NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 7 (A) विविध संदर्भों में सरोकार और आवश्यकताएँ- पोषण, स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञान (Concern and Needs in Diverse Contexts Nutrition, Health and Hygiene)
Textbook | NCERT |
class | 11th |
Subject | Home Science |
Chapter | 6th |
Chapter Name | संचार माध्यम और संचार प्रौद्योगिकी |
Category | Class 11th Home Science Notes in hindi |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 7 (A) विविध संदर्भों में सरोकार और आवश्यकताएँ- पोषण, स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञान (Concern and Needs in Diverse Contexts Nutrition, Health and Hygiene) Notes In Hindi इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप निम्न को समझ पाएँगे- स्वास्थ्य के महत्त्व और इसके आयाम, पोषण और स्वास्थ्य के बीच के परस्पर-संबंध, अल्पपोषण और अतिपोषण के परिणाम, उपयुक्त और स्वास्थ्यप्रद भोजन के विकल्पों का चुनाव, पोषण और रोग के बीच परस्पर-संबंध, तथा आहार-जनित रोगों की रोकथाम के लिए स्वास्थ्य सिद्धांत का महत्त्व । |
NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 7 (A) विविध संदर्भों में सरोकार और आवश्यकताएँ- पोषण, स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञान (Concern and Needs in Diverse Contexts Nutrition, Health and Hygiene)
Chapter – 7
विविध संदर्भों में सरोकार और आवश्यकताएँ- पोषण, स्वास्थ्य और स्वास्थ्य विज्ञान
Notes
भूमिका ( Introduction) आज के दौर में हर व्यक्ति एक स्वस्थ तथा उच्च गुणवत्ता वाला जीवन जीना चाहता है। ‘स्वास्थ्य’ प्रत्येक मनुष्य का मूलभूत अधिकार है। यहाँ तक कि मानव अधिकारों की विश्वव्यापी घोषणा में भी कहा गया है कि- “हर व्यक्ति को अपने तथा अपने परिवार के लिए पर्याप्त आहार के साथ-साथ अच्छे स्वास्थ्य के लिए उचित जीवन स्तर पाने का अधिकार है।” इन सब प्रकार की घोषणाओं एवं विभिन्न प्रयासों के बावजूद भी विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों तथा स्वयं की श्रुटिपूर्ण एवं तनावपूर्ण जीवनशैली के कारण हमारे स्वास्थ्य पर कई नकारात्मक प्रभाव पड़ते है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने स्वास्थ्य को निम्न रूप से परिभाषित किया है, स्वास्थ्य केवल रोगों की अनुपस्थिति नहीं बल्कि पूर्ण शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक स्वस्थता है। जिसमें व्यक्ति अपने वातावरण की चुनौतियों के अनुकूल प्रतिकार करने में सफल रहता है। |
उपरोक्त परिभाषा में ‘रोग’ शब्द का तात्पर्य निम्न स्थितियों से है- (i) शारीरिक स्वास्थ्य को किसी भी प्रकार की क्षति (ii) शरीर के किसी भाग या अंग का किसी भी कारण से काम न करना (शारीरिक असमर्थता) ऐसी कोई भी परिस्थिति जो व्यक्ति को सामान्य रूप से काम करने में बाधा डाले या उसे स्वस्थ न रहने दें। हर व्यक्ति चाहे वह किसी भी देश, प्रान्त, समाज, भाषा, लिंग से सम्बन्ध रखता हों, स्वस्थ व स्वच्छ वातावरण में रहना व पूर्ण स्वस्थता को प्राप्त करना उसका अधिकार है। अतः हम सब के लिए यह जरूरी हो जाता है कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए हम अपनी जीवनशैली और पर्यावरणीय स्थितियों में सुधार करें। |
स्वास्थ्य तथा उसके आयाम (Health and Its Dimensions) स्वास्थ्य के आयाम (Dimensions of Health) स्वास्थ्य के मुख्य तीन आयाम निम्नलिखित है- (1) सामाजिक स्वास्थ्य (Social Health) (2) मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health) (3) शारीरिक स्वास्थ्य (Physical Health) |
(1) सामाजिक स्वास्थ्य (Social Health) सामाजिक स्वास्थ्य का तात्पर्य व्यक्ति की उस क्षमता से है जिसके द्वारा वह समाज में रहते हुए लोगों से अर्थ पूर्ण एवं स्वस्थ संबंध स्थापित करता है। सरल शब्दों में कहें तो- सामाजिक स्वास्थ्य व्यक्ति की वह क्षमता है जिसके कारण वह स्वयं को समाज में स्थापित कर पाता हैं, या यु कहे की सामाजिक परिस्थितियों में व्यक्ति के अनुकूलन की क्षमता। इसका आशय उस समाज से भी है जिसमें सभी नागरिकों को अच्छे स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य वस्तुओं तथा सेवाओं का लाभ उठाने के लिए एक समान अवसर उपलब्ध हो। अतः हम कह सकते है कि- सामाजिक स्वास्थ्य व्यक्ति के सामाजिक कौशलों से होता है, जिसके द्वारा वह दूसरे लोगों और सामाजिक संस्थाओं के साथ अच्छी तरह व्यवहार कर सबंध स्थापित करता है। सामाजिक सहयोग, हमें समस्याओं और तनाव का सामना करने, उनसे निपटने और उन्हें हल करने में हमारी मदद करता है। विभिन्न प्रकार के सामाजिक क्रियाकलाप बच्चों तथा वयस्कों में सकारात्मक समायोजन (तालमेल) करने में योगदान देते हैं और व्यक्तिगत विकास को भी प्रोत्साहित करते हैं। पिछले कुछ समय से व्यक्ति के सामाजिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने पर विशेष बल दिया जा रहा है, क्योंकि वैज्ञानिक अध्ययनों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि सामाजिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति दीर्घायु होते हैं तथा बीमारियों से भी जल्दी उभर जाने है। सामाजिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति को ही दूसरों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का एहसास रहता है। वह सबको साथ लेकर समाज की के लिए सदैव तत्पर रहता है। |
सामाजिक स्वास्थ्य के निर्धारक (Determinants of Social Health) (i) योग्यता के अनुरूप व्यवसाय अथवा नौकरी। (ii) स्वास्थ्य सेवाओं तक उचित पहुँच। (iii) उचित सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियाँ। (iv) कार्यस्थल का सुरक्षित माहौल। (v) उचित धार्मिक एवं सांस्कृतिक मान्यताएँ तथा नैतिक मूल्य। |
सामाजिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति के लक्षण (Indicators of Social Health) (i) सहनशील तथा दूसरों की मदद के लिए तत्पर (ii) सबसे मधुर तथा सभ्य ढंग से व्यवहार करना (iii) दूसरों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का एहसास (iv) लोगों के साथ आसानी से सामंजस्य स्थापित कर लेना |
(2) मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health) मानसिक स्वास्थ्य का तात्पर्य व्यक्ति की भावात्मक तथा मनोवैज्ञानिक सुयोग्यता से है जिसके कारण व्यक्ति अपने दैनिक जीवन के सामान्य स्तर के तनावों के बावजूद भी समाज में सुचारू रूप से कार्य कर सकता है। मानसिक रूप से स्वास्थ्य व्यक्ति ही अपनी संज्ञानात्मक तथा भावात्मक क्षमताओं का उपयोग कर समाज में सुचारू रूप से कार्य कर सकता है और साथ ही साथ अपने दैनिक सामान्य ज़रूरतों को भी पूरा कर सकता है। |
मानसिक स्वास्थ्य के सूचक (Indicators of Mental Health) (i) व्यक्ति स्वयं को समर्थ और सक्षम महसूस करता है। (ii) वह दैनिक जीवन में सामने आने वाले सामान्य स्तर के तनावों से आसानी से निबट सकता है। (iii) उसके दूसरों से संबंध संतोषप्रद होते हैं। (iv) वह स्वतंत्र जीवन बिता सकता है। (v) मानसिक या भावात्मक तनाव का कुशलता से मुकाबला कर सकता है और उनसे सहज रूप से उबर ही सकता है। (vi) तनाव पूर्ण स्थितियों में घबराता या डरता नहीं है। (vii) प्रतिदिन की समस्याओं से हार नहीं मानता। |
(3) शारीरिक स्वास्थ्य (Physical Health) शारीरिक स्वास्थ्य का तात्पर्य व्यक्ति की शारीरिक क्षमताओं एवं सुयोग्यताओं से है जिसके कारण व्यक्ति शारीरिक रूप से चुस्त-दुरुस्त रहते हुए अपने दैनिक क्रियाकलापों को बिना किसी समस्या के आसानी से कर पाता है। सरल शब्दों में कहे तो शारीरिक स्वास्थ्य का तात्पर्य व्यक्ति के शरीर के भीतरी तथा बाहरी अंगों के सुचारू क्रियाकलाप से है। शारीरिक रूप से स्वास्थ्य व्यक्ति ही अपने दैनिक कार्यों को आसानी से और बिना अनावश्यक रूप से थके हुए कर पाता है। इसके अतिरिक्त शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही विभिन्न प्रकार के रोगों एवं संक्रामणों से मुक्त रहता है। |
शारीरिक स्वास्थ्य के सूचक (Indicators of Physical Health) (i) शारीरिक कार्यशीलता उत्तम हो। (ii) दाँत साफ, चमकीले व स्वस्थ हो। (iii) बैठे, खड़े, होने की सीधी मुद्रा हो। (iv) रोध प्रतिरोधक क्षमता बेहतर हो एवं किसी शारीरिक रोग से पीड़ित न हो। (v) बाल चमकदार तथा त्वचा कसी हुई हो। (vi) पर्याप्त नींद आती हो और सामान्य रूप से भूख लगती हो। |
स्वास्थ्य देखभाल (Health Care) स्वास्थ्य देखभाल को उन प्रयासों के रूप में पारिभाषित किया जा सकता है जिनमें प्रशिक्षित तथा पंजीकृत व्यावसायिकों द्वारा लोगों के शारीरिक, भावानात्मक तथा मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने अथवा पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। अपने स्वास्थ्य की अच्छी तरह से देखभाल करना हर व्यक्ति का मूल कर्त्तव्य होता है अर्थात् हर व्यक्ति अपने स्वास्थ्य के लिए स्वयं जिम्मेदार इसके बावजूद विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने स्वास्थ्य को मानवाधिकार की श्रेणी में रखा है। कोई भी देश तभी प्रगति कर सकता है जब उसके नागरिक शारीरिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ हो, क्योंकि शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही भावनात्मक रूप से मजबूत तथा सामाजिक रूप से स्थापित होता है। इसी उद्देश्य से हर देश की सरकार अपने नागरिकों को विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी सेवाएँ निःशुल्क उपलब्ध कराती है। यह स्वास्थ्य सेवाएँ मुख्य रूप से तीन स्तरीय होती हैं। जैसे कि- प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएँ (Primary Health Care) : यह सेवा सरकार द्वारा लगभग सभी गाँवों तथा जिलों में उपलब्ध करवाई जाती है जहाँ पर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में उपलब्ध डॉक्टरों लोगों से निःशुल्क स्वास्थ्य जाँच एवं इलाज करते हैं। हालांकि अधिकतर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में केवल सामान्य बीमारियाँ का ही इलाज किया जाता है। माध्यमिक स्वास्थ्य सेवाएँ (Secondary Health Care) : माध्यमिक स्वास्थ्य सेवाओं के अन्तर्गत जिला अस्पतालों को शामिल किया जाता है। कई बार कुछ रोग ऐसे होते है जिनके लिए रोगी को विशेष जाँच, कुछ दिनों के लिए अस्पताल में भर्ती होने तथा अपेक्षाकृत लम्बे समय तक इलाज की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थिति में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पर उपलब्ध डॉक्टर रोगी को बड़े अस्पताल में जाने की सलाह देते है जहाँ पर उसके इलाज के लिए सभी सुविधाएँ एवं विशेष डॉक्टर उपलब्ध होते है। उच्च स्तरीय स्वास्थ्य सेवाएँ (Specialised Health Care) : उच्च स्तरीय अर्थात् विशिष्ट स्वास्थ्य सेवाओं के अन्तर्गत रोगी को प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों तथा जिला अस्पतालों से विशिष्ट विशेषज्ञयों द्वारा जाँच, इलाज तथा देखरेख को शामिल किया गया है। इस प्रकार की स्वास्थ्य सेवाओं के अन्तर्गत गम्भीर रोगों की जाँच के लिए एम.आर.आई (MRI), कैट स्कैनिंग (Cat scanning) आदि के लिए बड़े शहरों में सरकारी अस्पतालों में जाँच/इलाज के लिए रोगी को भेजा जाता है। |
स्वास्थ्य के सूचक (Indicators of Health) स्वास्थ्य एक बहुआयामी स्थिति है, जिसमें हर आयाम विभिन्न कारकों से प्रभावित होता है। इसलिए किसी व्यक्ति की स्वस्थता की जाँच के लिए विभिन्न सूचकों जैसे कि- मृत्युदर, रोग तथा बीमारी की दर, अक्षमता की दर, पोषण की स्थिति, स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धि, स्वास्थ्य सुविधाओं तक व्यक्ति पहुँच, वातावरण, सरकार की स्वास्थ्य नीति तथा जीवन की गुणवत्ता इत्यादि का निरीक्षण किया जाता है। इन विभिन्न सूचकों को ही स्वास्थ्य सूचक कहा जाता है, इन सूचकों के आधार पर किसी देश के नागरिकों के स्वास्थ्य को आंका जाता है। इन्हीं सूचकों का राष्ट्रीय जन स्वास्थ्य सम्बन्धी कार्यक्रमों की योजना बनाने के लिए मार्गदर्शक मानदण्डों के रूप में प्रयोग किया जाता है। |
पोषण एवं स्वास्थ्य (Nutrition and Health) भोजन में उपस्थित विभिन्न पोषक तत्वों का शारीरिक क्रियाओं तथा शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयोग पोषण कहलाता है। तथा व्यक्ति के स्वास्थ्य की वह स्थिति जोकि उसके द्वारा ग्रहण किये गए पोषक तत्वों के फलस्वरूप बनती है, व्यक्ति का पोषण स्तर (nutritional status) कहलाती है। पोषण तथा स्वास्थ्य एक-दूसरे के पूरक है। पोषण तथा स्वास्थ्य के बीच गहरे संबंध का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि- “ सबके लिए स्वास्थ्य” (Health for all) जैसे वैश्विक अभियान में भी उचित पोषण पर विशेष बल दिया गया है। (i) शरीर के विभिन्न अंगों का रख-रखाव, विभिन्न तंतुओं का निर्माण एवं उनकी कार्य करने की क्षमता उचित पोषण पर ही निर्भर करती है। (ii) शरीर की वृद्धि एवं विकास भी काफी हद तक पोषण पर ही निर्भर करता है (iii) किसी भी व्यक्ति का अच्छा स्वास्थ्य उसके पोषण स्तर पर निर्भर करता है। अर्थात् उचित पोषण के कारण ही कोई स्वस्थ व्यक्ति विभिन्न संक्रमणों से बच पाता है, उसके अंदर अपने दैनिक कार्यों को बिना थके करने के लिए पर्याप्त मात्रा में ऊर्जा होती है। (iv) बच्चों तथा किशोरों शारीरिक तथा मानसिक वृद्धि एवं विकास के लिए भी उचित पोषण बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। (v) व्यवस्कों के लिए भी पोषण का बड़ा महत्व है क्योंकि पर्याप्त पोषण के कारण ही कोई व्यवस्क सामाजिक तथा आर्थिक रूप से सक्क्षम होकर एक अच्छा जीवन व्यतीत कर सकता है। हर व्यक्ति की स्वास्थ्य स्थिति उसकी पोषण संबंधी आवश्यकताओं का निर्धारण तय करती है। जैसे कि किसी बीमारी के दौरान विभिन्न पोषक तत्वों की आवश्यकता या तो बढ़ जाती है या फिर घट जाती है। इसलिए यह कहना गलत नहीं हो कि- बीमारी तथा रोग का व्यक्ति के पोषण स्तर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अत: हम कह सकते है कि, उचित पोषण, स्वस्थ एवं विकासशील मानव जीवन का आधार स्तंभ है। |
स्वास्थ्य तथा पोषण के बीच संबंध पर्याप्त पोषण मानव स्वास्थ्य का एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटक है। उचित शारीरिक भार बनाए रखने के अतिरिक्त यह उच्च रक्तचाप तथा कोलेस्ट्रोल इत्यादि को नियंत्रित करता है। इसके अतिरिक्त उचित पोषण व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के असंचारी रोगों जैसे कि- मधुमेह, हृदय रोग, विभिन्न प्रकार के कैंसर जैसी घातक बीमारियों से भी बचाने में सहायता करता है। |
पोषक तत्व (Nutrients) : पोषक तत्वों को उन पदार्थों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो शरीर की विभिन्न क्रियाओं के लिए तथा वृद्धि एवं विकास के लिए जरूरी पोषण प्रदान करते है। दूसरे शब्दों कहे तो, पोषक तत्व भोजन के वह घटक होते है जो शरीर को सुचारू रूप से कार्यरत बनाए रखने के लिए जरूरी पोषण प्रदान करते है। कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, विभिन्न प्रकार खनिज तथा विटामिन पोषक तत्वों के उदाहरण है। भोजन में पचास से अधिक तत्व पाएँ जाते है। |
पोषक तत्वों का वर्गीकरण (Classification of Nutrients) शरीर को भोजन में उपस्थित पोषक तत्वों से ही पोषण मिलता है। इन पोषक तत्वों की शरीर को अलग-अलग मात्रा में आवश्यकता होती है। यह आवश्यकता काफी हद तक व्यक्ति की कार्यशीलता पर निर्भर करती है। अलग-अलग खाद्य-पदार्थों में पोषक तत्वों की मात्रा भी अलग होती है। इन पोषक तत्वों को उचित मात्रा में ग्रहण करके ही कोई व्यक्ति अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त कर सकता है। अतः उचित स्वास्थ्य के लिए भोजन में उचित मात्रा में सभी पोषक तत्वों का होना व इनके बारे में पूर्ण जानकारी का होना भी अति आवश्यक हो जाता है। |
विभिन्न प्रकार के पोषक तत्वों को मुख्य रूप से निम्नलिखित दो वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है- पोषक का वर्गीकरण (i) बृहत् पोषक तत्व = (प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट तथा वसा) (ii) सूक्ष्म पोषक तत्व = (खनिज तथा विटामिन) अच्छे स्वास्थ्य के लिए दोनों ही प्रकार के पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। शरीर में दोनों ही प्रकार के पोषक तत्वों का अपना-अपना महत्वपूर्ण कार्य होता है। |
विभिन्न वृहत् पोषक तत्त्वों के कार्य एवं उनके स्रोतों (Functions and Sources of Some Eajor Macro Nutrients) 1. कार्बोहाइड्रेट्स (Carbohydrates) : शरीर को विभिन्न कार्यों के लिए ऊर्जा प्रदान करने वाले सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व कार्बोहाइड्रेट्स/कार्बोज ही हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो कार्बोहाइड्रेट्स हमारे शरीर में ईंधन की तरह कार्य करते है। स्रोत (Sources) : कार्बोहाइड्रेट्स अनाज, रसीले फल, गन्ना, चकुन्दर, अनानास, गाजर, आलू, शलगम, मक्का, गेहूँ तथा चावल इत्यादि में पाए जाते हैं। 2. प्रोटीन (Protein) : (i) प्रोटीन शरीर में रक्त, रक्त में हीमोग्लोबिन, मांसपेशियों, नाखूनों, त्वचा, बालों व आंतरिक अंगों के निर्माण के लिए उत्तरदायी होता है, (ii) प्रोटीन नए ऊतकों का निर्माण तथा टूटे हुए ऊतकों की मरम्मत करता है, (iii) प्रोटीन शरीर में जल तथा अम्लों के संतुलन को नियमित करता है, (iv) प्रोटीन ऑक्सीजन व पोषक तत्त्वों को कोशिकाओं तक ले जाता है तथा एंटी बॉडीज उत्पन्न करता है। इसी कारण प्रोटीन को बॉडी बिल्डिंग पोषक तत्व भी कहा जाता है। स्रोत (Sources) : दूध, दूध से बनी वस्तुएँ, माँस, मछली, अण्डा, सोयाबीन, सुखे मेवे, दालों, मक्की ज्वार इत्यादि। 3. वसा (Fats) : (i) वसा शरीर के तापमान को नियमित तथा कोमल अंगों को सुरक्षा प्रदान करती है, (ii) वसा हारमोन्स के उत्पादन में भी सहायता करती है, (iii) यह त्वचा को खुरदरा होने से बचाती है तथा गर्मी व सर्दी के बाहरी प्रभाव से भी शरीर की रक्षा करती है, (iv) वसा की सही मात्रा शरीर की सुंदरता को भी बनाए रखती है। स्रोत (Sources) : मछली, चर्बी, अण्डे की जर्दी, घी, मक्खन, मलाई, दूध और दूध से बने पदार्थ, विभिन्न प्रकार के तेल और सुखे मेवे। 4. जल (Water) : (i) जल पोषक तत्त्वों को शरीर की कोशिकाओं तक ले जाने में सहायता करता है, (ii) यह अपशिष्ट पदार्थों के शरीर से निष्कासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, (iii) यह शरीर के तापमान को नियंत्रित करता है, (iv) यह शरीर की आंतरिक रासायनिक क्रियाओं के लिए भी अनिवार्य होता है, (v) यह शरीर के उपापचय हेतु अत्याधिक आवश्यक होता है। |
II. सूक्ष्म (माइक्रो) पोषक तत्त्व (Micro Nutrients) सूक्ष्म पोषक तत्त्व वह पोषक तत्त्व होते हैं जिनकी आवश्यकता बहुत कम मात्रा में पड़ती है परंतु यह शरीर के सामान्य रूप से काम करने के लिए अत्यंत आवश्यक होते हैं। इन पोषक तत्त्वों का प्रमुख कार्य शरीर में विभिन्न रासायनिक प्रक्रियाओं तथा शरीर के सुचारु रूप से कार्य करने में सहायता प्रदान करना है। विभिन्न प्रकार के खजिन तथा विटामिन सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के उदाहरण हैं। |
विभिन्न सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के कार्य एवं उनके स्रोतों (Functions and Sources of Some Major Micro Nutrients) सूक्ष्म (माइक्रो) पोषक तत्त्व 1. कैल्शियम (Calcium) : कैल्शियम दांतों व हड्डियों का निर्माण करता है व उन्हें मजबूती प्रदान करता है। कैल्शियम का कार्टिले में जमाव अस्थियों को विकसित व ठोस बनाता है। यह रक्त का थक्का जमाने (blood clotting) में सहायता प्रदान करता है। यह हृद की गति को नियंत्रित करता है। तंत्रिका तंत्र की क्रियाएँ कैल्शियम द्वारा ही नियंत्रित होती है। दूध तथा दूध से बने पदार्थ, हरी पत्तेदार सब्जियाँ, अण्डे तथा अनाज कैल्शियम के मुख्य स्रोत हैं। 2. मैग्नीशियम (Magnesium) : यह शरीर की कोशिकाओं के रख-रखाव तथा टूट-फूट की मरम्मत का कार्य करता है। यह साबुत अनाज, ब्राउन राईस, मीट तथा फलियों में पाया जाता है। 3. फॉस्फोरस (Phosphorus) : यह अस्थियों तथा दांतों के निर्माण के लिए उत्तरदायी होता है, इसके अतिरिक्त यह मांसपेशियों तथा तंत्रिका-तंत्र की क्रियाओं को भी सामान्य बनाए रखता है। यह मछली, दूध, चावल तथा अण्डे इत्यादि में पाया जाता है। 4. सोडियम (Sodium) : यह कोशिकाओं के द्रव्यों में संतुलन बनाए रखने तथा मांसपेशीय क्रियाओं में सहायक होता है। आयोडाइज्ड नमक इसका मुख्य स्रोत है। 5. पोटैशियम (Potassium) : यह भी कोशिकाओं के द्रव्यों में संतुलन बनाए रखने के लिए उत्तरदायी होता है। इसके अतिरिक्त यह स्नायु तंत्र को स्वस्थ तथा सक्रिय रखता है। यह केला, हरी पत्तेदार सब्जियाँ, खट्टे फलों तथा टमाटर इत्यादि में पाया जाता है। 6. लोहा (Iron) : शरीर के लिए लोहा कम मात्रा में पाए जाने वाले खनिज तत्त्वों में से सबसे महत्वपूर्ण है। शरीर में मौजूद सम्पूर्ण लोहे का लगभग 75-80% अंश हीमोग्लोबिन में पाया जाता है। बाकी अंश अस्थि मज्जा (bone marrow), यकृत (liver), गुर्दों (kidneys) तथा लोहे का कुछ अंश रक्त के तरल भाग (blood plasma) और कोशिकाओं के एन्जाइम में भी होता है। यह यकृत, मीट, अंडे, सूखे मेवों, पालक, केले व हरी पत्तेदार सब्जियों आदि में पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। शरीर में लोहे की कमी से रक्तक्षीणता (Anaemia) नामक रोग हो जाता है। 7. आयोडीन (Iodine) : यह खनिज थॉयरोक्सिन नामक हॉरमोन का उत्पादन करता है जो थॉइराइड ग्रन्थि (thyroid gland) के सुचारु रूप से काम करने के लिए अत्यंत आवश्यक है। यह उचित वृद्धि व विकास के लिए भी महत्वपूर्ण होता है। आयोडीन के अभाव के कारण घेंघा रोग तथा मानसिक दुर्बलता हो सकती है। यह आयोडीन युक्त नमक, मछली व समुद्री भोजन में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है। 8. विटामिन-ए (Vitamin – A ) : विटामिन-ए स्वस्थ नेत्र दृष्टि बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक होता है। यह खून में लाल रक्त कोशिकाओं का निर्माण करता है। शरीर में हार्मोन्स का संतुलन बनाए रखता है। विटामिन-ए कॉड लिवर ऑयल, यकृत, अंडे, दूध तथा दूध से बने उत्पादों, पीले फलों तथा सब्जियों में पाया जाता है। 9. विटामिन-डी (Vitamin – D) : विटामिन-डी शरीर के फास्फोरस तथा कैल्शियम के साथ मिलकर दांतों व हड्डियों का निर्माण करता है तथा उन्हें मजबूती भी प्रदान करता है। इसलिए इसे कैल्सीफाइंग विटामिन भी कहते हैं। विटामिन-डी का मुख्य कार्य शारीरिक वृद्धि व विकास में सहायता करना है। यह विटामिन सूर्य की किरणों, दूध, मक्खन तथा मछली के तेल में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। 10. विटामिन-ई (Vitamin – E) : यह विटामिन रक्त के जमाव के लिए अनिवार्य होता है। हरी पत्तेदार सब्जियाँ, दालें यकृत, अंडा तथा साबुत अनाज इसके मुख्य स्रोत हैं। 11. विटामिन के (Vitamin – K) : यह विटामिन रक्तस्राव में तथा घावों से अत्याधिक रक्त के बहने में बचाव करता है। टमाटर, पालक, बंदगोभी, सोयाबीन, मछली, फूलगोभी, गेहूँ, अंडे तथा मीट इसके मुख्य स्रोत हैं। 12. विटामिन-सी (Vitamin – C) : विटामिन-सी शरीर के विकास एवं वृद्धि के लिए बहुत उपयोगी है। विटामिन-सी दांतों को स्वस्थ रखने आवश्यक है। विटामिन-सी व्यक्ति को रोगों से लड़ने की शक्ति देता है। यह विटामिन खट्टे फलों (नींबू, आँवला), अनानास, अमरूद, बेर, टमाटर, हरी मिर्ची तथा सेब में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। |
पोषक तत्वों की आवश्यकता को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Requirements of Nutrients) प्रत्येक व्यक्ति की पौष्टिक आवश्यकताएँ विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है। जैसे कि- आयु (Age) : विभिन्न पौष्टिक तत्वों की आवश्यकता व्यक्ति की आयु पर निर्भर करती है। जैसे कि- बच्चों को प्रोटीन, विटामिन, खनिज, लवण, ऊर्जा आदि की आवश्यकता प्रति किलोग्राम शरीर भार के हिसाब से वयस्कों से कहीं अधिक होती है, क्योंकि वयस्कों की अपेक्षा बच्चों में अधिक शरीर निर्माणक कार्य होते हैं, जिससे उनकी पौष्टिक आवश्यकताएँ बढ़ जाती है। लिंग (Gender) : महिलाओं एवं पुरूषों की पोषण संबंधी आवश्यकता अलग-अलग होती है जैसे कि पुरुषों की कैलोरी की आवश्यकता महिलाओं से अधिक होती है जबकि महिलाओं की लौहा तत्व की आवश्यकता पुरुषों से अधिक होती है। इसी प्रकार महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान कैल्शियम तथा विटामिन-डी की आवश्यकता बढ़ा जाती है। शारीरिक दशा (Physiological State) : वृद्धि एवं विकास की अवस्था के अनुरूप विभिन्न पोषक तत्वों की आवश्यकता घटती या बढ़ती रहती है। इसके अतिरिक्त किसी रोग की स्थिति में भी पोषक तत्वों की आवश्यकता बदलती रहती है। शारीरिक क्रियाकलाप का स्तर (Level of Physical Activity) : व्यक्ति के शारीरिक क्रियाकलापों का स्तर भी पोषण संबंधी आवश्यकताओं को प्रभावित करता है जैसे कि- एक दिहाड़ी मजूदर को एक ऑफिस जाने वाले वयस्क की अपेक्षा अधिक कैलोरी तथा वसा की आवश्यकता होगी। |
अच्छे स्वास्थ्य के लाभ (Benefits of Good Health) (i) अच्छे स्वास्थ्य वाले लोग प्रायः अधिक प्रसन्नचित्त होते हैं और दूसरों से अधिक कार्य कर सकते हैं। (ii) स्वस्थ माता-पिता अपने बच्चों की ज्यादा अच्छी देखभाल कर पाते हैं, (iii) स्वस्थ बच्चे प्राय: प्रसन्नचित्त रहते हैं तथा पढ़ाई में बेहतर प्रदर्शन देते हैं। (iv) स्वस्थ व्यक्ति अधिक रचनाशील (creative) होते है (v) स्वस्थ व्यक्ति समुदायिक गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग ले सकता है। |
अच्छे पोषण के लाभ (Benefits of Good Nutrition) (i) शरीर का आदर्श भार बनाए रखता है। (ii) पेशी की सुदृढ़ता बनाए रखता है। (iii) अशक्तता/असामर्थता या अपगंता के जोखिम को कम करता है। (iv) अच्छे पोषण के फलस्वरूप व्यक्ति की रोग-प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है। (v) शारीरिक और मानसिक तनाव से निपटने में सहायक है। (vi) व्यक्ति की संपूर्ण उत्पादकता को बेहतर बनाता है। अतः यह स्पष्ट है कि यदि व्यक्ति भूख औरप कुपोषण का शिकर है तो उसका स्वास्थ्य अच्छा नहीं हो सकता और वह समाज के लिए उत्पादक, मिलनसार एवं सहयोगी/उपयोगी सदस्य नहीं बन सकता। |
बच्चों की शिक्षा पर अच्छी पोषाणात्मक स्थिति के लाभ (1) मस्तिष्क के विकास पर सकारात्मक प्रभाव : अच्छे पोषण के कारण बच्चों के संज्ञानात्मक विकास पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इससे उनकी स्मरण शक्ति, एकाग्रता तथा ध्यान देने की क्षमता में वृद्धि होती है। (2) स्वास्थ्य की सामान्य स्थिति पर सकारात्मक प्रभाव : अच्छे पोषण के कारण बच्चों के स्वास्थ्य की सामान्य स्थिति पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बेहतर पोषण स्तर के कारण बच्चे अपने पर्यावरण के साथ सक्रिय रूप से पारस्परिक क्रियाएँ कर पाते है, जिसके कारण उनके विद्यालय में अनुपस्थिति में कमी आती है, तथा वह विभिन्न विषयों में बेहतर प्रदर्शन दे पाते है। इससे बच्चों द्वारा विद्यालय या पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने की दर में भी कमी आती है। (3) दृष्टि पर सकारात्मक प्रभाव : अच्छे पोषण स्तर के कारण बच्चों की दृष्टि क्षमता में सुधार होता है जिसके कारण दृष्टिहीनता जैसी समस्याओं की संभावना में कमी आती है। |
कुपोषण क्या है? (What is Malnutrition) कुपोषण को उस स्थिति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसमें शरीर को सुचारू रूप से कार्य करने के लिए पर्याप्त पोषक तत्व प्राप्त नहीं होते। दूसरे शब्दों में कहे तो- कुपोषण, सामान्य पोषण में किसी भी प्रकार की त्रुटि को कहते है। कुपोषण की स्थिति तब उत्पन्न होती है जब लंबे समय तक किसी व्यक्ति के आहार में किसी विशेष पोषक तत्व की आवश्यकता से अधिक कमी या अधिकता हो। पोषक तत्वों के असंतुलन के कारण भी यह समस्या उत्पन्न हो सकती है। कई बार रोगजनित वातावरण भी कुपोषण की स्थिति उत्पन्न करता है। गलत भोजन या गलत खाद्य पदार्थों का चयन, कुपोषण के मुख्य कारण है। |
कुपोषण के प्रकार (Types of Malnutrition) (a) अत्यधिक पोषण (Over Nutrition) : जब व्यक्ति शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक निश्चित मात्रा में पोषक तत्वों से अधिक मात्रा अपने भोजन से प्राप्त करता है तो वह अत्यधिक पोषण से ग्रस्त होता है। अत्यधिक पोषण को सरल भाषा में मोटापा कहा जाता है और यह किसी एक या एक से अधिक पोषक तत्वों की अधिकता अथवा आहार की अधिकता से हो सकता है। (b) अपर्याप्त पोषण (Inadequate Nutrition) : जब व्यक्ति अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक निश्चित मात्रा में पोषक तत्वों से कम मात्रा अपने भोजन से प्राप्त करता है तो वह अपर्याप्त पोषण से ग्रस्त होता है। अपर्याप्त पोषण के परिणामस्वरूप व्यक्ति का वृद्धि और विकास अवरूद्ध हो जाता है और उसमें कई प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं। (c) असंतुलित पोषण (Unbalanced Nutrition) : जब व्यक्ति की शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निश्चित मात्रा में पोषक तत्वों के होने के स्थान पर पोषक तत्वों की मात्रा असंतुलित होती है तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति का पोषण असंतुलित पोषण कहलाता है। असंतुलित पोषण एक या एक से अधिक पोषक तत्वों की अधिकता अथवा कमी के कारण पाया जाता है तथा शरीर के लिए हानिकारक होता है। |
पोषणात्मक स्वस्थता को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Nutritional Well-being) विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार निम्न चार कारक पोषक स्वास्थता के लिए अति महत्वपूर्ण हैं- पौष्टिक श्रेष्ठता को प्रभावित करने वाले कारक 1) खाद्य एवं पोषण सुरक्षा 2) सबसे लिए उत्तम स्वास्थ्य 3) कमजोर वर्ग की देखभाल 4) स्वच्छ वातावरण |
पौष्टिक श्रेष्ठता को प्रभावित करने वाले कारक (1) खाद्य एवं पोषण सुरक्षा (Food and Nutrient Security) : प्रत्येक देश की सरकार का यह मूल कर्त्तव्य है कि वह अपने प्रत्येक नागरिक को खाद्य सुरक्षा प्रदान करें, ताकि प्रत्येक नागरिक एक स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकें। खाद्य एवं पोषण सुरक्षा का अर्थ है- देश के सभी नागरिकों, नागरिकों को उनकी शारीरिक आवश्यकता के अनुरूप पोषणयुक्त भोजन उपलब्ध कराना, फिर चाहे वह किसी भी आयु वर्ग, जाति, धर्म, समुदाय या आर्थिक स्तर के हों। (2) सबसे लिए उत्तम स्वास्थ्य (Good Health for All) : अच्छे स्वास्थ्य का तात्पर्य, रोगों से सुरक्षा तथा रोग की स्थिति में अच्छे उपचार से है। किसी भी संक्रामक रोग की स्थिति में विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है, क्योंकि संक्रमण के कारण शरीर में पोषण स्तर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण व्यक्ति के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अतः यह जरूरी है कि हर नागरिक को उचित स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान की जाए क्योंकि, उत्तम स्वास्थ्य हर नागरिक का मूल अधिकार है। अतिसार, श्वसन संक्रमण, खसरा, मलेरिया तथा टी.बी. कुछ ऐसे संक्रामक रोग है जिनके कारण भारत में हर साल कई बच्चों की मृत्यु हो जाती है। कमजोर वर्ग की देखभाल (3) कमजोर वर्ग की देखभाल (Care for Vulnerable) : इसमें कोई दो मत नहीं है कि, हर मनुष्य को स्नेह, मधुरता एवं देखभाल की आवश्यकता होती है। हालांकि जीवन की कई अवस्थाएँ ऐसी होती है जिनका यदि ठीक से ध्यान न रखा जाए तो वह वृद्धि एवं विकास के लिए बहुत गंभीर समस्याएँ उत्पन्न कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, आपने अक्सर देखा होगा कि निम्न आय वर्ग के बच्चों में कोई-न-कोई पोषण संबंधी समस्या बनी रहती है जिसका उनके स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इसलिए निम्न आय के बच्चों के उचित वृद्धि एवं विकास के लिए विशेष पोषणयुक्त आहार की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार शैशवावस्था के दौरान शिशुओं को अत्यन्त आत्मीय देखभाल की आवश्यकता होती है। समयानुसार टीकाकरण, स्तनपान एवं स्वच्छ वातावरण से उन्हें बहुत से संक्रामक रोगों जैसे कि अतिसार, हैजा, टी.बी., पोलिया इत्यादि से बचाया जा सकता है। इसी प्रकार गर्भावस्था, धात्री अवस्था तथा वृद्धावस्था की विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति व्यक्ति को शारीरिक एवं मानसिक रोगों से बचाव में सहायता करती है। (4) सुरक्षित वातावरण (Safe Environment) : सुरक्षित वातावरण का तात्पर्य वातावरण के उन सभी पक्षों की स्वच्छता/सुरक्षा से है जो व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। हर व्यक्ति का उत्तम पोषण व देखभाल स्वच्छ वातावरण में ही सम्भव हो सकता है। खाद्य पदार्थों की उत्पादकता, संग्रहण, स्थानांतरण एवं वितरण में स्वच्छता, सड़कों, नालियों, सार्वजनिक स्थानों की स्वच्छता, सार्वजनिक अस्पतालों, सामुदायिक केन्द्रों, विद्यालयों की स्वच्छता सुनिश्चित होने से ही अतिसार, मलेरिया, हैजा, हैपेटाइटिस तथा टी.बी. जैसी जानलेवा बीमारियों से बचाव हो सकता है। अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि, स्वच्छता से ही स्वस्थता सम्भव हैं। |
पोषण संबंधी समस्याएँ तथा उनके दुष्प्रभाव (Nutritional Problems and Their Consequences) किसी भी देश के नागरिकों का पोषण स्तर नागरिकों के स्वास्थ्य अर्थात् उचित वजन एवं कद से आंका जा सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के आंकड़े बताते है कि भारत में स्त्रियों का औसत कद 5 फुट जबकि पुरुषों का औसत कद 5 फुट 5 इंच है। हालांकि यह विश्व के अन्य देश के आदर्श मानकों से काफी कम है। आज भी भारत में कई गाँवों, कस्बो यहाँ तक कि शहरों में भी गर्भवती महिलाओं के वजन में कमी पाई गई है जिसके कारण वह कमजोर बच्चों को जन्म देती हैं। जन्म के समय की लम्बाई का व्यस्कवस्था की लम्बाई से सीधा संबंध है। भारत के बहुत से क्षेत्रों में तीन वर्ष तक के बहुत से बच्चे अल्पपोषण के कारण कम वजन के व कम लम्बाई के होते हैं। कुपोषण के कारण गर्भवती स्त्रियों, बच्चों एवं किशोरियों में कई अभाव जनित रोग जैसे कि- अनीमिया (लौह तत्त्वों की कमी), रतौन्धी (विटामिन-ए की कमी), घेंघा रोग (आयोडीन की कमी) इत्यादि के लक्षण आम पाए जाते हैं। भारत में कई पोषण संबंधी समस्याएँ पाई जाती है, जिनमें से कुछ प्रमुख पोषण संबंधी समस्याओं का विवरण निम्नलिखित हैं- |
1. अल्पपोषण (Undernutrition) अल्पपोषण का अर्थ है, आयु तथा शारीरिक अवस्था के अनुरूप आवश्यकता से कम मात्रा में भोजन अथवा विभिन्न पोषक तत्त्व ग्रहण करना। अल्पपोषण, कुपोषण का ही एक रूप है तथा यह एक सामान्य पोषण संबंधी समस्या है यह समस्या मुख्य रूप से गर्भावती स्त्रियों एवं छोटे बच्चों में पाई जाती है। गर्भावस्था के दौरान अल्पपोषण कम वजन वाले शिशुओं के जन्म का प्रमुख कारण है। विभिन्न स्रोत कार्य यह दर्शाते है कि भारत में एक वर्ष के दौरान पैदा होने वाले कुल बच्चों में से लगभग एक तिहाई बच्चे कम शारीरिक भार (2500 ग्राम से भी कम)। इसका तत्काल प्रभाव कम वजन के रूप में दिखता है। यह समस्या मुख्य रूप से निम्न आय वर्ग, अशिक्षित वर्ग, मजदूर औरतों, बच्चे एवं किशोर वर्ग में अधिकतर पाई जाती है। लौह तत्वों के कमी के कारण एनिमिया, विटामिन ए की कमी के कारण रतौधी तथा आयोडीन के कमी के कारण गलगण्ड जैसे रोग अल्पपोषण के कारण होने वाले कुछ प्रमुख तथा सामान्य रोग है। |
अल्पपोषण के कारण व्यक्ति के स्वास्थ्य पर निम्न नकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं- (i) कम शारीरिक भार (ii) बच्चों के संज्ञानात्मक विकास पर नकारात्मक प्रभाव (iii) रोग प्रतिरोधक क्षमता में अत्याधिक कमी (iv) अत्याधिक अल्पपोषण की समस्या को भूखमरी भी कहा जाता है इस स्थिति में शारीरिक भार अत्याधिक कम हो जाता है, हड्डियों तथा माँसपेशियों में कमजोरी आती है, ऊर्जा स्तर में कमी हर समय थकान महसूस करना तथा विभिन्न प्रकार की पाचन एवं त्वचा संबंधी समस्याओं का होना आम बात है। (v) अल्पपोषण के कारण विभिन्न प्रकार की अक्षमता भी हो सकती है जैसे भी विटामिन-ए की कमी के कारण अंधापन। (vi) आयोडीन की कमी के कारण भी शरीर के स्वास्थ्य एवं विकास पर बहुत ही नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, यह समस्या मुख्य रूप बच्चों तथा गर्भावती स्त्रियों में पाई जाती है। |
आयोडीन की कमी के कारण निम्न समस्याएँ हो सकती है। (i) छोटे बच्चों में गलगण्ड की समस्या तथा गर्भवती स्त्रियों में गर्भपात की समस्या। (ii) छोटे बच्चों में बेहरपान, मानसिक असंतुलन तथा बौनेपन की समस्या। (iii) संपूर्ण शारीरिक स्वास्थ्य पर गहरा नकारात्मक प्रभाव। (iv) शिशुओं तथा छोटे बच्चों के क्रियात्मक एवं संज्ञानात्मक विकास पर गहरा नकारात्मक प्रभाव जिसके कारण वह पढ़ाई में अच्छा प्रदर्शन नहीं दे पाते। (v) बच्चों के शारीरिक क्रियाकलापों के दर में कमी आती है। (vi) लौह तत्वों की कमी के कारण गर्भवती स्त्री में गर्भ में पल रहे भ्रूण के विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है इसके अतिरिक्त गर्भवती स्त्रियों के बीमार होने की दर तथा मृत्यु दर में वृद्धि होने की संभावना रहती है। (vii) बच्चो के आहार में प्रोटीन की कमी के कारण क्वाशिओरकर नामक रोग हो जाता है। (viii) पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों को यदि लम्बे समय तक अल्प मात्रा में ही भोजन मिले तो वे ऊर्जा एवं प्रोटीन की अत्यधिक कमी के कारण सूखा रोग के शिकार हो जाते है। |
अत्याधिक पोषण (Over Nutrition) अत्याधिक भी कुपोषण का ही रूप है जोकि पोषक तत्वों के अत्याधिक सेवन के कारण उत्पन्न होता है। अत्याधिक पोषण के कारण शरीर में वसा का जमाव बढ़ जाता है जिसके कारण स्वास्थ्य पर कई नकारात्मक प्रभाव पड़ते है, अतः अत्याधिक पोषण भी अल्पपोषण की तरह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है, अत्याधिक पोषण के कारण कई गंभीर स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती है। कई बार लोग अत्याधिक पोषण के बावजूद भी विभिन्न प्रकार की पोषण संबंधी समस्याओं से ग्रस्त हो जाते है। अत्याधिक पोषण के कारण सबसे अधिक उत्पन्न होने वाली समस्या मोटापा है जिसके कारण विभिन्न प्रकार के रोग जैसे कि- मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदयघात, यकृत संबंधी रोग तथा बांझपन/नपुसंकता की समस्या उत्पन्न हो सकती है। हमारे देश में आज हम लोग कुपोषण की दोहरी मार (अल्पपोषण तथा अत्याधिक पोषण) झेल रहे है। |
निम्न वर्गों को कुपोषण (अल्प अथवा अत्याधिक) से ग्रस्त होने की संभावना सबसे अधिक होती हैं- (i) शिशु (ii) पूर्व-स्कूलगामी बच्चे (iii) गर्भवती तथा स्तनपान करने वाली स्त्रियाँ (iv) वृद्ध व्यक्ति, विशेष रूप से वह जो किसी बीमारी के कारण अस्पताल में भर्ती हो (v) निम्न आय वर्ग के लोग या वहा व्यक्ति जो सामाजिक रूप से सबसे कटा हुआ हो (vi) किसी प्रकार की भोजन संबंधी समस्या से ग्रस्त व्यक्ति (vii) किसी रोग से उबरता हुआ व्यक्ति तथा (viii) समृद्ध परिवारों के सदस्य। |
पोषण तथा संक्रमण (Nutrition and Infection) अच्छे पोषण तथा स्वास्थ्य के लिए केवल पर्याप्त मात्रा में भोजन ग्रहण करना ही काफी नहीं हैं बल्कि इसके लिए उचित वातावरण का होना भी बहुत जरूरी है। किसी भी व्यक्ति की पोषणात्मक स्थिति भोजन तथा पोषक तत्वों की पर्याप्त उपलब्धता के साथ-साथ स्वच्छ वातावरण पर भी निर्भर करती है। पोषण तथा संक्रमण काफी हद तक एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। यदि किसी व्यक्ति का पोषण स्तर अच्छा हो तो इस बात की पूरी संभावना है, कि वह विभिन्न प्रकार के रोगों एवं संक्रमणों से बचा रहेगा, जबकि जिस व्यक्ति का पोषण स्तर अच्छा नहीं होगा वह अक्सर विभिन्न प्रकार के रोगों तथा संक्रमणों से ग्रस्त रहेगा। कुपोषण > के कारण > रोगों से लड़ने की क्षमता कमी आती है > जिसके कारण > संक्रमणों की संभावना बढ़ जाती है आमतौर पर संक्रमण के दौरान शरीर से विभिन्न पोषक तत्वों का अत्याधिक ह्रास होता है, जैसे कि- अतिसार, दस्त के दौरान शरीर से बड़ी मात्रा में जल तथा अन्य पोषक तत्वों का ह्रास होता है। इस कारण से संक्रमण के दौरान पोषक तत्वों की आवश्यकता बढ़ जाती है। यदि इस दौरान पोषक तत्वों को आवश्यकता के अनुरूप पर्याप्त मात्रा में न लिया जाए तो इससे संक्रमित व्यक्ति के पोषण स्तर पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पोषण स्तर में कमी के कारण व्यक्ति, विशेषकर वह बच्चे तथा वृद्धजन जो किसी प्रकार के कुपोषण से ग्रस्त हो, अन्य संक्रमणों और रोगों का शिकार भी हो सकते है। |
पोषण तत्वों की कमी के कारण होने वाले रोग : छोटे बच्चों को प्रोटीन की कमी PCM (Protein Calorie Malnutrition) के कारण क्वाशियोरकर और सूखा रोग होने की संभावना सबसे ज्यादा रहती है। (i) सूखा रोग (Marasmus) : आहार में सभी पोषक तत्वों की कमी कारण होने वाला यह रोग अधिकतर 15 महीन तक के बच्चों में पाया जाता है। इसका मुख्य कारण बच्चे का माता का दूध समय से पहले छुड़ा देना और ऊपरी आहार से मिलने वाले प्रोटीन की मात्रा और पौष्टिकता में कमी होना। (ii) क्वाशियोरकर (Kwashiorkor) : यदि बच्चे के आहार में कैलोरीज की कमी हो जाए, तो शरीर में उपस्थित प्रोटीन ऊर्जा देने लगती है और धीर-धीरे बच्चा क्वाशियोरकर रोग से पीड़ित हो जाता है। यह रोग 1-5 वर्ष तक के बच्चों में अधिक पाया जाता है। |
कुपोषण के प्रभाव (Effects of Malnutrition) (i) कुपोषण के कारण व्यक्ति की उत्पादकता में कमी आती है। (ii) जिन कुपोषित बच्चों में विटामिन की कमी होती है, या उन्हें पर्याप्त मात्रा में माँ का दूध प्राप्त नहीं होता, ऐसे बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता में काफी कमी आती है। (iii) कुपोषण के कारण बच्चों के संज्ञानात्मक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण बच्चों की समझने तथा याद रखने की क्षमता में कमी आती है। ऐसी स्थिति में कुपोषित बच्चे के शिक्षा संबंधी प्रदर्शन में गिरावट आती है। (iv) इस बात की पूरी संभावना होती है कि एक कुपोषत बच्चा, कुपोषित वयस्क के रूप में परिवर्तित होगा। कुपोषण के कारण वयस्क की उत्पादकता में कमी आती है, जिसके कारण उसे तथा उसके परिवार को वित्तीय समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। (v) कुपोषण एक प्रकार का अंतर- पीढ़िए चक्र (intergenerational) हैं। जैसे कि- एक कुपोषित स्त्री कम शारीरिक भार वाले शिशु को जन्म देगी, यह शिशु भविष्य में एक कुपोषित बच्ची और फिर कुपोषित किशोरी के रूप में बड़ी होगी और फिर एक कुपोषित गर्भवती स्त्री के रूप में…, अर्थात् कुपोषण का यह चक्र चलता ही रहेगा। |
स्वास्थ्य विज्ञान और स्वच्छता (Hygiene and Sanitation) भारत सहित लगभग सभी विकासशील देशों में आहार-जनित रोग, जैसे कि- अतिसार तथा पेचिश, छोटे बच्चों में पाएँ जाने वाले प्रमुख रोग है। इन रोगों के कारण संक्रमित बच्चों के शरीर में निर्जलीकरण हो जाता है तथा गंभीर स्थिति में मृत्यु तक हो सकती है। आमतौर पर सभी संक्रमित तथा संचारी रोग (infectious and communicable diseases) गंदी पर्यावरणीय स्थितियों, व्यक्तिगत अस्वच्छता तथा गलत ढंग से भोजन को पकाने तथा परोसने के कारण होते है। ऐसे रोगों से बचाव के लिए निम्नलिखित आंतरिक (नितांत आवश्यक) तथा बाह्य/पर्यावरण कारकों पर ध्यान देना जरूरी है- विभिन्न रोगों से संबंधित आंतरिक कारक (Intrinsic Factors Related to Various Diseases) (i) आयु, जेंडर, आनुवांशिकता (ii) खून का वर्ग (blood group) तथा उसमें उपस्थिति विभिन्न पदार्थों का स्तर जैसे कोलेस्ट्रॉल इत्यादि (iii) शरीर के विभिन्न अंगों तथा तंत्रों की कार्य क्षमता (iv) सामाजिक तथा आर्थिक कारक, जैसे कि- व्यवसाय, वैवाहिक स्थिति, आवास इत्यादि। (v) पोषण की स्थिति, आहार की उपलब्धता, शारीरिक सक्रियता का स्तर, रहन-सहन की आदतें, नशीले पदार्थों का सेवन। |
विभिन्न रोगों से संबंधित बाह्य/पर्यावरण कारक (Extrinsic/Environmental Factors Related to Various Diseases) a) भौतिक पर्यावरण (Physical Environment) : वायु, जल, मृदा, जलवायु, भौगोलिक परिस्थिति, तापमान, प्रकाश तथा विकिरण इत्यादि। b) जैविक पर्यावरण (Biological Environment) : मनुष्य तथा अन्य सभी सजीव जीव जैसे कि- जानवर, कीट, पादप, विषाणु, सूक्ष्म जीव। इनमें से कुछ रोगजनक एजेंटों के रूप में भी कार्य करते हैं, जैसे कि- कुछ संक्रमण के भंडार तथा कुछ संक्रमण के वाहक के रूप में काम करते हैं। c) मनोवैज्ञानिक कारक (Psychosocial Factors) : भावात्मक कुशलता, सांस्कृतिक मूल्य, रीति-रिवाज, आदतें, आस्थाएँ, मनोवृत्तियाँ, धर्म, जीवन शैली, स्वास्थ्य सेवाएँ आदि। |
स्वच्छता (Hygiene) स्वच्छता का तात्पर्य उन सभी स्थितियों एवं क्रियाकलापों से है जिनका मुख्य उद्देश्य सफाई के माध्यम से विभिन्न प्रकार की बीमारियों से बचना तथा उचित स्वास्थ्य बनाए रखना होता है। दूसरे शब्दों में कहे तो, स्वच्छता का तात्पर्य उन परिस्थितियों एवं क्रियाकलापों से है जो बेहतर स्वास्थ को बनाए रखने में तथा विभिन्न प्रकार के संचारी रोगों को फैलने से बचाते हैं। स्वच्छता तथा स्वास्थ्य का आपस में गहरा संबंध है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का स्वास्थ उसकी जीवनशैली, आहार, सामाजिक-आर्थिक परिवेश के साथ-साथ उसकी स्वच्छता संबंधी आदतों पर भी निर्भर करता है। |
स्वच्छता को दो वर्गों में बाँटा गया है- 1. व्यक्तिगत स्वच्छता (Personal Hygiene ) : व्यक्तिगत स्वच्छता का तात्पर्य शारीरिक स्वच्छता अर्थात् व्यक्तिगत रूप से साफ-सुथरा रहने से है। व्यक्तिगत स्वच्छता बनाए रखने से व्यक्ति विभिन्न प्रकार के रोगों से बचा रह सकता है, जैसे कि- कोरोना वायरस जैसी घातक बीमारी से बचाव के लिए बार-बार हाथ धोना तथा चेहरे पर मॉस्क लगाना काफी करगार सिद्ध होता है। व्यक्तिगत स्वच्छता बनाए रखने के कुछ उपाय निम्नलिखित हैं- (i) नियमित रूप से हाथ धोना, विशेषकर खाना बनाने एवं खाने से पहले तथा शौचालय का प्रयोग करने के बाद। (ii) दूसरे व्यक्तियों के सामाने बहुत नजदीक से खाँसने या छींकने से बचना चाहिए या फिर साँसते या छींकते समय मुँह को हथेली या रूमाल से ढक लेना चाहिए। (iii) प्रतिदिन स्नान करना चाहिए, नाखून को नियमित रूप से काटते रहना चाहिए, रोज सुबह-शाम ब्रश करना चाहिए तथा गंदे कपड़ों को तुरंत बदल लेना चाहिए। (iv) दिन में दो से तीन बार आँखों को साफ पानी से धो लेना चाहिए। (v) जननांगों की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए, विशेषकर मासिक धर्म (menstruation) के दौरान। (vi) कान एवं नाक को नियमित रूप से साफ करते रहना चाहिए। 2. पर्यावरणीय स्वच्छता (Environmental Hygiene) : व्यक्तिगत के स्वच्छता का तात्पर्य उन क्रियाकलापों से जिनके द्वारा ऐसी वातावरणीय परिस्थितियों को नियंत्रित एवं सुधारने का प्रयास किया जाता है, जो मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। जैसे कि- पेय जल की गुणवत्ता को नियंत्रित एवं बनाए रखना, मानव तथा पशुओं के अपशिष्ट का उचित निष्पादन करना, भोजन को संदूषित होने से बचाना, साफ-सुथरी आवासीय सुविधाएँ उपलब्ध करना। स्वास्थ पर्यावरण पर विशेष ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है ताकि ऐसी परिस्थितियों का निर्माण किया जा सके जो स्वास्थ को बढ़ावा देने वाली हो तथा बीमारियों से रोकथाम करने वाली हो। इनमें पेय जल सुरक्षा एवं स्वच्छता सबसे महत्वपूर्ण है, क्योंकि बहुत से रोग जैसे कि- अतिसार, पेचिश, त्वचा तथा नेत्र संक्रमण इत्यादि, संदूषित पेय जल के कारण उत्पन्न होने वाले रोग है। वातावरणीय स्वच्छता i) खाद्य स्वच्छता ii) रोगाणुओं का नियंत्रण iii) सुरक्षित जल की आपूर्ति iv) मानव अपशिष्ट का प्रबंधन v) तरल अपशिष्ट का प्रबंधन vi) स्वच्छता की आदत vii) कूड़े का आवास की viii) सुविधा प्रबंधन |
खाद्य स्वच्छता (Food Hygiene) हम सब जानते हैं कि मनुष्य के स्वस्थ जीवनयापन के लिए संतुलित तथा पौष्टिक भोजन का सेवन करना जरूरी है। हर पारिवार अपनी आय का अधिकतम भाग भोजन पर व्यय करता है। परंतु यदि किसी भी कारण से भोजन संदूषित हो जाये तो पूरा परिवार रोग ग्रस्त हो सकता है। और यहाँ तक कि कई बार यह जानलेवा भी सिद्ध हो सकता है। इसलिए अच्छे स्वास्थ के लिए साफ वातावरण के साथ-साथ खाद्य स्वच्छता भो जरूरी है। खाद्य स्वच्छता का अर्थ हैं- “खाद्य पदार्थों को उत्पादन, भंडारण, स्थानांतरण तथा घर पर हस्तन के दौरान सुरक्षित रखना ताकि यह संदूषित न हो।” कई भोजन संबंधों बीमारियाँ, दूषित भोजन अर्थात् वह भोजन जिसमें रोग पैदा करने वाले जीवाणु हो के उपभोग के कारण होती है। निम्नलिखित कारकों से भोजन संबंधी बीमारियाँ होने की संभावना रहती हैं- a) भोजन में उपस्थित रोगजनित जीवाणुओं के कारण या भोजन के विषाक्त हो जाने के कारण। b) भोजन रोग पैदा करने वाले जीवाणु की अधिक संख्या के कारण। c) संदूषित भोजन को अधिक मात्रा में खा लेने के कारण। अतिसार, पेचिश, हेपेटाइटिस, कॉलरा, टाइफाईड जैसे रोग संदूषित भोजन के कारण होने वाले रोग हैं। |
यदि घर में निम्न प्रकार की स्वच्छता का ध्यान न रखा जाए तो भोजन दूषित हो जाता है। (i) व्यक्तिगत स्वच्छता : व्यक्तिगत स्वच्छता अर्थात् भोजन पकाने या परोसने वाले की व्यक्तिगत साफ-सफाई स्वच्छता। कई बार भोजन उसे बनाने या परोसने वाले व्यक्ति की अस्वच्छता के कारण भी संदुषित हो जाता है। जैसे कि- गंदे हाथों से भोजन पकाने या पसोने के कारण, कोई संक्रमित रोग होने के दौरान भोजन पकाने या परोसने के कारण या फिर किसी प्रकार की त्वचा संबंधी रोग की स्थिति में भोजन पकाने या परोसने के कारण भी भोजन संदुषित हो जाता है। (ii) भण्डारण के दौरान : कई बार भोजन गलत ढंग से किए गए भण्डारण के कारण भी दुषित हो जाता है। जैसे कि- यदि मीट को पकाने से पहले फ्रिज की अपेक्षा बाहर छोड़ दिया जाए तो उसमें जीवाणुओं के पनपने की संभावना बढ़ जाती है। उसी प्रकार यदि भोज्य पदार्थों को किसी अस्वच्छ स्थान पर संग्रहित किया जाए तो भी उनके संदुषित होने की संभावना बढ़ जाती है। (iii) रसोईघर की स्वच्छता : भोजन, रसोईघर अथवा खाना पकाने की जगह के अस्वच्छ होने के कारण दूषित हो सकता है। जैसे कि- यदि रसोईघर की दीवारों या दरवाजे में दरारे हो तो इन्हीं दरारों से कॉकरोच, कीड़े-मकोड़े भोजन से संपर्क में आने पर उसे दूषित कर सकते है। उसी प्रकार यदि रसोईघर में कूड़े तथा पानी की निकासी का उचित प्रबंधन न हो तो ऐसी स्थिति में वहाँ रोग पैदा करने वाले जीवाणु पनपने लगते है जिसके कारण भी भोजन संदुषित हो सकता है। (iv) पकाते समय स्वच्छता : अक्सर भोजन पकाने के दौरान असावधानी बरतने के कारण भी संदुषित हो सकता है। जैसे कि- भोजन पक से पहले सब्जियों को अच्छी तरह धो लेना चाहिए, दाल-चावल को साफ कर लेना चाहिए अन्यथा इनमें उपस्थित अशुद्धियाँ भोजन संदुषित कर सकती हैं। पीतल या तांबे के बरतनों में खट्टे पदार्थ पकाने के कारण वह विषाक्त हो सकते है। (v) परोसते समय स्वच्छता : भोजन परोसने वाले व्यक्ति की असावधानी के कारण भी भोजन संदुषित हो जाता है। जैसे कि- खाना समय उसके ऊपर छींक देने से या गंदे हाथों से परोसने के कारण भी भोजन संदुषित हो जाता है। |
व्यक्तिगत अस्वच्छता या भोजन बनाने अथवा खाने के खराब तरीके जिनके कारण भोजन संदूषित हो जाता है- a) दूषित / संक्रमित/असुरक्षित खाद्य पदार्थों का प्रयोग, जैसे कि जल, मसाले, तेल इत्यादि। b) भंडारण के अनुचित तरीके जिससे रोगजनक सूक्ष्मजीव पनपते हैं। c) कीट और कृमि पर नियंत्रण न कर पाना। d) संदूषित उपकरणों जैसे कि- बर्तनों, प्लेटों, चमचों, गिलासों का प्रयोग। e) भोजन का अच्छी तरह से पका न होना। f) खाद्य पदार्थों का ऐसे तापमान पर भंडारण जो सूक्ष्मजीवों की वृद्धि के लिए अनुकूल हो (4 से 600 से.)। g) अनुचित ढंग से ठंडा करना। h) पके हुए/बचे हुए भोजन को अनुचित/अपर्याप्त रूप से गर्म करना, पुनः गरम करना। i) परस्पर संदूषण। j) भोजन को बिना ढके खुला छोड़ देना। k) भोजन की सजावट के लिए संदूषित पदार्थों का प्रयोग। l) भोजन पकाने वाले लोगों द्वारा स्वास्थ्य विज्ञानों तथा स्वच्छता का ध्यान न रखना जैसे मैले कपड़े प्रयोग में लाना, हाथ न धोना, गंदे नाखून आदि। |
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