NCERT Solutions Class 12th Physical Education Chapter – 9 मनोविज्ञान तथा खेल-कूद (Psychology and Sports)
Textbook | NCERT |
Class | 12th |
Subject | Physical Education |
Chapter | 9th |
Chapter Name | मनोविज्ञान तथा खेल-कूद (Psychology and Sports) |
Category | Class 12th Physical Education Notes In Hindi |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NCERT Solutions Class 12th Physical Education Chapter – 9 मनोविज्ञान और खेल (Psychology and Sports) Notes In Hindi जिस में हम मनोविज्ञान तथा खेल-कूद, भूमिका, मनोविज्ञान की परिभाषाएँ, व्यक्तित्व के आयाम, व्यक्तित्व के प्रकार, आक्रामकता के कारण, शरीर क्रियात्मक तंत्र, मानसिक कल्पना आदि इसके बारे में हम विस्तार से पढ़ेंगे।
NCERT Solutions Class 12th Physical Education Chapter – 9 मनोविज्ञान तथा खेल-कूद (Psychology and Sports)
Chapter – 9
मनोविज्ञान तथा खेल-कूद
Notes
भूमिका (Introduction) – मनुष्य को एक ऐसी मशीन की संज्ञा दी गई हैं जो सोच सकती हैं तथा अपनी सोच के अनुसार कार्य भी कर सकती है। हमारे शरीर में सोचने का कार्य मस्तिष्क द्वारा होता है तथा शरीर के बाकी अंग सोच के अनुरूप कार्य करते हैं। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि मनुष्य एक मानसिक तथा शारीरिक इकाई है। मनोविज्ञान एक ऐसा विज्ञान है जो मनुष्य के व्यवहार के आधार पर उसके मन का अध्यनन करता है। सरल शब्दों में कहें तो – मनोविज्ञान की परिभाषाएँ
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व्यक्तित्व (Personality) व्यक्तित्व का अर्थ (Meaning of Personality) किसी व्यक्ति के गुणों, लक्षणों, क्षमताओं तथा विशेषताओं इत्यादि का सम्मिलित रूप व्यक्तित्व कहलाता है। अधिकतर लोग किसी व्यक्ति के बाहरी आवरण, उसकी बोलचाल की शैली तथा पहनावे को ही उसका व्यक्तित्व समझ बैठते है जबकि वास्तव में यह केवल व्यक्तित्व निर्माण का एक पक्ष ही है। इसके अतिरिक्त किसी व्यक्ति में निहित गुण, क्षमताएँ तथा उसकी विशेषताएँ इत्यादि भी व्यक्तित्व के महत्वपूर्ण पक्ष है। अतः हम कह सकते हैं कि- व्यक्तित्व किसी व्यक्ति के गुणों का ऐसा संगठित समुच्चय है जो उसके ज्ञान, भावनाओं, अभिप्रेरणाओं तथा विभिन्न परिस्थितियों में उसके व्यवहार को प्रभावित करता है। निम्नलिखित परिभाषाओं द्वारा व्यक्तित्व के अर्थ को अच्छी तरह समझा जा सकता है- व्यक्तित्व की परिभाषाएँ
उपरोक्त कथनों के आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि- हर व्यक्ति का व्यक्तित्व बहुत ही विस्तृत होता है इसमें शारीरिक मानसिक, सामाजिक, बौद्धिक तथा भावनात्मक आदि सभी गुण शामिल हैं। अतः व्यक्तित्व किसी व्यक्ति की आंतरिक तथा बाहरी क्षमताओं का योग है। |
व्यक्तित्व के आयाम (Dimensions of Personality) हम जानते है कि किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व विभिन्न आयामों तथा पहलुओं के योग से बना है। यह सभी आयाम एक दूसरे से किसी-न-किसी रूप में जुड़े है। हालांकि इन सभी आयामों का अपना अलग प्रचालन क्षेत्र है परंतु किसी एक आयाम के प्रभावित होने पर दूसरे आयाम भी आवश्यक प्रभावित होते हैं। इसलिए व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों को अच्छी तरह समझे बिना व्यक्तित्व को समझना कठिन हो जाता है। व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैं – (a) शारीरिक आयाम (Physical dimension) – प्रत्येक व्यक्ति का शारीरिक स्वरूप, जैसे कि उसकी कद-काठी, रंग-रूप तथा उसका स्वास्थ्य जो उसके व्यक्तित्व का मूल आधार होता है। लोग ऐसे व्यक्ति की और जल्दी आकर्षित होते हैं जिसकी लंबाई तथा शारीरिक अनुपात अच्छा हो, आसन ठीक हो, गठीला शरीर तथा आकर्षक नैन-नक्श हों। जबकि जिस व्यक्ति में इन में से कुछ गुण कम हों तो वह पहली बार में दूसरों पर अच्छा प्रभाव डालने में विफल ही रहता है, फिर भले ही उसमें कई आंतरिक गुण क्यों न हों। इसलिए शारीरिक आयाम को व्यक्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण आयाम माना जाता है। (b) बौद्धिक आयाम (Mental dimension) – मानसिक आयाम का तात्पर्य व्यक्ति की मानसिक तथा बौद्धिक क्षमताओं से है। किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व की असल पहचान उसकी मानसिक तथा बौद्धिक क्षमताओं से ही होती है। कोई भी व्यक्ति समाज के कल्याण हेतु तब तक कोई योगदान नहीं दे सकता, जब तक कि वह मानसिक रूप से सक्षम न हो तथा उसने पर्याप्त ज्ञान अर्जित न किया हो। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि विश्व की कई महान विभूतियाँ दिखने में भले ही आकर्षक नहीं थीं, किंतु उनमें विलक्षण मानसिक तथा बौद्धिक गुण थे। चिंतन, तर्क, अंर्तज्ञान तथा निर्णय लेने की क्षमता आदि जैसे जन्मजात गुणों को कुछ हद तक सीखा भी जा सकता है परंतु इनका विकास केवल शिक्षा द्वारा संभव है। यदि किसी व्यक्ति में सीखने की जबरदस्त लगन हो तो वह निश्चित ही सफल होगा। (c) सामाजिक आयाम (Social dimension) – मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। बिना समाज के मनुष्य का अस्तित्व संभव नहीं है। समाज में रहकर ही उसका समाजीकरण होता है। अपने आपको समाज की मान्यताओं एवं परंपराओं के अनुसार ढालने की क्षमता भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को काफी हद तक प्रभावित करती है। प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक नियमों से बँधा हुआ है। व्यक्ति की सामाजिक स्वीकार्यता का श्रेष्ठ स्तर ही उसके अच्छे व्यक्तित्व की पहचान होती है। सामाजिक नियमों, अनुशासन, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, सहभागिता इत्यादि के अनुरूप चलने तथा व्यवहार करने वाले व्यक्ति का समाज में श्रेष्ठ स्थान होता है। समाज का निर्माण ही मानव समूह द्वारा होता है। अतः समाज द्वारा स्वीकार्य व्यक्ति की पहचान अलग ही होती है। (d) भावनात्मक आयाम (Emotional dimension) – व्यक्ति में भावनात्मक स्थिरता उसके व्यक्तित्व का एक अभिन्न अंग होता है। भावनात्मक स्थिरता से तात्पर्य, व्यक्ति का भय, क्रोध, घृणा, अवसाद, दुःख, ईर्ष्या, द्वेष जैसी विभिन्न भावनाओं पर पूर्ण नियंत्रण से है। कई बार खिलाड़ी कोई बड़ी प्रतियोगिता जीतने या हारने पर अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पाने के कारण रोने लगते हैं। कई खिलाड़ी उत्तेजित होकर अपने साथी खिलाड़ियों या अधिकारियों पर चिल्ला पड़ते हैं। ऐसा करने से वह अपनी भावनात्मक अस्थिरता का प्रदर्शन करते हैं। जिसके कारण उनके व्यक्तित्व पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उपरोक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यदि व्यक्ति के व्यक्तित्व में शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा भावनात्मक आयाम में से किसी भी आयाम की कमी है तो यह व्यक्ति के व्यक्तित्व को अवश्य प्रभावित करेगा। |
व्यक्तित्व के प्रकार (Types of Personality) – गत वर्षे में व्यक्तित्व के वर्गीकरण की कई विधियों अपनाई गई हैं, जिनमें से दो प्रमुख विधियों का विवरण निम्नलिखित है – 1. कार्ल जी. जुग (Carl G Jung) ने व्यक्तित्व को निम्न वर्गों में विभाजित किया है- (a) अतमुखा (Introvert) – अतर्मुखी वह व्यक्ति होता है जो अकेला रहना पसंद करता है। सामान्य रूप से ये लोग दूसरों के साथ ज्यादा घुलना-मिलना पसंद नहीं करते। ये लोग शर्मीली प्रवृत्ति के होते हैं तथा उनके लिए सामाजिक वार्तालाप थकाऊ होता है। इस प्रवृत्ति के लोग अधिकतर शांत रहना पसंद करते हैं तथा अपने लक्ष्य पर केंद्रित रहते हैं। इनमें सुनने का कौशल भली-भाँति विकसित होता है तथा ये सोच-समझकर अपने विचार प्रकट करते हैं। अंतर्मुखी प्रवृत्ति के लोग अधिकतर अपने जीवन में सफल होते हैं तथा निशानेबाजी, तीरंदाजी, शतरंज एवं लंबी दूरी की दौड़ों में भाग लेना पसंद करते हैं। (b) बहिर्मुखी (Extrovert) – बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति सामाजिक रूप से अधिक सक्रिय रहते हैं। ये समूहीकरण विचारधारा वाले व्यक्ति होते हैं तथा अधिक आत्मविश्वासी होते हैं। ये किसी भी व्यक्ति से बातचीत करने में झिझकते नहीं हैं। इनका दृष्टिकोण विकसित होता है तथा ये टीम में काम करना पसंद करते हैं। ये खुले विचारों वाले, अनुकूल प्रवृत्ति वाले एवं आसानी से घुलने-मिलने वाले होते हैं। (c) उभयमुखी (Ambiverts) – अधिकतर लोग उभयमुखी व्यक्तित्व के होते है, अर्थात् उभयमुखी व्यक्तित्व के लोग वह होते है जिनमें अंतर्मुखी तथा बहिर्मुखी व्यक्तित्व के गुण होते है।
2. व्यक्तित्व के पाँच सिद्धांत/पंच-कारक मॉडल (Principle of Personality/Big Five Theory) – व्यक्तित्व के सिद्धांत या पंच-कारक मॉडल की व्याख्या पॉल कॉस्टा तथा रोबर्ट मैक्रे ने की थी। इनका अध्ययन व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले पाँच मुख्य कारकों पर आधारित है। यह पंच कारक मॉडल (OCEAN) बाद में ‘बिग फाईव थ्योरी’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। ये कारक निम्नलिखित हैं – (i) अनुभवों के लिए खुलापन (Openness to experience) – किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के बारे में निर्णय लेने में नए विचारों के लिए खुलापन एक महत्वपूर्ण कारक है। ऐसे व्यक्ति लचीली प्रवृत्ति के. कल्पनाशील, जिज्ञासु एवं अभिनव प्रवृत्ति के होते हैं। ये व्यक्ति सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं और नए विचार स्वीकार करने के लिए भी हमेशा तैयार रहते हैं। (ii) अन्तर्विवेकशीलता (Conscientiousness) – ऐसे व्यक्ति अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पर्यत्नशील रहते हैं। ये अधिक परिश्रमी, स्व-अनुशासित, जिम्मेदार एवं भरोसेमंद होते हैं। ये हमेशा कुछ रचनात्मक करने में व्यस्त रहते हैं। (iii) बहिर्मुखता (Extraversion) – बहिर्मुखी व्यक्ति सामाजिक तथा मुखर होते हैं। इन्हें दिखावा करना बहुत अच्छा लगता है तथा ये दूसरे लोगों में आसानी से घुलमिल जाते हैं। (iv) सहमतिशीलता (Agreeableness) – यह कारक उन लोगों में होता है जो किसी को नुकसान पहुँचाना नहीं चाहते तथा दूसरों के साथ आसानी से सहमत हो जाते हैं। इन्हें दूसरों की मदद करना अच्छा लगता है तथा ये सबके साथ सहयोग का भाव रखते हैं। इनका व्यवहार सबके साथ दोस्ताना होता है। (v) मनोविक्षुब्धता (Neuroticism) – मनोविक्षुब्ध व्यक्ति भावनात्मक रूप से असंतुलित रहते हैं। ये दूसरों को चिढ़ाते रहते हैं तथा स्वयं उच्च रक्तचाप से पीड़ित रहते हैं। उन्हें हमेशा कोई न कोई चिंता लगी रहती है। ये हमेशा भयभीत और परेशान भावनाओं को दर्शाते हैं। ये दूसरे लोगों के साथ आसानी से तालमेल नहीं बिठा पाते। व्यक्तित्व विश्लेषण के क्षेत्र में पंच-कारक मॉडल (Big Five Theory) एक नवप्रवर्तनकारी सिद्धांत माना जाता है जो सभी संस्कृतियों और भाषाओं में व्यक्तित्व का विश्लेषण करने में सक्षम है। |
खेलों में आक्रामकता – अर्थ, अवधारणा एवं प्रकार (Aggression in Sports – Meaning, Concept and Types) – खेलों में आक्रामकता व अवधारणा (Aggression Concept in Sports) मनोवैज्ञानिकों ने आक्रामकता को एक ऐसे व्यवहार के रूप में परिभाषित किया गया है जिसके चलते व्यक्ति स्वयं या दूसरों को किसी प्रकार की हानि पहुँचा सकता है। हमारे समाज में आक्रामकता को एक नकारात्मक मनोवैज्ञानिक विशेषता के रूप में देखा जाता हैं तो कई खेल मनोवैज्ञानिक अभ्यास तथा प्रतियोगिता के दौरान आक्रामकता को कुछ हद तक जरूरी मानते है। उनका मानना है कि खेलों में आक्रामकता खेल प्रदर्शन को बढ़ा सकती है। परंतु अक्सर देखा गया है, कोई खिलाड़ी आक्रामक व्यवहार तब दर्शाता है जब वह खेल के दौरान अपना लक्ष्य न प्राप्त कर पाने के कारण हताश (Frustrated) महसूस करता हैं। कई बार स्थितिजन्य (Situational) या व्यक्तिगत कारणों से भी व्यक्ति आक्रामक व्यवहार का प्रदर्शन करता है। खेलों में आक्रामकता खिलाड़ी के प्रदर्शन व व्यवहार पर सकारात्मक व नकारात्मक प्रभाव डाल सकता हैं। खेलों में आक्रामकता के विषय में विभिन्न खेल विद्वानों के अपने-अपने मत रहे है, जैसे कि- खेलों में आक्रामकता की परिभाषाएँ
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खेलों में आक्रामकता के प्रकार (Types of Aggression in Sports) – खेलों में आक्रामकता को मुख्य रूप से निम्न श्रेणियों में बांटा गया है। खेलों में आक्रामकता के प्रकार
1. शत्रुतापूर्ण आक्रामकता (Hostile aggression) – खेल के दौरान शत्रुतापूर्ण खेल आक्रामकता तब मानी जाती है, जब किसी खिलाड़ी को मुख्य उद्देश्य अपने विरोधी टीम के खिलाड़ियों को नुकसान अथवा चोट पहुँचाना होता है। साधारण शब्दों में, शत्रुतापूर्ण आक्रामकता तब होती है जब मुख्य लक्ष्य विरोधी खिलाड़ी को शारीरिक हानि या चोट पहुँचाना हो। कई बार शत्रुतापूर्ण आक्रामकता को अच्छा माना जाता है जैसे – कि जब एक गेंदबाज एक बैट्समैन की एकाग्रता को भंग करने के लिए जान-बूझकर एक बाउंसर (Bouncer) फेंकता है। कुछ क्रिकेर्ट्स भूतकाल में चोट पहुँचाने के इरादे से यह जान-बूझकर कर चुके हैं। 2. सहायक आक्रामकता (Instrumental aggression) – सहायक आक्रामकता का मुख्य उद्देश्य आक्रामकता का प्रयोग कर अपने लक्ष्य को प्राप्त करना होता है। सरल शब्दों में कहें तो, सहायक आक्रमकता (Instrumental aggression) एक ऐसा व्यवहार है जिसमें खिलाड़ी का इरादा किसी को चोट पहुँचाना नहीं होता है बल्कि वह दूसरों का ध्यान, प्रशंसा या विजय प्राप्त करना चाहता है। उदाहरण के लिए, एक रगबी खिलाड़ी अपने प्रतिद्वंदी से बॉल जीतने के लिए आक्रामकता का प्रयोग करता हैं न की उसे चोट पहुँचाने के लिए। 3. सशक्त या मुखर व्यवहार (Assertive behaviour) – सशक्त या मुखर व्यवहार के दौरान खिलाड़ी दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए तथा विरोधी पक्ष के खिलाड़ी की एकाग्रता भंग करने के लिए मौखिक बल का प्रयोग करता है। जैसे – कि क्रिकेट में बॉलर अक्सर जमे हुए बल्लेबाज का ध्यान बाँटने तथा उसकी एकाग्रता भंग करने के लिए उत्तेजक शब्दों का प्रयोग करते है। |
आक्रामकता के कारण (Reasons for Aggression) – आक्रामकता एक प्रकार की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया है जिसके निम्नलिखित कारण हो सकते हैं- 1. जन्मजात प्रवृत्ति – कई बार आक्रामकता एक जन्मजात प्रवृत्ति भी हो सकती है। सामान्यतया इसे स्व-रक्षा के लिए प्रयोग किया जाता है। कुछ लोगों में जन्मजात हिंसक प्रवृत्ति देखी जाती है। ऐसे लोग अन्य लोगों को शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट पहुँचाने में आनंद का अनुभव करते हैं। 2. शरीर क्रियात्मक तंत्र – शरीरक्रियात्मक तंत्र के कारण भी आक्रामकता की स्थिति बन सकती है। कभी-कभी बाहरी तत्व मस्तिष्कके उस भाग को अत्यधिक सक्रिय कर देते हैं जो संवेगों का अनुभव करता है। ऐसे में व्यक्ति अत्यंत संवेदनशील होकर आक्रामक हो जाता है। उदाहरण के लिए, ट्रैफिक जाम, गर्मी आदि जैसे बाहरी कारणों से त्रस्त होकर कुछ लोगा आक्रामक हो जाते हैं। 3. बच्चों का पालन-पोषण – किसी व्यक्ति की आक्रामकता इस बात पर भी निर्भर करती है कि उसका पालन-पोषण कैसे किया गया। अक्सर देखा गया है कि जिन बच्चों को शारीरिक दंड दिया जाता है वे आक्रामक प्रवृत्ति के हो सकते हैं। शारीरिक दंड उनमें क्रोध उत्पन्न करता है जिसका प्रदर्शन वे आक्रामक व्यवहार द्वारा करते हैं। 4. कुंठा – किसी कुंठा के कारण भी व्यक्ति आक्रामक हो सकता है। यदि किसी व्यक्ति को उसके मूल अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है अथवा उसे अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँचने दिया जाता तो उसके मन में कुंठा उत्पन्न हो जाती है। अपनी कुंठा का शमन वह आक्रामक व्यवहार अथवा हिंसा द्वारा करता है। खेलों में आक्रामकता को मुख्य रूप से दो अलग-अलग श्रेणियों में बांटा गया है – (a) शत्रुता पूर्ण आक्रामकता – खेल के दौरान शत्रुतापूर्ण खेल आक्रामकता तब मानी जाती है, जब किसी खिलाड़ी को मुख्य उद्देश्य अपने विरोधी टीम के खिलाड़ियों को नुकसान अथवा चोट पहुँचाना होता है। (b) सहायक आक्रामकता – सहायक आक्रामकता का मुख्य उद्देश्य आक्रामकता का प्रयोग कर अपने लक्ष्य को प्राप्त करना। उदाहरण के लिए, एक एबी खिलाड़ी अपने प्रतिद्वंदी से बॉल जीतने के लिए आक्रामकता का प्रयोग कर रहा न की उसे चोट पहुँचाने के लिए। कई बार खेलों में दौरान खिलाड़ियों का आक्रामक होना जरूरी होता है। हालाँकि खिलाड़ियों को यह समझाना होगा कि आक्रामकता कब और किस हद तक जरूरी है। उन्हें इस बात का भी बोध होना चाहिए कि खेलों के दौरान आक्रामकता का उद्देश्य केवल लक्ष्य प्राप्ति होना चाहिए न कि किसी को चोट पहुँचाने के लिए नहीं। अब प्रश्न उठता है कि आक्रामकता आती कहाँ से है? आक्रामकता के सिद्धांत में कहा गया है कि- जब कोई खिलाड़ी हर बार अपना लक्ष्य प्राप्त करने से चूकता है या अपनी इच्छा के अनुरूप प्रदर्शन करने में सफल नहीं हो पाता तो ऐसी स्थिति में खिलाड़ियों में आक्रामकता का भाव उत्पन्न होना सामान्य बात है। |
खेल में आक्रामकता कम करने के सुझाव (Suggestions to Reduce Aggression in Sports) – खेल के दौरान आक्रामकता कम करने के लिए निम्नलिखित सुझाव अपनाए जा सकते हैं, जैसे कि-
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खेलों में मनोवैज्ञानिक पहलू- आत्म-सम्मान, मानसिक कल्पना, स्वयं से बातचीत तथा लक्ष्य निर्धारण (Psychological Attributes in Sports- Self-Esteem, Mental Imagery, Self-Talk and Goal Setting) खेल मनोविज्ञान को खिलाड़ियों और खेलों के दौरान उनके व्यवहार के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में परिभाषित किया गया है। खेल मनोविज्ञान, खेलों के दौरान खिलाड़ियों की मनोदशा के कारण उनके खेल प्रदर्शन पर पड़ने वाले प्रभाव के अध्ययन से संबंधित है। उदाहरण के लिए,
खेल मनोविज्ञान के अंतर्गत ही खेलों का खिलाड़ियों की मनोवैज्ञानिक स्थिति पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन किया जाता है। उदाहरण के लिए,
उपरोक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मनोविज्ञान और खेल एक-दूसरे से परस्पर रूप से जुड़े हुए हैं। खेल मनोविज्ञान खिलाड़ियों द्वारा खेलों में भागीदारी के माध्यम से उनके खेल प्रदर्शन के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक प्रदर्शन को बेहतर करने में मदद करता है। निम्नलिखित मनोवैज्ञानिक कारक हर खिलाड़ी के खेल प्रदर्शन में सबसे अधिक योगदान करते हैं – |
1. आत्म-सम्मान (Self-Esteem) किसी व्यक्ति का स्वयं के प्रति आदर का भाव रखना आत्म-सम्मान कहलाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो आत्म-सम्मान एक व्यक्ति की मानसिक धारणा या उसके विचार हैं जो वह स्वयं के प्रति रखता है। किसी व्यक्ति का आत्म-सम्मान उसकी शारीरिक छवि तथा उसकी भावनात्मक तथा अध्यात्मिक देखरेख पर निर्भर करता है। जैसे कि यदि कोई व्यक्ति अपनी शारीरिक आकृति से घृणा करता है तो वह स्वयं के प्रति अच्छा विचार नहीं रख पाता। आत्म-सम्मान न तो अंतर्निहित है और न ही विरासत में मिलता है, बल्कि इसे स्वयं ही स्थापित करना पड़ता है, और यह दूसरों के साथ बदलते संबंधों के चलते निरंतर परिवर्तनशील भी रहता है। किसी व्यक्ति का आत्म सम्मान ही उसे कोई कार्य करने के लिए प्रेरित करता है या रोकता है। हमारा आत्म-सम्मान ही हमारे मूल्यों, स्मृतियों, हमारे मूल्यांकन मानकों, हमारे लक्ष्यों, दोस्तों की हमारी पसंद, जीवनसाथी, समूहों, संगठनों, व्यवसायों इत्यादि को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अक्सर देखा गया है कि जिन खिलाड़ियों में आत्मविश्वास की कमी होती है वह खेल के दौरान प्रदर्शन संबंधी मानसिक दबाव नहीं सहन कर पाते जिसके कारण उनके खेल प्रदर्शन में गिरावट आती है। जबकि, जो खिलाड़ी आत्म-विश्वास से भरपूर रहते है वह खेलों के दौरान प्रदर्शन के मानसिक दबाव को बेहतर ढंग से झेल पाते है, बेहतर प्रदर्शन के लिए निरंतर प्रयास करते है जिसके कारण उनका खेल प्रदर्शन अन्य की अपेक्षा बेहतर रहता है। अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि उच्च आत्म-सम्मान खेलों में सफलता के लिए एक महत्त्वपूर्ण कारक है। उच्च आत्म-सम्मान वाले खिलाड़ी कम आत्म-सम्मान वाले खिलाड़ी की अपेक्षा विफलता के दौर में भी बेहतर व्यवहार करते हैं, जीवन में खुशी महसूस करते हैं और कम चिंतित रहते है। विभिन्न मनोवैज्ञानिक शोध कार्य यह दर्शाते है कि उच्च आत्म-सम्मान वाले खिलाड़ियों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बेहतर होता है। जो खिलाड़ी आत्म-सम्मान विकसित करने में कामयाब रहते हैं, वे तनाव के प्रति अधिक प्रतिरोधी, अधिक आत्मविश्वासी और संघर्षो से दूर नहीं भागते हैं, वे खुद के लिए संघर्ष करने को तैयार रहते हैं और दूसरों द्वारा की जाने वाली आलोचना को भी सकारात्मक रूप से लेने में सक्षम होते है। संभवतः इसी कारण से उच्च आत्म-सम्मान वाले खिलाड़ी अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सदैव पर्यतनशील, अधिक सफल तथा अपेक्षित सफलता न मिलने पर भी अवसाद ग्रस्त नहीं होते। विभिन्न मनोवैज्ञानिक शोध कार्य यह भी दर्शाते है कि- कम आत्म-सम्मान वाले खिलाड़ी अक्सर ऐसी समस्याओं (अनुचित व्यवहार, अवसाद, बुलीमिया, मानसिक बीमारियाँ, साथी खिलाड़ियों से संबंधों में कड़वाहट) का जल्दी शिकार हो जाते है जिनके कारण उनका खेल करिअर नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। कम आत्म-सम्मान वाले खिलाड़ी अक्सर ऐसे वातावरण में रहना पसंद करते है जहाँ उन्हें किसी प्रकार का कोई चुनौतीपूर्ण लक्ष्य न हासिल करना पड़े। इसी सोच के चलते उनका खेल प्रदर्शन नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। |
खिलाड़ी द्वारा अपने आत्म-सम्मान में सुधार हेतु कुछ सुझाव (Suggestions to Improve Self-Esteem of a Sports Person) – एक खिलाड़ी द्वारा अपने आत्म-सम्मान को सुधारने के लिए निम्न उपाय किए जा सकतें हैं- (i) अपनी योग्यताओं तथा क्षमताओं (सकारात्मक गुणों) पर विश्वास (To believe in ones positive qualities) – खिलाड़ी को अपने कमियों कि अपेक्षा अपनी उन योग्यताओं तथा क्षमताओं (सकारात्मक गुणों) पर विश्वास कर ऐसे कार्यों/खेलों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जिसके कारण उनके आत्मविश्वास तथा आत्म-सम्मान में वृद्धि हो सके। (ii) जीवनशैली में सकारात्मक परिवर्तन (Positive changes in lifestyle ) – खिलाड़ी को अपने आहार तथा जीवनशैली में सकारात्मक परिवर्तन करने चाहिए ताकि उसकी शारीरिक छवि में और निखार आए। शारीरिक छवि में निखार के साथ-साथ ही खिलाड़ी का आत्म-सम्मान भी बढ़ता जाता है। (iii) खेल के प्रति कुछ करने की भावना (To do something for the sport) – खेल के प्रति कुछ अच्छा कार्य करने से भी खिलाड़ियों के आत्म-सम्मान में वृद्धि होती है। जैसे कि यदि कोई खिलाड़ी किसी गरीब परंतु प्रतिभावान खिलाड़ी के प्रशिक्षण का खर्च उठाने का फैसला लेता है तो निश्चित ही उसके मन में स्वयं के प्रति आदर का भाव पैदा होता है। इससे खिलाड़ी के आत्म-सम्मान में निश्चित रूप से वृद्धि होती है। (iv) पेशेवर सहायता (Professional help) – किसी पेशेवर व्यक्ति जैसे किसी खेल मनोवैज्ञानिक या प्रशिक्षक की सहायता से भी खिलाड़ी की मनोवृत्ति में सकारात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है। पेशेवर सहायता के चलते खिलाड़ी के जीवन के प्रति दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन आता है तथा उसके आत्म सम्मान में वृद्धि होती है। (v) वास्तविकता को समझे (Be realistic) – हर खिलाड़ी को यह समझना चाहिए कि कोई भी खिलाड़ी संपूर्ण नहीं है, सब में कोई-न-कोई गुण तथा कमी जरूर होती है। विभिन्न खेलों में ऐसे बहुत से खिलाड़ी हुए है जिन्हें महान खिलाड़ी की संज्ञा दी गई है परंतु उनकी खेल तकनीक में भी कोई-न-कोई कमी जरूर रहती थी, हालांकि खेल तकनीक के किसी अन्य पहलू में वह इतने निपुण होते थे कि वह अपनी कमी के बावजूद भी महानतम खिलाड़ी के रूप में जाने गए। इसी प्रकार यदि कोई खिलाड़ी अपनी खेल कौशल संबंधी किसी कमी की अपेक्षा अपने खेल कौशल के मजबूत पक्ष को और बेहतर करने का प्रयास करे तो उसके आत्म-सम्मान में निश्चित ही वृद्धि होती है। (vi) नकारात्मक विचारों से बचें (Avoid negative thoughts) – अपने खेल संबंधी प्रदर्शन के विषय में नकारात्मक विचार आते ही स्वयं का ध्यान किसी रचनात्मक तथा रुचिकर कार्य में लगाने का प्रयास करें। (vii) सकारात्मक दृष्टिकोण (Positive attitude) – भविष्य में अपने खेल प्रदर्शन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण तथा सकारात्मक सोच अपनाने से भी आत्म-सम्मान में वृद्धि होती है। |
2. मानसिक कल्पना (Mental Imagery) – मानसिक कल्पना एक तरह का मानसिक अभ्यास है जिसमें खिलाड़ी को कोई खेल संबंधी कौशल वास्तव में दोहराने से पहले अपने दिमाग में उस कौशल का पूर्वाभ्यास करना होता है। किसी कौशल को प्रदर्शित करने से पहले उसे मुद्राबद्ध करने से उस कौशल को और बेहतर ढंग से क्रियान्वित करने में मदद मिलती है। खेलों में मानसिक कल्पना बहुत महत्व होता है। खिलाड़ी द्वारा अपने खेल प्रदर्शन में सुधार के लिए उसकी मानसिक कल्पना का बहुत बड़ा योगदान होता है। जब भी कोई खिलाड़ी खेलों के दौरान मानसिक कल्पना करता है तो उसकी बहुत सी इंद्रियाँ/चेतना कार्यशील हो जाती है, जैसे कि – (i) काइनेस्टेटिक चेतना (Kinesthetic sense) – काइनेटिक चेतना का तात्पर्य शारीरिक स्थिति या गति की अनुभूति से हैं। चेतना हमारे शरीर की वह भावना है जो शरीर की विभिन्न गतिविधियों तथा निष्क्रियता के दौरान महसूस होती है। (ii) दृश्य चेतना (Visual sense) – दृश्य चेतना का प्रयोग शारीरिक गतिविधियों को देखने के लिए किया जाता है। इसके लिए खिलाड़ी अपने प्रतिद्वंद्वियों तथा स्वयं के खेल प्रदर्शनों के वीडियोटेप देखते हैं। (iii) श्रवण चेतना (Auditory sense) – श्रवण चेतना का तात्पर्य किसी ध्वनि को सुनने के लिए श्रवण संबंधी इंद्रियों के प्रयोग से है। उदाहरण के लिए, क्षेत्ररक्षण के लिए खड़े खिलाड़ी बल्ले की गेंद से टकराने की आवाज सुन सकते हैं। (iv) स्पर्श-बोध (Touch sense) – स्पर्श-बोध का तात्पर्य किसी वस्तु को छूने पर होने वाले एहसास से है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बल्लेबाज बैट को ठीक ढंग से न पकड़े तो उसे बार-बार अजीब सा अहसास होता है जो उसे बैट को ठीक से पकड़ने के लिए प्रेरित करता है। (v) सूंघने की चेतना (Olfactory sense) – सूंघने की चेतना का तात्पर्य किसी वस्तु को सूंघने पर होने वाले एहसास से, जैसे कि एक खिलाड़ी ताजी कटी घास की खूशबू महसूस कर सकता है। |
अभ्यास और प्रतियोगिता के दौरान खिलाड़ियों की मानसिक कल्पना (Mental Imagery During Practice and Competition) हर खिलाड़ी अपनी मानसिक कल्पना का प्रयोग अभ्यास सत्र के दौरान कौशलों को सीखने में और प्रतियोगिता के दौरान उनका क्रियान्वयन करने के लिए करता है। यदि किसी खिलाड़ी को अपने खेल प्रदर्शन में निरंतर सुधार करना है तो यह जरूरी है कि वह खिलाड़ी अभ्यास सत्र के दौरान कौशलों को सीखने, समझने तथा उन्हें कब और कैसे क्रियान्वित करना है के लिए अपनी मानसिक कल्पनाओं का अधिक-से-अधिक प्रयोग करें। खेलों में मानसिक कल्पना के महत्व को समझते हुए आजकल सभी कोच व प्रशिक्षक खिलाड़ियों को उनकी मानसिक कल्पना को बेहतर करने पर जोर देते है। मानसिक कल्पना का प्रयोग कभी भी कहीं भी किया जा सकता है। |
मानसिक कल्पना के प्रकार (Type of Mental Imagery) – आमतौर पर खिलाड़ी आंतरिक तथा बाहरी मानसिक कल्पनाओं का उपयोग करते है। हालांकि आंतरिक अथवा बाहरी कल्पना का प्रयोग खिलाड़ी की सोच तथा स्थितियों पर निर्भर करता है। (i) आंतरिक कल्पना (Internal imagery) – आंतरिक कल्पना का तात्पर्य है- कल्पना करना कि क्या खिलाड़ी ने वास्तव में कभी किसी विशेष कौशल को निष्पादित किया है। (ii) बाहरी कल्पना (External imagery) – बाहरी कल्पना का तात्पर्य है कि कोई खिलाड़ी स्वयं को किसी दूसरे व्यक्ति के दृष्टिकोण से कैसे देखते हैं। इसके लिए खिलाड़ी अक्सर स्वयं को अपने प्रतिद्वंद्वी के दृष्टिकोण से देखते हैं। |
खेलों में मानसिक कल्पना के लाभ (Benefits of Mental Imagery in Sports)
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3. आत्मवार्तालाप (Self-Talk) आत्मवार्तालाप वह संवाद होता है जो व्यक्ति स्वयं के साथ करता हैं। हम सब अक्सर अपने आप से बात करते हैं और ये आत्मवार्तालाप कई मायनों में बहुत ही जरूरी और महत्वपूर्ण होता हैं। हम अपने आप से जो भी कहते हैं वह हमें भविष्य की योजनाएँ बनाने में और वर्तमान में सही निर्णय लेने में बहुत मदद करते है। उदाहरण के लिए, यदि कोई एथलीट खुद से कहता है कि वह विशेष कौशल का प्रदर्शन कर सकता है, तो यह कथन उसे उसी कौशल का प्रदर्शन करने में विशेष रूप से प्रेरित एवं सक्षम बना सकता है। वहीं जब खिलाड़ी यह कहें कि वह उस विशेष कौशल का प्रदर्शन नहीं कर सकता है तो वास्तव में वह उसी कौशल का प्रदर्शन करने में सक्षम नहीं होता है। आत्मवार्तालाप आंतरिक प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत है, जैसे कि- यदि कोई खिलाड़ी स्वयं से कहें कि आज वह पिछली बार से बेहतर प्रदर्शन करेंगा तो वह एक तरीके से अपनी आंतरिक प्रेरणा में सुधार करता है। आत्मवार्तालाप ध्यान भटकाने वाली परिस्थितियों से निपटने में मदद करता है। |
विभिन्न प्रकार के आत्मवार्तालाप (Different Types of Self-Talk) – आमतौर पर खिलाड़ी स्वयं से निम्न प्रकार के आत्मवार्तालाप करता है – (i) सकारात्मक आत्मवार्तालाप (Positive Self-Talk) – सकारात्मक आत्मवार्तालाप एक प्रेरक के रूप में कार्य करता है, अर्थात् सकारात्मक आत्मवार्तालाप के द्वारा भी खिलाड़ी अपने आत्मविश्वास को बढ़ा सकता है, जैसे कि- एक प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी खेल के दौरान ‘मैं सबसे बेहतर हूँ’ जैसे वाक्य मैदान पर बार-बार उच्चारण करता रहता था। कई बार तो उसका यह उच्चारण सुनकर उसके विरोधी खिलाड़ी भी उसकी बात पर यकीन करने लगते थे। (ii) निर्देशात्मक आत्मवार्तालाप (Instructional Self-Talk) – निर्देशात्मक आत्मवार्तालाप में खिलाड़ी अपने प्रदर्शन निष्पादन के तकनीकी या कार्य संबंधी पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करता है, जैसे कि- बास्केटबॉल शूट के लिए गेंद को छोड़ने के लिए अपना पैर उठाना या अपने घुटनों को मोड़ना आदि। (iii) नकारात्मक आत्मवार्तालाप (Negative Talk ) – नकारात्मक आत्मवार्तालाप का तात्पर्य स्वयं की आलोचना से है। नकारात्मक आत्मवार्तालाप केवल खिलाड़ी की चिंता में वृद्धि करता है। खिलाड़ी द्वारा स्वयं से बार-बार कहना की अब तो वह यह मैच हार ही गया है या वह और अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकता है, नकारात्मक आत्मवार्तालाप के उदाहरण हैं। नकारात्मक आत्मवार्तालाप खिलाड़ी में स्वयं के प्रति हीन भावना को बढ़ाता है जिसके चलते खिलाड़ी स्वयं की ही प्रतिभा पर संदेह करने लगता है। नियमित रूप से नकारात्मक आत्मवार्तालाप करने से खिलाड़ी की एकाग्रता, आत्मविश्वास तथा खेल प्रदर्शन के स्तर में गिरावट आती है। |
4. लक्ष्य निर्धारण (Goal Setting) – लक्ष्य निर्धारण उन मनोवैज्ञानिक कारकों में से एक है जिन्हें खेल मनोविज्ञान में प्रदर्शन बढ़ाने की सबसे प्रभावी तकनीक के रूप में माना जाता है। लक्ष्य निर्धारण न केवल खिलाड़ियों को बेहतर प्रदर्शन के लिए प्रेरित करता है, बल्कि उत्तेजना, आत्मविश्वास और प्रेरणा के मामले में एक खिलाड़ी की मनोवैज्ञानिक स्थिति में भी सुधार करता है। अतः लक्ष्य को किसी ऐसे उद्देश्य या वस्तु के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसे हम प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। खेलों के क्षेत्र में आमतौर पर निम्न प्रकार के लक्ष्य निर्धारण लिए जाते है- (i) विषयपरक लक्ष्य (Subjective goals) – विषयपरक लक्ष्य का तात्पर्य उन सामान्य लक्ष्यों से होता है जो किसी विशिष्ट उद्देश्य (specificaim) की प्राप्ति के लिए नहीं निर्धारित किए जाते। “बेहतर प्रदर्शन करना” या “सुधार करना”, “बहुत कठिन प्रयास करना”, इत्यादि विषयपरक लक्ष्य के उदाहरण है। (ii) विशिष्ट उद्देश्य लक्ष्य (Specific objective goals) – विशिष्ट उद्देश्य लक्ष्य का तात्पर्य उन लक्ष्यों से होता है जो किसी विशिष्ट उद्देश्य को हासिल करने के लिए निर्धारित किए जाते है, जैसे कि- 10,000 मीटर दौड़ में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना या किसी विशिष्ट खेल त्रुटि कम करना। (ii) परिणाम आधारित लक्ष्य (Result based goals) – परिणाम आधारित लक्ष्य का तात्पर्य उन लक्ष्यों से होता है जो किसी विशिष्ट परिणाम को हासिल करने के उद्देश्य से निर्धारित किए जाते है। कोई खास मैच जीतना या किसी विशेष प्रतिद्वंद्वी को हराना परिणाम आधारित लक्ष्यों के उदाहरण हैं। व्यक्तिगत कौशल में सुधार द्वारा परिणाम आधारित लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है। |