NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 15 संवैधानिक मूल्य तथा भारत की राजनितिक व्यवस्था (Constitutional Values and Political System of India)
Textbook | NIOS |
class | 10th |
Subject | Social Science |
Chapter | 15th |
Chapter Name | संवैधानिक मूल्य तथा भारत की राजनितिक व्यवस्था (Constitutional Values and Political System of India) |
Category | Class 10th NIOS Social Science (213) |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 15 संवैधानिक मूल्य तथा भारत की राजनितिक व्यवस्था (Constitutional Values and Political System of India) Notes in Hindi जिसमे हम भारत के संवैधानिक मूल्य क्या हैं?, संवैधानिक मूल्यों से आप क्या समझते हैं, संवैधानिक मूल्यों से क्या अभिप्राय है , हमारे पाठ्यक्रम में संवैधानिक मूल्य कैसे प्रतिबिंबित होते हैं?, भारत में संवैधानिक प्रमुख कौन होता है?, कौन से संवैधानिक मूल्य शिक्षा के उद्देश्यों को निर्धारित करते हैं?, भारतीय संविधान में शिक्षा के लिए संवैधानिक प्रावधान क्या है?, भारत को संवैधानिक नाम क्या दिया गया है?, भारत का संविधान कहाँ है?, राज्य सरकार का संवैधानिक प्रमुख कौन होता है?आदि के बारे में पढ़ेंगे
NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 15 संवैधानिक मूल्य तथा भारत की राजनितिक व्यवस्था (Constitutional Values and Political System of India)
Chapter – 15
संवैधानिक मूल्य तथा भारत की राजनितिक व्यवस्था
Notes
15.1. भारत का संविधान अब हम भारत के संविधान पर चर्चा करेंगे। इससे पहले इस प्रश्न का उत्तर जानना आवश्यक |
15.1.1 संविधान का अर्थ आपने संविधान शब्द कई बार सुना होगा। इस शब्द का प्रयोग कई संदर्भ में किया जाता है, जैसे राज्य या राष्ट्र का संविधान, संगठन, संस्था या यूनियन का संविधान, खेल क्लब का संविधान, गैर सरकारी संस्था का संविधान, किसी कम्पनी का संविधान आदि। क्या संविधान शब्द का अर्थ इन विभिन्न संदर्भों में एक समान है? नहीं ऐसा नहीं है। सामान्यतः संविधान शब्द का प्रयोग नियम और कानूनों के एक ऐसे समूह के लिए किया जाता है जो ज्यादातर लिखित होते हैं। तथा जो किसी संस्था, संगठन या कम्पनी की संरचना और कार्यप्रणाली को परिभाषित तथा नियमित करते है। लेकिन जब इसका प्रयोग राज्य या राष्ट्र के संदर्भ में होता है तो संविधान का अर्थ मूल सिद्धांतों, आधारभूत नियमों तथा स्थापित परम्पराओं का समूह है। यह राज्य के विभिन्नपहलुओं तथा सरकार के तीन अंगों-कार्यकारिणी, विधायिका एवं न्यायपालिका के अंतर्गत प्रमुख संस्थाओं की संरचना, अधिकार तथा कार्यों की पहचान करता है, परिभाषित करता है और नियमित करता है। यह नागरिकों के अधिकारों एवं उनकी स्वतन्त्रताओं का प्रावधान करता है और वैयक्तिक नागरिक तथा राज्य और सरकार के बीच के संबंधों को स्पस्ट करता है। संविधान लिखित या अलिखित हो सकता है लेकिन इसमें देश के मूलभूत कानून समाविष्ट होते हैं। यह सर्वोच्य एवं परम मान्य ग्रन्थ होता है। कोई भी निर्णय या कार्यवाही जो संविधान के अनुरूप नहीं हो वह असंवैधानिक और गैर-कानूनी मानी जाती है। संविधान सत्ता के दुरूपयोग को टालने के लिए सरकार की शक्तियों पर सीमाएँ लगाता है। इसके अतिरिक्त, यह एक स्थिर नहीं बल्कि एक जीवन्त दस्तावेज होता है, क्योंकि इसे अद्यतन बनाए रखने के लिए समय-समय पर संशाधित करना आवश्यकता होता है। इसकी नमनशीलता लोगों की बदलती आकांक्षाओं समय की जरूरतों तथा समाज में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार इसे परिवर्तित होते रहने योग्य बनाती है। |
15.1.2 भारतीय संविधान क्या आपने भारतीय संविधान का दस्तावेज देखा है? क्या आप निम्नांकित चित्र में उसके मुखपृष्ठ को पहचान सकते हैं? यदि आपने इसे देखा है या आपको इसे देखने का मौका मिलता है तो आप इस बात से सहमत होंगे कि यह बहुत ही बड़ा है। वास्तव में, भारत का संविधान दुनियाँ के सभी संवधानों में सबसे लम्बा संविधान है, इसका निर्माण एक संविधान सभा के द्वारा किया गया था। यह सभा जनप्रतिनिधियो द्वारा गठित हुई थी। इसके अधिकतम सदस्य स्वतंत्रता आन्दोलन में शामिल थी। उन्हें आदर निर्माता कहा जाता है। संविधान निर्माण प्रक्रिया पर निम्नांकित कारकों का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा था : (क) लंबे समय तक चले स्वतंत्रता आंदोलन द्वारा पैदा की गई आकांक्षाएँ (ख) ब्रिटिश शासन के दौरान हुए राजनीतिक और संवैधानिक बदलाव; (ग) गांधीवाद के नाम से लोकप्रिय महात्मा गांधी की विचारधारा; (घ) देश की सामाजिक संस्कृति सोच और परिवेश; तथा (ड) दुनिया के अन्य लोकतान्त्रिक देशों में संविधानों के क्रियान्वयन के अनुभव। भारत में 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ तब से इस दिन को प्रत्येक वर्ष गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। |
क्या आप जानते है? संविधान सभा ने 9 दिसम्बर, 1946 को संविधान बनाने का कार्य प्रारम्भ किया। 11 दिसम्बर 1946 को डा. राजेन्द्र प्रसाद इसके अध्यक्ष निर्वाचित हुए। डा. बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। दो वर्ष 11 महीने 18 दिन की अवधि में संविधान सभा की 166 दिन बैठक हुई। संविधान निर्माण 26 नवम्बर 1949 को पूरा हुआ तथा उस दिन संविधान सभा ने भारत के संविधान के प्रारूप को अंगीकृत किया। भारत का संविधान भारत की राजनीतिक व्यवस्था के सभी पहलुओं के साथ-साथ इसके आधारभूत उद्देश्यों को भी परिभाषित करता है। इसके प्रावधान (क) भारक का भू-क्षेत्र (ख) नागरिकता (ग) मौलिक अधिकार (घ) राज्य के नीति निदेशक तत्व और मौलिक कर्त्तव्य (ड़) केन्द्र, राज्य औ स्थानीय स्तर पर सरकारों की संरचना और कार्यप्रणाली तथा (च) राजनीतिक व्यवस्था के क अन्य पक्ष से सम्बन्धित हैं। यह भारत को एक सम्प्रभुत्व लोकतांत्रिक समाजवादी तथा पंथनिरपेक्ष गणराज्य के रूप में परिभाषित करता हैं। इसमें सामाजिक बदलाव लाने तथा नागरिक और राज् के आपसी संबंधों को परिभाषित करने संबंधी प्रावधान हैं। |
15.2 संवैधानिक मूल्य किसी भी देश का संविधान अनेक उद्देश्यों को पूरा करता है। यह कुछ ऐसे आदर्शों को निर्धारित करता है, जो ऐसे देश का आधार बनते हैं जिसमें हम नागरिकों की तरह रहने की आकांक्षा रखते हैं। सामान्यतः एक देश लोगों के विभिन्न प्रकार के समुदायों से बनता है। यह आवश्यक नहीं की ये लोग सभी मुद्दों पर आवश्यक रूप से एकमत होते हैं। लेकिन वे कुछ आस्थाओं में साझेदारी करते हैं। संविधान सिद्धान्तों, नियमों तथा प्रक्रियाओं का एक ऐसा सेट प्रस्तुत करता है, जिसके आधार पर आम सहमति विकसित होती है। लोग चाहते हैं कि देश का शासन इसी सहमति के आधार पर संचालित हो तथा समाज आगे बढ़े। यह सहमति उन आदर्शो पर भी बनती है, जिन्हें बनाए रखा जाए। भारतीय संविधान में भी कुछ केन्द्रिक सांविधानिक मूल्य हैं जो इसके विभिन्न अनुच्छेदों तथा प्रावधानों में अभिव्यक्त होते हैं। लेकिन क्या आप यह जानते हैं कि ‘मूल्य’ शब्द का अर्थ क्या होता है? आप तुरंत यह कहेंगे कि सत्य, अहिंसा, शान्ति, सहयोग, ईमानदारी, आदर तथा दया मूल्य हैं । आप ऐसे अनेक मूल्यों की सूची बना सकते हैं। वास्तव में आम समझ के अनुसार मूल्य ऐसी चीज है जो बहुत आवश्यक है तथा जिसका पालन करना मानव समाज के अस्तित्त्व के लिए वांछनीय है। भारतीय संविधान में एसे सभी सार्वभौम, मानवीय तथा लोकतांत्रिक मूल्य निहित हैं। |
15.2.1 सांविधानिक मूल्य तथा संविधान की प्रस्तावना क्या आपने भारतीय संविधान की प्रस्तावना पढ़ी है? जैसा पहले कहा गया है, सांविधानिक मूल्य भारत के संविधान में सभी जगह प्रतिबिम्बित हैं, लेकिन इसकी प्रस्तावना में ऐसे मूलभूत मूल्यों तथा दर्शन को समाहित किया गया है, जिनपर पूरा संविधान आधारित है। किसी भी संविधान की प्रस्तावना एक ऐसा प्रारम्भिक विवरण प्रस्तुत करता है जिसमें पूरे दस्तावेज के निर्देशक सिद्धान्तों की चर्चा होती है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भी ऐसा ही है। इसमें सम्मिलित मूल्यों को संविधान के उद्देश्यों की तरह अभिव्यक्त किया गया है। ये हैं संप्रभुता, समाजवाद, पंथ निरपेक्षता, ब्लोकतन्त्र, भारत राज्य की गणतान्त्रिक प्रकृति, न्याय, स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुता, मानवीय गरिमा तथा राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता। इन सांविधानिक मूल्यों की चर्चा नीचे की गई है : |
1. सम्प्रभुता : आपने संविधान की प्रस्तावना को पढ़ा होगा। यह भारत की एक “सम्प्रभु पंथनिरपेक्षी लोकतांत्रिक गणराज्य” घोषित करता है। सम्प्रभु होने का अर्थ यह है कि भारत को पूर्ण राजनीतिक स्वतन्त्रता है तथा सर्वोच्च सत्ता इसके पास है। अर्थात् भारत आन्तरिक तौर पर सर्वशक्तिमान है तथा बाह्य दृष्टि से पूरी तरह स्वतन्त्र है। यह बिना किसी हस्तक्षेप (किसी देश या किसी व्यक्ति द्वारा) अपने बारे में निर्णय लेने के लिए स्वतन्त्र है। साथ ही, देश के अन्दर भी कोई इसकी सत्ता की चुनौती नहीं दे सकता। सम्प्रभुता की यह विशेषता हम लोगों को अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में एक राष्ट्र की तरह अपना अस्तित्व बनाए रखने का गौरव प्रदान करती है। यद्यपि संविधान स्पष्ट रूप से यह नहीं बताता कि यह सम्प्रभुता कहाँ निहित हैं। किन्तु प्रस्तावना में “हम भारत के लोग” कहना यह ईंगित करता है कि सम्प्रभुता भारत की जनता में निहित है। स्पष्ट है कि संवैधानिक पदाधिकारी एंव सरकार के सभी अंग लोगों से ही शक्तिायाँ प्राप्त करते हैं। |
2. समाजवाद : आप यह जानते होंगे की सामाजिक तथा आर्थिक असमानताओं भारतीय परम्परावादी समाज में अन्तनिहित है। यही कारण है कि समाज का एक सांविधानिक मूल्य माना गया है। इस मूल्य का उद्देश्य सभी तरह की असमानताओं का अन्त करने के लिए सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देना है। हमारा संविधान सभी क्षेत्रों में योजनावद्ध तथा समन्वित सामाजिक में धन तथा शक्ति के केन्द्रीयकरण को रोकने का निर्देश भी देता है। संविधान के मूल अधिकारों राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अध्यायों में असमानताओं को दूर करने से सम्बन्धित विशिष्ट प्रावधान हैं। |
3. पंथ निरपेक्षता : हम सभी खुश हो जाते हैं, जब कोई यह कहता है कि भारत में दुनिया के सभी प्रमुख धर्मों का निवास है। इस बहुलता के संदर्भ में पंथ निरपेक्षता एक महान सांविधानिक मूल्य है। पंथ निरपेक्षता का मतलब यह है कि हमारा देश किसी एक धर्म या किसी धार्मिक सोच से निर्देशित नहीं होता। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि भारत राज्य धर्म के विरूद्ध है। यह अपने सभी नागरिकों को किसी धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक प्रदान करता है। साथ ही संविधान धर्म पर आधारित किसी भेदभाव पर सख्त रोक लगाता है। |
4. लोकतंत्र : प्रस्तावना लोकतन्त्र को एक मूल्य के रूप में दर्शाती है। लोकतंत्र में सरकार अपनी शक्ति लोगों से प्राप्त करती है। जनता देश के शासकों का निर्वाचन करती है तथा निर्वाचित प्रतिनिधि जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। भारत के लोग इनको सार्वभौम वयस्क मताधिकार की व्यवस्था के द्वारा विभिन्न स्तरों पर शासन में भाग लेने के लिए निर्वाचित करते हैं। यह व्यवस्था “एक व्यक्ति एक मत” के रूप में जाना जाता है। लोकतन्त्र स्थायित्व और समाज की निरन्तर प्रगति में योगदान करता है तथा शान्तिपूर्ण राजनीतिक परिवर्तन को भी सुनिश्चित करता है। यह विरोध को स्वीकार करता है तथा सहिष्णुता को प्रोत्साहित करता है। महत्वपूर्ण यह भी है कि लोकतन्त्र कानून के शासन, नागरिकों के अहरणीय अधिकारों, न्यायपालिका को स्वतन्त्रता, स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष चुनाव तथा प्रेस की स्वतन्त्रता के सिद्धान्तों पर आधारित है। |
5. गणतन्त्र : भारत केवल लोकतान्त्रिक देश ही नहीं बल्कि एक गणतन्त्र भी है । गणतन्त्र का सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक राज्याध्यक्ष, अर्थात राष्ट्रपति का पद वंशानुगत न होकर निर्वाचित है। राजतन्त्र में राज्याध्यक्ष का पद वंशानुत होता है। वह मूल्य लोकतंत्र को मजबूत एवं प्रामाणिक बनाता है, जहाँ भारत का प्रत्येक नागरिक राज्याध्यक्ष के पद पर चुने जाने की समान योग्यता रखता है। इस मूल्य का प्रमुख संदेश राजनीतिक समानता है। |
6. न्याय : कभी-कभी आप यह महसूस करते होंगे कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में रहने मात्र से यह सुनिश्चित नहीं होता कि नागरिकों को पूर्णतः न्याय मिलेगा ही। अभी भी कई ऐसे मामले हैं जहाँ न केवल सामाजिक एवं आर्थिक न्याय, बल्कि राजनीतिक न्याय भी नहीं मिला है। यही कारण है कि संविधान निर्माताओं ने सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय को सांविधानिक मूल्यों का स्थान दिया है। ऐसा करके उन्होंने इस बात पर बल दिया है कि भारतीय नागरिक को दी गई राजनीतिक स्वतन्त्रता सामाजिक आर्थिक न्याय पर आधारित एक नई सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में सहायक होगी। प्रत्येक नागरिक को न्याय मिलना चाहिए। न्यायपूर्ण एवं समतावादी समाज का आदर्श भारतीय संविधान के प्रमुख मुल्यों में एक है। |
7. स्वतंत्रता : प्रस्तावना में चिंतन, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था तथा उपासना की स्वतन्त्रता को एक केन्द्रिक मूल्य के रूप में निर्धारित किया गया है। इन्हें सभी समुदायों के प्रत्येक सदस्य के लिए सुनिश्चित करना है। ऐसा इसलिए जरूरी है क्योंकि व्यक्तियों के स्वतन्त्र एवं सभ्य अस्तित्व के लिए आवश्यक कुछ न्यूनतम अधिकारों की मौजूदगी के बिना लोकतन्त्र के आदर्शों को प्राप्त नहीं किया जा सकता। |
8. समानता : अन्य मूल्यों की तरह समझना भी एक महत्वपूर्ण सांविधानिक मूल्य है। संविधान प्रत्येक नागरिक को उसके सर्वोत्तम विकास के लिए प्रतिष्ठा एवं अवसर की समानता सुनिश्चित करता है। एक मनुष्य के रूप में प्रत्येक व्यक्ति का एक सम्मानजनक व्यक्तित्त्व है। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि प्रत्येक व्यक्ति इसका पूरी तरह उपभोग कर सके, समाज में तथा देश में हर प्रकार की असमानता पर रोक लगा दी गई है। |
9. बन्धुता : प्रस्तावना में भारत के लोगों के बीच भाईचारा स्थापित करने के उद्देश्य से बन्धुता के मूल्य को बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया गया है। इसके अभाव में भारत का बहुलवादी समाज विभाजित रहेगा। अतः न्याय, स्वतन्त्रता और समानता जैसे आदर्शों को अर्थपूर्ण बनाने के लिए प्रस्तावना ने बन्धुता को बहुत महत्व दिया है। बन्धुता को चरितार्थ करने के लिए समुदाय से छुआछूत का उन्मूलन मात्र पर्याप्त नहीं। यह भी आवश्यक है कि वैसी सभी साम्प्रदायिक, कट्टरपंथी या स्थानीय भेदभाव की भावनाओं को समाप्त कर दिया जाय, जो देश की एकता के मार्ग में बाधक हों। |
10. व्यक्ति की गरिमा : बन्धुता को प्रोत्साहित करना व्यक्ति की गरिमा को साकार बनाने के लिए अनिवार्य है प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा को सुनिश्चित किए बिना लोकतन्त्र क्रियाशील नहीं हो सकता। यह लोकतान्त्रिक शासन की सभी प्रक्रियाओं में प्रत्येक व्यक्ति की समान भागीदारी को सुनिश्चित करती है। सामाजिक विज्ञान |
11. राष्ट्र की एकता और अखण्डता : बन्धुता एक अन्य महत्वपूर्ण मूल्य, राष्ट्र की एकता और अखण्डता, को भी बढ़ावा देता है। देश की स्वतन्त्रता को कायम रखने के लिए एकता तथा अखण्डता अनिवार्य है। इसीलिए संविधान देश के सभी निवासियों के बीच एकता पर विशेष बल देता है। भारत के सभी नागरिकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे देश की एकता और अखण्डता की रक्षा अपने कर्त्तव्य के रूप में करें। |
12. अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा न्यायसंगत अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था : यद्यपि अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा न्यायसंगत अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था प्रस्तावना में सम्मिलित नहीं हैं, लेकिन यह संविधान के अन्य प्रावधानों में प्रतिबिम्बित हैं। भारतीय संविधान राज्य को (क) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा देने का; (ख) राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण संबंधों को बनाए रखने का; (ग) संगठित लोगों के एक दूसरे से व्यवहारों में अन्तर्राष्ट्रीय विधि और संधि-बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाने का; (घ) अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का मध्यस्थता द्वारा निपटारे के लिए प्रोत्साहन देने का निर्देश देता है। इन मूल्यों को अक्षुण्ण बनाए रखना तथा इनकी रक्षा करना भारत के हित में है। अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा न्यायसंगत अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का भारत के विकास में बड़ा योगदान होगा। |
13. मौलिक कर्त्तव्य : भारतीय संविधान नागरिकों द्वारा पालन किए जाने वाले मौलिक कर्त्तव्यों को निर्धारित करता है। यह सच है कि मूल अधिकारों की तरह इन कर्त्तव्यों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं किया जा सकता, लेकिन संविधान ने इन्हें मौलिक कर्त्तव्यों का दर्जा दिया है। इनका इसलिए भी अधिक महत्व है, क्योंकि इनमें देशप्रेम, राष्ट्रवाद, मानवतावाद, पर्यावरणवाद, सद्भावपूर्ण जीवन यापन, लैंगिक समानता, वैज्ञानिक मनोदशा तथा परिपृच्छा और व्यक्तिगत एवं सामूहिक श्रेष्ठता जैसे मूल्य प्रतिविम्बित हैं। |
15.2.2 मूल्य तथा संविधान की प्रमुख विशेषताएँ : संवैधानिक मूल्य तथा भारत की राजनीतिक व्यवस्था राज्य प्रस्तावना में निहित सांविधानिक मूल्यों के अब तक के विवरण से यह स्पष्ट है कि ये भारतीय लोकतन्त्र के सफल संचालन के लिए महत्वपूर्ण हैं। हर मूल्य के बारे में आपकी समझ और भी अधिक अच्छी होगी जब आप नीचे की गई चर्चा में यह पाएंगे कि सांविधानिक मूल्य भारतीय संविधान की सभी प्रमुख विशेषताओं में व्याप्त हैं। भारतीय संविधान की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ हैं |
1. लिखित संविधान : जैसा कि पहले कहा गया है, भारत का संविधान सबसे लम्बा लिखित संविधान है। इसमें प्रस्तावना, 22 भागों में 395 अनुच्छेद, 12 अनुसूचियाँ तथा 5 परिशिष्ट हैं। यह मौलिक कानूनों का दस्तावेज है, जो राजनीतिक पद्धति की प्रकृति तथा सरकार के अंगों की संरचना एवं क्रियाशीलता को परिभाषित करते हैं। यह भारत की एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र की व्यापक दृष्टि अभिव्यक्त करता है। यह नागरिकों के मूल अधिकारों और मौलिक कर्त्तव्यों को स्पष्ट करता है तथा ऐसा करते हुए उनमें केन्द्रिक सांविधानिक मूल्यों को प्रतिबिम्बित करता है। |
2. अनमनशीलता तथा नमनशीलता का अनोखा मिश्रण : अपने दैनिक जीवन में यह अनुभव करते हैं कि लिखित दस्तावेजों में परिवर्तन लाना आसान नहीं होता। जहाँ तक संविधान की बात है, लिखित संविधान सामान्यतया अनमनशील होते हैं। उनमें बार बार परिवर्तन करना आसान नहीं होता। संविधान में संशोधन के लिए विशेष प्रक्रिया का प्रावधान होता है। ब्रिटिश संविधान जैसे अलिखित संविधानों में साधारण कानून बनाने की प्रक्रिया द्वारा ही संशोधन किए जाते हैं। लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे लिखित संविधानों में संशोधन करना बड़ा ही कठिन होता है। किन्तु भारत का संविधान न तो ब्रिटिश संविधान की तरह नमनशील है, न ही अमरीकी संविधान की तरह अनमनशील । इसमें निरन्तरता के साथ परिवर्तन होते रहते हैं। भारतीय संविधान में तीन तरीके से संशोधन किया जा सकता है : कुछ प्रावधानों में संसद के साधारण बहुमत के समर्थन से संशोधन किया जा सकता है। लेकिन कुछ अन्य प्रावधानों में संशोधन के लिए विशेष बहुमत तथा तीसरी श्रेणी के प्रावधानों के संबंध में संसद के विशेष बहुमत के साथ-साथ, कम से कम आधे राज्यों की स्वीकृति की भी आवश्यकता पड़ती है। |
3. मौलिक अधिकार एवं कर्त्तव्य : आप मौलिक अधिकार पद से परिचित होंगे। भारतीय संविधान मौलिक अधिकारों के लिए एक अलग अध्याय है। इस अध्याय को भारतीय संविधान का “अन्तःकरण” कहा जाता है। मौलिक अधिकार राज्य के द्वारा शक्ति के स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश प्रयोग के विरूद्ध नागरिकों की रक्षा करते हैं। संविधान नागरिकों को राज्य के विरूद्ध और अन्य व्यक्तियों के विरूद्ध अधिकारों की गारंटी प्रदान करता है। संविधान अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों के विरूद्ध अधिकारों की गारंटी प्रदान करता है। इन अधिकारों के अतिरिक्त संविधान में मौलिक कर्त्तव्यों का भी प्रावधान है। ये मौलिक अधिकार तथा मौलिक कर्त्तव्य कई महत्वपूर्ण सांविधानिक मूल्यों को प्रतिबिम्बित करते हैं। |
4. राज्य के नीति निदेशक तत्त्व : मौलिक अधिकारों के अतिरिक्त संविधान में एक अन्य अध्याय है, जिसका नाम राज्य के नीति निदेशक तत्त्व है। यह भारतीय संविधान की एक अनोखी विशेषता है। यह इस बात को सुनिश्चित करता है कि भारत में अधिक से अधिक सामाजिक और आर्थिक सुधार लाए जाए। साथ ही राज्य के नीति निदेशक तत्त्व राज्य को ऐसी नीतियाँ तथा ऐसे कानून बनाने का निर्देश देते हैं, जिनसे जनता में गरीबी घटे तथा सामाजिक भेदभाव समाप्त हों। जैसा कि आपने “ भारत एक कल्याणकारी राज्य” नामक पाठ में पढ़ा है, भारत में एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना इन प्रावधानों का लक्ष्य है। |
एकीकृत न्यायिक व्यवस्था : संयुक्त राज्य अमेरिका जैसी संघात्मक व्यवस्था की न्यायिक व्यवस्थ के विपरीत भारत में एकीकृत न्यायिक व्यवस्था है। यहाँ राष्ट्रीय स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय, राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय तथा जिला एवं निचले स्तर पर अधीनस्थ नयायालय हैं। लेकिन ये सभी एक ही पदानुक्रम के अंग हैं। इस पदानुक्रम के शीर्ष पर सर्वोच्च न्यायालय है। एकीकृत न्यायिक व्यवस्था का उद्देश्य सभी नागरिकों को समान तरह से न्याय दिए जाने को सुनिश्चित करना है। इस व्यवस्था से सम्बन्धित सांविधानिक प्रावधान न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करते हैं; क्योंकि यह एकीकृत न्यायपालिका कार्यकारिणी तथा विधायिका के प्रभावों से मुक्त होती है। |
6. एकल नागरिकता : भारत का संविधान एकल नागरिकता का प्रावधान करता है। क्या आप इसका मतलब समझते हैं? इसका अर्थ है कि भारत में सभी भारत के नागरिक हैं, चाहे उनका जन्म किसी भी स्थान में हुआ हो या वे कहीं भी रहते हों। यह व्यवस्था संयुक्तराज्य अमेरिका की व्यवस्था से भिन्न है, जहाँ दोहरी नागरिकता की व्यवस्था हैं वहाँ का व्यक्ति किसी एक राज्य का नागरिक है जहाँ वह रहता है। साथ ही वह संयुक्त राज्य अमेरिका का भी नागरिक है। भारतीय संविधान द्वारा दी गई इकहरी नागरिकता निश्चित रूप से समानता, एकता और अखण्डता के मूल्यों की समझ बनाती है। |
7. सार्वभौम वयस्क मताधिकार : समानता तथा न्याय के मूल्य की तरह संविधान की एक अन्य विशेषता, सार्वभौम वयस्क मताधिकार है। यहाँ प्रत्येक नागरिक को एक निश्चित उम्र (18 वर्ष) का हो जाने के बाद मतदान करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। इसमें धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, वंश तथा जन्मस्थान या निवास स्थानके आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता। |
8. संघीय व्यवस्था तथा संसदीय सरकार : भारतीय संविधान की एक अन्य विशेषता यह है कि इसके द्वारा संघीय व्यवस्था तथा संसदीय शासन प्रणाली का प्रावधान किया गया है। इनके संबंध में व्यापक चर्चा हम नीचे करेंगे। लेकिन यहाँ यह समझना जरूरी है कि संघीय व्यवस्था में राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता के सांविधानिक मूल्य प्रतिबिम्बित हैं। साथ ही इसमें शक्ति के विकेन्द्रीकरण का मूल्य भी निहित है। सरकार के संसदीय स्वरूप में जनता में निहित उत्तरदायित्व और सम्प्रभुता के मूल्य प्रतिबिम्बित है। संसदीय प्रणाली का केन्द्रिक सिद्धान्त जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों वाली विधायिका के प्रति कार्यकारिणी का उत्तरदायित्व है। |
15.3.1 भारतीय संघीय पद्धति की विशेषताएँ : द्विसोपानीय सरकार: आपने यह सुना होगा कि भारतीय संविधान के द्वारा दो स्तरों पर सरकारों का प्रावधान किया गया है – एक सारे देश के लिए, जिसे केन्द्रीय सरकार कहते हैं तथा दूसरी प्रत्येक इकाई यानि राज्य के लिए, जिसे राज्य सरकार कहते हैं। कभी-कभी आपने भारत में त्रिसोपानीय सरकार की चर्चा सूनी होगी। क्योंकि केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों के अलावा ग्रामीण एवं शहरी स्थानीय सरकारों का एकअलग सोपन होता है। किन्तु संविधान के अनुसार भारत में द्विसोपानीय सरकार है। स्थानीय सरकारों को अलग अधिकार क्षेत्र नहीं दिए गए हैं। ये राज्य सरकारों के अन्दर ही कार्य करते हैं। |
शक्तियों का विभाजन : अन्य संघों की तरह, भारतीय संघ में भी केन्द्र तथा राज्य सरकारों को सांविधानिक स्थिति प्राप्त है। उनके कार्य क्षेत्र को भी संविधान द्वारा निर्धारित किया गया है। संविधान द्वारा दोनों सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है, कोई भी अपनी सीमा को नहीं छोड़ता या न ही दूसरे के कार्य क्षेत्रों का अतिक्रमण करता है। संविधान में तीन सूचियों द्वारा शक्तियों का विभाजन किया गया है संघ सूची, राज्यसूची तथा समवर्ती सूची। संघ सूची में राष्ट्रीय महत्व के 97 विषय हैं जैसे, रक्षा, रेलवे, डाक, एवं तार आदि। राज्य सूची में स्थानीय महत्व के 66 विषय हैं। जैसे लोक स्वास्थय, पुलिस राजनीतिक व्यवस्था स्थानीय स्वशासन आदि। समवर्ती सूची में 47 विषय रखे गए हैं जैसे शिक्षा, बिजली, श्रम संघ, आर्थिक एवं सामाजिक योजना आदि। इस सूची पर केन्द्र तथा राज्य सरकारों का समवर्ती अधिकार क्षेत्र है। हालांकि, संविधान ने ऐसे विषयों की जो संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची में नहीं आते, केन्द्र सरकार को सौंपा है। ऐसे अधिकारों को अवशिष्ट अधिकार कहा। जाता है। यदि शक्ति विभाजन के सम्बन्ध में कोई विवाद हो तो उसका निपटारा न्यायपालिका द्वारा सांविधानिक प्रावधानों के आधार पर किया जाता है। |
3. लिखित संविधान : जैसा हम लोगों ने पहले देखा है, भारत का एक लिखित संविधान है, जो सर्वोच्च है। यह केन्द्र तथा राज्य दोनो सरकारों के लिए शक्ति श्रोत है। ये दोनो ही सरकारें अपने-अपने शासन क्षेत्र में स्वतन्त्र हैं। भारतीय संविधान संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान की तरह अनमनीय नहीं है, यह एक नमनीय संविधान भी नहीं है। यह अनमनीयता तथा नमनीयता का अनोखा मिश्रण है। |
4. स्वतन्त्र न्यायपालिका : संघीय व्यवस्था की एक अन्य विशेषता स्वतन्त्र न्यायपालिका है। इसे इसलिए स्वतन्त्र रखा जाता है ताकि वह संविधान की व्याख्या कर सके तथा उसकी पवित्रता को बरकरार रख सके। भारत में भी न्यायपालिका स्वतन्त्र है। केन्द्र तथा राज्य सरकारों के बीच के विवादों का निपटारा करना भारत के सर्वोच्च न्यायालय का प्रारम्भिक अधिकार क्षेत्र है। यदि कोई कानून संविधान का उल्लंघन करता है तो यह उस कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकता है। |
15.3.2 भारतीय संघीय व्यवस्था मजबूत केन्द्र उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह स्पष्ट है कि भारतीय संविधान में संघीय व्यवस्था की सभी विशेषताएँ विधमान हैं। लेकिन क्या कभी आपने यह कथन पढ़ा है- “ भारतीय व्यवस्था का स्वरूप संघीय है लेकिन आत्मा एकात्मक है।” ऐसा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि भारत में केन्द्र सरकार बहुत मजबूत है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय की अवस्था तथा सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुए ऐसा जानबुझकर किया गया था। भारत लगभग एक महाद्वीप जैसा विशाल देश है। इसकी विविधताएँ एवं सामाजिक बहुलकवाद भी अनोखा है। संविधान निर्माताओं का इसीलिए यह विश्वास था कि भारत में एक ऐसी संघीय व्यवस्था होनी चाहिए जो इन विविधताओं तथा बहुलवाद को समायोजित कर सके। जब भारत आजाद हुआ तो इसके समक्ष देश की एकता एवं अखण्डता को सुरक्षित रखने तथा सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीति परिवर्तन लाने जैसी गंभीर चुनौतियाँ थीं। भारत ब्रिटिश सरकार द्वारा बनाए गए प्रान्तों में तो विभाजित था ही। इनके अतिरिक्त यहाँ 500 से भी अधिक रजवाड़े थे, जिन्हें विभिन्न राज्यों में समाहित करना था या नए राज्य बनाने थे। |
15.3.3 राज्यों को अधिक स्वायत्तता देने की माँग पिछले छः दशकों से भी अधिक अवधि में भारतीय संघीय व्यवस्था के कार्यान्वयन से यह स्पष्ट होता है कि संघीय व्यवस्था में केन्द्रीकरण के कारण राज्यों तथा केन्द्र के बीच के संबंध हमेशा अच्छे नहीं रहे हैं। यह स्वाभाविक है कि राज्य अपने क्षेत्र में शासन संचालन के लिए अधिक संवैधानिक मूल्य तथा भारत की राजनीतिक व्यवस्था शासन प्रणाली है। भारत में भी संसदीय शासन प्रणाली है। वस्तुतः भारतीय संविधान निर्माताओं ने यहाँ के लिए ब्रिटिश प्रतिमान को ही अपनाया क्योंकि भारत में 1947 के पहले जो शासन प्रणाली चल रही थी वह काफी हद तक ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के समान थी। भारत में केन्द्र तथा राज्य दोनो स्तरों पर शासन प्रणाली का रूप संसदीय है। भारतीय संसदीय शासन प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं : (i) विधायिका तथा कार्यकारिणी के बीच घनिष्ठ संबंध है। (ii) कार्यकारिणी का विधायिका के प्रति उत्तरदायित्व है। (iii) कार्यकारिणी में एक राज्याध्यक्ष है जो नाममात्र का प्रधान है तथा प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक मंत्रिपरिषद है, जो वास्वविक कार्यकारिणी है। |
विघायिका तथा कार्यकारिणी के बीच घनिष्ठ संबंध : भारत में कार्यकारिणी तथा विधायिका के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। केन्द्रीय सरकार की कार्यकारिणी में राज्याध्यक्ष, राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में मंत्रिपरिषद होते हैं। विधायिका अर्थात संसद के दो सदन है : लोकसभा एवं राज्य सभा । लोकसभा में बहुमत प्राप्त राजनीतिक दल या राजनैतिक दलों के गठबंधन का नेता ही प्रधानमंत्री के पदपर नियुक्त होता है। मंत्रिपरिषद के सभी सदस्य संसद के सदस्य होते हैं। मंत्रीपरिषद की सलाह पर ही राष्ट्रपति संसद के दोनो सदनों की बैठक बुलाता है, सत्रावसान करता है तथा लोकसभा को भंग कर सकता है। संसद के सभी सदस्य राष्ट्रपति के चुनाव में मतदान करते हैं। संसद के दोनों सदनों द्वारा राष्ट्रपति के विरूद्ध महाभियोग का प्रस्ताव पारित हो जाने पर उसे पद से हटाया जा सकता है। राष्ट्रपति संसद का भी अभिन्न अंग होता है। |
2. कार्यकारिणी का विधायिका के प्रति उत्तरदायित्त्व : मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोक सभा के प्रति उत्तरदायी होती है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक मंत्री का उत्तरदायित्त्व पूरी मंत्रिपरिषद सामाजिक विज्ञान का उत्तरदायित्त्व होता है। मंत्रिपरिषद राज्य सभा के प्रति भी उत्तरदायी है। संसद के दोनों सदन मंत्रिपरिषद को नियन्त्रित रखते हैं। ऐसा करने के लिए वे सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों तथा उसके कार्यों पर प्रश्न तथा अनुपूरक प्रश्न पूछते हैं। वे सरकार के प्रस्तावों पर वाद-विवाद करते है तथा सरकार के कार्यों की तीखी आलोचना करते हैं। वे स्थगन प्रस्ताव तथा ध्यानाकर्षण प्रस्ताव भी पेश करते हैं। मंत्रिपरिषद द्वारा प्रस्तुत कोई भी विधेयक संसद की स्वीकृति के बिना कानून नहीं बन सकता। वार्षिक बजट भी संसद द्वारा पारित किया जाता वास्तव में मंत्रिपरिषद का कार्यकाल लोकसभा पर निर्भर करता है। यदि मंत्रिपरिषद लोकसभा का विश्वास खो देता है यानी सदन में बहुमत का समर्थन खो देता है तो उसे त्यागपत्र देना पड़ता है। लोकसभा अविश्वास का प्रस्ताव पारित कर मंत्रिपरिषद को पदच्युत कर सकती है। |
3. नाममात्र और वास्तविक कार्यकारिणी : भारत में कार्यकारिणी के दो भाग है नाममात्र कार्यकारिणी तथा वास्तविक कार्यकारिणी। राष्ट्रपति जो राज्याध्यक्ष होता है, नाममात्र था औपचारिक कार्यकारिणी है। सिद्धान्ततः संविधान के द्वारा सभी कार्यकारिणी शक्तियाँ राष्ट्रपति में निहित किया गया है। किन्तु व्यवहार में उनका प्रयोग राष्ट्रपति द्वारा नहीं होता। उनका वास्तविक प्रयोग प्रधानमंत्री एवं मंत्रिपरिषद के द्वारा होता है। अतः प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में मंत्रिपरिषद के द्वारा होता है। अतः प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में मंत्रिपरिषद ही वास्तविक कार्यकारिणी है। राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह के बिना कोई काम नहीं कर सकता। |
4. प्रधानमंत्री-वास्तविक कार्यकारिणी : प्रधानमंत्री संसदीय कार्यकारिणी की धूरी होता है। मंत्रिपरिषद के सभी सदस्य प्रधानमंत्री की अनुसंशा पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त होते हैं। मंत्रियों बीच विभागों का आबंटन भी प्रधानमंत्री द्वारा ही होता है। प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद की बैठको की अध्यक्षता करता है। वह तो मंत्रिपरिषद एवं राष्ट्रपति के बीच की एकमात्र कड़ी है। प्रधानमंत्री के निर्णय से किसी भी मंत्री को पदच्युत किया जा सकता है। प्रधानमंत्री केपदत्याग करने से सारी मंत्रीपरिषद भंग हो जाती है। इन विशेषताओं के साथ भारत में संसदीय प्रणाली सतोषजनक ढंग से क्रियान्वित हो रही है। राज्यों में भी संसदीय प्रणाली की सरंचना केन्द्र की प्रणाली के अनुरूप है। वहाँ कार्यकारिणी में निभाता है तथा मुख्यमंत्री एवं मंत्रिपरिषद वास्तविक कार्यकारिणी की तरह कार्य करते हैं। राज्य राज्यपाल तथा मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में मंत्रिपरिषद होते हैं राज्यपाल राज्याध्यक्ष की भूमिका तथा विधान परिषद) हैं। अधिकतर राज्यों में एक सदनीय (विधान सभा) विधायिकाएँ हैं। |
आपने क्या सीखा • राज्य या राष्ट्र के संदर्भ में संविधान का अर्थ मूल सिद्धान्तों, आधारभूत नियमों तथा स्थापित विधायिका एवं न्यायपालिका के अंतर्गत प्रमुख संस्थाओं की संरचना, अधिकार तथा कार्यो को परिभाषित करता है और नियमित करता है। यह नागरिकों के अधिकारों एवं उनकी स्वतन्त्रताओं का प्रावधान करता है और वैयक्तिक नागरिक तथा राज्य और सरकार के बीच के सम्बंधों को स्पष्ट करता है। • भारत का संविधान इसके द्वारा स्थापित व्यवस्था के आधारभूत उद्देश्यों को परिभाषित करता है। इसके द्वारा भारत में एक सम्प्रभु, लोकतान्त्रिक, समाजवादी एवं पंथनिरपेक्ष गणतंत्र की स्थापना की गई । इसमें सामाजिक परिवर्तन लाने तथा वैयक्तिक नागरिक एवं राज्यों के बीच के संबंधों को परिभाषित करने संबंधी प्रावधान है। • किसी देश का संविधान अनेक उद्देश्यों को पूरा करता है। यह कुछ ऐसे आदर्शो को निर्धारित करता है, जो ऐसे देश का आधार बनाते हैं जिसमें हम नागरिकों की तरह रहने की आकांक्षा रखते हैं। संविधान सिद्दान्तों, नियमों तथा प्रक्रियाओं के एक सेट की तरह है जिनपर देश सभी व्यक्तियों की सहमति होती है। लोग चाहते हैं कि देश का शासन इसी सहमति के तथा समाज आग बढ़े। यह सहमति केवल शासन के प्रकार पर आधार पर संचालित ही नहीं बल्कि उन आदर्शो पर भी बनती है, जिन्हें बनाए रखा जाए। भारतीय संविधान में भी कुछ ऐसे केन्द्रिक • सांविधानिक मूल्य निहित हैं, जो संविधान की आत्मा है तथा इसके विभिन्न अनुच्छेदों तथा प्रावधानों में अभिव्यक्त हैं। सांविधानिक मूल्य पूरे संविधान में प्रतिबिम्बित हैं। उसकी प्रस्तावना में ऐसे मूलभूत मूल्यों तथा दर्शन को सम्मिलित किया गया है, जिनपर पूरा संविधान आधारित है। ये हैं : सम्प्रभुता, समाजवाद, पंथ निरपेक्षता, लोकतंत्र, गणतान्त्रिक प्रकृति, न्याय, स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व, मानवीय गौरव तथा राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता । • सांविधानिक मूल्य भारतीय संविधान के सभी प्रमुख विशेषताओं में भी व्याप्त हैं। जैसे लिखित संविधान, अनमनशील तथा नमनशील संविधान का अनोखा मिश्रण, मूल अधिकार, राज्य के नीति निदेशक तत्त्व, मौलिक कर्त्तव्य, एकल नागरिकता, सार्वभौम वयस्क मताधिकार, संघवाद तथा संसदीय शासन प्रणाली । • भारत एक संघ राज्य है, क्योंकि यहाँ एक लिखित संविधान है तथा द्विसोपानीय सरकार, केन्द्र तथा राज्य स्तरों पर है। केन्द्रीय सरकार एवं राज्य सरकार के बीच शक्तियों का विभाजन है तथा यहाँ स्वतन्त्र न्यायपालिका है। लेकिन यह एक ऐसा संघ राज्य है जहाँ केन्द्रीय सरकार काफी मजबूत है। संविधान द्वारा जानबुझकर केन्द्रीय सरकार को राज्य सरकारों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बनाया गया है। • भारत में केन्द्र तथा राज्य दोनी स्तरों पर संसदीय शासन प्रणाली है। राष्ट्रपति राज्याध्यक्ष तथा नाममात्र की कार्यकारिणी है। प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद के अध्यक्ष के रूप में वास्तविक कार्यकारिणी का प्रधान है। कार्यकारिणी तथा विधायिका के बीच घनिष्ठ संबंध है तथा मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से संसद के प्रति उत्तरदायी है। |
NIOS Class 10th सामाजिक विज्ञान (पुस्तक – 2) Notes in Hindi
- Chapter – 15 संवैधानिक मूल्य तथा भारत की राजनीतिक व्यवस्था
- Chapter – 16 मौलिक अधिकार तथा मौलिक कर्त्तव्य
- Chapter – 17 भारत एक कल्याणकारी राज्य
- Chapter – 18 स्थानीय शासन तथा क्षेत्रीय प्रशासन
- Chapter – 19 राज्य स्तर पर शासन
- Chapter – 20 केन्द्रीय स्तर पर शासन
- Chapter – 21 राजनीतिक दल तथा दवाब समूह
- Chapter – 22 जनता की सहभागिता तथा लोकतान्त्रिक प्रक्रिया
- Chapter – 23 भारतीय लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियाँ
- Chapter – 24 राष्ट्रीय एकीकरण तथा पंथ निरपेक्षता
- Chapter – 25 सामाजिक आर्थिक विकास तथा अभावग्रस्त समूहों का सशक्तीकरण
- Chapter – 26 पर्यावरणीय क्षरण तथा आपदा प्रबन्धन
- Chapter – 27 शान्ति और सुरक्षा
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