NCERT Solutions Class 12th History (Part – Ⅰ) Chapter – 2 राजा, किसान और नगर (Kings Farmers and Towns) Notes In Hindi

NCERT Solutions Class 12th History (Part – Ⅰ) Chapter – 2 राजा, किसान और नगर (Kings Farmers and Towns)

TextbookNCERT
Class 12th
Subject History (Part – Ⅰ)
Chapter 2nd
Chapter Nameराजा, किसान और नगर (Kings Farmers and Towns)
CategoryClass 12th History
Medium Hindi
SourceLast Doubt
NCERT Solutions Class 12th History (Part – Ⅰ) Chapter – 2 राजा, किसान और नगर (Kings Farmers and Towns) Notes In Hindi वैदिक सभ्यता, सामाजिक वर्ग एव जाति प्रथा, स्त्रियों की दशा, चार वेद, गण एवं संघ, मगध महाजनपद, चन्द्रगुप्त मौर्य, मूर्तिकला, अशोक के  स्तम्भ, मौर्य साम्राज्य में प्रशासन, मेगस्थनीज, सम्राट अशोक, पियदस्सी, सिक्के किस प्रकार के होते थे, कलिंग का युद्ध, धम्म से अभिप्राय?

NCERT Solutions Class 12th History (Part – Ⅰ) Chapter – 2 राजा, किसान और नगर (Kings Farmers and Towns)

Chapter – 2

राजा, किसान और नगर

Notes

वैदिक सभ्यता – हड़प्पा सभ्यता के अंत के बाद वैदिक सभ्यता आई जो आर्यों के द्वारा बनाई गई सभ्यता थी। वैदिक सभ्यता एक ग्रामीण सभ्यता थी, जो की 1500 ई. पू. से 600 ई. पू. तक चली, वैदिक काल में ही चारों वेदों की रचना हुई थी। वैदिक सभ्यता के बाद महाजनपद काल आया इस समय नए नगरो का विकास हुआ।

चार वेद

  • ऋग्वेद
  • यजुर्वेद
  • सामवेद
  • अथर्ववेद 

छठी शताब्दी ईसा पूर्व एक परिवर्तनकारी काल – प्रारंभिक भारतीय इतिहास में 6वीं शताब्दी ई. पू. को एक अहम बदलावकारी काल मानते है। इसका कारण आरंभिक राज्यों व नगरों का विकास हुआ, लोहे के बढ़ते प्रयोग और सिक्कों का प्रचलन हुआ। इसी समय में बौद् तथा जैन सहित भिन्न-भिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का विकास हुआ। बौद्ध एवं जैन धर्म के प्रारंभिक ग्रंथों में महाजनपद नाम से 16 राज्यों का जिक्र मिलता है। 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व कृषियों के लिए परिवर्तन काल माना गया है। इस काल मे लोहे के हल का प्रयोग हुआ जिससे कठोर जमीन को जोतना आसान हुआ और इस काल में धान के पौधे का रोपण शुरू हुआ। इससे फसलों की उपज बढ़ गई।

जनपद और महाजनपद – ऋग्वैदिक युग में राज्य को जन कहा जाता था। तथा उत्तरवैदिक युग में राज्य को जनपद कहा जाता था। 6वीं शताब्दी ईसा पूर्व में देश के राजनीतिक क्षितिज पर जिन विभिन्न राज्यों का असतित्व दिखाई देता था उन्हें महाजनपद की संज्ञा दी गई है। इस समय के विभिन्न महाजनपदों का उल्लेख बौद्ध ग्रंथ के अंगुत्तरनिकाय एवं जैन धर्म के ग्रंथ भगवतीसूत्र में हुआ है।

इनमे अंगुत्तरनिकाय की सूची को अधिक विश्वसनीय एवं प्रमाणित माना गया है। बौद्ध एवं जैन धर्म के प्रारंभिक ग्रंथों में महाजनपद नाम से 16 राज्यों का जिक्र मिलता है। हालांकि महाजनपदों के नाम की तालिका इन ग्रंथों में एक बराबर नहीं है किन्तु वज्जि, मगध, कोशल, कुरु, पांचाल, गांधार एवं अवन्ति जैसे नाम अकसर मिलते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि उस उक्त महाजनपद सबसे अहम महाजनपदों में से गिने जाते होंगे।

अधिकांश महाजनपदों पर राजा का शासन था। लेकिन गण और संघ के नाम के राज्यों में लोगों का समूह शासन करता था। हर जनपद की राजधानी होती थी जिसे किल्ले से घेरा जाता था। किलेबंद राजधानियों के रख-रखाव और प्रारंभी सेनाओं और नौकरशाही के लिए अधिक धन की जरूरत थी। शासक किसानों और व्यपारियों से कर वसूलते थे। ऐसा हो सकता है कि पड़ोसी राज्यों को लूट कर धन इकट्ठा किया जाता हो। धीरे-धीरे कुछ राज्य स्थाई सेना और नौकरशाही रखने लगे।

गण एवं संघ

  • गण – गण शब्द का प्रयोग कई सदस्य वाले समूह के लिए किया जाता था।
  • संघ – संघ शब्द का प्रयोग किसी संगठन या सभा के लिए किया जाता हैं।

गण या संघ में कई शासक होते हैं कभी-कभी लोग एक साथ शासन करते थे। सभाओं में वाद-विवाद के जरिए निर्णय लिया जाता था। गणों की सभाओं में महिलाओं, दसों, मजदूरों की भागीदारी नही थी। इसलिए इन्हें लोकतन्त्र नही माना जाता था। भगवान बुद्ध और भगवान महावीर दोनो इन्ही गणों से सम्बंधित थे। वज्जि संघ की ही भांति कुछ राज्यो में भूमि सहित अनेक आर्थिक स्रोतों पर राजा गणसामुहिक नियंत्रण रखते थे।

मगध महाजनपद – मगध आधुनिक बिहार राज्य में स्थित है। मगध 6वीं से 4वीं शताब्दी ई. पूर्व में सबसे शक्तिशाली महाजनपद बन गया था। प्रारंभ में राजगृह मगध की राजधानी थी। पहाड़ियों के बीच बसा राजगृह एक किलेबंद शहर था। बाद में 4वीं शताब्दी ईसा पूर्व में पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया गया।

(वर्तमान में पाटलिपुत्र को ही पटना कहते हैं) अनेक राजधानियों की किलेबंदी लकड़ी, ईट या पत्थर की ऊँची दीवारे बनाकर की जाती थी। डॉ हेमचन्द्र राय चौधरी ने मगध के बारे में कुछ इस प्रकार बताया की मगध का प्ररंभिक इतिहास हर्यक कुल के राजा बिम्बिसार से प्रारंभ हुआ है मगध को इन्होंने दिग्विजय और उत्कर्ष के जिस मार्ग पर अग्रसर किया, वह तभी समाप्त हुआ जब कलिंग के युद्ध के उपरांत अशोक ने अपनी तलवार को म्यान में शांति दी।

मगध महाजनपद इतना समृद्ध क्यों था और शक्तिशाली महाजनपद बनने के कारण क्या थे ? – ये प्राकृतिक रूप से सुरक्षित था। इस जनपद के आस-पास पहाड़िया थी जो प्राकृतिक रूप से इसकी रक्षा करती थी। यहाँ उपजाऊ भूमि थी। गंगा और सोन नदी के पानी से सिंचाई के साधन उपलब्ध थे जिसके कारण यहां फसल अच्छी होती थी। यहाँ की जनसंख्या जनपदों से अधिक थी। जंगलों में हाथी पाये जाते थे जो कि सेना के बहुत काम आते थे।

मगध के राजा बहुत योग्य और शक्तिशाली थे। गंगा और सोन नदी के पानी से सिंचाई होती थी जिससे व्यापार में वृद्धि होती थी। लोहे की खदानें थी जिससे सेना में हथियार बनाए जाते थे। लेकिन आरंभिक जैन और बौद्ध लेखको ने मगध की प्रसिद्धि का कारण विभिन्न शासको तथा उनकी नीतियों को बताया है। जैसे बिम्बिसार, अजातशत्रु और महापद्म नन्द जैसे प्रसिद्ध राजा अत्यंत महत्वकांक्षी शासक थे और इनके मंत्री उनकी नीतियाँ लागू करते थे।

एक आरंभिक साम्राज्य (मौर्य साम्राज्य) 321-185 BC – मगध के विकास के साथ-साथ मौर्य साम्राज्य का उदय हुआ। मौर्य साम्राज्य की स्थापना चंद्र गुप्त मौर्य ने 321 ई. पू में की थी जो कि पश्चिम में अफगानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला था।

चंद्रगुप्त मौर्य – चंद्रगुप्त मौर्य (Chandragupta Maurya) का जन्म 340 ई. पू में पटना के बिहार जिले में हुआ था। भारत के प्रथम हिन्दू सम्राट थे। इन्होंने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी। चंद्रगुप्त मौर्य के गुरु (विष्णुगुप्त, कौटिल्य, चाणक्य) थे।

मौर्य वंश के बारे में जानकारी के स्रोत 

• मूर्तिकला – समकालीन रचनाएँ मेगस्थनीज द्वारा लिखित इंडिका पुस्तक-चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में आए यूनानी राजदूत मंत्री द्वारा लिखी गई पुस्तक से जानकारी मिली है अर्थशास्त्र पुस्तक (चाणक्य द्वारा लिखित) इसके कुछ भागो की रचना कौटिल्य या चाणक्य ने की थी इस पुस्तक से मौर्य शासकों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। जैन, बोद्ध, पौराणिक ग्रंथों से जैन ग्रंथ बौद्ध ग्रंथ पौराणिक ग्रंथों तथा और भी कई प्रकार के ग्रंथों से मौर्य साम्राज्य के बारे में जानकारी मिलती है।

• अशोक के  स्तम्भ – अशोक द्वारा लिखवाए गए स्तंभों से भी मौर्य साम्राज्य के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी मिली है। अशोक पहला सम्राट था जिसने अधिकारियों और प्रजा के लिए संदेश प्रकृतिक पत्थरो और पॉलिश किये हुए स्तम्भों पर लिखवाए थे।

मौर्य साम्राज्य में प्रशासन – मौर्य साम्राज्य के पाँच प्रमुख राजनीतिक केंद्र थे। राजधानी-पाटलिपुत्र और चार प्रांतीय केंद्र 

  1. तक्षशिला
  2. उज्जयिनी
  3. तोसलि
  4. सुवर्णगिरी

इन सब का उल्लेख अशोक के अभिलेखों में किया जाता है। पश्चिम मे पाक से आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और उत्तराखण्ड तक हर स्थान पर एक जैसे संदेश उत्कीर्ण किर गए थे। ऐसा माना जाता है इस साम्राज्य में हर जगह एक समान प्रशासनिक व्यवस्था नहीं रही होगी क्योकि अफ़ग़ानिस्तान का पहाड़ी इलाका दूसरी तरफ उड़ीसा तटवर्ती क्षेत्र। तक्षशिला और उज्जयिनी दोनों लंबी दूरी वाले महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग थे। सुवर्णगिरी (सोने का पहाड़) कर्नाटक में सोने की खाने थी। साम्राज्य के संचालन में भूमि और नदियों दोनों मार्गो से आवागमन बना रहना आवश्यक था। राजधानी से प्रांतो तक जाने में कई सप्ताह या महीने का समय लगता होगा।

सेना व्यवस्था – मेगास्थनीज़ के अनुसार मौर्य साम्राज्य में सेना के संचालन के लिए 1 समिति और 6 उप समितियाँ थी।

  1. नौ सेना का संचालन करना
  2. दूसरी का काम यातायात व खान पान का संचालन करना
  3. तीसरी का काम पैदल सैनिकों का संचालन करना
  4. चौथी का काम अश्वरोही का संचालन करना
  5. पाँचवी का काम रथारोही का संचालन करना 
  6. छठवीं का काम हथियारों का संचालन करना 

अन्य उप समितियाँ – दूसरी उप समिति का दायित्व विभिन्न प्रकार का था। जैसे –

  • उपकरणों को ढोने के लिए बैलगाड़ियो की व्यवस्था करना।
  • सैनिकों के लिए भोजन की व्यवस्था करना।
  • जानवरों के लिए चारे की व्यवस्था करना।
  • सैनिकों की देखभाल करने के लिए सेवकों और शिल्पकारों की नियुक्ति करना।

मेगस्थनीज – मेगस्थनीज यूनान का राजदूत और एक महान इतिहासकार था। मेगस्थनीज ने एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम इंडिका था, इस पुस्तक से हमें मौर्य साम्राज्य के बारे मैं जानकारी मिलती है। मेगस्थनीज ने बताया की मौर्य साम्राज्य में सेना के संचालन के लिए 1 समिति और 6 उपसमिति थी।

सम्राट अशोक – अशोक भारतीय इतिहास के सर्वाधिक रोचक व्यक्तियों में से एक है। अशोक की पहचान 1830 ई० के दशक में हुई, जब ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने ब्राहमी और खरोष्ठी लिपियों का अर्थ निकाला। अशोक के अभिलेख प्राकृत में हैं। जबकि पश्चिमोत्तर से मिले आरमाइक और यूनानी भाषा मे है। प्राकृत के आधिकांश अभिलेख ब्राहमी लिपि में लिखे गए थे जबकि पश्चिमोत्तर के कुछ अभिलेख खरोष्ठी में लिखे गए।

अरामाइक और यूनानी लिपियों का प्रयोग अफ़ग़ानिस्तान में मिले अभिलेखों में किया गया था। इन लिपियो का उपयोग सबसे आरंभिक अभिलेखों और सिक्को में किया गया है। प्रिंसेप को पता चलता है की अब अधिकांश अभिलेखो और सिक्को पर प्रियदस्सी यानी मनोहर मुखाकृति वाले राजा का नाम लिखा है। कुछ अभिलेखों पर राजा का नाम अशोक भी लिखा है। अशोक ने कलिंग के युद्ध के बाद युद्ध का परित्याग किया तथा धम्म विजय की नीति को अभिलेखों पर खुदवाया ताकि उसके वंशज भी युद्ध न करे।

ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि का अर्थ – 1830 में ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी जेम्स प्रिन्सेप ने ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का अर्थ निकला था। ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का प्रयोग शुरू शुरू के अभिलेखों और सिक्को पर किया जाता था जेम्स प्रिन्सेप को यह बात पता चल गयी की ज्यादातर अभिलेखों और सिक्को पर पियदस्सी राजा का नाम लिखा था।

पियदस्सी – पियदस्सी का मतलब होता है मनोहर मुखाकृति वाला राजा अर्थात जिसका मुह सुंदर हो ऐसा राजा।

खरोष्ठी लिपि को कैसे पढ़ा गया – पश्चिमोत्तर से पाए गए अभिलेखों में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया गया था। इस क्षेत्र में हिन्दू-यूनानी शासन करते थे और उनके द्वारा बनवाये गए सिक्को से खरोष्ठी लिपि के बारे में जानकारी मिलती है। यूनानी भाषा पढ़ने वाले यूरोपीय विद्वानों ने अक्षरों का मेल किया।

ब्राह्मी लिपि को कैसे पढ़ा गया – ब्राह्मी की काफी प्राचीन लिपि है आज हम लगभग भारत में जितनी भी भाषाएँ पढ़ते हैं उनकी जड़ ब्राह्मी लिपि ही है 18 वीं सदी में यूरोपीय विद्वानों ने भारत के पंडितों की मदद से बंगाली और देवनागरी लिपि में बहुत सारी पांडुलिपियाँ पढ़ी और अक्षरों को प्राचीन अक्षरों से मेल करने का प्रयास किया कई दशकों बाद जेम्स प्रिंसप में अशोक के समय की ब्राह्मी लिपि का 1838 ई. में अर्थ निकाला। 

सिक्के किस प्रकार के होते थे – व्यापार करने के लिए सिक्कों का प्रयोग किया जाता था। चांदी और तांबे के आहत सिक्के (6वी शताब्दी ई. पू) सबसे पहले प्रयोग किये गए। जिस समय खुदाई की जा रही थी, तब यह सिक्के प्राप्त हुए। इन सिक्कों को राजा ने जारी किया था या ऐसा भी हो सकता है की कुछ अमीर व्यापारियों ने सिक्को को जारी किया हो।

शासकों के नाम और चित्र के साथ सबसे पहले सिक्के हिन्दू यूनानी शासकों ने जारी किये थे। सोने के सिक्के सबसे पहले कुषाण राजाओं ने जारी किये थे, और इन सिक्कों का वजन और आकर उस समय के रोमन सिक्कों के जैसा ही हुआ करता था। पंजाब और हरियाणा जैसे क्षेत्रों में यौधेय शासकों ने तांबे के सिक्के जारी किये थे जों की हजारों की संख्या में वहाँ से मिले हैं। सोने के सबसे बेहतरीन सिक्के गुप्त शासकों ने जारी किए थे।

कलिंग का युद्ध – अशोक के राज्यारोहण के 8 बर्ष पश्चात अर्थात 261 ई० पू० में अशोक का कलिंग से युद्ध हुआ। प्लिनी के अनुसार अशोक के राज्याभिषेक के बाद कि यह घटना है। प्लिनी के अनुसार कलिंग की सेना में 60,000 पैदल 1000 घुड़सवार 700 हाथी थे। अशोक की सेना अधिक शक्तिशाली थी। कलिंग के शासक ने वीरता से अशोक का सामना किया किन्तु लंबे युद्ध के बाद वह पराजित हो गया 1,50000 सैनिक युद्ध मे बंदी बनाये गए कई लाख लोगों की भय से मृत्यु हो गयी।

डॉ. हेमचंद रॉय चौधरी के अनुसार मगध का सम्राट बनने के बाद अशोक का यह प्रथम व अन्तिम युद्ध था। इस युद्ध मे अशोक के जीवन मे अभूतपूर्व परिवर्तन किया इसके साथ ही उसने प्रतिज्ञा की वह कभी भी शस्त्र का प्रयोग नही करेगा और शास्त्र के अनुसार प्रशासन चलायेगा।

अशोक का राजत्व सिद्धांत – कलिंग युद्ध के पश्चात अशोक ने शांति व मैत्री की नीति अपनाई। इसके बाद अशोक ने दो आदेश जारी किए जो धौली और जोगढ़ नामक स्थान पर सुरक्षित है। इन आदेशों में लिखा गया है सम्राट अशोक का आदेश है कि प्रजा के साथ पुत्रवत व्यवहार हो जनता को प्यार किया जाए। अकारण लोगो को कारावाश का दण्ड या यातना न दी जाए। जनता के साथ न्याय किया जाना चाहिये।

धम्म से अभिप्राय – धम्म एक नियमावली अशोक ने अपने अभिलेखों के माध्यम से धम्म का प्रचार किया-

  • इसमें बड़ों के प्रति आदर।
  • सन्यासियों और ब्राह्मणों के प्रति उदारता।
  • सेवक और दासों के साथ उदार व्यवहार।
  • दूसरे के धर्मों और परंपराओं का आदर।

अशोक का धम्म – धम्म के सिद्धांत साधारण तथा सार्वभौमिक थे। धम्म के माध्यम से लोगों का जीवन इस संसार में और इसके बाद में संसार में अच्छा रहेगा। अशोक का व्यतिगत धर्म बौद्ध धर्म था। उसने अपने धर्म को किसी धर्म पर थोपने का प्रयास नही किया। उसने कही भी बौद्ध धर्म के तात्विक सिद्धान्तों, चार अर्थ सत्य या अष्टागिक मार्ग का प्रचार नही किया। उसने ऐसे नैतिक सिद्धान्तों का प्रचार किया जो सभी धर्मों को मान्य हो, उसके धर्म के सिद्धान्त व्यवहारिक एव निषेधात्मक दो पहलू थे।

अशोक ने धम्म प्रचार के लिए क्या किया था – अशोक ने धम्म प्रचार के लिए एक विशेष अधिकारी वर्ग नियुक्त किया जिसे धम्म महामात्य कहा जाता था। उसने तेरहवें शिलालेख लिखा है कि मैंने सभी धार्मिक मतों के लिये धम्म महामात्य नियुक्त किए हैं। वे सभी धर्मों और धार्मिक संप्रदायों की देखभाल करेंगे। वह अधिकारी अलग-अलग जगहों पर आते जाते रहते थे। उनको प्रचार कार्य के लिए वेतन दिया जाता था। उनका काम स्वामी, दास, धनी, गरीब, वृद्ध, युवाओं की सांसारिक और आकस्मिक आवश्यकताओं को पूरा करना था।

अशोक के धम्म की मुख्य विशेषताएं – अशोक का धम्म एक नैतिक नियम या सामान्य विचार संहिता थी इसकी मुख्य विशेषताएं थी-

  • नैतिक जीवन व्यतीत करना – इस धम्म के अनुसार कहा गया है कि मनुष्य को सामान्य एवं सदाचार तरीके से जीवन व्यतीत करना चाहिए।
  • वासनाओं पर नियंत्रण रखना – इस धम्म के अनुसार बाहरी आडंबर और अपने वासनाओं पर नियंत्रण रखने की बात कही गई है।
  • दूसरे धर्मों का सम्मान – अशोक के धर्म के अनुसार दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णुता रखना चाहिए।
  • जीव जंतु को क्षति ना पहुंचाना – अशोक के धम्म के अनुसार पशु पक्षियों जीव-जंतुओं की हत्या या उन्हें क्षति नही पहुँचना।
  • सबके प्रति दयालु बनना – अपने नौकर और अपने से छोटे के प्रति दयालु बनना और सभी का आदर करना।

मौर्य साम्राज्य की सामाजिक, आर्थिक एवं संस्कृति स्थितियाँ 

सामाजिक जीवन – अशोक के लेखों, कौटिल्य के अर्थशास्त्र मेगस्थनीज की यात्रा विवरण से मौर्य काल के सामाजिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है।

सामाजिक वर्ग एव जाति प्रथा 

  1. कौटिल्य अर्थशास्त्र आश्रम व्यवस्था की जानकारी।
  2. क्षत्रिय और वैश्य प्रतिष्ठित।
  3. लोग ब्राम्हणो के प्रति श्रद्धा का भाव रखते थे।
  4. मेगस्थनीज की इण्डिका के अनुसार 7 जातियों का उल्लेख है – (दार्शनिक, किसान, अहीर, कारीगर, सैनिक, निरीक्षक, सभासद)

स्त्रियों की दशा 

    1. स्वतंत्रता व समानता प्राप्त थी।
    2. स्त्रियों का पुनर्विवाह व तलाक की अनुमति थी।
    3. सार्वजनिक कार्यों में भाग लेने के लिए प्रतिबद्ध थी।
    4. स्त्रियाँ धार्मिक कार्यो को अपने पति के साथ पूरा करती थी।
    5. प्रशासन में स्त्रियाँ गुप्तचर का काम करती थी।
    6. सैनिक के रूप में भी प्रशिक्षित थी।
    7. समाज का संम्पन्न वर्ग बहुपत्नी प्रथा को स्वीकार।
    8. कुछ स्त्रियाँ वैश्याकृति को व्यवसाय के रूप में करती थी इनको गणिका या रूपजीता कहा जाता था।
    9. चाणक्य के अनुसार वंश की रक्षा के लिए स्त्री किसी अन्य व्यक्ति से पुत्र उतपन्न कर सकती थी।
    10. यूनानी लेखकों के अनुसार राजघराने की स्त्रियाँ की आवश्यकता होने पर शासनसूत्र को आपने हाथो में ले सकती थी।

रहन-सहन एवं वेशभूषा

  1. मकान-भवन विलासितापूर्ण होते थे।
  2. मौर्य साम्राज्य में प्रायः समृद्धि का काल रहा है।
  3. सूती वस्त्र पहनते थे।
  4. पहनावा भड़कीले व लबादेदार थे।
  5. तड़क-भड़क हीरे जवाहरात का शोक लोगों को था।

भोजन – दूध, दही, घी, जौ, चावल कुछ लोग मांस व शराब का सेवन भी करते थे। भोजन स्वादिष्ट बनाया जाता था। बौद्ध धर्म के प्रभाव में आने के पश्चात मांस का सेवन कम हो गया था। मेगस्थनीज लिखते है कि जब भारतीय लोग भोजन करने बैठते थे तो प्रत्येक सदस्य के सामने तिपाई आकार की मेज रख दी जाती थी। जिसके ऊपर सोने के प्याले में सबसे पहले उबले चावल और उसके बाद पकवान परोसे जाते थे।

मनोरंजन – नृत्य, संगीत, गायन, नाटक, घुड़दौड़, पशुओं का युद्ध, नौकायन, जुआ, धनुर्विद्या समाज में प्रचलित था।

आर्थिक जीवन – मौर्य साम्राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन व वाणिज्य पर आधारित थी। जिनको समिमलित स्पर्श वार्ता कहा जाता था।

मौर्य साम्राज्य का पतन के कारण 

  1. निर्बल एवं अयोग्य उत्तराधिकारी
  2. केन्द्रीय शासन की निर्बलता
  3. साम्राज्य का प्रशासन
  4. प्रांतीय शासकों का अत्याचार
  5. अत्याचारी शासक
  6. दरवार के षड्यंत्र
  7. आर्थिक कारण

क्या मौर्य साम्राज्य महत्वपूर्ण है ? – 9 वी शताब्दी मे जब इतिहासकारो में जब भारत के प्रारंभिक इतिहास की रचना करनी शुरू की तो मौर्य साम्राज्य को इतिहास का मुख्य काल माना गया। इस समय भारत गुलाम था।

  1. अद्भुत कला का साक्ष्य
  2. मूर्तियां (साम्राज्य की पहचान)
  3. अभिलेख (दूसरो से अलग)
  4. अशोक एक महान शासक था
  5. मौर्य साम्राज्य 150 वर्ष तक ही चल पाया।

दक्षिण के राजा और सरदार- दक्षिण भारत में (तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, केरल) में चोल, चेर एवं पांड्य जैसी सरदारियो का उदय हुआ। ये राज्य समृद्ध तथा स्थाई थे। प्राचीन तमिल संगम ग्रन्थों में इसका उल्लेख मिलता है। सरदार तथा राजा लंबी दूरी के व्यापार से राजस्व जुटाते थे। इनमें सातवाहन राजा भी थे।

सरदार और सरदारी – सरदार एक ताकतवर व्यक्ति होता है जिसका पद वंशानुगत भी हो सकता है एवं नहीं भी। उसके समर्थक उसके खानदान के लोग होते हैं। सरदार के कार्यों में विशेष अनुष्ठान का संचालन, युद्ध के समय नेतृत्व करना एवं विवादों को सुलझाने में मध्यस्थता की भूमिका निभाना सम्मिलित है। वह अपने अधीन लोगों से भेंट लेता है (जबकि राजा लगान वसूली करते हैं), एवं अपने समर्थकों में उस भेंट का वितरण करता है। सरदारी में प्रायः कोई स्थायी सेना अथवा अधिकारी नहीं होते हैं।

सरदार के कार्य

  1. अनुष्ठान का संचालन
  2. युद्ध का नेतृत्व करना
  3. लड़ाई, झगड़े, विवाद को सुलझाना
  4. सरदार अपने अधीन लोगों से भेंट लेता है
  5. अपने समर्थकों में उस भेंट को बांट देता है
  6. सरदारी में कोई स्थाई सेना या अधिकारी नहीं होते है
  7. इन राज्यों के बारे में जानकारी प्राचीन तमिल संगम ग्रंथों से मिलती है
  8. इन ग्रंथों में सरदारों के बारे में विवरण है
  9. कई सरदार तथा राजा लंबी दूरी के व्यापार से भी राजस्व इकट्ठा करते थे
  10. इनमें सातवाहन तथा शक राजा प्रमुख हैं
  11. सरदार अपने अधीन लोगों से भेंट लेता है अपने समर्थकों में उस भेंट को बांट देता है सरदारी में कोई स्थाई सेना या अधिकारी नहीं होते।

दैविक राजा – देवी-देवता की पूजा से राजा उच्च स्थिति हासिल करते थे। कुषाण शासक ने ऐसा किया की U. P में मथुरा के पास माट के एक देवस्थान पर कुषाण शासको ने विशाल काय मूर्ति स्थापित की। अफगानिस्तान में भी ऐसा किया इन मूर्तियो के माध्यम से राजा खुद को देवतुल्य पेश करते थे।

गुप्तकाल – गुप्तकाल सम्राटों का काल भारतीय इतिहास में स्वर्णयुग कहा जाता है। इस काल मे अनेक मेधावी और शक्तिशाली राजाओ ने उत्तर भारत को एक छत्र के नीचे संगठित कर शासन से सुव्यवस्था तथा देश में सर्मिधि व शांति की स्थापना की। डॉ रामशंकर त्रिपाठी कहते हैं कि 200 वर्षो तक गुप्त सम्राटो ने संपूर्ण उत्तर भारत और उत्तर पश्चिम के प्रदेशो और को राजनीतिक एकता प्रदान की। तथा विदेशी सत्ता से भारत को मुक्त कराया।

गुप्तकाल के शासक 

  1. श्रीगुप्त
  2. घटोत्कच
  3. चंद्रगुप्त प्रथम
  4. समुद्रगुप्त
  5. रामगुप्त
  6. चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य)
  7. कुमारगुप्त
  8. स्कन्दगुप्त

साहित्य – विष्णु पुराण, वायु पुराण, ब्राह्मण पुराण। कालिदास द्वारा रचित रघुवंश व अभिज्ञानशाकुन्तलम् विशाखदत्त का देवीचंद्रगुप्तम और मुद्राराक्षसशुद्क द्वारा रचित मृच्छकटिकम्।

अभिलेख 

  1. शिलाओं व ताम्रपत्रों पर अंकित अभिलेख
  2. समुद्रगुप्त के प्रयोग एवं ऐरण अभिलेख
  3. चंद्रगुप्त द्वितीय के महरौली व अभिलेख
  4. कुमारगुप्त मिलाद अभिलेख, गड़वा व मंदसौर अभिलेख
  5. स्कन्दगुप्त के भीतरी, कहोम, गिरनार अभिलेख

स्मारक 

  1. तिगवा (जबलपुर) का विष्णु मंदिर
  2. भूमरा का शिव मंदिर
  3. नचना कुठार का शिव मंदिर
  4. देवगढ़ का दशावतार मंदिर
  5. भीतर गाँव (कानपुर) का ईटों का मंदिर
  6. स्कन्दगुप्त का भीतरी स्तम्भ
  7. चंद्रगुप्त द्वितीय महरौली लौह स्तम्भ (दिल्ली)

गुप्तकाल तथा प्रशासन – प्रयोग प्रशिस्त समुद्रगुप्त के दरवार कवि हरिषेण ने संस्कृत में लिखी यह अभिलेख इलाहाबाद में अशोक स्तम्भ पर लिखा गया है। इसमें समुद्रगुप्त की एक योद्धा, राजा, कवि, विद्वान के रूप में प्रशंसा की गई है।

विभिन्न राजाओं के प्रति समुद्रगुप्त की नीतियाँ 

  1. आर्यावर्त उत्तर भारत के 9 राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया।
  2. दक्षिणवर्त के 12 शासकों को परास्त कर राज्य वापस लौटा दिया।
  3. कुषाण, शक तथा श्रीलंका के शासकों ने समुद्रगुप्त की अधिनता स्वीकार की।
  4. पड़ोसी देश तथा राज्य असम, तटीय बंगाल, नेपाल, उत्तर पश्चिम के कई गण समुद्रगुप्त के लिए उपहार लाते थे।
  5. समुद्रगुप्त को सिक्को पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। समुद्रगुप्त की माँ कुमारदेवी लिच्छवी कन्या थी।

समुद्रगुप्त के पिता चंद्रगुप्त प्रथम ऐसे गुप्त शासक थे जिन्होंने महाराजाधिराज की उपाधि प्राप्त की थी। चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) के दरवार में कालीदास व आर्यभट थे। चंद्रगुप्त द्वितीय ने पश्चिम भारत के शासकों को परास्त किया। इस काल के अनेक पद वंशानुगत हो गए। उदहारण हरिषेण आपने पिता की तरह महादण्डनयक अर्थात न्यायाधिकारी थे। कभी कभी एक ही व्यक्ति अनेक पदो पर होता था। उदहारण हरिषेण एक महादण्डनयक होने के साथ-साथ कुमारामात्य तथा संघि विग्राहक (युद्ध व शांति मंत्री) थे। स्थानीय प्रशासन या विकेंद्रीकरण की भी प्रकृति मौजूद थी। नगरो के स्थानीय प्रशासन में मुख्य भागीदारी जैसे नगर श्रेष्ठि, मुख्य बैंकर, शहर का व्यापारी, सार्थवाह (व्यापारियों के काफिले का नेता था) प्रथम कुलिक मुख्य शिल्पकार था। कसयस्थ लिपिकों का प्रधान था।

भूमि दान तथा नए सभ्रांत ग्रामीण – ई० की आरंभिक शताब्दियों से ही भूमिदान के प्रमाण मिलते हैं। इनमे से कई का उल्लेख अभिलेखों में मिलता है। इनमे से कुछ अभिलेख पत्थरों पर लिखे गये थे लेकिन अधिकांश ताम्रपत्रो पर खुदे होते थे। जिन्हे संभवतः उन लोगों को प्रमाण रूप मे दिया जाता था। जो भूमि दान लेते थे।

भूमि दान के जो प्रमाण मिले हैं । वे साधारण तौर पर धार्मिक सस्थाओं या ब्राह्मणो को दिए गए थे। इनमे से कुछ अभिलेख संस्कृत में थे। प्रभावतीगुप्त आरंभिक भारत के एक सबसे महत्वपूर्ण शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय (375 – 415 ई.पू) की पुत्री थी। उसका विवाह दक्कन पठार के वाकाटक परिवार मे हुआ जो एक महत्वपूर्ण शासक वंश था। संस्कृत धर्मशास्त्रों के अनुसार माहिलाओ को भूमि जैसी संपत्ति पर स्वतंत्र अधिकार नही था

लेकिन एक अभिलेख से पता चलता है कि प्रभावती भूमि की स्वामी थी और उसने दान भी किया था इसका कारण यह हो सकता है कि वह एक रानी (आरंभिक भारतीय इतिहास जी ज्ञात कुछ रानियों में से से एक थी) और इसलिए उसका यह उदाहरण ही रहा है। यह भी संभव है कि धर्मशास्त्रों को घर स्थान से पर समान रूप से लागू नही किया जाता हो। इतिहासकारो मे भूमिदान का प्रभाव एक महत्वपूर्ण वाद-विवाद का विषय बना हुआ है।

जनता के बीच राजा की छवि कैसी थी ?

  1. इसके साक्ष्य ज्यादा नहीं प्राप्त है
  2. जातक कथाओं से इतिहासकारों ने पता लगाने का प्रयास किया 
  3. ये कहानियाँ मौखिक थी। फिर बाद में इन्हें पालि भाषा में लिखा गया 
  4. गंदतिन्दु जातक कहानी → प्रजा के दुख के बारे में बताया गया 

सिक्के और राजा 

  1. सिक्के के चलन से व्यापार आसान हो गया।
  2. चॉदी। ताँबे के आहत सिक्के प्रयोग में लाए।
  3. ये सिक्के खुदाई में मिले है।
  4. आहत सिक्के पर प्रतीक चिन्ह भी थे।
  5. सिक्के राजाओं ने जारी मे किए थे।
  6. शासको की प्रतिमा तथा नाम के साथ सबसे पहले सिक्के यूनानी शासको ने जारी किए थे।
  7. सोने के सिक्के सर्वप्रथम कुषाण राजाओ ने जारी किए थे।
  8. मूल्यांकन वस्तु के विनिमय में सोने के सिक्के का प्रयोग किया जाता था।
  9. दक्षिण भारत मे बड़ी तादात में रोमन सिक्के मीले है।
  10. सोने के सबसे आकर्षक सिक्के गुप्त शासको ने जारी किए।

अभिलेखों की सत्य सीमा

  • हल्के ढंग से उत्कीर्ण अक्षर – कुछ अभिलेखों में अक्षर हल्के ढंग से उत्तीर्ण किए जाते हैं जिनसे उन्हें पढ़ना बहुत मुश्किल होता है।
  • कुछ अभिलेखों के अक्षर लुप्त – कुछ अभिलेख नष्ट हो गए हैं और कुछ अभिलेखों के अक्षर लुप्त हो चुके हैं जिनकी वजह से उन्हें पढ़ पाना बहुत मुश्किल होता है।
  • वास्तविक अर्थ समझने में कठिनाई – कुछ अभिलेखों में शब्दों के वास्तविक अर्थ को समझ पाना पूर्ण रूप से संभव नहीं होता जिसके कारण कठिनाई उत्पन्न होती है।
  • अभिलेखों में दैनिक जीवन के कार्य लिखे हुए नहीं होते हैं – अभिलेखों में केवल राजा महाराजा की और मुख्य बातें लिखी हुई होती है जिनसे हमें दैनिक जीवन में आम लोगों के बारे में दैनिक कामों के बारे में पता नहीं चलता।
  • अभिलेख बनवाने वाले के विचार – अभिलेख को देखकर यह पता चलता है कि जिसने अभिलेख बनवाया है उसका विचार किस प्रकार से हैं इसके बारे में हमें जानकारी प्राप्त होती है।

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