NCERT Solutions Class 10th Social Science History Chapter – 5 मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया (Printing Culture and the Modern World) Question & Answer In Hindi

NCERT Solutions Class 10th Social Science History Chapter – 5 मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया (Printing Culture and the Modern World)

Text BookNCERT
Class  10th
Subject  Social Science (History)
Chapter 5th
Chapter Nameमुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया (Printing Culture and the Modern World)
CategoryClass 10th Social Science (History)
Medium Hindi
SourceLast Doubt
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NCERT Solutions Class 10th Social Science History Chapter – 5 मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया (Printing Culture and the Modern World)

Chapter – 5

मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया

प्रश्न – उत्तर

प्रश्न 1. निम्नलिखित के कारण दें-

(क) वुडब्लॉक प्रिंट या तख्ती की छपाई यूरोप में 1295 के बाद आई।
उत्तर –
वुडब्लॉक प्रिंट या तख्ती की छपाई यूरोप में 1295 के बाद आई। इसके प्रमुख कारण थे-

(1) 1295 ई. में मार्को पोलो नामक महान् खोजी यात्री चीन में काफी साल तक खोज करने के बाद इटली वापस लौटा।

(2) चीन के पास वुडब्लॉक (काठ की तख्ती) वाली छपाई की तकनीक पहले से मौजूद थी। मार्को पोलो यह ज्ञान अपने साथ लेकर लौटा।

(3) इसके बाद से ही, इतालवी भी तख्ती की छपाई से किताबें निकालने लगे और जल्द ही यह तकनीक बाकी यूरोप में फैल गई।

(ख) मार्टिन लूथर मुद्रण के पक्ष में था और उसने इसकी खुलेआम प्रशंसा की।
उत्तर –
सोलहवीं सदी में रोमन कैथलिक चर्च की कुरीतियों, चर्च तथा मठों में फैले भ्रष्टाचार को दूर करने के उद्देश्य से लूथर ने चर्च की आलोचना की एवं शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी। उसके लेख बडी संख्या में छपने लगे और लोग पढ़ने लगे। कुछ ही हफ्तों में न्यू टेस्टामेंट के लूथर के अनुवाद की 5000 प्रतियाँ बिक गईं। प्रिंट तकनीकी के बिना यह असंभव था। इसी कारण लूथर प्रिंट तकनीक के पक्ष में था और इसकी प्रशंसा करता था।

(ग) रोमन कैथलिक चर्च ने सोलहवीं सदी के मध्य से प्रतिबंधित किताबों की सूची रखनी शुरू कर दी।
उत्तर –
रोमन कैथोलिक चर्च ने 16 वीं सदी के मध्य से प्रतिबंधित किताबों की सूची रखनी शुरू कर दी। क्योंकि छपे हुए लोकप्रिय साहित्य के बल पर शिक्षित लोग धर्म की अलग-अलग व्याख्याओं से परिचित हुए। सोलहवीं सदी तक इटली की आम जनता ने किताबों को पढ़ना शुरू कर दिया था। आम जनता उन किताबों के आधार पर बाइबिल के नये अर्थों से परिचित होने लगे। ये लोग पुस्तकों के माध्यम से ईश्वर और सृष्टि के सही अर्थ को समझ पाये। इससे रोमन कैथोलिक चर्च में काफी प्रतिक्रिया हुई। ऐसे धर्म विरोधी विचारों को दबाने के लिए रोमन चर्च ने धर्म द्रोहियों को सुधारना आवश्यक समझा। अत: रोमन चर्च ने प्रकाशकों और पुस्तक विक्रेताओं पर कई तरह की पाबंदियाँ लगाई गई और 1558 ई. में प्रतिबंधित किताबों की सूची रखने लगे।

(घ) महात्मा गांधी ने कहा कि स्वराज की लड़ाई दरअसल अभिव्यक्ति, प्रेस और सामूहिकता के लिए लड़ाई है।
उत्तर –
महात्मा गाँधी ने स्वराज की लड़ाई को दरअसल अभिव्यक्ति, प्रेस और सामूहिकता के लिए लड़ाई कहा क्योंकि ब्रिटिश भारत की सरकार इन तीन आजादियों को दबाने की कोशिश कर रही थी। लोगों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति, पत्र- पत्रिकाओं की वास्तविकता को व्यक्त करने की आजादी और सामूहिक जनमत को बल प्रयोग व मनमाने कानूनों द्वारा दबाया जा रहा था। इसीलिए गाँधी ने इन तीन आजादियों के लिए संघर्ष को ही स्वराज की लड़ाई कहा।

प्रश्न 2. छोटी टिप्पणी में इनके बारे में बताएँ?

(क) गुटेन्बर्ग प्रेस
उत्तर –
गुटेन्बर्ग ने प्रिंटिंग प्रेस मॉडल 1448 ई. में बनाया। इस प्रेस में स्क्रू से लगा एक हैंडल होता था। हैंडल की मदद से स्क्रू घुमाकर प्लाटेन को गीले कागज पर दबा दिया जाता था। गुटेन्बर्ग ने रोमन वर्णमाला के तमाम 26 अक्षरों के लिए टाइप बनाये। इसमें यह प्रयास किया गया कि इन्हें इधर-उधर ‘मूव’ कराकर या घुमाकर शब्द बनाये जा सकें।

गुटेनबर्ग ने प्रिंटिंग प्रेस मॉडल 1448 ई.

यही कारण है कि इसे ‘मूवेबल टाइप प्रिंटिंग मशीन’ के नाम से जाना गया और यही अगले 300 सालों तक छपाई की बुनियादी तकनीक रही। हर छपाई के लिए तख्ती पर खास आकार उकेरने की पुरानी तकनीक की तुलना में अब किताबों का इस तरह छापना बहुत तेज हो गया। इसके परिणामस्वरूप गुटेन्बर्ग प्रेस एक घंटे में 250 पन्ने (एक साइड) छाप सकता था। इसमें छपने वाली पहली पुस्तक बाइबिल थी।

(ख) छपी किताबों को लेकर इरैस्मस के विचार
उत्तर –
लातिन के विद्वान और कैथलिक धर्म सुधारक इरैस्मस जिसने कैथलिक धर्म की ज्यादतियों की आलोचना की, प्रिंट को लेकर बहुत आशंकित था। उसने एडेजेज में लिखा- ‘किताबें भिनभिनाती मक्खियों की तरह हैं, दुनिया का कौन-सा कोना है, जहाँ ये नहीं पहुँच पातीं ? हो सकता है कि जहाँ-तहाँ, एकाध जानने लायक चीजें भी बताएँ, लेकिन इनका ज्यादा हिस्सा तो विद्वता के लिए हानिकारक ही है। बेकार ढेर है, क्योंकि अच्छी चीजों की अति भी हानिकारक ही है, इनसे बचना चाहिए मुद्रक दुनिया को सिर्फ तुच्छ चीजों से ही नहीं पाट रहे, बल्कि बकवास, बेवकूफ, सनसनीखेज, धर्मविरोधी, अज्ञानी और षड्यंत्रकारी किताबें छापते हैं, और उनकी तादाद ऐसी है कि मूल्यवान साहित्य का मूल्य ही नहीं रह जाता।

(ग) वर्नाक्युलर या देशी प्रेस एक्ट
उत्तर –
वर्नाक्युलर या देसी प्रेस एक्ट अंग्रेजी सरकार ने 1857 की क्रांति के बाद प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसी संदर्भ में आइरिश प्रेस कानून के तर्ज पर 1878 में वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट लागू कर दिया गया। इससे सरकार को भाषाई प्रेस में छपी रपट और सम्पादकीय को सेंसर करने का व्यापक अधिकार मिल गया। सरकार विभिन्न प्रदेशों में छपने वाले भाषाई अख़बारों पर नियमित नज़र रखने लगी। इस एक्ट में अखबारों को जब्त किया जा सकता था और छपाई की मशीनें छीन ली जा सकती थीं।

प्रश्न 3. उन्नीसवीं सदी में भारत में मुद्रण-संस्कृति के प्रसार का इनके लिए क्या मतलब था–

(क) महिलाएँ
(ख) ग़रीब जनता
(ग) सुधारक

उत्तर – (क) महिलाएँ – उन्नीसवीं सदी में भारत में मुद्रण संस्कृति के प्रसार का महिलाओं पर व्यापक प्रभाव पड़ा। महिलाओं के जीवन में परिवर्तन आया। उदारवादी परिवारों ने महिलाओं की शिक्षा का समर्थन किया, वहीं रूढ़िवादी परिवारों ने महिला शिक्षा पर रोक लगा दी। इससे विपरीत प्रतिक्रिया हुई और अधिकांश दलित महिलाओं ने चोरी-छिपे (रसोईघरों में पढ़ाई करना आरंभ कर दिया ) कुल मिलाकर मुद्रण संस्कृति ने भारतीय महिलाओं में आत्मविश्वास की भावना भरने में सहायता की।

(ख) गरीब जनता – 19वीं सदी के मद्रासी शहरों में काफी सस्ती किताबें चौक- चौराहों पर बेची जा रही थीं जिसके कारण गरीब लोग भी बाजार से उन्हें खरीदने की स्थिति में आ गए थे। बंगलौर के सूती मिल मजदूरों ने खुद को शिक्षित करने के ख़्याल से पुस्तकालय बनाया, जिसकी प्रेरणा उन्हें बम्बई के मिल-मजदूरों से मिली थी। समाज सुधारकों ने मजदूरों के प्रयासों को संरक्षण दिया। मजदूरों के बीच नशाखोरी कम करने, साक्षरता लाने और राष्ट्रवाद का संदेश पहुंचाने में मुद्रण की सराहनीय भूमिका रही। जो लोग वुडब्लॉक बनाते थे उन्हें छापेखाने में नौकरी मिलने लगी।

(ग) सुधारक – उन्नीसवीं सदी के भारतीय सुधारकों ने अपने सुधारवादी विचारों को फैलाने के लिए मुद्रण संस्कृति को एक सबसे कारगर माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया। उन्होंने कई देशी भाषाई, अंग्रेजी और हिन्दी के अखबारों का प्रकाशन आरंभ किया जिनसे वे सती प्रथा, बाल विवाह, मूर्तिपूजा, जाति प्रथा आदि कुरीतियों के विरोध का आह्वान करते थे। मुद्रण-संस्कृति ने उन्हें धार्मिक अंधविश्वासों को तोड़ने और आधुनिक सामाजिक और राजनीतिक विचारों को फैलाने का मंच प्रदान किया।

चर्चा करें

प्रश्न 1. अठारहवीं सदी के यूरोप में कुछ लोगों को क्यों ऐसा लगता था कि मुद्रण संस्कृति से निरंकुशवाद का अंत, और ज्ञानोदय होगा?
उत्तर –
18वीं सदी के यूरोप में यह विश्वास बन गया था कि किताबों के जरिए प्रगति और ज्ञानोदय होता है। बहुत सारे लोगों का यह मानना था कि किताबें दुनिया बदल सकती हैं। मुद्रण संस्कृति निरंकुशवाद और आतंकी राज सत्ता से समाज को मुक्ति दिलाकर ऐसा दौर लाएगी जब विवेक और बुद्धि का राज होगा। अठारहवीं सदी में फ्रांस के एक उपन्यासकार लुई सेबेस्तिएँ मर्सिए ने घोषणा की, “छापाखाना प्रगति का सबसे बड़ा ताकतवर औजार है, इससे बन रही जनमत की आँधी में निरंकुशवाद उड़ जाएगा।”

प्रश्न 2. कुछ लोग किताबों की सुलभता को लेकर चिंतित क्यों थे? यूरोप और भारत से एक-एक उदाहरण लेकर समझाएँ।
उत्तर –
कुछ लोग किताबों की सुलभता को लेकर चिंतित थे क्योंकि उन्हें भय था कि इनसे विद्रोह और अधार्मिक विचारों का प्रस्फुटन होगा।

उदाहरण – यूरोप रोमन कैथलिक चर्च ने प्रतिबंधित पुस्तकों का सूचीमन करके मुद्रित पुस्तकों को रोकने की कोशिश की। भारत- वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट ने भारतीय प्रेस और बहुत से स्थानीय अखबारों पर प्रतिबंध थोप दिया था।

प्रश्न 3. उन्नीसवीं सदी में भारत में गरीब जनता पर मुद्रण संस्कृति का क्या असर हुआ?
उत्तर –
मुद्रण संस्कृति का भारत की गरीब जनता पर भी असर पड़ा। उन्नीसवीं सदी के मद्रासी शहरों में काफी सस्ती किताबें चौक-चौराहों पर बेची जा रही थीं, जिसके चलते गरीब लोग भी बाजार से उन्हें खरीदने की स्थिति में आ गए थे। गरीबी, जातीय भेदभाव व अंधविश्वासों को दूर करने के लिए बहुत-से सुधारक लिख रहे थे।

• इनका प्रभाव गरीब जनता पर पड़ रहा था। ज्योतिबा फुले व पेरियार ने जाति पर जोरदार कलम चलाई। इनके लेख पूरे भारत में पढ़े गए।

• स्थानीय विरोध आंदोलनों और सम्प्रदायों ने भी प्राचीन धर्मग्रंथों की आलोचना करते हुए नए और न्यायपूर्ण समाज का सपना बुनने की मुहिम में लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाएँ और गुटके छापे।

• कानपुर के मिल मजदूर काशीबाबा ने 1938 में छोटे और बड़े सवाल लिख और छाप कर जातीय और वर्गीय शोषण के बीच का रिश्ता समझाने की कोशिश की।

• बंगलौर के सूती-मिल मज़दूरों ने खुद को शिक्षित करने के ख्याल से पुस्तकालय बनाए, उनकी मूल कोशिश थी कि मजदूरों के बीच नशाखोरी कम हो, साक्षरता आए और उन तक राष्ट्रवाद का संदेश भी यथासंभव पहुँचे।

• इस तरह भारत की गरीब जनता पर भी मुद्रण संस्कृति के प्रसार के व्यापक प्रभाव पड़े।

प्रश्न 4. मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में क्या मदद की?
उत्तर –
मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया जो इस प्रकार है –

1. बहुत से समाज व धर्म-सुधारकों ने समाज में व्याप्त अंधविश्वासों को दूर करने के लिए लिखना शुरू किया, जिससे लोगों में चेतना आई।
2. जातिवाद, महिला शोषण व मजदूरों की दयनीय स्थिति पर लिखा गया, इससे जनमानस में अपनी खराब स्थिति को समझने में मदद मिली।
3. 1870 के दशक तक पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर टिप्पणी करते हुए कैरिकेचर व कार्टून छपने लगे थे।
4. कुछ ने शिक्षित भारतीयों के पश्चिमी पोशाकों और पश्चिमी अभिरुचियों का मजाक उड़ाया।
5. राष्ट्रवादी लोगों ने राष्ट्रवाद को बढ़ाने के लिए स्थानीय मुद्रण का व्यापक सहारा लिया।
6. खुलेआम व चोरी-छिपे राष्ट्रवादी विचार व लेख प्रकाशित होने लगे जिन्हें आम जनता तक पहुँचाना मुश्किल नहीं था।
7. अंधविश्वासों, सामाजिक समस्याओं के साथ-साथ विदेश राज पर भी सवाल उठाए जाने लगे तथा भारत की जनता की गरीबी व परेशानियों तथा पिछड़ेपन के लिए ब्रिटिश सत्ता को कोसा जाने लगा।
8. इस तरह मुद्रण संस्कृति ने भारत में राष्ट्रवाद के विकास में व्यापक भूमिका निभाई।

NCERT Solution Class 10th History All Chapters Question Answer in Hindi
Chapter – 1 यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय
Chapter – 2 भारत में राष्ट्रवाद
Chapter – 3 भूमंडलीकृत विश्व का बनना
Chapter – 4 औद्योगीकरण का युग
Chapter – 5 मुद्रण संस्कृति और आधुनिक दुनिया
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