NCERT Solutions Class 12th Hindi अंतरा Chapter – 13 सुमिरिनी के मनके Question & Answer

NCERT Solutions Class 12th Hindi अंतरा Chapter – 13 सुमिरिनी के मनके

TextbookNCERT
Class Class 12th
Subject Hindi
Chapter 13
Grammar Nameसुमिरिनी के मनके
CategoryClass 12th  Hindi अंतरा 
Medium Hindi
SourceLast Doubt

NCERT Solutions Class 12th Hindi अंतरा Chapter – 13 सुमिरिनी के मनके Question & Answer लेखक के लिए घड़ी बहुत महत्वपूर्ण थी क्योंकि? ढेले चुन लो के माध्यम से लेखक ने क्या बताना चाहा है? मूर्ति गायब होने पर लोग लेखक को क्यों दोष देते थे? सुमिरिनी के मनके पाठ के लेखक कौन हैं? सुमिरिनी के मनके का क्या अर्थ है? बालक द्वारा लड्डू मांगे जाने पर लेखक को अच्छा क्यों नहीं लगा? बालक से कौन सा प्रश्न पूछा गया था? बालक बच गया पाठ में बालक किसका पुत्र था? बालक बच गया लघु निबंध के लेखक कौन थे? बालक बच गया लघु कथा का क्या संदेश है?

NCERT Solutions Class 12th Hindi अंतरा Chapter – 13 सुमिरिनी के मनके

Chapter – 13

सुमिरिनी के मनके

प्रश्न – उत्तर

बालक बच गया

प्रश्न 1. बालक से उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर के कौन-कौन से प्रश्न पूछे गए?
उत्तर – बालक से जितने भी प्रश्न पूछे गए वे सभी प्रश्न उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर के थे। जैसे- धर्म के लक्षण, रसों के नाम तथा उनके उदाहरण, पानी के चार डिग्री के नीचे ठंड फैल जाने के बाद भी मछलियाँ कैसे जिंदा रहती हैं तथा चंद्रग्रहण होने का वैज्ञानिक इत्यादि प्रश्न उसकी उम्र की तुलना में बहुत अधिक गंभीर थे।
प्रश्न 2. बालक ने क्यों कहा कि मैं यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा?
उत्तर – पाठशाला के वार्षिकोत्सव में आठ वर्ष के बच्चे से पूछा गया सवाल के उत्तर में उसने (जीवन भर) लोक सेवा करने को कहा इस प्रश्न का उत्तर पिता अध्यापक,और प्रधानाध्यापक ने उसे रटा रखा था।
प्रश्न 3. बालक द्वारा इनाम में लड्डू माँगने पर लेखक ने सुख की साँस क्यों भरी?
उत्तर – पाठशाला के वार्षिकोत्सव पर बच्चे से पुस्तकीय ज्ञान से हटकर जब उससे उसकी रूचि को जानने के लिए पुरस्कार मांगने को कहा तो उसने लड्डू की मांग की। बच्चे द्वारा लड्डू की मांग करने पर लेखक ने सुख की साँस ली। इसका मुख्य कारण उत्तर में बच्चे की सहज प्रवृत्ति झलक रही थी। यह प्रवृत्ति उस पर उस पर थोपी नहीं गई थी, उसका स्वाभाविक उत्तर था। बच्चे के सहज व्यवहार पर लेखक आत्म संतुष्टि हुई।
प्रश्न 4. बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटना अनुचित है, पाठ में ऐसा आभास किन स्थलों पर होता है कि उसकी प्रवृत्तियों का गला घोटा जाता है?
उत्तर – इस प्रसंग में लेखक ने कई ऐसे संकेत दिए है जिनसे बच्चे की प्रवृत्तियों का गला घोटने की स्थिति उजागर होती है। जैसे आठ वर्षीय बालक को मिस्टर हादी के कोल्हू की तरफ दिखाया जाना। उसका पीला मुंह सफेद आंखें नजर कभी ऊपर उठती हीं नही थी। उससे जो प्रश्न पूछे गए उनका बिना अटके जवाब देना, जबकि इन प्रश्नों का उसके जीवन से कोई संबंध न था। ईनाम मांगने पर उसकाहिचकना आदि यही दर्शाता था कि वह बच्चा किताबी ज्ञानी में दबकर अपने अस्तित्व भूल गया।
प्रश्न 5. “बालक बच गया। उसके बचने की आशा है क्योंकि वह लड्डू की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखानेवाली खड़खड़ाहट नहीं” कथन के आधार पर बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर – छोटे बालक की स्वाभविक प्रवृत्तियाँ होती थी कि वह जिद्द करते थे अन्य बच्चो के साथ खेले थे ऐसे प्रश्न पूछे जो उसकी समझ से परे थे खाने पीने की वस्तुओ के प्रति आकर्षित और ललायित हो सका था रंगों से प्रेम करते थे हरदम उछले कूदे अपने सम्मुख आने वाली हर वस्तु के प्रति जिज्ञासु थे शरारते करते थे जो उसे और बच्चो के समान ही बनाती है लेखक को विश्वास है कि अब भी बालक बचा हुआ था और प्रयास किया जाता था 

घड़ी के पुर्जे

प्रश्न 1. लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए ‘घड़ी के पुर्ज़े’ का दृष्टांत क्यों दिया है?
उत्तर –लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए घड़ी के पुर्ज़ें का दृष्टांत दिया हैं। घड़ी से समय जाना जा सकता हैं। घड़ी के पुर्ज़ें को खोलकर समय जानने की आवश्यकता नहीं होती। घड़ी की पुर्ज़ें जानकारी घड़ीसाज को होती हैं। इसी तरह धर्म की पूर्ण जानकारी धर्मज्ञ,वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यो को होती हैं। इसलिए धर्म के विषय में जिज्ञासा हो तो धर्माचार्यो से जाने स्वय नौसिखिए की थे तरह धर्म की बखिया मत उधेड़ो या उसके पुर्ज़ें-पुर्ज़ें खोलकर मत बिखेगे।
प्रश्न 2. ‘धर्म का रहस्य जानना वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है। आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं? धर्म संबंधी अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर – हर जीव प्राणी का अपना-अपना जीव जीव धर्म है परंतु विशेष क्षेत्र से संबंधित लोगों के अपने कुछ अलग कायदे कानून है उन में कानून कायदे को धर्म की परिभाषा में नहीं लाया जा सकता है। प्राणीमात्र के लिए धर्म क्या है। इसलिए व्याख्या धर्माचार्य कर सकते हैं। अतः धर्म का रहस्य का जानना वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यो के अतिरिक्त में आम आदमी की आवश्यक है।
प्रश्न 3. घड़ी समय का ज्ञान कराती है। क्या धर्म संबंधी मान्यताएँ या विचार अपने समय का बोध नहीं कराते?
उत्तर – धर्म संबंधी सामान्यएं या विचार अपने-अपने समय का बोध नहीं कराते हैं धर्म तो शाश्वत होता है। यह कालजयी सर्वदशिक होता है।
प्रश्न 4. धर्म अगर कुछ विशेष लोगों वेदशास्त्र, धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुट्ठी में है तो आम आदमी और समाज का उससे क्या संबंध होगा? अपनी राय लिखिए।
उत्तर – अगर धर्म कुछ विशेष लोगों वेदशास्त्र, धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुट्ठी में है, तो आम आदमी और समाज उसकी कठपुतली बनकर रह जाएगा। वे उनके स्वार्थ की पूर्ति करने का मार्ग होगा और उसे वे समय-समय पर चूसते रहेंगे। इस तरह समाज और आदमी से इनका संबंध शोषक और शोषण का रह जाएगा। ये शोषक बनकर समाज में अराजकता फैलाएँगे। ‘धर्म’ आदमी और समाज की पहुँच से दूर हो जाएगा। धर्म उनके लिए ऐसी मज़बूरी बनकर रह जाएगा और इसमें विभिन्न तरह के आडंबर विद्यमान हो जाएँगे। भारत के लोग बहुत समय पहले इन्हीं कुरीतियों से ग्रस्त थे। अगर दोबारा ऐसा हो जाता है, तो उसी प्रकार की विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाएँगी और लोगों का जीवन दुर्भर हो जाएगा। इस तरह समाज का रूप विकृत हो जाएगा।
प्रश्न 5. जहाँ धर्म पर कुछ मुट्ठीभर लोगों का एकाधिकार धर्म को संकुचित अर्थ प्रदान करता है वहीं धर्म का आम आदमी से संबंध उसके विकास एवं विस्तार का द्योतक है।’ तर्क सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर – धर्म अगर कुछ विशेष लोगों, वेदशास्त्रज्ञों, धर्माचायों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुट्ठी में हो तो आम आदमी धर्म के सही अर्थ को जानने से वंचित रह जाएगा। आम आदमी धर्म-अधर्म में भेंट करने में असमर्थ होगा। इससे सामाजिक व्यवस्था में बड़ा व्यवधान उपस्थित हो जाएगा। विशेष वर्ग के लोग धर्म-अधर्म की मनचाही व्याख्या करके अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लग जाएँगे। धर्म का धरती से लोप हो जाएगा। लोग धर्म के सही अथों के अभाव में पशु-तुल्य व्यवहार करने लगेंगे। ऐसी अवस्था में मानवता को बचा पाना या मानवता की रक्षा करना असंभव होगा। धर्म के अभाव में स्वस्थ समाज-संरचना की आशा नहीं की जा सकती।

प्रश्न 6. निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए
(क) ‘वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है कि घड़ी के पुर्ज़े जानें, तुम्हें इससे क्या?
(ख) ‘अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाज़ी का इम्तहान पास कर आया है, उसे तो देखने दो।
(ग) ‘हमें तो धोखा होता है कि परदादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बंद हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है न पुर्ज़े सुधारना, तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते।’
उत्तर – (क)आज के समय में धर्मगुरूओं ने धर्म के बारे जानने की ज़िम्मेदारी स्वयं ले ली है। इसके बाद वह अपनी सुविधा अनुसार हमें इसके विषय में बताते हैं। इस तरह हमारे लिए वे उस घड़ीसाज़ के समान बन जाते हैं, जो घड़ी को सही कर सकता है। यह सही नहीं है। लेखक लोगों को कहता है कि हमें भी इस विषय में जानना चाहिए। धर्म किसी एक की जागीर नहीं है। हमें इस प्रकार के धर्मगुरूओं को बिना मतलब के महत्व देने से बचना चाहिए।

(ख)तुम अपनी घड़ी को किसी अनाड़ी व्यक्ति को देने से डरते हो। तुम्हारे इस इनकार को समझा जा सकता है। जो व्यक्ति इस विषय पर सब सीख कर आया है, जो इसका जानकार है, उसे भी तुम अपनी घड़ी में हाथ लगाने नहीं देते हो। यह बात समझ में नहीं आती है। अर्थात लेखक कहता है कि जो व्यक्ति मूर्ख है, उसे तुम धर्म के बारे में समझाने या बताने से मना करते हो। अन्य और कोई व्यक्ति इस विषय में जानता है, जिसने इस विषय में जानकारी हासिल की है, तुम उसे कुछ क्यों नहीं बताने देते हो।

(ग)इसका आशय है कि तुम वेद-वेदांतरों की बात करते हो, संस्कृति-सभ्यता की बात करते हो, धर्म की बात करते हो मगर तुम इस विषय पर कुछ नहीं जानते हो। तुम वेद-वेदांतरों में विद्यमान ज्ञान के रक्षक बनकर लोगों को बेहकाते हो मगर तुम्हें स्वयं इसके बारे में कुछ नहीं पता है। यदि कोई इसे के बारे में समझना तथा जानना चाहता है, तुम उसे समझने नहीं देते। अतः इसमें हमें सुधार करना चाहिए। यह स्थिति मूर्खता से भरी है।

ढे़ले चुन लो

प्रश्न 1. वैदिककाल में हिंदुओं में कैसी लौटरी चलती थी जिसका ज़िक्र लेखक ने किया है।
उत्तर – उस काल में एक हिंदु युवक विवाह करने हेतु युवती के घर जाता था। यह प्रथा लाटरी के समान थी। वह अपने साथ सात ढेले ले जाता था और युवती के सम्मुख रखकर उससे चुनने के लिए कहता था। इन ढेलों की मिट्टी अलग-अलग तरह की होती थी। इस विषय में केवल युवक को ही ज्ञान होता था कि मिट्टी कौन-से स्थान से लायी गई है। इनमें मसान, खेत, वेदी, चौराहे तथा गौशाला की मिट्टियाँ सम्मिलित हुआ करती थी। हर मिट्टी के ढेले का अपना अर्थ हुआ करता था। यदि युवती गौशाला से लायी मिट्टी का ढेला उठाती थी, तो उससे जन्म लेने वाला पुत्र पशुओं से धनवान माना जाता था। वेदी की मिट्टी से बने ढेले को चुनने वाली युवती से उत्पन्न पुत्र विद्वान बनेगा इस तरह की मान्यता थी। मसान की मिट्टी से बने ढेले को चुनना अमंगल का प्रतीक माना जाता था। अतः हर ढेले के साथ एक मान्यता जुड़ी होती थी। यह प्रथा एक लाटरी के समान थी। जिसने सही ढेला उठा लिया, उसे दुल्हन या वर प्राप्त हो गया और जिसने गलत ढेला उठा लिया, उसके हाथ निराशा लगती थी। लेखक इसी कारण से इस प्रथा को लाटरी से जोड़ दिया है।
प्रश्न 2. ‘दुर्लभ बंधु’ की पेटियों की कथा लिखिए।
उत्तर – दुर्लभ बंधु एक नाटक है। इसका पात्र पुरश्री है। उसके सामने तीन पेटियाँ रख दी जाती हैं। प्रत्येक पेटी अलग-अलग धातु की बनी होती है। इसमें से एक सोना, दूसरी चाँदी तथा तीसरी लोहे से बनी होती है। प्रत्येक व्यक्ति को यह स्वतंत्रता है कि वह अपनी मनपसंद पेटी को चूने। अकड़बाज़ नामक व्यक्ति सोने की पेटी को चुनता है तथा वह खाली हाथ वापस जाता है। एक अन्य व्यक्ति चाँदी की पेटी चुनता है और लोभ के कारण उसे भी लौटना पड़ता है। इसके विपरीत जो सच्चा और परिश्रमी होता है, वह लोहे की पेटी चुनता है। इसके फलस्वरूप उसे घुड़दौड़ में प्रथम पुरस्कार प्राप्त होता है।
प्रश्न 3. जीवन साथी का चुनाव मिट्टी के ढेलों पर छोड़ने के कौन-कौन से फल प्राप्त होते हैं।
उत्तर – ढेला चुनना प्राचीन समय की प्रथा है। इसमें वर या लड़का अपने साथ मिट्टी के ढेले लाता है। हर ढेले की मिट्टी अलग-अलग स्थानों से लायी जाती थी। माना जाता था कि दिए गए अलग-अलग ढेलों में से लड़की जो भी ढेला उठाएगी, उस ढेले की मिट्टी के गुणधर्म के अनुसार वैसी ही संतान प्राप्त होगी। जैसे वेदी का ढेला चुनने से विद्वान पुत्र की प्राप्ति होगी। गौशाला की मिट्टी से बनाए गए ढेले को चुनने से संतान पशुधन से युक्त होगा और यदि खेत की मिट्टी से बने ढेले को चुन लिया जाए, तो कहने ही क्या होने वाली संतान भविष्य में जंमीदार बनेगी। इस प्रकार के फायदे देखकर ही यह प्रथा लंबे समय तक समाज में कायम रही।
इससे यह फल प्राप्त होते होगें।
1. मनोवांछित संतान न मिलने पर पछताना पड़ता होगा।
2. अच्छी लड़कियाँ इस प्रथा के कारण हाथ से निकल जाती होगी।
3. अपनी मूर्खता समझ में आती होगी।
प्रश्न 4. मिट्टी के ढेलों के संदर्भ में कबीर की साखी की व्याख्या कीजिए
1. पत्थर पूजे हरि मिलें तो तू पूज पहार।
2. इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार।
उत्तर – मिट्टी के ढेलों से यदि मनुष्य को उसकी मनोवांछित संतान प्राप्ति होती है, तो फिर कहने ही क्या थे? मनुष्य को कभी ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता ही नहीं होती या उसे परिश्रम ही नहीं करना पड़ता। कबीर ने सही कहा है कि यदि पत्थर पूजकर हरि प्राप्त हो जाते हैं, तो मैं पहाड़ पूजता। क्योंकि पहाड़ पूजने से क्या पता भगवान शीघ्र ही प्राप्त हो जाते। उनके अनुसार इससे तो मैं चक्की को पूजना उचित मानता हूँ क्योंकि वह सारे संसार का पेट भरने का कार्य करती है। लेखक इस दोहे के माध्यम से मनुष्य पर व्यंग्य करता है। उसके अनुसार मनुष्य को भविष्य का निर्धारण मिट्टी के ढेलों के आधार पर करना मूर्खता है। ढेले किसी का भाग्य बना नहीं सकते हैं। अलबत्ता उसे ऐसी स्थिति में अवश्य डाल सकते हैं, जहाँ उसे जीवनभर के लिए पछताना पड़े। लेखक की बात यह दोहा बहुत ही अच्छी तरह से स्पष्ट करता है।
प्रश्न 5.जन्मभर के साथी का चुनाव मिट्टी के ढेले पर छोड़ना बुद्धिमानी नहीं है। इसलिए बेटी का शिक्षित होना अनिवार्य है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के संदर्भ में विचार कीजिए।
उत्तर – शिक्षा बालक/बालिका के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए नितांत आवश्यक और अनिवार्य है। ज्ञान प्राप्त करके ही हम अपने अधिकार, कर्तव्य और लाभ-हानि के बारे में विचार कर सकते हैं। पुराने जमाने में आज की अपेक्षा स्थितियाँ बिल्कुल विपरीत थीं। बेटी का विवाह, ज्योतिषियों से पूछकर या किसी नाई-पंडित के कहे अनुसार तय कर दिया जाता था। आदिवासियों में अपनी परंपरा के अनुसार जीवन साथी का चयन किया जाता है। वर्तमान में बेटियों के शिक्षित होने पर इस स्थिति में आशानुरूप बदलाव आया है। अब जीवन साथी के चुनाव में उसकी योग्यता, पारिवारिक पृष्ठभूमि के साथ-साथ लड़की की सहमति भी अनिवार्य हो गई है। लेकिन शिक्षा से आए इस बदलाव का क्षेत्र अभी सीमित है। ‘बेटी ओ’ कार्यक्रम के अंतर्गत अभी बालिका शिक्षा पर और ध्यान दिया जाना आवश्यक है, ताकि बेटियाँ पढ़-लिखकर स्वयं आत्मबल संपन्न तथा स्वावलंबी बन सकें।
प्रश्न 6. निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए
(क) ‘अपनी आँखों से जगह देखकर, अपने हाथ से चुने हुए मिट्टी के डगलों पर भरोसा करना क्यों बुरा है और लाखों करोड़ों कोस दूर बैठे बड़े-बड़े मट्टी और आग के ढेलों-मंगल, शनिश्चर और बृहस्पति की कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों अच्छा है।’
(ख) ‘आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल की मोहर से। आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस के तेज पिंड से।’
उत्तर – (क)इन पंक्तियों पर लेखक भारतीय संस्कृति में विद्यमान आडंबरों पर चोट करता है। उसके अनुसार हम अपने द्वारा चुने गए मिट्टी के डगलों पर भरोसा करने को बुरा मानते हैं। यह कार्य तो हमने स्वयं किया होता है। यदि यह बात बुरी है, तो हम ग्रहों की चाल के अनुसार अपने जीवन को जोड़े देते हैं, तो इसे सही क्यों कहा जाए? भाव यह है कि जिन ग्रह-नक्षत्रों को हमने देखा ही नहीं है। उनकी चाल के अनुसार अपने जीवन का निर्धारण करना सबसे बड़ी मूर्खता है। अतः यदि हम एक बात को गलत कहते हैं, तो दूसरी बात अपने आप गलत सिद्ध हो जाती है।
(ख)यह बात वात्स्यायन ने कही थी। उनके अनुसार जो वस्तु हमारे पास इस समय विद्यमान है, हमें उसे ही सही कहना चाहिए। हमारे द्वारा आने वाले कल में या बीते कल में विद्यमान वस्तु को सही कहना मूर्खता है। कल मोहरे सोने की थी या चाँदी थी कि वह बात हमारे लिए महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है कि आज हमारे हाथ में पैसा है। हमारे वर्तमान में जो पैसा हमारे पास है, वह महत्वपूर्ण होना चाहिए। अतः यदि हम आँखों देखे ढेले को सच मानते हैं, तो यही सही है। लाखों दूर स्थित पिंड पर हमें विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि हमने उसे देखा ही नहीं है।

 

योग्यता विस्तार

बालक बच गया

प्रश्न 1. बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के विकास में ‘रटना’ बाधक है- कक्षा में संवाद कीजिए।
उत्तर – बालक की स्वाभाविक प्रृवत्तियों के विकास में रटना बाधक है। रटी हुई अध्ययन सामग्री कुछ समय में दिमाग से निकल जाती है। परन्तु जिसको अध्ययन करके समझा जाए और ध्यानपूर्वक पढ़ा जाए, वह जानकारी लंबे समय तक याद रह पाती है। रटने से बच्चा सीखता नहीं है। वह सभी विषयों की जानकारी का गहराई से अध्ययन नहीं करता। परिणाम वह बस तोते के समान बन जाता है। चीज़ों के पीछे छिपी गहराई उसे स्पष्ट नहीं हो पाती। वह तो बस रटकर ही अपनी जिम्मेदारियों को पूर्ण कर देता है। जैसे गणित में यदि रटकर जाया जाए, तो प्रश्न हल नहीं किए जा सकते। जब तक उनका अभ्यास न किया जाए और उसके पीछे छिपे समीकरण को हल करना नहीं सीखा जाए, तब तक गणित अनबुझ पहेली के समान ही होता है। ऐसे ही विज्ञान अन्य विषयों में है। इसमें बच्चा अपनी बौद्धिक क्षमता का विकास नहीं करता मात्र जानकारियाँ रट लेता है। हम जितना मस्तिष्क से काम लेते हैं, वह उतना ही विकसित होता है। उसका विषय क्षेत्र बढ़ता नहीं है। अतः चाहिए कि रटने के स्थान पर समझने का प्रयास करें और विचार-विमर्श करके ही अध्ययन करें।
प्रश्न 2. ज्ञान के क्षेत्र में ‘रटने’ का निषेध है किंतु क्या आप रटने में विश्वास करते हैं। अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर – यह बात पूर्णतः सत्य है कि ज्ञान के क्षेत्र में रटने का निषेध है। मैं भी पूर्णता इस पर विश्वास करता हूँ। हमें ज्ञान प्राप्त करने के लिए रटना नहीं चाहिए। यदि सच्चा ज्ञान प्राप्त करना है, तो रटने को रोकना पड़ेगा। उस विषय को समझना, जानना तथा उसके बारे में विचार-विमर्श करना पड़ेगा। उससे संबंधित पहलुओं पर गौर करना पड़ेगा। यदि कुछ समझ न आए, तो अपने अध्यापकों या परिवारजनों से सहायता लेनी पड़ेगी। तब ही हम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। हम यदि रटते हैं, तो वह ज्ञान प्राप्त करने की खानापूर्ति होगी। उसे ज्ञान प्राप्त करना नहीं कहा जाएगा। इस तरह से ज्ञान प्राप्त किया ही नहीं जा सकता है।

घड़ी के पुर्जे

प्रश्न 1. धर्म संबंधी अपनी मान्यता पर लेख/निबंध लिखिए।
उत्तर – धर्म शब्द को लेकर लोगों में रूढ़िवादिता का रुख प्राय: देखने को मिलता है। लोग धर्म के प्रति कट्टर होते हैं। उनके धर्म के विषय में कोई मज़ाक भी कर ले, तो मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। परन्तु इसके विपरीत हकीकत कुछ और ही है। उनसे यदि पूछा जाए कि धर्म की परिभाषा क्या है, तो बगलें झाँकने लगते हैं। आज धर्म की सीमा पूजा-पाठ, नमाज, वर्त-रोज़े, हज तथा तीर्थयात्रा तक सिमटकर रह गई है। लोगों को वही धर्म नज़र आता है। उसे ही सब मानकर वह दूसरे लोगों के विरोधी हो जाते हैं और साप्रंदायिकता अलगाव तथा धार्मिक भेदभाव को जन्म दे देते हैं।एक शिशु को बड़े होने तक हर तरह के संस्कार सिखाए जाते हैं। उसे धार्मिक होना सिखाया जाता है। परन्तु धर्म का अर्थ कहीं पीछे छोड़ दिया जाता है। इस शब्द का अर्थ दिखने में जितना पेचीदा है, उतना ही सरल है। परेशानी में पड़े किसी मनुष्य की सहायता करना, दीन-दुखियों की सेवा करना, परोपकार करना, गरीब को खाना खिलाना, सत्य के मार्ग पर चलना, अन्याय का विरोध करना इत्यादि बातें ही मनुष्य का धर्म है। परन्तु हम जीवन में इस सबको छोड़कर बेकार के आंडबरों में पड़कर मानवता से विमुख हो रहे हैं। मेरा मानना है, जो मनुष्य किसी असहाय को सिर्फ इसलिए छोड़कर आगे बढ़ जाता है कि यह मेरा काम नहीं है, मैं किसी मुसीबत में फंसना नहीं चाहता या मेरे पास समय नहीं है, वही मनुष्य अधर्मी कहलाने योग्य है। हम दस हट्टे-कट्टे लोगों को धर्म के नाम पर या दान के नाम पर कपड़े या भोजन बाँटते हैं और एक मुसीबत में पड़े व्यक्ति को छोड़कर निकल जाते हैं, तो यह धर्म नहीं है। ये अन्याय है और यही अधर्म है। मैंने सदैव ही धर्म के विषय में समझने का प्रयास किया और पाया कि असहायों की मदद करने में जो सच्चा सुख है, वह पुजा-पाठ, यात्रा तथा दान करने में नहीं है। महाभारत का युद्ध भी धर्म और अधर्म का युद्ध था। कौरवों ने जो किया वह न्यायसंगत नहीं था। पांडवों का राज्य हड़प लेना और उन्हें अपमानित तथा मारने का प्रयास करना भी अधर्म ही था। यही कारण था कि श्रीकृष्ण ने पांडवों का साथ दिया। उन्होंने धर्म की रक्षा की। परन्तु इसे किसी संप्रदाय से जोड़ना अनुचित है।

प्रश्न 2. ‘धर्म का रहस्य जानना सिर्फ़ धर्माचार्यों का काम नहीं, कोई भी व्यक्ति अपने स्तर पर उस रहस्य को जानने की कोशिश कर सकता है, अपनी राय दे सकता है’- टिप्पणी कीजिए।
उत्तर – धर्म का रहस्य जानना सिर्फ़ धर्माचार्यों का काम नहीं, कोई भी व्यक्ति अपने स्तर पर उस रहस्य को जानने की कोशिश कर सकता है, अपनी राय दे सकता है।’- यह कथन बिलकुल सही है। धर्म इतना रहस्यमय नहीं है कि इसे साधारण जन समझने में असमर्थ हो। धर्म की बहुत सीधी सी परिभाषा है। इसे धर्माचार्यों ने जटिल बना दिया है। इसकी कहानियों को गलत अर्थ देकर वे लोगों को भ्रमित करते हैं। इस तरह साधारण जन समझ लेते हैं कि धर्म उनके समझने के लिए नहीं बना है। अतः धर्म को समझने के लिए वे धर्माचार्यों या धर्मगुरूओं का सहारा लेते हैं।
इसके विपरीत धर्म बहुत ही सरल है। मानवता धर्म की सही परिभाषा है। मनुष्य का कार्य है कि वह प्रत्येक जीव-जन्तु, सभी प्राणियों के लिए दया भाव रखे, किसी को अपने स्वार्थ के लिए दुखी न करे, यही धर्म है। महाभारत में इसकी बहुत ही सरल व्याख्या मिलती है। कृष्ण ने दुर्योधन को अधर्मी कहा है और पांडवों को धर्म का रक्षक कहा है। यदि हम दुर्योधन के कार्यों पर दृष्टि डालें तो उसने जितने भी कार्य किए वे मानवता के नाम पर कलंक थे। अतः यह कहानी हमें धर्म की सरल परिभाषा प्रदान करती है। फिर हम क्यों धर्म को समझने के लिए किसी का सहारा लेते हैं। हमें स्वयं इसे समझना चाहिए। उसके बाद जो सत्य सामने आएगा, वह हमारे लिए महत्वपूर्ण है।

ढे़ले चुन लो

प्रश्न 1. समाज में धर्म संबंधी अंधविश्वास पूरी तरह व्याप्त है। वैज्ञानिक प्रगति के संदर्भ में धर्म, विश्वास और आस्था पर निबंध लिखिए।
उत्तर – मनुष्य पैदा होता है, तो धर्म उसके साथ रहता है। धर्म का हमारे जीवन से महत्वपूर्ण रिश्ता है। हम यह नहीं सोचते हैं कि धर्म क्या है तथा इसका क्या उद्देश्य है? इन प्रश्नों को जाने का प्रयास ही नहीं करते हैं। हमने धर्म से संबंधित ऐसे अंधविश्वास पाल लिए हैं कि जो हमें उससे आगे सोचने ही नहीं देते है। समय बदल रहा है हमारे पास वैज्ञानिक दृष्टिकोण आ गया है। लेकिन इस दृष्टिकोण को लोग त्याग देते हैं। उनके लिए विज्ञान और धर्म दो अलग-अलग राहें। इन्हें आपस में जोड़ देना उचित नहीं है। इसे प्रकृति से जुड़ी कोई घटना नहीं मानते हैं। बस धर्म में यदि चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण को लेकर कोई व्याख्या कर दी गई है, तो वही सत्य है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण को हम किनारा कर देते हैं।
धर्म का संबंध हम ईश्वर से तथा उसके पूजने के तरीकों तक सीमित कर देते हैं। इसके अतिरिक्त हम मनुष्य तक को इस आधार पर विभाजित कर देते हैं। यही कारण है कि आज मनुष्य हिन्दू, मुस्लिम, सिख, बौद्ध इत्यादि धर्मों में विभाजित हो गया है। यह वह अंधविश्वास है, जो मनुष्य सदियों से पालता आया है और आगे भी इस पर विश्वास रखेगा। बात फिर इस प्रश्न पर आकर रूकती है कि धर्म है क्या?

मनुष्य द्वारा किसी की सहायता करना, किसी के दुख को कम करने के लिए किए गए कार्य आदि धर्म कहलाता है। यही सही अर्थों में धर्म है। धर्म यह नहीं है कि ईश्वर को पूजने के लिए कौन-से तरीके अपनाएँ जाएँ। पूजा पद्धति इसलिए अस्तित्व में आयी ताकि मनुष्य का ध्यान केंद्रित किया जा सके। उसे बुरे मार्ग में भटकने से रोका जाए। इस तरह से ईश्वर का डर दिखाकर उसे अधर्म करने से रोका गया। धीरे-धीरे कब इसमें अंधविश्वास का समावेश हो गया पता ही नहीं चला। हम धर्म से हट गए। पूजा पद्धति को धर्म मानने लगे। वर्त, पूजा आदि को बढ़ावा मिलने लगा। हम इन मान्यताओं पर इतना विश्वास करने लगे कि मानवता से हमारा नाता टूट गया। हमारा विश्वास और आस्था मंदिर, मस्जिद तथा चर्च तक सीमित रह गई। हमने सड़क पर घायल पड़े व्यक्ति की ओर देखना धर्म नहीं समझा। हमने मंदिर पर दीपक जलाना अधिक धर्म समझा। यह धर्म नहीं है। मानवता सही अर्थों में धर्म है।

हमारे पूजनीय पुरुषों ने मनुष्य को बुरे मार्ग से बचाने का लिए धर्म का सहारा लिया गया था। मनुष्य अपने जीवन में अच्छाई, परोपकार और प्रेमभाव की भावनाओं को बनाए रखे इसीलिए धर्म का निर्माण किया गया। उसे पूजा-पाठ, नमाज़-रोजे, प्रार्थना आदि करने के लिए ज़ोर दिया गया, जिससे उनका मन शान्त रहे। सभी धर्मों ने कुछ बातों पर विशेष रूप से ज़ोर दिया है। उसके अनुसार मनुष्य, मनुष्य मात्र से प्रेम करे, सबके साथ मिलकर रहे, सबका कल्याण करे इत्यादि बातें कही गई हैं। किसी धर्म ने यह कभी नहीं कहा कि वह आपस में लड़े मरें। हमारा आस्था और विश्वास में कमज़ोरी हमारी संकीर्ण सोच का परिणाम है। अतः हमें धर्म के बारे में दोबारा से सोचना पड़ेगा।

प्रश्न 2. अपने घर में या आस-पास दिखाई देने वाले किसी रिवाज या अंधविश्वास पर एक लेख लिखिए।
उत्तर – मेरे घर में दादी उम्र में सबसे बड़ी हैं। जबसे हमने होश संभाला है। उन्हें विभिन्न प्रकार के अंधविश्वासों में विश्वास करते पाया है। यदि बिल्ली रास्ता काट जाए, तो वह उसे अपशुकन मानती हैं। घर से निकलते समय यदि कोई छिंक दे, तो वह उसे कुछ समय तक निकलने नहीं देती है। उन्हें इस विषय में कितना समझाया जाए कि यह दकियानुसी बातें है। परन्तु वह अपनी बात पर अडिग रहती हैं। हमारे यहाँ रिवाज है कि यदि किसी स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती है, तो वह लहसुन-प्याज खाना, माँस खाना एवम् रंग-बिरंगे वस्त्र पहनना छोड़ देती है। इसके साथ ही वह भगवान भजन करती है और हर प्रकार के मनोरंजन से परहेज़ करती है। वह अपना खाना भी स्वयं पकाती है। शादी-ब्याह के शुभ कार्य में किसी के सामने नहीं आती है। मेरे दादाजी की मृत्यु 35 बरस की उम्र में हो गई थी। मेरी दादी तब मात्र 28 साल की थी। उन्होंने तबसे इन सभी सामाजिक रीति-रिवाजों का पालन किया। पिताजी ने बहुत चाहा की दादी इस प्रकार के अंधविश्वासों तथा रीति-रिवाजों से स्वयं को बाहर निकाले परन्तु उनके सभी प्रयास विफल रहें। आज वह 80 साल की हैं। उन्होंने अपने जीवन के 52 साल कठिन परिश्रम किया परन्तु जीवन के सुखों का भोग नहीं किया। उन्होंने अपना छोटा सा व्यवसाय आरंभ किया परन्तु आज भी कोई उनका चेहरा नहीं देख पाता क्योंकि वह सदैव बाहरी लोगों से घूंघट करती हैं। इस उम्र में उन्हें बदलना संभव नहीं है। परन्तु मुझे बहुत दुख होता है, जब दादी के विषय में सोचता हूँ। इस प्रकार के रीति-रिवाजों ने उनके हृदय में इतनी गहरी पैठ बनाई हुई थी कि उन्होंने अपनी जिंदगी भी इसमें झोंक दी। ऐसी कितनी ही औरतें होगीं, जो इस प्रकार के रिवाज़ों और अंधविश्वासों की भेंट चढ़ जाती हैं। काश की हम उनके लिए कुछ कर पाते।

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