NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 25 सामाजिक आर्थिक विकाश तथा अभावग्रस्त समूहों का सशक्तिकरण (Socio Economic Development and Empowerment of Marginalized Groups) Notes in Hindi

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 25 सामाजिक आर्थिक विकाश तथा अभावग्रस्त समूहों का सशक्तिकरण (Socio Economic Development and Empowerment of Marginalized Groups)

TextbookNIOS
class10th
SubjectSocial Science
Chapter25th
Chapter Nameसामाजिक आर्थिक विकाश तथा अभावग्रस्त समूहों का सशक्तिकरण (Socio Economic Development and Empowerment of Marginalized Groups)
CategoryClass 10th NIOS Social Science (213)
MediumHindi
SourceLast Doubt

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 25 सामाजिक आर्थिक विकाश तथा अभावग्रस्त समूहों का सशक्तिकरण (Socio Economic Development and Empowerment of Marginalized Groups) Notes in Hindi सामाजिक विकास कितने प्रकार के होते हैं?, सामाजिक विकास की विशेषताएं क्या है?, सामाजिक विकास उदाहरण क्या है?, सामाजिक आर्थिक विकास का उदाहरण क्या है?, सामाजिक आर्थिक समस्याएं क्या है?, सामाजिक आर्थिक सिद्धांत क्या है?, सामाजिक विकास का मुख्य घटक क्या है?, सामाजिक विकास कहाँ से प्रारम्भ होता है?, सामाजिक विकास क्यों महत्वपूर्ण है?, सामाजिक विकास का सिद्धांत किसका है?, भारत में सामाजिक विकास क्या है?, सामाजिक आर्थिक का महत्व क्या है?, सामाजिक आर्थिक का जनक कौन है?, 5 सामाजिक आर्थिक कारक क्या हैं?, सामाजिक विकास के दो पहलू क्या हैं?, सामाजिक विकास पर क्या प्रभाव पड़ता है?, सामाजिक विकास बच्चों के सीखने में कैसे सुधार करता है?, सामाजिक आर्थिक विशेषताएं क्या हैं?, सामाजिक आर्थिक चुनौतियां क्या हैं?, सामाजिक आर्थिक स्थिति किशोर विकास को कैसे प्रभावित करती है?

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 25 सामाजिक आर्थिक विकाश तथा अभावग्रस्त समूहों का सशक्तिकरण (Socio Economic Development and Empowerment of Marginalized Groups)

Chapter – 25

सामाजिक आर्थिक विकाश तथा अभावग्रस्त समूहों का सशक्तिकरण

Notes

सामाजिक-आर्थिक विकास का अर्थ

सामाजिक-आर्थिक विकास का क्या अर्थ है ? इस अवधारणा को समझने के लिए पहले हमें विकास को परिभाषित करना होगा । प्रायः एक राज्य में जो सुधार व सकारात्मक बदलाव हो रहे हैं उन्हें विकास के रूप में परिभाषित किया जाता है। लेकिन विकास की अवधारणा को विभिन्न सन्दर्भों जैसे सामाजिक, राजनीतिक, जीव विज्ञान, प्रौद्योगिकी, भाषा और साहित्य में अलग-अलग तरीकों से परिभाषित किया जाता है । सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भ में विकास से अभिप्राय बेहतर शिक्षा, आय वृद्धि कौशल विकास और रोजगार के माध्यम से लोगों की जीवन-शैली में सुधार से है। यह सांस्कृतिक और पर्यावरणीय कारकों के आधार पर आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया है।

सामाजिक विकास

वह प्रक्रिया है जो सामाजिक संस्थाओं में परिवर्तन व बदलाव कर समाज की अपनी आकांक्षाओं को करने की क्षमता में सुधार करती है। इसका सम्बन्ध समाज निर्माण में गुणात्मक परिवर्तन, लोगों का प्रगतिशील दृष्टिकोण और व्यवहार, प्रभावी प्रक्रियाओं और उन्नत प्रौद्योगिकी को अपनाने से है। जैसा कि आप नीचे दिए गए चित्र में देखते हैं पर्यावरण, जीवन-शैली और प्रौद्योगिकी के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध दिखाया गया है।

आर्थिक विकास

किसी देश या क्षेत्र में रह रहे लोगों के हित में आर्थिक सम्पत्ति के संवर्धन को आर्थिक विकास कहा जाता है । आर्थिक वृद्धि को प्रायः आर्थिक विकास के स्तर का संकेतक माना जाता है । ‘आर्थिक वृद्धि का सम्बन्ध राष्ट्रीय, आय, सकल घरेलू उत्पाद या प्रतिव्यक्ति आय में प्रगति से है । दूसरी तरफ दीर्घकालिक आर्थिक विकास से अभिप्राय है एक राष्ट्र द्वारा अपने लोगों की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हितों को पूरा करना।

मानव विकास

जैसाकि हमने देखा है, जब हम केवल आर्थिक विकास के बारे में बात करते हैं तब हमारा ध्यान केवल आय पर केन्द्रित होता है । एक लम्बे समय के लिए विकास के बारे में सामान्य धारणा धन या आर्थिक सम्पत्ति का संचय करना था। लेकिन मानव विकास का अर्थ है लोगों की पसन्द का उनके हित में फैलाव व विस्तार । यह मानव जीवन के लगभग सभी पहलुओं और लोगों की पसन्द व विकल्पों को शामिल करता है, जैसे आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, भौतिक, जैविक, मानसिक और भावनात्मक । आय विकास के कई घटकों में से केवल एक घटक है। मानव विकास लोगों को विकास के केन्द्र में रखता है तथा मानता है कि मानव विकास अर्थ लोगों के लिए विकल्पों का विस्तार करना है । यह आर्थिक विकास की गुणवत्ता और इसके समान वितरण पर ध्यान देने की आवश्यकता पर जोर देता है।

संधारणीय विकास

हमने यह देखा और महसूस किया है कि अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हम प्राकृतिक संसाधनों का बड़ी लापरवाही से प्रयोग कर रहे हैं । यदि हम अपनी वर्तमान गति से इन संसाधनों का प्रयोग करते रहे तो कई खनिज पदार्थ जैसे कोयला, पेट्रोल कुछ दशकों में समाप्त हो जाएँगे तथा हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए उपलब्ध नहीं होंगे। क्या हमारी पीढ़ी का भविष्य की पीढ़ियों के लिए ऐसा करना उचित है ? संधारणीय विकास की अवधारणा का उदय इसी सन्दर्भ में हुआ है। यह एक बृहद् अवधारणा है जिसे इस रूप में परिभाषित किया जाता है; “संधारणीय विकास/धारणीय विकास, विकास का वह प्रतिरूप है जो हमारी वर्तमान आवश्यकताओं को पूरा करता है तथा भविष्य की पीढ़ियाँ भी अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर सके, इस बात का भी ध्यान रखता है।” यद्यपि कई लोग सोचते हैं कि सतत् पोषीय विकास की उपयोगिता केवल पर्यावरण के सन्दर्भ में है पर वास्तव में यह केवल पर्यावरण के मुद्दों पर ही जोर नहीं देता है, यह आर्थिक विकास, सामाजिक विकास, व्यक्तिगत विकास, पर्यावरणीय विकास आदि को भी समाहित करता है । यह सामाजिक आर्थिक बदलाव का एक प्रतिरूप है उदाहरण के लिए विकास का ऐसा मॉडल जो वर्तमान पीढ़ी को उपलब्ध अधिकतम सामाजिक आर्थिक लाभ प्रदान करता है तथा भविष्य की पीढ़ियों की इन लाभों को प्राप्त करने की क्षमता पर भी नकारात्मक प्रभाव नहीं डालता। इस प्रकार संधारणीय विकास का मुख्य उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक लाभों का युक्तिसंगत और न्यायसंगत वितरण है जिसे मानव जाति की आने वाली कई पीढ़ियों तक निरन्तर बनाया जा सके। इसमें समाज के सभी वर्गों, कमजोर और वंचित वर्गों सहित की, की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाता है।

भारत में सामाजिक आर्थिक विकास

अब तक हम चार अवधारणाओं; विकास, सामाजिक-आर्थिक विकास, मानव विकास तथा संधारणीय विकास के विविध रूपों की चर्चा कर चुके हैं । इनके विषय में हमारी जानकारी के आधार पर, भारत में हो रहे सामाजिक आर्थिक विकास को समझने का प्रयास करेंगें । यद्यपि स्वतन्त्रता – प्राप्ति के पश्चात् से ही देश के विकास के लिए कई प्रयास किए गए लेकिन यह 1990 का वर्ष था जिसके पश्चात् भारत की गिनती विश्व की तेजी से बढ़ती विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में होने लगी। भारत बाजार विनिमय के आधार पर विश्व की बारहवीं और सकल घरेलू उत्पाद (जी. डी.पी.) जिसका मापन, खरीद शक्ति समता ( पर्चेजिंग पावर पैरिटी) के आधार पर किया जाता है, दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। आर्थिक विकास दर में बढ़ोत्तरी के परिणामस्वरूप देश में जीवन प्रत्याशा, साक्षरता दर तथा खाद्य सुरक्षा में भी वृद्धि हुई है। निर्धनता प्रतिशत में भी महत्त्वपूर्ण कमी आई है, यद्यपि सरकारी/आधिकारिक गणनाओं के अनुसार लगभग 27.5 प्रतिशत भारतीय अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन व्यतीत कर रहे हैं। 2004-05 को आधार मानते हुए उन लोगों को गरीबी रेखा के नीचे माना जाता है जिनकी आय क्रय शक्ति समता के आधार पर 1 डॉलर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन हो। हालाँकि भारत में इसका पैमाना एक डॉलर से भी कम रखा गया है। भारत में पिछले दो दशकों से लगातार तीव्र आर्थिक वृद्धि के बावजूद देश की लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या आज भी दो डॉलर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन से कम में जीवन निर्वाह कर रही हैं । यही कारण है कि कई बार कहा जाता है कि इस बाजार अर्थव्यवस्था आधारित आर्थिक विकास के कारण देश में आर्थिक असमानता बढ़ी है। हरित क्रान्ति से अकाल और भुखमरी से तो छुटकारा मिल गया तथा समूची जनसंख्या के लिए खाद्यान्न उपलब्धता बढ़ी लेकिन देश में तीन वर्ष तक की आयु के 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार है । एक तिहाई स्त्री और पुरुष ऊर्जा की कमी से पीड़ित है।

क्षेत्रीय विकास : असन्तुलन और भारत में सामाजिक आर्थिक असमानता

हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं कि भारत में सामाजिक आर्थिक विकास का उद्देश्य देश के सभी क्षेत्रों का सर्वांगीण विकास करना रहा है । स्वतन्त्रता – प्राप्ति के पश्चात् नियोजित आर्थिक विकास अपनाने का एक प्रमुख कारण यह था कि देश में व्याप्त क्षेत्रीय असमानताओं को दूर कर सभी क्षेत्रों का समुचित विकास किया जाय । विकास की नीति में भी क्षेत्रीय विकास उपागम का प्रयोग किया गया, लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था की एक बड़ी परेशानी यह रही है कि यहाँ विभिन्न राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के बीच अत्यधिक भिन्नता पाई जाती है।

भारत के विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों में कुछ भिन्नताएँ तो प्राकृतिक हैं कुछ क्षेत्रों का धरातल उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी से बना है जिसमें पर्याप्त मात्रा में पानी पाया जाता है जैसे सिन्धु-गंगा का मैदान जबकि कुछ भूमि ऐसी है जहाँ पर्वत, पहाड़ी और घने जंगल हैं तथा वहाँ जमीन भी कम उपजाऊ है। प्रकृति द्वारा पैदा की गई इन विभिन्नताओं को क्षेत्रीय विविधता कहा जाता है । लेकिन कुछ भिन्नताएँ ऐसी हैं जो मनुष्यकृत हैं, जैसे प्रतिव्यक्ति आय, कृषि और औद्योगिक विकास, परिवहन व संचार के साधनों का विस्तार आदि । मनुष्य कृत इन अन्तरों को असमानता के नाम से जाना जाता है। ये विषमता चिन्ता का विषय है। आइए अब निम्न के सन्दर्भ में विषमताओं का विश्लेषण कर उसे समझने का प्रयास करेंगे।

भारत में विषमता

प्रतिव्यक्ति आय – किसी भी क्षेत्र में प्रतिव्यक्ति आय आर्थिक क्रियाओं का आधार होता है। हमारे देश के प्रतिव्यक्ति आय के आधार पर अत्यधिक क्षेत्रीय असमानता पाई जाती है । राष्ट्रीय औसत प्रतिव्यक्ति आय लगभग रु. 25,716 है और ऐसे केवल ग्यारह राज्य हैं जिनकी प्रतिव्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से अधिक है । प्रतिव्यक्ति आय के हिसाब से सबसे निचले स्तर पर जो राज्य हैं वे हैं; बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, झारखण्ड व छत्तीसगढ; इन राज्यों में भारत की आधी से अधिक जनसंख्या निवास करती है।

गरीबी – राज्यावार गरीबी के अनुपात में पिछले कुछ वर्षों में कमी आई है। भारत में व्यापक व वृहत् स्तर पर गरीबी में कमी आई है लेकिन ग्रामीण और शहरी तथा राज्यों के बीच विषमाताएँ व्याप्त हैं। उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखण्ड तथा उत्तर प्रदेश में गरीबी का अनुपात अत्यधिक है। ग्रामीण उड़ीसा और बिहार में क्रमशः 43 और 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं जो कि दुनिया में सबसे खराब स्थितियों में से एक है। दूसरी तरफ ग्रामीण हरियाणा और पंजाब में क्रमशः 5-7 प्रतिशत तथा 2-4 प्रतिशत लोग ही गरीब है जो कि वैश्विक और कई मध्यम आर्थिक स्तर के देशों से बेहतर है ।

औद्योगिक वृद्धि – भारत में प्रारम्भिक औद्योगीकरण ब्रिटिश भारतीय सरकार के हितों के अनुरूप एक ऐतिहासिक प्रक्रिया के अनुरूप किया गया। इसी का परिणाम था कि ज्यादातर उद्योग कुछ ही स्थानों में केन्द्रित थे । देश के विभिन्न क्षेत्रों में उद्योगों के विस्तार के लिए किए गए प्रयासों के बावजूद, स्वतन्त्रता – प्राप्ति के पश्चात् भी काफी हद तक यही स्थिति बनी रही ।

कृषि में वृद्धि – पिछले कुछ वर्षों में कृषि क्षेत्र में भी विषमता बढ़ी है, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश इस मामले में अन्य सभी राज्यों से आगे निकल गए हैं । प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन में पंजाब पहले स्थान पर है जबकि केरला निम्नतम स्तर पर है। सिंचित क्षेत्र के मामले में मिजोरम और महाराष्ट्र सबसे नीचे के स्तर में है । पंजाब और हरियाणा ने सिंचाई सुविधाओं तथा रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से कृषि उत्पादकता को उच्च स्तर तक बढ़ाया है । भारत के ज्यादातर राज्यों में कृषि क्षेत्र की वृद्धि उनकी क्षमता से बहुत कम है। इसे तीव्र करने की आवश्यकता है।

साक्षरता – साक्षरता सामाजिक आर्थिक विकास का एक महत्त्वपूर्ण सूचक है लेकिन भारत के विभिन्न राज्यों के बीच साक्षरता दर में भारी विषमता पाई जाती है। 2001 की जनगणना के अनुसार केरल में साक्षरता दर सर्वाधिक तथा बिहार में सबसे कम थी, जबकि उसी दौरान पूरे भारत में औसत साक्षरता दर 65.38 प्रतिशत थी । केरल में 90.92 प्रतिशत तथा बिहार में 47.53 प्रतिशत थी । देश के विभिन्न राज्यों के बीच साक्षरता दर में भारी भिन्नता है।

परिवहन और संचार – भारत में परिवहन और संचार कई प्रकार का है। परिवहन के विभिन्न साधन हैं, सड़क, रेलवे, हवाई तथा जल परिवहन। यदि आप परिवहन के किसी भी एक साधन के विषय में आँकड़े एकत्रित करें तो आपको इनके विभिन्न क्षेत्रों में फैलाव में व्याप्त विषमता का बोध हो जाएगा । यदि सड़क परिवहन की बात करें तो देश के कुछ राज्यों में तो सड़क घनत्व और सड़कों की स्थिति बड़ी अच्छी है जबकि कुछ अन्य राज्यों में इनकी स्थिति दयनीय है। प्रति 100 किमी. रोड की लम्बाई में केरल प्रथम स्थान पर है जबकि जम्मू-कश्मीर सबसे निचले स्थान पर आता है।

क्षेत्रीय विषमाताओं के कारण

जब हम विभिन्न क्षेत्रों के बीच असन्तुलन और विषमता की बात करते हैं तो कई बार हम यह सोच लेते हैं किसी क्षेत्र या राज्य विशेष में पिछड़ेपन का कारण जनसंख्या वृद्धि, निरक्षरता और आधारभूत संरचना की कमी है। लेकिन जब हम इन कारणों का आगे विश्लेषण करते हैं तो हम देखते हैं कि ये केवल पिछड़ेपन या अल्पविकास के कारण मात्र नहीं है बल्कि इसके परिणाम भी है। पिछड़े राज्यों में अशिक्षा और आधारभूत सुविधाओं के अभाव में, अगड़े राज्यों की तुलना में बड़ी तेजी से जनसंख्या बढ़ी, इसका मुख्य कारण इन राज्यों में अगड़े राज्यों की तरह का सामाजिक आर्थिक विकास न हो पाना था । इसलिए क्षेत्रीय विषमता के नीचे दिए गए कारणों का विश्लेषण करना रोचक हो जाता है

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य – औपनिवेशिक शासन के दौरान जो राज्य और क्षेत्र वाणिज्यिक दृष्टि से ज्यादा लाभकारी नहीं थे उनपर ध्यान नहीं दिया गया और वे पिछड़े रह गए। उद्योगपतियों और व्यवसायियों ने भी इन पिछड़े क्षेत्रों को नजरंदाज किया है । ऐसे क्षेत्रों में प्रमुख है मध्य और उत्तर पूर्वी राज्यों के आदिवासी इलाके।

भौगोलिक कारक – किसी क्षेत्र का धरातल भी उसके विकास में बाधक हो सकता है। राजस्थान का रेगिस्तान और उत्तर पूर्वी राज्यों का पहाड़ी या पर्वतीय धरातल इसके उदाहरण हैं ।

प्राकृतिक संसाधनों के वितरण और उपयोग में भिन्नता – आपको जानकारी होगी कि प्राकृतिक संसाधन जैसे कोयला, लौह आयस्क, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस आदि भारत के सभी राज्यों में नहीं पाए जाते। लेकिन केवल प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता मात्र विकास को सुनिश्चित नहीं करती। कुछ राज्यों ने अपने संसाधनों का सही ढंग से उपयोग किया है जबकि अन्य जैसे बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा आदि ऐसा करने में असफल रहे हैं।

देश के मुख्य वाणिज्यिक केन्द्रों से दूरी – किसी क्षेत्र की देश के प्रमुख वाणिज्यिक केन्द्रों, शहरों, बाजारों से दूरी भी उसके आर्थिक विकास को प्रभावित करता है।

आधारभूत संरचना की कमी – जिन राज्यों ने आधारभूत संरचना जैसे सड़कें, बिजली, परिवहन सुविधाओं का विकास कर लिया वे तीव्र आर्थिक विकास करने में सफल रहे हैं । जिन राज्यों में ये आधारभूत सुविधाए नहीं हैं वे आवंटित धनराशि का उपयोग तथा निवेश को आकर्षित करने में असफल रहे हैं।

सुशासन की कमी – सामाजिक आर्थिक विकास को सबसे अधिक प्रभावित करने वाला कारक है, शासन-प्रशासन की गुणवत्ता । आप देखेंगे कि जिन राज्यों ने तीव्र गति से प्रगति की है वहाँ अधिक समय तक सुशासन रहा है । जो भी राज्य पिछड़े हुए हैं उनमें लगातार कानून और व्यवस्था की समस्या रही है वे आधारभूत संरचना बनाने में असफल रहे हैं, यही कारण रहा कि योजना आयोग द्वारा इन राज्यों को जो आर्थिक सहायता दी गई वे उसका भी प्रयोग नहीं कर पाए हैं । सुशासन की कमी के कारण इन राज्यों में निवेश भी नहीं हो पाता।

समाज के अभावग्रस्त समूह

इस अध्याय में हमारा लगातार इस बात पर जोर रहा है कि भारत में सामाजिक-आर्थिक विकास का उद्देश्य समाज के सभी वर्गों का विकास सुनिश्चित करना तथा उन्हें विकास की प्रक्रिया में भागीदार बनाना है। सामाजिक और आर्थिक जीवन में ऊर्ध्वगामी गतिशीलता के लिए सभी लोगों की विकास के परिणामों तक पहुँच तथा उन्हें समान अवसर प्रदान करना है । यद्यपि भारत बड़ी तेजी से प्रगति कर रहा है लेकिन इसका लाभ समाज के सभी वर्गों तक पहुँचाने का लक्ष्य अभी प्राप्त किया जाना बाकी है। वर्तमान समय में भी समाज के अनेक ऐसे वर्ग हैं जिनके विरुद्ध भेदभाव का व्यवहार होता है तथा उन्हें स्वतन्त्र रूप से विकास की प्रक्रिया में भाग लेने तथा विकास के परिणामों का लाभ उठाने का अवसर प्रदान नहीं किया जाता है । इन्हें अभावग्रस्त समूह कहा जाता है। कुछ ऐसे समूह हैं, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, महिलाएँ, अल्पसंख्यक वर्ग आदि। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जाति की जनसंख्या 16.23%, अनुसूचित जनजाति, 8.2% है । अल्पसंख्यक और अन्य पिछड़ा वर्ग की भी काफी संख्या है जबकि महिलाएँ भारत की जनसंख्या का लगभग आधा हिस्सा है। हम अनुसूचित जातियों, जनजातियों व महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए किए गए प्रयासों की चर्चा करेंगे।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों का सशक्तीकरण

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों का सशक्तीकरण देश में व्याप्त सामुदायिक और क्षेत्रीय स्तर पर व्याप्त विषमताओं को दूर करने के लिए आवश्यक माना गया। भारत के संविधान में इन समूहों के विकास के लिए अनेक प्रावधान और कई वचनबद्धताऐं व्यक्त की गई हैं। इन संवैधानिक वचनबद्धताओं को पूरा करने के लिए सरकार ने तीन तरफा रणनीति अपनाई है।

(i) सामाजिक सशक्तीकरण
(ii) आर्थिक सशक्तीकरण
(iii) विषमता

दूर करने के लिए सामाजिक विषमता का उन्मूलन, शोषण की समाप्ति तथा इन अभावग्रस्त वर्गों सुरक्षा प्रदान करना।

सामाजिक सशक्तीकरण

शिक्षा अभावग्रस्त वर्गों के सशक्तीकरण का प्रमुख यन्त्र रही है इसलिए इन वर्गों में उत्थान के लिए शिक्षा को प्राथमिकता दी जाए इस दिशा में निम्न कदम महत्त्वपूर्ण हैं –

प्रारम्भिक शिक्षा के लिए कई प्रोत्साहन जैसे फीस माफी निःशुल्क पुस्तकें, मध्याह्न भोजन, छात्रवृत्ति दिए जाते हैं। कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय, नवोदय विद्यालय, राष्ट्रीय प्रतिभा खोज योजना आदि के द्वारा अनुसूचित जनजातियों को लाभान्वित करने का प्रयास किया गया है।

मैट्रिक के पश्चात् उससे आगे की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए छात्रवृत्ति गरीब व कूड़ाकड़कट उठाने जैसे – निम्न श्रेणी के कार्यों में लगे वर्गों के बच्चों को शिक्षा देने के लिए दी जाती है। मैरिट योजना को बढ़ावा देने के लिए निदानात्मक कोचिंग दी जाती है। राजीव गांधी राष्ट्रीय छात्रवृत्ति अनुसूचित जाति के छात्रों को उच्च शिक्षा और अनुसंधान करने के उद्देश्य से दी जाती है।

विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए इन वर्गों के छात्रों को निःशुल्क कोचिंग दी जाती है। या तैयारी कराई जाती है।

उच्च प्राथमिक स्तर के बाद सभी लड़के लड़कियों को हॉस्टल की सुविधा।

आर्थिक सशक्तीकरण

सामाजिक और आर्थिक रूपसे अभावग्रस्त वर्गों के आर्थिक सशक्तीकरण के लिए रोजगार और आय पैदा करने वाले कार्यक्रम शुरू किए गए हैं । इस सम्बन्ध में निम्न उच्चतम वित्तीय संगठन स्थापित किए गए हैं

राष्ट्रीय अनुसूचित जाति वित्त विकास निगम (एन एस एफ डी सी ), विभिन्न आय सृजन करने वाली गतिविधियों के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करता है।

राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त और विकास निगम (एन एस के एफ डी सी ), सफाई कर्मचारियों को आय सृजन करने के लिए वित्तीय सहायता देती है।

राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति वित्त विकास निगम (एन एस टी एफ डी सी), इन वर्गों को प्रशिक्षण, लोन, बाजार समर्थन के द्वारा सहायता करता है । अनुसूचित जाति विकास निगम (एस सी डी सी ), रोजगार सम्बन्धी योजनाओं, कृषि और सम्बन्धित गतिविधियों, छोटी सिंचाई योजनाओं, छोटे उद्योगों, परिवहन, व्यापार आदि को वित्तीय सहायता प्रदान करता है ।

अनुसूचित जनजाति विकास निगम (एस टी डी सी ), एक दिशा निर्धारित करने वाली एजेन्सी के रूप में कार्य कर इन वर्गों को वित्तीय सहायता प्रदान करती है । ट्राइवल मार्केटिंग डेवलपमेंट फैडरेशन ऑफ इण्डिया लिमिटेड (ट्राइफेड), आदिवासियों द्वारा निर्मित वन्य उत्पादों और अतिरिक्त कृषि उत्पाद को बाजार प्रदान करता है।

सामाजिक न्याय

भारत का संविधान हर प्रकार के शोषण और सामाजिक अन्याय से सुरक्षा की गारण्टी देता है । इस दिशा में कुछ सुरक्षात्मक विधि निर्माण भी हुआ है। इस दिशा में नागरिक अधिकार सुरक्षा अधिनियम, 1955 अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति ( उत्पीड़न निषेध) अधिनियम, 1989 तथा अनुसूचित जनजाति तथा अन्य वनवासी (वन अधिकार मान्यता) अधिनियम, 2006 आदि महत्त्वपूर्ण हैं।

महिला सशक्तीकरण

भारत के संविधान में लैंगिक समानता सम्बन्धी प्रावधान संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकार, मौलिक कर्तव्य तथा नीति निदेशक तत्वों में शामिल हैं। संविधान न केवल महिलाओं को समानता प्रदान करता है बल्कि राज्य को महिलाओं के हित में सकारात्मक विभेदकारी कदम उठाने के लिए भी सशक्त करता है। हालाँकि अभी भी इस दिशा में एक ओर स्वीकृत लक्ष्य व सम्बन्धित मशीनरी तथा दूसरी ओर धरातल पर महिलाओं की वास्तविक स्थिति के बीच काफी अंतर है। महिलाओं, विशेषकर समाज के कमजोर वर्गों से सम्बन्धित महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य तथा उत्पादक संसाधनों तक पहुँच अपर्याप्त है। वे जयादातर हाशिये पर हैं या गरीब व समाज की मुख्यधारा से बाहर हैं। ऊपर दिए गए चित्र संख्या 25. 6 में महिला सशक्तीकरण के लिए क्रियान्वित किए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों तथा प्रयासों को दिखाया गया है।

आर्थिक सशक्तीकरण

भारत में गरीबी रेखा के नीचे महिलाओं की संख्या अत्यधिक होने के कारण कई ऐसी योजनाएँ लागू की जा रही हैं जो विशेष रूप से उनकी आवश्यकताओं को पूरा करती हो । कृषि और सम्बन्धित क्षेत्र में उत्पादक के रूप में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका के प्रयास किए जा रहे हैं कि उनके लिए प्रशिक्षण व विस्तार कार्यक्रमों के लाभ उनकी जनसंख्या के अनुपात में सुनिश्चित किए जाय।

श्रम विधायन, सामाजिक सुरक्षा तथा अन्य सहायक सेवाओं के माध्यम से महिलाओं को वृहत् सहायता प्रदान की जाय ताकि वे औद्योगिक क्षेत्र में विशेषकर इलेक्ट्रॉनिक्स, सूचना प्रौद्योगिकी, खाद्य प्रसंस्करण, कृषि और वस्त्र उद्योग में सहभागी बन सके।

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी और पूर्ण सहयोग प्राप्त करने के लिए कार्यस्थल का वातावरण उनके लिए सहायक होना चाहिए, इसके लिए वहाँ पर बाल देखरेख की सुविधा, क्रेच तथा वृद्ध और विकलांगों के लिए विशेष व्यवस्था होनी चाहिए।

सामाजिक सशक्तीकरण

महिलाओं में रोजगार, व्यवसायिक और तकनीकी हुनर का विकास करने के उद्देश्य से महिलाओं व बालिकाओं की शिक्षा तक पहुँच, शिक्षा के क्षेत्र में भेदभाव की समाप्ति, शिक्षा का सार्वभौमीकरण, निरक्षरता उन्मूलन तथा लैंगिक सम्वेदी शिक्षा प्रणाली की दिशा में कई प्रयास किए जा रहे हैं ताकि शिक्षा की गुणवत्ता को बढ़ाकर अधिगम को जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया बनाया जा सके।

स्वास्थ्य के प्रति सम्पूर्ण दृष्टिकोण जिसमें पोषण व स्वास्थ्य सेवाओं को शामिल कर जीवन
के हर स्तर पर महिलाओं और लड़कियों की आवश्यकताओं पर विशेष ध्यान दिया जा सके।

महिलाओं के लिए कुपोषण और बीमारियों जैसे खतरों का सामना करने के उददेश्य से जीवन
के हर पड़ाव पर उनकी पोषण सम्बन्धी आवश्यकताओं को पूरा करने पर जोर दिया जा रहा
है।

महिलाओं के विरुद्ध हर प्रकार की शारीरिक व मानसिक हिंसा के उन्मूलन को उच्च प्राथमिकता दी जा रही है, चाहे वह घरेलू अथवा सामाजिक स्तर पर हो या फिर परम्पराओं और रीति-रिवाजों के कारण उपजी हिंसा हो।

राजनीतिक सशक्तीकरण

भारत में स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय से ही महिलाएँ चुनाव लड़ने व मतदान करने के अधिकार का उपभोग कर रही हैं । उन्हें सरकार के हर स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार प्राप्त है। 73वें और 74वें संविधान संशोधन (1993) इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम साबित हुआ। इसके द्वारा ग्रामीण और शहरी स्थानीय शासन में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान कर राजनीतिक व्यवस्था व संरचना में उनकी भागीदारी को बढ़ा दिया है तथा राजनीतिक सत्ता तक उनको समान पहुँच प्रदान कर दी है । इससे सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा मिला है। महिलाओं के लिए लोकसभा तथा विधानसभाओं में सीटें आरक्षित करने सम्बन्धी विधेयक संसद् में विचाराधीन पड़ा है।

सामाजिक आर्थिक विकास के लिए प्रमुख नीतियाँ और कार्यक्रम

हमने अब तक अभावग्रस्त वर्गों के सशक्तीकरण और सामाजिक-आर्थिक विकास से सम्बन्धित विभिन्न विषयों को समझने का प्रयास किया है। अब आगे आप उन नीतियों और कार्यक्रमों के विषय में जानना चाहोगे जो सामाजिक आर्थिक विकास पर ध्यान केन्द्रित करती है । उन सब पर चर्चा करना अत्यधिक विस्तृत हो जाएगा, इसलिए हम यहाँ शिक्षा और स्वास्थ्य सम्बन्धी कुछ महत्त्वपूर्ण नीतियों और कार्यक्रमों की चर्चा करेंगे, बाकी का अध्ययन आप आगे की कक्षाओं में करेंगे।

सर्वशिक्षा या सभी के लिए शिक्षा

सभी को शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए इसकी जरूरत न केवल भारत बल्कि सम्पूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय महसूस करता है । यूनेस्को के तत्वावधान में 1990 में विश्व के कई देश जोमेतीन (थाइलैण्ड) में मिले तथा इस बात पर निर्णय लिया गया कि वर्ष 2000 तक सभी के लिए शिक्षा का लक्ष्य प्राप्त किया जाएगा। वर्ष 1992 में दुनिया को नौ सबसे बड़ी जनसंख्या वाले देश चीन, भारत, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, नाइजीरिया, मैक्सिको, बांग्लादेश, ब्राजील और मिस्र दिल्ली में, सभी के लिए शिक्षा / सर्वशिक्षा ( इफा) की अपनी वचनबद्धता को बल प्रदान करने के लिए एकत्रित हुए।

पिछले दो दशकों में, अनेक अन्तर्राष्ट्रीय एजेन्सियों की सहायता से भारत सर्वशिक्षा के लक्ष्य की ओर कदम बढ़ा रहा है। इस दिशा में निम्न बिन्दु महत्त्वपूर्ण है।

प्रारम्भिक शिक्षा का सार्वभौमीकरण

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में कहा गया था कि 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जाएगी। 86वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 के द्वारा 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया। हाल ही में भारत की संसद् द्वारा निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम, 2009 पारित किया गया। केन्द्र और राज्य सरकारों के संयुक्त प्रयास से देश की 95 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या के लिए एक किलो मीटर के दायरे में प्राथमिक स्कूल तथा लगभग 85 प्रतिशत के लिए तीन किलोमीटर के दायरे में उच्च प्राथमिक स्कूल उपलब्ध है । इसके परिणामस्वरूप-

1. प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्तर पर 6 से 14 वर्ष के बच्चों के नामांकन ( enrolment) में लगातार वृद्धि हुई है।
2. बालिकाओं व अनुसूचित जाति और जनजातियों के बच्चों का स्कूलों में पंजीयन/नामांकन में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई है।
3. देश में प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों की संख्या में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई है। केन्द्र और राज्य सरकारों ने बीच में

विद्यालय छोड़ने (ड्राप आउट) के अनुपात के कम करने तथा विद्यालयों में उपलब्धि स्तर को बढ़ाने के लिए रणनीति अपनाई है।

इस दिशा में निम्न कदम उठाए गए हैं

अभिभावक जागरण तथा सामुदायिक एकजुटता पैदा करना । सामुदायिक और पंचायती राज संस्थाओं की भागीदारी। आर्थिक प्रोत्साहन जैसे निःशुल्क शिक्षा, पुस्तकें, वर्दी आदि । स्कूली पाठ्यक्रम और प्रक्रियाओं में सुधार और प्राथमिक शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पोषण सहायता कार्यक्रम और मध्याहून भोजन योजना।

सर्व शिक्षा अभियान

प्रारम्भिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण की महत्त्वकांक्षी योजना को सर्वशिक्षा अभियान के नाम से जाना जाता है, इसे 2001 में शुरू किया गया।

सर्वशिक्षा अभियान के निम्न लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं

(i) 6 से 14 साल के सभी बच्चों का स्कूल में नामांकन / शिक्षा गारण्टी योजना के अन्तर्गत 2005 तक सेतु पाठ्यक्रम की व्यवस्था।
(ii) सभी प्रकार की लैंगिक भेदों को प्राथमिक स्तर पर दूर किया जाय।
(iii) वर्ष 2010 तक सार्वभौमिक विद्यालय उपस्थिति या ड्राप आउट दर समाप्त करना।
(iv) प्रारम्भिक शिक्षा की सन्तुष्टि जनक गुणवत्ता तथा जीवन के लिए शिक्षा के सिद्धान्त पर जोर।

प्राथमिक शिक्षा हेतु राष्ट्रीय पोषण समर्थन कार्यक्रम या मध्याहून भोजन योजना

इस योजना की शुरुआत प्रारम्भिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण के उद्देश्य से की गई थी और यह अभी तक चल रही है। मध्याह्न भोजन योजना के मुख्य उद्देश्य हैं

(i) सरकारी, स्थानीय, सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों व इस स्तर की शिक्षा के अन्य केन्द्रों में पहली से पाँचवीं कक्षा तक के पढ़ने वाले बच्चों की पोषण की स्थिति को सुधारना

(ii) अभावग्रस्त वर्गों की सहायता कर इन वर्गों के गरीब बच्चों को स्कूल में शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहित करना तथा इनके लिए कक्षा की गतिविधियों पर ध्यान केन्द्रित करना।

(ii) गर्मियों की छुट्टियों के दौरान सूखा प्रभावित क्षेत्रों के बच्चों को पोषाहार प्रदान करना।

राष्ट्रीय साक्षरता मिशन

राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की शुरुआत 1988 में हुई। इसका उद्देश्य 15-35 वर्ष के अनपढ़ लोगों को कामचलाऊ साक्षरता प्रदान करना था । राष्ट्रीय साक्षरता मिशन का मुख्य कार्यक्रम पूर्ण साक्षरता प्रचार था जिसके द्वारा सभी प्रौढ़ निरक्षरों को बुनियादी साक्षरता प्रदान करना था । इसके पश्चात् साक्षरता के बाद का कार्यक्रम शुरू किया गया जिनके द्वारा नव साक्षरों के साक्षरता कौशल को सुदृढ़ करना। इसके पश्चात् शिक्षा कार्यक्रम को लगातार जारी रखने के उद्देश्य से गाँवों में पुस्तकालय, पढ़ाई के लिए कमरों की व्यवस्था की गई। इसके अलावा जन शिक्षा संस्थान के माध्यम से नव साक्षरों व समाज के अभावग्रस्त वर्गों को व्यवसायिक प्रशिक्षण भी दिया गया। राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के प्रमुख परिणाम निम्नलिखित।

यह योजना देश के 597 जिलों में पहुँचने में सफल रहा जिसके अन्तर्गत 12.4 करोड़ लोगों को साक्षर किया गया ।

देश की साक्षरता दर 1991 में 52.21 प्रतिशत से बढ़कर 2001 में 65.37 प्रतिशत हो गई, यह अब तक के किसी भी दशक में दर्ज की गई सर्वश्रेष्ठ वृद्धि थी।

इन उपलब्धियों के बावजूद आज भी विश्व में 15 वर्ष से अधिक आयु के कुल निरक्षरों में से 34 प्रतिशत भारत में हैं । साक्षरता से सम्बन्धित क्षेत्रीय, लैंगिक व सामाजिक विषमताएँ अभी भी व्याप्त हैं।

सभी के लिए स्वास्थ्य

भारत दुनिया का पहला देश था जिसने 1951 में व्यापक परिवार नियोजन कार्यक्रम शुरू यह कार्यक्रम व्यक्तिगत स्वास्थ्य में वृद्धि तथा देश के कल्याण के उद्देश्य से शुरू किया गया था। लेकिन उस समय दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाएँ बहुत कम थी। पिछले कुछ दशकों में पूरे भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का नेटवर्क बढ़ाने के लिए भारी निवेश किया गया । यद्यपि हमने प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों का अपेक्षा के अनुरूप ढाँचा तैयार नहीं किया है पर सरकार सभी को स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान करने के लिए प्रयास कर रही है।

हालाँकि भारत ने स्वास्थ्य के विभिन्न पहलुओं के विकास में नियमित प्रगति की है लेकिन सभी के लिए स्वास्थ्य के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है। वर्ष 2000 तक सभी के लिए स्वास्थ्य का प्रतिपादन विश्व स्वास्थ्य संगठन व यूनिसेफ द्वारा 1978 में अल्माऊत्ता की बैठक में किया गया । इस उद्देश्य का हस्ताक्षरक राष्ट्र होने के कारण भारत ने प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा, परिवार नियोजन, पोषाहार सहायता कार्यक्रमों को प्राथमिकता देना शुरू किया। भारत सहित विश्व के नेताओं ने इस लक्ष्य को वर्ष 2000 तक प्राप्त करने के लिए प्रयास किए।

1951 से 2001 के बीच भारत की जनसंख्या में लगभग तीन गुना वृद्धि हुई, 1951 में 36.10 करोड़ से यह 2001 में 102.70 करोड़ तक पहुँच गई । इसके कारण स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गईहै, इस क्षेत्र में माँग और पूर्ति में भारी अन्तर पैदा हो गया है। यदि हम देश में चिकित्सा सेवाओं के वितरण पर गौर करें तो हम देखते हैं कि इसमें अत्यधिक असमानता है, ज्यादातर चिकित्सा सुविधाएँ बड़े शहरों और नगरों में ही संकेन्द्रित है । इस विषमता को दूर करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना ( एन आर एच एम ) शुरू की है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना के अलावा भारत सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए अन्य अनेक योजनाएँ शुरू की हैं, जैसे जननी सुरक्षा योजना ( जे एस वाई), बालिका समृद्धि योजना (के एस वाई) और किशोरी शक्ति योजना ( के एस वाई ) । राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना की सफलता के कारण भारत सरकार इसी तरह की योजना शहरी क्षेत्रों में लागू करना चाहती है जिसे राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य योजना (एन यू एच एम ) नाम दिया गया है। नीचे दिए गए बॉक्स में आप सरकार द्वारा क्रियान्वित प्रमुख स्वास्थ्य कार्यक्रमों को देख सकते हैं।

आपने क्या सीखा

  • जीवन परिस्थितियों में हो रहे सुधार को विकास के रूप में परिभाषित किया जाता है। लेकिन विकास को अलग-अलग सन्दर्भों में भिन्न-भिन्न प्रकार से परिभाषित किया जाता है जैसे सामाजिक, राजनीतिक, जैविक, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, भाषा, साहित्य आदि का विकास।
  • सामाजिक आर्थिक सन्दर्भ में विकास को शिक्षा, आय, कौशल विकास, रोजगार आदि में सुधार के कारण जीवनशैली में आए बदलाव के रूप में देखा जाता है। यह सांस्कृतिक और पर्यावरणीय कारकों पर आधारित आर्थिक व सामाजिक बदलाव है।
  • कुछ विभेद व असमानताएँ प्रकृति जनित होते हैं, प्रकृति जनित भिन्नताओं को विविधता कहा जाता है। लेकिन कुछ भेद व अन्तर मनुष्यों द्वारा पैदा किए जाते हैं। मनुष्यकृत द व अन्तर को विषमता कहा जाता है। भारत में कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ पर उच्च श्रेणी सुविधाएँ उपलब्ध है जबकि कई अन्य क्षेत्रों में आधारभूत सामाजिक आर्थिक सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं, विभिन्न क्षेत्रों के बीच इस प्रकार की भिन्नताओं को क्षेत्रीय विषमता कहा जाता है।
  • मानव विकास लोगों के लिए विकल्पों का विस्तार तथा उनके लिए बेहतर जीवन स्तर प्राप्त करने को कहा जाता है। इसके अन्तर्गत मनुष्य जीवन के सभी आयाम या पक्ष जैसे आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि सभी आ जाते हैं। इस प्रकार मानव विकास में आय कई घटकों में से एक घटक है। मानव विकास सूचकांक (एच डी आई) के तीन घटक होते हैं, दीर्घ व स्वस्थ जीवन, ज्ञान, रहन-सहन का उत्तम स्तर।
  • 2007-08 की मानव विकास रिपोर्ट के अनुसार भारत का स्थान 177 देशों में से 128 के पायदान पर था। भारत को मध्यम स्तर के देशों के समूह में सबसे निम्न स्थान पर रखा गया था । भारत में जनसंख्या का ऐसा बहुत बड़ा हिस्सा है जिसे समाज के अभावग्रस्त वर्ग में रखा जा सकता है। हम इन वर्गों को अभावग्रस्त समूह में इसलिए रखते हैं कि उनके साथ आज भी आर्थिक और सामाजिक रूप से भेदभाव होता है तथा वे स्वतन्त्र रूप से विकास की प्रक्रिया में भागीदार नहीं बन सकते। ऐसे कुछ समूह हैं अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व महिलाएँ आदि।
  • अभावग्रस्त समूहों के विकास सम्बन्धी अपनी वचनबद्धता को पूरा करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने तीन तरफा रणनीति अपनाई

(i) सामाजिक सशक्तीकरण
(ii) आर्थिक सशक्तीकरण
(iii) सामाजिक न्याय के माध्यम से दमन व शोषण का उन्मूलन तथा विषमताओं को दूर करना और इन वर्गों को सुरक्षा प्रदान करना।

  • दो प्रमुख कार्यक्रम जो देश में दो सामाजिक क्षेत्रों में सुधार के लिए कार्यान्वित किए जा रहे हैं, उदाहरणार्थ शिक्षा और स्वास्थ्य | ये दो कायक्रर्म है सर्वशिक्षा और सभी के लिए स्वास्थ्य योजनाएँ।

NIOS Class 10th सामाजिक विज्ञान (पुस्तक – 2) Notes in Hindi

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