NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter –23 भारतीय लोकतन्त्र समक्ष चुनौतियाँ (Challenges before Indian democracy) Notes in Hindi

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 23 भारतीय लोकतन्त्र समक्ष चुनौतियाँ (Challenges before Indian democracy)

TextbookNIOS
class10th
SubjectSocial Science
Chapter23th
Chapter Nameभारतीय लोकतन्त्र समक्ष चुनौतियाँ (Challenges before Indian democracy)
CategoryClass 10th NIOS Social Science (213)
MediumHindi
SourceLast Doubt

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter –23 भारतीय लोकतन्त्र समक्ष चुनौतियाँ (Challenges before Indian democracy) Notes in Hindi जिसमे हम भारतीय लोकतंत्र की चुनौतियाँ क्या हैं समझाइए?, भारतीय लोकतंत्र के सामने मुख्य चुनौतियां क्या हैं?, भारतीय लोकतंत्र की दो विशेषताएं क्या है?, भारतीय लोकतंत्र से आप क्या समझते हैं?, लोकतंत्र कितने प्रकार के होते हैं?, भारत किस प्रकार का लोकतंत्र है?, भारत में लोकतंत्र की शुरुआत कब हुई?, लोकतंत्र का दिवस कब मनाया जाता है?, भारत में लोकतंत्र कौन लाया?, भारत को लोकतांत्रिक कौन बनाता है?, भारतीय लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक क्या माना जाता है?, लोकतंत्र का नियम क्या है?, हमें लोकतंत्र की आवश्यकता क्यों है? आदि के बारे में पढ़ेंगे 

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 23 भारतीय लोकतन्त्र समक्ष चुनौतियाँ (Challenges before Indian democracy)

Chapter –23

भारतीय लोकतन्त्र समक्ष चुनौतियाँ

Notes 

लोकतंत्र को समझना

आईये हम लोकतन्त्र के अर्थ एवं इसकी सफल कार्य प्रणाली को समझने से प्रारम्भ करें। इससे हमको भारतीय लोकतन्त्र की चुनौतियों को समझने में सहायता मिलेगी।

लोकतंत्र का आशय

बहुत पहले संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था कि “जनता की सरकार, जनता के लिए सरकार और जनता द्वारा सरकार को लोकतन्त्र कहते हैं”। ‘डेमोक्रेसी’ शब्द ग्रीक शब्द ‘डेमोक्रेटिया’ से बना है जिसका अर्थ है ‘जनता का शासन’, यह दो शब्दों ‘डेमोस’ जिसका अर्थ ‘जनता’ होता है और ‘केटोस’ जिसका तात्पर्य ‘शक्ति’ है, को मिलाकर बना है । अतः लोकतंत्र में शक्ति जनता के पास होती है । यह अर्थ ग्रीक शहर – राज्यों विशेषतया एथेन्स में प्रचलित सरकारों के अनुभवों पर आधारित है एवं आज भी लोकतंत्र को सरकार के एक स्वरूप के रूप में परिभाषित किया जाता है। जिसमें सर्वोच्च शक्ति जनता (लोगों) के हाथों में होती है  जिसमें लोग स्वतंत्र आवधिक चुनावों द्वारा प्रतिनिधि चुनने के लिए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से इस शक्ति का प्रयोग करते हैं। जब आप लोकतन्त्र की विभिन्न परिभाषाओं का परिक्षण करेंगे तो आप पाएंगे कि लोकतन्त्र निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा संचालित सरकार का ही रूप है।

यह कथन लोकतन्त्र को राजनीतिक सन्दर्भ में परिभाषित करता है, परन्तु क्या लोकतन्त्रको केवल राजनीतिक सन्दर्भ में ही परिभाषित किया जाना चाहिए? क्या इस अवधारणा की सामाजिक सन्दर्भ अथवा हमारी दैनिक जिन्दगी में राजनीतिक सन्दर्भ से अधिक नहीं तो बराबर की भी प्रांसगिकता नहीं है?

लोकतंत्र की आवश्यक शर्ते

किसी भी व्यवस्था को केवल तब ही वास्तविक एवं व्यापक लोकतन्त्र कहा जा सकता है जब वह लोगों की भागीदारी एवं सन्तोष के राजनीतिक और आर्थिक सामाजिक पहलुओं को पूरा करती हो । आइये हम उनकी पहचान करें। इसकी दो प्रमुख श्रेणियां हो सकती हैं

(क) राजनीतिक शर्तें
(ख) सामाजिक और आर्थिक शर्तें।

पहली स्थिति की पूर्ति राजनीतिक लोकतन्त्र तथा दूसरी की पूर्ति सामाजिक लोकतन्त्र की दिशा में ले जाती है।

सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार होना चाहिए। इसके अतिरिक्त सभी नागरिकों को राजनीतिक सहभागिता के अवसर न केवल नियमित अन्तराल के बाद चुनावों में अपितु राजनीतिक प्रक्रिया  के अन्य पक्षों में भी उपलब्ध होने चाहिए। एक ऐसी उत्तरदायी सरकार होनी चाहिए जिसमें कार्यपालिका विधायिका के प्रति जवाबदेह हो, विधायिका जनता के प्रति जवाबदेह हो तथा न्यायपालिका स्वतंत्र हो । राजनीतिक दलों एवं हित समूहों और दबाव समूहों (संगठनों और गैर सरकारी संस्थाओं) को जन साधारण की आवश्यकताओं, मांगों और शिकायतों को प्रस्तुत करने के लिए क्रियाशील होना चाहिए। यदि स्वतंत्र प्रेस तथा अन्य संचार प्रक्रियाओं के माध्यम से विभिन्न रूपों में जागरूक जनमत बनाए रखा जाए तो लोकतान्त्रिक व्यवस्था अधिक मजबूत होती है। अतः राजनीतिक लोकतन्त्र में उपरोक्त सभी गुण विद्यमान होने चाहिए। क्या आप लोकतन्त्र के लिए कुछ अन्य अधिक आवश्यक शर्तें, विशेषतः गत पाठों में चर्चित विचारों के सन्दर्भ में, सोच सकते हैं?

आप लोकतन्त्र की सामाजिक और आर्थिक शर्तों को जानने के लिए उद्यत्सुक होंगे। किसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था को सुनिश्चित करना होता है कि सामाजिक हैसियत और विकास के अवसरों की समानता, सामाजिक सुरक्षा और भलाई लोकतान्त्रिक मूल्यों और नियमों के अनुरूप है । नागरिकों को सार्वभौमिक और अनिवार्य शिक्षा के अवसर मिलने चाहिए। उन्हें आर्थिक विकास के साधनों का उपयोग करने में सक्षम बनाना चाहिए। आर्थिक विकास के लाभ सब तक और विशेष रूप से गरीब तथा समाज के वंचित वर्गों तक पहुंचने चाहिए। लोगों का सामाजिक आर्थिक विकास सामाजिक लोकतन्त्र को मजबूत करता है ।

भारतीय लोकतंत्र की चुनौतियाँ

स्वतंत्रता प्राप्ति से ही भारत एक जिम्मेदार लोकतंत्र के रूप में कार्य कर रहा है। इसकी अन्तर्राष्ट्रीय समुदायों द्वारा सराहना की जाती है इसने चुनौतीपूर्ण स्थितियों को सफलतापूर्वक सामना किया है। पंचायतों से लेकर राष्ट्रपति पद तक सब राजनीतिक पदो के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष आवधिक चुनाव हाते रहे हैं। एक राजनीतिक दल अथवा राजनीतिक दलों के गठबंधन से दूसरे राजनीतिक दल में राजनीतिक शक्तियों का निर्बाध हस्तांतरण राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर अनेक बार हुआ है। आप हमारे पड़ोसी देशों पाकिस्तान, म्यॉमार एवं बंगलादेश में अनेक उदाहरण पाएंगे जहाँ शक्तियों का हस्तातंरण सैनिक विद्रोह के माध्यम से हुआ हैं।

विधायिका, कार्यपालिक एवं न्यायपालिका अच्छी तरह से कार्यशील हैं। संसद एवं राज्य विधान मंडल प्रश्नकाल इत्यादि जैसे साधनों से कार्यपालिका पर प्रभावपूर्ण नियंत्रण रखती हैं। कुछ महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली अधिनियम जैसे सूचना अधिकार अधिनियम 2005 शिक्षा का अधिकार 2009 एवं अन्य कल्याणकारी तरीकों ने जनता का सशक्तीकरण किया है। प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया को पूरी स्वायत्तता है और जनमत तैयार एवं प्रभावित करने में मुख्य भूमिका निभाता है। जीवन के लगभग सभी पक्षों में प्रभावकारी परिवर्तन हुए हैं और राष्ट्र सामाजिक-आर्थिक विकास के मार्ग पर अग्रसर है।

भारत एक बहुत बड़ा देश है जिसमें भाषा, संस्कृति एवं धर्म की अनेक विविधताए है। स्वतंत्रता के समय भारत आर्थिक रूप से अल्पविकसित देश था । हमारे देश में अनेक क्षेत्रीय विषमताएं, व्यापक गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी और लगभग सभी जन कल्याण साधनों की कमी है। नागरीकों को स्वतंत्रता से बहुत सी अपेक्षाएं थीं। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि भारत जो बहुत प्रगति की हैं। तथापि, देश समाज के विभिन्न वर्गो की अपेक्षाओं की पूर्ति के मामले में अनेक चुनौतियों का मुकाबला कर रहा है। ये चुनौतियाँ वर्तमान में देश एवं अन्तराष्ट्रीय स्थितियों के साथ-साथ लोकतंत्र के निर्बाध कार्यशीलता हेतु आवश्यक स्थितियों की कमी के कारण उत्पन्न हुई हैं। इनकी नीचे चर्चा की गई हैं।

निरक्षता

स्वतंत्रता प्राप्ति समय भारत में लोकतंत्र के सफल कार्यशीलता हेतु व्यक्तियों में लोगों में फैली निरक्षरता गंभीर चिन्ता की बात थी और यह अब भी एक मुख्य चुनौती बनी हुई है। लोकतंत्र की सफल कार्यशीलता एवं देश के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए दोनों ही नागरिकों का शिक्षा-स्तर महत्वपूर्ण है और शायद इससे भी अधिक यह मानवीय गरिमा हेतु एक अनिवार्य शर्त हैं, लेकिन भारत की स्वतंत्रता प्राप्त के समय औपचारिक साक्षरता का स्तर निराशाजनक था । 1951 में साक्षरता दर पुरूषों मे 18.33 प्रतिशत एवं महिलाओं में 8.9 प्रतिशत थी । इसलिए यह आशंका थी कि नागरिक अपनी भूमिका को प्रभावी रूप से अदा नही कर पाएंगे और मताधिकार का अर्थपूर्ण ढंग से प्रयोग नहीं कर पाएंगे जो जन शक्ति की अभिव्यक्ति है।

जैसा कि आप जानते हैं कि इन वर्षों में लोगों ने इस आशंका को गलत सिद्ध किया है। इतनी बड़ी संख्या में निरक्षर होने के बावजूद उन्होंने अपने मताधिकार के प्रयोग में परिपक्वता को प्रदर्शित किया है जिसके फलस्वरूप स्वतंत्रता के बाद एक नहीं अनेक बार सत्ता का शान्तिपूर्ण हस्तातरण हुआ है। 1970 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस श्रीमती इन्द्रा गांधी के नेतृत्व में काफी लोकप्रिय थी । परन्तु 1977 के आम चुनावों में भारत के लोगों ने उसको आपातकाल के दौरान सत्ता के दुरुप्रयोग के कारण नकार दिया और केन्द्र में पहली बार किसी गैर कांग्रेसी सरकार को जनता पार्टी के रूप में अवसर प्रदान किया। उसके पश्चात केन्द्र और राज्य, दोनों में प्रायः नियमित सरकारें बदलती रही हैं।

साक्षरता नागरिकों को न केवल चुनाव में भाग लेने एवं अपने मताधिकार को प्रभावी तरीके से प्रयोग करने हेतु आवश्यक है बल्कि इसके और भी महत्वपूर्ण आयाम है। नागरिको को देश के विभिन्न मुद्दों, समस्याओं, मांगों एवं हितों के प्रति जागरुक बनाती हैं। यह उन्हें सभी की स्वतंत्रता एवं समानता के मूल सिद्धान्तों का बोध कराती हैं एवं सुनिश्चित करती है कि उनके द्वारा चुने गए प्रतिनिधि समाज के सभी हितों का प्रतिनिधित्व करें। अतः सार्वभौमिक साक्षरता भारतीय लोकतंत्र के सफल कार्यशीलता के लिए आवश्यक हैं। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार यद्यपि साक्षरता दर 74.04 प्रतिशत तक बढ़ी है पर महिला साक्षरता दर अभी भी 65.46 प्रतिशत पर सीमित है। इसका तात्पर्य है कि देश की एक चौथाई जनसंख्या अभी तक निरक्षर है जबकि महिलाओं में तीन में से एक महिला साक्षर है यदि बच्चों को बनियादी शिक्षा मिले तो निरक्षरता की समस्या रूक सकती है। हाल ही में, शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बना दिया है। हमें आशा है कि इससे बच्चों की सार्वभौमिक शिक्षा में सहायता मिलेगी ।

गरीबी

सामान्यताः यह कहा जाता है कि एक भूखे इंसान के लिए वोट के अधिकार का कोई मतलब नहीं है। उसके लिए प्रथम आवश्यकता भोजन है। अतः गरीबी को लोकतंत्र का सबसे बड़ा अभिशाप माना गया है। वस्तुतः यह सभी प्रकार के वचनों एवे असमानता का मूल कारण है । यह लोगों को स्वस्थ एवं भरपूर जीवन जीने के अवसरों को नकारने के समान है । निसंदेह, भारत को ब्रिटिश उपनिवेश शासन के शोषण के कारण गरीबी विरासत में मिली है। लेकिन, यह आज भी सबसे गभ्भीर समस्या बनी हुई है। आज भी भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे रहता है जिसे बी पी एल कहते है । गरीबी रेखा का तात्पर्य है कि आय का ऐसा स्तर है जिसके नीचे रहने वाला व्यक्ति अपने भोजन कपड़ों और मकान की आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकता। 1960 के दशक में गरीबी रेखा की सरकारी परिषाषा एक व्यक्ति द्वारा पौष्टिक स्तर वाली न्यूनतम कैलोरी की मात्रा वाले भोजन को खरीदने के लिए आवश्यक आय से मापी जाती थी। इसके अनुसार भारतीय परिस्थितियों में एक ग्रामीण के लिए औसतन 2400 कैलोरी

प्रतिदिन और एक शहरी व्यक्ति के लिए औसतन 2100 कैलोरी की आवश्यकता अपने आप को गरीबी रेखा से ऊपर रखने के लिए है।

सन् 1990 के दौरान, खाद्य पदार्थों के अतिरिक्त जैसे कपड़ा, रोजगार, आश्रय (घर), शिक्षा इत्यादि को गरीबी की परिभाषा में शामिल किया गया था।

आज के दौर में गरीबी को अधिकारों से वंचित किए जाने के साथ जोड़ा गया है। यह मजूद-उल-हक एवं अमर्त्य सेन द्वारा प्रचालित मानव विकास सूचकांक के साथ भी सम्बद्ध है । मानव विकास सूचकांक के दृष्टिगत गरीबी की परिभाषा गरीबी की परिभाषा में सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक और मानव अधिकारों को शामिल किया गया है।

लैंगिक भेदभाव

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लड़कियों एवं महिलाओं के विरूद्ध भेदभाव विद्यमान है। आपको भी हमारे समाज और राजनीति मे लैंगिक भेदभाव का अनुभव हुआ होगा, लेकिन हम जानते हैं कि लैंगिक समानता लोकतंत्र का एक प्रमुख सिद्धान्त हैं। भारतीय संविधान राज्य पर यह दायित्व डालता है कि पुरुष एवं महिला के बीच समानता हो और महिलाओ के विरुद्ध कोई भेदभाव न हो । मौलिक अधिकार, मौलिक कर्तव्य एवं राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्त भी इस आशय को बहुत स्पष्ट करते हैं।

लेकिन लड़कियों के विरूद्ध भेद-भाव जीवन की एक सच्चाई है। यह लिंग अनुपात, बाल लिंग अनुपात और जच्चा मृत्यु दर से स्पष्ट प्रतिबिम्बित होता है। 1901 से पुरूषों की तुलना में महिलाओं की संख्या निरन्तर होता है। 1901 से पुरूषों की तुलना में महिलाओं की संख्या निरन्तर घट रही है । 1901 में लिंग अनुपात प्रति एक हजार पुरूषों पर 972 स्त्रीयों का था । 991 में यह घट कर प्रति हजार पुरूष 927 स्त्री रह गया। 2011 की जनगणना के अनुसार यह प्रति हजार पुरूष पर 940 स्त्री का है। जनगणना ने हरियाणा में लिंग अनुपात को बहुत कम अर्थात 1000 पुरूषों पर 877 स्त्री दर्शाया है । दमन दीव में यह सबसे कम 618 और दिल्ली में 1866 है।

शिशु लिंग अनुपात भी गभ्भीर चिन्ता का विषय है । सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में शिशु लिंग अनुपात (6 वर्ष तक) प्रति 1000 लड़कों पर मात्र 914 लड़कियों का हैं यह अनुपात प्रति 1000 लड़को पर 927 लड़कियों के 2001 की जनगणना से कम है। समाज में लड़को को प्राथमिकता, जन्म से ही लड़कियों के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार एवं लड़कियों की हत्या एवं कन्या भ्रूण हत्या इसकी गिरावट के प्रमुख कारण हैं। आधुनिक तकनीक से लोग मताओं को मादा शिशु का गर्भपात कराने हेतु मजबूर कर देते हैं। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का शिशु मृत्यु दर अपेक्षाकृत अधिक है। सन् 2004-06 में सेंपल रजिस्ट्रेशन प्रणाली के अनुसार जच्चा मृत्युदर एक लाख जन्म पर 254 थी, जिसे अत्यधिक माना जाता है।

जातिवाद – साम्प्रदायिकता एवं धार्मिक कट्टरवाद भारतीय लोकतंत्र जातिवाद, साम्प्रदायिकता एवं धार्मिक कट्टरवाद जैसी गम्भीर चुनौतियों का सामना कर रहा है। इससे लोकतंत्रीय प्रणाली की कार्यशीलता एवं स्थिरता को कमजोर होती है।

जातिवाद – जाति-व्यवस्था का अम्युदय शायद प्राचीन समाज में श्रम विभाजन के संदर्भ में हुआ था जो धीरे-धीरे जन्म पर आधारित कठोर समूह वर्गीकरण में परिवर्तित हो गया है। क्या आपने समाज एवं अपने व्यक्तिगत जीवन में कभी जातिवाद की भूमिका का अनुभव किया है? आप इस बात से सहमत होंगे कि जातिवाद का सबसे घृणित और अमानवीय पहलू छुआछूत है जिए पर संवैधनिक प्रतिबन्ध होने के बावजूद यह समाज में अब भी प्रचलित है। इससे तथाकथित निचली जाति और दलितों का अलगाव पैदा हुआ है जिन्हें शिक्षा एवं अन्य सामाजिक लाभों से वंचित रखा गया है। दलित जातियों का एक किस्म का दासोचित श्रम और समाज में सब से कठिन शारीरिक कार्य करना पड़ता है। लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रियाओं में भी जातिवाद की नकारात्मक भूमिका रही है। वास्तव में, जातिवाद संकीर्ण राजनीतिक लाभ के लिए शोषण की रणनीति के रूप में बदनाम है। जातिवाद लोकतंत्र के मूल तत्वों का विरोधी है । समानता, अभिव्यक्ति एवं संघ बनाने की स्वतंत्रता, चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने, स्वतंत्र मीडिया और प्रेस जैसे मौलिक अधिकारों तथा विधायी मंचो तक का जातीय पहचान बनाने के लिए दुरुपयोग किया जाता है।

जातिवाद सामाजिक-आर्थिक असमानता को कायम रखने में भी योगदान देता रहा है। यह सच है कि भारत अनादिकाल से गैर बराबरी समाज रहा है। अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जन जातियाँ एवं पिछड़ी जातियाँ वर्षों से सामाजिक-आर्थिक लाभ से वंचित रही हैं। हमारे समाज में बहुत असमनता है जो भारतीय लोकतंत्र के लिए एक गम्भीर चुनौती बनी हुई हैं।

जाति और राजनीति का घालमेल बहुत चिन्ताजनक है जिसके परिणाम स्वरूप जाति का रानीतिकरण और राजनीति का जातिकरण हो रहा है जो वर्तमान भारतीय राजनीति में हमारे लोकतन्त्र के लिए गम्भीर चुनौती है। उदारवाद और वैश्वीकरण के युग के बावजूद जातीय चेतना समाप्त नहीं हुई है और इसका वोट बैंक की राजनीति के रूप में ‘खूब प्रयोग किया जा रहा है।

साम्प्रदायिकता – भारत में साम्प्रदायिकता एवं धार्मिक कट्टरवाद ने एक खतरनाक एवं भयावह रूप ले लिया है। ये हमारे बहुधर्मी समाज में हमारे सह-अस्तित्व के ढांचे को भंग कर रहे हैं। साम्प्रदायिकता भारत की राष्ट्रीय पहचान का निरादर करती है और पंथ निरपेक्ष संस्कृति के विकास के मार्ग में बड़ी बाधक है। यह हमारे लोकतांत्रिक राजनीतिक स्थायित्व के लिए खतरा तथा हमारी मानवीय एवं मिश्रित संस्कृति की यशस्वी परपंराओं को बर्बाद कर रही है । प्रायः सम्प्रदायिकता को धर्म या रूढ़िवादिता का पर्याय मानने के गलती की जाती है । अपने धर्म के प्रति निष्ठा एवं धार्मिक समुदाय से लगाव साम्प्रदायिकता नहीं है।

यद्यपि रूढ़िवादिता सामाजिक पिछड़ेपन को दर्शाती है तो भी इसे साम्प्रदायिकता नही माना जा सकता । वस्तुतः साम्प्रदायिकता किसी धार्मिक समुदाय से कट्टरपंथी आधार पर जुड़े रहने की राजनीतिक विचारधारा है। यह एक धार्मिक समुदाय को दूसरे समुदाय के विरुद्ध करती है और दूसरे समुदाओं को अपना दुश्मन समझती है । यह पंथ निरपेक्षता और यहाँ तक कि मानवतावाद की भी विरोधी है। सांप्रदायिकता का एक परिणाम समुदायिक दंगे हैं। हाल ही के वर्षो में साम्प्रदायिकता हमारे सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन के लिए कई बार गभ्भीर खतरा साबित हुई है। क्या आप हाल के वर्षो में हुए कुछ साम्प्रदायिक घटनाओं को याद कर सकते है ?

धार्मिक कट्टरवाद – धार्मिक कट्टरवाद भी साम्प्रदायिक ताकतों को धर्म एवं राजनीति, दानों का शोषण करने को बढ़ावा देता है। वस्तुतः कट्टरवाद, एक विचारधारा की तरह कार्य करता है जो रूढ़िवाद वापसी की वकालत करता है और धर्म की कट्टरता के सिद्धान्तों का कड़ाई से पालन करता है । धार्मिक कट्टरवादी प्रगतिशील सुधारों का कठोरता से विरोध करता है ताकि वह अपने से संबंधित समुदायों पर अपना एक छत्र नियंत्रण स्थापित कर सकें।

क्षेत्रीयवाद

भारतीय लोकतंत्र क्षेत्रीयवाद से भी संघर्ष कर रहा है जो मुख्यतः विकास के क्षेत्र में क्षेत्रीय असमानता और असंतुलन का परिणाम हैं। हम सभी जानते है कि भारत एक बहुविध देश है जिसमें धार्मिक, भाषागत, सामुदायिक, जनजातिगत तथा सास्कृतिक विविधताएं सदियों से विद्यमान हैं बहुत से सांस्कृतिक एवं भाषागत समुदाय कुछ खास क्षेत्रों में रहते हैं । यद्यपि विका का उद्देश्य देश के सभी क्षेत्रों की वृद्धि एवं विकास रहा है लेकिन फिर भी प्रति व्यक्ति आय, साक्षरता दर, स्वास्थ्य एवं शिक्षा की आधारभूत सरंचना एवं सेवा, जनसंख्या स्थिति तथा औद्योगिक एवं कृषि विकास के सन्दर्भ में क्षेत्रीय विषमताएं एवं असंतुलन – विद्यमान हैं । राज्यों के बीच तथा एक ही राज्य के विभिन्न इलाकों के बीच असमान विकास के होने एवं जारी रहने से लोगो में उपेक्षा, वंचन एवं पक्षपात की भावना पैदा होती है। ऐसी स्थिति से क्षेत्रीयवाद पनपा है। जिसके कारण नए राज्यों के निर्माण, स्वायत्तता, राज्यों को अधिक अधिकार देने की मांग जोर पकड़ रही हैं।

यह सच है कि भारत जैसे विशाल एवं बहुविध देश में क्षेत्रीयवाद या उप-क्षेत्रीयवाद का स्वाभाविक है। क्षेत्रीय अथवा उप क्षेत्रीयवाद हितों का समर्थन देने अथवा उनका पोषण करने के प्रत्येक प्रयास को विभाजक, विखंडक अथवा देश विरोधी प्रवृति कहना ठीक नहीं है। समस्या तब उत्पन्न होती है जब इन हितों का राजनीतिकरण किया जाता हैं, और क्षेत्रीय आंदोलनों को गलत राजनीतिक उद्देश्यों के लिए बढ़ावा दिया जाता है। इस प्रकार की क्षेत्रीय अथवा उप-क्षेत्रीय देशभक्ति कैंसर के समान एवं विघटनकारी है। लगातार क्षेत्रीय असमानता ने हमारे देश के कुछ भागों में उग्रवादी आंदोलनों को जन्म दिया है। जम्मू तथा कश्मीर अथवा असम में उल्फा (यूनाइटेड लिबरेशन फंड ऑफ असम) की अलगाववादी मांगें अथवा उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में विभिन्न समूहों की मांगे भारतीय राजनीति के लिए चिन्ता का विषय हैं।

भ्रष्टाचार

सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार भारत में चिन्ता का मुख्य विषय रहा है। 2011 में ट्रान्सपरेन्सी इन्टरनेशनल के भ्रष्टाचार बोध सूचकांक (सीवीआई) में भ्रष्टाचार के आधार पर भारत को 183 देशों की सूची में 95 वॉ स्थान प्राप्त हुआ है। वास्तव में, भारत में जीवन के क्षेत्र में भ्रष्टाचार व्याप्त है चाहे वह भूमि और सम्पति हो अथवा स्वास्थ्य, शिक्षा, वाणिज्य एवं उद्योग, कृषि परिवहन, पुलिस, सैन्यबल यहाँ तक कि धार्मिक संस्थानों अथवा तथाकथित अध्यात्मिक क्षेत्र के स्थानों में भी भ्रष्टाचार व्याप्त है। भ्रष्टाचार राजनीति, नौकरशाही एवं कार्पोरेट क्षेत्र के तीनों स्तरों में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष ढंग से विद्यमान है । कोई भी राजनेताओं, नौकरशाहों एवं उद्योगपतियों के बीच ऐसा नापाक सम्बन्धों देख सकता है जो भ्रष्टाचार एवं भ्रष्ट कार्यों को अंजाम देते हैं। भ्रष्टाचार के तारों ने सरकार के सभी अंगों, विशेषतः न्यायपालिका को प्रभावित किया है। इन सबसे ऊपर निर्वाचन प्रक्रिया में भ्रष्टाचार तथा मतदाताओं को विभिन्न स्तरों पर रिश्वत देना अब एक आम बात हो गई है।

क्या आपने अथवा आपके मित्रों ने पिछले कुछ वर्षों में चुनाव प्रक्रिया में ऐसा होते हुए देखा है? हाल ही के वर्षो में देश में एक के बाद एक कई बड़े-बड़े घोटाले सामने आए हैं । वस्तुतः भ्रष्टाचार राजनीतिक अस्थिरता एवं संस्थागत हास का प्रतीक हैं जो शासन की वैधता एवं औचित्य को गभ्भीरता से चुनौती दे रहा हैं। आइए, एक नागरिक होने के नाते हमें यह प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि हम सभी स्तरों पर भ्रष्ट आचरण से दूर रहेंगे तथा अपने देश से भ्रष्टाचार को समाप्त करने में सहयोग देंगें ।

राजनीति का अपराधीकरण

हाल ही के वर्षों में, भारत में राजनीति का अपराधीकरण बहस का मुद्दा एक हो गया है। यह आरोप है कि राजनीति में कुछ ऐसे तत्व है, जिन्हें लोकतान्त्रिक मूल्यों एवं व्यवहार में विश्वास नहीं है । वे हिंसा में लिप्त रहते हैं और चुनाव जीतने के लिए अस्वस्थ एवं अन्य अलोकतान्त्रिक तरीकों का सहारा लेते हैं । निसंदेह, राजनीति में यह प्रवृति हानिकारक है और ऐसी प्रवृतियों की रोकथाम करने की तुरंत आवश्यकता हैं।

राजनीति का अपराधीकरण लोकतांत्रिक मूल्यों को नकारता है और लोकतांत्रिक ढांचे में इसके लिए कोई स्थान नहीं हैं। लोकतान्त्रिक मूल्यों को अपना कर अथवा उनको बढ़ावा देकर तथा आपराधिक गतिविधियों को नकार कर लोकतन्त्र को मजबूत किया जा सकता है।

हाल ही में, राजनीति में अपराधी प्रवृतियों पर गंभीरता से संज्ञान लेते हुए न्यायपालिका ने ऐसे तत्वों पर पूरी रोक लगाने के लिए निवारणात्मक उपाय लागू करने के संकेत दिए हैं। इस मामले को केन्द्रीय सरकार एवं कई राज्य सरकारें गंभीरता से लेकर प्रभावी कदम उठा रही हैं। यह बड़े संतोष का विषय है और हमारे देश में लोकतंत्र की सफल कार्यशीलता का स्वस्थ संकेत है | हम एक जागरूक नागरिक एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के मतदाता के रूप में ऐसे व्यक्ति को चुनाव लड़ने से हतोत्साहित कर के अपना योगदान दे सकते हैं जिसकी पृष्ठभूमि आपराधिक ही हो ।

राजनीतिक हिंसा

हमारे साथ, बहुत लम्बे समय से हिंसा रही है किन्तु राजनीतिक उद्देश्य के लिए हिंसा का प्रयोग किसी व्यवस्था के अस्तित्व के लिए खतरा हैं। भारत में हमने हिंसा के कई रूप देखे हैं । आम तौर पर साम्प्रदायिक हिंसा जातिवादी हिंसा तथा राजनीतिक हिंसा ने गभ्भीर रूप ले लिया है। राजनीतिक, धार्मिक एवं आर्थिक कारणों से निहित स्वार्थ के लिए साम्प्रदायिक दंगे कराये जाते हैं | जातिवादी हिंसा विभिन्न रूपों में बढ़ती जा रही हैं। कृषि क्षेत्र में विकास, जमींदारी व्यवस्था का उन्मूलन एवं हरित एवं श्वेत क्रांति के बावजूद समाज में सामंतवादी तत्वों का बोलबाला बना हुआ है। उच्च एवं मध्यम जातियों के बीच हितों का गम्भीर टकराव हैं एवं इसके परिणाम स्वरूप राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के लिए आक्रात्मक प्रति द्वन्द्विता होने लगी है जो अनेक बार हिंसा को जन्म देती है

दलित एवं निम्न जातियों, विशेष रूप से, अनुसूचित जातियों एवं पिछड़ी जातियों में अपने अधिकारो के प्रति बढ़ती जागरूकता एवं प्रभावशाली ढंग से उन अधिकारों का दावा करने की प्रवृति के कारण उच्च जातियों द्वारा की जाने वाली तीखी प्रतिक्रिया से भी जातिवादी हिंसा बढ़ी हैं चुनावों के दौरान या तो मतदाताओं को मत देने के लिए लामबन्द करने अथवा उन्हें मत देने से रोकने के लिए हिंसा का प्रयोग किया जाता है। इसके साथ ही अलग राज्य अथवा राज्य की सीमा में बदलाव लाने की मांग के लिए भी हिंसा का सहारा लिया जाता है । औद्योगिक हड़तालों, किसानों के आंदोलनों तथा छात्र आन्दोलनों में भी हिंसा का बार-बार प्रयोग किया जाता है ।

सुधारक उपाय

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारत में लोकतंत्र गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा हैं । वस्तुतः स्वतंत्रता आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले नेता एवं विशेषकर संविधान निर्माता इन मुद्दों के प्रति जागरूक थे। उन्होंने इसके निराकार हेतु अनेक सवैधानिक उपबंध प्रदान किए हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सरकारों ने भी इनमें से अनेक चुनौतियों के समाधान हेतु विभिन्न कदम उठाए हैं। इनमें से कुछ में पर्याप्त सुधार हुआ हैं तथापि अभी भी बहुत कुछ करना बाकी हैं जिसके लिए प्रयास जारी है। सरकारी एजेंसियों राजनीतिक दलों, सिविल सोसाइटी एवं नागरिकों के बीच सामान्य समन्वय की जरूरत है कुछ अपनाए गए महत्वपूर्ण सुधारक उपायों को निम्नलिखित प्रकार कार्यान्वित किया जा सकता है।

सार्वभौमिक साक्षरता एवं सब के लिए शिक्षा

भारतीय संविधान-निर्माताओं ने लोकतंत्र की प्रभावी कार्यशीलता हेतु शिक्षा के महत्व एवं आवश्यकता को पूरी तरह से समझा था । इसीलिए 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों के लिए निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा भारत की सवैधानिक प्रतिबद्धता है। राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर की अनेक सरकारें इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के अनुसार निरक्षरता को समाप्त करने हेतु 1988 में सर्वशिक्षा अभियान के द्वारा राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की स्थापना की गई लेकिन अभी भी सार्वभौमिक साक्षरता के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हुई। वर्तमान में ‘साक्षर भारत’ नामक कार्यक्रम का कार्यान्वयन पूरे देश में हो रहा हैं इसक लक्ष्य 15 वर्षों से अधिक आयु वाले सभी वयस्कों को प्रयोजनमूलक साक्षरता एवं संख्यात्मक ज्ञान बढ़ाना है ताकि वे अपनी सीखने की प्रक्रिया को बेसिक साक्षरता से आगे जारी रखें। इसी प्रकार सर्वशिक्षा अभियान 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चलाया जा रहा है। इसके अतिरिक्त, भारतीय संसद ने 2009 में शिक्षा का अधि कार अधिनियम पारित किया है जिसमें 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया है।

गरीबी उन्मूलन

भारत में गरीबी उन्मूलन हेतु 1970 से ही अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं । इन कार्यक्रमों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता हैं।

(i) इसमें गरीबों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाने के लिए साधन या कौशल या दोनों प्रदान किए जाते हैं ताकि वे इसका उपयोग कर अधिक आय अर्जित करने में सक्षम हो सकें।

(ii) गरीबों एवं भूमिहीनों को अस्थायी तौर पर सवैतनिक नौकरी देने के कार्यक्रम भी लागू किए जा रहे हैं।

लैंगिक भेदभाव का उन्मूलन

अब यह स्वीकार किया जा रहा है कि ‘जनता की, जनता के लिए एवं जनता द्वारा’ का लोकतंत्र का लक्ष्य तब तक पूरी तरह से प्राप्त नहीं होगा जब तक महिला जनसंख्या को सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक विकास की प्रक्रिया के सभी पहलुओं में शामिल नहीं किया जाएगा। इसलिए,सवैधानिक प्रावधानों के अतिरिक्त, महिलाओं के विकास हेतु अनेक कानून एवं नीतियाँ बनाई गई हैं तथा कार्यान्वित किया गया है। महिलाओं के विकास हेतु संस्थागत सुधार किए गए हैं। भारतीय संविधान के 73वें एवं 74वें संशोधन राजनीति में महिला सशक्तिकरण की प्रक्रिया के मील का पत्थर हैं । इन संशोधनों से पंचायती राज संस्थानों, नगर पालिकाओं एवं नगर निगमों की एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गई हैं । अन्य महत्वपूर्ण घटना 2001 से महिलाओं के सशक्तिकरण हेतु राष्ट्रीय नीति को स्वीकार करना है जिसके उद्देश्य महिलाओं को उत्थान के मार्ग पर अग्रसर करना, उनका विकास और सशक्तिकरण करना हैं । इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु बहुत कुछ करना शेष हैं।

क्षेत्रीय असंतुलन को समाप्त करना

भारत में योजना बनाने की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करना रहा है। क्षेत्रीय असमानता को घटाने के प्रयास किए जा रहे हैं। इसके अलावा कुछ राज्यों द्वारा अपनी अंतर – क्षेत्रीय असमानताओं को कम करने के विशेष प्रयास किए जा रहे हैं। ऐसे क्षेत्रों के पिछड़ेपन के विशिष्ट पहलुओं का ध्यान रखने के लिए विगत दो अथवा तीन दशकों से केन्द्र द्वारा प्रायोजित अनेक कार्यक्रम भी चल रहे हैं। क्या आप अपने क्षेत्र में लागू किए जा रहे किसी केन्द्र प्रायोजित कार्यक्रम के बारे में जानते हैं? कुछ प्रमुख कार्यक्रम हैं।

(i) जनजाति विकासकार्यक्रम
(ii) पहाड़ी क्षेत्र विकास कार्यक्रम
(iii) सीमा क्षेत्र विकास कार्यक्रम
(iv) पश्चिमी घाट विकास कार्यक्रम
(v) सूखा – संभावित क्षेत्र कार्यक्रम एवं
(iv) रेगिस्तान विकास कार्यक्रम प्रत्येक विकास योजना के बजट में उत्तर-पूर्व क्षेत्र के राज्यों के विकास के लिए कुछ प्रतिशत निर्धारित किया जाता है जिसका उपयोग उस क्षेत्र के विकास के लिए किया जाता हैं । यद्यपि अविकसित इलाकों के विकास का कार्य एक राष्ट्रीय दायित्व है लेकिन राज्य एवं स्थानीय नेतृत्व की इसमें अहम भूमिका होती है। जब तक स्थानीय नेतृत्व – राजनीतिक, नौकरशाही एवं बुद्धिजीवी संबंधित क्षेत्र की जनता के साथ शेयर आधारित विकास को स्वीकार नहीं करेंगे तब तक अच्छे परिणाम मुश्किल से आएंगे। स्रोतों कर अभाव नहीं है, बल्कि स्त्रोतों को ठीक से खर्च करना ही चिन्ता का मूल मुद्दा है।

प्रशासनिक एवं न्यायिक सुधार

उपरोक्त सभी सुधारक उपायों की सफलता प्रशासन की प्रभावी कार्यशीलता एवं न्यायिक व्यवस्था के स्वतंत्र एवं न्यायसंगत होने पर निर्भर करती है, लेकिन दोनों के लिए उचित कदम उठाने की आवश्यकता है। सार्वजनिक प्रशासन का कार्य-निष्पादन विगत कुछ वर्षो से सूक्षम परीक्षण के दायरे में आया है। प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार अक्षम कार्यशीलता, अपव्यय एवं नागरिकों की जरूरतों के प्रति उदासीनता जैसी सामान्य प्रचलित समस्याओं से प्रशासन ग्रस्त हैं । निसंदेह, भारतीय न्यायपालिक स्वतंत्र एवं तटस्थ रही है लेकिन धीमी रफ्तार के कारण न्याय में विल्मब तथा कार्य का पिछड़ना एवं (ii) फौजदारी मामलों की अभियोजना की दर बहुत कम होना ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही सरकार के एजेंडा में प्रशासनिक सुधार का मुद्दा लगातार रहा है। इस संबंध में कई आयोग एवं समितियों गठित की गई लेकिन उनके सुझावों को पूर्ण रूप से लागू न करने के कारण कोई सुधार नहीं हो सके। क्योंकि इसके लिए नौकरशाही में परिवर्तन के प्रति अनिच्छा रही है। इन आयोगों एवं समितियों ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं।

(i) प्रशासन को उत्तरदायी तथा नागरिकों के प्रति मैत्रीपूर्ण बनाया जाए
(ii) गुणवत्तापूर्ण शासन हेतु इसकी क्षमता बढ़ाना
(iii) शासन में लोगों की भागीदारी, शक्तियों का विकेन्द्रीकरण एवं हस्तातरण
(iv) प्रशासनिक निर्णय लेने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना
(v) लोक-सेवकों में कार्य-निष्पादन एवं ईमानदारी को उन्नत करना
(vi) प्रशासन में नैतिकता को बढ़ाना
(vii) ई-गवर्नेन्स के लिए तैयार रहना

न्यायपालिका में सुधार लाना बहुत समय से चिन्ता का एक विषय रहा है। कई अवसरों पर अनेक सिफारिशें की गई हैं। इस बारे में विचारणीय महत्वपूर्ण मुद्दे इस प्रकार हैं

(i) नियमों एवं प्रक्रियाओं को सरल बनाना
(ii) पुराने कानूनों को निरस्त करना
(iii) जनसंख्या अनुपात में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाना
(vi) न्यायपालिका में रिक्त पदों को समय बद्ध तरीके से भरना
(vii) न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदोन्नति एवं स्थानान्तरण में पारदर्शिता
(viii) न्यायिक जवाबदेही
(ix) न्यायालय कार्यवाही में पारदर्शितान्यायपालिका में सुधार लाना बहुत समय से चिन्ता का एक विषय रहा है। कई अवसरों पर अनेक सिफारिशें की गई हैं। इस बारे में विचारणीय महत्वपूर्ण मुद्दे इस प्रकार हैं

(i) नियमों एवं प्रक्रियाओं को सरल बनाना
(ii) पुराने कानूनों को निरस्त करना
(iii) जनसंख्या अनुपात में न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाना
(vi) न्यायपालिका में रिक्त पदों को समय बद्ध तरीके से भरना
(vii) न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदोन्नति एवं स्थानान्तरण में पारदर्शिता
(viii) न्यायिक जवाबदेही
(ix) न्यायालय कार्यवाही में पारदर्शिता

दीर्घकालिक विकास (आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय)

यदि भारत दीर्घकालिक विकास के मार्ग पर चले तो यहाँ का लोकतंत्र सभी प्रकार की चुनौतियों का पर्याप्त उत्तर दे सकता है। करोडों लोगों की वर्तमान एवं भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखे बिना विकास का कोई प्रतिमान लोकतंत्र को बनाये रखने में सहायक नहीं हो सकता है 1 विकास को हमेशा मानव-केन्द्रित होना चाहिए और सभी लोगों की जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाने की ओर निर्देशित होना चाहिए। इसको गरीबी, अज्ञानता भेदभाव, रोग तथा बेराजगारी को हटाने पर केन्द्रित रहना चाहिए। विकास प्रक्रिया का उद्देश्य दीर्घकालीन आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय विकास होना चाहिए।

लोकतंत्र में नागरिकों की भूमिका

भारत के नागरिक के रूप में क्या हम लोकतंत्र में नागरिकों की भूमिका को सही ढंग से समझ हैं? यह भूमिका इतनी महत्वपूर्ण क्यों है? सामान्यतया यह समझा जाता हैं कि सरकार लोगों पर शासन करती है और लोगों को उसकी सत्ता का आदर करना चाहिए। और लोग शासित होने के लिए ही है। लेकिन क्या आप यह नहीं सोचते कि लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता। भारत जैसी लोकतान्त्रिक प्रणाली में नागरिकों को न तो निष्क्रिय और न ही शासित समझना चाहिए । वास्तव में लोकतंत्र तभी सफल, मुखर एवं बेहतर सकता है जब उसके नागरिक अपनी सोच और व्यवहार में बुनियादी मूल्य जैसे समानता, स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता सामाजिक न्याय, जवादेही एवं सभी के लिए आदर को आत्मसात एवं प्रतिबिम्बित करें। उन्हें अपनी वांछित भूमिकाओं के अवसरों को समझना चाहिए एवं लोकतंत्र के उद्देश्य की प्राप्ति हेतु सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए ।

नागरिकों की भूमिका के अवसरों की समीक्षा

लोकतांत्रिक नागरिक के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन करने के अवसर सभी लोकतंत्रों में उपलब्ध रहते हैं लेकिन उनकी भूमिकाएं एक-दूसरे से भिन्न रहती हैं। आधुनिक स्वरूप में भारत में लोकतंत्र का प्रारभ्भ एक लम्बे उपनिवेशी शासन के बाद हुआ है । यद्यपि 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्रारम्भ हो गया था। पर भारत का सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश लोकतांत्रिक परिवेश के अनुकूल नहीं था । भारत एक विशाल, बहु-सास्कृतिक, बहुभाषा भाषी तथा सही अर्थों मे बहुसंख्यक समाज है और यह कई अर्थो में परम्परावाद की विशिष्ठताओं को कायम रखे हुए हैं। दूसरे, साथ ही, यह आधुनिक लोकतंत्र के मूल्यों को भी आत्मसात कर रहा हैं आज भी बहुत से लोग मानते है कि सरकार को शासन करना हैं और उसे सब कुछ करना हैं और यदि काम अपेक्षित ढंग से नहीं हो रहे हैं तो इसके लिए सरकार ही दोषी है। आप जानते है कि हमारे देश में निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा लोकतांत्रिक सरकार चलाई जाती है । इस सिलसिले में भारत का प्रत्येक नागरिक राष्ट्रीय, राज्य एवं स्थानीय स्तरों पर कार्यरत सरकारों के काम करने के ढंग के लिए उत्तरदायी है । इसीलिए भारतीय लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हैं और उसे अपनी भूमिका के प्रत्येक अवसर का उपयोग करना चाहिए। क्या भारतीय नागरिक के रूप में हम अपनी भूमिकाओं का निर्वहन करते है ? नागरिकों की भूमिका के लिए प्रमुख अवसर निम्नलिखित हो सकते हैं-

(क) भागीदारी

सार्वजनिक जीवन में भागीदारी करना नागरिकों की महत्वपूर्ण भूमिका है । इस तरह की भागीदारी करने के अवसर चुनावों में अपने मताधिकार को प्रयोग करते समय सभी नागरिकों को मिलता है । बुद्धिमानी से अपने मताधिकार का प्रयोग करने के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक नागरिक विभिन्न उम्मीदवारों तथा राजनीतिक दलों के विचारों को सुने व जाने। इस आधार पर स्वयं यह निर्णय ले कि उसका मत किसको मिलेगा। लेकिन यह पाया गया है कि बहुत से मामलों में मतदान का प्रतिशत बहुत कम रहता हैं। चुनाव आयोग लोगों को चुनाव में शामिल होने की महत्ता के बारे में शिक्षित करने का प्रयास कर रहा हैं।

तथापि, लोकतंत्र में नागरिकों की भागीदारी मात्र चुनावों में मतदान करने या चुनाव की अन्य प्रक्रियाओं में भाग लेने तक ही सीमित नहीं हैं। राजनीतिक दलों या स्वतंत्र गैर-सरकारी संगठनों के सदस्य के रूप में काम करना भी भागीदारी हैं। गैर-सरकारी संगठनों को ‘सिविल सोसाइटी’ संगठन भी कहते हैं । ये महिलाओं, विद्यार्थियों, कृषकों, श्रमिकों, डाक्टरों, शिक्षकों, व्यापार करने वालों, धार्मिक आस्था रखने वालों, मानव अधिकार कार्यकताओं आदि समूहों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऐसे संगठन औन जन-आंदोलन विभिन्न मुद्दों के संबंध में लोगों के बीच राजनीतिक जागरूकता फैलाते हैं।

(ख) व्यवस्था को उत्तरदायी बनाना

राजनीतिक प्रक्रिया में भागीदारी करना ही पर्याप्त नहीं है । नागरिकों को लोकतांत्रिक व्यवस्था को उत्तरदायी एवं अनुकूल भी बनाना चाहिए संविधान में कार्यपालिका को तो विधायिका के प्रति उत्तरदायी बनाया गया है। लेकिन नागरिकों के लिए आवश्यक है कि वे सांसदों, राज्य विधायिकाओं के सदस्यों एवं पंचायती राज की संस्थाओं, नगरपालिकाओं एवं नगर निगमों के प्रतिनिधियों को उत्तरदायी बनाएं। 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम द्वारा प्रदान किए गए साधनों के उपयोग से नागरिक प्रभावी भूमिका निभ सकते हैं।

नागरिकों पर जनता से जुड़े मुद्दों के बारे में सूचना प्राप्त करने को दायित्व होता है, उन पर राजनीतिक नेताओं एवं प्रतिनिधियों द्वारा अपनी सत्ता का किस प्रकार उपयोग किया जा रहा है, इसे ध्यान से देखने का भी दायित्व होता है, और वे अपनी राय एवं हितों को व्यक्त भी कर सकते है। जब नागरिकों को लगता है कि सरकार अपने वादों को पूरा नहीं कर रही हैं तब वे इस विषय पर मीडिया के द्वारा सवाल उठा सकते है, और सरकार से संस्तुतियों एवं मागों की जवाबदेही ले सकते है । यदि सरकार तब भी वादों को पूरा करने में असफल होती है, तो नागरिक विरोध प्रदर्शन कर सकते हैं, शांतिपूर्ण सत्याग्रह कर सकते हैं, नागरिक अवज्ञा या असहयोग अभियान चला सकते है; ताकि सरकार को उत्तरदायी बनाया जा सके।

सुधारात्मक उपायों के क्रियान्वयन के लिए सकारात्मक भूमिका

लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए, नागरिकों की भागीदारी जरूरी है। चुनौतियों का सामना करने के लिए सुधारात्मक उपाय तभी क्रियान्वित हो सकते हैं जब नागरिक सकारात्मक भूमिका निभाएँ । नागरिकों को कानून का आदर और हिंसा को परित्याग करना चाहिए। प्रत्येक नागरिक को अपने सह नागरिकों के अधिकारों का सम्मान करना चाहिए और अपनी मानवता पर गर्व करना चाहिए। किसी को भी राजनीतिक विरोधी को केवल इसलिए अपमानित नहीं करनाचाहिए कि उसके विचार अलग है। लोगों को चाहिए कि वे सरकार के निर्णयों पर प्रश्न उठाएँ, लेकिन सरकार के अधिकारों को अमान्य नहीं करना चाहिए। प्रत्येक समूह का अधिकार होता है कि ये अपनी संस्कृति को अपनाए और इसका अपने मामलों पर कुछ नियंत्रण हो, लेकिन प्रत्येक समूह को यह भी स्वीकार करना चाहिए कि वह एक बहुसंख्यक समाज एवं लोकतांत्रिक राज्य का हिस्सा है।

जब आप अपनी राय व्यक्त करते हैं, तो आपको अन्य लोगों के विचारों को भी सुनना चाहिए, चाहे लोगों का मत आपसे भिन्न ही क्यों न हो । प्रत्येक का यह अधिकार होता है कि उसे सुना जाए। जब आप कुछ माँग करते हैं, तब आपको यह समझना चाहिए कि लोकतंत्र में, मनचाही सब चीजें प्राप्त करना असंभव है। लोकतंत्र में आपसी सहयोग की जरूरत होती हैं। यदि किसी समूह को हमेशा बाहर रखा जाता है और उसे सुना नहीं जाता है, तो वह गुस्से एवं प्रतिशोध के कारण लोकतंत्र का विरोधी बन जाता है। प्रत्येक व्यक्ति जो शांतिपूर्ण तरीके से भाग लेने का इच्छुक होता है और अन्य लागों का सम्मान करता है, उसे यह अधिकार होना चाहिए कि सरकार देश को किस प्रकार चला रही है, उस बारे में अपनी राय दे सके।यह भी महत्त्वपूर्ण है कि नागरिकों को अपनी राय बनाना बहुत आवश्यक है । लोकतंत्र में यदि प अपनी राय नहीं बनाते हैं तो इसका यह भी मतलब हो सकता है कि आप उन निर्णयों से भी सहमत हैं जिन्हें आप अनुचित मानते है । आपने क्रिया कलाप 23.2 में देखा कि किस तरह अनिल के परिवार के सदस्य परिवार के मुखिया के निर्णय के विरोध में अपनी राय नहीं बनाते हैं।

आपने क्या सीखा

  • लोकतंत्र शासन का एक स्वरूप है जिसमें सर्वोच्च सत्ता जनता में निहित रहती है और जनता इस सत्ता का प्रयोग नियमित अन्तराल में होने वाले स्वतन्त्र निर्वाचनों में एक प्रतिनिधित्व प्रणाली के माध्यम से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से करती है। लेकिन लोकतंत्र को केवल राजनीतिक सन्दर्भ में ही नहीं बल्कि सामाजिक सन्दर्भ और व्यक्ति के निजी संन्दर्भ में भी परिभाषित किया जाता है।
  • किसी शासन व्यवस्था को प्रामाणिक एवं व्यापक लोकतंत्र या सफलतापूर्वक क्रियाशील लोकतंत्र तभी कहा जा सकता है जब वह कुछ विशिष्ट राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक शर्तों को पूरा करे। इन शर्तों की पूर्ति के आधार पर एक दी गई व्यवस्था में आप दो तरह के लोकतंत्र देख सकते हैं राजनीतिक लोकतंत्र और सामाजिक लोकतंत्र ।
  • भारतीय लोकतंत्र ने इनमें से अनेक आवश्यक शर्तों को पिछले कई वर्षों में पूरा किया है। लेकिन यह अनेक चुनौतियों का भी सामना कर रहा है जिनके चलते हमारे लोकतंत्र में कई बार ऐसी विकृतियाँ सामने आई हैं, जो भावी खतरें की और इशारा करती है। निरक्षरता, सामाजिक एवं आर्थिक असमानता, गरीबी लैंगिक भेदभाव, जातिवाद, साम्प्रदायिकता तथा धार्मिक कट्टरवाद, क्षेत्रवाद, भ्रष्टाचार, अपराधीकरण, राजनीतिक हिंसा तथा उग्रवाद प्रमुख चुनौतियाँ हैं, जिनका सामना करने की जरूरत है।
  • भारतीय लोकतंत्र की चुनौतियों का सामना करने के लिए कुछ ऐसे सुधारात्मक उपाय करने की जरूरत है जो सार्वभौम साक्षरता, अर्थात सब के लिए शिक्षा, गरीबी उन्मूलन, लैंगिक भेदभाव को मिटाना, क्षेत्रीय असन्तुलन को समाप्त करना, प्रशासनिक एवं न्यायाविक सुधार तथा दीर्घकालीन आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय विकास जैसे मुद्दों पर केन्द्रित हों।
  • लेकिन लोकतंत्र तभी सफल एवं व्यापक हो सकता हैं जब इसके नागरिक अपने चिन्तन तथा व्यवहार में समानता, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय, उत्तरदायित्व एवं सब के लिए आदर जैसे लोकतात्रिक मूल्यों को आत्मसात करेंगे। यह भी आवश्यक है कि नागरिकों की मनः स्थिति विचार और व्यवहार में लोकतंत्र की आवश्यक शर्तों के अनुकूल हो का अपने कर्तव्य निभाने के लिए अवसरों का सम्मान करना चाहिए। भागीदारी करना, व्यवस्था को जवाब देय बनाना, अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना तथा लोकतंत्र के लक्ष्यों को मूर्त रूप देने के

NIOS Class 10th सामाजिक विज्ञान (पुस्तक – 2) Notes in Hindi

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