NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 18 स्थानीय शासन तथा क्षेत्रीय प्रशासन (Local government and regional administration) Notes in Hindi

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 18 स्थानीय शासन तथा क्षेत्रीय प्रशासन (Local government and regional administration)

TextbookNIOS
class10th
SubjectSocial Science
Chapter18th
Chapter Nameस्थानीय शासन तथा क्षेत्रीय प्रशासन (Local government and regional administration)
CategoryClass 10th NIOS Social Science (213)
MediumHindi
SourceLast Doubt

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 18 स्थानीय शासन तथा क्षेत्रीय प्रशासन (Local government and regional administration) Notes in Hindi जिसमे हम स्थानीय शासन क्या है समझाइए?, स्थानीय शासन प्रशासन का क्षेत्र क्या है?, स्थानीय शासन कितने प्रकार के होते हैं?, स्थानीय शासन का मुख्य कार्य क्या है? स्थानीय सरकार की 3 मुख्य जिम्मेदारियां क्या हैं?, भारत में स्थानीय शासन की शुरुआत कब हुई?, स्थानीय स्वशासन का जनक कौन है?, स्थानीय शासन पर किसका नियंत्रण रहता है?, स्थानीय शासन क्यों?, स्थानीय सरकार के 4 कार्य क्या हैं?, भारत में कितने स्थानीय सरकार हैं?, भारत में कितने स्थानीय स्वशासन हैं? आदि के बारे में पढेंगे

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 18 स्थानीय शासन तथा क्षेत्रीय प्रशासन (Local government and regional administration)

Chapter – 18

स्थानीय शासन तथा क्षेत्रीय प्रशासन

Notes

18.1 स्थानीय शासन

विजय ने अध्यापक से पूछा कि ग्राम पंचायत को स्थानीय शासन की संस्था क्यों कहा जाता है। पिछले अध्यायों के अध्ययन के पश्चात् अब तक आपको पता चल चुका होगा कि भारत में संघीय व्यवस्था होने के कारण केन्द्र और राज्य दो स्तर की सरकारें पाई जाती हैं। उन दो सरकारों के अतिरिक्त संविधान ने ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के शासन के लिए जो संस्थाएँ स्थापित की हैं उन्हें सामान्य रूप से स्थानीय शासन सरकार के नाम से जाना जाता है। यह शासन का तीसरा स्तर है जिसका उद्देश्य स्थानीय स्तर पर विकास और सामाजिक न्याय प्रदान करना तथा सत्ता शक्ति के विकेन्द्रीकरण के उपक्रम के रूप में कार्य करना है। स्थानीय शासन को सबसे अच्छा शासन माना जाता है, क्योंकि सरकार शासन के इस स्तर का जनता से मोटे तौर पर सीधा सम्पर्क रहता है। यह स्थानीय लोगों को, अपनी समस्याओं को व्यक्त करने, उनपर चर्चा करने तथा स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं उनका समाधान ढूँढने के लिए एक मंच प्रदान करता है ।

स्थानीय शासन वास्तव में, स्थानीय लोगों का, स्थानीय लोगों के द्वारा, स्थानीय लोगों के लिए शासन है। लोगों के बीच या उनके करीब होने के कारण स्थानीय शासन की संस्थाओं पर लगातार आम लोगों या स्थानीय समाज की नजर रहती है। इससे स्थानीय सरकार शासन को उत्तरदायी बनाने में मदद मिलती है। स्थानीय शासन द्वारा लोगों को प्रदान की जाने वाली व्यापक और महत्त्वपूर्ण सेवाओं के कारण वास्तव में यह कहा जाता है कि स्थानीय शासन लोगों को पालने/ जन्म से लेकर कब्र मृत्यु’ तक सेवाएँ प्रदान

अध्यापक ने विजय से पूछा कि क्या वह जानता था कि भारत में प्राचीन काल से ही देश के विभिन्न भागों में समुदाय आधारित स्थानीय संस्थाओं का अस्तित्व रहा है। उन्हें अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता था जैसे पंचायत, बिरादरी और अन्य। गाँव का वयोवृद्ध या सर्वमान्य व्यक्ति इनका नेतृत्व कर लोगों की समस्याओं का समाधान करता था। आपने कई फिल्मों और टी.वी. धारावाहिकों में देखा होगा कि किस प्रकार लोग पंचायत के समक्ष अपनी समस्याएँ रखते हैं तथा पंचायत उन पर अपना निर्णय या समाधान देती है। हिन्दी के महान् साहित्यकार प्रेमचन्द ने ‘पंचपरमेश्वर’ नामक कहानी में पंचायत की महत्ता का वर्णन किया है। प्राचीन काल से चली आ रही यह पंचायत की व्यवस्था भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी विद्यमान और कार्यरत हैं। ग्रामीण स्थानीय शासन की इस परम्परागत संस्था के महत्त्व, स्वीकार्यता और उपयोगिता के कारण भारत सरकार ने इसे लोगों के कल्याण के लिए बनाए रखने का निर्णय किया।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारत में स्थानीय शासन की संस्थाओं के दो प्रकार होते हैं, एक ग्रामीण क्षेत्र के लिए तथा दूसरा शहरी क्षेत्रों के लिए। ग्रामीण क्षेत्रों में इसे पंचायती राज मुख्यतः तीन प्रकार का होता है, नगर निगम, नगर पालिका और नगर पंचायत आदि। 7 और व्यवस्था के नाम से जाना जाता है तथा शहरों में शहरी स्थानीय शासन शहरी स्थानीय शासन, 74वें संविधान संशोधन 1992 ने ग्रामीण और शहरी स्थानीय शासन की संस्थाओं के संगठन और कार्यप्रणाली को अत्यधिक प्रभावित किया है।

18.2 पंचायती राज व्यवस्था

जैसाकि हम पहले देख चुके हैं कि पंचायत भारत के इतिहास में न्याय की गद्दी रही है। स्थानीय झगड़े, विवाद और समस्याएँ पंचायत के समक्ष रखे जाते थे और पंचायत इन पर जो निर्णय देनी व्यवस्था में गहरी आस्था थी। संविधान निर्माताओं ने भी इस व्यवस्था के महत्त्व को समझते हुए थी वह सभी को मान्य होता था। हमारे राष्ट्रीय नेताओं, विशेषकर महात्मा गांधी की पंचायत राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्तों में इस सम्बन्ध में विशेष प्रावधानों की व्यवस्था की। संविधान कहता है कि राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्तशासी शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो। इस दिशा में, वर्तमान समय में पंचायत व्यवस्था की शुरुआत प्रथम पंचवर्षीय योजना के दौरान चलाए गए सामुदायिक विकास कार्यक्रम के अंतर्गत हुई। इन संस्थाओं को और अधिक प्रभावशाली बनाने के उद्देश्य से बलवन्त राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट 1957 में पेश की तथा सुझाव दिया कि पंचायती राज व्यवस्था का त्रिस्तरीय ढाँचा स्थापित किया जाए जिसके अन्तर्गत, ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, ब्लॉक प्रखण्ड स्तर पर पंचायत समिति तथा जिला स्तर पर जिला परिषद की व्यवस्था हो। 1958 में राष्ट्रीय

विकास परिषद् ने भी इसी तरह के पंचायती राज व्यवस्था का सुझाव दिया जिसमें गाँव/ग्राम सबसे निम्न तथा जिला शीर्ष की इकाई होनी थी। लेकिन पंचायती राज व्यवस्था का वर्तमान ढाँचा 73वें संविधान संशोधन, 1992 से निर्धारित हुआ। भारत के ज्यादातर राज्यों में पंचायती राज व्यवस्था का त्रिस्तरीय ढाँचा, ग्राम, ब्लॉक और जिला स्तर पर संगठित किया गया है। लेकिन कुछ छोटे राज्य जिनकी जनसंख्या 20 लाख से कम है वहाँ पर पंचायती राज के दो ही स्तर लिए जाते है।

18.21 73वाँ संविधान संशोधन 1992

सन 1992 में पारित 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम से देश की लोकतान्त्रिक संघीय व्यवस्था मैं एक नए युग की शुरुआत होती है, इससे पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया। इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

(i) त्रिस्तरीय पंचायत राज व्यवस्था की स्थापना; ग्राम पंचायत (ग्राम/गाँव स्तर) पंचायत समिति (मध्यवर्ती अर्थात् ब्लॉक/प्रखण्ड स्तर) और जिला परिषद् (जिला स्तर) ।

(ii) हर पाँच वर्ष में नियमित चुनाव ।

(iii) अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण ।

(iv) पंचायती राज व्यवस्था के तीनों स्तरों पर कम से कम एक तिहाई (1/3) सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित ।

(v) राज्य वित्त आयोग की स्थापना जो पंचायतों की वित्तीय स्थिति को सुधारने के लिए सुझाव देता है।

(vi) स्थानीय शासन तथा क्षेत्रीय प्रशासन राज्य चुनाव आयोग की स्थापना जो पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव कराता है।

(vii) जिले के विकास हेतु योजना बनाने के लिए जिला नियोजन समिति की स्थापना ।

(viii) ग्यारहवीं अनुसूची में दिए गए 29 विषयों से सम्बन्धित आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजना बनाना तथा उनका कार्यान्वयन ।

(ix) ग्राम सभा ( Gram Sabha) की स्थापना तथा गाँव के स्तर पर इसका निर्णय लेने वाली संस्था के रूप में सशक्तिकरण ।

(x) अनुसूचित जातियों और महिला आरक्षित सीटों का चक्रीकरण (रोटेशन) अर्थात् अदला-बदली

73वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को इतनी शक्ति और अधिकार दिए गए कि वे, ग्राम स्तर पर स्वशासी संस्था के रूप में कार्य कर सके। इस संशोधन के द्वारा शक्ति तथा कार्यों का निचले स्तर पर हस्तांतरण का प्रावधान किया गया है जिनका संबंध (क) आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजना बनाने तथा (ख) उन आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय सम्बन्धी योजनाओं के कार्यान्वयन से है ।

18.2.2 ग्राम पंचायत का संगठन, कार्य और आय के स्रोत

(अ) संगठन
गाँव की पंचायत या ग्राम पंचायत, पंचायती राज व्यवस्था की आधारभूत संस्था है। गाँव के स्तर पर एक ग्राम सभा और ग्राम पंचायत होती है जिसका एक अध्यक्ष होता है जिसे ग्राम प्रधान, मुखिया, सरपंच आदि कई पदनामों से जाना जाता है। इसके अलावा ग्राम पंचायत में एक उपाध्यक्ष और कुछ पंच भी होते हैं। वास्तव में ग्राम पंचायतों का संगठन और कार्यप्रणाली अलग-अलग राज्यों द्वारा पारित कानूनों से तय होती है; यही कारण है कि आपको उनके संगठन और कार्यों  में विविधता नजर आती है। लेकिन ज्यादातर पंचायती राज संस्थाओं का संगठन और कार्य निम्न प्रकार से है :

(क) ग्राम सभा का गठन : ग्राम पंचायत का गठन गांव के सभी प्रौढ़ (18 या उससे अधिक आयु) स्त्री-पुरुषों से मिलकर होता है जिनका नाम वहाँ की मतदाता सूची में शामिल है। ग्राम सभा को अब कानूनी दर्जा प्राप्त है। ग्राम स्तर पर यह विधायी संस्था के रूप में कार्य करती है। एक वर्ष में ग्राम सभा की कम-से-कम दो बैठकें होती है। अपनी पह बैठक में ग्राम सभा ग्राम पंचायत के बजट पर विचार करती है। अपनी दूसरी बैठक में ग्राम सभा ग्राम पंचायत द्वारा पेश की गई रिपोर्ट पर विचार करती है। ग्राम सभा का प्रमुख कार्य ग्राम पंचायत के वार्षिक खातों की जाँच, लेखा परीक्षण और प्रशासनिक रिपोर्ट और पंचायत के कर प्रस्तावों पर बहस सामुदायिक सेवा, पंचायत के लिए स्वैच्छिक श्रम एवं योजनाओं जैसे विषयों पर विचार करना है। ग्राम पंचायत के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों का चुनाव ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा ही किया जाता है। प्रत्येक राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करना पड़ता है उनके यहाँ सभी ग्राम सभाएँ कार्यरत हैं।

ग्राम पंचायत ग्राम सभा की कार्यकारी अंग होती है। यह ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई है। जैसाकि हम जानते हैं कि ग्राम सभा के सभी सदस्य मतदाता होते हैं जो गुप्त मतदान के माध्यम से ग्राम पंचायत के सदस्यों का चुनाव करते हैं। ज्यादातर राज्यों में ग्राम पंचायत के 5 से 9 सदस्य होते हैं जिन्हें पंच कहा जाता है। प्रत्येक पंचायत में कम-से-कम एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होती है (कुछ राज्यों में इसे बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया गया है)। अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए भी सीटें आरक्षित की गई हैं। ग्राम प्रधान या सरपंच का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से ग्राम सभा द्वारा किया जाता है। सरपंच प्रधान के कुछ पद अब महिलाओं और अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए भी आरक्षित हैं। सरपंच प्रधान पंचायत की मीटिंग बुलाता है तथा इस मीटिंग की अध्यक्षता करता है। उसे पंचायत की एक मीटिंग/बैठक प्रति महीने बुलानी होती है। पंच उससे विशेष बैठक बुलाने का अनुरोध भी कर सकते हैं, उसे ऐसी विशेष बैठकें अनुरोध करने के तीन दिन के भीतर बुलानी होती हैं। सरपंच / प्रधान पंचायत की बैठकों का रिकॉर्ड रखता है। पंचायत सरपंच प्रधान को कोई विशेष कार्य सौंप सकती है। पंचायत के सदस्य एक उपप्रधान/ उपाध्यक्ष का चुनाव करते हैं। ग्राम पंचायत 5 वर्ष का होता हैं।

(ख) ग्राम पंचायत के कार्य : विजय पंचायत व्यवस्था में अत्यधिक रुचि लेने लगा, उसने अध्यापक से ग्राम पंचायत के कार्य और उसके आय के स्रोतों के विषय में पूछा। अध्यापक ने उसे विस्तारपूर्वक बताया। ग्राम पंचायत के सभी प्रमुख कार्य गाँव के विकास और कल्याण से सम्बन्धित हैं। ग्रामवासियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए ग्राम पंचायत को कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य करने पड़ते हैं जैसे सुरक्षित पेयजल की व्यवस्था करना, गलियों का निर्माण, नालियों की व्यवस्था, गाँव की सफाई, सड़कों की लाइट की देखभाल, स्वास्थ्य केन्द्र की व्यवस्था आदि। इन कार्यों को ग्राम पंचायत के अनिवार्य कार्य कहा जाता है। ग्राम पंचायत को कुछ ऐच्छिक कार्य भी करने होते हैं, यदि पंचायत के पास जरूरी संसाधन और धन उपलब्ध हो। ये कार्य हैं वृक्षारोपण, पशु नस्ल सुधार केन्द्रों की स्थापना, क्रीड़ा स्थलों का निर्माण, पुस्तकालयों की व्यवस्था। समय-समय पर केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा. पंचायतों को कुछ और कार्य भी सौंपे जा सकते हैं। पंचायत के इन कार्यों के रूप में ग्रामवासियों का भी कुछ कर्तव्य है कि वे अपने आस-पास साफ-सफाई रखें, पेय जल को बर्बाद न करें तथा अधिक-से-अधिक पेड़ लगाएँ ।

(ग) ग्राम पंचायत के आय के स्रोत : पंचायत के कार्य करने के लिए वित्तीय संसाधन आवश्यक
हैं, चाहे ये उसके आवश्यक कार्य हों या ऐच्छिक कार्य, सभी के लिए धन जरूरी है। यदि
ग्राम पंचायत के पास खर्च करने के लिए पर्याप्त धन हो तो वह बेहतर ढंग से कार्य कर
सकती है। सरकारी अनुदान के अतिरिक्त, राज्य सरकारों ने पंचायत को कर लगाने और
उसकी उगाही करने की शक्ति प्रदान की है। ग्राम पंचायत के आय के स्रोत निम्न प्रकार से हैं :

18.2.3 पंचायत समिति का संगठन और कार्य

(क) पंचायत समिति की रचना
पंचायत समिति पंचायती राज व्यवस्था का मध्य स्तर है। अलग-अलग राज्यों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है। इस संस्था के संगठन और कार्यों में भी भिन्नता पाई जाती है क्योंकि, विभिन्न राज्यों द्वारा इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न व्यवस्थाएँ की गई हैं। पंचायत समिति ब्लॉक / प्रखण्ड स्तर पर सभी पंचायतों के बीच समन्वय स्थापित करती है। पंचायत समिति की रचना निम्न सदस्यों से मिलकर होती है:

• ब्लॉक/प्रखण्ड के अन्तर्गत आने वाले सभी ग्राम प्रधान / सरपंच,
• उस ब्लॉक के सांसद, विधान सभा विधायक और विधान परिषद् के सदस्य,
• कुछ प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदस्य,
• ब्लॉक से चुने गए जिला परिषद् सदस्य,
• उस ब्लॉक के कुछ अधिकारी ।

(ख) पंचायत समिति कई कार्य
पंचायत समिति कई कार्य करती है, उनमें से कुछ महत्वपूर्ण कार्य हैं; कृषि, भूमि को बेहतर बनाना, जल आच्छादित क्षेत्र का विकास, सामाजिक और फार्म वनीकरण, तकनीकी और व्यवसायिक शिक्षा की व्यवस्था करना। इसके अलावा पंचायत समिति ऐसे कार्यक्रमों और योजनाओं को भी क्रियान्वित करती है जिसके लिए इसे केन्द्र या राज्य सरकार से धन प्राप्त होता है। यह अपने क्षेत्र के विभिन्न विकास कार्यों को बढ़ावा देने के साथ उनके बीच समन्वय भी स्थापित करती है। इसके कुछ अन्य उत्तरदायित्व भी है जैसे :

(i) गाँवों में पेयजल की व्यवस्था करना।
(ii) गाँव की सड़कों का विकास और मरम्मत।
(ii) बाजारों के लिए नियम व नियन्त्रण की व्यवस्था ।
(iv) उन्नत बीज, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, कृषि उपकरणों की व्यवस्था करना।
(v) हस्तशिल्प, हैडलूम और पारम्परिक कला के माध्यम से घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देना ।
(vi) अनुसूचित जातियों और जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्ग के कल्याण के लिए कार्य करना ।
(vii) ग्रामीण क्षेत्रों में स्वरोजगार योजनाओं का बढ़ावा देना ।

(स) आय के स्रोत
पंचायत समिति की आय का मुख्य स्रोत राज्य सरकारों द्वारा दिए जाने वाला अनुदान है इसके अलावा यह कुछ कर भी लगा सकती है तथा भू राजस्व का भी एक निश्चित प्रतिशत पंचायत समिति को प्राप्त होता है।

18.2.4 जिला परिषद् : संगठन और कार्य

(क) रचना
जिला परिषद् त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के शीर्ष की संस्था है। यह जिला स्तर पर स्थित है। इसका भी 5 वर्ष का कार्यकाल होता है। इसके कुछ सदस्य प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं, पंचायत समिति के अध्यक्ष इसके पदेन सदस्य होते हैं। जिले के सांसद और विधायक भी जिला परिषद् के सदस्य होते हैं। जिला परिषद् का अध्यक्ष निर्वाचित सदस्यों में से चुना जाता है। जिला परिषद् में भी कम-से-कम एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए भी सीटें आरक्षित की गई हैं।

(ब) जिला परिषद् के कार्य
जिला परिषद् के निम्नलिखित प्रमुख कार्य है, हालाँकि आप अलग-अलग राज्यों में इनमें थोड़ी-बहुत

विभिन्नता देख सकते हैं :
1. ग्रामीण आबादी के लिए आवश्यक सेवाएँ और सुविधाएँ प्रदान करना, जिले के विकास कार्यक्रमों के लिए योजना बनाना तथा उन्हें लागू करना।

2. किसानों को उन्नत बीजों की आपूर्ति, उन्हें खेती की नई तकनीकों के बारे में जानकारी उपलब्ध कराना, लघु सिंचाई परियोजनाओं तथा अन्तःस्रवण पोखरों का निर्माण करना तथा चराई एवं चराई भूमि का रखरखाव करना ।

3. गाँवों में विद्यालय खोलना तथा उन्हें चलाना, प्रौढ़ साक्षरता हेतु कार्यक्रमों का क्रियान्वयन करना तथा पुस्तकालयों की स्थापना करना ।

4. गाँवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और अस्पतालों की स्थापना करना, छोटी बस्तियों के चल अस्पतालों का प्रबन्धन करना, महामारियों के लिए टीकाकरण शुरू करना तथा परिवार कल्याण अभियानों को चलाना ।

5. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के विकास योजनाओं को क्रियान्वित करना, आदिवासी बच्चों के लिए आश्रम चलाना तथा अनुसूचित जातियों के लिए मुफ्त होस्टल की स्थापना करना ।

6. कुटीर उद्योगों, हस्तशिल्प, कृषि उत्पादों, प्रसंस्करण मिलों, डेयरी फार्म आदि जैसे लघु उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए उद्यमियों को प्रोत्साहित करना तथा ग्रामीण रोजगार योजनाओं को लागू करना तथा

7. सड़कों तथा स्कूलों का निर्माण करना तथा सार्वजनिक सम्पत्तियों की देखभाल करना ।

(ख) जिला परिषद् की आय के स्रोत
जैसाकि आपने देखा, जिला परिषद् बहुत से महत्त्वपूर्ण कार्य करती है। इन कार्यों को लागू करने के लिए धन की आवश्यकता होती है। यह इस धन की व्यवस्था अपनी आय के स्रोतों से करती है जो निम्नलिखित हैं :

1. जिला परिषद् द्वारा लगाए गए करों, लाइसेंस फीस तथा बाजार शुल्क ।
2. उगाहे गए भू-राजस्व में जिला परिषद् का हिस्सा ।
3. जिला परिषद् की विभिन्न सम्पत्तियों से प्राप्त आय ।
4. राज्य तथा केन्द्रीय सरकार से प्राप्त अनुदान ।
5. विकासात्मक गतिविधियों के लिए राज्य द्वारा आवंटित की गई धनराशि ।

18.3 शहरी स्थानीय सरकार

जब विजय पंचायती राज व्यवस्था के विभिन्न पक्षों की सराहना करने की कोशिश कर रहा था, तब अध्यापक ने उसे पूछा कि क्या उसने शहरी क्षेत्रों में कार्यरत स्थानीय शासन की संस्थाओं के बारे में सुना है जहाँ पर वह तथा उसका परिवार गाँव से स्थानान्तरित होकर गया है। विजय भी यह जानना चाहता था कि क्या ऐसी संस्थाएँ शहरी क्षेत्रों में भी हैं। अध्यापक ने कहा, “हाँ ये शहरी क्षेत्रों में भी हैं। जिस तरह पंचायती राज ग्रामीण क्षेत्रों में है, उसी तरह स्थानीय शासन की शहरी संस्थाएँ भी हैं। शहरी स्थानीय निकाय तीन प्रकार की होती हैं :

(अ) बड़े शहरों के लिए नगर निगम
(ब) छोटी आबादी वाले शहरों के लिए नगर परिषद् तथा

(स) संक्रमणकालीन क्षेत्रों (अर्ध शहरी क्षेत्र) के लिए नगर पंचायत। परन्तु पंचायती राज संस्थाएं
तथा शहरी स्थानीय निकायों में महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि जहाँ पंचायती राज संरचनाएँ एक-दूसरे से बारीकी से जुड़ी हुई है वही शहरी स्थानीय निकाय एक-दूसरे से स्वतन्त्र हैं। एक राज्य में तीनों शहरी स्थानीय निकाय हो सकते हैं, एक बड़े शहर में नगर निगम, एक छोटे शहर में नगर परिषद् तथा एक छोटे कस्बे में नगर पंचायत। परन्तु यह एक-दूसरे से जुड़ी हुई नहीं होती है। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान 1688 ई. में प्रथम बार शहरी स्थानीय निकाय अस्तित्व में आया जब मद्रास (अब चेन्नई) में नगर नगम की स्थापना की गई। बाद में इसी तरह के निकाय की स्थापना कलकत्ता तथा बम्बई (मुम्बई) में भी की गई। उस समय इन संस्थाओं का स्वच्छता के मामलों में सहायता करना तथा महामारियों की रोकथाम के लिए कार्य करना था।

इन स्थानीय निकायों के जलापूर्ति तथा जलनिकासी के प्रबन्ध जैसे कुछ कार्य भी थे। परन्तु इन इनस्थों को पर्याप्त वित्तीय तथा अधिकारिता शक्तियाँ नहीं दी गई। शुरुआत में इनके अधिकांश सदस्य मनोनित किए जाते थे। हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने भी स्थानीय प्रशासन में इनके महत्त्व तथा आवश्यकता को महसूस किया तथा इन्हें देश के नियोजित विकास से जोड़ा। परन्तु धन के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता था जो इन संस्थाओं के पास नहीं था। परन्तु फिर भी यह व्यवस्था प्रशासन का प्रभावी उपकरण साबित हुई। ब्रिटिश शासन के दौरान इन शहरी

स्थानीय निकायों की शक्तियों को बढ़ाया गया तथा इन्हें कुछ धन भी उपलब्ध करवाया गया। स्वतन्त्रता के बाद से चार प्रकार के शहरी स्थानीय निकाय कार्य कर रहे थे- (i) नगर निगम, (ii) नगर पालिका, (iii) टाउन एरिया समितियाँ, (iv) अभिसूचित क्षेत्र समितियाँ 1992 में किए गए 74वें संविधान संशोधन से शहरी स्थानीय व्यवस्था में बड़े परिवर्तन आए। वर्तमान में लीन तरह के शहरी स्थानीय निकाय कार्य कर रहे हैं।

(अ) बड़े शहरों के लिए नगर निगम,
(ब) छोटे शहरों के लिए नगर परिषद् तथा
(स) ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों के रूप में संक्रमणशील हो रहे क्षेत्रों के लिए नगर पंचायत

18.5.1 74वाँ संविधान संशोधन, 1992

जैसाकि ऊपर उल्लेख किया गया है, 1992 में किए गए 74वें संविधान संशोधन से शहरी स्थानीय निकायों की संरचना तथा कार्यों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दु निम्नलिखित है:

  • भारत के प्रत्येक राज्य में शहरी स्थानीय निकायों का गठन (नगर निगम, नगर परिषद् तथा नगर पंचायत) ।
  • नागरिक मामलों में जमीनी स्तर पर लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए नगरपालिका प्रादेशिक क्षेत्रों में वार्ड समितियों का गठन।
  • राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा नियमित व निष्पक्ष चुनाव ।
  • अधिक से अधिक छः माह के लिए नगरपालिका सरकारों के अतिक्रमण का प्रावधान।
  • आरक्षण के माध्यम से समाज के कमजोर वर्गों (अर्थात् अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग) एवं महिलाओं के लिए नगरपालिका सरकारों में उचित प्रतिनिधित्व
  • राज्य विधायिका द्वारा कानून बनाकर नगरपालिकाओं और वार्ड समितियों को शक्तियाँ (वित्तीय  शक्तियों सहित) और कार्यात्मक उत्तरदायित्व सौंपे गए हैं।
  • प्रत्येक 5 साल पर राज्य वित्त आयोग का गठन, जो नगरपालिकाओं की वित्तीय स्थिति की समीक्षा करता है तथा उनकी वित्तीय स्थिति को सुधारे जाने की आवश्यकता के लिए सिफारिश देता है तथा;
  • विकास योजनाओं की तैयारी तथा समेकन के लिए प्रत्येक राज्य में जिला स्तर पर जिला योजना समिति तथा महानगरीय क्षेत्रों में महानगरीय योजना समिति का गठन ।
18.3.2 नगर निगम

अ. रचना
राज्य विधायिका द्वारा पारित अधिनियमों के अनुसार बनाए गए प्रावधानों के तहत, बड़े शहरों में नगर निगमों की स्थापना की गई है। नगर निगमों के पार्षद 5 वर्ष के लिए चुने जाते हैं। चुने हुए पार्षदों में से ही प्रति वर्ष किसी एक को मेयर चुना जाता है। मेयर शहर के प्रथम नागरिक के रूप में जाना जाता है। 74वें संविधान संशोधन द्वारा महिलाओं के लिए कम-से-कम 1/3 सीटें आरक्षित की गई हैं। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा समाज के अन्य कमजोर वर्गों का पद भी सृजित किया गया है जिसकी नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की जाती है तथा वह मुख्य कार्यकारी अधिकारी होता है। केन्द्र शासित क्षेत्रों जैसे कि दिल्ली आदि में नगर निगम आयुक्त की नियुक्ति केन्द्र सरकार द्वारा की जाती है।

(ब) नगर निगम के कार्य

नगर निगम के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं :

1. स्वास्थ्य तथा स्वच्छता : शहर की सफाई, कूड़ा-करकट का निपटान, अस्पतालों तथा औषधालयों का रखरखाव, टीकाकरण को बढ़ावा देना तथा संचालन, मिलावटी वस्तुओं की जाँच आदि कार्यों का उत्तरदायित्व ।

2. बिजली और जलापूर्ति : सड़कों-गलियों में रोशनी की व्यवस्था और रखरखाव, विद्युतापूर्ति, सुरक्षित पेय जल की आपूर्ति, आधारभूत संरचना का निर्माण तथा जलापूर्ति की सुविधा, पानी के टैंकरों का रखरखाव आदि ।

3. शिक्षा : प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना, मध्याह्न भोजन योजना का प्रबन्ध तथा बच्चों के लिए अन्य सुविधाएँ आदि ।

4. सार्वजनिक कार्य : सड़कों का निर्माणकार्य, रखरखाव तथा नामकरण, घरों, बाजारों, रेस्त्राँ तथा होटल आदि के निर्माण के नियम बनाना; अतिक्रमण हटाना तथा खतरनाक भवनों को तोड़फोड़ कर हटाना।

5. विविध कार्य : जन्म और मृत्यु का रिकॉर्ड रखना, शमशान भूमि कब्रिस्तान, रैन बसेरा के लिए प्रावधान तथा रखरखाव; स्कूटर एवं टैक्सी स्टैण्ड तथा सार्वजनिक सुविधाओं की व्यवस्था करना ।

6. विवेकाधीन कार्य 

(अ) मनोरंजन : पार्को, सभागारों आदि का प्रावधान। स्थानीय शासन तथा प्र पुस्तकालयों तथा संग्रहालयों जैसी गतिविधियों को देखना ।

(ब) सांस्कृतिक : संगीत, नाटक, चित्रकला तथा अन्य कलाओं का आयोजन और

(स) खेलों सम्बन्धी गतिविधियाँ : विभिन्न खेलों के लिए खेल मैदानों का प्रावधान तथा खेल प्रतियोगिताओं तथा टूर्नामिण्ट आदि की व्यवस्था करना।

(द) कल्याणकारी सेवाएँ : सामुदायिक भवनों का निर्माण तथा रखरखाव, सार्वजनिक वितरण प्रणाली लागू करना, परिवार कल्याण योजनाएं तथा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए योजनाओं को लागू करना।

(स) मेयर के प्रमुख कार्य
मेयर नगर निगम के प्रमुख के रूप में चुना जाता है जिसके निम्नलिखित प्रमुख कार्य हैं :

  • निगम की बैठकों की अध्यक्षता करना तथा बैठक में शिष्टता तथा अनुशासन बनाए रखना;
  • पार्षद तथा राज्य सरकार के बीच में एक कड़ी के रूप में कार्य करना।
  • शहर में आए विदेशी गणमान्य व्यक्तियों की अगुवाई करना।

द. नगर निगम के आय के स्रोत
पंचायती राज की तरह, अपने क्षेत्र की कल्याणकारी गतिविधियों तथा विकास के लिए नगर निगम व्यवस्था को भी धन की आवश्यकता होती ही है। नगर निगम अधिनियम में आय के स्रोतों का प्रावधान किया गया है। आय के कुछ स्रोत निम्नलिखित हैं :

करो से प्राप्त आय : नगर निगम विभिन्न मदों पर कर लगाता है जैसे-हाऊस टैक्स, मनोरंजन कर, होर्डिंग और विज्ञापनों पर कर, पंजीकरण शुल्क, इमारतों की निर्माण योजनाओं पर कर आदि ।

अन्य शुल्क तथा अधिभार : इसके अन्तर्गत जलापूर्ति शुल्क, बिजली शुल्क, सीवर शुल्क, दुकानदारों से लाइसेन्स फीस तथा टोल टैक्स और चुंगी शुल्क आदि

अनुदान : राज्य तथा केन्द्रीय सरकार द्वारा विकास से सम्बन्धित अनेक योजनाओं तथा विकास कार्यक्रमों के लिए अनुदान उपलब्ध कराया जाता है।

किराए से प्राप्त आय : नगर निगम अपनी सम्पत्तियों जैसे-दुकानें, खोखे, सामुदायिक केन्द्र, बरात घर तथा मेलों, शादियों व अन्य प्रदर्शनियों के लिए विभिन्न स्थल आदि को किराए पर दे देता है और उनसे किराया प्राप्त करता है।

18.3.3 नगर परिषद्

अ. रचना
कम जनसंख्या वाले शहरों में नगर परिषद होते हैं जो स्थानीय शहर, उसकी समस्याएँ तथा विकासात्मक कार्यों को देखती हैं। 74वें संविधान संशोधन के उपरान्त, प्रत्येक शहर के लिए नगर पालिकाओं की रचना करना आवश्यक है। प्रत्येक नगर परिषद् के लिए पार्षदों का चुनाव वयस्क मतदाताओं द्वारा पाँच वर्ष के लिए किया जाता है। राज्य चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित शर्तों को पूरा कर पाने वाले व्यक्ति ही पार्षद के रूप में चुने जा सकते हैं। यदि किसी कारण से नगर परिषद् का अपनी पाँच वर्ष की अवधि पूरी करने से पहले ही विघटन हो जाता है तो उस तारीख से छः माह के अन्तर्गत पुनः चुनाव कराए जाते हैं। चुने हुए सदस्य अपने में से ही किसी एक को नगर परिषद् का अध्यक्ष चुनते हैं। अध्यक्ष अपने पद पर तब तक बना रहता है जब तक चुने हुए सदस्यों के बहुमत का विश्वास मत उसे प्राप्त है। प्रत्येक नगर परिषद् में एक कार्यकारी अधिकारी होता है जिसकी नियुक्ति राज्य सरकार करती है। वह दिन प्रतिदिन के कार्य तथा प्रशासनिक कार्यों को देखता है। स्वास्थ्य अधिकारी, कर अधीक्षक, सिविल इंजीनियर आदि अन्य महत्त्वपूर्ण अधिकारी होते है।

(ब.) नगर परिषद् के कार्य

नगर परिषद् के निम्नलिखित कार्य हैं :

1. स्वास्थ्य तथा स्वच्छता : शहर की सफाई का प्रबन्धन, कूड़े-करकट का निपटान, अस्वास्थ्यकर तथा मिलावटी खाद्य पदार्थों की बिक्री पर रोक तथा औषधालयों एवं अस्पतालों का रखरखाव करना;

2. बिजली तथा जलापूर्ति : बिजली तथा शुद्ध पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित करना तथा तालाब एवं पानी के टैंकरों का रखरखाव करना;

3. शिक्षा : प्राथमिक स्कूलों तथा शिक्षण केन्द्रों का संचालन तथा रखरखाव करना;

4. जन्म और मृत्यु का रिकॉर्ड : शहर कस्बों में जन्म व मृत्यु के पंजीकरण का रिकॉर्ड रखना तथा इनके लिए प्रमाण पत्र जारी करना।

5. सार्वजनिक कार्य : गलियों को पक्का बनाना, नगरपालिका सड़कों की मरम्मत तथा रखरखाव करना, बारात घर, सामुदायिक भवनों, बाजारों, सार्वजनिक सुविधा केन्द्रों आदि का निर्माण तथा रखरखाव करना ।

स. आय के स्रोत
धन के बिना कोई भी कार्य नहीं किया जा सकता। नगर परिषदों के पास आय के भिन्न-भिन्न स्रोत हैं। इन स्रोतों को निम्न श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है :

कर : सम्पत्ति, वाहन, मनोरंजन तथा विज्ञापन आदि पर कर से प्राप्त आय।
किराया तथा शुल्क / अधिभार : जलापूर्ति शुल्क, सीवर व्यवस्था शुल्क, लाइसेन्स फीस, सामुदायिक भवनों, बरात घरों तथा दुकानों आदि का किराया ।

अनुदान : राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान। जुर्माने कर न देने वालों, कानून तोड़ने वालों तथा कानून का अतिक्रमण करने वालों पर किए गए जुर्मानों से प्राप्त आय।

जुर्माने : कर न देने वालों, कानून तोड़ने वालों तथा कानून का अतिक्रमण करने वालों पर किए गए जुर्मानों से प्राप्त आय।

18.3.4 नगर पंचायतें

तीस हजार से अधिक तथा एक लाख से कम जनसंख्या वाले शहरी केन्द्रों में नगर पंचायत होती है। यद्यपि इसके कुछ अपवाद भी हैं। पूर्व टाउन एरिया समितियाँ (5000 से 20,000 तक की कुल जनसंख्या वाले शहरी केन्द्र) नगर पंचायतों के रूप में नामित की गई हैं। इसमें एक अध्यक्ष तथा वार्ड सदस्य होते हैं। इसमें कम-से-कम 10 चुने हुए वार्ड के सदस्य तथा तीन नामित सदस्य होते हैं। अन्य नगर निकायों की तरह, नगर पंचायत भी निम्न के लिए उत्तरदायी होती है : (क) सफाई तथा कूड़ा-करकट का निपटान, (ख) पेज जल की आपूर्ति, (ग) सार्वजनिक सुविधाओं जैसे स्ट्रीट लाइट, पार्किंग की जगह तथा जन सुविधाएँ आदि का रखरखाव करना, (घ) अग्निशमन सेवाओं की स्थापना तथा रखरखाव, (ङ) जन्म और मृत्यु का पंजीकरण आदि। इसके आय के स्रोत निम्न हैं : गृह कर, जल कर, टोल कर, लाइसेन्स फी तथा इमारत निर्माण योजनाओं पर फीस; बरात घर तथा अन्य सम्पत्तियों से प्राप्त किराया; तथा राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान।

18.4 जिला प्रशासन

चूँकि विजय शहर के एक स्कूल में नौवीं कक्षा का विद्यार्थी था, अध्यापक ने उससे जिला प्रशासन की भूमिका के विषय में बताने की कोशिश की। उसने ऐसा इसलिए किया, क्योंकि यह जानना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि उपरोक्त शहरी तथा ग्रामीण स्थानीय निकायों के अलावा प्रत्येक जिला में एक प्रशासनिक व्यवस्था भी है। यह प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप स्थानीय निकायों के कार्यों में योगदान ही नहीं करता बल्कि, यह प्रशासनिक तथा विकासात्मक कार्य भी करता है। प्रत्येक जिले में अनुमंडल तथा ब्लॉक अथवा तालुका होते हैं और जिला प्रशासन की सहायता के लिए वहाँ पदाधिकारी नियुक्त किए जाते हैं। उन्होंने विजय से पूछा कि क्या वह अपने जिले में नियुक्त प्रमुख पदाधिकारियों को जानता है। उसे उलझन में देख, अध्यापक ने जिला प्रशासन के विभिन्न पक्षों को विस्तार से समझाया। जिला स्तर पर निम्न प्रमुख पदाधिकारी होते हैं : जिलाधीश, पुलिस अधीक्षक, जिला शिक्षा अधिकारी, जिला कृषि अधिकारी, जिला वन अधिकारी आदि। ये सभी अधिकारी जिले में अपने विभाग के प्रमुख होते हैं।

18.4.1 जिलाधीश

जिला प्रशासन का प्रभार जिलाधीश के हाथों में होता है। यह पद समाहर्ता, डिप्टी कमिशनर या उपायुक्त के नाम से भी जाना जाता है। वह भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) के अन्तर्गत आता है। जिला प्रशासन, राज्य और केन्द्र सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों को लागू करने के लिए जिम्मेदार है। आजादी के बाद विशेष रूप से जिला प्रशासन न केवल राजस्व या करों के संग्रह और कानून व्यवस्था के रखरखाव के लिए बल्कि जिले के कल्याण और सामाजिक-आर्थिक विकास से सम्बन्धित विभिन्न गतिविधियों के लिए भी जिम्मेदार है।

जिला लम्बे समय से प्रशासन की एक महत्त्वपूर्ण इकाई रही है। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के दौरान, यह मुख्य रूप से कानून व्यवस्था बनाए रखने और राजस्व संग्रह के लिए जिम्मेदार था। लेकिन वर्तमान में, राज्य प्रशासन को विकेन्द्रीकृत कर दिया गया है और जिला प्रशासन बहु-आयामी भूमिका निभा रहा है। इस प्रकार जिलाधीश को राज्य सरकार की ओर से बहुत सारी शक्तियाँ और कार्य सौंपे गए हैं। जिलाधीश का प्रमुख कार्य निम्न प्रकार है-

1. जिले में कानून व्यवस्था तथा शान्ति बनाए रखना

2. राज्य सरकार और केन्द्र सरकार की विभिन्न नीतियों और कार्यक्रमों को लागू करना।

3. राज्य सरकार और जिला स्तरीय संस्थाएँ और कार्यालयों के बीच मुख्य कड़ी की भूमिका निभाना ।

4. विभिन्न विभागों की गतिविधियों का समन्वय करना जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, समाज कल्याण, भूमि व्यवस्था, पुलिस, जेल और संस्कृति ।

5. आपातकाल और आपदाओं के दौरान पर्याप्त और उपयुक्त कदम उठाना तथा राहत कार्य करना।

6. विभिन्न प्रतिनिधिक निकायों के लिए स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव कराना जैसाकि लोकसभा, विधान सभा, ब्लॉक समिति, जिला परिषद्, नगर निगम इत्यादि ।

7. भू-राजस्व तथा अन्य करों को एकत्रित करने की व्यवस्था करना ।

8. न्यायिक कार्यों का सम्पादन करना और विभिन्न प्रकार के विवादों का निपटारा करना तथा विभिन्न प्रकार का जुर्माना और दण्ड लगाना।

9. जन शिकायतों की सुनवाई और उनका समाधान करना ।

18.4.2 अनुमंडल अधिकारी

बेहतर प्रशासन के लिए प्रत्येक जिले को छोटी इकाइयों, जिसे अनुमंडल कहते है, में विभाजित किया गया है। हालाँकि जिले के अनुमंडल जिला मजिस्ट्रेट के तहत हैं परन्तु एक अधिकारी जिसे अनुमण्डल पदाधिकारी (S.D.O.) कहा जाता है, इस इकाई का प्रभारी होता है। अनुमण्डल अधिकारी वहाँ प्रशासन के क्षेत्र में जिला मजिस्ट्रेट की सहायता करता है और उसके प्रतिनिधि के रूप में काम करता है। अनुमण्डल अधिकारी भारतीय प्रशासनिक सेवा (IA.S.) के अन्तर्गत आता है।

या राज्य सिविल सेवा संवर्ग के अन्तर्गत । वह भूमि रिकॉर्ड रखता है और भू-राजस्व एकत्र करता हैं। वह बन्दूक और पिस्तौल जैसे हथियारों के लिए लाइसेन्स जारी करने की शक्ति रखता है और ड्राइविंग लाइसेन्स जारी करने के लिए भी अधिकृत है। साथ ही वह अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए प्रमाण पत्र तथा अधिवास प्रमाण पत्र जारी करता है।

18.4.3 ब्लॉक खण्ड विकास अधिकारी

ब्लॉक सबसे निचले स्तर पर प्रशासन की इकाई है। ब्लॉक का प्रभारी प्रखण्ड विकास अधिकारी (B.D.O.) कहा जाता है। वह राज्य सिविल सेवा संवर्ग के अन्तर्गत आता है और ब्लॉक की विभिन्न गतिविधियों की देखभाल करता है। प्रखण्ड विकास अधिकारी पंचायती राज के मध्य टियर के साथ जुड़ा हुआ हैं। वह पंचायत समिति के पदेन सचिव के रूप में बैठकों का रिकॉर्ड रखता है बजट तैयार करता है और विभिन्न विकासात्मक गतिविधियों का समन्वय करता है।

18.5 अवसर और चुनौतियाँ

उपरोक्त विवेचन के आलोक में क्या आपको नहीं लगता है कि ग्राम और शहरी स्थानीय निकाय हर भारतीय नागरिक को निर्णय लेने की प्रक्रिया में सक्रिय रूप भाग लेने का अवसर प्रदान करता है। ये नागरिकों को राजनैतिक प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए बेहतरीन संस्थाएं हैं तथा नेतृत्त्व के गुणों को प्राप्त करने का अवसर प्रदान करती हैं। भागीदारी के द्वारा नागरिक विभिन्न मुद्दों एवं विषयों का विश्लेषण करना सीखते हैं और स्वयं तथा अन्य व्यक्तियों के हित की पैरवी करते हैं। चूंकि ये स्थानीय सरकारी निकाय उनके करीब हैं अतः वे नागरिक की पहुँच में हैं तथा नागरिक व्यक्तिगत पहल और हस्तक्षेप के माध्यम से समाधान ढूंढ सकते हैं। विशेष तौर महिलाओं को पर्याप्त अवसर उपलब्ध हैं। इन निकायों में महिलाओं के लिए सीटों के आरक्षण के परिणामस्वरूप, अधिक-से-अधिक संख्या में महिलाएं इन संस्थानों को चलाने में हिस्सा लेती हैं। यह महिलाओं के सशक्तिकरण का बेहतरीन तरीका है तथा उन्हें अपनी क्षमता को साबित करने का अवसर प्रदान करता है।

दूसरी तरफ, स्थानीय सरकारी निकायों के समक्ष कई चुनौतियाँ भी हैं। लोगों के करीब होने के कारण, इन संस्थाओं ने लोगों की आकांक्षाओं और उम्मीदों को बढ़ाया है जिन्हें पूरा करने में, विभिन्न बाधाओं के कारण, वे स्वयं सक्षम नहीं हैं। इन संस्थाओं का कार्य चुनौतीपूर्ण है जबकि संसाधन सीमित हैं। यह परिस्थति अक्सर विवाद और द्वेष को जन्म देती है। राजनीतिक प्रक्रिया में नागरिकों की गुणवत्तापूर्ण भागीदारी को बढ़ावा दे तथा सुनिश्चित करने में गरीबी, अशिक्षा, सामाजिक असमानता तथा राजनीति के अपराधीकरण की प्रवृत्ति जैसे कारक बाधाएं उत्पन्न करते हैं। जातिवाद और सम्प्रदायवाद के तत्व भी समस्या खड़ी करते हैं। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की बढ़ती प्रवृत्ति भी स्थानीय निकायों के प्रभावी कार्यशील के लिए बड़ी चुनौतियां हैं।

18.4

जिला प्रशासन का मुखिया जिलाधीश होता है। जिला प्रशासन के अन्य पदाधिकारियों में पुलिस अधीक्षक, जिला शिक्षा अधिकारी, जिला कृषि अधिकारी, अनुमंडल अधिकारी आदि शामिल हैं।

अनुमंडल अधिकारी
अनुमंडल अधिकारी प्रशासन के क्षेत्र में जिलाधीश की सहायता करता है और उसके प्रतिनिधि के रूप में भी काम करता है। वह भूमि रिकॉर्ड रखता है और भू-राजस्व एकत्र करता है और वह अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों का अधिवास प्रमाण पत्र जारी  करने की शक्ति रखता है।

प्रखण्ड विकास अधिकारी
1. प्रखण्ड विकास अधिकारी पंचायती राज के मध्य टीयर के साथ जुड़ा हुआ है। वह पंचायत समिति का पदेन सचिव है और बैठकों का रिकॉर्ड रखता है, बजट तैयार करता है और विभिन्न विकासात्मक गतिविधियों का समन्वय करता है।

2. जिलाधीश के मुख्य कार्य निम्नानुसार है :

(i) जिले में कानून व्यवस्था और शान्ति बनाए रखना स्थानीय शासन तथा क्षेत्रीय प्रशासन

(ii) राज्य सरकार और केन्द्र सरकार की विभिन्न नीतियों और कार्यक्रमों को लागू करना,

(iii) राज्य सरकार और जिला स्तरीय संस्थानों और कार्यालयों के बीच मुख्य कड़ी के रूप में कार्य करना,

(iv) विभिन्न विभागों की गतिविधियों में समन्वय कायम करना जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, कल्याण, भूमि प्रबन्धन, पुलिस, जेल और संस्कृति,

(v) लोक सभा, विधान सभा, ब्लॉक समितियाँ, जिला परिषद्, नगर पालिकाओं आदि

3. अनेक प्रतिनिध्यिात्मक निकायों के लिए स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनावों का संचालन सुनिश्चित करना। स्थानीय निकाय नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करने का सर्वश्रेष्ठ संस्थान हैं और उनमें नेतृत्व के गुणों का विकास करने सहायक होते हैं। भागीदारी के द्वारा नागरिक विभिन्न मुद्दों और विषयों का विश्लेषण करना सीखते हैं और स्वयं तथा अन्य व्यक्तियों के हित की पैरवी करते हैं। चूँकि ये स्थानीय सरकारी निकाय उनके नजदीक हैं अतएव नागरिक की पहुँच में हैं तथा नागरिक व्यक्तिगत पहल और हस्तक्षेप के माध्यम से समाधान ढूंढ़ सकते हैं। महिलाओं को भी स्थानीय निकायों के सदस्यों के रूप भागीदारी के लिए पर्याप्त अवसर उपलब्ध हैं।

लोगों के करीब होने के कारण, इन संस्थाओं ने लोगों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं और उम्मीदों को बढ़ाया है जिन्हें पूरा करने में, विभिन्न बाधाओं के कारण, वे स्वयं हमेशा सक्षम नहीं हैं। ये बाधाएं हैं : गरीबी, अशिक्षा, सामाजिक असमानता और राजनीति के अपराधीकरण की प्रवृत्ति। जातिवाद, साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की बढ़ती प्रवृत्ति, स्थानीय निकायों के प्रभावी कार्यशीलन के लिए बड़ी चुनौतियाँ हैं ।

आपने क्या सीखा

  • स्थानीय स्वशासन सरकार का तृतीय स्तर है। पहला और दूसरा स्तर केन्द्रीय और राज्य सरकार है। दो तरह के स्थानीय स्वशासन निकाय होते हैं। एक ग्रामीण क्षेत्रों के लिए और शहरी क्षेत्रों के लिए। पंचायती राज व्यवस्था ग्रामीण क्षेत्रों में पाया जाता है और नगर निगम, नगर परिषद् और नगर पंचायत शहरों में होते हैं।
  • हालाँकि गाँव पंचायत की व्यवस्था राज्य के नीति नीति-निदेशक सिद्धान्तों के द्वारा हुई थी, लेकिन स्थानीय स्वशासी निकायों को संवैधानिक दर्जा 1992 में संसद् द्वारा पारित 73वीं एवं 74वाँ संवैधानिक संशोधन द्वारा मिला । इन संशोधनों ने हर राज्य सरकार के लिए स्थानीय निकायों को बनाए रखना तथा उनको जारी रखना अनिवार्य कर दिया है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सीटें आरक्षित करने के अलावा ये अधिनियम महिलाओं के सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए उनके लिए भी सीटें आरक्षित करते हैं।
  • पंचायती राज व्यवस्था एक तीन स्तरीय प्रणाली है जिसके अन्तर्गत ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद् होते है। यह संस्थाएँ अपने क्षेत्र के लोगों के हित और सामाजिक आर्थिक विकास के लिए काम करती हैं। ये बुनियादी सुविधाएँ जैसे साफ पीने का पानी, स्वच्छता औषधालय, गलियाँ, सड़क बनाना, स्कूल, वृद्धाश्रम तथा क्षेत्र के अन्य आवश्यक काम करती हैं।
  • शहरी स्थानीय निकाय जैसे बड़े शहरों में नगर निगम, छोटे शहरों में नगर परिषद और परिवर्ती क्षेत्रों में नगर पंचायत को संवैधानिक संशोधन 1992 ने मजबूत बनाया है। पंचायती राज संस्थानों की तरह इनमें भी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य कमजोर वर्ग तथा महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की गई है। ये स्थानीय निकाय लोगों को बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करते हैं, आधारभूत संरचना का विकास एवं रखरखाव, विकासात्मक क्रिया-कलाप और अपने-अपने क्षेत्र के जनहित के लिए काम करते हैं
  • दोनों शहरी और ग्रामीण निकाय लोगों के निकटतम हैं और सही मायनों में तृणमूलीय लोकतान्त्रिक संस्थाओं के हैसियत से कार्य करते हैं। वे लोगों को निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी का अवसर प्रदान करते हैं। पर इन्हें कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ता है जैसे जातिवाद, भ्रष्टाचार, वित्तीय संसाधन की कमी तथा लोगों की उदासीनता आदि।
  • जिलाधीश की अध्यक्षता में जिला प्रशासन न सिर्फ अपने परम्परागत कार्य जैसे कानून व्यवस्था बनाए रखना तथा राजस्व वसूली का काम करता है बल्कि महत्वपूर्ण विकासात्मक कार्य का भी जिम्मेदारी उठाता है यह केन्द्रीय और राज्य सरकार के विकासात्मक और कल्याण कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के लिए वास्तविक कार्यान्वयन उपकरण है।

NIOS Class 10th सामाजिक विज्ञान (पुस्तक – 2) Notes in Hindi

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