NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारतीय समाज) Chapter – 3 सामाजिक संस्थाएँ – निरंतरता एवं परिवर्तन (Social Institutions: Continuity and Change) Question & Answer In Hindi

NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारतीय समाज) Chapter – 3 सामाजिक संस्थाएँ – निरंतरता एवं परिवर्तन (Social Institutions: Continuity and Change)

TextbookNCERT
class12th
SubjectSociology (भारतीय समाज)
Chapter3rd
Chapter Nameसामाजिक संस्थाएँ – निरंतरता एवं परिवर्तन
CategoryClass 12th Sociology
Medium Hindi
Sourcelast doubt

NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारतीय समाज) Chapter – 3 सामाजिक संस्थाएँ – निरंतरता एवं परिवर्तन (Social Institutions: Continuity and Change)

Chapter – 3

सामाजिक संस्थाएँ – निरंतरता एवं परिवर्तन

प्रश्न उत्तर

पाठ्यपुस्तक प्रश्न – उत्तर

प्रश्न 1. जाति व्यवस्था में पृथक्करण (separation) और अधिक्रम (hierarchy) की क्या भूमिका है?
उत्तर – जाति व्यवस्था के सिद्धांतों को दो समुच्चयों के संयोग के रूप में समझा जा सकता है। पहला भिन्नता और अलगाव पर आधारित है और दूसरा संपूर्णता और अधिक्रम पर। प्रत्येक जाति एक-दूसरे से भिन्न है तथा इस पृथकता का कठोरता से पालन किया जाता है। इस तरह के प्रतिबंधों में विवाह, खान-पान तथा सामाजिक अंतर्सबंध से लेकर व्यवसाय तक शामिल हैं। भिन्न-भिन्न तथा पृथक जातियों का कोई व्यक्तिगत अस्तित्व नहीं है। संपूर्णता में ही उनका अस्तित्व है।यह सामाजिक संपूर्णता समतावादी होने के बजाय अधिक्रमित है। प्रत्येक जाति का समाज में एक विशिष्ट स्थान होने के साथ-साथ एक क्रम सीढ़ी भी होती है। ऊपर से नीचे जाती एक सीढ़ीनुमा व्यवस्था में प्रत्येक जाति का एक विशिष्ट स्थान होता है।

जाति की यह अधिक्रमित व्यवस्था ‘शुद्धता’ तथा ‘अशुद्धता’ के अंतर पर आधारित होती है। वे जातियाँ जिन्हें कर्मकांड की दृष्टि से शुद्ध माना जाता है, उनका स्थान उच्च होता है और जिनको अशुद्ध माना जाता है, उन्हें निम्न स्थान दिया जाता है। इतिहासकारों का मानना है कि युद्ध में पराजित झेने वाले लोगों को निचली जाति में स्थान मिला।जातियाँ एक-दूसरे से सिर्फ कर्मकांड की दृष्टि से ही असमान नहीं हैं। बल्कि ये एक-दूसरे के पूरक तथा गैरप्रतिस्पर्धी समूह हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक जाति का इस व्यवस्था में अपना एक स्थान है तथा यह स्थान कोई दूसरी जाति नहीं ले सकती। जाति का संबंध व्यवसाय से भी होता है। व्यवस्था श्रम के विभाजन के अनुरूप कार्य करती है। इसमें परिवर्तनशीलता की अनुमति नहीं होती। पृथक्करण तथा अधिक्रम का विचार भारतीय समाज में भेदभाव, असमानता तथा अन्नायमूलक व्यवस्था की तरफ इंगित करता है।

प्रश्न 2. वे कौन से नियम हैं, जिनका पालन करने के लिए जाति व्यवस्था बाध्य करती है? कुछ के बारे में बताइए।
उत्तर –
 जाति व्यवस्था के द्वारा समाज पर आरोपित सर्वाधिक सामान्य नियम अग्रलिखित हैं।

जाति का निर्धारण जन्म से होता है। एक बच्चा अपने माता-पिता की जाति में ही जन्म लेता है। कोई भी न तो जाति को बदल सकता है, न छोड़ सकता है और न ही इस बात का चयन कर सकता है कि वह जाति में शामिल है अथवा नहीं। जाति की सदस्यता के साथ विवाह संबंधी कठोर नियम शामिल होते हैं। जाति समूह ‘सजातीय’ होते हैं तथा विवाह समूह के सदस्यों में ही हो सकते हैं।

जाति के सदस्यों को खान-पान के नियमों का पालन करना होता है।

एक जाति में जन्म लेने वाला व्यक्ति उस जाति से जुड़े व्यवसाय को ही अपना सकता है। यह व्यवसाय वंशानुगत होता है।

जाति में स्तर तथा स्थिति का अधिक्रम होता है। हर व्यक्ति की एक जाति होती है और हर जाति का सभी जातियों के अधिक्रम में एक निर्धारित स्थान होता है।

जातियों का उप-विभाजन भी होता है। कभी-कभी उप-जातियों में भी उप-जातियाँ होती हैं। इसे खंडात्मक संगठन कहा जाता है।

प्रश्न 3. उपनिवेशवाद के कारण जाति व्यवस्था में क्या-क्या परिवर्तन आए?
उत्तर –
 औपनिवेशिक शासनकाल के दौरान जाति व्यवस्था में प्रमुख परिवर्तन आएजाति का वर्तमान स्वरूप प्राचीन भारतीय परंपरा की अपेक्षा उपनिवेशवाद की ही अधिक देन हैं। अंग्रेज प्रशासकों ने देश पर कुशलतापूर्वक शासन करना सीखने के उद्देश्य से जाति व्यवस्था की जटिलताओं को समझने के प्रयत्न शुरू किए। जाति के संबंध में सूचना एकत्र करने के अब तक के सबसे महत्त्वपूर्ण सरकारी प्रयत्न 1860 के दशक में प्रारंभ किए गए।

ये जनगणना के माध्यम से किए गए।सन् 1901 में हरबर्ट रिजले के निर्देशन में कराई गई जनगणना विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि इस जनगणना के अंतर्गत जाति के सामाजिक अधिक्रम के बारे में जानकारी इकट्ठी करने का प्रयत्न किया गया अर्थात् श्रेणी क्रम में प्रत्येक जाति का सामाजिक दृष्टि के अनुसार कितना ऊँचा या नीचा स्थान प्राप्त है, इसका आकलन किया गया।अधिकृत रूप से की गई जाति की इस गणना के कारण भारत में जाति नामक संस्था की पहचान और अधिक स्पष्ट हो गई।

भू-राजस्व बंदोबस्ती तथा अन्य कानूनों ने उच्च जातियों के जाति आधारित अधिकारों को वैध मान्यता प्रदान करने का कार्य किया। बड़े पैमाने पर सिंचाई की योजनाएँ प्रारंभ की गईं तथा लोगों को बसाने का कार्य प्रारंभ किया गया। इन सभी प्रयासों का एक जातीय आयाम था। इस प्रकार, उपनिवेशवाद ने जाति संस्था में अनेक प्रमुख परिवर्तन किए।

अंग्रेज़ों ने निम्नलिखित क्षेत्रों में प्रमुख परिवर्तन किए

(i) जनगणना – भारत की जातियों तथा उप-जातियों की संख्या तथा आकार का पता लगाना।
(ii) समाज के विभिन्न वर्गों के मूल्यों, विश्वासो तथा रीति-रिवाजों को समझना।
(iii) भूमि की बंदोबस्ती।

प्रश्न 4. किन अर्थों में नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत ‘अदृश्य’ हो गई?
उत्तर –
 जाति व्यवस्था में परिवर्तन का सर्वाधिक लाभ शहरी मध्यम वर्ग तथा उच्च वर्ग को मिला। जातिगत अवस्था के कारण इन वर्गों को भरपूर आर्थिक तथा शैक्षणिक संसाधन उपलब्ध हुए तथा तीव्र विकास का लाभ भी उन्होंने पूरा-पूरा उठाया। विशेष तौर से ऊँची जातियों के अभिजात्य लोग आर्थिक सहायता प्राप्त सार्वजनिक शिक्षा, विशेष रूप से विज्ञान, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा तथा प्रबंधन के क्षेत्र में, व्यावसायिक शिक्षा से लाभान्वित होने में सफल हुए। इसके साथ ही, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के प्रारंभिक दशकों में राजकीय क्षेत्र की नौकरियों में हुए विस्तार को भी लाभ उठाने में सफल रहे।

समाज की अन्य जातियों की तुलना में उनकी उच्च शैक्षणिक स्थिति ने उनकी एक विशेषाधिकार वाली स्थिति प्रदान की। अनुसूचित जाति, जनजाति तथा पिछड़े वर्ग की जातियों के लिए यह परिवर्तन नुकसानदेह साबित हुआ। इससे जाति और अधिक स्पष्ट हो गई। उन्हें विरासत में कोई शैक्षणिक तथा सामाजिक थाती नहीं मिली थी तथा उन्हें पूर्व स्थापित उच्च जातियों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही थी। वे अपनी जातीय पहचान को नहीं छोड़ सकते हैं। वे कई प्रकार के भेदभाव के शिकार हैं।

प्रश्न 5. भारत में जनजातियों का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया है?
उत्तर – 
जनजातियों का वर्गीकरण उनके स्थायी तथा अर्जित लक्षणों के आधार पर किया गया है।

(i) स्थायी लक्षणों के आधार पर वर्गीकरण
(ii)अर्जित लक्षणों के आधार पर वर्गीकरण

स्थायी लक्षणों के आधार पर वर्गीकरण

क्षेत्र- जनजातियों को उनकी भौगोलिक स्थिति के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। उदाहरण के लिए, “मध्य भारत” में आदिवासी आबादी है, जिसमें मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्से शामिल हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में भी महत्वपूर्ण आदिवासी आबादी है।

भाषा- जनजातियों को चार भाषा समूहों में वर्गीकृत किया गया है। इंडो-आर्यन, द्रविड़ियन, ऑस्ट्रिक और तिब्बती-बर्मन। जबकि पहले दो भाषा समूह बाकी भारतीय आबादी के साथ साझा किए जाते हैं, बाद के दो मुख्य रूप से आदिवासियों द्वारा बोले जाते हैं।

भौतिक विशेषताएं- जनजातियों को विभिन्न नस्लीय श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है, जिनमें नेग्रिटो, ऑस्ट्रेलोइड, मंगोलॉयड, द्रविड़ियन और आर्यन शामिल हैं। आकार: जनजातियों का आकार बहुत भिन्न होता है, जो कुछ मिलियन से लेकर बहुत छोटी आबादी तक होता है, जैसे कि अंडमानी द्वीपवासी।

अर्जित लक्षणों के आधार पर वर्गीकरण

आजीविका – जनजातियों को उनकी आजीविका के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है, जिसमें मछुआरे, खाद्य संग्राहक और शिकारी, स्थानांतरित कृषक, किसान, तथा बागान और औद्योगिक श्रमिक शामिल हैं।

हिंदू समाज में आत्मसात – हिंदू समाज में आत्मसात की डिग्री एक प्रमुख वर्गीकरण है। यह इस बात पर विचार करता है कि जनजातियों ने किस हद तक हिंदू रीति-रिवाजों, प्रथाओं और मान्यताओं को अपनाया है। यह हिंदू समाज के प्रति उनके रवैये को भी ध्यान में रखता है, जिसमें यह भी शामिल है कि क्या वे हिंदू धर्म के प्रति सकारात्मक रूप से झुकाव रखते हैं या इसका विरोध या विरोध करते हैं। मुख्यधारा के हिंदू समाज के दृष्टिकोण से, जनजातियों को उनको दी गई स्थिति के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है, जो कुछ लोगों के लिए उच्च स्थिति से लेकर अधिकांश के लिए सामान्यतः निम्न स्थिति तक हो सकती है।

ये वर्गीकरण भारत में जनजातीय समुदायों के बीच विविधता को समझने में मदद करते हैं। तथा उनकी स्थायी विशेषताओं (जैसे क्षेत्र और भाषा) और अर्जित विशेषताओं (जैसे हिंदू समाज में समावेश और जीवनयापन के तरीके) दोनों को ध्यान में रखते हैं।

प्रश्न 6. जनजातियाँ आदिम समुदाय हैं जो सभ्यता से अछूते रहकर अपना अलग-थलग जीवन व्यतीत करते हैं, इस दृष्टिकोण के विपक्ष में आप क्या साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहेंगे?
उत्तर –
यह मानने का कोई कारण नहीं है कि जनजातियाँ विश्व के शेष हिस्सों से कटी रही हैं तथा सदा से समाज का एक दबा-कुचला हिस्सा रही हैं।

इस कथन के पीछे निम्नलिखित कारण दिए जा सकते हैं।

मध्य भारत में अनेक गोंड राज्य रहे हैं। जैसे – गढ़ मांडला या चाँद।

मध्यवर्ती तथा पश्चिमी भारत के तथाकथित राजपूत राज्यों में से अनेक रजवाड़े वास्तव में स्वयं आदिवासी समुदायों में स्तरीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से ही उत्पन्न हुए।

आदिवासी लोग अकसर अपनी आक्रामकता तथा स्थानीय लड़ाकू दलों से मिलीभगत के कारण मैदानी इलाकों के लोगों पर अपना प्रभुत्व कायम करते हैं।

इसके अतिरिक्त कुछ विशेष प्रकार के व्यापार पर भी उनका अधिकार था। जैसे- वन्य उत्पाद, नमक और हाथियों का विक्रय।

जनजातियों को एक आदिम समुदाय के रूप में प्रमाणित करने वाले तथ्य

1. सामान्य लोगों की तरह जनजातियों का कोई अपना राज्य अथवा राजनीतिक पद्धति नहीं है।
2. उनके समाज में कोई लिखित धार्मिक कानून भी नहीं है।
3. न तो वे हिंदू हैं न ही खेतिहर।
4. प्रारंभिक रूप से वे खाद्य संग्रहण, मछली पकड़ने, शिकार, कृषि इत्यादि गतिविधियों में संलिप्त रहे हैं।
5. जनजातियों का निवास घने जंगलों तथा पहाड़ी क्षेत्रों में होता है।

प्रश्न 7. आज जनजातीय पहचानों के लिए जो दावा। किया जा रहा है, उसके पीछे क्या कारण है?
उत्तर – जनजातीय समुदायों का मुख्यधारा की प्रक्रिया में बलात् समावेश को प्रभाव जनजातीय संस्कृति तथा समाज पर ही नहीं, अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा है। आज जनजातीय पहचान का निर्माण अंत:क्रिया की प्रक्रियाओं द्वारा हो रहा है।

अंत:क्रिया की प्रक्रिया का जनजातियों के अनुकूल नहीं होने के कारण आज अनेक जनजातियाँ गैरजनजातीय जगत् की प्रचंड शक्तियों के प्रतिरोध की विचारधारा पर आधारित हैं।

झारखंड तथा छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के गठन के कारण जो सकारात्मक असर पड़ा, वह सतत् समस्याओं के कारण नष्ट हो गया। पूर्वोत्तर राज्यों के बहुत से नागरिक एक विशेष कानून के अंतर्गत रह रहे हैं, जिसमें उनके नागरिक अधिकारों को सीमित कर दिया गया है। समस्त विद्रोह के दमन। के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कठोर कदम तथा फिर उनसे भड़के विद्रोहों के दुष्चक्र ने पूर्वोत्तर राज्यों की अर्थव्यवस्था, संस्कृति और समाज को भारी हानि पहुँचाई है।

शनै -शनैः उभरते हुए शिक्षित मध्यम वर्ग ने आरक्षण की नीतियों के साथ मिलकर एक नगरीकृत व्यावसायिक वर्ग का निर्माण किया है। क्योंकि जनजातीय समाज में विभेदीकरण तेजी से बढ़ रहा है, विकसित तथा अन्य के बीच विभाजन भी बढ़ रहा है। जनजातीय पहचान के नवीनतम आधार विकसित हो रहे हैं।

इन मुद्दों को हम दो प्रकार से वर्गीकृत कर सकते हैं। पहला भूमि तथा जंगल जैसे महत्त्वपूर्ण आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण से संबंधित है। दूसरा मुद्दा जातीय संस्कृति की पहचान को लेकर है।

प्रश्न 8. परिवार के विभिन्न रूप क्या हो सकते हैं?
उत्तर – परिवार एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था है। चाहे वो एकल परिवार हो अथवा विस्तारित, यह कार्य निष्पादन का स्थान है। हाल के दिनों में परिवार की संरचना में काफी परिवर्तन हुए हैं। उदाहरण के तौर पर, सॉफ्टवेयर उद्योग में कार्य कर रहे लोग जब कार्य समय के कारण बच्चों की देखरेख नहीं कर पाते हैं, तो दादा-दादी, नाना-नानी को बच्चों की देखभाल करनी पड़ती है। परिवार का मुखिया स्त्री अथवा पुरुष हो सकते हैं। बेहतर की खोज माता या पिता ही कर सकते हैं। परिवार के गठन की यह संरचना आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षिक जैसे बहुत सारे कारकों पर निर्भर करती है।

आज जो हम परिवार की संरचना में परिवर्तन देखते हैं, उसका कारण है। –

(i) समलैंगिक विवाह
(ii) प्रेम विवाह

एकल परिवार- इसमें माता-पिता तथा उनके बच्चे शामिल होते हैं।

विस्तारित परिवार- इसमें एक से अधिक दंपति होते हैं। तथा अकसर दो से अधिक पीढ़ियों के लोग एक साथ रहते हैं। विस्तृत परिवार भारतीय होने का सूचक है।

परिवार के विविध रूप

(i) मातृवंशीय-पितृवंशीय (निवास के आधार पर)
(ii) मातृवंशीय तथा पितृवंशीय (उत्तराधिकार के नियमों के आधार पर)
(iii) मातृसत्तात्मक तथा पितृसत्तात्मक (अधिकार के आधार पर)

प्रश्न 9. सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन पारिवारिक संरचना में किस प्रकार परिवर्तन ला सकते हैं?
उत्तर –
 परिवार की संरचना को एक सामाजिक संस्था के रूप में देखा जा सकता है। इसे अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ संबंध के रूप में भी देखा जा सकता है।परिवार की आंतरिक संरचना का संबंध आमतौर पर समाज की अन्य संरचनाओं से होता है; जैसे-राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक इत्यादि। अतएव परिवार के सदस्यों के व्यवहारों में कोई भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन समाज के स्वभाव में परिवर्तन ला सकता है। उदाहरण के तौर पर, सॉफ्टवेयर उद्योग में कार्य कर रहे युवा माता-पिता अपनी कार्य-अवधि के दौरान यदि अपने बच्चों की देखभाल न कर पाएँ तो घर में दादा-दादी, नाना-नानियों की संख्या उनके बच्चों की देखभाल करने हेतु बढ़ जाएगी।

इसके द्वारा परिवार का गठन तथा इसकी संरचना में परिवर्तन होते हैं।

परिवार (निजी स्तर) का संबंध आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षिणिक (सार्वजनिक स्तर) से होता है।

कभी-कभी परिवार में परिवर्तन तथा तत्संबंधी समाज में परिवर्तन अप्रत्याशित रूप से भी अपघटित होता है। जैसे- युद्ध अथवा दंगों के कारण लोग सुरक्षा कारणों से काम की तलाश में प्रवासन करते हैं।

कभी-कभी इस तरह के परिवर्तन किसी विशेष प्रयोजन से भी होते हैं। जैसे- स्वतंत्रता तथा विचारों के खुलेपन के कारण लोग अपने रोजगार, जीवन-साथी तथा जीवन-शैली का चुनाव करते हैं। इस तरह के परिवर्तन भारतीय समाज में बारंबार होते रहे हैं।

प्रश्न 9. सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन पारिवारिक संरचना में किस प्रकार परिवर्तन ला सकते हैं?
उत्तर –
 परिवार की संरचना को एक सामाजिक संस्था के रूप में देखा जा सकता है। इसे अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ संबंध के रूप में भी देखा जा सकता है।परिवार की आंतरिक संरचना का संबंध आमतौर पर समाज की अन्य संरचनाओं से होता है। जैसे-राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक इत्यादि। अतएव परिवार के सदस्यों के व्यवहारों में कोई भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन समाज के स्वभाव में परिवर्तन ला सकता है। उदाहरण के तौर पर, सॉफ्टवेयर उद्योग में कार्य कर रहे युवा माता-पिता अपनी कार्य-अवधि के दौरान यदि अपने बच्चों की देखभाल न कर पाएँ तो घर में दादा-दादी, नाना-नानियों की संख्या उनके बच्चों की देखभाल करने हेतु बढ़ जाएगी।

इसके द्वारा परिवार का गठन तथा इसकी संरचना में परिवर्तन होते हैं।

परिवार (निजी स्तर) का संबंध आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षिणिक (सार्वजनिक स्तर) से होता है।

कभी-कभी परिवार में परिवर्तन तथा तत्संबंधी समाज में परिवर्तन अप्रत्याशित रूप से भी अपघटित होता है। जैसे- युद्ध अथवा दंगों के कारण लोग सुरक्षा कारणों से काम की तलाश में प्रवासन करते हैं।

कभी-कभी इस तरह के परिवर्तन किसी विशेष प्रयोजन से भी होते हैं। जैसे- स्वतंत्रता तथा विचारों के खुलेपन के कारण लोग अपने रोजगार, जीवन-साथी तथा जीवन-शैली का चुनाव करते हैं। इस तरह के परिवर्तन भारतीय समाज में बारंबार होते रहे हैं।

प्रश्न 10. मातृवंश (Matriliny) और मातृतंत्र (Matriarchy) में क्या अंतर है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर –
 मातृवंश तथा मातृतंत्रमेघालय के समाज की खासी, जैतिया तथा गारो जनजातियों तथा केरल के नयनार जाति के परिवार में संपत्ति का उत्तराधिकार माँ से बेटी को प्राप्त होता है। भाई अपनी बहन की संपत्ति की देखभाल करता है तथा बाद में बहन के बेटे को प्रदान कर देता है।

मातृवंश पुरुषों के लिए गहन द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न करता है। इसका कारण यह है कि पुरुष अपने घर में उत्तरदायित्वों के निर्वहन के द्वंद्व में फँस जाते हैं। वे सोचते हैं कि मैं अपनी पत्नी और बच्चों की तरफ ज्यादा ध्यान दें कि अपनी बहन के परिवार पर।

यह भूमिका द्वंद्व महिलाओं में भी समान रूप से होता है। उनके पास केवल प्रतीकात्मक अधिकार होता है। असली सत्ता पुरुषों के पास ही होती है। मातृवंश के बावजूद शक्ति का केंद्र पुरुष ही होते हैं।

इस तरह के समाजों में महिलाएँ अपने अधिकारों का प्रयोग करती हैं तथा एक प्रभावशाली भूमिका का निर्वहन करती हैं।

किंतु व्यावहारिक रूप से यह एक सैद्धांतिक अवधारणा ही बनकर रह जाती है। क्योंकि स्त्रियों को कभी भी वास्तविक प्रभुत्वकारी शक्ति प्राप्त नहीं होती।

वास्तविक रूप में यह मातृवंशीय परिवारों में भी विद्यमान नहीं है।