NCERT Solutions Class 12th Political Science (स्वतंत्र भारत में राजनीति) Chapter – 2 एक दल के प्रभुत्व का दौर (Era of One-Party Dominance) Notes in hindi

NCERT Solutions Class 12th Political Science (स्वतंत्र भारत में राजनीति) Chapter – 2 एक दल के प्रभुत्व का दौर (Era of One-Party Dominance)

TextbookNCERT
Class12th
SubjectPolitical Science (स्वतंत्र भारत में राजनीति) 
Chapter2nd
Chapter Nameएक दल के प्रभुत्व का दौर
CategoryClass 12th Political Science Notes in Hindi
MediumHindi
SourceLast Doubt

NCERT Solutions Class 12th Political Science (स्वतंत्र भारत में राजनीति) Chapter – 2 एक दल के प्रभुत्व का दौर (Era of One-Party Dominance)

?Chapter – 2?

✍एक दल के प्रभुत्व का दौर✍

?Notes?

नई सरकार चुनाव – भारतीय नेताओं की स्वतंत्रता आंदोलन के समय से ही लोकतंत्र में गहरी। प्रतिबद्धता (आस्था) थी। इसलिए भारत ने स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र का मार्ग अपनाया जबकि लगभग उसी समय स्वतंत्र हुए कई देशों में अलोकतांत्रिक शासन व्यवस्था कायम हुई। 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के समय देश में अंतरिम सरकार थी। अब संविधान के अनुसार नयी सरकार के लिए चुनाव करवाने थे।
चुनाव आयोग – जनवरी 1950 में चुनाव आयोग का गठन किया गया। सुकुमार सेन पहले चुनाव आयुक्त बने।

चुनाव आयोग की चुनौतियाँ

देश का आकार बहुत बड़ा था, तथा जनसंख्या अधिक थी। ऐसे में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करवाना कठिन था।

चुनाव क्षेत्रों का सीमांकन जरूरी था।

मतदाता सूची बनाने के मार्ग में बाधाए। जब पहली मतदाता सूची आई तो उसमें 40 लाख महिलाओं के नाम दर्ज होने से रह गए।

अधिकारियों और चुनावकर्मियों को प्रशिक्षित करना।

कम साक्षरता के चलते मतदान की विशेष पद्धति के बारे में सोचना।

दुबारा सूची बनानी आसान नही थी

  • मतदाता – 17 करोड़
  • विधायक – 3200
  • लोकसभा सांसद – 489
  • साक्षर मतदाता – 15 % only

3 लाख लोगों को चुनाव की ट्रेनिंग दी गई।

भारत में एक दल का प्रभुत्व दुनिया के अन्य देशों में एक पार्टी के प्रभुत्व से इस प्रकार भिन्न रहा।

मैक्सिको में PRI की स्थापना 1929 में हुई, जिसने मैक्सिको में 60 वर्षों तक शासन किया। परन्तु इसका रूप परिपूर्ण तानाशाही का था।

बाकी देशों में एक पार्टी का प्रभुत्व लोकतंत्र की कीमत पर कायम हुआ।

चीन, क्यूबा और सीरिया जैसे देशों में संविधान सिर्फ एक ही पार्टी को अनुमति देता है।

म्यांमार, बेलारूस और इरीट्रिया जैसे देशों में एक पार्टी का प्रभुत्व कानूनी और सैन्य उपायों से कायम हुआ।

भारत में एक पार्टी का प्रभुत्व लोकतंत्र एवं स्वतंत्र निष्पक्ष चुनावों के होते हुए रहा है।

पहला आम चुनाव

अक्टूबर 1951 से फरवरी 1952 तक प्रथम आम चुनाव हुए। 

पहले तीन आम चुनावों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रभुत्व रहा।

चुनाव अभियान, मतगणना में 6 month लगे। तथा कांग्रेस की जीत हुई।

सफल मतदान देखकर आलोचकों का मुँह बन्द हो गया इसकी सफलता ने इतिहास में मिल का पत्थर साबित होकर दिखाया।

पहले चुनाव में लोकसभा की 489 सीट में से 364 कांग्रेस ने जीती। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 16 सीट लेकर दूसरा स्थान पर आई।

इसी के साथ विधानसभा के चुनाव हुए उसमे भी कांग्रेस जीती। तथा कोचीन, मद्रास, उड़ीसा बाद में इन 3 राज्यो में कांग्रेस की सरकार बनी।

1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी। कांग्रेस को 126 में से 60 सीटे मिली।

कांग्रेस के प्रभुत्व का कारण

कांग्रेस पार्टी को स्वाधीनता संग्राम की विरासत हासिल थी। तब के दिनों में यह एक मात्र पार्टी थी जिसका संगठन पुरे भारत में मजबूत था।

आजादी की विरासत हासिल थी।

इस पार्टी में जवाहर लाल नेहरू जैसा लोकप्रिय और करिश्माई नेता था जो चुनाव के समय पार्टी की अगुआई की और पुरे देश का दौरा किया था।

बाकी पार्टियाँ कांग्रेस पार्टी से ही निकली थी।

कांग्रेस एक ऐसी पार्टी थी जो सभी को साथ लेकर चलती थी। जैसे – हिन्दू, मुस्लिम, आमिर, गरीब, वामपंथ, दक्षिणपंथ, नरमपंथी, गरमपंथी, मजदूर, किसान, उद्योगपति आदि।

कांग्रेस में विभिन्न वर्गों में हुए विवादों को सुलझा लेती थी।

पहले आम चुनाव में 489 सीटों में से 364 सीटें कांग्रेस ने अकेले जीती थी। दुसरे न० पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी विजयी रही जिसने 16 सीटें जीती थी।

लगभग सभी राज्यों के चुनावों में कांग्रेस विजयी रही और उसी की सरकार बनी।

विपक्षी दलों का उद्भव और लोकतंत्र में उनकी भूमिका

भारत में बहुदलीय लोकतंत्र व्यवस्था है लेकिन यहाँ कई वर्षों तक एक ही दल का प्रभुत्व रहा।आज़ादी के समय भी बहुत से जिवंत विपक्षी पार्टियाँ थी जो स्वतंत्र रूप से चुनाव में भाग ले रही थी।

इनमें से कई पार्टियाँ का अस्तित्व 1952 के आम चुनाव के पहले से भी था। इनकी भूमिका 60 और 70 के दशक में महत्वपूर्ण रही है।

इन पार्टियों की मौजूदगी ने स्वास्थ्य लोकतंत्र में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दिया है जो लोकतंत्र के लिए जनता को जागरूक किया है।

इन दलों की मौजूदगी ने हमरी शासन – व्यवस्था के लोकतान्त्रिक चरित्र को बनाए रखने में निर्णायक भूमिका निभाई है।

विपक्षी दलों ने शासक – दल पर अंकुश रखा और बहुधा इन दलों के कारण कांग्रेस पार्टी के अन्दर शक्ति – संतुलन बदला और एक दल के प्रभुत्व को जोरदार चुनौती दी है।

सोशलिस्ट पार्टी – कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन खुद कांग्रेस के भीतर 1934 में युवा नेताओं की एक टोली ने किया था। ये नेता कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा परिवर्तनकामी और समतावादी बनाना चाहते थे। कांग्रेस पार्टी ने 1948 में अपने पार्टी संविधान में संसोधन किया ताकि कोई कांग्रेस सदस्य दोहरी सदस्यता न ले सके। इससे कांग्रेस के अन्दर के सोशलिस्ट नेताओं को मजबूरन 1948 में सोशलिस्ट पार्टी बनानी पड़ी।

सोशलिस्ट विचारधारा के नेताओं द्वारा कांग्रेस की आलोचना

वे कांग्रेस की आलोचना करते थे कि कांग्रेस पूंजीपतियों और जमींदारों का पक्ष ले रही है। समाजवादियों को दुबिधा का सामना करना पड़ा क्योंकि कांग्रेस ने 1955 में घोषणा दर दिया कि उनका लक्ष्य समाजवादी बनावट वाले समाज की रचना करना है। राममनोहर लोहिया ने कांग्रेस से अपनी दुरी बढाई और कांग्रेस की आलोचना की।

सोशलिस्ट पार्टी का विभाजन – सोशलिस्ट पार्टी के कई टुकड़े हुए और कुछ मामलों में बहुधा मेल भी हुआ। इस प्रक्रिया में कई समाजवादी दल बने। इन दलों में किसान मजदुर प्रजा पार्टी, जनता पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का नाम है। जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता, आचार्य नरेन्द्र देव, राममनोहर लोहिया और एस. एम. जोशी समजवादी दलों के नेताओं में प्रमुख थे। मौजूदा दलों में समजवादी पार्टी, जनता दल, राष्ट्रिय जनता दल, जनता दल (यूनाइटेड) जनतादल (सेक्युलर) पर सोशलिस्ट पार्टी की छाप है।
कांग्रेस की स्थापना – कांग्रेस का जन्म 1885 में हुआ था। इसकी स्थापना एक रिटायर्ड अंग्रेज अधिकारी ए० ओ० म ने की थी। उस वक्त यह नवशिक्षित, कामकाजी और व्यापारिक वर्गों का एक हित – समूह भर थी। लेकिन 20 वीं सदी में यह एक जानआन्दोलन का रूप ले लिया। धीरे – धीरे यह पार्टी एक जानव्यापी राजनितिक पार्टी का रूप ले लिया और जल्द ही राजनितिक व्यवस्था में कांग्रेस ने अपना दबदबा कायम कर लिया। इसमें सभी विचारधारा के लोग जैसे क्रन्तिकारी, शांतिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, गरमपंथी, नरमपंथी, दक्षिणपंथी वामपंथी और अनेक राजनितिक विचारधारा के लोग शामिल थे और राष्ट्रिय आन्दोलन में भाग लेते थे।

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया

रूस के बोल्वेशिक क्रांति से प्रेरित होकर 1920 के दशक में भारत के विभिन्न हिस्सों में साम्यवादी – समूह उभरे।

1935 से साम्यवादियों ने कांग्रेस के दायरे में रहकर कार्य किया | कांग्रेस से ये साम्यवादी 1941 के दिसंबर में अलग हुए । इस समय साम्यवादियों ने नाज़ी जर्मन के खिलाफ लड़ रहे ब्रिटेन को समर्थन देने का फैसला किया।

विचारधारा – अन्य गैर – कांग्रेस पार्टियों की तुलना में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पास सुचारू मिशिनरी, कैडर और समर्पित कार्यकर्त्ता मौजूद थे। इस पार्टी का मानना था कि देश जो 1947 में आजाद हुआ है वह सच्ची आजादी नहीं है। इस विचार के साथ पार्टी तेलंगाना में हिंसक विद्रोह को बढ़ावा दिया। साम्यवादी अपनी बात के पक्ष में जनता का समर्थन हासिल नहीं कर सके और इन्हें सशस्त्र सेनाओं द्वारा दबा दिया गया। 1951 में साम्यवादियों ने हिंसक क्रांति का रास्ता छोड़ दिया और और आने वाले ऍम चुनाओं में भाग लिया। पहले आम चुनाओं में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 16 सीटें जीती। वह सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के रूप में उभरी। इस दल को ज्यादा समर्थन आन्ध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और केरल में मिला। इस पार्टी के प्रमुख नेताओं में ए. के. गोपालन, एस. ए. डांगे नम्बूदरीपाद, पी. सी. जोशी, अजय घोष और पी. सुन्दरैया के नाम लिए जाते है।

 

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