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NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 6 औपनिवेशिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक जागृति (Religious and Social Awakening in Colonial India) Notes in Hindi

March 15, 2023
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    NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 6 औपनिवेशिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक जागृति (Religious and Social Awakening in Colonial India)

    TextbookNIOS
    Class10th
    Subjectसामाजिक विज्ञान (Social Science)
    Chapter6th
    Chapter Nameऔपनिवेशिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक जागृति (Religious and Social Awakening in Colonial India)
    CategoryClass 10th सामाजिक विज्ञान
    MediumHindi
    SourceLast Doubt

    NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 6 औपनिवेशिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक जागृति (Religious and Social Awakening in Colonial India) Notes in Hindi क्या निओस पास करना आसान है, क्या निओस के बाद नौकरी मिल सकती है, सीबीएसई से एनआईओएस आसान है, कैन एनआईओएस स्टूडेंट बी आईएएस, क्या मैं निओस में सिर्फ 1 एग्जाम दे सकता हूं, क्या एनआईओएस सीबीएसई के लिए मान्य है, कैन एनआईओएस स्टूडेंट दे आईआईटी, सबसे अच्छा सीबीएसई या निओस कौन सा है, वैलिड इन आर्मी, क्या मैं अपने एनआईओएस अंक सीबीएसई में स्थानांतरित कर सकता हूं, क्या निओस मार्किंग स्ट्रिक्ट है, निओस परीक्षा में फेल होने पर क्या होता है, क्या मैं निओस में 4 सब्जेक्ट ले सकता हूं, निओस का पेपर आसान है या कठिन, क्या मैं बिना प्रैक्टिकल के निओस परीक्षा पास कर सकता हूं, क्या निओस अंक देता है, क्या एनआईओएस एमबीबीएस के लिए मान्य है, क्या निओस के पास गुंजाइश है, क्या निओस के छात्र विदेश जा सकते हैं आदि आगे पढ़े।

    NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 6 औपनिवेशिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक जागृति (Religious and Social Awakening in Colonial India)

    Chapter – 6

    औपनिवेशिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक जागृति

    Notes

    19वीं सदी के प्रारंभ के समाज

    आज जो भारतीय समाज आप देखते हैं वह आरंभिक 19वीं सदी से बहुत भिन्न था। समाज की प्रगति दो मुख्य कारणों से रूकी हुई थी। एक कारण था शिक्षा का अभाव और दूसरा था महिलाओं की अधीनता। भारतीय समाज के कई वर्ग रूढिवादी थे और उन प्रथाओं को मानते थे जो मानवीय विचारों के विरूद्ध थे।

    शिक्षा का अभाव

    उस समय अधिकांश लोग अशिक्षित थे। संपूर्ण संसार में शिक्षा बहुत थोड़े से लोगों के पास ही थी। भारत में भी शिक्षा उच्चतम जाति के पुरूषों के ही पास थी। भारत में वेद जो संस्कृत में लिखे गये थे, का प्रयोग ब्राह्मण वर्ग ने ही किया था। यह भाषा केवल वे ही जानते थे । धार्मिक ग्रंथों पर भी उन लोगों का नियंत्रण था। उन्होंने अपने को लाभान्वित करने के लिए इनका प्रयोग किया। उन्होंने महंगे अनुष्ठान, बलिदान और जन्म या मृत्यु के बाद होने वाले अनुष्ठानों को प्रोत्साहन दिया। मृत्यु के बाद एक बेहतर जीवन जीने के विश्वास में प्रत्येक व्यक्ति को इन अनुष्ठानों का करना अनिवार्य था। क्योंकि कोई नहीं जानता था कि शास्त्रों में क्या लिखा है। कोई भी ब्राह्मण, पुजारियों से प्रश्न नहीं करता था। इसी तरह यूरोप में भी बाइबिल लैटिन भाषा में लिखी गई थी। यह चर्च की भाषा थी और उनके पादरी इन धार्मिक ग्रंथों की अपने अनुसार व्याख्या करते थे । यही वजह है कि एक प्रतिक्रिया के रूप में, यूरोप के पुनर्जागरण तथा सुधार आंदोलन को देखा गया, जिसके विषय में आप पहले इस पुस्तक में पढ़ चुके हैं। यहां तक कि स्वतंत्रता, समानता, आजादी तथा मानव अधिकारों जैसे विचार को यूरोप में विभिन्न क्रांतियों के रूप में सामने आये ।

    महिलाओं की स्थिति

    लड़कियों और महिलाओं के विकास के लिए आज उनके पास बेहतर अवसर है। अपने अध्ययन और घर के बाहर काम करने के लिए वे अधिक स्वतंत्र भी हैं। लेकिन 19वीं सदी में अधिकांश महिलाओं का जीवन बहुत कठिन था । कुछ सामाजिक प्रथाऐं जैसे कन्या बाल-विवाह, सती प्रथा, भ्रूण हत्या और बहुविवाह आदि भारतीय समाज में प्रचलित थीं । कन्या भ्रूण हत्या एवं कन्या हत्या बहुत ही आम बात थी। जो लड़कियां बच जाती थी अक्सर उनकी बहुत कम उम्र में शादी कर दी जाती थी। बड़ी उम्र के पुरूषों से भी शादी (विवाह) कर दी जाती थी। बहुविवाह यानि कि पुरूष की एक पत्नी से ज्यादा पत्नी रखना कई धर्म तथा जातियों में स्वीकार किया जाता था। देश के कुछ भागों में सती प्रथा का प्रचलन था जिसमें एक विधवा औरत को मजबूर किया जाता था कि वह अपने पति की चिता पर खुद को जला दें। जो महिलाएं सती प्रथा से बच जाती थी वे एक बहुत ही दुखी जीवन जीती थी। महिलाओं का संपत्ति में भी कोई अधिकार नहीं था। उनको शिक्षा भी नहीं दी जाती थी । इस प्रकार, सामान्य जीवन में महिलाओं की समाज में अधीनस्थ स्थिति होती थी । बाह्य आक्रमणें तथा परिवार के सम्मान में कमी होने के डर ने इन प्रथाओं को बढ़ावा दिया।

    दहेज तथा पैतृक संपत्ति में साझेदारी से उनकी स्थिति और भी खराब हो गई। यह स्पष्ट था कि कुछ प्रथाओं और अंधविश्वासों के कारण भारतीय समाज की प्रगति रूकी हुई थी। समाज लाने के लिए लोगों के सामाजिक और धार्मिक जीवन में परिवर्तन लाने की जरूरत थी।

    परिवर्तन की इच्छाः सामाजिक-धार्मिक जागृति

    आपके अनुसार लोगों में भेदभाव तथा असमानता के विरूद्ध जागृति के क्या कारण हो सकते हैं? राजाराम मोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, स्वामी दयानंद सरस्वती, ज्योतिबा फूले, सर सैयद अहमद खान और पंडिता रमावाई जैसे कई सुधारक समझ गये थे कि अज्ञानता और समाज में पिछड़ापन ही प्रगति और विकास में बाधा के लिए जिम्मेदार थे। इस बात का उनको अहसास तब हुआ जब वे यूरोपियों के साथ संपर्क में आये और पाया कि उनका यह जीवन दुनिया के अन्य भागों से बहुत अलग हैं। ब्रिटिश मिशनरियों ने जब ईसाई धर्म का प्रसार शुरू किया तब उन्होंने हमारे सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं की आलोचना की तथा उन पर कई प्रश्न उठाये। समाज में सुधार लाने की इच्छा इतनी प्रबल थी कि परम्परागत रूढ़िवादी भारतीयों के विरोध तथा चुनौतियों के बावजूद इन समाज सुधारकों द्वारा समाज में वांछित परिवर्तन लाने हेतु अनेक आंदोलन शुरू किये।

    स्वामी दयानंद सरस्वती और राजा राम मोहन राय जैसे प्रबुद्ध लोगों द्वारा ही इसे संभव बनाया गया। उन्होंने धार्मिक ग्रंथ का अध्ययन किया और प्रचलित धार्मिक और समाजिक प्रथाओं की आलोचना की। उनके अनुसार, समाज पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए समानता और स्वतंत्रता की अवधारणा चाहिए और यह महिलाओं के बीच विशेष रूप से आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा के प्रसार से ही संभव था। यह आंदोलन “सामाजिक-धार्मिक आंदोलन” के नाम से जाना जाने लगा क्योंकि सुधारकों ने महसूस किया कि धर्म में सुधार के बिना समाज में कोई भी परिवर्तन संभव नहीं है। हमे आगे पढ़ने से यह पता लगेगा कि क्यों शिक्षा एवं अन्य सुविधाएं समाज में केवल उच्च वर्ग के लिए उपलब्ध थे।

    जाति व्यवस्था

    प्राचीन काल में भारतीय समाज में जाति व्यवस्था मूलतः व्यवसाय पर आधारित थी। जैसे जैसे समय बीतता गया उच्च जाति के द्वारा धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या और निम्न जाति की धार्मिक ग्रंथों से दूरी के कारण कई अंधविश्वासी प्रथाओं का प्रचलन हुआ। इसके परिणामस्वरूप, उच्चजाति के हाथों में सत्ता आ गई और निम्न जाति के शोषण की शुरूआत हो गई।

    हिन्दू समाज वर्ण व्यवस्था ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र पर आधारित था । इस व्यवस्था के अनुासर लोगों को उनके व्यवसाय के आधार पर विभाजित किया गया था।

    जो लोग ईश्वर की प्रार्थना और पूजा पाठ के काम में लगे हुए थे उन्हें ब्राह्मणों के रूप में वर्गीकृत किया गया। जो युद्ध में लगे हुए थे वे उन्हे क्षत्रिय। जिनका व्यवसाय कृषि तथा व्यापार था वे वैश्य के रूप में जाने जाते थे और जो ऊपरी तीनों वर्णों की सेवा कार्य में लगे थे वे शुद्र कहे जाते थे यह वर्ण व्यवस्था जो विशुद्ध रूप से व्यवसाय पर आधारित थी बाद में वंशानुगत हो गई। किसी एक विशेष जाति में पैदा हुआ व्यक्ति अपनी जाति को बदल नहीं सकता था यद्यपि वह अपने काम को बदल सकता है। इससे समाज में असमानताओं ने जन्म लिया। इससे निम्न जातियों का शोषण होने लगा। जिसके कारण जाति व्यवस्था एक स्वच्छ लोकतांत्रिक और प्रगतिशील समाज को बनाने में बाधक हो गई। समाज में जन्मी इन कुरीतियों के विरूद्ध कई समाज सुधारक सामने आए। कई समाज संगठन जैसे ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन तथा सुधारक जैसे ज्योतिबा फूले, पंडिता रमाबाई, नारायण गुरू, पेरियार, विवेकानंद, महात्मा गांधी तथा और कई दूसरों ने इन सबका दृढ़ता से विरोध किया। अधिकांश सुधारकों ने जाति प्रथा को वेदों और धर्मग्रंथों के विरूद्ध माना। उनके अनुसार जाति व्यवस्था, अतार्किक और अवैज्ञानिक थी। उन्होंने महसूस किया कि यह मानवता के बुनियादी नियमों के खिलाफ थी। समाज सुधारकों के अथक और अनवरत प्रयासों ने लोगों के मदद की जिससे एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता जागृत हुई।

    प्रचलित धार्मिक प्रथाएँ

    अधिकांशतः सामाजिक प्रथाएँ धर्म के नाम पर की जाती थी। इसलिए सामाजिक सुधार, धार्मिक सुधार के बिना कोई अर्थ नहीं रखता था । हमारे सामाजिक सुधारकों को भारतीय परंपरा और दर्शन का गहन ज्ञान था और शास्त्रों का भी अच्छा ज्ञान था। वे पश्चिमी विचारों और लोकतंत्र और समानता के सिद्धांतों के साथ सकारात्मक भारतीय मूल्यों का मिश्रण करने में सक्षम थे। इस ज्ञान के आधार पर उन्होंने धर्म में कठोरता तथा अंधविश्वासी प्रथाओं को चुनौती दी। उन्होंने शास्त्रों से उद्धृत करके बताया कि उन्नीसवीं सदी के दौरान प्रचलित प्रथाओं को किसी भी प्रकार की मंजूरी नहीं मिली है। प्रबुद्ध और बुद्धिवादी लोगों ने लोकप्रचलित धर्म पर जो कि अंधविश्वासें से भरा पड़ा था तथा पुजारियों के हाथों शोषण का एक मंत्र बना हुआ था, पर अनेक प्रश्न उठाये। ये समाज सुधारक चाहते थे कि समाज तर्कसंगत और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को स्वीकार करे। उनका मानव गरिमा और सभी पुरूषों और महिलाओं की सामाजिक समानता के सिद्धांत में भी विश्वास था।

    शैक्षिक परिदृश्य

    19वीं सदी में, अनेक बच्चों, खासकर लड़कियों, को स्कूल नहीं भेजा जाता था। शिक्षा पारंपरिक पाठशालाओं, मदरसों, मस्जिदों और गुरूकुलों में प्रदान की जाती थी। धार्मिक शिक्षा के साथ संस्कृत, व्याकरण, गणित, धर्म तथा दर्शन जैसे विषयों को पढाया जाता था। विज्ञान और प्रौद्योगिकी की पाठयक्रम में कोई जगह नहीं थी। कई अंधविश्वासी मान्यताओं का समाज में अस्तित्व था। कुछ समुदायों में तो लड़कियों को शिक्षित करने की भी अनुमति नहीं थी। यह सोचा जाता था कि शिक्षित महिलाएं शादी के बाद जल्दी विधवा हो जाएगी। लेकिन वास्तविकता में शिक्षा और जागरूकता की कमी ही भारतीयों के बीच सामाजिक और धार्मिक पिछड़ेपन का मूल कारण थी। इसलिए यह महत्वपूर्ण था कि आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा दिया जाए।

    इसलिए हिन्दु, मुस्लिम, सिख या पारसी सभी सामाजिक-धार्मिक सुधारकों को विश्वास था कि आधुनिक शिक्षा ही हमारे समाज को जागरूक और आधुनिक बना सकती है। आधुनिक शिक्षा का प्रसार करना मुख्य उद्देश्य बन गया। वे मानते थे कि हमारे समाज को जागृत करने का शिक्षा ही एक प्रमुख प्रभावी उपकरण है।

    19वीं सदी में सामाजिक-धार्मिक सुधार

    19वीं सदी में कई भारतीय विचारक और सुधारक, समाज में सुधार लाने के लिए आगे आए। उनके मुताबिक समाज और धर्म आपस में जुड़े हुए थे। दोनों में सकारात्क विकास और देश के विकास को प्राप्त करने के लिए सुधार करने की जरूरत है। इसलिए हमारे सुधारकों ने भारतीय जनता को जगाने की पहल की। इन सुधारकों ने जागरूकता फैलाने के लिए कुछ संगठनों की स्थापना की जिसके बारे में आप अब आगे पढ़ेंगे। शिक्षा के क्षेत्र में इन सुधारकों का यह एक अन्य प्रमुख योगदान था।

    राजा राम मोहन राय

    राजा राम मोहन राय बंगाल के एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था उन्होंने कुरान, बाइबिल तथा हिन्दु ग्रंथों का गहराई के साथ अध्ययन किया था। उदार शिक्षा से उन्होंने विभिन्न संस्कृतियों और दर्शन के साथ उजागर किया था।

    उनको उस वक्त गहरा अवसाद हुआ जब उनकी अपने भाई की विधवा को सती प्रतिबद्ध के लिए मजबूर किया जा रहा था, उसकी दुर्दशा से उनपर असर पड़ा और उन्होंने इस सामाजिक प्रथा को खत्म करने का निश्चय कर लिया । उस समय उन्होंने अन्य अनुचित सामाजिक और धार्मिक प्रचलित प्रथाओं को चुनौती देने के लिए आंदोलनों का नेतृत्व किया। उन्होंने 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना की। सती प्रथा को चुनौती देने के लिए पहल करने वाले वह पहले व्यक्ति थे और जल्द ही यह उनके जीवनभर का धर्मयुद्ध बन गया। उन्होंने जनता की राय जुटाई और शास्त्रों के अर्थ दिखाये कि इस प्रथा को हिन्दू धर्म में कहीं भी कोई मंजूरी नहीं थी। इस प्रक्रिया में उनको रूढिवादी हिन्दुओं की नाराजगी और दुश्मनी का सामना करना पड़ा। भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल, सर विलियम वेनटीक ने इनका समर्थन किया। 1829 में एक कानून पारित किया गया। जिसमें सती प्रथा को अवैध और दंडनीय माना गया। उन्होंने वाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह की वकालत के लिए प्रयास किए।

    उन्होंने पूर्वी और पश्चिमी विचारों के संश्लेषण का प्रतिनिधित्व किया। धर्म शास्त्रों के वह अच्छे ज्ञानी थे। उन्होंने वेदों के महत्व की वकालत की, धर्म सुधार तथा सभी धर्मों के बीच मौलिक एकता को सही ठहराया उनका मत था कि हिन्दु ग्रंथों में एकेश्वरवाद की प्रथा जोर दिया गया था सभी प्रमुख प्राचीन ग्रंथों (एक ही पूजा) और बहुदेववाद (एक से अधिक भगवान में विश्वास) का विरोध किया गया है। उन्होंने मूर्ति पूजा की आलोचना की तथा अर्थहीन रिवाजों का खंडन किया।

    उन्होंने दृढता से अंग्रेजी भाषा की शिक्षा, साहित्य, वैज्ञानिक उन्नति प्रौद्योगिकी की भारत के आधुनिकीकरण के लिए वकालत की। उन्होंने कोलकाता में अपनी पैसा से एक अंग्रेजी स्कूल बनाया। यहां और विषयों के साथ यांत्रिकी और दर्शन जैसे विषय भी पढ़ाये गए। वेदांत कॉलेज 1825 में खोला गया था। इन्होंने राजा राम मोहन राय की सहायता से उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता में हिन्दू कॉलेज भी खोला।

    ईश्वर चन्द्र विद्यासागर

    एक महान विद्वान और सुधारक, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने सामाजिक सुधारों के लिए अपने पूरे जीवन को समर्पित कर दिया। 1856 में सबसे पहले हिन्दु विधवा पुनर्विवाह अधिनियम उनके अथक प्रयासों के कारण प्रस्तुत किया गया। उन्होंने बाल-विवाह तथा बहुविवाह के विरूद्ध अभियान भी चलाया। हालांकि वह खुद को धार्मिक नहीं मानते थे तथा वे धर्म के नाम पर किए गए सुधारों का विरोध भी करते थे।

    यद्यपि वे संस्कृत के विद्वान थे फिर भी उनका मन अच्छे पश्चिमी विचारों को अपनाने को तैयार था। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में प्रमुख योगदान दिया। उन्होंने संस्कृत एवं बंगला साहित्य को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने संस्कृत महाविद्यालय में पश्चिमी विचारों को भी पढ़ने को कहा तथा भारतीयों को पुराने विश्वासों को दूर करने एवं आधुनिक विचारों को अपनाने के लिए प्रेरित किया। उनके अनुसार महिलाओं को शिक्षित करके समाज में सुधार किया जा सकता है। इसी दिशा में उनके प्रयासों की प्रशंसा हुई। वह महिलाओं की शिक्षा के चैंपियन थे। उनकी मदद से बंगाल में लगभग 35 लड़कियों के स्कूल खोले गए। उनके प्रयासों के माध्यम से संस्कृत कॉलेज में गैर ब्राह्मण छात्रों का भी दाखिला किया गया।

    स्वामी दयानंद सरस्वती

    स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में उत्तर भारत में हिंदू धर्म को सुधारने के लिए आर्य समाज की स्थापना की। वे वेदों को त्रुटिरहित तथा समस्त ज्ञान का आधार मानते थे। उन्होंने सभी धार्मिक विचारों को जो वेदों से मतभेद रखते थे, उनको खारिज कर दिया। उनका मानना है कि हर व्यक्ति का अधिकार है वह भगवान से सीधे संपर्क रखें। उन्होंने शुद्धि आंदोलन शुरू कर दिया जो उन हिन्दुओं को वापस लाने के लिए था, जिन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म अपना लिया था। उनकी सत्यार्थ प्रकाश सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक थी।

    आर्य समाज ने सामाजिक सुधार की वकालत की और महिलाओं की दशा में सुधार के लिए काम किया। इन्होंने अस्पृश्यता और वंशानुगत जाति व्यवस्था के विरूद्ध कठोर लड़ाई की तथा सामाजिक समानता को आगे बढ़ाया। आर्य समाज की राष्ट्रीय आंदोलन में प्रमुख भूमिका रही जिसके द्वारा उन्होंने लोगो के बीच आत्म विश्वास तथा आत्म सम्मान की भावना का विकास किया।

    आर्य समाज की भूमिका जनता के बीच शिक्षा को बढ़ावा देने में सराहनीय थी। स्वामी दयानंद के अनुयायियों ने बाद में स्कूलों और कॉलेजों का एक नेटवर्क डी.ए.वी. आरंभ किया (दयानंद एंग्लो वैदिक)। जहां देश में वैदिक शिक्षाओं पर समझौता किए बिना पश्चिमी शिक्षा प्रदान की जाती है। उन्होंने संस्कृत और वैदिक शिक्षा के साथ अंग्रेजी और आधुनिक विज्ञान की शिक्षा को भी प्रोत्साहित किया।

    रामकृष्ण परमहंस एवं स्वामी विवेकानंद

    रामकृष्ण परमहंस (1836-1886) ने धर्मों की आवश्यक एकता और एक आध्यात्मिक जीवन जीने की जरूरत पर प्रकाश डाला। उनका मानना था कि संसार के विभिन्न धर्मों में भगवान तक पहुंचनेके लिए अलग-अलग रास्ते हैं। स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) उनके महत्वपूर्ण शिष्य थे।

    दुनिया के इतिहास में कुछ पुरूषों को ही अपने आप में विश्वास था। वह विश्वास भीतर देवत्व से मिलता है। आप कुछ भी कर सकते हैं। आप केवल असफल होते हैं जब आप प्रकट अनंत शक्ति के लिए प्रयास कम करते हैं। एक आदमी के रूप में या स्वयं में या एक राष्ट्र खूद विश्वास खो देता है तो मृत्यु आती है। पहले अपने आप में विश्वास करें और फिर भगवान में। स्वामी विवेकानंद

    विवेकानंद पहले आध्यात्मिक नेता थे जिन्होंने धार्मिक सुधारों से हट कर सोचा। उन्होंने महसूस किया कि भारतीय जनता को धर्मनिरपेक्ष के रूप में, आध्यात्मिक ज्ञान के रूप में खुद में विश्वास करने के लिए सशक्त करना आवश्यक है। विवेकानंद ने अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस के नाम से “रामकृष्ण मिशन” की स्थापना की। उन्होंने भाषणों और लेखन के माध्यम से हिन्दु संस्कृति और धर्म का सार बताया। उन्हें वेदांत पर विश्वास था, वे एकता और सभी धर्मों की समानता पर बल देते थे। उन्होंने धार्मिक अंधविश्वासों, प्रगतिविरोध और प्राचीन सामाजिक रीतियों को हटाने एवं जाति बंधन और अस्पृश्यता को दूर करने की कोशिश की। उन्होंने लोगों को महिलाओं के सम्मान के लिए प्रेरित किया। उन्होंने महिलाओं के उत्थान और शिक्षा के लिए काम किया। विवेकानंद ने लोगों के बीच अज्ञानता को हटाने के लिए प्राथमिक महत्वपूर्ण कार्य किए।

    सर सैयद अहमद खान (यमु

    सर सैयद अहमद खान का मानना है कि मुसलमानों के धार्मिक और सामाजिक जीवन में सुधार आधुनिक पश्चिमी वैज्ञानिक ज्ञान और संस्कृति अपनाने से हो सकते हैं। उनको मुसलमानों में सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए विभिनन कार्य किए। उन्होंने मुस्लिम महिलाओं की स्थिति को बढ़ाने के लिए कड़ी मेहनत की वे पर्दा प्रणाली, बहुविवाह, आसान तलाक और लड़कियों के बीच शिक्षा की कमी के विरूद्ध थे। हालांकि रूढ़िवादी मुसलमानों ने उनका विरोध किया था, उन्होंने महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सराहनीय प्रयास किए। उन्होंने तर्क सहित कुरान की व्याख्या करने की कोशिश की और कट्टरता और अज्ञानता के विरूद्ध अपनी बात कही। उन्होंने मुस्लिम समाज के उत्थान के लिए सामाजिक सुधार प्रारंभ किया।

    अपने प्रारंभिक जीवन के दौरान उन्होंने भी अंग्रेजी भाषा के अध्ययन के खिलाफ रूढिवादी मुसलमानों का विरोध किया। उन्होंने कहा कि केवल आधुनिक शिक्षा ही मुसलमानों को प्रगति की दिशा में ले जा सकती है। उन्होंने 1864 में गाजीपुर में (वर्तमान में उत्तर प्रदेश) एक अंग्रेजी स्कूल की स्थापना की थी। उन्होंने मोहम्मदन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज (एम.ए.ओ) जो बाद में 1875 में अलीगढ़ में अलीगढ़ मुस्मि विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ। यहां मानविकी और विज्ञान के क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा प्रदान की गई। उन्होंने अंग्रेजी पुस्तकों के अनुवाद के लिए एक साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना की। उन्होंने मुसलमानों के बीच सामाजिक सुधारों के प्रति जागरूकता के प्रसार विशेष रूप से आधुनिक शिक्षा के लिए पत्रिका प्रकाशित की। पत्रिका के द्वारा चलाया गया सुधार आंदोलन अलीगढ़ आंदोलन के नाम से जाना गया जो मुसलमानों के बीच सामाजिक और राजनीतिक जागृति की ओर एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुआ।

    ज्योतिराव गोविंदराव फुले

    महाराष्ट्र से ज्योतिराव गोविंदराव फुले ने किसानों और निम्न जाति को समान अधिकार दिलाने के लिए काम किया। वह और उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले ने निम्न जातियों की महिलाओं को शिक्षित करने के लिए सबसे अधिक प्रयास किए। सबसे पहले उन्होंने अपने पत्नी को शिक्षित किया जिसके बाद उन दोनों ने लड़कियों के लिए अगस्त 1848 में पूना में स्कूल खोला। आज भी उनको विधवाओं के विवाह के लिए किए गए प्रयासों के लिए याद किया जाता है। सितम्बर 1873 में, ज्यातिराव ने अपने अनुयायियों के साथ सत्यशोधक समाज का गठन (सत्य साधक सोसायटी) किया जो इस समाज की जातियों को शोषण और अत्याचार से बचाती है। वह ‘ज्योतिबा’ के रूप में लोकप्रिय हुए।

    न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे

    न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे ने पूना में सार्वजनिक समा की तथा 1867 में बंबई में प्रार्थना समाज की धार्मिक सुधारों को लाने के लिए स्थापना की। जाति व प्रतिबंध को हटाने, बाल विवाह को समाप्त करने के लिए, विधवाओं के बाल कटवाना, विवाह तथा अन्य सामाजिक कार्यो में लगने वाली भारी लागत, महिलाओं की शिक्षा को प्रोत्साहित करने तथा विधवा विवाह आदि के लिए कार्य किया। ब्रह्म समाज के समान एक ईश्वर की पूजा की वकालत की। उन्होंने मूर्ति पूजा तथा धार्मिक मामलों में पुरोहित जातियों के वर्चस्व की निंदा की। उन्होंने विश्वविद्यालयों में स्थानीय भाषाओं में पाठ्यक्रम की शुरूआत की जिससे उच्च शिक्षा हर भारतीय के लिए सुलभ हो जाए। भारत की समृद्ध सांस्कृति विरासत के सामाजिक वातावरण को नष्ट करे बिना समाज में कठोर परंपराओं को सुधारने का प्रयास किया। वे “भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस” के संस्थापक सदस्य भी थे।

    पंडिता रमाबाई

    महाराष्ट्र में एक प्रसिद्ध समाज सुधारक पंडिता रमाबाई ने महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी तथा बाल विवाह की प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई । उन्होंने लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए “आर्य महिला समाज” की 1881 में किया। महिलाओं की हालात में सुधार के लिए विशेष रूप से बाल विधवाओं? पुणे में शुरूआत की मुक्ति के लिए स्थापना की। 1889 में “मुक्ति मिशन” बनाया जो युवा विधवाओं के लिए एक शरण स्थल बना उन्होंने शारदा सदन की स्थापना की जिसमें शरण शिक्षा और चिकित्सा सेवाएं, विधवाओं, अनाथों और नेत्रहीनों को सेवाएं प्रदान की जाती थी। उन्होंने बाल दुल्हन एवं विधवाओं के कठिन जीवन पर पुस्तकें भी लिखी। पंडिता रमाबाई मुक्ति मिशन आज भी सक्रिय है और कार्य कर रहा है।

    एनी बेसेंट

    एनी बेसेंट थियोसोफिकल सोसायटी की सदस्या थी और 1898 में पहली बार भारत आई थी। यह आंदोलन पश्चिमी लोगों द्वारा भारतीय धार्मिक महिमा और दार्शनिक परंपराओं के लिए काम करता था। उन्होंने भारतीय भाषा को प्रोत्साहित करने और साहित्यिक भाषा में काम किया जो भारतीय विरासत तथा संस्कृति में गर्व की भावना को दर्शाता था। इससे भारतीय में राजनैतिक जागरूकता और आत्मविश्वास का उदय हुआ और देश के प्रति गर्व की भावना विकसित हुई । उन्होंन विश्व बंधुत्व का प्रचार किया। उन्होंने आधुनिक भारत के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। एनी बेसेंट 1907 में थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्ष बन गई। बेसेंट ने बनारस में सेंट्रल हिन्दू कालेज लड़कों के लिए खोला जो थियोसोफिकल सिद्धांतों पर आधारित था। छात्रों को धार्मिक ग्रंथों के साथ आधुनिक विज्ञान का भी ज्ञान दिया गया। 1917 से वह कॉलेज नए विश्वविद्यालय, हिन्दू विश्वविद्यालय का हिस्सा बन गया।

    मुस्लिम सुधार आंदोलन

    आधुनिक शिक्षा के प्रसार तथा बहु विवाह जैसी सामाजिक प्रथाओं को दूर करने के लिए कई आंदोलन शुरू किए गए हैं। अब्दुल लतीफ ने 1863 में कलकत्ता में “मोहम्दन साक्षरता सोसायटी” स्थापित की। यह आरंभिक संगठनों में से एक था, जिसने आधुनिक शिक्षा को मध्यम वर्ग एवं उच्च वर्ग के मुसलमानों के बीच तथा हिन्दू, मुस्लिम एकता को बढावादेने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बंगाल के शरीयतुल्ला “फरायजी” आंदोलन के प्रवर्तक ने बंगाल में किसानों के लिए काम किए। उन्होंने मुसलामानों के बीच व्याप्त जाति व्यवस्था जैसी बुराइयों की निंदा की।

    अन्य कई सामाजिक धार्मिक आंदोलनों ने मुसलामानों में राष्ट्रीय जागृति लाने में सहायता की। मिर्जा गुलाम अहमद ने 1899 में “अहमदिया आंदोलन” की स्थापना की, इन आंदोलन के अंतर्गत विद्यालय कालेज देश भर में खोले गए। उन्होंने इस्लाम के सार्वभौमिक और मानवीय चरित्र पर जोर दिया। वे हिन्दु और मुसलमानों के बीच एकता को पसंद करते थे।

    आधुनिक भारत के महानतम कवियों में से एक कवि मोहम्मद इकबाल (1876-1938) थे। उन्होंने कविताओं के माध्यम से कई पीढ़ियों के दार्शनिक और धार्मिक दृष्टिकोण को प्रभावित किया।

    अकाली सुधार आंदोलन

    अमृतसर और लाहौर में “दो सिंह सभा” का 1870 में गठन किया गया जिसमें सिखों के बीच में धार्मिक सुधार आंदोलन की शुरूआत की गई। 1892 में अमृतसर में “खालासा कालेज” में गुरूमुखी, सिख शिक्षा और पंजाबी साहित्य को बढ़ावा देने में मदद के लिए स्थापना की गई। अंग्रेजों की मदद से इस कॉलेज को बनाया गया था। 1920 में पंजाब में अकाली आंदोलनों द्वारा गुरूद्वारों या सिख धार्मिक स्थलों के प्रबंधन को सुधारा गया। 1921 में महंतों के खिलाफ एक शक्तिशाली सत्याग्रह ने सरकार को 1925 में एक नया गुरूद्वारा अधिनियम पारित करने के लिए मजबूर किया। इस अधिनियम की सहायता से तथा प्रत्यक्ष कार्रवाई के द्वारा वे भ्रष्ट महंतों के नियंत्रण तथा प्रभुत्व से मुक्त करा सके।

    पारसियों के बीच में सुधार आंदोलन

    19वीं सदी के बीच नौरोजी फरदोंजी, दादाभाई नौरोजी, एस. एस. बंगाली और दूसरी पारसियों के बीच धार्मिक सुधारों की शुरूआत हुई। सन् 1851 में “रहनुमाय मांजदायासन सभा” या धार्मिक सुधार संगठन की स्थापना की गई। उन्होंने शिक्षा के प्रसार में विशेष रूप से लड़कियों के बीच एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। उन्होंने पारसी धर्म में रूढ़िवादी प्रथाओं के विरूद्ध अभियान चलाया। समयक्रम में पारसी धर्म भारतीय समाज के प्रगतिशील वर्गों में सबसे महत्वपूर्ण बन गए।

    भारतीय समाज पर सुधार आंदोलनों का प्रभाव

    19वीं सदी के दौरान भारतीय सामाजिक धार्मिक आंदोलन भारतीयों के बीच चेतना पैदा करने में सक्षम हुए। इन सभी आंदोलनों ने सामाजिक और धार्मिक विचारों को समझने में तर्कसंगत सहायता की तथा वैज्ञानिक और मानवीय दृष्टिकोण को प्रोत्साहित किया। सुधारकों ने यह महसूस किया है कि आधुनिक विचारों और संस्कृति के भारतीय सांस्कृतिक धाराओं में एकीकृत करके आत्मसात किया जा सकता है। आधुनिक शिक्षा का परिचय जीवन के लिए एक वैज्ञानिक और तर्कसंगत दृष्टिकोण की दिशा में भारतीयों को निर्देशित कर सकता है। सब आंदोलनों ने महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए काम किया और जाति व्यवस्था विशेष रूप से अस्पृश्यता की आलोचना की है। वे आंदोलन सामाजिक स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा की दिशा में कार्य करते हैं।

    शिक्षा में विशेष रूप से महिलाओं की शिक्षा को महत्व दिया गया था। महिलाओं की स्थिति को बढ़ाने के लिए कुछ कानूनी उपाय शुरू किये गये । उदाहरण के लिए सती प्रथा तथा शिशु हत्या अवैध घोषित किया गया। 1856 में पारित कानून से पुनर्विवाह संभव बन गया और विधवाओं की स्थिति में सुधार हुआ। 1872 में पारित कानून, अंतर्जातीय और अंतर सांप्रदायिक विवाह को मान्यता दी। 1860 में पारित कानून द्वारा लड़कियों की शादी की उम्र 10 वर्ष तक बढ़ा दी गई। बाल विवाह को रोकने के लिए इसके बाद शारदा अधिनियम 1929 को पारित किया गया। इसके अनुसार 14 वर्ष से कम की लड़की और 18 वर्ष से कम का लड़का शादी नहीं कर सकते थे। इन सुधारकों के प्रयासों के सबसे स्पष्ट प्रभाव राष्ट्रीय आंदोलन पर दिखा। महिलाओं की एक बड़ी संख्या आजादी के संघर्ष में भाग लेने के लिए घरों से बाहर आई। इंडियन नेशनल आर्मी की कैप्टन लक्ष्मी सहगल की तरह महिलाओं की भूमिका सरोजिनी नायडू, एनी बेसेंट, अरुणा आसफ अली तथा अन्य स्वतंत्रता संग्राम में अति महत्वपूर्ण है। महिलाएं अब परदे से बाहर आई और नौकरियां करने लगी।

    सुधारकों के लगातार प्रयासों से समाज पर भारी प्रभाव पड़ा। धार्मिक सुधार आंदोलनों ने भारतीयों के मन में अधिक आत्मसम्मान और आत्म विश्वास और देश के प्रति गर्व का भाव जगाया। इन सुधार आंदोलनों अनेक भारतीयों को आधुनिक दुनिया के साथ जोड़ा। लोग भारतीय के रूप में पहचान बनाने में अधिक जागरूक हो गए। अंततः लोगों का एक जुट होना भारत का स्वतंत्रता आंदोलन ही ब्रिटिश के विरूद्ध संघर्ष का जिम्मेंदार है।

    20वीं शताब्दी में और 1919 के बाद भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन सामाजिक सुधार का मुख्य प्रचारक बन गया। स्वतंत्रता ने विचारों को भारतीय भाषाओं के द्वारा जनता तक पहुंचाने के लिए प्रयोग किया गया। उन्होंने 1930 में उपन्यास, नाटक, लघु कथाएं, कविता, प्रेस तथा सिनेमा का अपने विचारों को पचारित करने में प्रयोग किया। आत्म विश्वास, आत्म सम्मान, जागरूकता, देशभक्ति तथा एक विकसित राष्ट्रीय चेतना की भावना को इन आंदोलनों द्वारा बढ़ावा दिया गया। क्या आपको याद है कि उपन्यास को पढ़ने और कुछ स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित फिल्मों को देखना भी आंदोलन का हिस्सा माना जाता था। आरंभ के लिए कुछ इस तरह के लेखकों और उनकी पुस्तकों की एक सूची बनायें। कुछ फिल्मों की भी एक सूची बनाओ। इसके अलावा कुछ की भी एक सूची बनाऐं। जैसे “इंसाफ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के ये देश है तुम्हारा, गीतों नेता तुम्हीं हो कल के” या “बंदे मातरम”।

    सुधार आंदोलनों की कुछ सीमाएं थी। यह एक बहुत छोटे प्रतिशत जनसंख्या को प्रभावित कर पाएं थे जो ज्यादातर शिक्षित वर्ग ही थे। यह आम जनता तक नहीं पहुंच सके। यह किसानों एवं गरीब जनता तक भी नहीं पहुंच सके।

    आपने क्या सीखा

    • भारतीय समाज में अंधविश्वासी विषय पिछड़ेपन तथा कुप्रथाएं जैसे सती या विधवा बलि और अस्पृश्यता जैसे मुद्दों को चुनौती दी गई।

    • राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, ज्योतिवा फुले, स्वामी दयानंद सरस्वती, सर सैयद अहमद खान, स्वामी विवेकानंद जैसे शिक्षित भारतीयों ने समाज में सुधार से पहले धर्म सामाजिक प्रथाओं के रूप में अक्सर धार्मिक विश्वासों से प्रेरित समाज में सुधार किया।

    • समाज में सुधार आंदोलनों का प्रभाव बहुत था । सुधारकों के लगातार प्रयासों की वजह से कानून द्वारा सती, अस्पृश्यता जैसे सामाजिक बुराईयों को समाप्त कर दिया गया था। विधवा पुनर्विवाह शुरू किया गया। आधुनिक शिक्षा को समाज प्रोत्साहित किया गया।

    • सभी प्रयासों के बावजूद, भारत में अभी भी शिक्षित लोगों की जागरूकता फैलाने में आवश्यकता है। इस संबंध में मीडिया की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है।

    • सभी सामाजिक और धार्मिक आन्दोलनों ने समाज में सुधार के लिए आधुनिक शिक्षा और वैज्ञानिक ज्ञान को महत्वपूर्ण बताया और महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए स्त्री शिक्षा को महत्वपूर्ण बताया।

    NIOS Class 10th सामाजिक विज्ञान (पुस्तक – 1) Notes in Hindi

    • Chapter – 1 प्राचीन विश्व
    • Chapter – 2 मध्यकालीन विश्व
    • Chapter – 3 आधुनिक विश्व – Ⅰ
    • Chapter – 4 आधुनिक विश्व – Ⅱ
    • Chapter – 5 भारत पर ब्रिटिश शासन का प्रभाव : आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृति (1757-1857)
    • Chapter – 6 औपनिवेशिक भारत में धार्मिक एवं सामाजिक जागृति
    • Chapter – 7 ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लोकप्रिय जन प्रतिरोध
    • Chapter – 8 भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन
    • Chapter – 9 भारत का भौतिक भूगोल
    • Chapter – 10 जलवायु
    • Chapter – 11 जैव विविधता
    • Chapter – 12 भारत में कृषि
    • Chapter – 13 यातायात तथा संचार के साधन
    • Chapter – 14 जनसंख्या हमारा प्रमुख संसाधन

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