NCERT Solutions Class 12th Physical Education Chapter – 7 शरीर – क्रियाविज्ञान तथा खेल संबंधी चोटें (Physiology and Injuries in Sports) Notes In Hindi

NCERT Solutions Class 12th Physical Education Chapter – 7 शरीर – क्रियाविज्ञान तथा खेल संबंधी चोटें (Physiology and Injuries in Sports)

TextbookNCERT
classClass – 12th
SubjectPhysical Education
ChapterChapter – 7
Chapter Nameशरीर – क्रियाविज्ञान तथा खेल संबंधी चोटें
CategoryClass 12th Physical Education Notes In Hindi
Medium Hindi
SourceLast Doubt

NCERT Solutions Class 12th Physical Education Chapter – 7 शरीर क्रिया विज्ञान एवं खेलों में चोटें (Physiology and Injuries in Sports)

Chapter – 7

शरीर – क्रियाविज्ञान तथा खेल संबंधी चोटें

Notes

भूमिका (Introduction) – वह विज्ञान जिसके अंतर्गत शरीर की समस्त क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है, शरीर क्रिया विज्ञान कहलाता है। खेलकूद के क्षेत्र में खिलाड़ियों के शरीर के विभिन्न अंगों तंत्रों की कार्य प्रणाली का अध्ययन अत्यंत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि खिलाड़ी का प्रदर्शन उसकी शारीरिक पुष्टि पर ही निर्भर करता है। शरीर के विभिन्न अंग मिलकर कई तंत्रों, जैसे कि रक्त परिसंचरण तंत्र, श्वसन तंत्र, मांसपेशीय तंत्र तथा तंत्रिका तंत्र इत्यादि का निर्माण करते हैं। मनुष्य की कार्यक्षमता इन तंत्रों की कार्यक्षमता पर ही निर्भर करती है।

शारीरिक पुष्टि के घटकों को निर्धारित करने वाले शरीर-क्रियात्मक कारक (Physiological Factors Determining the Components of Physical Fitness) – शारीरिक स्वस्थता का तात्पर्य किसी खिलाड़ी की उस क्षमता से है जो वह अपने द्वारा चुने गए खेल-कूद के लिए अनिवार्य तथा विभिन्न शारीरिक मांगों को बिना थके पूरा करता है। कोई खिलाड़ी शारीरिक रूप से तभी स्वस्थ कहा जा सकता है यदि वह शारीरिक, शरीर-क्रियात्मक और संवेगात्मक रूप से सक्षम हो। शक्ति (Strength), गति (Speed), सहन क्षमता (Endurance) तथा लचक (Flexibility) किसी व्यक्ति की शारीरिक पुष्टि को निर्धारित करने वाले महत्त्वपूर्ण घटक है।

शारीरिक पुष्टि के घटक

  • शक्ति
    (Strength)
  • गति
    (Speed)
  • सहन क्षमता
    (Endurance)
  • लचक
    (Flexiblity)

हर व्यक्ति की शक्ति, गति, लचक तथा सहनशक्ति का अपना एक स्तर होता है, जो दूसरों से भिन्न होता है। वस्तुतः कुछ शरीर क्रियात्मक कारक (Physiological Factors) ऐसे होते हैं जो हर व्यक्ति के शरीर की शक्ति, गति, सहन-क्षमता तथा लचक के स्तर को निर्धारित करते हैं। शारीरिक क्षमता के विभिन्न घटकों को निर्धारित करने वाले प्रमुख शरीर-क्रियात्मक कारकों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है

1. शक्ति को निर्धारित करने वाले शरीर क्रियात्मक कारक (Physiological Factors Determining Srength) – किसी व्यक्ति की शारीरिक शक्ति निम्न कारकों पर निर्भर करती है, जैसे कि

(a) शारीरिक भार (Body weight) – अधिक शारीरिक भार वाले व्यक्ति के शरीर की मांसपेशीय द्रव्यमान अधिक होता है, मांस वाले व्यक्ति पतले व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होते हैं इसी कारण भार उत्तोलन जैसे खेलों में अधिक शारीरिक भार को संभालने के लिए चर्बी भी अधिक होती है। हड्डियां भारी तथा संयोजी उत्तक भी मजबूत होते है। इसी लिए अधिक शारीरिक खिलाड़ी ही भाग लेते हैं।

(b) मांसपेशियों का आकार (Size of muscles) – जिन व्यक्तियों की मांसपेशियों का आकार (लंबाई तथा चौड़ाई) बड़ा होता है, वह शक्ति उत्पन्न कर सकते हैं। अतः बड़ी मांसपेशियों वाले व्यक्ति अधिक शक्तिशाली होते हैं। इसी कारण पुरुष महिलाओं की अधिक शक्तिशाली होते हैं क्योंकि उनकी मांसपेशियाँ महिलाओं की अपेक्षा अधिक बड़ी होती हैं।

(c) मांसपेशियों की संरचना (Structure of muscles) – हमारी सभी मांसपेशियां श्वेत तथा लाल फाईबर की बनी होती हैं। जिन मांस में श्वेत फाईबर की प्रतिशतता अधिक होती है, वह लाल फाईबर वाली मांसपेशियों की अपेक्षा तेजी से सिकुड़ सकती हैं इसलिए अधिक शक्ति उत्पन्न कर पाती हैं। जबकि जिन मासपेशियों में लाल फाइबर की प्रतिशतता अधिक होती करने में सक्क्षम होती है अर्थात् उनकी सहनक्षमता अधिक होती है। वह अधिक समय तक कार्य करने में सक्क्षम होती है अर्थात् उनकी सहनक्षमता अधिक होती है।

(d) गामक इकाईयों की संख्या (Number of motor units) – प्रत्येक मांसपेशी बहुत-सी गामक इकाईयों से मिलकर बनी हो मांसपेशियों को शक्ति इन्हीं गामक इकाईयों की संख्या पर निर्भर करती है। जिन मांसपेशियों में यह गामक इकाईयाँ अधिक होती है तीव्र तंत्रिका आवेग के कारण अधिक मांसपेशीय बल अर्थात् शक्ति उत्पन्न कर पाती हैं।

2. गति को निर्धारित करने वाले शरीर क्रियात्मक कारक (Physiological Factors Determining Speed) – किसी व्यक्ति की गति निम्न कारकों पर निर्भर करती है, जैसे कि-

(a) स्नायु संस्थान की गतिशीलता (Mobility of nervous system) – जब कोई व्यक्ति बहुत तेजी से दौड़ता हैं तो उसकी मांसपेशित भी तेज गति से संकुचित तथा शिथिल (Contarction and Expansion) होती हैं। मांसपेशियों के इसी संकुचन तथा शिथिलन को संस्थान की गतिशीलता कहा जाता है। स्नायु संस्थान की यह तीव्र उद्दीपन तथा प्रावरोधन केवल कुछ ही समय (सेकंडों) के लिए होत है और उसके बाद गति में कमी आने लगती है।

(b) मांसपेशीय संरचना (Structure of muscles) – जिन मांसपेशियों में श्वेत फाईबर की प्रतिशतता अधिक होती है, वह लाल फाईबर वाले मांसपेशियों की अपेक्षा तेजी से सिकुड़ सकती हैं इसलिए वह अधिक गति उत्पन्न कर पाती हैं हमारे शरीर की विभिन्न मांसपेशिय में तीव्र गति से संकुचन करने वाले श्वेत फाईबर की प्रतिशतता अलग-अलग होती है। इसी कारण शरीर के विभिन्न अंगों की गति का निष्पादन भी अलग-अलग होता है।

(c) विस्फोटक शक्ति (Explosive strength) – किसी भी तीव्र शारीरिक गतिविधि के लिए व्यक्ति में शक्ति विशेषकर विस्फोटक शका होना अनिवार्य है अन्यथा उसकी शारीरिक गतिविधियों में अपेक्षित गति नहीं आती। उदाहरण के लिए, मुक्केबाजी के दौरान यादी किसी मुक्केबाज में विस्फोटक शक्ति की कमी हो तो वह अपने प्रतिद्वंद्वी पर अपेक्षाकृत तेजी से प्रहार नहीं कर पाएगा।

(d) लचक (Flexibility) – लचक के द्वारा व्यक्ति की गति की सीमा में वृद्धि होती है। लचकदार शरीर वाले व्यक्ति जब कोई गति संबंध कार्य करते हैं, तो उनकी मांसपेशियों में तनाव कम होता है जिसके फलस्वरूप उनकी ऊर्जा की भी बचत होती है।

(e) उपाच्व्य शक्ति (Metabolic strength) – तीव्र गति से कार्य करने के लिए मांसपेशियों को अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती हैं, और यदि व्यक्ति की उपाच्व्य शक्ति कम हो तो मांसपेशियों में एडिनोसिन ट्राई फॉस्फेट (ATP) तथा क्रिएटिन फॉस्फेट (CP) की मात्रा कर हो जाती है जिसके कारण मांसपेशियों को तीव्र गति से काम करने के लिए आवश्यक ऊर्जा की प्राप्ति नहीं हो पाती है। इससे भी शारीरिक गतियों में कमी आती है।

3. सहन-शक्ति या सहन क्षमता निर्धारित करने वाले शरीर क्रियात्मक कारक (Physiological Factors Determining Endurance) – किसी व्यक्ति की सहन क्षमता निम्न कारकों पर निर्भर करती है, जैसे कि

(a) ऐरोबिक क्षमता (Aerobic capacity) – किसी भी शारीरिक गतिविधि को निरंतर रूप से करते रहने के लिए मांसपेशियों को मिले ऊर्जा की आवश्यकता होती है। मांसपेशियों की ऊर्जा की इस निरंतर आवश्यकता को केवल ऑक्सीजन की उपस्थिति में ही पूरा किया जा सकता है। इसलिए व्यक्तियों की सहन-शक्ति की क्षमता उनकी ऐरोबिक (साँस लेना तथा छोड़ना) क्षमता पर निर्भर करती है। व्यक्ति की ऐरोबिक क्षमता निम्न कारकों पर निर्भर करती है।

(i)ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता (Capacity of oxygen intake) – हमारे फेफड़े वातावरण से ऑक्सीजन ग्रहण करते है। फेफड़े जितनी अधिक मात्रा में ऑक्सीजन ग्रहण करते है खिलाड़ी उतना ही अधिक Vo, max प्राप्त करता है। VO, max जितना अधिक होगा खिलाड़ी की ऐरोबिक क्षमता उतनी अधिक होगी। किसी खिलाड़ी द्वारा ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता उसके फेफड़ों, के आकार, सक्रिय वायु कोष्ठिकाओं की संख्या, श्वसन मांसपेशियों की शक्ति तथा छाती की गुहिका के आकार इत्यादि पर निर्भर करती है।

(ii) ऑक्सीजन का परिवहन (Transportation of oxygen) – फेफड़ों से रक्त में अवशोषित ऑक्सीजन को कार्यरत मांसपेशियों तक ले जाया जाता है। रक्त द्वारा ऑक्सीजन का परिवहन जितना बेहतर होगा खिलाड़ी की एरोबिक क्षमता उतनी बेहतर होती जाती है। ऑक्सीजनयुक्त रक्त का प्रवाह हृदय की क्षमता पर निर्भर करता है। इस क्षमता में प्रशिक्षण द्वारा सुधार किया जा सकता है। परिणामस्वरूप एरोबिक क्षमता में वृद्धि होती है।

(iii) ऑक्सीजन का उपयोग (Oxygen consumption) – ऑक्सीजन का उपयोग अर्थात् ऑक्सीजन की वह मात्रा जो रक्त में से शरीर में कार्यरत मांसपेशियों द्वारा अवशोषित तथा उपयोग की जा सकती है। मांसपेशियों द्वारा ऑक्सीजन का जितना अधिक उपयोग किया जाएगा उतना अधिक खिलाड़ी की एरोबिक क्षमता में सुधार आएगा।

(iv) ऊर्जा भंडार (Energy reserves) – एरोबिक क्षमता मांसपेशीय ग्लाइकोजेन तथा रक्त में शुगर के स्तर पर निर्भर करती है। यदि मांसपेशीय ग्लाइकोजेन स्तर एक निश्चित स्तर से नीचे आ जाता है तो थकान अनुभव होती है। लंबी अवधि के क्रियाकलापों या क्रियाओं हेतु मांसपेशीय ग्लाइकोजेन तथा यकृत ग्लाइकोजेन का भंडार होना आवश्यक है।

(b) लैक्टिक अम्ल की सहनशीलता (Lactic acid tolerance) – तीव्र शारीरिक गतिविधियों के दौरान शरीर में लैक्टिक अम्ल का निर्माण होता है। यदि व्यक्ति में लैक्टिक अम्ल को सहन करने की क्षमता न हो तो वह शारीरिक गतिविधियों की निरंतर तीव्रता को अधिक समय तक जारी नहीं रख पाएगा। इस कारण उसमें सहन-शक्ति का विकास नहीं हो पाएगा।

(c) मितव्यय गतिविधि तकनीक (Economical moves) – मितव्यय ढंग से की गई शारीरिक गतिविधियों के कारण ऊर्जा की कम खपत होती है। इसी कारण किसी भी गतिविधि को लम्बे समय तक जारी रखा जा सकता है। इससे व्यक्ति की सहन क्षमता में भी वृद्धि होती है।

(d) मांसपेशीय संरचना (Structure of muscles) – जिन व्यक्तियों की मांसपेशियों में लाल फाईबर की प्रतिशतता अधिक होती हैं, उनमें अधिक सहन-शक्ति वाले क्रियाकलापों की क्षमता अधिक पाई जाती है, जैसे कि मैराथन धावकों की टाँगों में 90% से भी अधिक लाल फाईबर पाई जाती है।

4. लचक को निर्धारित करने वाले शरीर क्रियात्मक कारक (Physiological Factors Determining Flexibility) – किसी व्यक्ति की लचक निम्न कारकों पर निर्भर करती है, जैसे कि-

(a) मांसपेशीय शक्ति (Muscle strength) – अधिक मांसपेशीय शक्ति के कारण लचक में वृद्धि होती है। जबकि कमजोर मांसपेशियों वाले व्यक्ति अधिक विस्तार (Extra range) वाली गतिविधियाँ करने में सक्षम नहीं होते।

(b) जोड़ों की बनावट (Structure of joints) – मानव शरीर में विभिन्न प्रकार के जोड़ होते हैं। प्रत्येक प्रकार के जोड़ों में दूसरे जोड़ों की अपेक्षा कम या अधिक गतियाँ करने की क्षमता प्राकृतिक रूप से ही पाई जाती हैं, जैसे कि- कंधे में पाए जाने वाले ‘बॉल एवं सॉकेट’ जोड़ की. घुटने के जोड़ की अपेक्षा गति करने की सीमा कहीं अधिक होती है।

(c) आयु तथा लिंग (Age and gender) – आमतौर पर आयु में वृद्धि के अनुरूपं लचक में कमी आती है। वहीं महिलाओं में उसी उम्र के पुरुषों की अपेक्षा अधिक लचक पाई जाती है।

(d) मांसपेशीय खिंचाव (Stretchability of muscles) – नियमित रूप से शारीरिक गतिविधि न करने के कारण मांसपेशियाँ छोटी होती जाती हैं, जिसके कारण जोड़ों का विस्तार (Range of movement) भी सीमित होता जाता है। इससे व्यक्ति की लचक में कमी आती है।

(e) वातावरण ( Environment) – अधिक तापमान / गर्म वातावरण में रहने से व्यक्ति की लचक में वृद्धि होती है जबकि कम तापमान ठण्डे वातावरण में रहने से व्यक्ति की लचक में कमी आती है। इसलिए खेलों या व्यायाम से पहले शरीर को गर्माया जाता है।

(f) चोट (Injury) – ऊतकों अथवा मांसपेशीय चोटों के कारण भी लचक में कमी आती है। हालाँकि चोट ठीक होने के बाद विभिन्न व्यायामों द्वारा पहले जैसी लचक पुनः प्राप्त की जा सकती है।

हृदयवाहिका तंत्र पर व्यायाम के प्रभाव (Effects of Exercise on Cardio-Vascular System) – हृदयवाहिका तंत्र के अंतर्गत हृदय, एक शक्तिशाली पम्पे की तरह कार्य करता है। तथा रक्त को रक्तवाहिकाओं के माध्यम से शरीर के विभिन्न अंगों में पहुँचाता है। रक्तवाहिकाएँ जैसे- धमनियां (arteries), कोशिकाएँ (Capillaries) तथा शिराएँ (Veins) पूरे शरीर में जाल की भांति फैली होती है। धमनियों हृदय से ऑक्सीजन युक्त रक्त ले जाती है। धमनियाँ कोशिकाओं में विभाजित होती है। शरीर के विभिन्न अंगों से अशुद्ध रक्त शिराओं में भेज दिया जाता है। शिराएं अशुद्ध रक्त को शुद्धिकरण के लिए फेफड़ों में भेज देती है। इस प्रकार हृदय दो कार्य करता है

1. रक्त का सारे शरीर में प्रवाह करना जिसे हम दैहिक परिसंचरण (Systematic Circulation) कहते हैं।
2. रक्त को फेफड़ों में शुद्ध करने के लिए भेजना जिसे हम फुफ्फसी परिसंचरण (Pulmonary Circulation) कहते हैं

ये दोनों कार्य हृदय के बाँए तथा दाएँ भागों द्वारा पूरे किये जाते हैं। – व्यायाम के दौरान ऊर्जा की बढ़ी हुई मांग की पूर्ति के लिए हृदयवाहिका तंत्र को अधिक तेजी से कार्य करना पड़ता है। हृदयवाहिका संस्थान मांसपेशियों को ऑक्सीजन की आपूर्ति करने के अतिरिक्त ऑक्सीजन युक्त रक्त को फेफड़ों में लेकर जाता है तथा शरीर के क्रियाशील ऊतकों को ईंधन (पोषक तत्त्वों तथा ऑक्सीजन) की आपूर्ति करता है। हृदयवाहिका तंत्र पर व्यायाम के प्रभावों का दो प्रकार से अध्ययन किया जा सकता है-

1. व्यायाम के तात्कालिक प्रभाव (Immediate Effects of Exercises) – नियमित व्यायाम करने से हृदय-वाहिका तंत्र पर तात्कालिक (Immediate) प्रभाव पड़ते हैं। जैसे कि

(a) हृदय गति में कमी (Decrease in heart rate) – सामान्य तौर पर मनुष्य का हृदय आराम की दशा में लगभग 72 बार प्रति मिनट धड़कना है, जबकि एक खिलाड़ी की हृदय गति 28 से 40 धड़कन प्रति मिनट तक होती है। नियमित रूप से व्यायाम के परिणामस्वरूप हृदय इतना कार्यकुशल हो जाता है कि केवल 42 बार प्रति मिनट धड़कने से भी सारे शरीर की मांसपेशियों में रक्त की पूर्ति कर देता है। इससे ऊर्जा का कम ह्रास होता है।

(b) स्ट्रोक आयतन में वृद्धि (Increase in stroke volume) – व्यायाम की तीव्रता तथा अवधि के बढ़ने के अनुरूप ही प्रत्येक धड़कन पर हृदय के बाएँ निलय से निकलने वाले रक्त की मात्रा (स्ट्रोक आयतन) में वृद्धि होती है। एक सामान्य व्यक्ति की विश्राम की अवस्था में स्ट्रोक आयतन 50 से 70 मि०ली० प्रति धड़कन रहता है, जबकि तीव्रता वाले व्यायाम के समय यह 110 से 150 मि॰ली॰ प्रति धड़कन तक बढ़ जाती है। अतः नियमित रूप से व्यायाम करने से स्ट्रोक आयतन में वृद्धि होती है।

(c) कार्डिएक आउटपुट में वृद्धि (Increase in cardiac output) – व्यायाम की तीव्रता तथा अवधि के अनुरूप ही हृदय द्वारा प्रति मिनट पम्प किए गए रक्त की मात्रा (कार्डिएक आउटपुट) में भी वृद्धि होती है। विश्राम की अवस्था में एक सामान्य व्यक्ति का कार्डिएक आउटपुट लगभग 5 लीटर/मिनट होता है जो तीव्र व्यायाम के समय बढ़कर 20 से 40 लीटर/मिनट तक हो जाता है।

(d) रक्त प्रवाह में वृद्धि (Increase in blood flow) – व्यायाम के कारण हृदय-वाहिका संस्थान उन ऊतकों को रक्त की आपूर्ति बढ़ा देता है जिन्हें ऑक्सीजन की तत्काल आवश्यकता होती है तथा उन ऊतकों को कम रक्त वितरित करता है जिन्हें उस समय कम ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है।

व्यायाम का मांसपेशीय तंत्र पर प्रभाव (Effects of Exercises on Muscular System) – जैसा कि हम जानते है कि मांसपेशियों के संकुचन और प्रसरण (Contraction and Expansion) से ही सारी शारीरिक गतिविधियों पाती है। शरीर का केन्द्रिय स्नायु संस्थान (Central Nervous System) शारीरिक गतिविधि के लिए आदेश देता है। आदेश प्राप्त ह मांसपेशियाँ न केवल शरीर में गतिविधियाँ उत्पन्न करती है। बल्कि विभिन्न आन्तरिक अवयवों की रक्षा भी करती है। मानव-शरीर कुल भार का अनुमानतः 45 प्रतिशत भाग मांसपेशियों के कारण ही होता है। व्यायाम करने से मनुष्य के मांसपेशीय तंत्र पर कई प्रभाव प परंतु यह प्रभाव केवल तभी महसूस किए जा सकते है जब व्यक्ति नियमित रूप से व्यायाम करें।

मांसपेशीय तंत्र पर नियमित व्यायाम के निम्न प्रभाव पड़ते हैं

(a) मांसपेशियों के आकार में वृद्धि (Increase in size of muscles) – नियमित रूप से व्यायाम करने से मांसपेशियों की कॉलिक का आकार बढ़ जाता है जिसके कारण मांसपेशियों की आकृति में भी परिवर्तन आता है।

(b) नई कोशिकाओं का निर्माण (Formation of new capillaries) – नियमित रूप से व्यायाम करने के कारण नई कोशिकाओं के होने लगता है जिससे रक्त संचार संस्थान की कार्यकुशलता में भी वृद्धि होती है।

(c) मांसपेशियों का अर्ध-तनाव की स्थिति में रहना (Muscles remain in tone position) – अर्ध-तनाव की स्थिति वह स्थिति है जिसमें मांसपेशियाँ कुछ हद तक संकुचित अवस्था अर्थात् कार्य के लिए तैयार स्थिति में रहती है। नियमित व्यायाम न करने से मांस की संकुचित अवस्था धीरे-धीरे खत्म होने लगती है जिसके कारण मांसपेशियों की कार्यकुशलता एवं सुरक्षा में कमी आती है।

(d) अतिरिक्त वसा में कमी (Reduction in extra fat) – नियमित रूप से व्यायाम करने से मांसपेशियों की अतिरिक्त वसा कम होती हैं।

(e) संयोजक ऊतकों की मजबूती में वृद्धि (Increase in strength of connective tissues) – नियमित रूप से व्यायाम करते संयोजक ऊतकों को आपस में जोड़ने वाले धागों की खिंचाव की क्षमता में वृद्धि होती है। इस कारण संयोजक ऊतक और अधिक सहन करने में सक्क्षम हो जाते है अर्थात् अधिक शक्तिशाली हो जाते है।

(f) मांसपेशीय गति में कुशलता (Efficiency in muscle movements) – नियमित रूप से व्यायाम करने से मांसपेशीय गति में कुश्त आती है जिसके कारण मांसपेशीय गति और अधिक आकर्षक लगने लगती है।

(g) देर से थकना (Delay in fatigue) – नियमित रूप से व्यायाम करने से शरीर में थकान उत्पन्न करने वाले तत्व जैसे कि कार्बन डाईऑक्साइड, लैक्टिक अम्ल तथा ऐसिड फास्फेट का जमाव घटते लगने लगता है। शरीर में इन तत्वों के जमाव में कर्म में कारण व्यक्ति बिना थके देर तक काम करने में सक्क्षम हो जाता है।

(i) शरीर की आकृति में सुधार (Enhances body figure) – नियमित रूप से व्यायाम करने के कारण व्यक्ति की मांसपेशियों को आकृति धीरे-धीरे सुडौल होती जाती है। मांसपेशियों की सुडौल आकृति के कारण ही व्यक्ति शारीरिक आकृति अधिक आकर्षक दिखने लग है। इसी कारण कई फिल्मी हस्तियाँ तथा कलाकार लम्बे समय तक आकर्षक दिखने के लिए नियमित रूप से व्यायाम करते हैं।

(j) रेशो की सक्रियता में वृद्धि (Increase in Activeness of fibres) – नियमित व्यायाम करने के कारण शरीर के सक्रिय रेश साथ-साथ असक्रिय रेशे भी कार्य करने लगते है। इसी कारण नियमित रूप से व्यायाम करने वाले व्यक्ति अधिक शक्तिशाली होते है

(k) उचित शारीरिक मुद्रा (Correct body posture) – नियमित रूप से व्यायाम करने से मासपेशियाँ मजबूत होती है। मजबूत मांस के कारण विभिन्न प्रकार के आसन संबंधी विकार होने की संभावना नहीं रहती तथा शरीर का आसन भी उचित बना रहता है।

(l) प्रतिक्रिया समय में सुधार (Improves reaction time) – नियमित रूप से व्यायाम के कारण तत्रिका आवेगों की प्रति में वृद्ध है जिसके कारण व्यक्ति के प्रतिक्रिया समय में सुधार आता है।

(a) टाइडल घनफल (Tidal volume) – टाइडल घनफल, वायु की वह मात्रा होती है जो सामान्य स्थिति में फेफड़ों के अंदर अथवा बाहर छोड़ी जाती है।

(b) फेफड़ों की क्षमता (Vital capacity) – फेफड़ों की क्षमता का तात्पर्य वायु की उस अधिकतम मात्रा से है जो पूर्ण रूप से श्वास अंदर खींचने के पश्चात बाहर निकाली जाती हैं। फेफड़ों की यह क्षमता स्पाइरोमीटर नामक यंत्र से मापी जा सकती है।

(c) अवशिष्ट घनफल (Residual volume) – अवशिष्ट घनफल का तात्पर्य वायु की उस मात्रा से है जो अधिकतम साँस छोड़ने के बाद फेफड़ों में शेष रह जाती है।

(d) दूसरा श्वास (Second wind) – तीव्र प्रशिक्षण अथवा खेलों के दौरान एक समय ऐसा भी आता है जब खिलाड़ी को साँस लेने में तकलीफ होने लगती है। यदि खिलाड़ी ऐसी स्थिति में भी प्रयास जारी रखे तो वह इस संघर्षपूर्ण स्थिति से निकलकर सामान्य रूप से साँस लेने लगता है। इसे दूसरा श्वास भी कहते हैं। सरल शब्दों में, इसे खिलाड़ी द्वारा पुनः शक्ति प्राप्त करना भी कहा जा सकता है।

(e) मिनट घनफल (Minute volume) – मिनट घनफल का तात्पर्य वायु की उस मात्रा से है जो प्रति मिनट फेफड़ों के अंदर अथवा बाहर छोड़ी जाती है।

नियमित रूप से व्यायाम करने से श्वसन तंत्र पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ते हैं-

(a) इच्छा शक्ति की वृढ़ता (Will power becomes strong) – नियमित रूप से व्यायाम करने से, विशेष रूप से प्राणायाम जैसे व्यायाम करने से व्यक्ति की इच्छा-शक्ति और दृढ़ होती जाती है।

(b) टाइडल वायु की मात्रा में वृद्धि (Increase in tidal air) – नियमित रूप से व्यायाम करने से श्वसन क्रिया के दौरान अंदर ले जाने वाली तथा बाहर छोड़ने वाली वायु (टाइडल वायु) की मात्रा में वृद्धि होती है। इस कारण शरीर को अधिक ऑक्सीजन प्राप्त होती है।

(c) श्वसन क्रिया दर में कमी (Decrease in respiration rate) – कोई भी व्यक्ति जब पहली बार व्यायाम करता है तो उसकी श्वसन क्रिया की दर एकाएक बढ़ जाती है। हालांकि नियमित रूप से व्यायाम करते रहने से कुछ समय बाद श्वसन क्रिया की दर में आराम की अवस्था में पहले की अपेक्षा कमी आती है।

(d) श्वसन तंत्र की मांसपेशियों की मजबूती (Strengthens respiratiory organs) – नियमित रूप से व्यायाम करने के कारण डायाफ्राम तथा छाती की मांसपेशियाँ अधिक मजबूत होती हैं।

(e) अवशिष्ट वायु की मात्रा में वृद्धि (Increase in residual volume) – नियमित रूप से व्यायाम के कारण अवशिष्ट वायु (वायु की वह मात्रा जो स्वास्थ्य भार निकालने के बाद भी फेफड़ों में रह जाती है) की मात्रा में वृद्धि होती है।

(f) श्वसन अंगों के आकार में वृद्धि (Increase in size of respiratory organs) – नियमित रूप से व्यायाम करने के कारण ऑक्सीजन की आवश्यकता बढ़ जाती है। जिसकी पूर्ति के लिए अधिक श्वास लेना तथा छोड़ना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप फेफड़ों तथा छाती का भी व्यायाम होता रहता है, जिसके कारण उनके आकार में वृद्धि हो जाती है।

(g) श्वसन संबंधी रोगों में कमी (Less chance of respiratory diseases) – नियमित रूप से व्यायाम न करने से व्यक्ति के फेफड़ें कम क्रियाशील हो जाते हैं जिसके कारण उनमें व्यर्थ के पदार्थ जमने लगते हैं और धीरे-धीरे फेफड़े खराब हो जाते हैं। जबकि नियमित रूप से व्यायाम करने से फेफड़ों के अंदर किसी प्रकार के व्यर्थ पदार्थ एकत्र नहीं हो पाते। अतः हम कह सकते हैं कि नियमित रूप से व्यायाम करने से फेफड़े तथा श्वसन संबंधी रोगों से भी बचा जा सकता है।

(h) वायु की मात्रा में वृद्धि (Increase in vital air intake) – नियमित व्यायाम के कारण श्वसन अंगों के आकार में वृद्धि होती है जिसके कारण व्यक्ति की हर श्वास द्वारा ग्रहण की गई वायु की मात्रा में भी वृद्धि होती है।

(i) वायु कोष्ठिकाओं की सक्रियता में वृद्धि (Increase in activeness of alveoles) – व्यायाम के दौरान अधिक ऑक्सीजन की आवश्यकता की पूर्ति के लिए असक्रिय वायु-कोष्ठिकाएँ भी पुनः सक्रिय हो जाती हैं। जिसके कारण श्वसन संस्थान की कार्यक्षमता में और अधिक कुशलता आती है।

(j) सहनक्षमता में वृद्धि (Increase in endurance) – नियमित रूप से लंबे समय तक व्यायाम करने से व्यक्ति की सहन-शक्ति में वृद्धि होती है। अधिक सहनक्षमता के कारण ही व्यक्ति बिना थके लंबे समय तक कार्य कर पाता है। शरीर क्रियाविज्ञान तथा खेल संबंधी चोटें

खेल संबंधी चोटें (Sport Injuries) – खेल-कूद के क्षेत्र में खेल चोटों का होना सामान्य बात है। कोई भी खिलाड़ी अभ्यास, प्रशिक्षण या स्पर्धा के दौरान चोटग्रस्त हो सकता है। शायद ही कोई ऐसा खिलाड़ी होगा जो अपने खेल जीवन में चोटग्रस्त न हुआ हो। वास्तव में, चोट लगना स्वाभाविक है। आजकल प्रशिक्षक तथा खेलों से सम्बन्धित डॉक्टर खेलं चोटों से बचाव के लिए कई प्रयास कर रहे हैं, लेकिन उनके कठिन प्रयासों के बावजूद वे अभी तक खेल-चोटों की संभावनाओं को पूरी तरह से खत्म नहीं कर पाए है। हालांकि यह निश्चित है कि यदि खेलों के दौरान उचित कदम उठाए जाएँ तो खेल-चोटों को कम आवश्यक किया जा सकता है।

खेल चोटों के कारण (Causes of Sports Injuries) – खेलों के दौरान चोट लगने के कई कारण हो सकते है जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं

1.अपर्याप्त अनुकूलन (Inadequate conditioning) – यदि अभ्यास सत्र के दौरान पर्याप्त अनुकूलन नहीं करता तो उसका शरीर पूरी तरह उस खेल के लिए अभ्यस्त नहीं होता, जिसके कारण खेल के दौरान चोट लगने की संभावना काफी बढ़ जाती है।

2.अपर्याप्त गर्माना (Inadequate warming up) – परीक्षण या प्रतियोगिता से पहले शरीर को पर्याप्त रूप से गर्मा लेना चाहिए क्योंकि गम के फलस्वरूप खिलाड़ी की मांसपेशियाँ अर्धतनाव (tone up) की अवस्था में रहती हैं, जिससे प्रायः चोटों से बचा जा सकता है। उचित वार्मिंग अप की अनुपस्थिति में मांसपेशियाँ ढीली रहती हैं, जिसके कारण मांसपेशीय खिंचाव (strain) हो सकता है।

3. प्रशिक्षण का अवैज्ञानिक विधि (Unscientific method of training) – खिलाड़ी को खेल के अनुरूप वैज्ञानिक प्रशिक्षण विधि (scientif training method) के विषय में पूरा ज्ञान होना चाहिए। इसके अतिरिक्त उसे overtraining तथा undertraining के विषय में भी पूरी जानकारी होनी चाहिए। वैज्ञानिक(scientific) नियमों की जानकारी के अभाव के कारण खिलाड़ी को चोट लगने का खतरा हमेशा बना रहता है।

4. पुष्टि की कमी (Lack of fitness) – यदि खिलाड़ी शारीरिक, शारीरिक क्रियात्मक तथा मनोवैज्ञानिक रूप से पुष्ट (fit) नहीं है तो उसे खेलों अथवा प्रशिक्षण के दौरान कभी भी चोटें लगने की संभावना हर समय बनी रहती है। किसी ने सही कहा है कि- An unfit individual is more prone to injuries in the field of sports.

5. पोषक तत्वों की कमी (Lack of nutritional elements) – भोजन में पोषक तत्वों की कमी के कारण भी खिलाड़ियों को चोट लग सकती है। जैसे कि- यदि खिलाड़ियाँ भोजन में कम कैल्शियम (calcium) तथा फॉसफोरस (phosphorus) युक्त आहार लेता है तो शरीर में इनकी कमी के कारण खेल या प्रशिक्षण के दौरान गिरने या टकराने से अस्थि भंग (fracture) होने की संभावना बनी रहती है।

6. खेल सुविधाओं की कमी (Lack of sports facilities) – उचित खेल सुविधाओं तथा खेल चोटों का एक दूसरे से बहुत गहरा संबंध है। खेल सुविधाओं में कमी के कारण खेल के दौरान चोट लगने की संभावना कई गुणा अधिक बढ़ जाती है। जैसे कि- यदि दौड़ के दौरान ट्रैक समतल न हो तो दौड़ते हुए खिलाड़ी गिर भी सकते है। इससे इनको विभिन्न प्रकार की चोटें लग सकती है। इसके अतिरिक्त खेल उपकरणं का अच्छी गुणवत्ता का होना भी जरूरी है।

7. खेल का गलत संचालन (Injudicious officiating) – किसी भी प्रतियोगिता के दौरान यदि आयोजक, अंपायर या रेफरी खेलों का संचालन नियमों के अनुरूप नहीं करते या फिर किसी एक टीम से भेदभाव करते है तो ऐसे में खिलाड़ी खेल नियमों का सही ढंग से पालन नहीं करते जिसके कारण दूसरे खिलाड़ियों को चोट लगने की संभावना बढ़ जाती है।

8. सुरक्षात्मक उपकरणों का प्रयोग न करना (Not using protective equipments) – खेल अथवा अभ्यास के दौरान का प्रयोग न करने से चोट लगने की संभावना बहुत अधिक होती है। मनुष्य के कई अंग इतने कोमल होते हैं कि जरा सी असावधानी से लगी चोट बहुत घातक सिद्ध हो सकती है। जैसे कि- भारतीय क्रिकेटर रमन लाम्बा की खेल के दौरान हेलमेट न पहनने के कारण चोट की वजह से उनकी मृत्यु हो गई थी।

9. थकावट के बावजूद अभ्यास करना (Practice during fatigue) – जब कोई खिलाड़ी थकान के बावजूद अभ्यास जारी रखता है तो ऐसे में खिलाड़ी की गतिविधियाँ अपेक्षाकृत कुशल नहीं रहती तथा उसकी पूर्वाभास शक्ति भी कम हो जाती है। यदि खिलाड़ी किसी स्थिति का पूर्वाभास नहीं कर पाता तो ऐसे में उसे चोट लगने की संभावना बढ़ जाती है।

10. प्रदर्शन का दबाव (Pressure to performe) – अक्सर प्रतियोगिता के दौरान खिलाड़ियों पर बेहतर प्रदर्शन का दबाव बना रहता है। यह दबाव तब और भी बढ़ जाता है जब प्रतियोगिता अंतर्राष्ट्रीय स्तर की हो क्योंकि ऐसे में देश का गौरव खिलाड़ी के प्रदर्शन पर निर्भर करता है। ऐसे में यदि खिलाड़ी दबाव में आकर अपनी क्षमता के अधिक प्रयास करता है तो चोट लगने की संभावना बढ़ जाती है।

11.चोट की पुनरावृत्ति (Recurrence of injury) – यदि कोई खिलाड़ी किसी चोट से बिना पूरी तरह उबरे दोबारा से खेलों में भाग लेना शुरू कर दे तो ऐसे में उसी चोट की पुनरावृत्ति की संभावना बढ़ जाती है।

12. अनुचित खेल उपकरण (Improper sports equipments ) – कई बार अनुचित खेल उपकरणों के कारण चोट लग सकती है जैसे कि यदि कोई धावक अपने पैरो के नाप से थोड़े बड़े जूतों के साथ दौड़ लगाता है तो ऐसे में उसे चोट लगने की संभावना बन जाती है।

13. मांसपेशियों का अत्यधिक प्रयोग (Overuse of muscles) – मांसपेशियों का अत्यधिक प्रयोग अथवा पुनरावृत्ति भी खेल चोटों का एक मुख्य कारण है। कई बार देखा गया है कि धावक, तैराक तथा टैनिस के खिलाड़ी प्रायः ऐसी चोटों के शिकार होते हैं जिनका कारण बार-बार पुनरावृत्ति (Repetition) करना होता है। इन खेलों में प्राय: टेनिस एलबो (Tennis elbow), टेंडनाइटिस (Tendinitis), कंधे की भिड़ंत (Shoulder impingement) व Shin splints आदि चोटें लगने का खतरा अधिक होता है।

14. खेल के दौरान लापरवाही (Carelessness during the game) – खेल के दौरान, कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं जब खिलाड़ी सजग व सचेत रहने की अपेक्षा खेल के प्रति असावधान व लापरवाह हो जाते हैं। खेल के दौरान लापरवाही के कारण चोट लगने की संभावना सबसे अधिक होती है।

खेल चोटों का वर्गीकरण (Classification of Sports Injuries) – खेलों के दौरान लगने वाली चोटों को मुख्यतः दो भागों में वर्गीकृत किया गया है। जैसे कि-

(a) बाहरी चोटें (External injuries) – ये चोटे बाहरी कारक, जैसे- अनुपयुक्त खेल सामग्री/उपकरण, अव्यवस्थित खेल-क्षेत्र/सतह/कोर्ट आदि, सुरक्षा उपकरणों का उपयोग न करने तथा खिलाड़ियों द्वारा खेली जाने वाली गलत खेल तकनीकों के कारण लग सकती है। बाहरी चोटें शरीर के बाहरी हिस्सों पर लगती है जिन्हें देखा जा सकता है।

(b) अंदरूनी चोटें (Internal injuries) – खेलों के प्रशिक्षण अथवा प्रतियोगिता के दौरान शारीरिक अंगों के अत्यधिक अथवा अनुपयुक्त तरीके से प्रयोग करने के कारण अंदरूनी चोटें लग सकती है। अंदरूनी चोटों के कारण होने वाले हल्के दर्द को यदि गंभीरता से नहीं लिया जाए और गतिविधि को चालू रखा जाए तो उसका परिणाम खतरनाक भी हो सकता है। आगे चलकर वह उस अंग को काफी क्षति भी पहुँचा सकती है। अंदरूनी चोटों को गुमचोट भी कहा जाता है क्योंकि अंदरूनी चोटों को देखा नहीं जा सकता हैं। हम सब जानते है कि सभी खेलों में एक ही जैसी चोटें नहीं लगती हैं। खेल सम्बंधित चोटे खेल की प्रकृति, सतह तथा वातावरण पर निर्भर करती है। खेलों के दौरान लगने वाली विभिन्न खेल चोटों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया गया है

खेल संबंधी चोटों का वर्गीकरण

  1. कोमल ऊतकों की चोटें
  2. अस्थि व जोड़ों की चोटें

अस्थि व जोड़ों की चोटें

  1. अस्थि विस्थापन
  2. अस्थिभंग या टूटना

कोमल ऊतकों की चोटें

  • रगड़ या छिलना
  • कंट्यूशन मचोट
  • खरोंच
  • अस्थि विस्थापन
  • चीर
  • मोच
  • खिंचाव

अस्थि व जोड़ों की चोटें

  • कच्ची अस्थिभंग
  • बहुखण्ड अस्थिभंग
  • आड़ा-तिरछा अस्थिभंग
  • तिरछा अस्थिभंग
  • पच्चडी अस्थिभंग
1. मुलायम या कोमल ऊतकों की चोटें (Soft Tissue Injuries) – मुलायम या कोमल ऊतकों की चोटें निम्न प्रकार की होती है

1. रगड़ या छिलना (Abrasion) – रगड़ या छिलना त्वचा की चोट है। रगड़ या छिलना प्रायः किसी उपकरण या सतह के साथ रगड़ने के परिणामस्वरूप हो जाता है। कभी-कभी नीचे गिरने से भी रगड़ या छिलना हो सकता है। रगड़ या छिलने का सबसे अधिक खतरा विशेष कर उस जगह पर होता है जहाँ अस्थि त्वचा के बहुत पास हो। आमतौर पर रगड़ या छिलना त्वचा के ऊपरी भाग पर ही होता है।

रगड़ या छिलने का प्रबंधन (Management of Abrasions)

(i) सबसे पहले प्रभावित भाग को साफ पानी से साफ कर लें।
(ii) फिर किसी निसक्रमित कपड़े से प्रभावित भाग पर लगे धूल के कणों को साफ कर प्रभावित स्थान को सुखा देना चाहिए।
(ii) इसके बाद प्रभावित भाग पर ऐन्टी-सेप्टिक क्रीम ( ointment) लगाएँ।
(iv) यदि चोट ज्यादा गंभीर हो तो तुरंत डॉक्टर द्वारा उचित ड्रैसिंग कराएँ तथा संक्रमण से बचाव के लिए टेटनस का टीका लगवाएँ।

रगड़ से बचाव के लिए टिप्स

  • खिलाड़ी को प्रशिक्षण व प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को अच्छी तरह से गर्मा लेना चाहिए।
  • अभ्यास के दौरान उचित अनुकूलन करना चाहिए।
  • अच्छी गुणवत्ता वाले खेल उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।
  • खेलों का संचालन निष्पक्ष रूप से होना चाहिए।
  • खेल तथा अभ्यास के दौरान खिलाड़ियों को हमेशा सतर्क व सावधान रहना चाहिए।
  • खेलों को निर्धारित नियमों के अनुरूप ही खेलना चाहिए।
  • खेल तथा अभ्यास के दौरान सुरक्षात्मक उपकरणों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।
  • खेलों में भाग लेने से पूर्व उचित तकनीक सीख लेनी चाहिए।

2. कन्ट्यूशन ( Contusion) – कन्ट्यूशन मांसपेशी की चोट होती है। इस प्रकार की चोट किसी खेल उपकरण या किसी अन्य वस्तु से प्रत्यक्ष रूप से टकराने के कारण लग सकती है। मुक्केबाजी, कबड्डी, कुश्ती आदि में कन्ट्यूशन होना सामान्य बात है। कन्ट्यूशन में मांसपेशियों में रक्त कोशिकाएँ (blood vessels) टूट जाती हैं और कभी-कभी मांसपेशियों से रक्त भी बहने लगाता है। कन्ट्यूशन की जगह पर अकड़न और सूजन आ जाना भी सामान्य कन्ट्यूशन की स्थिति में कई बार मांसपेशियाँ भी अपना काम करना स्थाई या अस्थाई रूप से निष्क्रिय हो जाती हैं।

कन्ट्यूशन का प्रबंधन (Management of Contusion)
(i) कन्ट्यूशन के स्थान पर तुरंत पानी या बर्फ द्वारा दबाव (cold compression) का प्रयोग करना चाहिए। हालांकि यह प्रयोग बहुत अधिक देर तक लगातार नहीं करना चाहिए।
(ii) सूजन की स्थिति में डॉक्टर की सलाह अनुसार दवाई देनी चाहिए।
(iii) कन्ट्यूशन के पुनर्वास के लिए लचक संबंधी व्यायाम करने चाहिए।

कन्ट्यूशन से बचाव के लिए टिप्स

  • अभ्यास, प्रशिक्षण व प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को उचित रूप से गर्मा लेना चाहिए।
  • तैयारी काल के दौरान अनुकूलन करना चाहिए।
  • अभ्यास तथा प्रतियोगिता के दौरान सुरक्षात्मक उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।
  • खेल उपकरण अच्छी गुणवत्ता के होने चाहिए।
  • खेल का मैदान/ कोर्ट्स साफ एवं समतल होने चाहिए।
  • खेलों के विषय में पूर्ण वैज्ञानिक ज्ञान होना चाहिए।
  • अभ्यास व प्रतियोगिता के दौरान खिलाड़ियों को सावधान व सतर्क रहना चाहिए।
  • खेलों का संचालन निष्पक्ष ढंग से होना चाहिए।
3. खरोंच (Laceration) – इस प्रकार की चोटें किसी नुकीली अथवा तेज धार की वस्तु से त्वचा के अनियमित रूप से कटने के कारण लगती है। इस प्रकार की चोटों में अधिक रक्तस्राव नहीं होता है और इन चोटों के पूरी तरह ठीक होने के बाद भी इनके खुरदरे निशान शरीर पर रह जाते है।

खरोंच के कारण लगने वाली चोट का प्रबंधन (Management of Laceration)

(i) सबसे पहले रक्त के बहाव को रोकने का प्रयास करना चाहिए।
(ii) रक्तस्राव के रूकने के बाद खरोंच को डिटोल इत्यादि से अच्छी तरह से साफ कर एंटीसेप्टिक लगा देना चाहिए।
(ii) संक्रमण से बचने के लिए खरोंच को निसंक्रमित पट्टी से लपेट देना चाहिए।
(iv) यदि दर्द महसूस हो तो दर्द निवारक ली जानी चाहिए।
(v) यदि खरोंचें गंभीर हो तो तुरंत डॉक्टर के पास जाना चाहिए।

खरोंच से बचाव के लिए टिप्स

खिलाड़ी को प्रशिक्षण व प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को अच्छी तरह से गर्मा लेना चाहिए।
अभ्यास के दौरान उचित अनुकूलन करना चाहिए।
अच्छी गुणवत्ता वाले खेल उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।
खेलों का संचालन निष्पक्ष रूप से होना चाहिए।
खेल तथा अभ्यास के दौरान खिलाड़ियों को हमेशा सतर्क व सावधान रहना चाहिए।
खेलों को निर्धारित नियमों के अनुरूप ही खेलना चाहिए।
खेल तथा अभ्यास के दौरान सुरक्षात्मक उपकरणों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।
खेलों में भाग लेने से पूर्व उचित तकनीक सीख लेनी चाहिए।

4. चीरा (Incision) – चीरा तेज किनारों वाली वस्तुओं आदि से लगने वाली चोट हैं। चीरे के कारण धमनियाँ या शिराएँ भी कट सकती है। जिसके कारण तेज रक्तस्त्राव हो सकता है।

चीरे का प्रबंधन (Management of Incisions) – यदि घाव अधिक गहरा नहीं है तो थोड़े से रक्त को बाहर आने देना चाहिए ताकि कीटाणु भी बाहर आ जाए। फिर घावों को टिंकचर आयोडीन या स्प्रिंट से साफ कर देना चाहिए। उसके उपरांत घाव पर रूई का टुकड़ा रखकर पट्टी बाँध देनी चाहिए। अधिक रक्तस्राव को रोकने के लिए पट्टी सख्त करके बाँधनी चाहिए। यदि घाव काफी गहरा हो तो तुरंत डॉक्टर के पास जाना चाहिए।

चीरा से बचाव के लिए टिप्स

  • अच्छी गुणवत्ता वाले खेल उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।
  • खेलों का संचालन निष्पक्ष रूप से होना चाहिए।
  • खेल तथा अभ्यास के दौरान खिलाड़ियों को हमेशा सतर्क व सावधान रहना चाहिए।
  • खेलों को निर्धारित नियमों के अनुरूप ही खेलना चाहिए।
  • खेल तथा अभ्यास के दौरान सुरक्षात्मक उपकरणों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।
  • खेल तथा अभ्यास के दौरान तेज किनारे वाली वस्तुओं, खेल उपकरणों तथा स्पाइस आदि का प्रयोग
  • सावधानीपूर्वक करना चाहिए।
5. मोच (Sprain) – यह लिगामेंट (ligament) की चोट होती है। मोच अधिक खिंचाव या लिगामेंट के फटने के फलस्वरूप हो जाती है। सामान्यतया, मोच (sprain) कोहनी के जोड़ (wrist joint) या टखने के जोड़ (ankle joint) पर होती है। कभी-कभी मोच के साथ-साथ अस्थिभंग (fracture) भी हो जाता है। मोच की स्थिति में सूजन के साथ-साथ दर्द भी होता है। कई बार मोच के कारण लिगामेंट ढीला भी हो जाता है। मोच के लक्षण इस बात पर निर्भर करते हैं कि मोच किस प्रकार की है अर्थात् हल्की (mild) है या गहरी ( severe )।

मोच का प्रबंधन (Management of Sprain ) – मोच के प्रबंधन या उपचार के लिए प्राइस (PRICE) तथा माइस (MICE) प्रक्रिया निम्न प्रकार से अपनाई जाती है।

प्राइस प्रक्रिया की विधि – P.R.I.C.E. (प्राइस) प्रक्रिया चोट की गंभीरता को देखते हुए, चोट लगने के बाद पहले 24 घंटे से 48 घंटे लिए प्रदान की जाती है। P.R.I.C.E. (प्राइस) का अर्थ है- सुरक्षा, आराम, बर्फ, दबाव व ऊपर उठाना।

(i) सुरक्षा – चोटग्रस्त हिस्से को तुरंत सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए ताकि दोबारा उसी स्थान पर चोट न लगे।

(ii) आराम – चोटग्रस्त हिस्से को बिल्कुल हिलाना नहीं चाहिए तथा उसे पूरा आराम देना चाहिए। पर्याप्त आराम चोट को जल्दी ठीक करने में सहायक होता है।

(iii) बर्फ – चोटग्रस्त हिस्से पर बर्फ का प्रयोग करना चाहिए ताकि रक्तस्राव और सूजन को कम किया जा सके। इससे दर्द में भी आराम मिलता है। बर्फ का प्रयोग एक बार में 15 से 20 मिनट से अधिक नहीं करना चाहिए। एक दिन में बर्फ का प्रयोग 4 से 8 बार करना चाहिए। यदि त्वचा का रंग लाल दिखाई देता है तो इसका अर्थ है कि बर्फ का प्रयोग ज्यादा लंबा किया है।

(iv) दबाव – चोटग्रस्त हिस्से के आसपास एक मजबूत पैड लगाकर उस पर स्ट्रैप इस प्रकार लगाना चाहिए कि चोटिल क्षेत्र में दबाव अधिक न हो की रक्तप्रवाह बाधित हो जाए।

(v) ऊपर उठाना – चोटग्रस्त हिस्से को तकिए के ऊपर तथा हृदय के स्तर से थोड़ा ऊपर की ओर रखना चाहिए ताकि सूजन कम हो सके

माइस प्रक्रिया की विधि – माइस (M.I.C.E.) प्रक्रिया तब शुरू की जाती है जब सूजन के लक्षण समाप्त हो जाएँ और लाली भी कम हो जाए। माइस की प्रक्रिया तब तक जारी रखनी चाहिए जब तक चोट पूरी तरह ठीक न हो जाए। माइस प्रक्रिया का अर्थ है- गतिशीलता, बर्फ, दबाव व ऊपर उठाना।

(i) गतिशीलता – चोटग्रस्त अंग को गति की पूरे विस्तार तक ले जाने से शुरू करना चाहिए। ऐसी गतियाँ नहीं करनी चाहिए जिनसे दर्द का अनुभव होता है। धीरे-धीरे गति के विस्तार को बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए। यदि चोटग्रस्त का भाग का मूल क्रिया ठीक हो जाती है तो और व्यायाम करने प्रारंभ कर देने चाहिए। पहले केवल हल्के तथा साधारण व्यायाम करने चाहिए। यदि व्यायाम के दौरान दर्द महसूस हो व्यायाम तुरंत बंद कर देना चाहिए।

(ii) बर्फ – बर्फ के साथ उपचार एक हफ्ते के लगभग करना चाहिए। इसके बाद हीट ट्रीटमेंट जैसे हॉट पेम का प्रयोग करना चाहिए। इसमें प्रभावित एरिया को रक्त प्रवाह को उत्तेजित करने में सहायता मिलती है।

(iii) दबाव – इसे कुछ दिनों तक जारी रखने के बाद इसकी कोई आवश्यकता नहीं होती।

(iv) ऊपर उठाना – जब तक सूजन व लाली समाप्त न हो जाए तब तक प्रभावित अंग को ऊपर उठाए रखना चाहिए।

(v) यदि चोट गंभीर हो तो डॉक्टर तथा फिजोयोथैरेपिस्ट की सहायता लेनी चाहिए।

मोच से बचाव के लिए टिप्स

अभ्यास तथा प्रतियोगिता से पूर्व शरीर को अच्छी तरह से गर्मी लेना चाहिए।
अभ्यास के दौरान उचित अनुकूलन करना चाहिए।
अच्छी गुणवत्ता वाले खेल उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।
खेलों का संचालन निष्पक्ष रूप से होना चाहिए।
खेल तथा अभ्यास के दौरान खिलाड़ियों को हमेशा सतर्क व सावधान रहना चाहिए।
खेलों को निर्धारित नियमों के अनुरूप ही खेलना चाहिए।
खेल तथा अभ्यास के दौरान सुरक्षात्मक उपकरणों का प्रयोग अवश्य करना चाहिए।
खेलों में भाग लेने से पूर्व उचित तकनीक सीख लेनी चाहिए।
थकावट की स्थिति में खेल जारी नहीं रखना चाहिए।
सही फिटिंग के जूते पहनने चाहिए।

6. खिंचाव (Strain) – खिंचाव भी मांसपेशी की चोट ही होती है। खिंचाव साधारण या असाधारण भी हो सकता है। कई बार खिंचाव के कारण पूरी मांसपेशी क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, जिसके कारण उस हिस्से को हिलाना भी असम्भव हो जाता है। ऐसी स्थिति में खिंचाव वाली जगह पर असहनीय दर्द भी हो सकता है। अभ्यास या प्रतियोगिता के दौरान अनेक स्थितियाँ हो सकती हैं, जिनके कारण खिंचाव हो सकता है।

खिंचाव

खिंचाव का प्रबंधन (Management of Strain) – खिंचाव के उपचार के लिए अधिकतर ‘प्राइस’ प्रक्रिया अपनाई जाती है। इस प्रक्रिया को चोट लगने के बाद तथा चोट की गंभीरता के अनुसार अगले एक-दो दिन तक निम्न प्रकार से अपनानी चाहिए।

(i) सुरक्षा – चोटग्रस्त हिस्से को तुरंत सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए ताकि दोबारा उसी स्थान पर चोट
न लगे।

(ii) आराम – चोटग्रस्त हिस्से को बिल्कुल हिलाना नहीं चाहिए तथा उसे पूरा आराम देना चाहिए। पर्याप्त आराम चोट को जल्दी ठीक करने में सहायक होता है।

(iii) बर्फ – चोटग्रस्त हिस्से पर बर्फ का प्रयोग करना चाहिए ताकि रक्तस्राव और जा सके। इससे दर्द में भी आराम मिलता है। बर्फ का प्रयोग एक बार में 15 से 20 मिनट से अधिक नहीं करना चाहिए। एक दिन बर्फ का प्रयोग 4 से 8 बार करना चाहिए। यदि त्वचा का रंग लाल दिखाई देता है तो इसका अर्थ है कि बर्फ का प्रयोगज्यादा लंबा किया है।

(iv) दबाव – चोटग्रस्त हिस्से के आसपास एक मजबूत पैड लगाकर उस पर स्ट्रैप इस प्रकार लगाना चाहिए कि चोटिल क्षेत्र में दबाव अधिक न हो की रक्तप्रवाह बाधित हो जाए।

(v) ऊपर उठाना – चोटग्रस्त हिस्से को तकिए के ऊपर तथा हृदय के स्तर से थोड़ा ऊपर की ओर रखना चाहिए ताकि सूजन कम हो साके

(vi) यदि चोट गंभीर हो तो डॉक्टर तथा फिजोयोथैरेपिस्ट की सहायता लेनी चाहिए।

खिंचाव से बचाव के लिए टिप्स

  • खेल तथा अभ्यास से पहले शरीर को अच्छी तरह गर्मा लेना चाहिए। शरीर के सभी अंगों के खिंचाव वाले
  • व्यायाम भी करते चाहिए।
  • तैयारी काल के दौरान उचित अनुकूलन करना चाहिए।
  • अच्छी गुणवत्ता वाले खेल उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।
  • खेल का मैदान/ कोर्ट्स समतल व साफ होने चाहिए।
  • खेल के बारे में वैज्ञानिक जानकारी अवश्य होनी चाहिए।
  • प्रशिक्षण व प्रतियोगिता के दौरान खिलाड़ी को सावधान व सतर्क रहना चाहिए।
  • अभ्यास व प्रतियोगिता के दौरान खेलों का संचालन निष्पक्ष ढंग से होना चाहिए।
  • थकावट की दशा में खिलाड़ी को खेल जारी नहीं रखना चाहिए।

II. अस्थि व जोड़ों की चोटों का प्रबंधन (Management of Bone and Joint Injuries)

1. जोड़ों का विस्थापन (Dislocation of Joints) – जोड़ों का विस्थापन (dislocation) खेलों के दौरान लगने वाली एक मुख्य चोट है। वास्तव में, यह जुड़ी हुई अस्थियों के जोड़ की सतहों का विस्थापन होता है। विस्थापन वह चोट होती है जो अस्थियों को उनके सॉकेट्स से बाहर आने को मजबूर करती है। यह अस्थाई रूप से जोड़ को विकृत कर देता है। जोड़ों के विस्थापन निम्न प्रकार के होते हैं।

(i) निचले जबड़े का विस्थापन (Dislocation of Lower Jaw) – सामान्यतया, यह तब होता है, जब ठोड़ी किसी वस्तु से जोर से टकरा जाए। कई बार अधिक मुँह खोलने से भी निचले जबड़े का विस्थापन हो सकता है।

(ii) कंधे के जोड़ का विस्थापन (Dislocation of Shoulder Joint) – अचानक झटके या कठोर सतह पर गिरने से भी कंधे के जोड़ का विस्थापन हो सकता है। इस चोट में ह्यूमरन (Humerous) का सिरा सॉकेट से बाहर आ जाता है।

(iii) कूल्हे के जोड़ का विस्थापन (Dislocation of Hip Joint) – अचानक ही अधिक शक्ति लगाने से कूल्हे के जोड़ का विस्थापन सकता है। इस चोट में फीमर (Femur) का ऊपरी सिरा सॉकेट से बाहर आ जाता है।

जोड़ों के विस्थापन का प्रबंधन (Management of Dislocation of Joints)

  • तुरंत चिकित्सा सहायता के लिए कॉल करें।
  • अपने आप जोड़ों/जोड़ को हिलाने या फिट करने का प्रयास न करें।
  • सूजन पर नियंत्रण रखने हेतु जोड़ के विस्थापित भाग पर बर्फ लगाएँ।
  • डॉक्टरी मदद आने तक प्रभावित जोड़ को फिक्स अवस्था में रखने के लिए स्लिंग या स्पिलिंट (splint) काप्रयोग करें।

2. अस्थिभंग या टूटना (Fractures) – हड्डी टूटने को आमतौर पर फ्रैक्चर कहते हैं। बहुत मामूली या हल्के फ्रैक्चर को हेयर फ्रैक्चर भी कहा जाता है।

(i) कच्ची अस्थि भंग (Green stick fracture ) – इस प्रकार के अस्थि भंग सामान्यतया बच्चों में देखे जाते हैं, क्योंकि उनकी अस्थियों बहुत ही मुलायम व कोमल होती हैं। जब भी इन अस्थियों पर कोई दबाव पड़ता हैं, तो ये अस्थियाँ मुड़ जाती हैं। कच्ची अस्थि भंग का प्रबंधन (Management of green stick fracture): इस प्रकार के अस्थि भंग में चोटिल अंग को प्लास्तर की सहायता से स्थिर (immobilize) कर देना चाहिए। ऐसा करने से अस्थि अपने आप प्राकृतिक रूप से ठीक हो जाती है। प्रति उत्तेजनात्मक दवा, अस्थि भंग की जगह पर हुई सूजन को कम कर सकती है। दर्द निवारक दवा दर्द को कम कर सकती है। इस प्रकार के अस्थि भंग ठीक होने में लगभग 8 सप्ताह लग जाते हैं।

(ii) बहुखंड अस्थि भंग (Comminuted fracture) – जब एक अस्थि दो से अधिक टुकड़ों में टूट जाती है, तो इसे बहुखंड अस्थि भंग कहा जाता है। इस प्रकार के अस्थि भंग मुख्यतः साइकिल दौड़ या मोटर साइकिल दौड़ के दौरान चोट लगने के कारण हो सकते है। बहुखंड अस्थि भंग का प्रबंधन (Management of comminuted fracture) – इस प्रकार के अस्थि भंग में अस्थियों के कई टुकड़े हो जाते हैं। इसलिए बहुखंड अस्थि भंग का प्रबंधन एक बहुत जटिल प्रक्रिया है। अस्थि भंग क्षेत्र के ऊपरी व नीचले भाग को स्थिर करने के लिए प्लास्टर्स व खपत्तियों की सहायता ली जानी चाहिए। दर्द की स्थिति में दर्द निवारक दवा दी जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त संक्रमण से बचाव के लिए एंटीबॉयटिकस भी दी जानी चाहिए। पीड़ित व्यक्ति को सामान्य अवस्था में वापस आने के लिए कुछ महीनों से अधिक का समय भी लग सकता है। उसके बाद पूर्णतया ठीक होने के लिए थैरेपी का प्रयोग भी किया जाना चाहिए।

(iii) आड़ा तिरछा अस्थि भंग (Transverse bone fracture) – यह रीढ़ की अस्थियों में से एक अस्थि के भाग का टूटना होता है। इसकी आकृति पंख की तरह होती है। अधिकतर, ये चोटें रीढ़ की अस्थि के ऊपरी व मध्य भागों में तथा पीठ के नीचे के भाग में होता है।

(iv) तिरछी अस्थि भंग (Oblique fracture) – इस प्रकार के अस्थि भंग में अस्थियाँ तिरछी आकार में टूटती है। इस प्रकार का अस्थि भंग आमतौर पर गिरने से या किसी से जोर से टकराने पर होता है। कच्ची अस्थि भंग का प्रबंधन (Management of green stick fracture ) – इस प्रकार के अस्थि भंग में चोटिल अंग को प्लास्तर की सहायता से स्थिर (immobilize) कर देना चाहिए। ऐसा करने से अस्थि अपने आप प्राकृतिक रूप से ठीक हो जाती है। प्रति उत्तेजनात्मक दवा, अस्थि भंग की जगह पर हुई सूजन को कम कर सकती है। दर्द निवारक दवा दर्द को कम कर सकती है। इस प्रकार के अस्थि भंग ठीक होने में लगभग 8 सप्ताह लग जाते हैं।

(v) पच्चड़ी अस्थि भंग (Impacted fracture) – जब किसी टूटी हुई अस्थि का एक सिरा, दूसरी अस्थि में घुस जाता है, तो इसे पच्चड़ी अस्थि भंग कहा जाता है। पच्चड़ी अस्थि भंग का प्रबंधन (Management of impacted fracture): यदि पच्चड़ी अस्थि भंग की स्थिति बहुत गंभीर हो तो ऐसी स्थिति में ऑपरेशन ही एकमात्र विकल्प है। हालांकि पच्चड़ी अस्थि भंग की स्थिति बहुत गंभीर न हो तो ऐसी स्थिति में चोटग्रस्त हिस्से को एक खपची या स्लिंग, टूटी हुई अस्थि को पकड़कर सही स्थिति में रखना ही काफी होता है। ऐसा करने से टूटी हुई अस्थि अपने आप ठीक हो सकती है। इसके उपचार के लिए स्थिरीकरण ही काफी होता है।