NCERT Solutions Class 8th History Chapter – 3 ग्रामीण क्षेत्रों पर शासन चलाना (Governing Rural Areas)
Text Book | NCERT |
Class | 8th |
Subject | Social Science (इतिहास) |
Chapter | 3rd |
Chapter Name | ग्रामीण क्षेत्रों पर शासन चलाना (Governing Rural Areas) |
Category | Class 8th Social Science (इतिहास) |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NCERT Solutions Class 8th History Chapter – 3 ग्रामीण क्षेत्रों पर शासन चलाना (Governing Rural Areas) Notes in Hindi रैयतों को नील की खेती से क्या नुकसान पहुंचा रहा था?, कंपनी द्वारा दीवानी प्राप्त करने के बाद कारीगर गांव छोड़कर क्यों भागने लगे?, किसानों को नील की खेती करने में मुख्य समस्या क्या आ रही थी?, अध्याय 3 हमें संसद क्यों चाहिए प्रश्न उत्तर?, रैयत किसान का मतलब क्या है?, भारत में नील की मांग क्यों थी?, नील की खेती के दो प्रकार कौन से हैं? नील विद्रोह का नेता कौन है?, खेती की शुरुआत कैसे हुई?, व्यापारी ग्रामीण इलाकों में क्यों जाते हैं?, कंपनी दीवान कब बनती है?, कंपनी को दीवानी मिलने से क्या क्या फायदे हुए होंगे?, रैयत और गैर रैयत में क्या अंतर है?, रियात का मतलब क्या होता है?, रयोट का क्या अर्थ है?, भारत में नील की खेती क्यों घटी आदि इसके बारे में हम विस्तार से पढ़ेंगे |
NCERT Solutions Class 8th History Chapter – 3 ग्रामीण क्षेत्रों पर शासन चलाना (Governing Rural Areas)
Chapter – 3
ग्रामीण क्षेत्रों पर शासन चलाना
Notes
कंपनी दीवान बन गई – 12 अगस्त 1765 को मुगल बादशाह ने ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल का दीवान तैनात किया बंगाल की दीवानी हाथ आ जाना अंग्रेजों के लिए निश्चय ही एक बड़ी घटना थी। दीवानी मिलने के तौर पर कंपनी अपने नियंत्रण वाले भू-भाग के आर्थिक मामलों की मुख्य शासक बन गई थी। समय के साथ कंपनी को यह भी समझ में आने लगा कि उसे सावधानी के साथ आगे बढ़ना होगा।
क्योंकि बाहरी ताकत होने की वजह से उसे उन लोगों को भी शांत रखना था जो गांव देहात में पहले शासन चला चुके थे और जिनके पास अभी भी काफी ताकत और सम्मान था ऐसे जो लोग स्थानीय सत्ता में रह चुके थे उन्हें नियंत्रित करना तो जरूरी था लेकिन उन्हें खत्म नहीं किया जा सकता था।
कंपनी की आमदनी – कंपनी दीवान बन गई थी लेकिन अभी भी खुद को एक व्यापारी ही मानती थी कंपनी भारी-भरकम लगान तो चाहती थी लेकिन उसके आकलन और वसूली की कोई नियमित व्यवस्था करने में हिचकिचाती थी।
उसकी कोशिश यही रहती थी कि वह ज्यादा से ज्यादा राजस्व हासिल करें और कम से कम कीमत पर बढ़िया सूती और रेशमी कपड़ा खरीदे इस कारण पाँच साल के भीतर बंगाल में कंपनी द्वारा खरीदी जाने वाली चीजों का कुल मूल्य दोगुना हो गया था।
बंगाल की दीवानी मिलने के बाद अंग्रेजों की नीतियों से बंगाल की अर्थव्यवस्था गहरे संकट में फंसती जा रही थी। इसी बीच 1770 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा इसमें बंगाल में एक करोड़ लोगों की मौत हो गई जो कि बंगाल की आबादी का लगभग एक तिहाई था।
खेती में सुधार की जरुरत – अर्थव्यवस्था में अपना राजस्व तय करने के लिए ही 1793 ई. में कंपनी ने स्थाई बंदोबस्त लागू किया इस समय गवर्नर जनरल लॉर्ड कॉर्नवालिस था। स्थाई बंदोबस्त की शर्तों के हिसाब से राजाओं और तालू कतारों को जमींदारों के रूप में मान्यता दी गई। उन्हें किसानों से लगान वसूलने और कंपनी को राजस्व चुकाने का जिम्मा सौंपा गया। इस व्यवस्था में जमींदारों की ओर से चुकाई जाने वाली राशि स्थाई रूप में तय कर दी गई थी।
इसका मतलब यह था कि भविष्य में कभी भी इसमें इजाफा नहीं किया जाएगा। परंतु यह शर्त केवल जमींदारों के लिए थी न कि किसानों के लिए। जमींदार किसान से लगान की मांग बढ़ा सकते थे। ऐसा इसलिए था क्योंकि अंग्रेजों को लगता था कि राज्य की ओर से राजस्व की मांग बढ़ने वाली नहीं थी इसलिए जमींदार बढ़ते उत्पादन से फायदा में रहेंगे और जमीन सुधार पर ध्यान देंगे।
परंतु जमींदारों ने ऐसा नहीं किया किसान को जो लगान चुकाना था वह बहुत ज्यादा था और जमीन पर उसका अधिकार भी सुरक्षित नहीं था ऐसे में किसान कर्ज में फंस जाता था तथा उत्पादन घटने से लगान भी नहीं चुका पाता था जो जमींदार राजस्व चुकाने में विफल हो जाता था उसकी जमींदार छीन ली जाती थी। उन्नीसवीं सदी के पहले दशक तक हालात बदल चुके थे। बाजार में कीमतें बढ़ीं और धीरे-धीरे खेती का विस्तार होने लगा। इससे जमींदारों की आमदनी में तो सुधार आया लेकिन कंपनी को कोई फायदा नहीं हुआ क्योंकि कंपनी तो हमेशा के लिए राजस्व तय कर चुकी थी। अब वह राजस्व में वृद्धि नहीं कर सकती थी।
समस्या – स्थयी बंदोबस्त ने भी समस्या पैदा कर दी। कंपनी के अफ़सरो ने पाया की अभी भी जमींदार जमीन में सुधार के लिए खर्चा नहीं कर रहे थे। असल में, कंपनी ने जो राजस्व तय किया था वह इतना ज़्यादा था की उसको चुकाने में जमीदारों को भारी परेशानी हो रही थी। जो जमींदार राजस्व चुकाने में विफल हो जाता था उसकी जमींदारी छीन ली जाती थी।
बहुत सारी जमींदारियों को कंपनी बाकायदा नीलम कर चुकी थी। दूसरी तरफ गाँवो में किसानों को यह व्यवस्था बहुत दमनकारी दिखाई दी। किसान लगान चुकाने के लिए अकसर महाजन से कर्जा लेना पड़ता था। अगर वह लगान नहीं चुका पाता था तो उसे पुश्तैनी जमीन से बेदखल कर दिया जाता था।
एक नयी व्यवस्था – बंगाल प्रेसीडेंसी के उत्तर पश्चिमी प्रांतों (इस इलाके का ज्यादातर हिस्सा अब उत्तर प्रदेश में है) के लिए होल्ट मैकेंजी नामक अंग्रेज ने एक नई व्यवस्था महालवाड़ी बंदोबस्त तैयार की जिसे 1822 में लागू किया गया। इसमें महाल को राजस्व की इकाई तय किया गया जिसका अर्थ एक गांव या ग्राम समूह था।
इसमें गांव के एक-एक खेत के अनुमानित राजस्व को जोड़कर हर गांव या ग्राम समूह (महाल) से वसूल होने वाले राजस्व का हिसाब लगाया जाता था। इसमें राजस्व को स्थाई रूप से तय नहीं किया गया बल्कि उसमें समय-समय पर संशोधनों की गुंजाइश रखी गई इसमें राजस्व इकट्ठा करने और उसे कंपनी को अदा करने का जिम्मा जमींदार की बजाय गांव के मुखिया को सौंपा गया।
मुनरो व्यवस्था – ब्रिटिश नियंत्रण वाले दक्षिण भारतीय इलाकों में भी स्थाई बंदोबस्त की जगह नई व्यवस्था अपनाने का प्रयास किया जाने लगा। वहाँ जो नई व्यवस्था विकसित हुई उसे रैयतवार (या रैयतवारी) का नाम दिया गया। रैयतवारी व्यवस्था मुख्य रूप से दक्षिण भारतीय क्षेत्रों में लागू की गई। कैप्टन एलेग्जेंडर रीड ने टीपू सुल्तान के साथ चले युद्धों के बाद कंपनियों द्वारा कब्जे में लिए गए कुछ इलाकों में इस व्यवस्था को आजमा कर भी देख लिया था।
टॉमस मुनरो ने इस व्यवस्था को विकसित किया था अतः इसे मुनरो व्यवस्था भी कहते हैं धीरे-धीरे पूरे दक्षिणी भारत पर यही व्यवस्था लागू कर दी गई। रीड और मुनरो को लगता था कि दक्षिण में परंपरागत जमींदार नहीं थे इसलिए उनका तर्क यह था कि सीधे किसानों से ही बंदोबस्त करना।
सब कुछ ठीक नहीं था – नयी व्यवस्थाएँ लागू होने के कुछ साल बाद ही उनमें समस्याएँ दिखाई देनी लगी। जमीन से होने वाली आमदनी बढ़ाने के चक्कर में राजस्व अधिकारियों ने बहुत ज्यादा राजस्व तय कर दिया। किसान राजस्व चुका नहीं पा रहे थे। रैयत गाँवों से भाग रहे थे। कई क्षेत्रों में गाँव वीरान हो गए थे। आशावादी अफसरों को उम्मीद थी कि नयी व्यवस्था किसानों को संपन्न उद्यमशील किसान बना देगी, लेकिन ऐसा नही हुआ।
यूरोप के लिए फसलें – अंग्रेज भारत में अपनी जरूरत के हिसाब से विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न फसलों की खेती करा रहे थे। अठाहरवीं सदी के आखिर तक कंपनी ने अफ़ीम और नील की खेती पर पूरा जोर लगा दिया था। इसके बाद लगभग 150 साल तक अंग्रेज़ देश के विभिन्न भागों में किसी न किसी फ़सल के लिए किसानों को मजबूर करते रहे जिनमें नील और अफीम भी शामिल है नील उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में उगने वाली फसल है अन्य फसलों में कुछ निम्नलिखित हैं बंगाल में पटसन, संयुक्त प्रांत में गन्ना, महाराष्ट्र व पंजाब में कपास, असम में चाय, पंजाब में गेहूं, मद्रास में चावल।
भारतीय नील की माँग क्यों थी – यूरोप के ‘वोड’ नामक पौधे की तुलना में नील का पौधा बेहतर रंग देता था। जिस कारण भारतीयनील की यूरोप में बहुत मांग थी भारत के आंध्र प्रदेश के बुनकरों द्वारा बनाए गए कलमकारी छापे से लेकर ब्रिटेन के कलाकारों द्वारा बनाए जाने वाले विभिन्न फूल वाले छापों में नील का प्रयोग होता था।
भारत में ब्रिटेन की बढ़ती दिलचस्पी – यूरोप में नील की बढ़ती माँग को देखते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी भी भारत में नील की खेती बढ़ाने के रास्ते ढूँढ़ने लगी। अठाहरवीं सदी के आखिरी दशकों से ही बंगाल में नील की खेती तेजी से फैलने लगी थी। बंगाल में पैदा होने वाला नील दुनिया के बाजारों पर छा गया था। 1788 में ब्रिटेन द्वारा आयात किए गए नील में भारतीय नील का हिस्सा केवल लगभग 30 प्रतिशत था। 1810 में ब्रिटेन द्वारा आयात किए गए नील में भारतीय नील का हिस्सा 95 प्रतिशत हो चुका था।
नील की खेती कैसे होती थी – नील की खेती के दो मुख्य तरीके थे- निज और रैयती निज खेती व्यवस्था में बागान मालिक या तो खुद अपनी जमीन में या जमीन खरीद कर या भाड़े पर लेकर मजदूरों द्वारा खेती कराते थे। रैयती व्यवस्था के तहत बागान मालिक गांव के मुखियाओं या रैयतों के साथ एक अनुबंध करते थे। जो अनुबंध पर दस्तखत करता था उसे नील उगाने के लिए कम ब्याज पर कर्जा मिलता था।
कर्ज लेने वाले को कम से कम 25% जमीन पर नील उगाना होता था। बागान मालिक बीज और उपकरण देते। थे जबकि बुआई और देखभाल काश्तकार करता था। नील के साथ परेशानी यह थी कि उसकी जड़ें बहुत गहरी होती थीं और वह मिट्टी की सारी ताकत खींच लेती थी। इसलिए नील की कटाई के बाद वहाँ धान की खेती नहीं की जा सकती थी।
निजी खेती की समस्याएं
(i) बड़े-बड़े व उपजाऊ भूखण्डों की आवश्यकता।
(ii) नील की फैक्ट्री के आस-पास जमीन लेने के प्रयास में स्थानीय किसानों को हटवाने से, टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई।
(iii) बड़ी संख्या में मजदूरों की आवश्यकता।
(iv) बहुत सारे हल-बैलों की जरूरत- एक बीघा नील की खेती के लिए दो हल चाहिये होते थे अर्थात् यदि किसी बागान मालिक के पास 1,000 बीघा जमीन है तो उसे 2,000 हलों की आवश्यकता होती थी।
(v) किसानों से भी हल नहीं मिल सकते थे क्योंकि उस वक्त वो चावल की खेती में व्यस्त रहते थे।
(vi) नील की कुल पैदावार का 25% हिस्सा इस खेती के अंतर्गत आता था।
रैयतों की जमीन पर नील की खेती
• रैयती व्यवस्था के तहत बागान मालिक रैयतों के साथ एक अनुबंध करते थे, कई बार गाँव के मुखियाओं को भी रैयतों की तरफ से समझौता करने के लिए बाध्य किया जाता था।
• अनुबंध पर दस्तखत करने वाले रैयतों को नील की खेती हेतु बागान मालिकों से नकद कर्जा मिलता था। बदले में उन्हें अपनी कम से कम 25% जमीन पर नील की खेती करनी होती थी।
• बागान मालिक बीज व उपकरण उपलब्ध कराते थे जबकि मिट्टी तैयार करने, बीज बोने व फसल की देखभाल करने की जिम्मेदारी श्तारों की थी।
• कटाई के बाद फसल बागान मालिकों को सौंप दी जाती थी। उसके बाद रैयत को नया कर्जा मिल जाता था और वहीं चक्र दोबारा शुरू हो जाता था।
रैयती खेती की समस्याएँ
(i) रैयतों को फसल कटने पर, कम कीमत पर फसल बेचने को मजबूर किया जाता था, जिससे वो अपना ऋण नहीं चुका पाते थे व कभी खत्म न होने वाले कर्ज के चक्र में फंस जाते थे।
(ii) बागान मालिक यह चाहते थे कि किसान अपने सबसे उपजाऊ खेतों पर ही नील की खेती करे लेकिन नील की जड़े बहुत गहरी होने के कारण मिट्टी की सारी ताकत खींच लेती है। इस कारण किसान नील की कटाई के बाद वहाँ धान की खेती नहीं कर पाते थे।
“नील विद्रोह” और उसके बाद – मार्च 1859 में बंगाल के हजारों रैयतों ने नील की खेती से इनकार कर दिया। जैसे-जैसे विद्रोह फैला रैयतों ने बागान मालिकों को लगान चुकाने से भी इनकार कर दिया। वे तलवार, भाले और तीर-कमान लेकर नील की फैक्ट्रियों पर हमला करने लगे। औरतें अपने बर्तन लेकर लड़ाई में कूद पड़ीं। बाग़ान मालिकों के लिए काम करने वालों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया। बागान मालिकों की तरफ़ से लगान वसूली के लिए आने वाले एजेंटों की पिटाई की गई। रैयतों ने कसम खा ली कि न तो वे नील की खेती के लिए कर्जा लेंगे और न ही बाग़ान मालिकों के लाठीधारी गुंडों से डरेंगे।
1859 में नील रैयतों को लगा कि बागान मालिकों के खिलाफ बगावत में उन्हें स्थानीय जमींदारों और मुखिया का भी समर्थन मिल सकता है अतः मार्च 1859 में बंगाल के हजारों रैयतों ने नील की खेती से इंकार कर नील विद्रोह शुरू कर दिया। विद्रोह के व्यापक होने पर नील उत्पादन व्यवस्था की जांच करने के लिए एक नील आयोग बना जिसने बागान मालिकों को दोषी पाया जोर-जबरदस्ती के लिए उनकी आलोचना कि। आयोग ने कहा कि नील की खेती रैयत के लिए फायदे का सौदा नहीं है आयोग ने रैयतों से कहा कि वे मौजूदा अनुबंधों को पूरा करें लेकिन आगे वे चाहें तो नील की खेती बंद कर सकते हैं।
जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से लौटे तो बिहार के एक किसान ने उन्हें चंपारण आकर नील किसानों की दुर्दशा को देखने का न्योता दिया 1917 में महात्मा गांधी ने इस दौरे के बाद नील बागान मालिकों के खिलाफ चंपारण आंदोलन की शुरुआत की थी।
महल – ब्रिटिश राजस्व दस्तावेजों में महल एक राजस्व इकाई थी। यह एक गाँव या गाँवों का एक समूह होती थी।
बाग़ान – एक विशाल खेत जिस पर बागान मालिक बहुत सारे लोगों से जबरन काम करवाता था। कॉफ़ी, गन्ना, तंबाकू, चाय और कपास आदि के विषय में बाग़ानों का ज़िक्र किया जाता है।
गुलाम – ऐसा व्यक्ति जो किसी दास स्वामी की संपत्ति होता है। गुलाम के पास कोई आज़ादी नहीं होती, उसे अपने मालिक के लिए काम करना होता है।
बीघा – ज़मीन की एक माप। ब्रिटिश शासन से पहले बीघे का आकार अलग-अलग होता था। बंगाल में अंग्रेज़ों ने इसका क्षेत्रफल करीब एक-तिहाई एकड़ तय कर दिया था।
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