NCERT Solutions Class 12th Economics (भारत का आर्थिक विकास) Chapter – 1 स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian Economy on the Eve of Independence)
Textbook | NCERT |
class | Class – 12th |
Subject | Economics (भारत का आर्थिक विकास) |
Chapter | Chapter – 1 |
Chapter Name | स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था |
Category | Class 12th Economics Notes In Hindi |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NCERT Solutions Class 12th Economics (भारत का आर्थिक विकास) Chapter – 1 स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian Economy on the Eve of Independence)
?Chapter – 1?
✍स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था✍
?Notes?
” स्वतंत्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था “
ब्रिटिश उपनिवेश काल से पूर्व भारत की अर्थव्यवस्था ” सोने की चिड़िया ‘ के रूप में जानी जाती थी । उपनिवेश काल में अत्यधिक और लगातार आर्थिक शोषण के कारण पिछडती चली गई ।
अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन का मुख्य उदेश्य भारत को ब्रिटेन में तेजी से विकसित हो रही आधुनिक अर्थव्यवस्था के लिए आधार के रूप में उपयोग करना था ।
उच्च शिशु मृत्यु दर – स्वतंत्रता के समय शिशु मृत्यु दर 218 प्रति हजार 1 जितना उच्च था ।
व्यापक निरक्षरता – औसतन साक्षरता दर 16.5 : से कम थी । केवल 7 : महिलाएँ साक्षर थीं ।
निम्नस्तरीय जीवन प्रत्याशा – जीवन प्रत्याशा मात्र 32 वर्ष थी , जो नितांते अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं का संकेत है ।
व्यापक गरीबी तथा निम्न जीवन स्तर – लोगों को अपनी आय का 80-90 : हिस्सा आधारभूत आवश्यकताओं पर खर्च करना पड़ रहा था । कुल जनसंख्या का 52 : हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे था । देश के कुछ हिस्सों में अकाल समान स्थितियों का सामना करना पड़ रहा था ।
कृषि क्षेत्र की प्रधानता – कृषि क्षेत्र अर्थव्यवस्था की व्यावसायिक संरचना में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण था । भारत की कार्यशील जनसंख्या का 70-75 : हिस्सा कृषि में संलग्न था , 10 : हिस्सा औद्योगिक क्षेत्र तथा 15-20 : हिस्सा सेवा क्षेत्र में संलग्न था ।
बढ़ रही क्षेत्रीय असमानता – व्यावसायिक संरचना में क्षेत्रीय विविधताएँ बढ़ रही थी । तमिलनाड़ , आंध्र प्रदेश , केरल और कर्नाटक ( जो उस समय मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा थे ) जैसे राज्यों में कार्यबल की कृषि पर निर्भरता कम हो रही थी जबकि उड़ीसा , पंजाब , राजस्थान में कृषि पर निर्भर कार्यबल में वृद्धि हो रही थी ।
स्वतंत्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति
(क) आर्थिक विकास की निम्न दर
औपनिवेशिक सरकार ने कभी भी भारत की राष्ट्रीय तथा प्रति व्यक्ति आय के अनुमान के लिए कोई प्रयास नहीं किए ।
राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय के मापन का प्रथम प्रयास व्यक्तिगत स्तर पर 1876 में भारत के ” ग्रेण्ड ओल्डमैन ‘ दादा भाई नौरोजी ने किया ।
डॉ . वी . के . आर . वी . राव के अनुसार सकल देशीय उत्पद में वार्षिक वृद्धि दर केवल 2 % तथा प्रति व्यक्ति आय में वार्षिक वद्धि केवल 0 . 5 % थी । 1947 में प्रति व्यक्ति आय मात्र 280 रूपये थी ।
तत्तकालीन राष्ट्रीय आय के अन्य अनुकर्ताओं में प्रमुख थे – विलियम डिग्बी , फिण्डले सिराज , आर . डी . सी . देशाई आदि ।
(ख) कृषि का पिछड़ापन – जिसके निम्न कारण थे
- जमींदारी , महलवाड़ी तथा रैयतवाड़ी प्रथा
- 1947 में राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र की भागीदारी लगभग 95 % थी ।
- व्यवसायीकरण का दबाव – नील आदि का उत्पादन ।
- 1947 में 75 % से अधिक जनसंख्या कृषि क्षेत्र पर निर्भर थी ।
- देश के विभाजन के कारण पश्चिम बंगाल में जूट मिल और पूर्वी पाकिस्तान में उत्पादक भूमि चली गयी तथा विनिर्मित निर्यात में । की और आयात में वृद्धि
(ग) अविकसित औद्योगिक क्षेत्र
वि – औद्योगिकीकरण नीति तथा भारतीय हस्तकला उद्योग का पतन ।
वि – औद्योगिकीकरण नीति के दोहरे ( जुड़वाँ ) उद्देश्य थे ।
(i) भारत को कच्चे माल का निर्यातक बनाना
(ii) भारत को ब्रिटिश उद्योगों के विनिर्मित उत्पादों का आयातक या बाजार बनाना ।
पूंजीगत वस्तुओं के उद्योग का अभाव ।
सर्वजनिक क्षेत्र की सीमित क्रियाशीलता ।
भेदभावपूर्ण टैरिफ नीति ।
हस्तशिल्प उद्योगों के पतन व प्रमुख दुष्परिणाम
- 1 . भारत में भीषण बेरोजगारी
- 2 . भारतीय उपभोक्ता बाजार में नयी माँग का सृजन
- 3 . स्थानीय निर्मित वस्तुओं की आपूर्ति में भारी कमी
- 4 . ब्रिटेन से सस्ते विनिर्मित उत्पादों के आयात में भारी वृद्धि इसके अलावा यद्यपि आधुनिक उद्योग जैसे 1907 में टिस्को की स्थापना जमशेद जी टाटा द्वारा की गयी परन्तु ऐसे प्रयास बहुत कम एवं अपर्याप्त थे ।
(घ) विदेशी व्यापार की विशेषताएं
- कच्चे माल का शुद्ध निर्यातक तथा तैयार माल का आयातक
- विदेशी व्यापार पर ब्रिटेन का एकाधिकारी नियंत्रण ।
- भारत की सम्पत्ति का बहिप्रवाह
(च) ब्रिटेन द्वारा लडे जा रहे युद्धो के व्यय का भारत पर दवाव – भारत की पहली नियमित जनगणना 1881 में प्रारम्भ हुई । 1981 से 1991 तक भारत की जनांकीकिय दशा को जनाँकीकिय संक्रमण सिद्वांत के प्रथम चरण में रखा जाता है । 1921 को जनसंख्या महाविभाजक वर्ष कहा जाता है । जिसके बाद जनांकीकिय संनुमण का इससे चरण शुरू होता है ।
(छ) प्रतिकूल तत्कालीन जनांकिकीय दशाएँ – ब्रिटेन द्वारा लड़े जा रहे युद्धों पर भारत पर दवाव । भारत को पहली नियमित जनगणना 1881 में प्रारम्भ हुई । 1981 से 1919 तक भारत को जनांकीकिल दशा को जनांकीकिय संकमण सिद्धांत के प्रथम चरण में रखा जाता है । 1921 को जनसख्या महाविभाजक वर्ष कहा जाता है । जिसके बाद जनांकीकीय उसके चरण शुरू हुए है ।
- ऊँची मृत्युदर – 45 प्रति हजार
- उच्च शिशु जन्म दर – 218 प्रति हजार
- सामूहिक निरक्षरता – 84 निरक्षरता
- निम्न जीवन प्रत्याशा – 32 वर्ष
- जीवन – यापन का निम्न स्तर – आय का 80 – 90 % आधारभूत आवश्यकता पर व्यय
- जन स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव
(ज) अविकसित आधारभूत ढाँचा – अच्छी सड़कें , विद्युत उत्पादन , स्वास्थ्य , शिक्षा तथा संचार सुविधाओं का अभाव । यद्यापि अंग्रेज प्रशासकों द्वारा आधारभूत ढाँचे के विकास के लिए प्रयास किए गए जैसे – सड़कें , रेलवे , बंदरगाह , जल यातायात और डाक व तार विभाग । लेकिन इनका उददेश्य आम जनता को सुविधाएं देना नहीं था बल्कि साम्राज्यवादी प्रशासन के हित में था ।
झ) प्राथमिक (कृषि) क्षेत्र पर अधिक निर्भरता
- कार्यबल का अधिकतम भाग लगभग 72 % कृषि एवं संबंधित क्षेत्र में लगा था ।
- 10 % विनिर्माण क्षेत्र में लगा था ।
- 18 % कार्यबल सेवा क्षेत्र मे लगा था ।
अंग्रेजी साम्राज्यवाद के भारतीय अर्थव्यवस्था पर कुछ सकारात्मक प्रभाव
- यातायात की सुविधाओं में वृद्धि – विशेषकर रेलवे में
- बंदरगाहों का विकास
- डाक व तार विभाग की सुविधाएँ
- देश का आर्थिक व राजनीतिक एकीकरण
- बैंकिंग व मौद्रिक व्यवस्था का विकास
अंग्रेजी साम्राज्यवाद के भारतीय अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव
- भारतीय हस्तकला उद्योग का पतन
- कच्चे माल का निर्यातक व तैयार माल का आयातक
- विदेशी व्यापार पर ब्रिटेन का एकाधिकारी नियंत्रण
- व्यवसायीकरण पर दबाव
पिछडी कृषि – भारत के लिए तत्कालिक समस्या यह थी कि वह कृषि क्षेत्र तथा इसकी उत्पादकता का विकास किस प्रकार करे । स्वतंत्रता के समय कुछ तत्कालिक जरूरत इस प्रकार थी :-
- 1. जमींदारी प्रथा का उन्मूलन करना ,
- 2. भूमि सुधार नीतियाँ बनाना ,
- 3.भूमि के स्वामित्व की असमानताओं को कम करना तथा
- 4. किसानों का उत्थान करना ।
अंग्रेजों द्वारा भारत में कुछ सकारात्मक योगदान
यह कहना अनुचित होगा कि अंग्रेजों ने भारत में कुछ सकारात्मक योगदान दिया था अपित् कुछ सकारात्मक प्रभाव उनकी स्वार्थपूर्ण नीतियों के सह उत्पाद के रूप में उपलब्ध हो गये । ये योगदान इच्छापूर्ण तथा नीतिबद्ध नहीं थे बल्कि अंग्रेजों की शोषक औपनिवेशिक नीतियों का सह उत्पाद थे ।
अतः अंग्रेजों द्वारा भारत में ऐसे कुछ सकारात्मक योगदान इस प्रकार हैं
(क) रेलवे का आरंभ – अंग्रेजी सरकार द्वारा भारत में रेलवे का आरंभ भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी उपलब्धि था । इसने सभी प्रकार की भौगोलिक तथा सांस्कृतिक बाधाओं को दूर किया तथा कृषि के व्यवसायीकरण को संभव किया ।
(ख) कृषि के व्यावसायिकरण का आरंभ – अंग्रेजी सरकार द्वारा कृषि का व्यावसायीकरण भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक अन्य बड़ी उपलब्धि था । भारत में अंग्रेजी शासन आने से पूर्व , भारतीय कृषि स्वपोषी प्रकृति की थी । परंतु कृषि के व्यावसायीकरण के उपरांत कृषि उत्पादन बाजार की जरूरतों के अनुसार हुआ । यही कारण है कि आज भारत खाद्यान्नों में आत्मनिर्भर होने के लक्ष्य को प्राप्त कर पाया है ।
(ग) आधारिक संरचना का विकास – अंग्रेजों द्वारा विकसित आधारिक ढाँचे ने देश में अकाल के फैलने पर जल्दी राहत सामग्री और सूचनाएं पहुँचाने में सकातत्मक योगदान दिया । भारत के बाहर की दुनिया को जानने के लिए एक खिड़की बनी । इसने भारत को विश्व के अन्य हिस्सों से जोड़ा । अंग्रेजों ने भारत में सती प्रथा भी प्रतिबंधित की और विधवा पुनर्विवाह अधिनियम की भी उद्घोषणा की ।
(ङ) भारत का एकीकरण – अंग्रेजी शासन से पूर्व भारत छोटे – छोटे राज्यों तथा सीमाओं में बँटा हुआ था । आजादी के युद्ध के नाम पर अंग्रेज भारत तथा भारतीयों को एकीकृत करने का एक कारण बन गये ।
(च) एक कुशल तथा शक्तिशाली प्रशासन का उदाहरण – अंग्रेजों ने अपने पीछे एक कुशल और शक्तिशाली प्रशासन का उदाहरण रख छोड़ा जिसका भारतीय नेता अनुसरण कर सकते थे ।