NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 17 भारत एक कल्याणकारी राज्य (India a welfare state)
Textbook | NIOS |
class | 10th |
Subject | Social Science |
Chapter | 17th |
Chapter Name | संवैधानिक मूल्य तथा भारत की राजनितिक व्यवस्था (Constitutional Values and Political System of India) |
Category | Class 10th NIOS Social Science (213) |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 17 भारत एक कल्याणकारी राज्य (India a welfare state) Notes in Hindi जिसमे हम भारत में कल्याणकारी राज्य क्या है?, एक कल्याणकारी राज्य की क्या विशेषताएं होती हैं?, भारत का संविधान भारत को एक कल्याणकारी राज्य के रूप में, स्थापित करने का प्रयास कैसे करता है?, कल्याणकारी राज्य का उद्देश्य क्या है?, कल्याणकारी राज्य तीन प्रकार के कौन-कौन से हैं?, कल्याणकारी से आप क्या समझते हैं?, कल्याणकारी राज्य क्या है भारत एक कल्याणकारी राज्य है?, कल्याणकारी राज्य क्या भारत एक कल्याणकारी राज्य है से आप क्या समझते हैं? आदि के बारे में पढ़ेंगे
NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 17 भारत एक कल्याणकारी राज्य (India a welfare state)
Chapter – 17
भारत एक कल्याणकारी राज्य
Notes
17.1 कल्याणकारी राज्य क्या है ? बुनियादी प्रश्न का उत्तर पाना आवश्यक है। कल्याणकारी राज्य क्या है? जैसाकि हमने देखा, भारत को कल्याणकारी राज्य कहा जाता है। विश्व में और भी राष्ट्र हैं, जिन्हें कल्याणकारी राज्य कहा जाता है। उन्हें ऐसा माना जाता है जबकि अन्यों को नहीं माना जाता। कल्याणकारी राज्य का क्या अर्थ है? यह एक सरकार की ऐसी अवधारणा है जिसमें राज्य नागरिकों के आर्थिक और सामाजिक कल्याण को बढ़ावा और संरक्षण देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। एक कल्याणकारी राज्य अवसर की समानता तथा धन के उचित वितरण के सिद्धान्तों पर आधारित होता है। यह ऐसे लोगों के प्रति सरकारी उत्तरदायित्व पर केन्द्रित रहता है, जिन्हें अच्छा जीवन जीने के न्यूनतम साधन भी उपलब्ध नहीं। इस व्यवस्था में नागरिकों का कल्याण की जिम्मेदारी राज्य की होती है। स्वतन्त्रता से पूर्व भारत एक कल्याणकारी राज्य नहीं था। ब्रिटिश शासन की रूचि लोगों के कल्याण की रक्षा करने तथा बढ़ावा देने में नहीं थी। उसके द्वारा जो कुछ भी किया जाता था, वह भारत के लागों के हित में नहीं, बल्कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के हितों को ध्यान में रखकर किया जाता था । “भारतीय संविधान के तीसरे भाग में सम्मिलित किए गए मूल अधिकार यह गारंटी प्रदान करते हैं कि सभी भारतीय नागरिक उन नागरिक स्वतंत्रताओं तथा मूलभूत अधिकारों का उपयोग कर सकेंगे। जब भारत स्वतन्त्र हुआ, तो इनके सामने असंख्य समस्याएँ तथा चुनौतियाँ थीं। सामाजिक तथा आर्थिक असमानता सर्वव्यापी थी। आर्थिक रूप से भारत की हालत अत्यन्त दयनीय थी। सामाजिक दृष्टि से भी भारत में अनेक समस्याएँ थीं। व्यापक सामाजिक असमानता थी तथा समाज के कमजोर वर्ग जैसे महिलाएँ, दलित, बच्चे जीवन यापन के बुनियादी साधनों से भी वंचित थे। संविधान निर्माता इन समस्याओं से बहुत अच्छी तरह परिचित थे। इसी लिए उन्होंने निश्चय किया कि भारत एक कल्याणकारी राज्य होगा। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक “सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य” वर्णित किया गया है। तदनुसार, संविधान में भारत के लोगो के सामाजिक और आर्थिक कल्याण के लिए व्यापक प्रावधान किए गए हैं। इस सम्बन्ध में दो विशिष्ट प्रावधान किए गए हैं, एक मूल अधिकार के रूप में तथा दूसरा राज्य के नीति निदेशक तत्वों के रूप में। ये नागरिक स्वतन्त्रताएँ देश के किसी अन्य कानूनों से श्रेष्ठ हैं। ये सामान्यतः उदार लोकतान्त्रिक देशों के संविधानों में सम्मिलित किया जाता है। कुछ महत्वपूर्ण अधिकार हैं : कानून के समक्ष सामनता, वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, शान्तिपूर्वक सम्मेलन करने और संघ बनाने की स्वतन्त्रता, धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार, शोषण के विरूद्ध अधिकार और नागरिक अधिकारों के संरक्षण के लिए संवैधानिक उपचारों का अधिकार। परन्तु यह सब पर्याप्त नहीं थे। भारत के नागरिकों को आर्थिकऔर सामाजिक विकास के अवसरों की भी जरूरत थी यही कारण है की भारत के संविधान के चौथे भाग में राज्य के नीति निदेशक तत्वों का समावेश किया गया। |
17.2 राज्य के नीति निदेशक तत्व जैसाकि हमने “मूलाधिकार तथा मौलिक कर्तव्य” पाठ में देखा, भारतीय संविधान में शामिल किए गए मौलिक अधिकार मुख्यतः राजनीतिक अधिकार हैं। संविधान निर्माता इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि यदि सभी अधिकार को सही मायने में लागू कर दिया जाए तब भी भारत के लोगों को सामाजिक तथा आर्थिक अधिकारों के दिए बिना भारतीय लोकतन्त्र के उद्देश्यों को पूरा नहीं किया जा सकता है। लेकिन वे उस समय भारत राज्य की कमजारियों को भी जानते थे। उन्हें पता था कि भारत को सदियों के विदेशी शासन के बाद आजादी मिली थी। भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास का स्तर बड़ा ही निम्न था। उस स्थिति में यदि आर्थिक और समाजिक अधिकारों को मूल अधिकारों की सूची में शामिल किया जाता तो भारत राज्य अपनी कुछ सीमाओं के कारण इनको लागू करने में सफल नहीं हो पाता। परन्तु इन अधिकारों को विशेष महत्व दिए जाने की आवश्यकता भी थी। संविधान में राज्य के नीति निदेशक तत्वों के नाम से एक अलग अध्याय भाग-चार जोड़कर उस आवश्यकता की पूर्ति की गई। |
17.2.1 विशेषताएँ राज्य के नीति निदेशक तत्व भारत की केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों के लिए दिशा-निर्देश हैं। कानूनों और नीतियों के निर्माण के समय सरकारों द्वारा इन सिद्धान्तों को ध्यान में रखना चाहिए। यह सही है कि भारतीय संविधान के ये प्रावधान न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं, जिसका अर्थ है कि ये किसी भी अदालत द्वारा लागू नहीं कराए जा सकते। परन्तु ये सिद्धान्त देश की सरकारों के लिए मूलभूत माने गए हैं। यह केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों का कर्तव्य है कि देश मे न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए बनाए जाने वाले कानूनों के निर्माण में इन सिद्धान्तों को लागू करे। ये सिद्धान्त आयरलैण्ड के सविंधान में उल्लिखित निदेशक सिद्धान्तों तथा गांधीवादी दर्शन से प्रेरित हैं। इन सिद्धान्तों का मुख्य उद्देश्य ऐसी सामाजिक और आर्थिक दशाओं का निमार्ण करना है जिनकें। अन्तर्गत सभी नागरिक अच्छा जीवन व्यतीत कर सके। दूसरे शब्दों में, इनका उद्देश्य देश में सामाजिक तथा आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है। ये सिद्धान्त आम लोगो के हाथों में भारत एक कल्याणकारी राज्य एक मानदण्ड की तरह है, जिनके द्वारा लोग इन उद्देश्यों की दिशा में सरकार द्वारा किए गए प्रयत्नों को माप सकें। कार्यकारी एजेन्सियों इन सिद्धान्तों से निर्देशित होती हैं। यहाँ तक कि न्यायपालिका को भी विभिन्न मामलों पर निर्णय करते समय इनको ध्यान में रखना होता है। |
17.2.2 निदेशक तत्वों के प्रकार यदि आप संविधान में दिए गए निदेशक सिद्धान्तों को पढ़ेंगे तो पाएँगे कि ये विभिन्न प्रकार के हैं। कुछ सामाजिक-आर्थिक विकास से सम्बन्धित हैं तों कुछ गांधीवादी विचारों से तथा कुछ विदेश नीति से सम्बन्धित हैं । संविधान द्वारा इनको विभिन्न श्रेणियों में नहीं बाँटा गया है, परन्तु बेहतर समझ के लिए हम उन्हें निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत कर सकते हैं : 1. सामाजिक और आर्थिक समानता को बढ़ावा देने वाले सिद्धान्त; भारत में बहुत से लोग सदियों से सामाजिक तथा आर्थिक असमानता से पीड़ित रहे हैं। विशेषतः |
(ब) गांधीवादी विचारधारा से सम्बन्धित सिद्धान्त गांधीवादी विचार अहिंसक सामाजिक व्यवस्था को बढ़ावा देते हैं। स्वराज (स्व-शासन), सर्वोदय है । हम सब यह जानते हैं कि महात्मा गांधी स्वतन्त्रता आन्दोलन में अग्रणी थे। उनका दर्शन (सभी का कल्याण) स्वाबलम्बन (आत्मनिर्भरता) आदि गांधीवादी विचारधारा के मूल सिद्धान्त तथा उनके कार्यो ने केवल स्वतन्त्रता आन्दोलन का ही नहीं बल्कि भारतीय संविधान के निर्माण का भी मार्गदर्शन किया। निम्नलिखित नीति निदेशक तत्वों में गांधीवादी विचारधारा प्रतिबिम्बित 1. राज्य समाज के कमजोर वर्गो विशेष रूप से अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों 2. राज्य ग्राम पंचायतों का गठन करने के लिए कदम उठाएगा। इन पंचायतों को ऐसी शक्तियाँ 3. राज्य मादक पदार्थों तथा अन्य हानिकारक औषधियों आदि के सेवन को रोकने का प्रयास 4. राज्य ग्रामीण क्षेत्रों में लघु उद्योग को बढावा देने का प्रयास करेगा। 5. राज्य पशुधन की गुणवत्ता सुधारने के लिए कदम उठाएगा तथा गायों, बछड़ों तथा अन्य |
(स) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा से सम्बन्धित सिद्धान्त संविधान निर्माताओं द्वारा कुछ ऐसे सिद्धान्तों का समावेश भी किया गया है जो हमारी विदेश नीति सम्बन्धी मामलों में हमें दिशा-निर्देश देते हैं। ये हैं : 1. राज्य अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा देगा। 2. राज्य अन्य राष्ट्रों के साथ न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाए रखने का प्रयास 3. राज्य अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों और संधि दायित्वों के प्रति आदर भाव विकसित करेगा। 4. राज्य अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा अर्थात् पारस्परिक समझौतों द्वारा निपटाने के |
(द) विविध सिद्धान्त इनके अलावा कुछ महत्वपूर्ण निदेशक तत्व ऐसे हैं जो उपरोक्त श्रेणियों में से किसी के अन्तर्गत नहीं आते हैं। ये हैं : 1. राज्य देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन का और वन तथा वन्य जीवन की रक्षा का प्रयास करेगा। 2. राज्य राष्ट्रीय महत्व के ऐतिहासिक स्मारकों, स्थानों या वस्तुओं के रखरखाव और संरक्षण 3. राज्य पूरे देश के सभी नागरिको के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास 4. राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् करने के लिए कदम उठाएगा। |
17.3 राज्य के नीति निदेशक तत्व तथा मूल अधिकार जैसाकि आप जानते हैं, नीति निदेशक तत्व का उद्देश्य कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। मूलाधिकारों का भी यही उद्देश्य है, परन्तु दोनों में कुछ मूलभूत अन्तर हैं । प्रथम, नीति निदेशक तत्वों को न्यायालय लागू नहीं करा सकते। इनके कार्यान्वयन के लिए सरकार पर कोई संवैधानिक या कानूनी बाध्यता नहीं है। मूल अधिकार के पीछे न्यायालय की शक्ति है। नागरिकों को मूल अधिकारों के लिए मना नहीं किया जा सकता। ये उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायलयों द्वारा संरक्षित हैं । द्वितीय, ये सिद्धान्त नीति निर्माण तथा कार्यान्वयन के लिए राज्य को केवल कुछ निर्देश मात्र देते हैं। इस तरह की नीतियाँ लोककल्याणकारी राज्य को केवल कुछ निर्देश मात्र देते हैं। इसतरह की नीतियाँ लोककल्याणकारी राज्य के उद्देश्य को साकार करने की दिशा में उठाए गए कदमों के रूप में हैं। मूल अधिकार संविधान द्वारा सुनिश्चित किए गए हैं तथा राज्य नागरिकों के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए बाध्य है। तीसरा, सविंधान में निदेशक सिद्धान्तों को मूल अधिकारों के बाद स्थान दिया गया है। इसका अर्थ है कि मूल अधिकारों का महत्त्व निदेशक सिद्धान्तों से अधिक है। लेकिन इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिए कि राज्य के नीति निदेशक तत्वों के पीछे वैसा संवैधानिक समर्थन नहीं है, जैसा मूल अधिकारों के पीछे है, फिर भी निदेशक तत्त्वों की अवहेलना नहीं की जा सकती। निदेशक सिद्धान्तों के क्रियान्वयन से सरकार की विश्वसनीयता तथा लोकप्रियता बढ़ती है। ऐसा होने से सरकार को पुनः सत्ता पाने में मदद होती है। साथ ही, मूल अधिकार तथा निदेशक सिद्धान्तों के उद्देश्य एक समान ही हैं। ये एक नहीं बल्कि पूरक हैं। मौलिक अधिकार जहाँ राजनीतिक लोकतन्त्र को मूर्तरूप देते हैं वहीं निदेशक सिद्धान्त सामाजिक तथा आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करते हैं । निदेशक सिद्धान्तों की असली ताकत सतर्क जनमत से उत्पन्न होती है। अधिकांश नागरिकों द्वारा समर्थित नीतियाँ सामान्यतः बड़े ही उत्साह के साथ कार्यान्वित की जाती हैं। कोई भी सरकार जनता के हितों की अनदेखी नहीं कर सकती है। हममें से प्रत्येक जनमत के वाहक हैं। अच्छा होगा यदि आप ऐसे निदेशक सिद्धान्तों के कार्यान्वयन के पक्ष में जनमत तैयार करने का प्रयास करें जिन्हें आप महत्वपूर्ण समझते हैं। |
17.4 राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों का कार्यान्वयन आपकी यह जानने में रूचि हागी कि केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों ने इन तत्वों के कार्यान्वयन के लिए कदम उठाए हैं। क्या आपने भारत के सभी राज्यों में केन्द्रीय सरकार द्वारा कार्यान्वित किए जा रहे एक विशाल कार्यक्रम, सर्व शिक्षा अभियान के विषय में सुना होगा। आपने भारतीय संसद् द्वारा पारित शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 के विषय में भी सुना होगा। ये सब निदेशक सिद्धान्तों के कार्यान्वयन के लिए किए गए प्रयासों के परिणाम हैं। कुछ राज्यों जैसे बिहार, मध्य प्रदेश आदि ने पंचायतों में महिलाओं कि लिए 50 प्रतिशत तक सीटें आरक्षित कर दी हैं। ये घटनाएँ दर्शाती हैं कि यद्यपि निदेशक सिद्धान्तों के पीछे कानूनी बल नहीं है और राज्य के ऊपर इनके कार्यान्वयन के लिए कोई बन्धन नहीं है, तब भी सरकार द्वारा इन सिद्धान्तों का कार्यान्वयन किया जा रहा है। |
आपने क्या सीखा
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NIOS Class 10th सामाजिक विज्ञान (पुस्तक – 2) Notes in Hindi
- Chapter – 15 संवैधानिक मूल्य तथा भारत की राजनीतिक व्यवस्था
- Chapter – 16 मौलिक अधिकार तथा मौलिक कर्त्तव्य
- Chapter – 17 भारत एक कल्याणकारी राज्य
- Chapter – 18 स्थानीय शासन तथा क्षेत्रीय प्रशासन
- Chapter – 19 राज्य स्तर पर शासन
- Chapter – 20 केन्द्रीय स्तर पर शासन
- Chapter – 21 राजनीतिक दल तथा दवाब समूह
- Chapter – 22 जनता की सहभागिता तथा लोकतान्त्रिक प्रक्रिया
- Chapter – 23 भारतीय लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियाँ
- Chapter – 24 राष्ट्रीय एकीकरण तथा पंथ निरपेक्षता
- Chapter – 25 सामाजिक आर्थिक विकास तथा अभावग्रस्त समूहों का सशक्तीकरण
- Chapter – 26 पर्यावरणीय क्षरण तथा आपदा प्रबन्धन
- Chapter – 27 शान्ति और सुरक्षा
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