NCERT Solutions Class 11th Sociology (समाज का बोध) Chapter – 5 भारतीय समाजशास्त्री (Indian Sociologists)
Textbook | NCERT |
class | Class – 11th |
Subject | Sociology |
Chapter | Chapter – 5 |
Chapter Name | भारतीय समाजशास्त्री (Indian Sociologists) |
Category | Class 11th Sociology |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NCERT Solutions Class 11th Sociology (समाज का बोध) Chapter – 5 भारतीय समाजशास्त्री (Indian Sociologists) Question & Answer In Hindi समाजशास्त्र का प्रथम नाम क्या है?, भारतीय समाज के जनक कौन थे?, समाजशास्त्र का दूसरा नाम क्या है?, समाजशास्त्र की खोज कब हुई थी?, भारतीय समाज की परिभाषा क्या है?, समाजशास्त्र कितने प्रकार के होते हैं?, समाजशास्त्र शब्द का अर्थ क्या है?, समाजशास्त्र का दूसरा पिता कौन है?, समाजशास्त्र कहां से आता है?, समाजशास्त्र का इतिहास क्या है?, समाजशास्त्र का महत्व क्या है?, समाजशास्त्र के जनक कौन है?, समाजशास्त्र की खोज किसने की थी?, समाजशास्त्र के संस्थापक का नाम क्या है?, समाजशास्त्र का मुख्य कार्य क्या है?, समाजशास्त्र से क्या लाभ है? |
NCERT Solutions Class 11th Sociology (समाज का बोध) Chapter – 5 भारतीय समाजशास्त्री (Indian Sociologists)
Chapter – 2
भारतीय समाजशास्त्री
प्रश्र उत्तर
अभ्यास
प्रश्न 1. अनंतकृष्ण अय्यर और शरतचंद्र रॉय ने सामाजिक मानव विज्ञान के अध्ययन का अभ्यास कैसे किया? उत्तर – अनंतकृष्ण अय्यर (1861-1931) भारत में समाजशास्त्र के अग्रदूत थे-
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प्रश्न 2. जनजातीय समुदायों को कैसे जोड़ा जाए’-इस विवाद के दोनों पक्षों के क्या तर्क थे? उत्तर – अनेक ब्रिटिश प्रशासक ऐसे भी थे जो मानवविज्ञानी थे। वे भारतीय जनजातियों में रुचि रखते थे। उनका विश्वास था कि ये आदिम लोग थे और उनकी अपनी विशिष्ट संस्कृति थी। साथ ही ये भारतीय जनजातियाँ हिंदू मुख्यधारा से काफ़ी अलग थीं। उनका मत था कि समाज में इन सीधे-सादे जनजातीय लोगों का न केवल शोषण होगा बल्कि उनकी संस्कृति का पतन भी होगा। उन्होंने महसूस किया कि राज्य का यह कर्तव्य है कि वे इन जनजातियों को संरक्षण दे ताकि वे अपनी जीवन विधि और संस्कृति को कायम रख सके। इसका कारण भी था, यह कि उन पर लगातार दबाव बन रहा था कि वे हिंदू संस्कृति की मुख्यधारा में अपना समायोजन करें। उनका मानना था कि जनजातीय संस्कृति को बचाने का कार्य गुमराह करने की कोशिश की और इसको परिणाम जनजातियों का पिछड़ापन है। घूर्ये राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने इस तथ्य पर बल दिया कि भारतीय जनजातियों को एक भिन्न सांस्कृतिक समूह की तुलना में पिछड़े हिंदू समाज’ की तरह पहचाना जाना चाहिए। अंतर के मुख्य बिंदु (Main Points of Difference) मतभेद यह था कि मुख्यधारा की संस्कृति के प्रभाव का किस प्रकार मूल्याकंन किया जाए। संरक्षणवादियों का विश्वास था कि समायोजन को परिणाम जनजातियों के शोषण और उनकी सांस्कृतिक विलुप्तता का रूप सामने आएगा। घूयें और राष्ट्रवादियों का तर्क था कि ये दुष्परिणाम केवल जनजातीय संस्कृति तक ही सीमित नहीं हैं। बल्कि भारतीय समाज के सभी पिछड़े और दलित वर्गों में समान रूप से देखे जा सकते हैं। |
प्रश्न 3. भारत में प्रजाति तथा जाति के संबंधों पर हरबर्ट रिजले तथा जी०एस०घूर्य की स्थिति की रूपरेखा दें। उत्तर – रिजले का मानना था कि मनुष्य को उसकी शारीरिक विशिष्टताओं के आधार पर अलग भिन्न जनजातियों में वगीकृत किया जा सकता है; जैसे-खोपड़ी की चौड़ाई, नाक की लंबाई या कपाल का भार अथवा खोपड़ी का वह भाग जहाँ मस्तिष्क स्थित है। रिज़ले को विश्वास था कि विभिन्न प्रजातियों के उविकास के अध्ययन के संदर्भ में भारत एक विशिष्ट प्रयोगशाला’ है। इसका कारण यह है कि जाति एक लंबे समय से विभिन्न समूहों के बीच अंतनिर्वाह को निषिद्ध करती है। उच्च जातियों ने भारतीय-आर्य प्रजाति की विशिष्टताओं को ग्रहण किया जबकि निम्न जातियों में अनार्य जनजातियों, मंगोल या अन्य प्रजातियों के गुण पाये जाते हैं। रिजले और अन्य विद्धानों ने सुझाव दिया कि निम्न जातियाँ ही भारत की मूल निवासी हैं। आर्यों ने उनका शोषण किया जो कहीं बाहर से आकर भारत में फले-फूले थे। रिजले के तर्को से घूर्ये असहमत नहीं थे। परंतु उन्होंने इसे केवल अंशतः सत्य माना। उन्होंने इस समस्या की ओर ध्यान दिया। वस्तुतः यह समस्या, केवल औसत के आधार पर बिना परिवर्तन सोच-विचार किए किसी समुदाय पर विशिष्ट मापदंड लागू कर देने से उत्पन्न होती है। जोकि विस्तृत एवं सुव्यवस्थित नहीं था। प्रजातीय शुद्धता केवल उत्तर भारत में शेष रह गई थी। इसका कारण यह था कि वहाँ अंतर्विवाह निषिद्ध था। |
प्रश्न 4. जाति की सामाजिक मानवशास्त्रीय परिभाषा को सारांश में बताएँ। उत्तर – जाति की सामाजिक मानवविज्ञान संबंधी परिभाषा-
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प्रश्न 5. जीवंत परंपरा से डी०पी० मुकर्जी का क्या तात्पर्य है? भारतीय समाजशास्त्रियों ने अपनी परंपरा से जुड़े रहने पर बल क्यों दिया? उत्तर – डी०पी० मुकर्जी के अनुसार, वह एक परंपरा है। जो भूतकाल से कुछ प्राप्त कर उससे अपने संबंध बनाए रखती है। इसके अतिरिक्त यह नयी चीजों को भी ग्रहण करती है। इस प्रकार जीवंत परंपरा में पुराने और नए तत्वों का मिश्रण है। डी०पी० मुकर्जी ने जिस तथ्य पर बल दिया वह यह है कि भारतीय समाजशास्त्रीयों को जीवंत परंपरा में रुचि रखनी चाहिए ताकि इसका उचित और सार भाव प्राप्त हो सके। भारतीय समाजशास्त्री निम्नलिखित विषयों को अधिक सुलभता से जान सकते है आपके उम्र के बच्चों द्वारा खेला जाने वाला खेल। (लड़का/लड़की)। किसी लोकप्रिय त्योहार को मनाने के तरीके। भातीय समाजशास्त्रीयों का प्रथम कर्तव्य भारत की सामाजिक परंपराओं का अध्ययन करना और जानना है। डी०पी० मुकर्जी के लिए, परंपरा का अध्ययन केवल भूतकाल तक ही सीमित नहीं था। इसके विपरीत वे परिवर्तन की संवेदनशीलता से भी जुड़े थे। डी०पी० मुकर्जी ने जो भी लिखा है, वह भारतीय समाजशास्त्रीयों के लिए पर्याप्त नहीं है। सर्वप्रथम उन्हें भारतीय होना अनिवार्य है। उदाहरण के लिए उन्हें रीति-रिवाजों, रूढ़ियों, प्रथाओं और परंपराओं की जानकारी देनी है। इसका उद्देश्य है संदर्भित सामाजिक व्यवस्था को समझना एवं इसके अंदर तथा बाहर के तथ्यों की जानकारी हासिल करना। डी०पी० मुकर्जी ने तर्क किया कि पाश्चात्य संदर्भ में भारतीय संस्कृति और समाज व्यक्तिवादी नहीं हैं। स्वैच्छिक व्यक्तिगत कार्यों की तुलना में भारतीय सामाजिक व्यवस्था मुख्य रूप से समूह, समुदाय अथवा जाति संबंधी कार्यों के प्रति अभिमुख है। |
प्रश्न 6. भारतीय संस्कृति तथा समाज की क्या विशष्टिताएँ हैं तथा ये बदलाव के ढाँचे को कैसे प्रभावित करते हैं? उत्तर – डी०पी० मुकर्जी ने महसूस किया कि भारत का निर्णायक और विशष्ट लक्षण इसकी सामाजिक व्यवस्था है। उनके अनुसार भारत में इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र पश्चिम के मुकाबले और आयाम के दृष्टिकोण से कम विकसित थे। पाश्चात्य अर्थ में भारतीय संस्कृति और समाज व्यक्तिवादी नहीं है लेकिन इनमें सामूहिक व्यवहार के प्रतिमान निहित हैं। डी०पी० मुकर्जी का मत है कि भारतीय समाज और संस्कृति का संबंध केवल भूतकाल तक ही सीमित नहीं है। इसे अनुकूलन की प्रक्रिया में भी विश्वास है। डी०पी० मुकर्जी का मत है कि भारतीय संदर्भ में वर्ग संघर्ष जातीय परंपराओं से प्रभावित होता है एवं उसे अपने में सम्मिलित कर लेता है, जहाँ नवीन वर्ग संघर्ष अभी स्पष्ट रूप से उभर कर सामने नहीं आया है। डी०पी० मुकर्जी को भारतीय परंपरा जैसे श्रुति, स्मृति और अनुभव में विश्वास था। इन सब में आखिरी अनुभव या व्यक्तिगत अनुभव क्रांतिकारी सिद्धांत है। सामान्यीकृत अनुभव या समूहों का सामूहिक अनुभव भारतीय समाज में परिवर्तन का सर्वप्रमुख सिद्धांत था। उच्च परंपराएँ स्मृति और श्रुति में केंद्रित थी, लेकिन समय-समय पर उन्हें समूहों और संप्रदायों के सामूहिक अनुभवों द्वारा चुनौती दी जा रही है। उदाहरण के लिए, भक्ति आंदोलन। डी०पी० मुकर्जी के अनुसार, भारतीय संदर्भ में बुद्धि-विचार परिवर्तन के लिए प्रभावशाली शक्ति नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से अनुभव एवं प्रेम परिवर्तन के उत्कृष्ट कारक हैं। भारतीय परिप्रेक्ष्य में संघर्ष और विद्रोह सामूहिक अनुभवों के आधार पर कार्य करते हैं। |
प्रश्न 7. कल्याणकारी राज्य क्या है? ए०आर० देसाई कुछ देशों द्वारा किए गए दावों की आलोचना क्यों करते हैं? उत्तर – एक कल्याणकारी राज्य वह राज्य है जो विभिन्न परिप्रेक्ष्यों से संबंधित व्यक्तियों के कल्याण का कार्य करता है; जैसे-व्यक्तियों का राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, विकासात्मक आदि। ए०आर० देसाई की रुचि आधुनिक पूँजीवादी राज्य के महत्वपूर्ण विषय में था। देसाई ने कल्याणकारी राज्य की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई हैं कल्याणकारी राज्य एक सकारात्मक राज्य होता है। इसका अर्थ है कि उदारवादी राजनीति के शास्त्रीय सिद्धांत की ‘Laissez Faire’ नीति के विपरीत, कानून और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कल्याणकारी राज्य केवल न्यूनतम कार्य ही नहीं करता है। कल्याणकारी राज्य की अर्थव्यवस्था मिश्रित होती है। मिश्रित अर्थव्यवस्था का अर्थ है-ऐसी अर्थव्यवस्था जहाँ निजी पूँजीवादी कंपनियाँ और राज्य या सामूहिक कंपनियाँ दोनों साथ मिलकर कार्य करती हों। एक कल्याणकारी राज्य न तो पूँजीवादी बाज़ार को ही समाप्त करना चाहता है एवं न ही यह उद्योगों और दूसरे क्षेत्रों में जनता को निवेश करने से वंचित रखता है। कुल मिलाकर सरकारी क्षेत्र जरूरत की वस्तुओं तथा सामाजिक अधिसंरचना पर ध्यान देता है। इसकी तरफ निजी उद्योगों का वर्चस्व उपभोक्ता वस्तुओं पर कायम रहता है। देसाई कुछ ऐसे तरीकों का सुझाव देते हैं जिनके आधार पर कल्याणकारी राज्य द्वारा उठाये गए कदमों का परीक्षण किया जा सकता है। ये हैं।
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प्रश्न 8. समाजशास्त्रीय शोध के लिए ‘गाँव’ को एक विषय के रूप में लेने पर एम०एन० श्रीनिवास तथा लुई डयूमों ने इसके पक्ष तथा विपक्ष में क्या तर्क दिए हैं? उत्तर –
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प्रश्न 9. भारतीय समाजशास्त्र के इतिहास में ग्रामीण अध्ययन का क्या महत्व है? ग्रामीण अध्ययन को आगे बढ़ाने में एम०एन० श्रीनिवास की क्या भूमिका रही? उत्तर –
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