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NCERT Solutions Class 11th Political Science (भारत का संविधान : सिद्धान्त और व्यवहार) Chapter – 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन (The Philosophy of Constitution) Notes In Hindi
NCERT Solutions Class 11th Political Science (भारत का संविधान : सिद्धान्त और व्यवहार) Chapter – 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन (The Philosophy of Constitution)
Textbook
NCERT
Class
11th
Subject
Political Science (भारत का संविधान : सिद्धान्त और व्यवहार)
Chapter
Chapter – 10
Chapter Name
संविधान का राजनीतिक दर्शन (The Philosophy of Constitution)
NCERT Solutions Class 11th Political Science (भारत का संविधान : सिद्धान्त और व्यवहार) Chapter – 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन (The Philosophy of Constitution) Notes In Hindi संविधान किसने लिखा था?, संविधान को 100 शब्दों में क्या कहते हैं?, संविधान कहाँ लिखा गया?, हमारा संविधान किस भाषा में लिखा गया है?, पहला संविधान कौन था?, विश्व में प्रथम संविधान किसका था?, सबसे पहले संविधान कहाँ लागू हुआ?, संविधान के हर पन्ने पर किसका नाम है?, संविधान पर प्रथम हस्ताक्षर करता कौन थे?, संविधान कितने लोगों ने लिखा?, बेडकर ने संविधान कब लिखा था?
NCERT Solutions Class 11th Political Science (भारत का संविधान : सिद्धान्त और व्यवहार) Chapter – 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन (The Philosophy of Constitution)
Chapter – 10
संविधान का राजनीतिक दर्शन
Notes
संविधान के दर्शन का आशय – संविधान के दर्शन से आशय संविधान में उल्लेखनीय देश के मूल्य व आदर्शो से है जैसे भारतीय संविधान स्वतंत्राता, समानता, लोकतंत्र, समाजिक न्याय आदि के लिए प्रतिबद्ध है। इस सबके साथ उसके दर्शन को शांतिपूर्ण तथा लोकतांत्रिक तरीके से अमल किया जाये। भारतीय संविधान में’ धर्मनिरपेक्षता, अल्प संख्यकों के अधिकारों का सम्मान, धर्मिक समूहों के अधिकार सार्वभौम मताधिकार, संघवाद आदि का भी समावेश हुआ है संविधान के दर्शन का सर्वोत्तम सार-संक्षेप संविधान की प्रस्तावना में वर्णित है।
भारतीय संविधान की विशेषताएँ
भारतीय संविधान लिखित है। जिसमें कठोर व लचीलेपन का मिश्रण है।
भारतीय संविधान विस्तृत संविधान है।
भारतीय संविधान संघात्मक संविधान है जिसमें एकात्मक शासन के लक्षण छिपे है।
भारतीय संविधान में प्रस्तावना के साथ स्वतंत्राता समानता व लोकतांत्रिक गणराज्य का समावेश है।
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार मौलिक कर्तव्य व राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत’ भी लिखे है आदि।
संविधान की आलोचना के बिन्दु
1. संविधान कसा हुआ दस्तावेज न होकर अस्त व्यस्त है।
2. संविधान में सबकी नुमाइंदगी नही हो सकी है।
3. भारतीय परिस्थितियां के अनुकुल नही है।
4. संविधान में विश्व के अन्य संविधानों से उधार लिये गये प्रावधन है, अर्थात अन्य देशों की संविधान से नक़ल की गयी है।
भारतीय संविधान के पक्ष में तर्क
(1) यदि हम इन अलोचनाओं पर विचार करे तो इनमें बहुत अधिक सत्यता नहीं पाते हैं। इस बात की बहुत संभावना हर संविधान में रह सकती है कि कुछ व्यतव्य व ब्यौरे संविधान से बाहर रह जाये।
(2) भारतीय संविधान सभा में अधिकतर अगड़ी जाति से संबंधित सदस्य थे किंतु फिर भी भीमराव अम्बेडकर की जन्मतिथि को त्यौहार समान बनाने वाले तबके भी समाज में है, इससे स्पष्ट होता हैं कि संविधान में उनकी अनेक आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति हुई है।
(3) संविधन निर्माताओं के मन में परम्परागत भारतीय व पश्चिमी मूल्यों के स्वरूप मेल का भाव था। यह संविधान सचेत चयन का परिणाम है न कि नकल का।
(4) इससे एक और महत्वपूर्ण बात हमारे संविधान निर्माताओं की उन गहरी सोंच की मिलती है कि उन्होंने ने दूसरों की अच्छाइयों को भी अपने संविधान में जगह दी है।
भारतीय संविधान की सीमाएँ – भारत का संविधान हर तरह से पूर्ण व त्राुटिहीन दस्तावेज है, संविधन की कुछ निम्न सीमाएं है-
1. भारतीय संविधान में राष्ट्रीय एकता की धरणा बहुत केन्द्रीकृत है।
2. इसमें लिंग गत न्याय के कुछ महत्वपूर्ण मसलों खासकर परिवार से जुड़े मुद्दो पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है।
3. एक गरीब व विकासशील देश में कुछ बुनियादी सामाजिक आर्थिक अधिकारों को मौलिक अधिकारों के बजाय राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में डाला गया है जो न्याय परक नही है।
संविधान सभा बनाने की पहली माँग – संविधान सभा बनाने की पहली बार माँग जवाहर लाल नेहरु ने उठाई थी। उन्होंने ने एक लंदन से प्रकाशित होने वाले अखबार “डेलीहेराल्ड” में प्रकाशित एक लेख से की थी। उन्होंने कहा, “इस संघर्ष का राजनितिक समाधान तभी हो सकता है जब भारत के लोग एक निर्वाचित संविधान द्वारा स्वयं अपना संविधान बनाए “। धीरे-धीरे संविधान सभा बनाने की यह मांग राष्ट्रिय माँग बन गयी।
उदारवाद की मान्यता – उदारवाद की मान्यता है कि समाज के सभी वर्गों को स्वतंत्र, सृजनशील और सक्रीय जीवन जीना चाहिए। अर्थात उदारवाद समाज के सभी वर्गों की स्वतंत्रता, बचने बढ़ने का सुअवसर देता है।
संविधान की उदारवाद (liberalism) होने का तात्पर्य – संविधान का उदारवाद होने का तात्पर्य है सामाजिक न्याय से है, हमारा संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा हुआ है। भारतीय समाज के कुछ वंचित लोग जिनके साथ सदियों से अन्याय हुआ है उससे मुक्ति के लिए हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान में उनके हितों के लिए कुछ उदारवाद नीतियाँ अपनाई जैसे – कुछ विशेष तबके के लिए विधायिका के सीटों में आरक्षण, उनके लिए नौकरियों में आरक्षण आदि। यह प्रक्रिया संविधान का उदारवाद होना दर्शाता है।
भारतीय संविधान का उदारवाद होने का उदाहरण
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के लिए आरक्षण का प्रावधान।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के लिए विधायिका में सीटों का आरक्षण।
सरकारी नौकरियों में इन वर्गों को आरक्षण देना।
समाजिक न्याय के सन्दर्भ में भारतीय संविधान की विशेषताएँ-
भारतीय संविधान समुदायों के बीच बराबरी के रिश्ते को बढ़ावा देता है।
हमारा संविधान सामाजिक न्याय से जुड़ा है।
हमारा संविधान उदारवाद है।
हमारा संविधान लोगों की हितों की रक्षा करता है।
लोकतंत्र में संविधान का महत्व – बिना संविधान के हम लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की कल्पना भी नहीं कर सकते है। लोकतंत्र में संविधान का बहुत ही महत्त्व है जो निम्नलिखित है-
यह सरकारी शक्तियों पर अंकुश लगाने का साधन है।
यह योजनाबद्ध तरीके से बदलाव लाने का एक साधन है।
यह समाज के शोषित असहाय एवं अल्पसंख्यक के हितों की रक्षा करता है।
यह दीर्घकालिक उदेश्य को क्रिन्यान्वित करने का एक साधन है।
यह क्रांति या आन्दोलन के खतरे को कम करता है।
यह राज्य को निरंकुश होने से रोकता है।
जो लोग परंपरागत तौर पर सत्ता से दूर रहे हैं उनका सशक्तिकरण भी करता है।
कमजोर लोगों को उनका वाज़िब हक सामुदायिक रूप में हासिल करने की ताकत देता है।
पारस्परिक निषेध – पारस्परिक निषेध (mutual exclusion) शब्द का अर्थ होता है – धर्म और राज्य दोनों एक-दूसरे के अंदरूनी मामले से दूर रहेंगे। राज्य के लिए शरूरी है कि वह धर्म के क्षेत्र में हस्तक्षेप न करे। ठीक इसी तरह धर्म को चाहिए कि वह राज्य की नीति में दखल न दे और न ही राज्य-संचालन को प्रभावित करे। दूसरे शब्दों में, पारस्परिक-निषेध का अर्थ है कि धर्म और राज्य परस्पर एकदम अलग होने चाहिए।
धर्म और राज्य को एकदम अलग रखने का उदेश्य
इसका मुख्य उदेश्य है व्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा।
धार्मिक संगठन व्यक्ति के धार्मिक जीवन का नियंत्रण करने लगते हैं।
व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए जरुरी है कि राज्य धार्मिक संगठनों की सहायता न करे।