NCERT Solutions Class 8th History Chapter – 6 “देशी जनता” को सभ्य बनाना राष्ट्र को शिक्षित करना (Civilising The Native Educating The Nation) Notes in Hindi

NCERT Solutions Class 8th History Chapter – 6 “देशी जनता” को सभ्य बनाना राष्ट्र को शिक्षित करना (Civilising The Native Educating The Nation)

Text BookNCERT
Class  8th
Subject  Social Science (इतिहास)
Chapter6th
Chapter Nameदेशी जनता” को सभ्य बनाना राष्ट्र को शिक्षित करना (Civilising The Native Educating The Nation)
CategoryClass 8th  Social Science (इतिहास)
Medium Hindi
SourceLast Doubt
NCERT Solutions Class 8th History Chapter – 6 “देशी जनता” को सभ्य बनाना राष्ट्र को शिक्षित करना (Civilising The Native Educating The Nation) Notes in Hindi हम इस अध्याय में अंग्रेज़ शिक्षा को किस तरह देखते थे, प्राच्यवाद की परंपरा, भाषाविद, मदरसा, पूरब की  जघन्य गलतियाँ, प्राच्यवादी, मुंशी, वर्नाकुलर, ज्ञानियों की भाषा?, व्यवसाय के लिए शिक्षा, यूरोपीय ज्ञान, विलियम एडम की रिपोर्ट, नई दिनचर्या, नए नियम, अरविंदों घोष, राष्ट्रीय शिक्षा की कार्यसूची, साक्षरता ही शिक्षा नहीं है, अंग्रेजी शिक्षा ने हमें गुलाम बना दिया है, टैगोर का “शांतिनिकेतन”, सभ्य करने के लिए शिक्षा और व्यवसाय के लिए शिक्षा आदि के बारे में पढ़ेंगे।

NCERT Solutions Class 8th History Chapter – 6 “देशी जनता” को सभ्य बनाना राष्ट्र को शिक्षित करना (Civilising The Native Educating The Nation)

Chapter – 6

“देशी जनता” को सभ्य बनाना राष्ट्र को शिक्षित करना

Notes

अंग्रेजी शिक्षा को किस तरह देखते थे – शिक्षा द्वारा सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि विभिन्न प्रकार का विकास होना चाहिए पर ब्रिटिश शिक्षा ने न केवल इसकी उपेक्षा की बल्कि शिक्षा को इनसे पृथक् कर दिया। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति यह नहीं मानता कि सामाजिक विकास करना उसकी भी जिम्मेदारी है।ब्रिटिश शिक्षा ने योजनाविहीन विकास की नींव डाली।

प्राच्यवाद की परंपरा (tradition of orientalism) सन् 1783 में विलियम जोन्स नाम के एक सज्जन कलकत्ता आए। उन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा स्थापित किए गए सुप्रीम कोर्ट में जूनियर जज के पद पर तैनात किया गया था। कानून का माहिर होने के साथ-साथ जोन्स एक भाषाविद भी थे। उन्होंने ऑक्सफ़र्ड में ग्रीक और लैटिन का अध्ययन किया था, वे फ्रैंच और अंग्रेज़ी जानते थे और अपने एक दोस्त से अरबी सीखने के अलावा फ़ारसी भी सीख चुके थे।

कलकत्ता में आने के बाद वे रोज़ाना घंटों संस्कृत विद्वानों के साथ बैठकर उनसे संस्कृत की बारीकियाँ, उसकी व्याकरण और संस्कृत काव्यों का अध्ययन करने लगे थे। कुछ ही समय में उन्होंने क़ानून, दर्शन, धर्म, राजनीति, नैतिकता, अंकगणित, चिकित्सा विज्ञान और अन्य विज्ञानों की प्राचीन भारतीय पुस्तकों का अध्ययन शुरू कर दिया।

भाषाविद – एक ऐसा व्यक्ति जो कई भाषाओं का जानकार और विद्यार्थी होता है।

मदरसा (Seminary) – सीखने के स्थान को अरबी भाषा में मदरसा कहा जाता है। यह किसी भी तरह का स्कूल या कॉलेज या कोई और संस्थान हो सकता है।

पूरब की जघन्य गलतियाँ (Heinous Mmistakes Of The East) – दूसरी तरफ कई ऐसे अफसर भी थे जो ओरिएंटलिज्म के घोर आलोचक थे। उनका कहना था कि पूरब का ज्ञान गलतियों से भरा और अवैज्ञानिक है। उनका कहना था कि अरबी और संस्कृत की पढ़ाई को बढ़ावा देना बेकार है।

ओरिएंटलिज्म के घोर आलोचकों में एक नाम था जेम्स मिल का। उनका कहना था कि शिक्षा का उद्देश्य होता है ऐसी चीज पढ़ाना जो उपयोगी हो और जिसे जमीनी रूप में अमल किया जा सके। 

उनका मानना था कि भारत के लोगों को पश्चिम द्वारा की गई वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियों के बारे में मालूम होना चाहिए।ओरिएंटलिज्म के घोर आलोचकों में एक और नाम था थॉमस बैबिंग्टन मैकॉले का।

मैकॉले का मानना था कि भारत एक असभ्य देश था, और उसे सभ्य बनाने की जिम्मेदारी औपनिवेशिक शासकों की थी। उन्हें लगता था कि लोगों को सभ्य बनाने, उनकी जीवन शैली बदलने और उनके मूल्यों और संस्कृति को बदलने के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान जरूरी था।

प्राच्यवादी – एशिया की भाषा और संस्कृति का गहन ज्ञान रखने वाले लोग।

मुंशी – ऐसा व्यक्ति जो फ़ारसी पढ़ना लिखना और पढ़ाना जानता हो।

वर्नाकुलर – यह शब्द आमतौर पर मानक भाषा से अलग किसी स्थानीय भाषा या बोली के लिए इस्तेमाल किया जाता है। भारत जैसे औपनिवेशिक देशों में अंग्रेज़ रोजमर्रा इस्तेमाल की स्थानीय भाषाओं और साम्राज्यवादी शासकों की भाषा अंग्रेज़ी के बीच फर्क को चिह्नित करने के लिए इस शब्द का इस्तेमाल करते थे।

ज्ञानियों की भाषा – अंग्रेजी पढ़ाने की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए मैकॉले ने यह कहा था : सभी पक्ष इस बात पर सहमत दिखाई देते हैं कि भारत के देशी लोगों द्वारा आमतौर पर बोली जाने वाली बोलियों में न तो साहित्यहिक जानकारियाँ होती हैं। और न ही वैज्ञानिक।

इसके अलावा, ये बोलियाँ इतनी दरिद्र और रूखी हैं कि अगर किसी और स्रोत से उनको समृद्ध न बनाया जाए तो किसी भी मूल्यवान कृति का उनमें अनुवाद भी नहीं किया जा सकता है। थॉमस बेबिंगटन मैकॉले, भारतीय शिक्षा के विषय में 2 फरवरी 1835 के मिनट्स।

व्यवसाय के लिए शिक्षा – 1854 में ईस्ट इंडिया कंपनी के लंदन स्थित कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने भारतीय गवर्नर जनरल को शिक्षा के विषय में एक नोट भेजा। कंपनी के नियंत्रक मंडल के अध्यक्ष चार्ल्स वुड के नाम से जारी किए गए इस संदेश को वुड का नीतिपत्र (वुड्स डिस्पैच) के नाम से जाना जाता है।

इस दस्तावेज़ में भारत में लागू की जाने वाली शिक्षा नीति की रूपरेखा स्पष्ट करते हुए एक बार फिर दोहराया गया है कि प्राच्यवादी ज्ञान के स्थान पर यूरोपीय शिक्षा को अपनाने से कितने व्यावहारिक लाभ प्राप्त होंगे।

इस दस्तावेज़ में यूरोपीय शिक्षा का एक व्यावहारिक लाभ आर्थिक क्षेत्र में बताया गया था। उसके मुताबिक, यूरोपीय शिक्षा के माध्यम से भारतीयों को व्यापार और वाणिज्य के विस्तार से होने वाले लाभों को समझने और देश के संसाधनों के विकास का महत्त्व समझने में मदद मिलेगी।

यदि उन्हें यूरोपीय जीवन शैली से अवगत कराया गया तो उनकी रुचियों और आकांक्षाओं में भी बदलाव आएगा और ब्रिटिश वस्तुओं की माँग पैदा होगी क्योंकि तब यहाँ के लोग यूरोप में बनी चीज़ों को अपनाना और खरीदना शुरू कर देंगे।

यूरोपीय ज्ञान – पक्ष में एक तर्क 1854 के वुड के नीतिपत्र में प्राच्यवादी ज्ञान का विरोध करने वालों की निर्णायक विजय का संकेत था। इसमें कहा गया था: हमें जोर देकर यह बात कहनी चाहिए कि भारत में हम जिस शिक्षा का प्रसार करना चाहते हैं उस शिक्षा का लक्ष्य यूरोप की श्रेष्ठतर कलाओं, सेवाओं, दर्शन और साहित्य यानी यूरोपीय ज्ञान का प्रसार करना है।

विलियम एडम की रिपोर्ट – 1830 के दशक में स्कॉटलैंड से आए ईसाई प्रचारक विलियम एडम ने बंगाल और बिहार के जिलों का दौरा किया। कंपनी ने उन्हें देशी स्कूलों में शिक्षा की प्रगति पर रिपोर्ट तैयार करने का जिम्मा सौंपा था। एडम ने जो रिपोर्ट तैयार की वह दिलचस्प थी। एडम ने पाया कि बंगाल और बिहार में एक लाख से ज़्यादा पाठशालाएँ हैं। ये बहुत छोटे-छोटे केंद्र थे जिनमें आम तौर पर 20 से ज्यादा विद्यार्थी नहीं होते थे। फिर भी, इन पाठशालाओं में पढ़ने वाले बच्चों की कुल संख्या काफ़ी यानी बीस लाख से भी ज़्यादा थी। ये पाठशालाएँ सम्पन्न लोगों या स्थानीय समुदाय द्वारा चलाई जा रही थीं। कई पाठशालाएँ स्वयं गुरु द्वारा ही प्रारम्भ की गई थीं।

नई दिनचर्या, नए नियम – उन्नीसवीं सदी के मध्य तक कंपनी का ध्यान मुख्य रूप से उच्च शिक्षा पर था। इसीलिए कंपनी ने स्थानीय पाठशालाओं के कामकाज में कभी ज़्यादा दखल नहीं दिया। 1854 के बाद कंपनी ने देशी शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाने का फैसला लिया।

कंपनी का मानना था कि इसके लिए मौजूदा व्यवस्था के भीतर ही बदलाव किये जा सकते हैं। कंपनी एक नई दिनचर्या, नए नियमों और नियमित निरीक्षणों के ज़रिए पाठशालाओं को और व्यवस्थित करना चाहती थी। इसके लिए क्या किया जा सकता था? कंपनी ने क्या कदम उठाए ?

सबसे पहले तो कंपनी ने बहुत सारे पंडितों को सरकारी नौकरी पर रख लिया। इनमें से प्रत्येक पंडित को 4-5 स्कूलों की देखरेख का जिम्मा सौंपा जाता था। पंडितों का काम पाठशालाओं का दौरा करना और वहाँ अध्यापन की स्थितियों में सुधार लाना था।

प्रत्येक गुरु को निर्देश दिया गया कि वे समय-समय पर अपने स्कूल के बारे में रिपोर्ट भेजें और कक्षाओं को नियमित समय-सारणी के अनुसार पढ़ाएँ।

अरविंदों घोष – अरविंदों घोष ने 15 जनवरी 1908 को बॉम्बे (मुंबई) में अपने एक सम्भाषण में राष्ट्रीय शिक्षा पर बोलते हुए कहा इसका लक्ष्य छात्रों में राष्ट्रीयता का भाव जागृत करना है। इसके लिए अपने पूर्वजों के साहसिक कार्यों पर गहराई से चिंतन करना आवश्यक होगा। शिक्षा को मातृ-भाषा में होना चाहिए ताकि यह अधिक-से-अधिक लोगों तक पहुंच सके।

अरविंदो ने इस बात पर भी बल दिया कि यद्यपि छात्रों को अपने मूल के साथ जुड़े रहना चाहिए, फिर भी उनको आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कारों तथा लोकप्रिय शासन व्यवस्था के संदर्भ में पश्चिमी देशों के अनुभव का भी भरपूर लाभ उठाना चाहिए। इसके अतिरिक्त छात्रों को कोई हस्तकला भी सीखनी चाहिए ताकि वे स्कूल छोड़ने पर यथा संभव रोजगार पा सकें।

राष्ट्रीय शिक्षा की कार्यसूची – केवल अंग्रेज़ अफ़सर ही भारत में शिक्षा के बारे में नहीं सोच रहे थे। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से ही भारत के विभिन्न भागों के बहुत सारे विचारक शिक्षा के व्यापक प्रसार की ज़रूरत पर जोर देने लगे थे। यूरोप में आ रहे बदलावों से प्रभावित कुछ भारतीयों का मानना था कि पश्चिमी शिक्षा भारत का आधुनिकीकरण कर सकती है।

उन्होंने अंग्रेज़ों से आह्वान किया कि वे नए स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय खोलें तथा शिक्षा पर ज़्यादा पैसा ख़र्च करें। इस दिशा में हुए कुछ प्रयासों के बारे में आप अध्याय 9 में पढ़ेंगे। परंतु बहुत सारे भारतीय पश्चिमी शिक्षा के विरुद्ध थे। महात्मा गांधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर इसी तरह के लोगों में से थे। आइए देखें कि उनका क्या कहना था।

अंग्रेजी शिक्षा ने हमें गुलाम बना दिया – महात्मा गांधी का कहना था कि औपनिवेशिक शिक्षा ने भारतीयों के मस्तिष्क में हीनता का बोध पैदा कर दिया है। इसके प्रभाव में आकर यहाँ के लोग पश्चिमी सभ्यता को श्रेष्ठतर मानने लगे हैं और अपनी संस्कृति के प्रति उनका गौरव भाव नष्ट हो गया है। महात्मा गांधी ने कहा कि इस शिक्षा में विष भरा है, यह पापपूर्ण है, इसने भारतीयों को दास बना दिया है, इसने लोगों पर प्रभाव डाला है।

उनके मुताबिक, पश्चिम से अभिभूत, पश्चिम से आने वाली हर चीज़ की प्रशंसा करने वाले इन संस्थानों में पढ़ने वाले भारतीय ब्रिटिश शासन को पसंद करने लगे थे। महात्मा गांधी एक ऐसी शिक्षा के पक्षधर थे जो भारतीयों के भीतर प्रतिष्ठा और स्वाभिमान का भाव पुनर्जीवित करे। राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान उन्होंने विद्यार्थियों से आह्वान किया कि वे शिक्षा संस्थानों को छोड़ दें और अंग्रेज़ों को बताएँ कि अब वे गुलाम बने रहने के लिए तैयार नहीं हैं।

महात्मा गांधी की दृढ़ मान्यता थी कि शिक्षा केवल भारतीय भाषाओं में ही दी जानी चाहिए। उनके मुताबिक, अंग्रेज़ी में दी जा रही शिक्षा भारतीयों को अपाहिज बना देती है, उसने उन्हें अपने सामाजिक परिवेश से काट दिया है और उन्हें “अपनी ही भूमि पर अजनबी” बना दिया है।

साक्षरता ही शिक्षा नहीं – शिक्षा से मेरा मतलब इस बात से है कि बालक और मनुष्य के देह, मस्तिष्क और भावना के श्रेष्ठ तत्वों को सामने लाया जाए। साक्षरता न तो शिक्षा का अंत है और न ही उसकी शुरुआत। यह तो केवल एक साधन है जिसके जरिए पुरुषों और महिलाओं को शिक्षा दी जा सकती है।

साक्षरता अपने आप में शिक्षा नहीं होती। लिहाज़ा, मैं बच्चों को शिक्षित करते हुए सबसे पहले उन्हें कोई उपयोगी हस्तकौशल सिखाऊँगा और उन्हें शुरू से ही कुछ रचने, पैदा करने के लिए तैयार करूँगा।

मेरा मानना है कि दिमाग और आत्मा का सर्वोच्च विकास इस तरह की शिक्षा में ही संभव है। प्रत्येक हस्तकौशल आज की तरह केवल यांत्रिक ढंग से ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक ढंग से पढ़ाया जाना चाहिए, यानी बच्चे को प्रत्येक प्रक्रिया के क्यों और किसलिए का पता होना चाहिए।

टैगोर का शांतिनिकेतन – आप में से बहुत सारे दोस्तों ने शांतिनिकेतन के बारे में सुना होगा। क्या आप जानते हैं कि इसकी स्थापना किसने और क्यों की थी? रवीन्द्रनाथ टैगोर ने यह संस्था 1901 में शुरू की थी। टैगोर जब बच्चे थे तो स्कूल जाने से बहुत चिढ़ते थे। वहाँ उनका दम घुटता था। उन्हें स्कूल का माहौल दमनकारी लगता था।

टैगोर को ऐसे लगता था मानो स्कूल कोई जेल हो, क्योंकि वहाँ बच्चे मनचाहा कभी नहीं कर पाते थे। जब दूसरे बच्चे शिक्षक को सुन रहे होते थे, टैगोर का दिमाग कहीं और भटक रहा होता था। कलकत्ता के अपने स्कूल जीवन के अनुभवों ने शिक्षा के बारे में टैगोर के विचारों को काफ़ी प्रभावित किया।

जब वे बड़े हुए तो उन्होंने एक ऐसा स्कूल खोलने के बारे में सोचा जहाँ बच्चे खुश रह सकें, जहाँ वे मुक्त और रचनाशील हों, जहाँ वे अपने विचारों और आकांक्षाओं को समझ सकें। टैगोर को लगता था कि बचपन का समय अपने आप सीखने का समय होना चाहिए।

वह अंग्रेजों द्वारा स्थापित की गई शिक्षा व्यवस्था के कड़े और बंधनकारी अनुशासन से मुक्त होना चाहिए। शिक्षक कल्पनाशील हों, बच्चों को समझते हों और उनके अंदर उत्सुकता, जानने की चाह विकसित करने में मदद दें।

सभ्य करने के लिए शिक्षा – 1870 में शिक्षा अधिनियम लागू होने तक आमतौर पर पूरी आबादी के लिए व्यापक शिक्षा व्यवस्था नहीं थी । बाल मज़दूरी बहुत बड़े पैमाने पर थी इसलिए गरीब अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते थे। परिवार चलाने के लिए उनकी आय महत्त्वपूर्ण थी। स्कूल भी बहुत कम थे। ज्यादातर स्कूल चर्च या रईसों द्वारा स्थापित किए गए थे। शिक्षा अधिनियम लागू होने के बाद सरकार ने नए-नए स्कूल खोलने शुरू किए और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया।

टॉमस आरनॉल्ड उस दौर के सबसे महत्त्वपूर्ण शैक्षणिक विचारकों में से एक थे। वह रग्बी नामक प्राइवेट स्कूल के मुख्य अध्यापक थे। माध्यमिक स्कूल की पाठ्यचर्या में 2000 साल पुरानी ग्रीक और रोमन शास्त्रीय कृतियों के विस्तृत अध्ययन की हिमायत करते हुए उन्होंने कहा था : मुझे हमेशा ऐसा प्रतीत हुआ कि हमारे अंग्रेजी स्कूलों में जो अध्ययन क्रम अपनाया जाता है उसकी सबसे अच्छी बात यह है कि वह हमारे दिमाग को लगातार अतीत के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करता है।

हर रोज हम भाषाओं, इतिहास और कुछ साल पहले या हज़ारों साल पहले के विचारों को पढ़ते रहते हैं। आरनॉल्ड का मानना था कि शास्त्रीय कृतियों के अध्ययन से दिमाग अनुशासित होता है। वास्तव में, उस काल के ज्यादातर शिक्षाविदों की मान्यता थी कि इस तरह का अनुशासन बहुत ज़रूरी है क्योंकि बच्चे स्वाभाविक रूप से असभ्य होते हैं और उन्हें नियंत्रित करना आवश्यक है।

सभ्य वयस्क के रूप में विकसित होने के लिए उन्हें मालूम होना चाहिए कि समाज में सही और गलत क्या है और उचित और अनुचित आचरण क्या होता है। शिक्षा, खासतौर से बच्चों के दिमाग को अनुशासित करने वाली शिक्षा का मकसद उन्हें इसी मार्ग पर आगे ले जाना था। क्या आप बता सकते हैं कि इस तरह के विचारों ने इंग्लैंड में गरीबों तथा उपनिवेशों में ” देशी जनता” की शिक्षा से संबंधित सोच को किस तरह प्रभावित किया होगा।

व्यवसाय के लिए शिक्षा (Education For Business) – 1854 में लंदन में ईस्ट इंडिया कम्पनी के कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स नें भारत के गवर्नर जेनरल को एक एजुकेशनल डिस्पैच भेजा। उस डिस्पैच को चार्ल्स वूड ने जारी किया था जो कम्पनी के बोर्ड ऑफ कंट्रोल के प्रेसिडेंट थे। इसलिए इसका नाम वूड्स डिस्पैच पड़ा। इसके कुछ मुख्य बिंदु नीचे दिए गए हैं।यूरोपीय शिक्षा से भारत के लोगों को व्यापार और व्यवसाय की वृद्धि के लाभ समझ में आएंगे।

• भारत के लोगों को देश के संसाधनों के विकास का महत्व समझ में आएगा।
• यूरोपीय जीवन शैली सीखने से भारत के लोगों का रहन सहन बदलेगा जिससे ब्रिटेन के सामान की माँग बढ़ जाएगी।
• यूरोपीय शिक्षा से लोगों का नैतिक चरित्र सुधरेगा। इससे ऐसे सिविल सर्वेंट की कमी नहीं होगी जिनपर विश्वास किया जा सके।

NCERT Solution Class 8th Social Science (History) Notes All Chapter
Chapter – 1 कैसे, कब और कहाँ
Chapter – 2 व्यापार से साम्राज्य तक कंपनी की सत्ता स्थापित होती है
Chapter – 3 ग्रामीण क्षेत्र पर शासन चलाना
Chapter – 4 आदिवासी, दिकू और एक स्वर्ण युग के कल्पना
Chapter – 5 जब जनता बग़ावत करती है 1857 और उसके बाद
Chapter – 6 “देशी जनता” को सभ्य बनाना राष्ट्र को शिक्षित करना
Chapter – 7 महिलाएँ, जाति एवं सुधार
Chapter – 8 राष्ट्रीय आंदोलन का संघटनः 1870 के दशक से 1947 तक
NCERT Solution Class 8th Social Science (History) Question Answer All Chapter
Chapter – 1 कैसे, कब और कहाँ
Chapter – 2 व्यापार से साम्राज्य तक कंपनी की सत्ता स्थापित होती है
Chapter – 3 ग्रामीण क्षेत्र पर शासन चलाना
Chapter – 4 आदिवासी, दिकू और एक स्वर्ण युग के कल्पना
Chapter – 5 जब जनता बग़ावत करती है 1857 और उसके बाद
Chapter – 6 “देशी जनता” को सभ्य बनाना राष्ट्र को शिक्षित करना
Chapter – 7 महिलाएँ, जाति एवं सुधार
Chapter – 8 राष्ट्रीय आंदोलन का संघटनः 1870 के दशक से 1947 तक
NCERT Solution Class 8th Social Science (History) MCQ All Chapter
Chapter – 1 कैसे, कब और कहाँ
Chapter – 2 व्यापार से साम्राज्य तक कंपनी की सत्ता स्थापित होती है
Chapter – 3 ग्रामीण क्षेत्र पर शासन चलाना
Chapter – 4 आदिवासी, दिकू और एक स्वर्ण युग के कल्पना
Chapter – 5 जब जनता बग़ावत करती है 1857 और उसके बाद
Chapter – 6 “देशी जनता” को सभ्य बनाना राष्ट्र को शिक्षित करना
Chapter – 7 महिलाएँ, जाति एवं सुधार
Chapter – 8 राष्ट्रीय आंदोलन का संघटनः 1870 के दशक से 1947 तक

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