NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास) Chapter – 4 ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन (Change and Development in Rural Society) Notes In Hindi

NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास) Chapter – 4 ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन (Change and Development in Rural Society)

TextbookNCERT
classClass – 12th
SubjectSociology (भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास) 
ChapterChapter – 4
Chapter Name ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन
CategoryClass 12th Sociology Notes In Hindi
Medium Hindi
Sourcelast doubt
NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास) Chapter – 4 ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन (Change and Development in Rural Society) Notes In Hindi भारत में ग्रामीण समाज की मुख्य समस्यायें क्या है इसका वर्णन कीजिए? भारत में ग्रामीण समाज के विकास की आवश्यकता क्यों है? सामाजिक परिवर्तन और विकास क्या है? ग्रामीण समाज की परिभाषा क्या है? सामाजिक परिवर्तन कितने प्रकार के होते हैं? सामाजिक परिवर्तन के चार प्रकार कौन से हैं? सामाजिक परिवर्तन के मुख्य स्रोत कौन कौन से हैं? सामाजिक परिवर्तन का अर्थ क्या है? सामाजिक परिवर्तन की विशेषता क्या है? सामाजिक परिवर्तन के अभिकरण कौन-कौन से हैं? सामाजिक परिवर्तन बिस्तर नोट क्या हैं? सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करने वाले कारक कौन-कौन से हैं? शिक्षा और सामाजिक परिवर्तन के बीच क्या संबंध हैं? निम्नलिखित में से कौन सामाजिक परिवर्तन का कारक नहीं है? सामाजिक परिवर्तन का विरोध क्या करता है?

NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास) Chapter – 4 ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन (Change and Development in Rural Society)

Chapter – 4

 ग्रामीण समाज में विकास एवं परिवर्तन

Notes

भारतीय ग्रामिण समाज 

भारतीय समाज प्राथमिक रूप से ग्रामिण समाज है। 2011 की जनगणना के अनुसार 60% लोग गाँव में रहते है। उनका जीवन कृषि तथा उनके संबंधित व्यवसाय पर चलता है तथा भूमि उत्पाद एक महत्त्वपूर्ण साधन है।

कृषि तथा संस्कृति का घनिष्ठ संबंध है। ग्रामीण भारत की सामाजिकता भी कृषि आधारित है। व्यवसायों को भिन्नता यहाँ की जाति व्यवस्था प्रतिदर्शित करती है। जैसे धोबी, लौहार, कुम्हार, सुनार, नाई आदि।

त्यौहार का कृषि से सम्बंध  –  भारत के विभिन्न भागों के त्यौहार पोंगल (तमिलनाडु), बैसाखी (पंजाब), ओणम (केरल), हरियाली तीज ( हरियाणा), बीहू (असम) तथा उगाड़ी (कर्नाटक) मुख्य रूप से फसल काटने के समय मनाए जाते है।

कृषि और संस्कृति 

सभी भोजन, त्योहार और कपड़े जमीन से जुड़े हुए हैं।
मुख्य कृषि व्यवसाय जैसे बढ़ई, कुम्हार, कारीगर, मूर्तिकार आदि हैं।
वैश्वीकरण के आगमन के साथ, स्कूलों (शिक्षकों), अस्पतालों (नर्सों, डॉक्टरों), डाक और टेलीग्राफ में कई व्यवसायों को पेश किया गया है।
कई कारखाने आ रहे हैं और ग्रामीण लोग वहां श्रम प्रदान करते हैं।

कृषिक संरचना –  भारत के कुछ भोगों में कुछ न कुछ जमीन का टुकड़ा काफी लोगों के पास होता है । जबकि दूसरे भागों में 40 से 50 प्रतिशत परिवार के पास भूमि नहीं होती है। उत्तराधिकार के नियमों और पितृवंशीय नातेदारी के कारण महिलाएँ जमीन की मालिक नहीं होती । भूमि रखना ही ग्रामीण वर्ग संरचना को आकार देता है । कृषि मजदूरों की आमदनी कम होती है तथा उनका रोजगार असुरक्षित रहता है । वर्ष में वे काफी दिन वे बेरोजगार रहते है ।

प्रबल जाति 

प्रत्येक क्षेत्र में एक या दो जाति के लोग ही भूमि रखते हैं तथा इनकी संख्या भी गांव में महत्त्वपूर्ण है । समाज शास्त्री एम.एन. श्री निवास ने ऐसे ही लोगों को प्रबल जाति का नाम दिया है।

प्रबल जाति राजनैतिक आर्थिक रूप से शक्तिशाली होती है ये प्रबल जाति लोगों पर प्रभुत्व बनाए रखती है। जैसे पंजाब के जाट सिक्ख, हरियाणा तथा पश्चिम उत्तरप्रदेश के जाट, आन्ध्र प्रदेश के कम्मास व रेडडी, कर्नाटक के बोक्का लिगास तथा लिगायत बिहार के यादव आदि।

अधिकतर सीमान्त किसान तथा भूमिहीन लोग निम्न जातीय समूह से होते है। वे अधिकतर प्रबल जाति के लोगों के यहां कृषि मजदूरी करते थे । उत्तरी भारत के कई भागों में अभी भी बेगार और मुफ्त मजदूरी जैसे पद्धति प्रचलन में है।

हलपति तथा जीता –  शक्ति तथा विशेषाधिकार उच्च तथा मध्यजातियों के पास ही थे। संसाधनों की कमी और भूस्वामियों की आर्थिक सामाजिक तथा राजनीतिक प्रभाव के कारण बहुत से गरीब कामगार पीढ़ियों से उनके यहां बंधुआ मजदूर की तरह काम करते है। गुजरात में इस व्यवस्था को हलपति तथा कर्नाटक में जीता कहते है।

जमींदारी व्यवस्था – इस प्रणाली में जमींदार भूमि का स्वामी माना जाता था। सरकार से कृषक का सीधा सम्बन्ध नहीं होता था। अपितु जमींदार के माध्यम से भूमि का कर (कृषकों द्वारा) सीधा सरकार को दिया जाता था । जैसे कि स्थानीय राजा या जमीदार भूमि पर नियंत्रण रखते थे। किसान अथवा कृषक जो कि उस भूमि पर कार्य करता था, वह फसल का एक पर्याप्त भाग उन्हें देता था।

रैयतवाड़ी व्यवस्था –  (रैयत का अर्थ है कृषक) इस जमीन पर पहले से ज्यादा नियंत्रण जमीदार को मिला। औपनिवेशिकों ने कृषि पर बड़ा टैक्स लगा दिया था, इस प्रकार कृषि उत्पादन कम होने लगा। कुछ क्षेत्रों में यह सीधा ब्रिटिश शासन के अधीन था जिसे रैयतवाडी व्यवस्था कहते थे (तेलगू मे रैयत का अर्थ है कृषक) इस प्रकार जमीदार के स्थान पर कृषक स्वयं टैक्स चुकाता था तथा इस प्रकार इनका टैक्स भार कम हो गया तथा इन क्षेत्रों में कृषि उत्पादन तथा सम्पन्नता बढ़ी।

स्वतंत्र भारत में भूमि सुधार के सुधार 

स्वतन्त्र भारत में नेहरू और उनके नीति सलाहाकरों ने 1950 से 1970 तक भूमि सुधार कानूनों का एक श्रृंखला शुरू की। राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर पर विशेष परिवर्तन किए, सबसे महत्त्वपूर्ण परिवर्तन थे –

जमीदारी व्यवस्था को समाप्त करना परन्तु केवल कुछ क्षेत्रों में ही हो पाया।
पट्टादारी को खत्म करना तथा नियन्त्रण अधिनियम अधिकनयम, परन्तु यह केवल बंगाल तथा केरल तक ही सीमित रहा।
भूमि की हदबंदी अधिनिमय जो राज्यों का कार्य था इसमें भी बचाव के रास्ते और विधियां निकाल ली गई।
भूमि सुधार न केवल कृषि उपज को बढ़ाता है बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी हटाना और सामाजिक न्याय दिलाने लिए के भी आवश्यक है।

भूमि सुधार लाने कारण – भूमि सुधार लाने का पहला कारण कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाना था। दूसरा कारण बिचौलियों को खत्म कर गरीब किसानों के शोषण को रोकना था ताकि किसानों को जमीन मिल सके।

बेनामी बदल –  भू-स्वामियों ने अपनी भूमि रिश्तेदारों या अन्य लोगों के बीच विभाजित की परंतु वास्तव में भूमि पर अधिकार भू-स्वामी का ही था। इस प्रथा को बेनामी बदल कहा गया।

हरित क्रांति 

उच्च उपज देने वाले बीजों (HYV), उर्वरकों, नई तकनीक और सिंचाई विधियों के कारण कृषि उत्पादन में वृद्धि को हरित क्रांति कहा जाता है। यह 1970 के दशक में और बाद में भारत में हुआ।

हरित क्रांति कृषि के उत्पादन को बढ़ाने का एक सुनियोजित और वैज्ञानिक तरीका है। पंचवर्षीय योजनाओं का विश्लेषण करने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि यदि हमें खाद्य उत्पादन में आत्मनिर्भर बनना है तो हमें उत्पादन से संबंधित नए तरीकों और प्रौद्योगिकी का उपयोग करना होगा।

इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए 1966-67 में कृषि में तकनीकी परिवर्तन लाए गए। अधिक उत्पादकता विशेषकर गेहूँ और चावल के लिए नए बीज लाने के लिए नए प्रयोग शुरू किए गए। इसके लिए सिंचाई के नए साधनों, कीटनाशकों और उर्वरकों का भी प्रयोग किया गया। कृषि में विकसित साधनों के प्रयोग को हरित क्रांति का नाम दिया गया।

हरित क्रांति से अमीर किसानों को अधिक लाभ – हरित क्रांति के दौरान नई तकनीक, बीज और उर्वरकों का इस्तेमाल किया गया और अमीर किसानों के लिए इन महंगी चीजों को खरीदना संभव हो गया। इसलिए अमीर किसानों ने इसका ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाया।

हरित क्रांति से पहले भारत में अनाज उत्पादन के क्षेत्र की स्थिति –  हरित क्रांति से पहले, भारत आवश्यक अनाज का उत्पादन करने में असमर्थ था और उसने अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अनाज का आयात किया ।

 हरित क्रांति के मुख्य आधार 

• उपज की कीमत का निर्धारण
• पशुपालन का विकास
• निगम की स्थापना
• कीटनाशकों का उपयोग
• बहुफसली कार्यक्रम

 हरित क्रांति के सामाजिक परिणाम 

• वर्ग संघर्ष हुआ
• खाद्यान्नों के मूल्य में वृद्धि
• कृषि मजदूर गरीब हो गए
• छोटे किसानों की पहुंच से बाहर थी एडवांस टेक्नोलॉजी
• आर्थिक असमानता में वृद्धि

 स्वतन्त्रता के बाद ग्रामीण समाज में परिवर्तन – स्वतन्त्रता के बाद ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक संबंधों की प्रकृति में अनेक प्रभावशाली रूपान्तरण हुए। इसका कारण हरित क्रांति रहा ।

• गहन कृषि के कारण कृषि मजदूरों की बढ़ोतरी।
• नगद भुगतान।
• भू-स्वामियों एवं किसान के मध्य पुश्तैनी संबंधों में कमी होना।
• दिहाड़ी मजदूरों का उदय।

मजदूरों का संचार 

1990 के दशक से आई ग्रामीण असमानताओं ने बहुस्तरीय व्यवसायों की ओर बाध्य किया तथा मजदूरों का पलायन हुआ। जॉन ब्रेमन ने इन्हें घुमक्कड़ मजदूर (Foot Loose Labour) कहा।

इन मजदूरों का शोषण आसानी से किया जाता है। मजदूरों के बड़े पैमाने पर संचार से ग्रामीण समाज, दोनों ही भेजने वाले तथा प्राप्त करने वाले क्षेत्रों पर अनेक महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़े है।

 संविदा कृषि 

भूमण्डलीय तथा उदारीकरण के कारण बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ निश्चित फसल उगाने को कहती है तथा ये किसानों को जानकारी व सुविधाएँ भी देती है । इसे संविदा कृषि कहा जाता है।

इसमें किसान अपने जीवन व्यापार के लिए इन कपनियों पर निर्भर हो जाते है।

निर्यातोन्मुखी उत्पाद जैसे फूल, और खीरे हेतू ‘संविदा खेती’ का अर्थ यह भी है कि कृषि भूमि का प्रयोग उत्पादन से हट कर किया जाता है।

‘संविदा खेती’ मूलरूप से अभिजात मदों का उत्पादन करती है तथा चूँकि यह अक्सर खाद तथा कीटनाशक का उच्च मात्रा में प्रयोग करते हैं इसलिए यह बहुधा पर्यावरणीय दृष्टि से सुरक्षित नहीं होती।

संविदा कृषि के नुख्सान –  संविदा कृषि सुरक्षा के साथ-साथ असुरक्षा भी देती है। किसान इन कंपनियों पर निर्भर हो जाते है। खाद व कीटनाशकों के अधिक प्रयोग से पर्यावरण असुरक्षित हो जाता है।

किसानों की आत्महत्या के कारण 

समाजशास्त्रियों ने कृषि तथा कृषक समाज में होने वाले सरंचनात्मक तथा सामाजिक परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में करने का प्रयास किया है।

आत्महत्या करने वाले बहुत से किसान ‘सीमांत किसान’ थे जो मूल रूप से हरित क्रांति के तरीकों का प्रयोग करके अपनी उत्पादकता बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे।

कृषि रियायातों में कमी के कारण उत्पादन लागत में तेजी से बढ़ोतरी हुई है बाजार स्थिर नहीं है तथा बहुत से किसान अपना उत्पादन बढ़ाने के लिए मंहगे मदों में निवेश करने हेतू अत्यधिक उधार लेते हैं। किसान ऋणी हो रहे हैं।

खेती का न होना, तथा कुछ मामलों में उचित आधार अथवा बाजार मूल्य के आभाव के कारण किसान कर्ज का बोझ उठाने अथवा अपने परिवारों को चलाने में असमर्थ होते है। आत्महत्याओं की घटनाएँ बढ़ रही है। ये आत्महत्याएँ मैट्रिक्स घटनाएँ बन गई है।