NCERT Solutions Class 12th History (Part – Ⅲ) Chapter – 10 उपनिवेशवाद और देहात (Colonialism and the Countryside) Notes In Hindi

NCERT Solutions Class 12th History (Part – Ⅲ) Chapter – 10 उपनिवेशवाद और देहात (Colonialism and the Countryside)

TextbookNCERT
Class 12th
Subject History (Part – Ⅲ)
Chapter10th
Chapter Nameउपनिवेशवाद और देहात (Colonialism and the Countryside)
CategoryClass 12th इतिहास (Part – Ⅲ)
Medium Hindi
SourceLast Doubt

NCERT Solutions Class 12th History (Part – Ⅲ) Chapter – 10 उपनिवेशवाद और देहात (Colonialism and the Countryside) Notes In Hindi इस अध्याय में हम उपनिवेशवाद और देहात का अर्थ, प्लासी का युद्ध, कर व्यवस्था, इस्तमरारी बंदोबस्त (जमींदारी व्यवस्था, स्थाई बंदोबस्त), इस्तमरारी बंदोबस्त को लागू करने के उद्देश्य, स्थाई बंदोबस्त से जमीदारों को लाभ, ईस्ट इंडिया कंपनी के समय जमीदार की स्थिति, रैयतवाड़ी व्यवस्था, दक्कन दंगा, मुंबई में रैयतवाड़ी बंदोबस्त व्यवस्था, संथालों का आगमन, राजस्व राशि के भुगतान में जमीदार क्यों चूक जाया करते थे। इत्यादि के बारे में पढ़ेंगे।

NCERT Solutions Class 12th History (Part – Ⅲ) Chapter – 10 उपनिवेशवाद और देहात (Colonialism and the Countryside)

Chapter – 10

उपनिवेशवाद और देहात

Notes

उपनिवेशवाद और देहात का अर्थ – उपनिवेश शब्द का अर्थ गुलामी और उपनिवेशवाद का अर्थ गुलाम बनाने वाली विचारधारा होता है। देहात शब्द को अक्सर गाँव या ग्रामीण जीवन पद्धति शैलीव्यतीत करने वाले व्यक्तियों के संदर्भ में देखा जाता है मतलब उपनिवेशवाद और देहात अर्थ औपनिवेशिक शासन का यानी अंग्रेजी शासन का भारतीय ग्रामीण जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा।
प्लासी का युद्ध – प्लासी का युद्ध 23 जून 1757 को मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 किलोमीटर दूर नदिया जिले में गंगा नदी के किनारे प्लासी नामक स्थान पर हुआ। इस युद्ध में एक तरफ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और दूसरी तरफ बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की शाहीसेना थी कंपनी की सेना ने रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में नवाब सिराजुद्दौला की शाही सेना को हरा दिया और पूरे बंगाल पर अपना कब्जा कर लिया इस प्रकार अंग्रेजों के अधीन आने वाला भारत का सबसे पहला क्षेत्र बंगाल बना।

कर व्यवस्था – बंगाल पर विजयी होने के बाद अंग्रेज़ो ने कर (TAX) वसूलने की व्यवस्था बनाई। अंग्रेजों के समयकाल में मुख्य रूप से तीन प्रकार की कर व्यवस्था प्रचलित थी।

  1. इस्तमरारी बंदोबस्त (जमींदारी व्यवस्था, स्थाई बंदोबस्त) (1793) – बंगाल, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, बनारस, उत्तर कर्नाटक के लगभग भूभाग में के लगभग 19% भूभाग में स्थाई बंदोबस्त को लागू किया गया था।
  2. रैयतवाड़ी व्यवस्था (1792) – यह व्यवस्था असम मद्रास मुंबई के प्रांतों में लागू किया गया था। जो औपनिवेशिक भारत के भूमि का 51% भाग था।
  3. महालवाड़ी व्यवस्था (1822) – यह व्यवस्था उत्तर प्रदेश के मध्य प्रांत तथा पंजाब में लागू किया गया था। जो अपने औपनिवेशिक भारत की भूमि का 30% भाग था।

इस्तमरारी बंदोबस्त (जमींदारी व्यवस्था, स्थाई बंदोबस्त)

  1. भारत में औपनिवेशिक शासन सर्वप्रथम बंगाल में स्थापित किया गया था। यही वह प्रांत था जहाँ पर सबसे पहले ग्रामीण समाज को पुनर्व्यस्थित करने और भूमि संबंधी अधिकारों की नई व्यवस्था तथा नई राजस्व प्रणाली स्थापित करने के प्रयास किए गए थे।
  2. 1793 में इस्तमरारी बंदोबस्त बंगाल के राजाओं और ताल्लुकदारों के साथ लागू किया गया। उस समय कार्नवालिस गवर्नर जनरल था। इन्हें जमींदार कहा गया और उनका कार्य सदा के लिए एक निर्धारित कर का संग्रह किसानों से करना था। इसे सूर्यास्त विधि भी कहा जाता था।
  3. ईस्ट इंडिया कम्पनी ने राजस्व की राशि निश्चित कर दी थी। जो प्रत्येक जमीदार को अदा करनी होती थी। जो जमीदार अपनी निश्चित राशि नही चुका पाते थे उनसे राजस्व वसूल करने के लिए उनकी सम्पदाये नीलाम कर दी जाती थी।
  4. इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किये जाने के बाद 75% से अधिक जमीदारिया हस्तांतरित कर दी गई।
इस्तमरारी बंदोबस्त को लागू करने के उद्देश्य – ब्रिटिश कंपनी ने अपनी कई उद्देश्यों को पूरा करने के लिए बंगाल के नवाब राजाओं और तालुकदार के साथ इस्तमरारी बंदोबस्त व्यवस्था को लागू किया। इसके अनुसार कंपनी को अस्थाई रूप से राजस्व की राशि नियमित रूप से प्राप्त कर सके। बंगाल विजय के समय परेशानी को दूर करने के लिए । 1770 में बंगाल की ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था दयनीय तथा संकट पुर्ण स्थिति का सामना कर रही थी। अकाल की स्थिति की पूर्ण आवृत्ति होने के कारण कृषि नष्ट हो रही थी और व्यापार पतन की ओर अग्रसर हो रहा था। कृषि निवेश के अभाव में क्षेत्र में राजस्व संसाधन का भाव हो गया था कृषि निवेश को प्रोत्साहन देने के लिए। कंपनी की इस व्यवस्था में जमींदारों को भूस्वामी नहीं बल्कि कर संग्राहक बना दिया। कंपनी ने उन्हें अपना वफादार बनने का मौका दिया परंतु इस कंपनी ने धीरे-धीरे नियंत्रण कर शासन तथा कार्यप्रणाली को अपने अधीन कर सिमित कर दिया। कम्पनी ने ऐसी व्यवस्था को बनाया कि उनके विशेष अधिकार, सैन्य अधिकारी, स्थानीय न्याय अधिकार तथा सीमा शुल्क अधिकारी समाप्त हो गए।

स्थाई बंदोबस्त से जमीदारों को लाभ

  1. जमीदार भूमि के वास्तविक स्वामी बन गए और उनका यह अधिकार वंशानुगत बन गया।
  2. जमीदार अंग्रेजों की जड़ें भारत में मजबूत करने में मदद करने लगे।
  3. जमीदार जब जमीनों के मालिक बन गए तो वह कृषि में रुचि लेने लगे और भारत में उत्पादन में भारी वृद्धि हुई जिससे अंग्रेजों को राजस्व प्राप्त करने में और अधिक पैसा मिलने लगा जिसका लाभ भारतीय जमीदारों को भी हुआ।
  4. कंपनी को प्रतिवर्ष निश्चित आय की प्राप्ति होने लगी।
  5. बार – बार लगान की दरें निर्धारित करने का झंझट खत्म हो गया।
  6. लगान वसूल करने के लिए कंपनी को अब अधिकारियों की आवश्यकता नहीं रही और धन स्वयं जमीदार इकट्ठा करके कंपनी तक पहुंचाने लगे।

स्थाई बंदोबस्त के किसानों पर बुरे प्रभाव

  1. किसानों को जमीदारों की दया पर छोड़ दिया गया।
  2. जमीदार किसानों का बेरहमी से शोषण करने लगे।
  3. किसानों का जमीन पर कोई हक नहीं रहा वह सिर्फ जमीन पर मजदूर बनकर रह गए।
  4. लगान की दरें बहुत अधिक थी जिससे वह दिनों दिन गरीब होते चले गए
  5. किसानों के पास अपनी जमीन बचाने के लिए कोई कानूनी अधिकार नहीं रह गया।
  6. समाज में आर्थिक और सामाजिक शोषण बढ़ता गया जिसके कारण किसान गरीब व जमीदार धनवान बनते चले गए।

ईस्ट इंडिया कंपनी के समय जमीदार की स्थिति

  1. 1793 के स्थाई बंदोबस्त के अनुसार जो जमीदार भूमिकर की निश्चित राशि नहीं जमा करवा सकता था उसकी भूमि नीलाम कर दी जाती थी।
  2. नीलामी करने की इस व्यवस्था से 75 % से अधिक जमीदारी अपनी जमीन गवा बैठे थे।
  3. इसके अनुसार जमीदारों को निश्चित भूमि कर जमा करवाना होता था इस प्रकार जमीदार भूमि कर इकट्ठा करने वाले ही बनकर रह गए।

जमीदारों की स्थिति में गिरावट के कारण

  1. राजस्व की राशि बहुत अधिक थीं जमीदार इसे जमा नहीं करा पाते थे अतः उनकी जमीन नीलाम कर दी जाती थी जिससे उन्हें हानि उठानी पड़ती थी।
  2. कृषि की उपज के भाव कम थे जिससे जमीदार किसानों से निर्धारित कर वसूल नहीं कर पाते थे।
  3. फसल खराब होने पर भी राजस्व जमा करवाना पड़ता था जिससे जमीदारों को या तो घाटा उठाना पड़ता था या उनकी जमीन नीलाम कर दी जाती थी।
  4. किसानों से कर ना मिलने पर जमीदार मुकदमा करने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते थे और मुकदमा लंबा चलने से उन्हें घाटा होता था।

राजस्व राशि के भुगतान में जमीदार क्यों चूक जाया करते थे

  • 1770 का आकाल।
  • राजस्व की राशि की दरें भविष्य को ध्यान में रखकर 1793 में निर्धारित की गई थी जो कि बहुत ज्यादा थी।
  • राजस्व की दरें स्थाई थी चाहे फसल खराब हो या ठीक हो उनको कभी बदला नहीं जा सकता था।
  • लगान की दरें भविष्य को ध्यान में रखकर दर्ज की गई थी।
  • राजस्व की दरें काफी ऊंची थी।
  • राजस्व चुकाने के लिए समय बहुत पर्याप्त हुआ करता था इसके लिए सूर्य अस्त विधि का प्रयोग किया जाता था।
  • कई स्थानों पर स्पष्ट नहीं था कि लगान कौन एकत्रित करेगा अर्थात तालुकदार जमीदार या कलेक्टर और कहीं – कहीं पर तीनों ने ही नहीं होते थे।
  • अमीर किसान जमीदारों को लगाना देने के लिए उठाते थे छोटे किसानों को जिससे किसान लगान आगे ना दे पाए।
सूर्यास्त विधि – इस विधि के अनुसार यदि जमींदार निश्चित तिथि में सूर्यास्त होने तक अपना राजस्व नहीं चुका पाते थे तो कर की कीमत दोगुनी कर दी जाती थी और कई स्थितियों में जमींदारों की संपत्ति को नीलम भी कर दिया जाता था।
तालुकदार – तालुकदार दो शब्दों से मिलकर बना है पहला तालुका जिसका अर्थ होता है जिला और दार जिसका अर्थ होता है स्वामी इस प्रकार तालुकदार एक ऐसे व्यक्ति को कहते थे जिसका मुख्य कार्य 1 जिले से राजस्व एकत्रित करना होता था।
रैयत – रैयत का अर्थ किसान होता है इस शब्द का प्रयोग अंग्रेज किया करते थे बंगाल के अंदर रैयत जमीन को खुद नहीं जोता करते थे बल्कि आगे भूमिहीन किसानों को पट्टे पर देकर के भूमिहीन किसानों से जूतवाया करते थे।

बर्दवान में की गई एक नीलामी की घटना – जैसा कि ब्रिटिश कंपनी के अनुसार स्त्रियों से संपत्ति नहीं ली जाती थी जिस कारण बर्दवान के राजा ने अपनी जमीन की कुछ हिस्सा अपनी माता जी का नाम कर दिया और राजस्व का भुगतान नहीं किया। फलस्वरूप राजस्व की रकम बढ़ गई कंपनी के द्वारा उनकी भूमि की नीलामी आरंभ कर दी गई तो जमींदार के अपने ही लोगों ने ऊंची बोली लगाकर खरीद ली। बाद में कंपनी के अधिकारी को राशि देने से साफ इनकार कर दिया। विवश होकर अधिकारियों ने पुनः नीलामी की प्रक्रिया आरंभ कर दी जहां राजा के लोगों ने पुन : उक्त प्रक्रिया प्रारंभ कर दी और उनकी पुनरावृत्ति की अंततः जब बोली लगाने वाले थक गए तो उस भूमि को कम कीमत में बर्दवान के राजा को बेचने पड़े। इस प्रकार 1793-1801 के बीच बंगाल की चार बड़े जमींदारों की नीलामी में से एक बर्दवान के भी जमीन थी जिसमें बहुत बेनामी खरीद हुई। जहां 95% से अधिक फर्जी बिक्री थी।

जमीदार अपनी संपत्ति को नीलाम होने से कैसे बचाते थे

  1. फर्जी बिक्री के द्वारा जमीदारों अपनी जमीन को नीलाम होने से बचाते थे।
  2. जमीदार अपनी जमीनों को घर की महिलाओं के नाम पर कर दिया करते थे क्योंकि औरतों की संपत्तियों को इस्तमरारी बंदोबस्त कानून के माध्यम से नीलाम नहीं किया जा सकता था।
  3. जमीदार नीलामी एजेंटों के साथ मिलकर जोड़ – तोड़ कर लिया करते थे।
  4. जमीदार नीलामी में अपने आदमियों से अन्य लोगों की तुलना में बहुत अधिक बोली लगाकर नीलामी को प्रभावित किया करते थे।
  5. जमीदार अपनी नीलामी जमीन पर अन्य लोगों को कब्जा नहीं करने देते थे।
  6. लटियाल वर्ग नए खरीदारों को मार मार कर भगा देते थे।
  7. कई बार बाहरी लोगों को पुराने रैयत जमीदारों की संपत्तियों में घुसने नहीं दिया करते थे। 1790 के आरंभ मे जमीदारों की अच्छी हो चुकी थी।
पांचवी रिपोर्ट – 1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने ब्रिटेन की संसद में पांचवी रिपोर्ट पेश की इस में कुल 1002 पेज 800 से अधिक जमीदारों व किसानों की अर्जियां शामिल की गई कंपनी ने 1760 के दशक के मध्य जब से बंगाल का प्रशासन संभाला तब से इंग्लैंड में उसके प्रत्येक क्रियाकलापों पर बारीकी से नजर राखी जाने लगी थी।
पांचवी रिपोर्ट की विशेषताएं

  1. भारत में कंपनी के एकाधिकार का इंग्लैंड में विरोध।
  2. इंग्लैंड के अन्य राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप।
  3. निजी व्यापारियों का भारतीय बाजारों के प्रति आकर्षण।
  4. कंपनी पर कुप्रशासन व भ्रष्टाचार के आरोप।
  5. पांचवी रिपोर्ट कंपनी के शासन का इंग्लैंड में वाद–विवाद का आधार बनी।
  6. ब्रिटिश संसद ने कंपनी पर अंकुश लगाने के लिए 1773 में रेगुलेटिंग एक्ट पास किया संसद ने कंपनी को नियमित रूप से अपनी रिपोर्ट भेजने के लिए बाध्य किया।
पांचवी रिपोर्ट की आलोचना – पांचवी रिपोर्ट एक ऐसी रिपोर्ट थी जिसने भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के बारे में ब्रिटिश संसद में गंभीर वाद विवाद को जन्म दिया। इस रिपोर्ट में बंगाल में कंपनी के शासन को उजागर किया गया तथा जमीदारों के पतन का वर्णन किया गया चाहे जमीदार नीलामी के समय अपने एजेंट द्वारा नए-नए हथकंडे अपनाकर अपनी जमीनी को बचा लेते थे लेकिन पांचवी रिपोर्ट से काफी विवाद उठ खड़ा हुआ। कंपनी के विरुद्ध ब्रिटेन के व्यापारियों के विरोध के दबाव से ब्रिटिश संसद ने कंपनी पर अपना नियंत्रण स्थापित करने का फैसला कर लिया।
रैयतवाड़ी व्यवस्था – इस व्यवस्था को 1792 में मद्रास प्रेसीडेंसी के बार-महल जिले सर्वप्रथम लागू किया गया था। इस व्यवस्था के प्रारंभ हो जाने के बाद संपूर्ण मद्रास में सन् 1820 ईस्वी में कैप्टन मुनरो द्वारा प्रयोग किया गया इसके अंतर्गत कंपनी तथा रैयतों के बीच सीधा संबंध था। राजस्व के निर्धारण में तथा लगान वसूल करने में किसी जमींदारों या बिचोलियों का भूमिका नही थी। कैप्टन रिड एवं मुनरो द्वारा प्रत्येक किसान को भूमि का स्वामी माना गया। वह राजस्व सीधे कम्पनी को देगा। उसे अपने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता था और कर (Tax) ना चुकाने पर उसे भूमि देना पड़ता था। यह व्यव्स्था की अवधी समाप्त होने पर लगान का निर्धारण फिर से होता था। परंतु व्यावहारिक रूप से देखने पर राजस्व के आकलन का आधार अनुमान था उपज के काम आने पर बढ़ी हुई राजस्व की रकम की मांग के कारण कभी-कभी किसान को लगाना अदा करने में मुश्किल होती थी। यह व्यवस्था 30 वर्ष तक चली थी जहां 1820ई० में इसे उन क्षेत्रों में लागू किया गया जहां कोई भू-सर्वेक्षण नहीं हुआ था। रैयतों को इच्छा अनुसार खेत ना देकर कंपनी के अधिकारी उन्हें आने खेतों में काम करवाने लगे और भूमि कर भी बढ़ा दिया जिससे कृषक वर्ग अपनी भूमि साहूकार के पास में गिरवी रखकर ऋण लेते थे। जहा वे ॠणग्रस्ता के जाल में फंस जाते थे यदि किसान कर नहीं दे पाते थे तो उनकी भूमि छीन ली जाती थी तथा राजस्व वसूल करने के लिए कंपनी के अधिकारी रैयतों पर अत्याचार करते थे।
रैयतवाड़ी व्यवस्था का मद्रास में प्रभाव

  1. यह व्यवस्था कृषकों के लिए हानिकारक सिद्ध हुई।
  2. इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में गिरावट आ गई।
  3. कृषक गरीब एवं ऋण ग्रस्त के जाल में फंस गए।
  4. इस व्यवस्था के कारण मद्रास में लगभग 1,80,00000 एकड़ जमीन परती रह गई।
  5. इस व्यवस्था के कारण कृषि की स्थिति में भी काफी गिरावट आ गई।
मुंबई में  रैयतवाड़ी बंदोबस्त व्यवस्था – सन् 1819 से 1827 ई° तक मुंबई में गवर्नर एलफिंस्टन थे। जिन्होंने 1818 ई° में पेशवा के राज्यों को अपने अधीन कर लिया इसके बाद उन्होंने वहां रैयतवाड़ी बंदोबस्त लागू किया। इसी समय 1824-28 तक पिंगल नामक अधिकारी ने भूमि का सर्वे किया तथा उन्होंने निश्चित किया कि भूमि की उपज 55% है क्योंकि यह सर्वेक्षण गलत होने के कारण उपज का आकलन ठीक नहीं बैठा। भूमि का कर निश्चित हो जाने के कारण बहुत से किसानों ने भूमि योजना बंद कर दिया जिससे काफी क्षेत्र बंजर हो गए।
महालवाड़ी व्यवस्था – सन 1822 ई° में लोर्ड वेलेजली द्वारा उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रान्त मे लागू की गई थी । इस कर व्यवस्था के अनुसार जमींदार को निश्चित राजस्व देना पड़ता था एवं शेष अपने पास रखते थे। महालवाड़ी, महाल एवं वाड़ी से मिलकर बना है जहाँ महाल का अर्थ है गाँव के प्रतिनिधि या जमींदार या जिनके पास अधिक भूमि थी। इस व्यवस्था के अंतर्गत राजस्व रकम जमा करने का काम मुकद्दम प्रधान, किसी बड़े रैयत को दिया जा सकता था। जो सरकार को राजस्व एकत्रित कर सम्पुर्ण भुमि का कर देते थे।
महालवाड़ी व्यवस्था के प्रभाव

  1. इस व्यवस्था के कारण ग्रामीण जमींदारों की स्थिति में गिरावट आ गई।
  2. कंपनी द्वारा राजस्व की जाल में फंस जाने के कारण राजस्व कि दर वह चुका नहीं पाए परिणाम स्वरूप कंपनी द्वारा उनकी भूमि छिन ली गई।
  3. राजस्व की रकम पूरा न करने के कारण जमींदार व किसान मजदूर बन गए।
  4. गरीबी अकाल एवं मंदी के समय किसानों व जमींदारों की स्थिति में गिरावट आने के कारण काफी रोष हो जाते हैं यही गुस्सा आगे चलकर 1857 के विद्रोह के रूप में उभर जाती है।

पहाड़ी लोगों – पहाड़ी लोग राजमहल की पहाड़ियों के आस-पास रहते थे राजमहल की पहाड़ियां वर्तमान पश्चिम बंगाल के अंदर मौजूद हैं बुकानन के अनुसार यह पहाड़ियां अभेदय प्रतीत होती थी और यात्री भी वहाँ जाने से डरते थे अन्य लोगों के प्रति उनका व्यवहोर शत्रुता पूर्ण था उनकी जीवन पद्धति निम्नलिखित प्रकार की थी।

  • जंगल की उपज पर निर्भर करते थे और झूम खेती किया करते थे।
  • पहाड़ी लोग खाने के लिए जंगल से महुआ के फूल रेशम लाल काट कोयला बनाने के लिए लकड़ी इकट्ठा करते थे।
  • पेड़ों के नीचे छोटे – छोटे पौधे पर वह पशुओं की चारागाह के रूप में प्रयोग करते थे।
  • आभा काल के समय स्थानों पर हमला किया करते थे लोगों को शांति स्थापित करने के लिए खिराज दिया करते थे फिर आज एक टैक्स हुआ करता था जो पहाड़ी लोगों था।
  • भूमि को साफ करके झाड़ियों में आग लगाकर या उसकी राख को खाद के रूप में प्रयोग में लाते थे।
  • जैसे–जैसे जंगल खत्म होते गए और कृषि योग्य भूमि में वृदधि होती गई वैसे – वैसे इनका जीवन मुश्किल होता गया इनका इलीका छोटा होता गया और इनके जीवन पद्धति नष्ट होती गई।
  • खाने की फसलें दाल ज्वार बाजरा लेते थे जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए प्रति भूमि के रूप में कुछ समय खाली छोड़ दिया करते थे।
संथालों का आगमन – 18 वीं सदी के दशक में पहाड़िया लोगों के समक्ष नई समस्या उभर कर आई जो संथालों का आगमन था।ये संथाल जमिन को जोत कर चावल तथा कपास उगाते थे।जंगलों को काट कर इमारती लकड़ी निकालते थे। ये संथाल राजमहल के निचले क्षेत्रों पर आकर बस गए थे। इसलिए क्षेत्र में रहने वाले पहाड़िया लोग को और पीछे जाना पड़ा जैसा कि दोनों जन जातियां थी।दोनों झूम खेती कृषि खेती करते थे लेकिन फर्क इतना था कि पहाड़िया लोग खेती के लिए कुदाल का प्रयोग करते थे जबकि संथाल लोग हल का प्रयोग करते थे। संथाल एवं पहाड़िया के बीच काफी दिन तक संघर्ष हुआ।
संथालों की बसावट – सर्वप्रथम कंपनी अधिकारियों का ध्यान संथालों की ओर गया जिसे उन्होंने राजमहल की पहाड़ियों पर जंगल साफ करने के लिए आमंत्रण दिया था। क्योंकि यह संथाल स्थाई कृषि करते थे तथा हल भी चलाते थे। कंपनी द्वारा सन 1832 ई० में राजमहल की पहाड़ियों के निचले भाग में बसने के लिए एक बड़ा क्षेत्र “दामिन ए कोह” दे दिया। इस जगह को संथालों का भूमि घोषित कर कथा सीमाओं की सीमांकित कर दिया गया।

संथाल विद्रोह – जब सरकारी अधिकारियों जमींदारों व्यापारियों पर अत्याचार तथा शोषण किया गया जिसके विरोध में संथालों ने एक विद्रोह को आरंभ किया इसे ही संथाल विद्रोह की संज्ञा दी गई। यह विद्रोह 1855 से 1846 ई० में प्रारंभ हुआ जिनका नेतृत्व सिद्धु तथा कान्हू ने किया। इस विद्रोह के अंतर्गत सरकारों ने जमींदारों के समायोजन के घरों को लूटा खदानों को छीना सरकारी अधिकारियों ने इस विद्रोह को दबाने के लिए मारपीट करके उनका दमन प्रारंभ किया। जिससे विद्रोह करने वाले वैसे संथाल और अधिक उग्र हो गए। संथालों ने सिद्धू तथा कान्हू को ईश्वर के भेजे हुए दूत माना और उन्हें विश्वास था कि यह इनके शोषण से मुक्ति दिलाएंगे। संथाल अस्त्र-शस्त्र, तीर-कमान, भाला, कुल्हाड़ी आदि लेकर एकत्रित हुए और अंग्रेजों तथा जमींदारों से धमकी के साथ तीन मांग प्रस्तुत किए-

1. उनका शोषण बंद किया जाए।
2. उनकी जमीन वापस की जाए।
3. उनको स्वतंत्र जीवन जीने दिया जाए।

कंपनी द्वारा इन चेतावनी पर ध्यान नहीं दिए जाने के कारण संथालों ने जमींदारों साहूकारों के विरोध में सशस्त्र विद्रोह आरम्भ कर दिये।

विद्रोह का दमन – जब संथाल विद्रोह काफी तीव्र गति से फैला तब इस विद्रोह में निम्न वर्ग की गैर संथालियों ने संथाल के साथ मिलकर इस विद्रोह में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। परंतु ठीक इसके विपरीत कंपनी के पास आधुनिक हथियार अधिक होने के कारण उन्होंने इस विद्रोह को दबा दिया। इस विद्रोह के पश्चात संथाल को संतुष्ट करने के लिए अंग्रेज अधिकारी ने कुछ विशेष कानून लागू किया। संथाल परगना को पुनः निर्माण कराया जिसके अंतर्गत 5500 वर्ग मिल का क्षेत्र था। जिसमें भागलपुर तथा बीरभूम जिला का हिस्सा था।
फ्रांसिस बुकानन – जैसा कि हम जानते हैं भारतीय विवरण के जितने भी महत्वपूर्ण साक्ष्य हैं उसमें महत्वपूर्ण योगदान फ्रांसिस बुकानन का था। जो उस समय (1794-1815) की जानकारी देते हैं। फ्रांसिस बुकानन ना तो इतिहास-कार था ना ही सेवा अधिकारी फिर भी उसके विवरण तत्य्युगीन इतिहास के अच्छे स्रोत हैं। वे एक अच्छा चिकित्सक था। कुछ समय तक वह वेलेजली का शल्य चिकित्सक बन कर रहा। उसने कोलकाता में एक चिड़ियाघर स्थापित किया था जो बाद में अलीपुर चिड़ियाघर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कुछ समय के लिए वनस्पति विज्ञान का प्रभारी भी रहा। बाद में बंगाल सरकार के निवेदन पर कंपनी के क्षेत्राधिकारी वाली भूमि का सर्वे भी किया । 1805 में वह अस्वस्थ हो गया और वह ब्रिटेन वापस लौट आया । फ्रांसिस बुकानन अपनी मां की मृत्यु के बाद उनके संपत्ति के वारिस बने। उन्होंने अपनी मां की वंश का नाम हैमिल्टन को अपना लिया तथा फ्रांसिस बुकानन को बुकानन हैमिल्टन कहा जाता है।
दक्कन दंगा – 12 मई 1875 ई० को पुणे जिले के सुपा नमक गांव में यह आंदोलन हुआ था इस विद्रोह में सुपा गांव के रैयत ने मिलकर साहूकारों के विरोध में अपना आक्रोश व्यक्त किया। किसानों द्वारा साहूकारों के लेखा खाता जला दिया गया उनके घर में आग लगा दी गई अनाज की दुकानें लूट ली गई।
दक्कन दंगा आयोग (1875) –  यह विद्रोह 1857 के विद्रोह की भांति थी। अतः ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों द्वारा मुंबई से सरकार पर मामले की जांच कराने का दबाव डाला गया। मुंबई सरकार ने जांच के लिए सन् 1875 ईस्वी में दक्कन में हुए विद्रोह के जांच के लिए एक आयोग गठित किया। जांच के बाद तैयारी की गई रिपोर्ट को 1875 में पार्लियामेंट भेजी गई। इस रिपोर्ट में रैयतों पर अत्याचार तथा उनमें असंतोष, रैयत वर्ग तथा ऋण दाताओं के बयान, भू राजस्व की कीमतों तथा जिला कलेक्टर द्वारा भेजी गई रिपोर्ट तथा रैयतों की याचिकाओं को संकलित किया गया है। जो इतिहास-कारों के लिए इस विद्रोह के बारे में विशेष जानकारी उपलब्ध कराता है।