्राह्मणों द्वारा सुझाए गए सामाजिक नियमों और कर्मकांडों को नहीं मानते थे और न ही वे कई असमान वर्गों में विभाजित थे। अकसर ऐसे समाजों को जनजातियाँ कहा जाता रहा है।
जनजातीय लोग कौन थे?
समकालीन इतिहासकारों और मुसाफ़िरों ने जनजातियों के बारे में बहुत कम जानकारी दी है। कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो जनजातीय लोग भी लिखित दस्तावेज़ नहीं रखते थे। लेकिन समृद्ध रीति-रिवाजों और वाचिक मौखिक परंपराओं का वे संरक्षण करते थे। ये परंपराएँ हर नयी पीढ़ी को विरासत में मिलती थीं। आज के इतिहासकार जनजातियों का इतिहास लिखने के लिए इन वाचिक परंपराओं को इस्तेमाल करने लगे हैं।
जनजातीय लोग भारत के लगभग हर क्षेत्र में पाए जाते थे। किसी भी एक जनजाति का इलाका और प्रभाव समय के साथ-साथ बदलता रहता था। कुछ शक्तिशाली जनजातियों का बड़े इलाकों पर नियंत्रण था। पंजाब में खोखर जनजाति तेरहवीं और चौदहवीं सदी के दौरान बहुत प्रभावशाली थी। यहाँ बाद में गक्खर लोग ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो गए। उनके मुखिया, कमाल खान गक्खर को बादशाह अकबर ने मनसबदार बनाया था। मुल्तान और सिंध में मुग़लों द्वारा अधीन कर लिए जाने से पहले लंगाह और अरघुन लोगों का प्रभुत्व अत्यंत विस्तृत क्षेत्र पर था। उत्तर-पश्चिम में एक और विशाल
एवं शक्तिशाली जनजाति थी- बलोच। ये लोग अलग-अलग मुखियों वाले कई छोटे-छोटे कुलों में बँटे हुए थे। पश्चिमी हिमालय में गडड़ी गड़रियों की जनजाति रहती थी। उपमहाद्वीप के सुदूर उत्तर-पूर्वी भाग पर भी नागा, अहम और कई दूसरी जनजातियों का पूरी तरह प्रभुत्वथा।
खानाबदोश और घुमंतू लोग कैसे रहते थे – खानाबदोश चरवाहे अपने जानवरों के साथ दूर-दूर तक घूमते थे। उनका जीवन दध और अन्य पशुचारी उत्पादों पर निर्भर था। वे खेतिहर गृहस्थों से अनाज, कपड़े, बर्तन और ऐसी ही चीज़ों के लिए ऊन, घी इत्यादि का विनिमय भी करते थे। कुछ खानाबदोश अपने जानवरों पर सामानों की ढुलाई का काम भी करते थे । एक जगह से दूसरी जगह आते-जाते वे सामानों की खरीद-फ़रोख्त करते थे।
बंजारा लोग सबसे महत्त्वपूर्ण व्यापारी खानाबदोश थे। उनका कारवाँ टांडा’ कहलाता था। सुलतान अलाउद्दीन ख़लजी (अध्याय 3) बंजारों का ही इस्तेमाल नगर के बाज़ारों तक अनाज की ढुलाई के लिए करते थे। बादशाह जहाँगीर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि बंजारे विभिन्न इलाकों से अपने बैलों पर अनाज ले जाकर शहरों में बेचते थे । सैन्य अभियानों के दौरान वे मुग़ल सेना के लिए खाद्यान्नों की ढुलाई का काम करते थे। किसी भी विशाल सेना के लिए 1,00,000 बैल अनाज ढोते होंगे।
बदलता समाज – नयी जातियाँ और श्रेणियाँ – जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था और समाज की ज़रूरतें बढ़ती गईं, नए हुनर वाले `लोगों की आवश्यकता पड़ी। वर्णों के भीतर छोटी-छोटी जातियाँ उभरने लगीं। उदाहरण के लिए, ब्राह्मणों के बीच नयी जातियाँ सामने आईं। दूसरी ओर, कई जनजातियों और सामाजिक समूहों को जाति – विभाजित समाज में शामिल कर लिया गया और उन्हें जातियों का दर्जा दे दिया गया। विशेषज्ञता प्राप्त शिल्पियों-सुनार, लोहार, बढ़ई और राजमिस्त्री – को भी ब्राह्मणों द्वारा जातियों के रूप में मान्यता दे दी गई। वर्ण की बजाय जाति, समाज के संगठन का आधार बनी।
निष्कर्ष- जिस युग की हम चर्चा करते आए हैं, उस युग के दौरान उपमहाद्वीप में काफ़ी सामाजिक परिवर्तन हुआ। वर्ण आधारित समाज और जनजातीय लोग एक-दूसरे के साथ लगातार संपर्क में आते रहे। इस आदान-प्रदान ने दोनों तरह के समाजों में अनुकूलन और बदलाव की प्रक्रिया चलाई। बहुत-सी विभिन्न प्रकार की जनजातियाँ थीं और उन्होंने विभिन्न प्रकार की जीविकाएँ अपनाईं। कालांतर में उनमें से कई जाति आधारित समाज में शामिल हो गईं। लेकिन कईयों ने जाति व्यवस्था और सनातनी हिंदू धर्म, दोनों को ही नकार दिया। कुछ जनजातियों ने सुसंगठित प्रशासनिक व्यवस्था वाले विस्तृत राज्यों की स्थापना की । इस तरह वे राजनीतिक रूप से ताकतवर हो गए। इसने उन्हें बृहत्तर और अधिक जटिल राज्यों और साम्राज्यों के साथ संघर्ष की स्थिति में ला खड़ा किया।
अधिकारियों द्वारा दो इमारतों का निर्माण हुआ – आठवीं और अठारहवीं शताब्दियों के बीच राजाओं और उनके अधिकारियों द्वारा दो तरह की इमारतों का निर्माण हुआ था।
(i) पहली तरह की इमारतें सुरक्षित और संरक्षित थीं। ये इमारतें इस दुनिया और दूसरी दुनिया में आराम फरमाने की भव्य जगहें थीं, जैसे किले, महल और मकबरे।
(ii) दूसरी तरह की इमारतें जनता के उपयोग के लिए बनाई जाती थीं, जैसे मंदिर, मसजिद, हौज, कुँए, सराय और बाजार।
राजा से यह उम्मीद की जाती थी कि वह अपनी प्रजा की देखभाल करेगा। प्रजा की उम्मीदों पर खरा उतरने के खयाल से राजा ऐसी इमारतें बनवाते थे। व्यापारी और अन्य लोग भी इस तरह की इमारतें बनवाते थे। लेकिन यदि घरेलू स्थापत्य की बात की जाए तो उनके अवशेष अठारहवीं शताब्दी से ही मिलने शुरु हो जाते हैं, जैसे कि विशाल हवेलियाँ।
अधिकारियों द्वारा दो इमारतों का निर्माण हुआ – आठवीं और अठारहवीं शताब्दियों के बीच राजाओं और उनके अधिकारियों द्वारा दो तरह की इमारतों का निर्माण हुआ था।
(i) पहली तरह की इमारतें सुरक्षित और संरक्षित थीं। ये इमारतें इस दुनिया और दूसरी दुनिया में आराम फरमाने की भव्य जगहें थीं, जैसे किले, महल और मकबरे।
(ii) दूसरी तरह की इमारतें जनता के उपयोग के लिए बनाई जाती थीं, जैसे मंदिर, मसजिद, हौज, कुँए, सराय और बाजार।
राजा से यह उम्मीद की जाती थी कि वह अपनी प्रजा की देखभाल करेगा। प्रजा की उम्मीदों पर खरा उतरने के खयाल से राजा ऐसी इमारतें बनवाते थे। व्यापारी और अन्य लोग भी इस तरह की इमारतें बनवाते थे। लेकिन यदि घरेलू स्थापत्य की बात की जाए तो उनके अवशेष अठारहवीं शताब्दी से ही मिलने शुरु हो जाते हैं, जैसे कि विशाल हवेलियाँ।
अभियांत्रिकी कौशल तथा निर्माण कार्य – एक छोटे घर की छत बनाने के लिए शहतीरों या पत्थर की पट्टियों का इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन जब एक विशाल अधिरचना (सुपस्ट्रक्चर) बनाना हो शहतीरों से काम नहीं चलता है।
(ii) चापकार – वास्तुशिल्प की इस शैली में दरवाजों और खिड़कियों के ऊपर की अधिरचना का भार मेहराबों (आर्च) पर डाला जाता है। बारहवीं शताब्दी में भारत में इस शैली के इस्तेमाल की शुरुआत हुई थी।
इस दौरान निर्माण कार्य में चूना-पत्थर और सीमेंट का प्रयोग बढ़ गया। सीमेंट में पत्थर के टुकड़ों को मिलाने से कंकरीट बनती थी। कंकरीट के इस्तेमाल से विशाल ढ़ाँचों का निर्माण तेज और सरल हो गया।
मंदिर, मसजिद और हौज का निर्माण – मंदिर और मसजिद उपासना के स्थल होते हैं। इसलिए इनका निर्माण बड़े सुंदर तरीके से किया जाता था। उपासना के ये स्थल अपने संरक्षक की शक्ति, धन-वैभव और भक्ति भाव का प्रदर्शन भी करते थे।
सभी विशाल मंदिर राजाओं द्वारा बनवाए गए थे। मंदिर के लघु देवता, शासक के सहयोगियों और अधीनस्थों के देवी-देवता थे। इस तरह से मंदिर, शासक और उसके सहयोगियों द्वारा बनाए गए संसार का एक लघु रूप बन जाता था।
राजा राजराजादेव ने राजराजेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया था। राजा और भगवान, दोनों के नाम मिलते जुलते हैं। इसका मतलब यह है कि राजा को यह नाम शुभ लगता होगा और राजा अपने आपको भगवान के रूप में दिखाना चाहता होगा।
मुसलमान सुलतान और बादशाह खुद को भगवान के अवतार होने का दावा तो नहीं करते थे लेकिन फारसी दरबारी इतिहासों में सुलतान को अल्लाह की परछाई के रूप दिखाया गया है। दिल्ली की एक मसजिद के अभिलेख से यह मालूम होता है कि अल्लाह ने अलाउद्दीन को शासक के रूप में इसलिए चुना था क्योंकि उसमें मूसा और सुलेमान के गुण मौजूद थे। मूसा और सुलेमान अतीत के महान विधिकर्ताओं में गिने जाते हैं।
हर राजवंश का राजा सत्ता में आने पर अपने शासक होने के नैतिक अधिकार पर जोर डालना चाहता था। मंदिर या मसजिद को बनवाकर शासक यह दिखाने की कोशिश करता था कि ईश्वर के साथ उसके मजबूत संबंध हैं। विद्वानों और धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को आश्रय दिया जाता था। राजधानियों और नगरों को महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केंद्र बनाने कोशिश होती थी। हौजों और जलाशयों का निर्माण होता था ताकि लोगों को बहुमूल्य पानी मिल सके। इन सब कामों से राजा के शासन को ख्याति मिलती थी।
मंदिरों को क्यों नष्ट किया गया
राजा, मंदिरों का निर्माण अपनी शक्ति,धन-संपदा और ईश्वर के प्रति निष्ठा के प्रदर्शन हेतु करते थे। ऐसे में यह बात आश्चर्यजनक नहीं लगती है, जब उन्होंने एक दूसरे के राज्यों पर आक्रमण किया, तो उन्होंने प्रायः ऐसी इमारतों पर निशाना साधा। नवीं शताब्दी के आरंभ में जब पांड्यन राजा श्रीमर श्रीवल्लभ ने श्रीलंका पर आक्रमण कर राजा सेन प्रथम ( 831-851 ) को पराजित किया था, उसके विषय में बौद्ध भिक्षु व इतिहासकार धम्मकित्ति ने लिखा है कि, “ सारी बहुमूल्य चीजें वह ले गया.. रत्न महल में रखी स्वर्ण की बनी बुद्ध की मूर्ति… और विभिन्न मठों में रखी सोने की प्रतिमाओं – इन सभी को उसने ज़ब्त कर लिया।
सिंहली शासक के आत्माभिमान को इससे जो आघात लगा था, उसका बदला लिया जाना स्वाभाविक था। अगले सिंहली शासक सेन द्वितीय ने अपने सेनापति को, पांड्यों की राजधानी मदुरई पर आक्रमण करने का आदेश दिया। बौद्ध इतिहासकार ने लिखा है कि इस अभियान में बुद्ध की स्वर्ण मूर्ति को ढूँढ निकालने तथा वापस लाने हेतु महत्त्वपूर्ण प्रयास किए गए।
इसी तरह ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में जब चोल राजा राजेंद्र प्रथम ने अपनी राजधानी में शिव मंदिर का निर्माण करवाया था तो उसने पराजित शासकों से ज़ब्त की गई उत्कृष्ट प्रतिमाओं से इसे भर दिया। एक अधूरी सूची में निम्न चीज़ें सम्मिलित थीं। चालुक्यों से प्राप्त एक सूर्य पीठिका, एक गणेश मूर्त्ति तथा दुर्गा की कई मूत्तियाँ, पूर्वी चालुक्यों से प्राप्त एक नंदी मूर्ति, उड़ीसा के कलिंगों से प्राप्त भैरव (शिव का एक रूप ) तथा भैरवी की एक प्रतिमा तथा बंगाल के पालों से प्राप्त काली की मूर्त्ति।
बाग, मकबरे तथा किले – मुग़लों के अधीन वास्तुकला और अधिक जटिल हो गई। बाबर, हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर और विशेष रूप से शाहजहाँ, साहित्य, कला और वास्तुकला में व्यक्तिगत रुचि लेते थे। अपनी आत्मकथा में बाबर ने औपचारिक बागों की योजनाओं और उनके बनाने में अपनी रुचि का वर्णन किया है। अकसर ये बाग दीवार से घिरे होते थे तथा कृत्रिम नहरों द्वारा चार भागों में विभाजित आयताकार अहाते में स्थित थे। औपचारिक बागों की योजनाओं और उनके बनाने तथा खाका तैयार करने में बाबर ने अपनी रुचि का वर्णन किया है।
क्षेत्र व साम्राज्य – आठवीं व अठारहवीं शताब्दियों के बीच जब निर्माण संबंधी गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई, तो विभिन्न क्षेत्रों के बीच विचारों का भी पर्याप्त आदान-प्रदान हुआ। एक क्षेत्र की परंपराएँ दूसरे क्षेत्र द्वारा अपनाई गईं। उदाहरण के लिए, विजयनगर में राजाओं की गजशालाओं पर बीजापुर और गोलकुंडा जैसी आस-पास की सल्तनतों की वास्तुकलात्मक शैली का बहुत प्रभाव पड़ा था। मथुरा के निकट स्थित वृंदावन में बने मंदिरों की वास्तुकलात्मक शैली फतेहपुर सीकरी के मुग़ल महलों से बहुत मिलती-जुलती थी।
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