NCERT Solutions Class 11th Sociology (समाज का बोध) Chapter – 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था (Social Change and Social Order in Rural and Urban Society)
Textbook | NCERT |
Class | Class – 11th |
Subject | Sociology (समाज का बोध) |
Chapter | Chapter – 2 |
Chapter Name | ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था |
Category | Class 11th Sociology (समाज का बोध) |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NCERT Solutions Class 11th Sociology (समाज का बोध) Chapter – 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन एवं सामाजिक व्यवस्था (Social Change and Social Order in Rural and Urban Society) Question & Answer In Hindi समाज शास्त्र का जनक कौन है?, सामाजिक परिवर्तन क्यों जरूरी है?, सामाजिक परिवर्तन का उद्देश्य क्या है?, समाजशास्त्र का पुराना नाम क्या है?, समाजशास्त्र के गुरु कौन थे?, समाजशास्त्र की खोज कब हुई थी?, उद्विकास का सिद्धांत क्या है?, समाज क्यों बदलते हैं?, उद्विकास और विकास में क्या अंतर है?, डार्विन के तीन सिद्धांत क्या हैं?, विकासवाद के 5 सिद्धांत क्या हैं?, उद्विकास और प्रगति क्या है?, हमारे समाज में क्या क्या समस्याएँ?, हमारा समाज कैसे बदल रहा है?, सामाजिक परिवर्तन अच्छा है या बुरा? |
NCERT Solutions Class 11th Sociology (समाज का बोध) Chapter – 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था (Social Change and Social Order in Rural and Urban Society)
Chapter – 2
ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था
प्रश्र उत्तर
अभ्यास
प्रश्न 1. क्या आप इस बात से सहमत हैं कि तीव्र सामाजिक परिवर्तन मनुष्य के इतिहास में तुलनात्मक रूप से नवीन घटना है? अपने उत्तर के लिए कारण दें। उत्तर –
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प्रश्न 2. सामाजिक परिवर्तन को अन्य परिवर्तनों से किस प्रकार अलग किया जा सकता है? उत्तर – सामाजिक परिवर्तन’ एक सामान्य अवधारणा है, जिसका प्रयोग किसी भी परिवर्तन के लिए किया जा सकता है। जो अन्य अवधारणा द्वारा परिभाषित नहीं किया जा सकता; जैसे-आर्थिक अथवा राजनैतिक परिवर्तन। सामाजिक परिवर्तन का सरोकार उन परिवर्तनों से है जो महत्वपूर्ण हैं-अर्थात, परिवर्तन जो किसी वस्तु अथवा परिस्थिति की मूलाधार संरचना को समयावधि में बदल दें। सामाजिक परिवर्तन कुछ अथवा सभी परिवर्तनों को सम्मिलित नहीं करते, मात्र बड़े परिवर्तन जो, वस्तुओं को बुनियादी तौर पर बदल देते हैं। सामाजिक परिवर्तन एक विस्तृत शब्द है। इसे और विशेष बनाने के लिए स्रोतों अथवा कारकों को अधिकतम वर्गीकृत करने की कोशिश की जाती है। प्राकृतिक आधार पर अथवा समाज पर इसके प्रभाव अथवा इसकी गति के आधार पर इसका वर्गीकरण किया जाता है। |
प्रश्न 3. संरचनात्मक परिवर्तन से आप क्या समझते हैं? पुस्तक से अलग उदाहरणों द्वारा स्पष्ट कीजिए। उत्तर – संरचनात्मक परिवर्तन समाज की संरचना में परिवर्तन को दिखाता है, साथ-साथ सामाजिक संस्थाओं अथवा नियमों के परिवर्तन को दिखाता है जिनसे इन संस्थाओं को चलाया जाता है। उदाहरण के लिए, कागजी रुपये का मुद्रा के रूप में प्रादुर्भाव वित्तीय संस्थाओं तथा लेन-देन में बड़ा भारी परिवर्तन लेकर आया। इस परिवर्तन के पहले, मुख्य रूप से सोने-चाँदी के रूप में मूल्यवान धातुओं का प्रयोग मुद्रा के रूप में होता था। सिक्के की कीमत उसमें पाए जाने वाले सोने अथवा चाँदी से मापी जाती थी। इसके विपरीत, कागजी नोट की कीमत का उस लागत से कोई संबंध नहीं होता था, जिस पर वह छापा जाता था और न ही उसकी छपाई से। कागजी मुद्रा के पीछे यह विचार था कि समान अथवा सुविधाओं के लेने-देन में जिस चीज का प्रयोग हो, उसको कीमती होना जरूरी नहीं। जब तक यह मूल्य को ठीक से दिखाता है अर्थात जब तक यह विश्वास को जगाए रखता है-तकरीबन कोई भी चीज़ पैसे के रूप में काम कर सकती है। मूल्यों तथा मान्यताओं में परिवर्तन भी सामाजिक परिवर्तन ला सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, बच्चों तथा बचपन से संबंधित विचारों तथा मान्यताओं में परिवर्तन अत्यंत महत्वपूर्ण प्रकार के सामाजिक परिवर्तन में सहायक सिद्ध हुआ है। एक समय था जब बच्चों को साधारणतः ‘आवश्यक’ समझा जाता था। बचपन से संबंधित कोई विशिष्ट संकल्पना नहीं थी, जो इससे जुड़ी हो कि बच्चों के लिए क्या सही था अथवा क्या गलत। उदाहरण के लिए, उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में, यह ठीक माना जाने लगा कि बच्चे जितनी जल्दी काम करने के योग्य हो जाएँ, काम पर लग जाएँ, बच्चे अपने परिवारों को काम करने में मदद पाँच अथवा छह वर्ष की आयु से ही प्रारंभ कर देते थे; प्रारंभिक फैक्ट्री व्यवस्था बच्चों के श्रम पर आश्रित थी। यह उन्नीसवीं तथा पूर्व बीसवीं शताब्दियों के दौरान बचपन जीवन की एक विशिष्ट अवस्था है यह संकल्पना प्रभावी हुई है। इस समय छोटे बच्चों का काम करना अविधारणीय हो गया तथा अनेक देशों ने बाल श्रम को कानून द्वारा बंद कर दिया। |
प्रश्न 4. पर्यावरण संबंधित कुछ सामाजिक परिवर्तनों के बारे में बताइए। उत्तर – प्रकृति, पारिस्थितिकी तथा भौतिक पर्यावरण को समाज की संरचना तथा स्वरूप पर महत्वपूर्ण प्रभाव हमेशा से रहा है। विगत समय के संदर्भ में यह विशेष रूप से सही है। जब मनुष्य प्रकृति के प्रभावों को सोचने अथवा झेलने में अक्षम था। उदाहरण के लिए, मरुस्थलीय वातावरण में रहने वाले लोगों के लिए एक स्थान पर रहकर कृषि करना संभव नहीं था, जैसे, मैदानी भागों अथवा नदियों के किनारे इत्यादि। अतः जिस प्रकार का भोजन वे करते थे अथवा कपड़े पहनते थे, जिस प्रकार आजीविका चलाते थे तथा सामाजिक अन्योन्यक्रिया ये सब काफ़ी हद तक उनके पर्यावरण के भौतिक तथा जलवायु की स्थितियों से निर्धारित होता है। त्वरित तथा विध्वंसकारी घटनाएँ। जैसे-भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट, बाढ़ अथवा ज्वारभाटीय तरंगें (जैसा कि दिसंबर 2004 में सुनामी की तरंगों से इंडोनेशिया, श्रीलंका, अंडमान द्वीप, तमिलनाडु के कुछ भाग इसकी चपेट में आए) समाज को पूर्णरूपेण बदलकर रख देते हैं। ये बदलाव अपरिवर्तनीय होते हैं, अर्थात् ये स्थायी होते हैं तथा चीजों को वापस अपनी पूर्वस्थिति में नहीं आने देते। प्राकृतिक विपदाओं के अनेकानेक उदाहरण इतिहास में देखने को मिल जाएँगे, जो समाज को पूर्णरूपेण परिवर्तित कर देते हैं अथवा पूर्णतः नष्ट कर देते हैं। परिवर्तन लाभ के लिए पर्यावरणीय या पारिस्थितिकीय कारकों का न केवल विनाशकारी होना अनिवार्य है, अपितु उसे सृजनात्मक भी होना अनिवार्य है। |
प्रश्न 5. वे कौन से परिवर्तन हैं, जो तकनीक तथा अर्थव्यवस्था द्वारा लाए गए हैं? उत्तर – विशेषकर आधुनिक काल में तकनीक तथा आर्थिक परिवर्तन के संयोग से समाज में तीव्र परिवर्तन आया है। तकनीक समाज को कई प्रकार से प्रभावित करती है। यह हमारी मदद, प्रकृति को विभिन्न तरीकों से नियंत्रित उसके अनुरूप ढालने में अथवा दोहन करने में करती है। बाजार जैसी शक्तिशाली संस्था से जुड़कर तकनीकी परिवर्तन अपने सामाजिक प्रभाव की तरह ही प्राकृतिक कारकों; जैसे-सुनामी तथा तेल की खोज की तरह प्रभावी हो सकते हैं। वाष्प शक्ति की खोज में उदीयमान विभिन्न प्रकार के बड़े उद्योगों को शक्ति की उस ताकत को जो न केवल पशुओं तथा मनुष्यों के मुकाबले कई गुणा अधिक थी, बल्कि बिना रुकावट के लगातार चलने वाली भी थी, से परिचित कराया। यातायात के साधनों; जैसे- वाष्पचलित जहाज तथा रेलगाड़ी ने दुनिया की अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक भूगोल को बदलकर रख दिया। रेल ने उद्योग तथा व्यापार को अमेरिका महाद्वीप तथा पश्चिमी विस्तार को सक्षम किया। भारत में भी, रेल परिवहन ने अर्थव्यवस्था को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, विशेषकर 1853 में भारत में आने से लेकर मुख्यतः प्रथम शताब्दी तक। वाष्पचलित जहाजों ने समुद्री यातायात को अत्यधिक तीव्र तथा भरोसेमंद बनाया तथा इसमें अंतर्राष्ट्रीय व्यापार तथा प्रवास की गति को बदलकर रख दिया। दोनों परिवर्तनों ने विकास की विशाल लहर पैदा की जिसने न केवल अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया अपितु विश्व समय के सामाजिक सांस्कृतिक तथा जनसांख्यिक रूप को बदल दिया। कभी-कभी तकनीक का सामाजिक प्रभाव पूर्वव्यापी भी होता है। तकनीकी आविष्कार अथवा खोज का कभी-कभी तात्कालिक प्रभाव संकुचित होता है, जो देखने पर लगता है, जैसे सुप्तावस्था में हो। बाद में होने वाले परिवर्तन आर्थिक संदर्भ में उसी खोज की सामाजिक महत्ता को एकदम बदल देते हैं तथा उसे ऐतिहासिक घटना के रूप में मान्यता देते हैं। इसका उदाहरण चीन में बारूद तथा कागज की खोज है, जिसका प्रभाव सदियों तक संकुचित रहा, जब तक कि उनका प्रयोग पश्चिमी यूरोप के आधुनिकीकरण के संदर्भ में नहीं हुआ। उसी बिंदु से दी गई परिस्थितियों का लाभ उठा, बारूद द्वारा युद्ध की तकनीक में परिवर्तन तथा कागज की छपाई की क्रांति ने समाज को हमेशा के लिए परिवर्तित कर दिया। कई बार आर्थिक व्यवस्था में होने वाले परिवर्तन, जो प्रत्यक्ष तकनीकी नहीं होते हैं, भी समाज को बदल सकते हैं। जाना-पहचाना ऐतिहासिक उदाहरण, रोपण कृषि-यहाँ बड़े पैमाने पर नकदी फसलों; जैसे-गन्ना, चाय अथवा कपास की खेती की जाती है, ने श्रम के लिए भारी माँग उत्पन्न की। भारत में असम के चाय बगानों में काम करने वाले अधिकतर लोग पूर्वी भारत के थे (विशेषकर झारखंड तथा छत्तीसगढ़ के आदिवासी भागों से), जिन्हें श्रम के लिए प्रवास करना पड़ा। |
प्रश्न 6. सामाजिक व्यवस्था का क्या अर्थ है तथा इसे कैसे बनाए रखा जा सकता है? उत्तर – सामाजिक व्यवस्था सुस्थापित समाजिक प्रणालियाँ हैं, जो परिवर्तन को प्रतिरोध तथा उसे विनियमित करती हैं। सामाजिक व्यवस्था सामाजिक परिवर्तन को रोकती है, हतोत्साहित करती है अथवा कम से कम नियंत्रित करती है। अपने आपको एक शक्तिशाली तथा प्रासंगिक सामाजिक व्यवस्था के रूप में सुव्यवस्थित करने के लिए प्रत्येक समाज को अपने आपको समय के साथ पुनरूत्पादित करना तथा उसके स्थायित्व को बनाए रखना पड़ता है। स्थायित्व के लिए आवश्यक हैं कि चीजें कमोबेश वैसी ही बनी रहें जैसी वे हैं-अर्थात व्यक्ति लगातार समाज के नियमों का पालन करता रहे, सामाजिक क्रियाएँ एक ही प्रकार के परिणाम दें और साध रिणत: व्यक्ति तथा संस्थाएँ पूर्वानुमानित रूप में आचरण करें। समाज के शासक अथवा प्रभावशाली वर्ग अधिकांशतः सामाजिक परिवर्तन का प्रतिरोध करते हैं, जो उनकी स्थिति को बदल सकते हैं, क्योंकि स्थायित्व में उनका अपना हित होता है। वहीं दूसरी तरफ अधीनस्थ अथवा शोषित वर्गों का हित परिवर्तन में होता है। सामान्य स्थितियाँ अधिकांशतः अमीर तथा शक्तिशाली वर्गों की तर. फदारी करती हैं तथा वे परिवर्तन के प्रतिरोध में सफल होते हैं। सामाजिक व्यवस्था सामाजिक संबंधों की विशिष्ट पद्धति तथा मूल्यों एवं मानदंडों के सक्रिय अनुरक्षण तथा उत्पादन को निर्देशित करती है। विस्तृत रूप में, सामाजिक व्यवस्था इन दो में से किसी एक तरीके से प्राप्त की जा सकती है, जहाँ व्यक्ति नियमों तथा मानदंडों को स्वतः मानते हों अथवा कहाँ मानदंडों को मानने के लिए व्यक्तियों को बाध्य किया जाता हो। सामाजीकरण भिन्न परिस्थितियों में अधिक या न्यूनतः कुशल हो सकता है, परंतु वह कितना ही कुशल क्यों न हो, यह व्यक्ति की दृढ़ता को पूर्ण रूप से समाप्त नहीं कर सकता है। सामाजीकरण, समाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अथक प्रयास करता है, परंतु यह प्रयास भी अपने आप में पूर्ण नहीं होता। अतः अधिकतर आधुनिक सामज कुछ रूपों में संस्थागत तथा सामाजिक मानदंडों को बनाए रखने के लिए शक्ति अथवा दबाव पर निर्भर करते हैं। सत्ता की परिभाषा अधिकांशतः इस रूप में दी जाती है कि सत्ता स्वेच्छानुसार एक व्यक्ति से मनचाहे कार्य को करवाने की क्षमता रखती है। जब सत्ता का संबंध स्थायित्व तथा स्थिरता से होता है तथा दूसरे जुड़े पक्ष अपने सापेक्षिक स्थान के अभ्यस्त हो जाते हैं, तो हमारे सामने प्रभावशाली स्थिति उत्पन्न होती है। यदि सामाजिक तथ्य (व्यक्ति, संस्था अथवा वर्ग) नियमपूर्वक अथवा आदतन सत्ता की स्थिति में होते हैं, तो इसे प्रभावी माना जाता है। साधारण समय में, प्रभावशाली संस्थाएँ, समूह तथा व्यक्ति समाज में निर्णायक प्रभाव रखते हैं। ऐसा नहीं है कि उन्हें चुनौतियों का सामना नहीं करना पड़ता, परंतु यह विपरीत तथा विशिष्ट परिस्थितियों में होता है। |
प्रश्न 7. सत्ता क्या है तथा यह प्रभुता तथा कानून से कैसे संबंधित है? उत्तर – मैक्स वेबर के अनुसार सत्ता कानूनी शक्ति है। अर्थात शक्ति न्यायसंगत तथा ठीक समझी जाती है। उदाहरण के लिए, एक पुलिस ऑफिसर एक जज अथवा एक स्कूल शिक्षक, सब अपने कार्य में निहित सत्ता का प्रयोग करते हैं। ये शक्ति उन्हें विशेषकर उनके सरकारी कार्यों की रूपरेखा को देखते हुए प्रदान की गई है-लिखित कागजातों द्वारा सत्ता क्या कर सकती है तथा क्या नहीं, का बोध होता है। कानून सुस्पष्ट संहिताबद्ध मानदंड अथवा नियम होते हैं। यह ज्यादातर लिखे जाते हैं तथा नियम किस प्रकार बनाए अथवा बदले जाने चाहिए, अथवा कोई उनको तोडता है तो क्या करना चाहिए। कानून नियमों के औपचारिक ढाँचे का निर्माण करता है जिसके द्वारा समाज शासित होता है। कानून प्रत्येक नागरिक पर लागू होता है। चाहे एक व्यक्ति के रूप में ‘मैं’ कानून विशेष से सहमत हूँ। या नहीं, यह नागरिक के रूप में ‘मुझे जोड़ने वाली ताकत है, तथा अन्य सभी नागरिकों को उनकी मान्यताओं से हटकर। प्रभाव, शक्ति के तहत कार्य करता है, परंतु इनमें से अधिकांश शक्ति में कानूनी शक्ति अथवा सत्ता होती है, जिसका एक बृहत्तर भाग कानून द्वारा संहितावद्ध होता है। कानूनी संरचना तथा संस्थागत मदद के कारण सहमति तथा सहयोग नियमित रूप से तथा भरोसे के आधार पर लिया जाता है। यह शक्ति के प्रभाव क्षेत्र अथवा प्रभावितों को समाप्त नहीं करता। कई प्रकार की शक्तियाँ हैं, जो समाज में प्रभावी हैं। हालाँकि वे गैरकानूनी हैं, और यदि कानूनी हैं तब कानूनी रूप से संहिताबद्ध नहीं हैं। |
प्रश्न 8. गाँव, कस्बा तथा नगर एक दूसरे से किस प्रकार भिन्न हैं? उत्तर –
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प्रश्न 9. ग्रामीण क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था की कुछ। विशेषताएँ क्या हैं? उत्तर – गाँवों का आकार छोटा होता है। अतः ये अधिकांशतः व्यक्तिगत संबंधों का अनुमोदन करते हैं। गाँव के लोगों द्वारा तकरीबन गाँव के ही दूसरे लोगों को देखकर पहचान लेना असामान्य नहीं है। गाँव की सामाजिक संरचना परंपरागत तरीकों से चालित होती है। इसलिए सामाजिक संस्थाएँ जैसे-जाति, धर्म तथा सांस्कृतिक एवं परंपरागत सामाजिक प्रथाओं के दूसरे स्वरूप यहाँ अधिक प्रभावशाली हैं। इन कारणों से जब तक कोई विशिष्ट परिस्थितियाँ न हों, गाँवों में परिवर्तन नगरों की अपेक्षा धीमी गति से होता है। समाज के अधीनस्थ समूहों के पास ग्रामीण इलाके में अपने नगरीय भाइयों की तुलना में अभिव्यक्ति के दायरे बहुत कम होते हैं। गाँव में व्यक्ति एक दूसरे से सीधा संबद्ध होता है। इसलिए व्यक्ति विशेष का समुदाय के साथ असहमत होना कठिन होता है और इसका उल्लंघन करने वाले को सबक सिखाया जा सकता है। प्रभावशाली वर्गों की शक्ति सापेक्षिक रूप से कहीं ज्यादा होती है, क्योंकि वे रोज़गार के साधनों तथा अधिकांशतः अन्य संसाधनों को नियंत्रित करते हैं। अतः गरीबों को प्रभावशाली वर्गों पर निर्भर होना पड़ता है, क्योंकि उनके पास रोजगार के अन्य साधन अथवा सहारा नहीं होता। यदि गाँव में पहले से ही मजबूत शक्ति संरचना होती तो उसे उखाड़ फेंकना बहुत कठिन होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में शक्ति संरचना के संदर्भ में होने वाला परिवर्तन और भी धीमा होता है, क्योंकि वहाँ की सामाजिक व्यवस्था अधिक मजबूत और स्थिर होती है। अन्य परिवर्तन आने में भी समय लगता है, क्योंकि गाँव बिखरे होते हैं तथा पूरी दुनिया से एकीकृत नहीं होते जैसे-नगर तथा कस्बे होते हैं। अन्य संचार के साधनों में भी समय के साथ सुधार आया है। इसके कारण मात्र कुछ एक गाँव ‘एकांत’ तथा ‘पिछड़ा’ होने का दावा कर सकते हैं। जनसंख्या का उच्च घनत्व स्थान पर अत्यधिक जोर देता है तथा तार्किक स्तर पर जटिल समस्याएँ खड़ी करता है। कस्बों सामाजिक व्यवस्था की बुनियादी कड़ी है, जो कि नगर की देशिक जीवनक्षमता को आश्वस्त करें। इसका अर्थ है कि संगठन तथा प्रबंधन कुछ चीजों को जैसे निवास तथा आवासीय पद्धति; जन यातायात के साधन उपलब्ध कर सकें, ताकि कर्मचारियों की बड़ी संख्या को कार्यस्थल से लाया तथा ले जाया जा सके; आवासीय सरकारी तथा औद्योगिक भूमि उपयोग क्षेत्र के सह-अस्तित्व की व्यवस्था। सभी प्रकार के जनस्वास्थ्य, स्वच्छता, पुलिस सेवा, जनसुरक्षा तथा कस्बे के शासन पर नियंत्रण की आवश्यकता है। इनमें से प्रत्येक कार्य अपने आप में एक वृहत उपक्रम है तथा योजना, क्रियान्विति और रखरखाव को दुर्जय चुनौती देता है। वे कार्य जो समूह, नृजातीयता, धर्म, जाति इत्यादि के विभाजन तथा तनाव से न केवल जुड़े, बल्केि सक्रिय भी होते हैं। गरीब के लिए आवास की समस्या ‘बेघर’ तथा सड़क पर चलने वाले लोग इस प्रक्रिया को जन्म देते हैं जो सड़कों, फुटपाथों, पुलों तथा फ्लाईओवर के नीचे, खाली बिल्डिग तथा अन्य खाली स्थानों पर रहने तथा जीवनयापन करते हैं। यह इन बस्तियों के जन्म का एक महत्वपूर्ण कारण भी है। संपति का अधिकार दूसरे स्थानों की तरह नहीं होता है। अतः बस्तियाँ दादाओं की जन्मभूमि होती हैं, जो उन लोगों पर अपना बलात् अधिकार दिखाते हैं, जो वहाँ रहते हैं। पूरे विश्व में नगरीय आवासीय क्षेत्र प्रायः समूह तथा अधिकतर प्रजाति नृजातीयता, धर्म तथा अन्य कारकों द्वारा विभाजित होते हैं। इन पहचानों के बीच तनाव के प्रमुख परिणाम पृथकीकरण की प्रक्रिया के रूप में भी उजागर होता है। उदाहरण के लिए, भारत में विभिन्न धर्मों के बीच सांप्रदायिक तनाव, विशेषकर हिंदुओं तथा मुसलमानों में देखा जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप मिश्रित प्रतिदेशी एकल-समुदाय में बदल गए। सांप्रदायिक दंगों को ये एक विशिष्ट देशिक रूप दे देते हैं, जो बस्तीकरण की नवीन प्रक्रिया घैटोआइजेशन को ओर बढ़ाते हैं। पूरे विश्व में व्याप्त ‘गेटेड समुदाय’ जैसी वृद्धि भारतीय शहरों में भी देखी जा सकती है। इसका अर्थ है एक समृद्ध प्रतिवेशी (पडौसी) का निर्माण जो अपने परिवेश से दीवारों तथा प्रवेशद्वारों से अलग होता है वे यहाँ प्रवेश तथा निवास नियंत्रित होता है। अधिकांश ऐसे समुदायों की अपनी सामानांतर नागरिक सुविधाएँ; जैसे-पानी और बिजली सप्लाई, पुलिस तथा सुरक्षा भी होती है। |
प्रश्न 10. नगरी क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था के सामने कौन-सी चुनौतियाँ हैं? उत्तर – शहरी क्षेत्रों में सामाजिक परिवर्तनों के बारे में मुख्य मुद्दा जनसंख्या में लगातार वृद्धि के साथ सामना कर रहा है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों के प्रवासी इसकी प्राकृतिक वृद्धि को जोड़ने के लिए स्ट्रीमिंग करते रहते हैं। आबादी में बढ़ती वृद्धि से शहर के आवास के लिए जगह प्रदान करने की क्षमता में गंभीर बाधाएँ आती हैं। संपन्न लोगों को छोड़कर, गरीब घरों में अचल संपत्ति की कीमतों की बढ़ती लागत को वहन करने में असमर्थ हैं, जिससे भीड़भाड़ वाले इलाके में ढलान के रूप में जाना जाता है। मलिन बस्तियाँ उन आपराधिक गिरोहों को जन्म देती हैं जो वहाँ रहने वाले लोगों पर अपना अधिकार जमाते हैं। इसके अलावा, आवासीय और औद्योगिक क्षेत्रों के बीच कभी-चौड़ी दूरी के कारण लोगों को अपने कार्यस्थलों तक पहुंचने के लिए लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। यह उनके ‘जीवन की गुणवत्ता’ को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। सार्वजनिक परिवहन साधनों के बजाय सड़क परिवहन के लिए निजी कारों के बढ़ते उपयोग से बसों का आवागमन और वाहनों का प्रदूषण होता है। यह आम जनता के लिए विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं को जन्म देता है। |
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