NCERT Solutions Class 12th Physical Education Chapter – 4 विशेष आवश्यकता वाले बच्चों (दिव्यांगों) के लिए शारीरिक शिक्षा एवं खेल – कूद (Physical Education & Sports for Children with Special Needs)
Textbook | NCERT |
class | 12th |
Subject | Physical Education |
Chapter | 4th |
Chapter Name | विशेष आवश्यकता वाले बच्चों (दिव्यांगों) के लिए शारीरिक शिक्षा एवं खेल – कूद (Physical Education & Sports for Children with Special Needs) |
Category | Class 12th Physical Education |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NCERT Solutions Class 12th Physical Education Chapter – 4 विशेष आवश्यकता वाले बच्चों (दिव्यांगों) के लिए शारीरिक शिक्षा एवं खेल – कूद (Physical Education & Sports for Children with Special Needs)
Chapter – 4
विशेष आवश्यकता वाले बच्चों (दिव्यांगों) के लिए शारीरिक शिक्षा एवं खेल – कूद
Notes
भूमिका (Introduction) – हमारे आसपास के लोगों में अधिकतर लोग सामान्य प्रतीत होते हैं, तो वहीं कुछ लोग असामान्य सा व्यवहार करते भी प्रतीत होते हैं। सामान्य दिखाई देने वाले लोग जीवन की चुनौतियों और अन्य दैनिक कार्यों को सामान्य व सहज तरीके से करते हैं। कई बार शारीरिक रूप से सामान्य दिखने बाले लोग मानसिक तौर पर अस्वस्थ भी हो सकते हैं किन्तु उनकी मानसिक अस्वस्थता के लक्षण बहुत जल्दी जग जाहिर नहीं होते। परंतु, जब हम असामान्य श्रेणी के लोगों की बात करते हैं तो यह असामान्यता उनके व्यवहार, कार्यशैली और आसपास के वातावरण के प्रति उनकी अलग तरह की प्रतिक्रिया अथवा उनकी अक्षमता के रूप में देखने को मिलती है। किसी भी प्रकार की शारीरिक अथवा मानसिक अक्षमता के ग्रस्त व्यक्ति को ‘दिव्यांग’ नाम दिया गया है। कुछ लोग जन्मजात दिव्यांग होते हैं और कुछ जन्म के कुछ समय पश्चात् किसी बीमारी अथवा दुर्घटना के कारण दिव्यांग हो जाते हैं। किसी भी प्रजातांत्रिक समाज में हर बच्चे को अपने योग्यताओं को विकसित करने का पूरा अधिकार होता है, लेकिन अक्सर ऐसा देखा गया है कि, ऐसे बच्चे, जिनमें किसी भी प्रकार की अयोग्यता या असमर्थता जैसे- मानसिक दुर्बलता, बहरापन, भाषा की क्षति, अन्धापन, अस्थियों का विकार, भाषण- अक्षमता (autism), मानसिक आघात या चोट, शरीर की खराब प्रक्रिया व स्वास्थ्य की क्षति आदि होती हैं, उनके लिए बहुत ही कम अवसर उपलब्ध होते हैं। इसलिए सभी विद्यालयों का यह कर्त्तव्य बन जाता है कि वे अपने यहाँ पढ़ने वाले अक्षम बच्चों को ऐसे अवसर प्रदान करें जिनसे उनका विकास भली-भाँति हो सके। ऐसे बच्चे, वे क्रियाएँ नहीं कर सकते जो सामान्य बच्चे आसानी से कर लेते हैं। किसी भी कमी या क्षति की अवस्था में विशेष शिक्षा या संबंधित सेवाओं की आवश्यकता होती है। इसलिए विद्यालयों को ऐसे बच्चों के लिए शारीरिक शिक्षा के विशेष कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए। |
अक्षमता आधारित खेलों को बढ़ावा देने वाले संगठन (विशेष ओलम्पिक, पैरालिपिक, लिम्स) [Organisations Promoting Disability Sports (Special Olympics, Paralympics, Deaflympics)] 1. विशेष ओलम्पिक (Special Olympics) – विशेष ओलम्पिक की शुरुआत बौद्धिक रूप से अक्षम वयस्कों व बच्चों के लिए साल भर ओलम्पिक की तर्ज पर खेल प्रतियोगिताएँ आयोजित करना तथा प्रशिक्षण प्रदान करने के उद्देश्य से की गई थी, ताकि इस प्रकार के बच्चों एवं वयस्कों को शारीरिक पुष्टि के लिए प्रेरित किया जा सके। इन कार्यक्रमों के कारण ऐसे लोगों को अपने साहस खुशी का प्रदर्शन करने का अवसर प्राप्त होता है, जो कि उनके सर्वार्गीण विकास के लिए आवश्यक है। इस कार्यक्रम का एक अन्य उद्देश्य बौद्धिक रूप से अक्षम लोगों को समाज की मुख्य धारा में शामिल करने का भी होता है। विशेष ओलम्पिक, विश्व स्तरीय खेल आंदोलन है, जो खेल की परिवर्तन भरी शक्ति व आनंद के माध्यम से दुनियाभर में हर दिन मानवीय भावनाओं को उजागार करता है। विशेष ओलम्पिक सभी लोगों की स्वीकृति और समावेश को बढ़ावा देकर एक बेहतर दुनिया बनाने का प्रयास कर रहा है। विश्व में बौद्धिक अक्षमता वाले लोग काफी बड़ी संख्या में है। तथा विशेष ओलम्पिक का लक्ष्य उनमें से हर एक तक पहुंचना है। स्पेशल ओलम्पिक की शुरूआत संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति कनैडी की बहन इयूनिस कनैडी स्नाइवर के द्वारा की गई। पहला अंतर्राष्ट्रीय विशेष ओलम्पिक जुलाई 1968 में शिकागो के सोल्जर फील्ड में आयोजित किया गया था यह एक दिन का ग्रीष्मकालीन शिविर था। इसमें अमेरिका व कनाडा के 1000 खिलाड़ियों ने भाग लिया था। इयूनिस कनेडी साइबर का मानना था कि बराबर अवसरों व अनुभवा के साथ बौद्धिक रूप से असमर्थ लोग भी काफी अधिक प्राप्त कर सकते है यदि उनके बारे में सोचा जाये तो उनका मानना था कि बौद्धिक रूप से असमर्थ बच्चे भी विशेष एथलीट या खिलाड़ी बन सकते है तथा खेलों के द्वारा वे अपनी संभावित वृद्धि व विकास का प्राप्त कर सकते है। |
स्पेशल ओलम्पिक का लक्ष्य – स्पेशल ओलम्पिक का मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित है-
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विशेष ओलम्पिक भारत (Special Olympic Bharat) – विशेष ओलम्पिक भारत, विशेष ओलम्पिक अन्तर्राष्ट्रीय संघ के तत्त्वावधान में भारत में चलाया जा रहा एक ऐसा मान्यता प्राप्त कार्यक्रम है, जो बौद्धिक रूप से विक्लांग बच्चों एवं वयस्कों के जीवन को बदलने के लिए खेलों को एक उत्प्रेरक के रूप में उपयोग करता है। विशेष ओलम्पिक अन्तर्राष्ट्रीय, संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति कनैडी (Kennedy) की बहन इयूनिस कनैडी नाइवर के द्वारा प्रारम्भ किया गया था। उनका मानना था कि, बराबर अवसरों व अनुभवों के साथ, बौद्धिक रूप से असमर्थ या अशक्त लोग भी काफी अधिक प्राप्त कर सकते हैं, अपेक्षाकृत जैसा संभवतया उनके बारे में सोचा जाता है। उसे यह विश्वास था कि बौद्धिक रूप से असमर्थ या अशक्त बच्चे, अपवाद स्वरूप या विशेष एथलीट/खिलाड़ी बन सकते हैं तथा खेलों के द्वारा वे अपनी संभावित वृद्धि व विकास को प्राप्त कर सकते हैं। वर्तमान में स्पेशल ओलम्पिक भारत, सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त एक राष्ट्रीय खेल महासंघ हैं, जिसका मुख्य कार्य भारत में विशेष ओलम्पिक कार्यक्रम आयोजित करना है। इस संस्था के अनुभव तथा राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इनकी उपस्थिति के कारण ही भारत सरकार ने इसे देश में बौद्धिक रूप से अक्षम लोगों के बीच खेलों को बढ़ावा देने के लिए प्राथमिकता की श्रेणी में रखा है। यह एक नामित नोडल एजेंसी के रूप में देश के विभिन्न क्षेत्रों में विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करती है, जहाँ हमारे देश के बौद्धिक रूप से अक्षम लोगों का एक बहुत बड़ा हिस्सा रहता है। भारत में विशेष ओलम्पिक इण्डिया की शुरुआत वर्ष 1987 में 37546 पंजीकृत एथलीटों के साथ की गई। फिर वर्ष 2001 में इसका के कई कीर्तिमान स्थापित किये हैं। वर्तमान में यह 8:50,000 पंजीकृत एथलीटों के साथ बौद्धिक रूप से अक्षम लोगों के लिए देश के सबसे अच्छे खेल कार्यक्रमों में से एक है। |
विशेष ओलम्पिक भारत का मुख्य उद्देश्य • विशेष ओलम्पिक भारत का मुख्य उद्देश्य बौद्धिक रूप से अक्षम बच्चों एवं वयस्कों के लिए सालभर खेल प्रशिक्षण प्रदान करना तथा ओलम्पिक खेलों की तर्ज पर ही खेल प्रतियोगिताएँ आयोजित कराना होता है ताकि इस प्रकार के बच्चों एवं वयस्कों को शारीरिक पुष्टि के लिए प्रेरित किया जा सके। • इन कार्यक्रमों के कारण ऐसे लोगों को अपने साहस, खुशी, योग्यताओं का प्रदर्शन करने का अवसर प्राप्त होता है, जो कि उनके सर्वा विकास के लिए अति आवश्यक है। • इस कार्यक्रम का एक अन्य उद्देश्य बौद्धिक रूप से अक्षम लोगों को समाज की मुख्य धारा में शामिल करने का भी होता है। • विशेष ओलम्पिक भारत के राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहनीय कार्य को देखते हुए भारत सरकार ने इसे भारतीय खेल प्राधिकरण तथा युवा एवं खेल मंत्रालय के अन्तर्गत पंजीकृत किया है ताकि इन्हें भारत सरकार द्वारा वित्तीय सहायता प्रदान की जा सकें। |
विशेष ओलम्पिक भारत का लक्ष्य (Aim of Special Olympic Bharat) – विशेष ओलम्पिक भारत का मुख्य लक्ष्य, बौद्धिक अयोग्यताओं या असमर्थताओं वाले बच्चों व वयस्कों के लिए खेल प्रशिक्षण तथा खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन करना होता है। इसके अतिरिक्त उनकी शारीरिक पुष्टि को विकसित करने, हौंसले का प्रदर्शन करने खुशी का अनुभव करने, उपहार बाँटने में भाग लेने, अपने परिवारों, अन्य विशेष ओलम्पिक्स व समुदाय से मित्रता करने में निरंतर अवसर प्रदान करना भी है। |
विशेष ओलम्पिक की शपथ (Oath of Special Olympics) – ‘मुझे जीतने दो। लेकिन यदि मैं जीत नहीं सकता, तो मुझे प्रयास में बहादुर या वीर होने दो।’ |
उपलब्धियाँ (Achievements) – स्पेशल ओलम्पिक भारत वर्ष 2002 से विभिन्न प्रकार की असमर्थओं से ग्रस्त बच्चों एवं वयस्कों के लिए कई स्थानीय, जिला, राज्य, राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन कर रहा है। यह संघ सन् 2013 तक सात वर्ल्ड समर गेम्स व पाँच वर्ल्ड विंटर गेम्स में अनेक एथलीट्स भेज चुका है। इन खेलों में हमारे देश के एथलीट्स कई पदक जीत चुके हैं। प्रतियोगिताएँ/स्पर्धाएँ पर आयोजित की जाती हैं। |
2. पैरालिम्पिक गेम्स (Paralympic Games) – विक्लांग व्यक्तियों का खेलों में भाग लेना कोई नई बात नहीं है। यह तो पिछले सौ सालों से चला आ रहा है। वर्ष 1888 में बर्लिन (जर्मनी) में बहरे लोगों के लिए पहले स्पोर्ट्स की क्लब स्थापना की गई थी। विक्लांग खिलाड़ियों ने ओलम्पिक खेलों में पैरालिम्पिक अभियान शुरू होने से पूर्व ही भाग लेना शुरू कर दिया था। ऐसा करने वाले प्रथम खिलाड़ी जर्मन अमेरिकन जिमनास्ट जॉर्ज आइजर (George Eyser) थे. जिसने 1904 ओलम्पिक खेलों में भाग लिया था, इनका एक पैर कृत्रिम था। हंगरी के करौली टकॉस (Karoly Takas) ने 1948 व 1952 के ग्रीष्म ओलम्पिक (Summer Olympics) में निशानेबाजी प्रतियोगिता में भाग लिया जिसकी दाई बाजू कटी हुई थी, इसलिए उसने बाई बाजू से निशाना लगाया। पोलियों से ग्रसित खिलाड़ी लीज हारटेल (Lis Hartel) ने घुड़सवारी की प्रतियोगिता में रजत पदक हासिल किया। हालाँकि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विक्लांगों द्वारा बड़े पैमाने पर खेलों में भाग लिया जाने लगा है। उस समय इस प्रकार के खेलों का उद्देश्य द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बड़ी संख्या में विक्लांग हुए सिपाहियों और आम नागरिकों को शारीरिक रूप से स्वस्थ्य रखना होता था। वर्ष 1944 में ब्रिटिश सरकार के आग्रह पर डॉ. लुडविक गटमैन ने ब्रिटेन में रीढ़ की चोटों के उपचार के लिए पहले अस्पताल को शुरुआत की। फिर समय के साथ-साथ इस प्रकार की चोटों से ग्रस्त व्यक्तियों को चोटों से उबारने के लिए प्रयोग किये जाने वाले विभिन्न खेलों नें धीरे-धीरे मनोरंजक खेलों का और फिर समय के साथ-साथ प्रतिस्पद्ध खेलों का रूप ले लिया। पैरालिम्पिक शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के शब्द ‘पेरा’ (Para) से हुई है। जिसका अर्थ होता है ‘समरूप’, अर्थात् पैरालिम्पिक खेलों को ओलम्पिक खेलों के समरूप ही माना गया है। यह शब्द ओलम्पिक तथा पैरालिम्पिक आन्दोलनों की समरूपता को भी दर्शाता है। 29 जुलाई, 1948 को लंदन ओलम्पिक खेलों की शुरुआत के दिन डॉ. गटमैन जिन्हें पैरालिम्पिक खेलों का जनक भी माना जाता है, ने पहली बार व्हील चेयर एथलीट्स के लिए प्रतिस्पर्द्धा का आयोजन किया, जिसे उन्होंने स्टोक मैन्डविले खेलों के नाम से सम्बोधित किया। यह खेल पैरालिम्पिक खेलों के इतिहास में मील का पत्थर सिद्ध हुए। इन खेलों में कुल 16 विक्लांग खिलाड़ियों ने, जिनमें महिलाएं भी शामिल थी तीरदांजी प्रतिस्पर्द्धा में भाग लिया। 1952 में इन खेलों का फिर से आयोजन किया गया जिनमें हॉलैंड के पूर्व सैनिकों ने भी भाग लिया। इसी साल से इस खेल प्रतियोगिता का नाम बदलकर अन्तर्राष्ट्रीय स्टोक मैन्डविले खेल कर दिया गया। यही खेल आगे चलकर वर्ष 1960 में आयोजित प्रथम पैरालिम्पिक खेलों के नाम से प्रसिद्ध हुए। प्रथम पैरालिम्पिक खेलों में देशों के 400 विक्लांग खिलाड़ियों ने भाग लिया। तब से यह खेल हर चार वर्ष के अन्तराल पर नियमित रूप से आयोजित किए जा रहे। वर्ष 1976 में कनाडा के टोरंटों शहर में आयोजित एक बैठक में विभिन्न प्रकार की शारीरिक विषमताओं से ग्रस्त कई समूहों ने एक संगठित समूह बनाने का निर्णय लिया। इसी दौरान विक्लांग खिलाड़ियों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खेल प्रतियोगिताएँ आयोजित करने का निर्णय लिए गया। इसी वर्ष पैरालिम्पिक खेलों के इतिहास में पहली बार शीत खेल का आयोजन स्वीडन में किया गया। पैरालिम्पिक आन्दोलन को और व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए 22 सितम्बर, 1989 को जर्मनी में अन्तर्राष्ट्रीय पैरालिम्पिक संघ के स्थापना की गई। वर्ष 1988 में सीओल (कोरिया) में आयोजित ग्रीष्मकालीन पैरालिम्पिक खेलों तथा 1992 में फ्रांस में आयोजित शीतकाल पैरालिम्पिक खेलों का आयोजन उन्हीं शहरों एवं स्थानों पर किया जाता है, जहाँ पर ओलम्पिक खेलों का आयोजन किया जाता है। ऐस अन्तर्राष्ट्रीय ओलम्पिक संघ तथा अन्तर्राष्ट्रीय पैरालिम्पिक संघ के बीच हुए करार के चलते सम्भव हो पाया। दोनों समितियों के इस कदम से पैरालिम्पिक खेलों को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत ख्याति प्राप्त हुई है। पैरालिम्पिक अभियान का मुख्य उद्देश्य ‘Spirit in Motion’ है। लाल, नीला और हरा रंग जो लगभग सभी देशों के झण्डे में मुख्य का से होता है, उन्हें पैरालिम्पिक खेलों के प्रतीक चिन्ह के रूप में अपनाया गया है। झण्डे के रंगों की आकृति / बनावट को Aqito अर्थात् “I move” कहते हैं। यह नाम रंगों की अर्धचन्द्राकार की विषम बनावट के स में होने के कारण विशेष रूप से पैरालिम्पिक अभियान के लिए दिया गया है। तीन Agitos मिलकर एक केन्द्रीय बिन्दु बनाते हैं जो इस बात का प्रतीक है कि खिलाड़ी पृथ्वी के हर कोने से आकार यहाँ एकत्रित होते हैं। |
पैरालिम्पिक खेलों का उद्घाटन समारोह (Opening Ceremony of Paralympic Games) – पैरालिम्पिक खेलों की शुरुआत मेजबान देश के ध्वजारोहण तथा उस देश के राष्ट्रीय गान के साथ की जाती है। इसके बाद विभिन्न देशों से आए प्रतिभागी अपने-अपने राष्ट्र के समूह में एक-एक करके मार्चपास्ट करते हुए स्टेडियम में प्रवेश करते हैं। मेजबान देश के खिलाड़ी सबसे आखिर में स्टेडियम में प्रवेश करते हैं। सभी खिलाड़ियों एवं अधिकारियों के प्रवेश के बाद मेजबान देश द्वारा संगीत, नृत्य एवं गान द्वारा अपने देश की संस्कृति की झलक प्रस्तुत की जाती है। इस सांस्कृतिक कार्यक्रम के अंत में पैरालिम्पिक मशाल को स्टेडियम Paralympic में लाकर पैरालिम्पिक ज्योति को प्रज्जवलित किया जाता है। |
पैरालिम्पिक खेलों का समापन समारोह (Closing Ceremony of Paralympic Games) – सभी पैरालिम्पिक खेल इवेन्ट्स के अंत में समापन समारोह का आयोजन किया जाता है। समापन समारोह में सभी प्रतिभागी देशों के ध्वजवाहक खिलाड़ी एक साथ स्टेडियम में प्रवेश करते हैं। इनके पीछे सभी प्रतिभागी देशों के खिलाड़ी बिना किसी भेदभाव के एक साथ स्टेडियम में प्रवेश करते हैं। इसके बाद पैरालिम्पिक ध्वज को उतारा जाता है तथा पैरालिम्पिक ज्योति को बुझाकर पैरालिम्पिक खेलों के समापन की आधिकारिक घोषणा की जाती है। |
अंतर्राष्ट्रीय पैरालिम्पिक समिति (International Paralympic Committee) – यह पैरालिम्पिक खेलों को नियंत्रित करने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्था है, जो ग्रीष्मकालीन व शीतकालीन पैरालिम्पिक खेलों का आयोजन करती है। यह नौ खेलों के लिए विश्व चैम्पियनशिप्स व अन्य प्रतियोगिताओं का पर्यवेक्षण व समन्वय करती है। इस समिति का मुख्य उद्देश्य पैरालिम्पिक एथलीट्स को खेलों में श्रेष्ठता की प्राप्ति के योग्य बनाना तथा विश्व को प्रेरित एवं उत्तेजित करना है। 22 सितम्बर, 1989 को स्थापित की गई इस समिति का मुख्यालय वॉन (जर्मनी) में है। इसका मुख्य लक्ष्य किसी भी रूप से अशक्त/असमर्थ या अविकसित लोगों के लिए पर्याप्त खेल अवसरों को विकसित करना है। |
3. कलिम्पिस (Deaflympics) – डैफलिम्पिस अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक समिति द्वारा स्वीकृत एक ऐसा खेल कार्यक्रम है, जिसमें बधिर एथलीट अपनी खेल प्रतिभा का प्रदर्शन तथा अन्य बधिर खिलाड़ियों के साथ प्रतिस्पर्धा करते है। डैफलिम्पिस, अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (International Olympic Committee, IOC) का एक अंग है, जो बधिर खिलाड़ियों (सुन न सकने वाले एथलीट) के लिए खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन करती है। सामान्य ओलंपिक खेलों, पैरालिम्पिक तथा विशेष ओलम्पिक खेलों में भाग लेने वाले एथलीटो की तरह डैफलिम्पिस खेलों में भाग लेने वाले एथलीटों को ध्वनियों द्वारा निर्देशित नहीं किया जाता है, जैसे कि स्टार्टर की बंदूकें, बैलहॉर्न कमांड या रेफरी सीटी का प्रयोग नहीं किया जाता है। इस प्रतियोगिता में खेल की शुरूआत करने एवं खेल को आगे बढ़ाने के लिए फुटबॉल रेफरी झंड़े का प्रयोग करता है एवं दौड़ शुरू करने के लिए रोशनी की चमकार का प्रयोग किया जाता है। ऐसे खेलों को आई. सी. एस. डी. (ICSD) द्वारा तभी से आयोजित किया जाता रहा है जब से अंतर्राष्ट्रीय खेल समिति ने बधिरों के लिए पहले खेल का आयोजन किया था। ओलम्पिक खेलों की तरह ही डैफलिम्पिक खेल भी प्रत्येक चार वर्ष के अंतराल पर आयोजित किए जाते है। डैफलिम्पिस की शुरुआत वर्ष 1924 में पेरिस में हुई थी जबकि शीतकालीन डैफलिम्पिस (Winter Deaflympic) की शुरूआत वर्ष 1949 में हुई थी। प्रथम डैफलिम्पिस खेलों में मात्र 148 खिलाड़ियों ने भाग लिया था जबकि आज लगभग 4000 खिलाड़ी इन खेलों में भाग लेते है।
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डैफलिम्पिस के लक्ष्य एवं उद्देश्य
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दिव्यांग बच्चों के लिए शारीरिक गतिविधियों के लाभ (Advantages of Physical Education for Children with Special Needs) 1. शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार (Improvement in physical health) – दिव्यांग बच्चों पर किए गए शोधकार्य बताते है कि शारीरिक गतिविधियों अथवा खेल-कूद में भाग लेने से उनके शारीरिक स्वास्थ्य और सुयोग्यता के स्तर में सुधार होता है। शारीरिक गतिविधियां के नियमित अभ्यास से उनके हाथ व आँख के समन्वय में, लचीलेपन में, मांसपेशीय शक्ति में, सहनशक्ति में और यहाँ तक कि हृदयवाद्धिका तंत्र में भी सुधार होता है। ये सभी शारीरिक गतिविधियों के सामान्य लाभ है। 2. मानसिक स्वास्थ्य में सुधार (Improvement in mental health) – शारीरिक गतिविधियों एवं खेल-कूद में नियमित भागीदारी न केवल शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से बल्कि मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है। खेल-कूद गतिविधियाँ ऐसे बच्चों की सामान्य मनोदशा सही रखती है, जो दुश्चिंता, तनाव, अवसाद आदि से पीड़ित होते हैं। उनके लिए खेल-कूद मन बहलाने का अच्छा साधन है। उसके अतिरिक्त शारीरिक गतिविधियों में नियमित भागीदारी आत्म-विश्वास, सामाजिक जागरूकता और आत्मसम्मान बढ़ाती है। इन सब का सकारात्मक प्रभाव दिव्यांग बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। 3. एकाग्रता में सुधार (Improvement in concentration) – दिव्यांग बच्चे अपना ध्यान केंद्रित करने में असमर्थ होते हैं। शारीरिक गतिविधियों का अभ्यास उन्हें उनका ध्यान अपनी ओर खींचते हैं और धीर-धीरे उनकी एकाग्रता में सुधार लाते हैं। 4. व्यावहारात्मक सुधार (Improvement in Behaviour) – शारीरिक गतिविधियां दिव्यांग बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में भी योगदान देती है। शारीरिक गतिविधियाँ अथवा खेल-कूद न केवल उन्हें स्वनुशासन सिखाते हैं बल्कि लक्ष्य निर्धारण, निर्णय लेने आदि संबंधी कौशलों को भी सुधारते हैं। खेल-कूद के अवसर उन्हें साथियों के साथ बतचीत करने और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफलता प्रदान करते हैं। इसका प्रभाव यह पड़ता है कि वे समस्याओं को समझने और उनका समाधान ढूंढने में समक्ष होते हैं। अन्य कौशलों को सीखने के लिए भी वे इसी प्रक्रिया का अनुसरण करते हैं। परिणामस्वरूप उनके संज्ञानात्मक व्यवहार में सुधार होता है। 5. नियमित दिनचर्या (Regular daily routine) – शारीरिक गतिविधियों व खेल-कूद में भाग लेने वाले दिव्यांग बच्चे दिन भर सक्रिय रहते है तथा अकेलेपन, तनाव, उदासी आदि नकारात्मक भावों-विचारों से दूर रहते हैं। 6. सामाजिक कौशलों का विकास (Development of social skills) – दिव्यांग बच्चे अन्य हमउम्र सामान्य बच्चों के साथ मेल-जोल बढ़ाने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। यदि दिव्यांग बच्चों को शारीरिक गतिविधियों में सम्मिलित किया जाता है तो वे अपने साथियों के साथ सामाजिक संबंध स्थापित कर लेते है तथा लक्ष्य को पूरा करने के लिए अन्य लोगों को सहयोग देते हैं जिससे उनका आत्मबल और आत्मविश्वास बढ़ता है। शारीरिक गतिविधियाँ दिव्यांग बच्चों को यह एहसास करवाती है कि समाज में उनकी भी विशिष्ट भूमिका है और वे समाज का ही एक अंग हैं। 7. आत्म-सम्मान में वृद्धि (Better self-esteem) – नियमित रूप से शारीरिक क्रियाएँ या गतिविधियाँ करने से दिव्यांग बच्चों के आत्म-सम्मान व आत्म-विश्वास की वृद्धि होती हैं। ऐसा देखा गया है कि- शारीरिक क्रियाओं के दौरान दूसरों से वार्तालाप तथा मिलने-जुलने से दिव्यांग बच्चे के आत्म-विश्वास में वृद्धि होती है तथा उसमें उपलब्धि की भावना जागृत होती है। 8. चिंता, तनाव व अवसाद के स्तर में कमी (Reduces the level of anxiety, strees and depression) – शारीरिक गतिविधियाँ या क्रियाएँ विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों में चिंता, तनाव तथा अवसाद के स्तर में कमी करती हैं। 9. संज्ञानात्मक लाभ (Improved social interaction) – नियमित शारीरिक क्रियाएँ दिव्यांग बच्चों के सामाजिक व्यवहार में सुधार लाने के बहुत से अवसर प्रदान करती हैं। शारीरिक गतिविधियों में शामिल होने के दौरान सामाजिक संबंध विकसित होते हैं जिनके परिणामस्वरूप सामाजिक व्यवहार में सुधार होता है। 10. स्वास्थ्य समस्याओं की आशंका में कमी (Reduces the risk of health complications) – नियमित रूप से शारीरिक क्रियाएँ करने से दिव्यांग बच्चों में विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं जैसे कि उच्च रक्त दबाव, मधुमेह (Diabetes) आदि होने की संभावना में कमी आती हैं तथा साथ ही साथ भूख तथा निंद्रा की गुणवत्ता में सुधार होता है। इस प्रकार हम देखते है कि शारीरिक गतिविधियाँ दिव्यांग बच्चों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। |
दिव्यांग बच्चों के लिए शारीरिक गतिविधियों का निर्धारण करने के लिए रणनीतियाँ (Strategies to Make Physical Activities Assessable for Children with Special Needs) – प्रायः विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों के विकास के लिए कुछ विशेष शिक्षण, प्रशिक्षण सामग्री की आवश्यकता होती है जिसका चुनाव बच्चे की जरूरत को देखते हुए करना चाहिए। एक अक्षम बच्चे के लिए सहायक सामग्री एवं उपकरण की आवश्यकता है या नहीं, या उसे किस प्रकार की सामग्री चाहिए, आदि सारी बातों को बहुत सावधानी के साथ चुनना चाहिए और समय-समय पर उनका मूल्यांकन भी करते रहना चाहिए। जो सहायक सामग्री किसी बच्चे को एक समय विकासात्मक स्तर में सहायक हो सकती है, वहीं कुछ समय पश्चात् उसके लिए उतनी उपयोगी नहीं रहती है। विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों की सहायक सामग्री का चुनाव करते समय बच्चे की विकासात्मक स्थिति पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। दिव्यांग बच्चों को शारीरिक गतिविधियाँ सुलभ कराने के लिए कुछ रणनीतियाँ बनाई गई है। इस संशोधित योजना/कार्यक्रम को अनुकूलित शारीरिक शिक्षा नाम दिया गया है। इस योजना का उद्देश्य दिव्यांग बच्चों की खेल-कूद संबंधी गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी कराना है। अनुकूलित शारीरिक शिक्षा के अन्तर्गत निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखकर रणनीतियाँ बनाई जाती है |
1. व्यक्तिगत रुचियों तथा आवश्यकता पर विचार – इस कार्यक्रम के अन्तर्गत चुनी गई खेल गतिविधियाँ दिव्यांग बच्चों की रुचियों, आवश्यकताओं एवं क्षमताओं के अनुसार होनी चाहिए। ये गतिविधियाँ दिव्यांग बच्चों की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं भावनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली होनी चाहिए। 2. शिक्षकों का प्रशिक्षण – उस कार्यक्रम में लिप्त शिक्षकों को आवश्यकतानुसार प्रशिक्षण मिलना अतिआवश्यक है। प्रशिक्षकों में दिव्यांग बच्चों की गतिविधियों को उनकी आवश्यकतानुसार अनुकूलित करने की योग्यता होनी चाहिए। 3. दिशा-निर्देश रणनीति में संशोधन – इस कार्यक्रम में दिव्यांग बच्चों को दिए जाने वाले निर्देश बहुत सरल और स्पष्ट होने चाहिए। दिशा-निर्देश लिखित अथवा मौखिक हो सकते हैं। चित्रों के माध्यम से भी दिशा-निर्देश दिए जा सकते हैं, जिनसे दिव्यांग बच्चों को खेल-संबंधी गतिविधियों को समझने में आसानी हो। 4. खेल नियमों में संशोधन – इस कार्यक्रम के अन्तर्गत खेल संबंधी नियम सरल होने चाहिए। खेल – कौशल के स्तर अथवा प्रतिभागियों की क्षमता के अनुसार खेल-नियमों में संशोधन किया जा सकता है। किसी तरह का सुधार दिखाई देने पर नियमों में धीरे-धीरे परिवर्तन करना चाहिए। 5. खेल उपकरणों में संशोधन – दिव्यांग बच्चों की आवश्यकतानुसार खेल उपकरणों के रंग, माप, भार एवं आकार में परिवर्तन किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, दृष्टिक्षीणता वाले बच्चों के लिए रंग-बिरंगी गेंदों को प्रयोग में लाना। 6. वातावरण में परिवर्तन – दिव्यांग बच्चों की आवश्यकतानुसार वातावरण में संशोधन किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि बच्चों की खेल क्षमता कम हो तो खेल-क्षेत्र छोटा किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, खेल-कूद के लिए उपयुक्त वातावरण बनाने के लिए बेहतर रोशनी, संगीत आदि की सुविधा भी उपलब्ध कराई जा सकती है। 7. मेडिकल स्टाफ की निगरानी – इस कार्यक्रम के अन्तर्गत होने वाली सभी गतिविधियाँ मेडिकल स्टाफ की निगरानी में की जानी चाहिए। दिव्यांग बच्चों से संबंधित सभी सुरक्षा साधन उपलब्ध होने चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर उनका उपयोग किया जा सके। इन बच्चों का प्रशिक्षण डॉक्टर की निगरानी में किया जाना चाहिए। प्रशिक्षक को चाहिए कि वह प्रशिक्षण की गति धीरे-धीरे बढ़ाए जिससे मांसपेशियों की शक्ति एवं सहनशक्ति का विकास हो सके। ऐसे बच्चों को फिजियोथेरेपी तथा व्यावसायिक चिकित्सा उपलब्ध करानी चाहिए। 8. रुचि – दिव्यांगों के लिए शारीरिक क्रियाओं का निर्धारण करते समय उनकी रुचि का विशेष ध्यान रखना चाहिए ताकि वह इन शार क्रियाओं में पूरे उत्साह के साथ भाग ले सके। 9. क्षमता – दिव्यांगों के लिए शारीरिक क्रियाओं का निर्धारण करते समय दिव्यांग की शारीरिक तथा मानसिक योग्यता का ध्यान रखना चाहिए ताकि उसकी क्षमता के अनुरूप ही शारीरिक क्रियाओं का चयन किया जा सके। 10. अनुदेश – शारीरिक क्रियाओं के दौरान दिए जाने वाले अनुदेश दिव्यांग की अक्षमता की प्रकृति के अनुरूप होने चाहिए ताकि उन्हें उनके अनुरूप कार्य करने में आसानी हो, जैसे कि- दृष्टि सम्बन्धी दिव्यांग के अनुदेश सुनने वाले होने चाहिए। |