NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास) Chapter – 5 औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास (Change and Development in Industrial Society)
Textbook | NCERT |
class | 12th |
Subject | Sociology (भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास) |
Chapter | 5th |
Chapter Name | औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास |
Category | Class 12th Sociology Question Answer in Hindi |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारतीय समाज) Chapter – 5 औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास (Change and Development in Industrial Society) Question & Answer In Hindi औद्योगिक समाज का विकास क्या है? औद्योगिक समाज द्वारा लाए गए परिवर्तन क्या थे? औद्योगिक विकास का समाज पर क्या प्रभाव पड़ा? औद्योगीकरण क्या है भारतीय समाज के विकास में इसकी भूमिका की विवेचना कीजिए? औद्योगिक विकास के प्रमुख उद्देश्य क्या है? औद्योगिक समाज और सामाजिक परिवर्तन क्या है? औद्योगिक समाज के पिता कौन हैं? औद्योगिक समाज की विशेषताएँ क्या हैं? औद्योगिक का मुख्य उद्देश्य क्या है? औद्योगिक की विशेषताएं क्या है? औद्योगिक शब्द का अर्थ क्या है? औद्योगिक समाज का उदय कब हुआ था? औद्योगिक समाज का अर्थ क्या है? औद्योगिक समाज के लेखक कौन है? |
NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास) Chapter – 5 औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास (Change and Development in Industrial Society)
Chapter – 5
औद्योगिक समाज में परिवर्तन और विकास
प्रश्न – उत्तर
अभ्यास प्रश्न – उत्तर
प्रश्न 1.अपने आस-पास दिखने वाला कोई भी व्यवसाय चुनें – और उसका वर्णन निम्नलिखित पंक्तियों में करें।
(क) कार्यबल की सामाजिक संरचना – जाति, लिंग, आयु, क्षेत्र;
(ख) श्रम प्रक्रिया – काम कैसे होता है, सी) मजदूरी और अन्य लाभ, डी) काम करने की स्थिति – सुरक्षा, आराम का समय, काम के घंटे, आदि। आइए इस विवरण के लिए एक निर्माण श्रमिक के व्यवसाय पर विचार करें।
(क) सामाजिक संरचना- निर्माण में कार्यबल की सामाजिक संरचना क्षेत्र और देश के आधार पर भिन्न हो सकती है। दुनिया के कई हिस्सों में, निर्माण कार्यबल अक्सर जाति, लिंग, उम्र और क्षेत्र के आधार पर भिन्न होते हैं। निर्माण स्थल विभिन्न जातियों और पृष्ठभूमि के लोगों को रोजगार दे सकते हैं, हालांकि संरचना स्थानीय सामाजिक पदानुक्रम से प्रभावित हो सकती है। लिंग के आधार पर, इस क्षेत्र में पारंपरिक पुरुष प्रभुत्व रहा है, लेकिन निर्माण कार्यों में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ रही है, हालांकि वे अभी भी अल्पसंख्यक हैं। उम्र के हिसाब से, आप युवा और वृद्ध कार्यकर्ताओं का मिश्रण पा सकते हैं, अनुभवी वृद्ध कार्यकर्ता अक्सर युवा पीढ़ी के लिए सलाहकार के रूप में काम करते हैं। क्षेत्र-वार, निर्माण श्रमिक ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों सहित विभिन्न क्षेत्रों से आ सकते हैं।
(ख) श्रम प्रक्रिया- निर्माण कार्य में आम तौर पर कई प्रकार के कार्य शामिल होते हैं, जिनमें खुदाई, कंक्रीट डालना, बढ़ईगीरी, चिनाई, बिजली का काम, नलसाज़ी और बहुत कुछ शामिल हैं। श्रमिक अपने कौशल और अनुभव के आधार पर निर्माण प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं में शामिल हो सकते हैं। वे अक्सर टीमों में काम करते हैं और ब्लूप्रिंट, वास्तुशिल्प योजनाओं और इंजीनियरिंग डिजाइन का पालन करते हैं। काम शारीरिक रूप से कठिन हो सकता है और इसमें भारी मशीनरी और बिजली उपकरणों के उपयोग की आवश्यकता हो सकती है। दुर्घटनाओं को रोकने के लिए सुरक्षा नियम और प्रोटोकॉल आवश्यक हैं।
(ग) वेतन और अन्य लाभ- निर्माण श्रमिकों की मजदूरी देश, क्षेत्र और कौशल और अनुभव के स्तर के आधार पर काफी भिन्न हो सकती है। प्रवेश स्तर के या अकुशल श्रमिक आमतौर पर कम वेतन पाते हैं, जबकि इलेक्ट्रीशियन, प्लंबर और बढ़ई जैसे कुशल कारीगरों को अधिक वेतन मिलता है। मज़दूरी संघीकरण और कुछ क्षेत्रों में प्रचलित मज़दूरी कानूनों से भी\ प्रभावित हो सकती है। स्वास्थ्य बीमा, सेवानिवृत्ति योजना और सवैतनिक अवकाश जैसे लाभ यूनियनकृत श्रमिकों या बड़ी निर्माण कंपनियों द्वारा नियोजित लोगों के लिए उपलब्ध हो सकते हैं, लेकिन सभी निर्माण श्रमिकों को ये लाभ नहीं मिलते हैं।
(घ) काम करने की स्थितियाँ- निर्माण में काम करने की स्थितियाँ चुनौतीपूर्ण हो सकती हैं। सुरक्षा एक प्रमुख चिंता का विषय है, और दुर्घटनाओं को रोकने के लिए निर्माण स्थलों को सुरक्षा नियमों का पालन करना चाहिए। कर्मचारी अक्सर व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई) जैसे सख्त टोपी, सुरक्षा चश्मा और स्टील-टो जूते पहनते हैं। उन्हें सुरक्षा प्रशिक्षण तक भी पहुंच प्राप्त हो सकती है।
आराम का समय और काम के घंटे अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन अक्सर परियोजना की समय-सीमा और समय-सीमा से तय होते हैं। निर्माण कार्य में अक्सर लंबे और अनियमित घंटे शामिल होते हैं, और श्रमिकों को सप्ताहांत और ओवरटाइम काम करने की आवश्यकता हो सकती है। इससे कार्य-जीवन संतुलन प्रभावित हो सकता है।
काम का माहौल शारीरिक रूप से कठिन हो सकता है और मौसम की स्थिति के अधीन हो सकता है, इसलिए अत्यधिक तापमान के दौरान बाहरी काम चुनौतीपूर्ण हो सकता है। निर्माण स्थल और नियोक्ता प्रथाओं के आधार पर टॉयलेट और विश्राम क्षेत्रों तक पहुंच भी भिन्न हो सकती है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि काम करने की स्थिति, वेतन और लाभ देश और स्थानीय नियमों के साथ-साथ विशिष्ट निर्माण परियोजना और नियोक्ता की प्रथाओं के आधार पर व्यापक रूप से भिन्न हो सकते हैं।
प्रश्न 2. उदारीकरण ने भारत में रोजगार पैटर्न को कैसे प्रभावित किया है?
भारत में उदारीकरण, जो 1990 के दशक की शुरुआत में शुरू हुआ, ने देश में रोजगार पैटर्न पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है। यहां कुछ प्रमुख तरीके दिए गए हैं जिनसे उदारीकरण ने रोजगार को प्रभावित किया है:
कृषि से सेवा में बदलाव – सबसे उल्लेखनीय परिवर्तनों में से एक कार्यबल का कृषि से सेवाओं और उद्योग की ओर स्थानांतरित होना है। उदारीकरण के साथ, आईटी और बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग (बीपीओ) सहित सेवा क्षेत्र में महत्वपूर्ण वृद्धि देखी गई है। इससे रोजगार की दृष्टि से कृषि के सापेक्ष महत्व में गिरावट आई है।
शहरी रोजगार की वृद्धि – उदारीकरण की नीतियों से शहरीकरण और शहरी क्षेत्रों का विकास हुआ है। परिणामस्वरूप, शहरी रोजगार के अवसरों में वृद्धि हुई है, विशेषकर
उन शहरों और कस्बों में जहां उद्योग और सेवाएँ केंद्रित हैं।
औपचारिक रोजगार में वृद्धि – उदारीकरण से औपचारिक रोजगार के अवसरों का विस्तार हुआ है, विशेषकर बैंकिंग, वित्त और संगठित खुदरा जैसे क्षेत्रों में। अनौपचारिक क्षेत्र के विपरीत, ये नौकरियाँ अक्सर बेहतर नौकरी सुरक्षा, लाभ और सामाजिक सुरक्षा के साथ आती हैं।
उद्यमिता और स्व-रोज़गार- उदारीकरण ने उद्यमिता और स्वरोजगार के अवसरों को बढ़ावा दिया है। ऋण तक आसान पहुंच और अधिक अनुकूल कारोबारी माहौल के साथ, कई व्यक्तियों ने अपना व्यवसाय शुरू किया है और रोजगार सृजन में योगदान दिया है।
वैश्वीकरण और निर्यात- उन्मुख उद्योग उदारीकरण ने वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत के एकीकरण को सुगम बनाया है। सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी), फार्मास्यूटिकल्स और विनिर्माण जैसे निर्यात-उन्मुख उद्योगों में महत्वपूर्ण रोजगार वृद्धि देखी गई है, खासकर कुशल और उच्च-मूल्य वाली भूमिकाओं में।
कौशल विकास- जैसे-जैसे आईटी जैसे क्षेत्रों में कुशल श्रमिकों की मांग बढ़ी, शिक्षा और कौशल विकास पर जोर बढ़ रहा है। इसने प्रासंगिक कौशल और शिक्षा वाले लोगों का पक्ष लेते हुए रोजगार पैटर्न को प्रभावित किया है।
लिंग और अनौपचारिक रोजगार- जबकि अधिक महिलाएं औपचारिक कार्यबल में शामिल हो गई हैं, अनौपचारिक क्षेत्र अभी भी आबादी के एक महत्वपूर्ण हिस्से को रोजगार देता है, अक्सर कम वेतन वाली और कम सुरक्षित नौकरियों में। रोज़गार के अवसरों में लैंगिक अंतर, विशेषकर कुछ क्षेत्रों में, बना हुआ है।
आय असमानता- उदारीकरण का आय असमानता पर मिश्रित प्रभाव पड़ा है। जबकि कुछ ने महत्वपूर्ण आय वृद्धि देखी है, विशेष रूप से उच्च-कुशल क्षेत्रों में, अन्य ने कम-कुशल और अनौपचारिक रोजगार में स्थिर या धीमी आय वृद्धि का अनुभव किया
है।
रोजगार की चक्रीय प्रकृति- आर्थिक स्थितियों में उतार-चढ़ाव के साथ, रोजगार पैटर्न भी अधिक चक्रीय हो गए हैं। इसके परिणामस्वरूप आर्थिक मंदी के दौरान नौकरी की असुरक्षा और अल्परोज़गारी हो सकती है।
ग्रामीण-शहरी प्रवासन- उदारीकरण के कारण ग्रामीण-शहरी प्रवासन में वृद्धि हुई है क्योंकि लोग शहरी क्षेत्रों में रोजगार के बेहतर अवसर तलाश रहे हैं। इसका शहरी बुनियादी ढांचे और आवास पर प्रभाव पड़ता है।
अतिरिक्त प्रश्न
प्रश्न 1. सामाजिक विषमता व्यक्तियों की विषमता से कैसे भिन्न है?
उत्तर – व्यक्तिगत असमानता से तात्पर्य व्यक्तियों में मानसिक तथा शारीरिक विशेषताओं में विचलन तथा विध्वंस से है। सामाजिक असमानता का अर्थ उस सामाजिक व्यवस्था से है, जहाँ कुछ लोग संसाधनों के द्वारा विभिन्न अवसरों का लाभ उठाते हैं, जबकि कुछ लोग इससे वंचित रह जाते हैं। संपत्ति, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अवस्था के मामलों में कुछ लोगों का स्तर बहुत ऊँचा है, जबकि कुछ लोगों का बहुत ही निम्न स्थान है।
कुछ विषमताएँ निम्नलिखित रूपों में भी प्रकट होती हैं
(i) सामाजिक स्तरीकरण
(ii) पूर्वाग्रह
(iii) रूढ़िवादिता
(iv) भेदभाव
प्रश्न 2. सामाजिक स्तरीकरण की कुछ विशेषताएँ बतलाइए।
उत्तर – सामाजिक स्तरीकरण की कुछ प्रमुख विशेषताएँ अग्रलिखित हैं।
(i) सामाजिक स्तरीकरण एक सामाजिक विशेषता है। यह व्यक्तिगत मतभेदों का कारण नहीं है। यह एक सामाजिक व्यवस्था है जिसके अंतर्गत समाज के विभिन्न वर्गों में विषमता फैलती है। उदाहरण के तौर पर, तकनीकी रूप से अधिकांशतः आदिम समाज में जैसे कि शिकारी या संग्रहकर्ता समाज में, बहुत ही कम उत्पादन होता था। अतः वहाँ केवल प्रारंभिक सामाजिक स्तरीकरण ही मौजूद था। तकनीकी रूप से अधिक उन्नत समाज में जहाँ लोग अपनी मूलभूत आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन करते हैं, सामाजिक संसाधन विभिन्न सामाजिक श्रेणियों में असमान रूप से बँटा होता है। इसका लोगों की व्यक्तिगत क्षमता से कोई संबंध नहीं होता है।
(ii) सामाजिक स्तरीकरण पीढ़ी-दर-पीढी होता है। यह परिवार और सामाजिक संसाधनों के एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी में उत्तराधिकार के रूप में घनिष्ठता से जुड़ा है। इससे सामाजिक अवस्था निर्धारित होती है। उदाहरणार्थ, एक बच्चा माता-पिता की सामाजिक स्थिति को प्राप्त करता है। जन्म ही व्यवसाय का निर्धारण करता है। एक दलित पारंपरिक व्यवसा; जैसे-खेतिहर मज़दूर, सफाईकर्मी अथवा चमड़े के काम में ही बँधकर रह जाता है। उसके पास ऊँची तनख्वाह की सफेदपोश नौकरी के अवसर बहुत ही कम होते हैं। सामाजिक अवमानना का प्रदत्त पक्ष सजातीय विवाह से और मजबूत होता है; जैसे-विवाह अपनी ही जाति के सदस्यों में सीमित होता है। अतः अंतरजातीय विवाह के द्वारा जातीयता को खत्म करने की संभावना समाप्त हो जाती है।
(iii) सामाजिक स्तरीकरण को विश्वास और विचारधारा के द्वारा समर्थन मिलता है। कोई भी व्यवस्था तब तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी नहीं चल सकती, जब तक कि इसे विश्वास के माप से न देखा जाए। उदाहरणार्थ, जाति व्यवस्था को शुद्धता के आधार पर न्यायोचित ठहराया जाता है, जिसमें जन्म और व्यवसाय की बदौलत ब्राह्मणों को सबसे ऊँची स्थिति तथा दलितों को सबसे निम्न स्थिति दी गई है। हालाँकि हर कोई असमानता की इस व्यवस्था को ठीक मानता है, ऐसा नहीं है। वे लोग जिन्हें अधिक सामाजिक अधिकार प्राप्त हैं, वही इस सामाजिक व्यवस्था का समर्थन करते हैं। वैसे लोग जो इस अधिक्रम में सबसे नीचे हैं और इसके कारण बहुत अपमानित तथा शोषित हुए हैं, वही इसे सबसे अधिक चुनौती दे सकते हैं।
प्रश्न 3. आप पूर्वाग्रह और अन्य किस्म की राय अथवा विश्वास के बीच भेद कैसे करेंगे?
उत्तर – पूर्वाग्रह का अर्थ होता है-पूर्व कल्पित निर्णय अर्थात् पूर्व में किया गया विचार। पूर्वाग्रह एक समूह के सदस्यों के द्वारा दूसरे समूह के सदस्यों के बारे में पूर्व कल्पित विचार होता है। पूर्वाग्रह सकारात्मक अथवा नकारात्मक हो सकता है। एक पूर्वाग्रह से ग्रस्त व्यक्ति में विचार प्रत्यक्ष साक्ष्य के बजाय सुनी-सुनाई बातों पर आधारित होते हैं। इस शब्द का प्रयोग सामान्यतः नकारात्मक अर्थ में ही किया जाता है। दूसरी तरफ, इस संबंध में किसी भी व्यक्ति का किसी के लिए जो अवधारणा बनती है, वो जानकारी तथा तथ्यों पर आधारित नहीं होती है।
प्रश्न 4. सामाजिक अपवर्धन या बहिष्कार क्या है?
उत्तर – सामाजिक बहिष्कार एक ऐसी प्रक्रिया है। जिसके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति अथवा समूह के द्वारा सामाजिक जीवन में सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से भेदभाव का सामना करना पड़ता है। सामाजिक बहिष्कार का स्वरूप संरचनात्मक होता है। यह सामाजिक प्रक्रियाओं का परिणाम होता है। न कि व्यक्तिगत कृत्यों का। इस प्रक्रिया में, व्यक्ति सामाजिक प्रक्रियाओं से पूरी तरह से कट जाता है।
प्रश्न 5. आज जाति और आर्थिक असमानता के बीच क्या संबंध है?
उत्तर – अधिक्रमित जाति व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक जाति को एक विशिष्ट स्थान तथा सामाजिक अवस्था प्राप्त होती है। सामाजिक तथा जातिगत अवस्था तथा आर्थिक अवस्था के बीच गहरा संबंध होता है। उच्च जातियों की आर्थिक अवस्था भी अच्छी होती है, जबकि निम्न जातियों की आर्थिक स्थिति खराब होती है। हालाँकि उन्नीसवीं शताब्दी में जाति तथा व्यवसाय के नीचे का संबंध उतना कठोर नहीं रहा। जाति तथा आर्थिक अवस्था के बीच का जो संबंध पहले था, उसमें भी कमी आई है। पर व्यापक रूप से स्थितियों में अब भी कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं आया है। उच्च वर्ग के लोगों की उच्च आर्थिक अवस्था तथा निम्न वर्ग के लोगों की निम्नतर आर्थिक अवस्था अब भी विद्यमान है।
प्रश्न 6. अस्पृश्यता क्या है?
उत्तर – अस्पृश्यता एक सामाजिक कृत्य है जिसके अंतर्गत निचली जातियों के लोगों को कर्मकांड की दृष्टि से अशुद्ध माना जाता है। ऐसा भी माना जाता है। कि उसके स्पर्श करने से भी अन्य लोग अशुद्ध हो जाएँगे। जाति व्यवस्था के अधिक्रम में निचली जातियाँ सबसे नीचे होती हैं। इस तरह की निचली जातियाँ ज्यादातर सामाजिक संस्थाओं से बहिष्कृत कर दी गई हैं। यह जाति व्यवस्था का एक अत्यधिक जटिल पहलू है। सामाजिक शुद्धता की दृष्टि से अयोग्य माने जाने वाली जातियों के प्रति कठोर सामाजिक तथा पारंपरिक रीति-रिवाजों के लिए वर्जनीय नियम लागू किए जाते हैं। जाति की अधिक्रमित व्यवस्था में उन्हें बाहर का व्यक्ति समझा जाता है।
प्रश्न 7. जातीय विषमता को दूर करने के लिए अपनाई गई कुछ नीतियों का वर्णन करें?
उत्तर – राज्य स्तर पर अनुसूचित जाति/जनजातियों के लिए विशेष योजनाएँ बनाई गई हैं। इसके साथ व्यापक स्तर पर भेदभाव किए जाने के कारण इन जातियों के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं। अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) को भी इस प्रकार के विशेष प्रावधानों में शामिल किया गया है। अस्पृश्यता की रोकथाम तथा उसे समाप्त करने के लिए जो कानून बनाए गए हैं, वे निम्नलिखित हैं।
जाति निर्योग्यता निवारण अधिनियम, 1850 – इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गई है कि केवल धर्म या जाति के आधार पर ही नागरिकों के अधिकारों को कम नहीं किया जा सकता। यह अधिनियम दलितों को विद्यालयों में प्रवेश की अनुमति देता है।
संविधान संशोधन ( 93वाँ ) अधिनियम, 2005 – इस अधिनियम के द्वारा उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है।
अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1983 – इस अधिनियम में अस्पृश्यता का उन्मूलन (अनुच्छेद 17) तथा आरक्षण का प्रावधान है।
अत्याचार निवारण अधिनियम, 1989 – इस अधिनियम में दलितों तथा आदिवासियों के अधिकारों हेतु मज़बूत कानूनी प्रावधान किए गए हैं।
प्रश्न 8. अन्य पिछड़े वर्ग दलितों (या अनुसूचित जातियों) से भिन्न कैसे हैं?
उत्तर – अस्पृश्यता सामाजिक विषमता का स्पष्ट तथा विभेदात्मक स्वरूप था। बावजूद इसके, जातियों का एक बड़ा समूह ऐसा भी था, जिसका दर्जा काफी नीचे था। यह समूह विभिन्न प्रकार के भेदभावों का शिकार था। भूतपूर्व अस्पृश्य समुदायों और उनके नेताओं ने दलित शब्द गढ़ा, जो उन सभी समूहों का उल्लेख करने के लिए अब आमतौर पर स्वीकार कर लिया गया है। दलित शब्द का अर्थ‘दबा-कुचला हुआ’ होता है, जो उत्पीड़ित लोगों को द्योतक है। भारतीय संविधान ने इस संभावना को स्वीकार किया कि अनुसूचित जाति/जनजाति के अलावा भी कुछ ऐसे जातीय समूह हो सकते हैं, जोकि जातिगत भेदभाव के शिकार हैं। इन समूहों को सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग अथवा अन्य पिछड़ा वर्ग का नाम दिया गया। अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) न तो उच्च जातियों की तरह अधिक्रम में ऊपर है न ही दलित जातियों की तरह एकदम नीचे। दलितों की अपेक्षा अत्यंत पिछड़ी जातियों में विविधता अधिक है।
प्रश्न 9. आज आदिवासियों से संबंधित बड़े मुद्दे कौन-से हैं?
उत्तर – जनजातियों को वनवासी समझा जाता है। इनके पहाड़ों अथवा जंगलों में निवास के कारण इनको आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विशेषताओं की पहचान मिली। आज पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़कर देश में ऐसा कोई इलाका नहीं है, जहाँ केवल जनजातीय लोग ही रहते हों। वैसे क्षेत्र जहाँ जनजाति के लोग संकेद्रित हैं, वहाँ उनकी सामाजिक तथा आर्थिक गतिविधियाँ गैरजनजातियों से ज्यादा प्रभावकारी हैं। परंतु स्वतंत्रता के बाद आदिवासियों की जमीन नदियों पर बाँधों के निर्माण हेतु अधिगृहित कर ली गई। इसके परिणामस्वरूप लाखों आदिवासियों को बिना पर्याप्त मुआवजे के अपनी जमीनों से विस्थापित होना पड़ा आदिवासियों के संसाधनों को ‘राष्ट्रीय विकास’ तथा ‘आर्थिक संवृद्धि’ के नाम पर उनसे छीन लिया गया। उदाहरण के तौर पर, नर्मदा पर बनने वाले सरदार सरोवर बाँध तथा गोदावरी नदी पर बनने वाले पोलावरम बाँध के कारण हज़ारों आदिवासी विस्थापित हो जाएँगे। सरकार की उदारीकरण की नीतियों ने आदिवासियों को अभावग्रस्तता के गर्त में धकेल दिया है।
प्रश्न 10. नारी आंदोलन ने अपने इतिहास के दौरान कौन-कौन से मुख्य मुद्दे उठाए?
उत्तर – विद्वानों तथा समाज सुधारकों ने यह प्रदर्शित किया है। कि स्त्री-पुरुषों के बीच असमानताएँ प्राकृतिक होने के बजाय सामाजिक हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में स्त्रियों से संबंधित प्रश्न जोर-शोर से उठाए गए। राजा राममोहन राय ने सामाजिक, धार्मिक दशाओं तथा स्त्रियों की दुरावस्था में सुधार के लिए बंगाल में प्रयास किए। उन्होंने ‘सती प्रथा के विरुद्ध अभियान चलाया। यह पहला ऐसा स्त्रियों से संबंधित मुद्दा था, जो लोगों के ध्यानार्थ लाया गया।
ज्योतिबा फुले एक सामाजिक बहिष्कृत जाति के थे और उन्होंने जातिगत तथा लैंगिक, दोनों ही विषमताओं पर प्रहार किया। उन्होंने सत्य शोधक समाज की स्थापना की, जिसका प्राथमिक उद्देश्य था-सत्य का अन्वेषण। सर सैय्यद अहमद खान ने मुस्लिम समुदाय के कल्याण हेतु कदम उठाए। वे लड़कियों को घर की सीमा में रहते हुए ही शिक्षा के हिमायती थे। वे लड़कियों को शिक्षित करना चाहते थे, किंतु धार्मिक सिद्धांतों के दायरे में रहकर ही। वे लड़कियों को घर में स्वतंत्रता तथा गृहकार्य में सुशिक्षित करना चाहते थे। एक महाराष्ट्र की घरेलू महिला ताराबाई शिंदे ने ‘स्त्री-पुरुष तुलना’ नामक किताब लिखी, जिसमें उन्होंने पुरुष प्रधान समाज में अपनाई जा रही दोहरी नीति का प्रतिवाद किया।
स्त्रियों के मुद्दे प्रभावकारी रूप में सत्तर के दशक में सामने आए। स्त्रियों से संबंधित ज्वलंत मुद्दों में पुलिस कस्टडी में महिलाओं के साथ बलात्कार, दहेज हत्याएँ तथा लैंगिक असमानता इत्यादि प्रमुख थे। इधर नई चुनौतियाँ लड़कियों के जन्मदर में अत्यधिक कमी के रूप में सामने आई हैं, जो सामाजिक विभेद का द्योतक है।
प्रश्न 11. हम यह किसे अर्थ में कह सकते हैं कि ‘असक्षमता’ जितना शारीरिक है उतनी ही सामाजिक भी?
उत्तर – असक्षम लोग इसलिए नहीं संघर्ष कर रहे हैं कि वे भौतिक अथवा मानसिक रूप से चुनौतीग्रस्त हैं, बल्कि इसलिए कि समाज कुछ इस रीति से बना है। कि वह उनकी जरूरतों को पूरा नहीं करता।भारतीय संदर्भ में निर्योग्यता आंदोलन की अग्रणी विचारक अनीता धई का मत है कि निर्योग्तया की तुलना राल्फ एलिसन के इनविजिबल मेन की स्थिति से की जा सकती है, जोकि अमेरिका में रहने वाले अफ्रीकी अमेरिकियों के विरुद्ध नस्लवाद का एक खुला अभियोग-पत्र है। निर्योग्यता/अक्षमता के कुछ सामान्य लक्षण निम्नलिखित हैं
(i) जब भी कभी कोई अक्षम पुरुष/स्त्री के साथ कोई समस्या आती है तो यह मान लिया जाता है कि यह समस्या उसका/उसकी अक्षमता के कारण ही उत्पन्न हुई है।
(ii) अक्षमता को एक जैविक कारक के रूप में समझा जाता है।
(iii) अक्षम व्यक्ति को हमेशा एक पीड़ित व्यक्ति के रूप में देखा जाता है।
(iv) यह मान लिया जाता है कि अक्षमता उस व्यक्ति के प्रत्यक्ष ज्ञान से जुड़ी है।
(v) निर्योग्यता का विचार यही दर्शाता है कि निर्योग्य/अक्षम व्यक्तियों को सहायता की आवश्यकता है।
भारतीय संस्कृति में शारीरिक पूर्णता का आदर किया जाता है तथा शारीरिक पूर्णता न होने की स्थिति को अवमान्यता, दोष तथा खराबी का लक्षण माना जाता है। इस स्थिति में पीड़ित अक्षम व्यक्ति को ‘बेचारा’ कहकर संबोधित किया जाता है।
इस तरह की सोच को मूल कारण वह सांस्कृतिक अवधारणा है जो कि अक्षम शरीर को भाग्य का परिणाम मानती है। इसके लिए भाग्य को दोषी ठहराया जाता है तथा पीड़ित को इसका शिकार माना जाता है। यह आम धारणा है कि अक्षमता पिछले कर्मों का फल है तथा इससे छुटकारा नहीं पाया सकता। भारतीय सांस्कृतिक संरचना में अक्षमता को व्यक्ति विशेष में स्वयं को कृत्य का परिणाम माना जाता है, जिसे उसे हर हाल में भुगतना पड़ता है। पौराणिक कथाओं में अक्षम व्यक्तियों के चरित्र को बहुत ही नकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया गया है।
अक्षमता’ इन सभी अवधारणाओं को चुनौती प्रदान करता है। अक्षम व्यक्ति अपनी जैविक अक्षमता के कारण विकलांग नहीं होते, बल्कि समाज के कारण होते हैं।
अक्षमता के संबंध में सामाजिक अवधारणा का एक और पहलू भी है। अक्षमता तथा गरीबी के बीच गहरा संबंध होता है। कुपोषण, लगातार बच्चों को जन्म देने के कारण कमजोर हुई माताएँ, अपर्याप्त प्रतिरक्षण कार्यक्रम, भीड़-भाड़ वाले घरों में होने वाली दुर्घटनाएँ—ये सब गरीब लोगों की अक्षमता के कारण बनते हैं। इस तरह की घटनाएँ सुविधाजनक स्थितियों में रहने वालों की अपेक्षा गरीब लोगों में अधिक होती है।
अक्षमता के कारण समाज से कट जाने तथा आर्थिक तंगी से न केवल व्यक्ति को बल्कि उसके परिवार को भीषण गरीबी का सामना करना पड़ता है। व्यापक शैक्षणिक विमर्शों में अक्षमता को मान्यता नहीं दी गई है। ऐतिहासिक तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि शैक्षणिक संस्थाओं में अक्षमता के मुद्दे को दो भिन्न-भिन्न धाराओं में बाँट दिया गया है-एक धारा अक्षम छात्रों के लिए है तथा दूसरी धारा अन्य छात्रों के लिए। अक्षम लोगों को शैक्षिक विमर्शों में शामिल करने की विचारधारा अभी भी प्रायोगिक प्रक्रिया में है, जो कि कुछ सरकारी स्कूलों तक ही सीमित है।