NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 4 संसाधन प्रबंधन (Management of Resources) Notes In Hindi

NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 4 संसाधन प्रबंधन (Management of Resources) Notes In Hindi

TextbookNCERT
classClass – 11th
SubjectPhysical Education
ChapterChapter – 3
Chapter Nameसंसाधन प्रबंधन
CategoryClass 11th Home Science Notes in hindi
Medium Hindi
SourceLast Doubt

NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 4 संसाधन प्रबंधन (Management of Resources) Notes In Hindi इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप निम्न को समझ पाएँगे:- संसाधन की संकल्पना,विभिन्न प्रकार के संसाधन,संसाधनों का वर्गीकरण (मानवीय तथा गैर-मानवीय संसाधन), संसाधनों की विशेषताएँ, संसाधनों के प्रबंधन की आवश्यकता और प्रबंधन प्रक्रिया का विश्लेषण। इत्यादि के बारे में पढ़ेंगे।

NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 4 संसाधन प्रबंधन (Management of Resources) Notes In Hindi

Chapter – 4

संसाधन प्रबंधन

Notes

भूमिका (Introduction)

हम सब प्रतिदिन विभिन्न प्रकार के क्रियाकलाप करते है जैसे कि- साफ-सफाई करना, भोजन पकाना, पढ़ना-लिखना, घूमना-फिरना, खेलना-कूदना इत्यादि। यदि हम ध्यान से सोचे तो हम पाएँगे कि किसी भी प्रकार के क्रियाकलाप के लिए हमें निम्न में से किसी एक या अधिक की आवश्यकता पड़ती है-

(i) ऊर्जा
(i) धन
(i) समय
(i) ज्ञान
(i) रुचि/अभिप्रेरणा
(i) कौशल/ क्षमताएँ / रुझान
(i) जल, वायु
(i) निर्मित भवन
(i) भौतिकी सामग्री, जैसे कि- कार, उपकरण, पेन, बर्तन इत्यादि।

वास्तव में, उपरोक्त सभी (धन, ऊर्जा, ज्ञान इत्यादि) संसाधन है, जो हमें हमारे लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता प्रदान करते है।

“संसाधन वे वस्तुएँ, उपकरण तथा व्यक्तिगत शक्तियाँ व रुचियाँ हैं, जो लक्ष्य या लक्ष्यों तक पहुँचने के लिए मध्यस्थ या वाहक का कार्य करते हैं।” अथवा संसाधन वह होते हैं जिनका हम किसी क्रियाकलाप को करने में उपयोग करते हैं। ये हमें लक्ष्य प्राप्ति में सहायता करते हैं। सरल शब्दों में कहें तो, संसाधन वह होते है जिनका हम किसी क्रियाकलाप के दौरान उपयोग करते है ताकि अपने लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकें। किसी भी विशेष क्रियाकलाप के लिए किसी एक संसाधन की आवश्यकता अन्य संसाधनों की अपेक्षा अधिक हो सकती है।

उदाहरण के लिए, यदि हमें किसी पार्टी का आयोजन करना हो तो, संभवतः धन एक मात्र ऐसा संसाधन है जिसकी आवश्यकता हमें पार्टी के लिए जरूरी अन्य संसाधनों से अधिक हो सकती है। पिछले अध्याय में हम अपनी क्षमताओं के विषय में पढ़ चुके है, हमारी क्षमताएँ भी हमारे लिए, एक प्रकार का बहुमूल्य संसाधन ही है।

ऐसी कोई भी वस्तु जिसका हम कभी भी प्रयोग नहीं करते उसे हम संसाधन की संज्ञा नहीं दे सकते हैं, भले ही वह किसी अन्य व्यक्ति के लिए उपयोगी संसाधन ही क्यों न हों, जैसे कि- एक हेयर ड्रायर, हो सकता है कि यह हमारे यहाँ लम्बे समय तक बिना उपयोग के बेकार ही पड़ा रहे। अतः यह हमारे लिए संसाधन नहीं हो सकता परंतु यह किसी ब्यूटी पार्लर चलाने वाले व्यक्ति के लिए एक बहुत ही उपयोगी संसाधन हो सकता है। अतः हम कह सकते हैं कि ऐसी कोई भी वस्तु, सेवा अथवा क्षमता जिससे हम किसी लक्ष्य की प्राप्ति कर सके संसाधन
कहलाती है।

संसाधनों के प्रकार (Types of Resources)

संसाधन निम्न प्रकार के होते है-

1. मानवीय संसाधन (Human Resources)
2. गैर-मानवीय अथवा भौतिक संसाधन (Non-Human or Material Resources)

विभिन्न प्रकार के संसाधन (Different Types of Resources)

1. मानवीय संसाधन (Human Resources)

(i) ज्ञान (Knowledge) : किसी भी कार्य को करने के लिए तकनीक या का ज्ञान।
(ii) अभिवृत्ति (Attitude) : कार्य को करने में सकारात्मक अथवा नकारात्मक दृष्टि ।
(iii) कौशल एवं क्षमता (Skills and Ability) : किसी भी कार्य को करने का कौशल अथवा सहजता।
(iv) समय (Time) : कार्य को करने में सकारात्मक अथवा नकारात्मक दृष्टि ।
(v) ऊर्जा/शक्ति (Energy) : दौड़ने, चलने, खाना पकाने, सफाई करने के लिए ऊर्जा।

2. गैर-मानवीय संसाधन (Non- Human Resources)

(i) धन (Money) : विभिन्न प्रकार की आय, बचत आदि के रूप में प्राप्त धन।
(ii) भौतिक वस्तुएँ (Physical Goods) : कार, टेलीविजन, मिक्सी, फर्नीचर आदि।

संसाधनों का वर्गीकरण (Classfication of Resources)

संसाधनों को निम्न प्रकार से भी वर्गीकृत किया जा सकता है-

1. मानवीय तथा गैर-मानवीय संसाधन
2. व्यक्तिगत तथा साझे संसाधन
3. प्राकृतिक तथा सामुदायिक संसाधन

1.1 मानवीय संसाधन (Human Resources)

वे सभी संसाधन जो प्रत्येक मनुष्य की अपनी क्षमताओं के अनुसार होते हैं व प्रत्येक मनुष्य के निहित गुण होते हैं, मानवीय संसाधन कहलाते हैं।

मानवीय संसाधन निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-

(i) ज्ञान (Knowledge) : ज्ञान एक अमूल्य संसाधन है। व्यक्ति को किसी भी कार्य को सफलतापूर्वक करने के लिए उस विषय का ज्ञान होना आवश्यक है। व्यक्ति को अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए आवश्यक वस्तुओं, उपकरणों तथा उनमें लगने वाली व्यक्तिगत शक्तियों की जानकारी होना आवश्यक है। जानकारी या ज्ञान होने पर ही लक्ष्य को संपूर्ण रूप से प्राप्त करने की योजना बनाई जा सकती है। ज्ञान द्वारा ही विभिन्न विकल्पों का उचित चुनाव किया जा सकता है।

(ii) अभिप्रेरण/रुचियाँ (Motivation/Interests) : हम अपनी रुचियों को संसाधन नहीं मानते परन्तु यथार्थ में रुचियाँ बहुत महत्वपूर्ण संसाधन हैं। रुचियाँ हमारी क्षमताओं को प्रभावित करती हैं। विद्यार्थी की यदि किसी विषय में पढ़ने की रुचि हो तो वह प्रतिकूल परिस्थिति में भी उस विषय में आसानी से उत्तीर्ण हो जाता है। गृहिणी यदि भोजन पकाने में रुचि रखती हो तो वह कम समय में अच्छा व पौष्टिक भोजन तैयार कर लेगी। रुचि न होने पर ज्ञान, समय, शक्ति व क्षमता के होते हुए भी व्यक्ति अपने लक्ष्य को अक्सर प्राप्त नहीं कर पाता।

(iii) कौशल/क्षमताएँ/रूझान (Skills/Abilities/Aptitude) : परिवार के सभी सदस्यों के कौशल, क्षमताएँ एवं रूझान भी परिवार का एक महत्वपूर्ण संसाधन है। प्रत्येक व्यक्ति अपने ज्ञान, शक्ति तथा समय का अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किस प्रकार प्रयोग करता है, वह उसकी क्षमताओं व कौशल पर ही निर्भर करता है। योग्यताएँ कार्य सम्पन्न करने के साथ-साथ आय बढ़ाने में भी सहायक होती हैं।

जैसे- सिलाई, बुनाई का काम स्वयं करके एक गृहिणी दर्जी को दिए जाने वाले पैसे बचा सकती है। अपनी कलात्मकता का उपयोग करके वह घर पर ही सजावट का सामान तैयार करके कम खर्च में भी अपने घर को आकर्षक बना सकती है। घर का कोई सदस्य यदि बिजली के उपकरण ठीक कर सके तो वह ऐसा करके धन की बचत कर सकता है।

(iv) समय (Time) : समय एक अमूल्य संसाधन है जो सभी के पास बराबर मात्रा में उपलब्ध होता है परंतु हर व्यक्ति उसे अपने तरीके से व्यतीत करता है। समय एक अत्यंत सीमित संसाधन है जो एक बार खर्च हो जाने पर दोबारा कभी नहीं मिलता। प्रत्येक व्यक्ति के पास अपने दैनिक कार्यों को पूरा करने के लिए चौबीस घंटे होते हैं। ज्ञान व शक्ति के अतिरिक्त लक्ष्य प्राप्ति के लिए आवश्यक समय भी होना चाहिए। व्यक्ति को उचित व्यवस्थापन द्वारा समय का सदुपयोग करना चाहिए जिससे सीमित समय में लक्ष्यों की प्राप्ति हो सके। समय पर तीन आयामों की दृष्टि से विचार किया जाता है-

कार्य का समय, कार्य न करने का समय, विश्राम और खाली समय। व्यक्ति को अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए समय को इन तीन आयामों के बीच संतुलित करना आना चाहिए। जब व्यक्ति इन तीनों आयामों को संतुलित करना सीख जाता है तो इससे उसको शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने, भावात्मक रूप से दृढ़ रहने और बौद्धिक रूप से सतर्क रहने में सहायता मिलती है।

(v) ऊर्जा (Energy) : लक्ष्य प्राप्ति के लिए केवल ज्ञान का ही होना पर्याप्त नहीं है। विभिन्न कार्यों को पूरा करने के लिए शारीरिक तथा मानसिक श्रम भी करना पड़ता है, जिसके लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। आराम करते समय भी हमारे शरीर को अपनी आंतरिक क्रियाओं को सुचारु रूप से चलाने के लिए ऊर्जा चाहिए होती है। ऊर्जा एक महत्वपूर्ण संसाधन है जिसके अभाव में हम ज्ञान का पूर्ण रूप से लाभ नहीं उठा सकते। ऊर्जा के उचित उपयोग के लिए यह आवश्यक है कि दैनिक कार्यों को उचित व्यवस्था द्वारा कुशलता से किया जाए जिससे थकावट न हो तथा ऊर्जा भी व्यर्थ न जाए।

1.2 गैर-मानवीय संसाधन (Non- Human Resources)

भौतिक संसाधन वे साधन होते हैं, जिन्हें मानवीय संसाधनों की सहायता से क्रय किया जा सकता है। लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए भौतिक संसाधन, मानवीय संसाधनों की सहायता करते हैं।

कुछ प्रमुख भौतिक संसाधन निम्नलिखित हैं-

(a) धन (Money) : धन का भौतिक संसाधनों में सबसे ऊँचा स्थान है। भौतिक वस्तुओं के क्रय के लिए धन आवश्यक है। धन सभी के पास एक समान मात्रा में नहीं है। धन एक सीमित, बहुउपयोगी संसाधन है। धन के अभाव में वस्तुओं का क्रय कठिन हो जाता है, इसलिए धन को समझदारी व मित्वययिता से ही खर्च करना चाहिए। वेतन, बोनस, ब्याज आदि धन के ही विभिन्न रूप हैं।

(b) भौतिक वस्तुएँ (Material Goods) : भौतिक वस्तुएँ उस सारे सामान को कहा जाता है जिनका उपयोग लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है। ये सामान कुर्सी, मेज, कार, बर्तन, वस्त्र, टी.वी., फ्रिज आदि कुछ भी हो सकता है। ये वस्तुएँ धन द्वारा ही खरीदी जाती हैं। इन संसाधनों की आवश्यकता विभिन्न प्रकार के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए होती है।

2. व्यक्तिगत तथा साझे संसाधन (Individual and Shared Resources) : संसाधन चाहे जो भी हो अर्थात् मानवीय या गैर-मानवीय, वह निम्न में से किसी एक प्रकार के होते है-

(a) व्यक्तिगत संसाधन (Individual Resources) : व्यक्तिगत संसाधनों का तात्पर्य उन संसाधनों से हैं जो किसी व्यक्ति के पास केवल उसके निजी उपयोग के लिए ही उपलब्ध होते हैं। ये मानवीय या गैर-मानवीय संसाधन हो सकते हैं। किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत कौशल, ज्ञान, समय, स्कूल बैग, उसके कपड़े व्यक्तिगत संसाधनों के कुछ उदाहरण हैं।

(b) साझे संसाधन (Shared Resources) : साझे संसाधनों का तात्पर्य उन संसाधनों से हैं जो किसी समुदाय, समाज, प्रदेश, देश अथवा विश्व के सभी सदस्यों के लिए उपलब्ध होते हैं। साझे संसाधन प्राकृतिक अथवा समुदाय आधारित हो सकते हैं।

3. प्राकृतिक तथा सामुदायिक संसाधन (Natural and Community Resources)

(a) प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources) : प्राकृतिक संसाधनों का तात्पर्य उन संसाधनों से है जो हमें प्राकृतिक द्वारा प्रदान किए जाते है तथा सभी के उपयोग के लिए उपलब्ध होते है, जैसे कि- जल, पहाड़, वायु इत्यादि। पर्यावरण की सुरक्षा हेतु इनका विवेकपूर्ण उपयोग जरूरी है।

(b) सामुदायिक संसाधन (Community Resources) : सामुदायिक संसाधन, समुदाय अथवा सरकार द्वारा प्रदान की गई वे सुविधाएँ होती हैं जो सभी नागरिकों के प्रयोग के लिए उपलब्ध कराई जाती हैं। सामुदायिक सुविधाएँ मानवीय तथा गैर-मानवीय हो सकती है तथा इनके लिए अलग से धन व्यय नहीं करना पड़ता।

जैसे- सरकारी अस्पताल के डॉक्टर, स्कूल, बाजार, पानी, बिजली, सड़कें, सरकारी या सामुदायिक अस्पताल, पुस्तकालय, पार्क आदि। विभिन्न प्रकार की सामुदायिक सुविधाएँ किसी भी परिवार या व्यक्ति के लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध हो सकती हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को इन संसाधनों के इष्टतम उपयोग का प्रयास करना चाहिए तथा इनके रख-रखाव के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना चाहिए।

संसाधनों की विशेषताएँ (Characteristics of Resources)

हालांकि सभी संसाधनों को विभिन्न रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है परंतु सभी संसाधनों में कुछ-न-कुछ समानताएँ भी होती है। सभी प्रकार के संसाधनों की कुछ सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित है-

1. उपयोगिता (Utility) : किसी संसाधन की उपयोगिता उसकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है। संसाधन की उपयोगिता से तात्पर्य है कि कोई संसाधन किसी लक्ष्य प्राप्ति में कितना महत्वपूर्ण अथवा उपयोगी है। हालांकि संसाधन की उपयोगिता लक्ष्य और परिस्थिति पर निर्भर करती है।

जैसे कि- किसी शहरी व्यक्ति के लिए गाय का गोबर किसी भी प्रकार से उपयोगी नहीं माना जाता है, जबकि वहीं गोवर ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे लोगों के लिए ईंधन और खाद बनाने के लिए उपयोगी होता है अर्थात् हर संसाधन की अपनी एक उपयोगिता होती है। सरल शब्दों में कहे तो- सभी साधन किसी न किसी विशेष परिस्थिति में उपयोगी होते हैं।

वे कभी किसी विशेष परिस्थिति में महत्वपूर्ण साधन सिद्ध हो सकते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि जो साधन किसी एक व्यक्ति के लिए उपयोगी हैं, वे दूसरे व्यक्ति या परिस्थिति में उपयोगी न हो। परन्तु हर साधन का कभी न कभी, कोई न कोई उपयोग अवश्य होता है। कोई भी साधन किसी व्यक्ति या परिवार के लिए कितना उपयोगी है यह उस परिवार की आवश्यकताओं, समस्याओं तथा ज्ञान पर निर्भर करता है।

2. सुलभता/उपलब्धता (Accessibility/Availibility) : बहुत से संसाधन ऐसे है जो अन्य संसाधनों की अपेक्षा काफी आसानी से उपलब्ध होते हैं, जैसे कि- सूर्य की रोशनी ईंधन की अपेक्षा आसानी से उपलब्ध होती है। वहीं कुछ लोगों को दूसरों की तुलना में संसाधन अधिक सरलता से उपलब्ध होते हैं,

जैसे कि- अमीर लोगों को गरीबों की अपेक्षा संसाधन आसानी से उपलब्ध होते है। इसके अतिरिक्त संसाधनों की उपलब्धता समय के अनुरूप भी बदलती रहती हैं जैसे कि- बारिश के मौसम में जल सूखे के मौसम की अपेक्षा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होता है। अतः हम कह सकते हैं कि संसाधनों की सुलभता/उपलब्धता प्रत्येक व्यक्ति के अनुसार, समय और परिस्थिति के अनुरूप बदलती रहती है। उदाहरण के लिए, प्रत्येक परिवार में धन रूपी संसाधन अलग-अलग मात्रा में उपलब्ध होता है, अर्थात् किसी के पास आवश्यकता से अधिक, किसी के पास आवश्यकता के अनुरूप तो किसी के पास आवश्यकता से कम।

3. विनिमयता (Interchangeability) : लगभग सभी संसाधनों के विकल्प (alternate) होते हैं। यदि किसी परिस्थिति में एक संसाधन कम मात्रा में उपलब्ध हो या बिल्कुल भी उपलब्ध नहीं होता तो उसके स्थान पर दूसरे संसाधन को प्रतिस्थापित किया जा सकता है।

जैसे कि- यदि किसी बच्चे की स्कूल बस छूट जाती है तो उसे उपलब्ध दूसरे संसाधनों जैसे कि- कार, स्कूटर, साइकिल या ऑटो इत्यादि द्वारा स्कूल तक छोड़ा जा सकता है। अतः एक ही कार्य कई संसाधनों द्वारा भी किया जा सकता है। उसी प्रकार यदि किसी विद्यार्थी को पाठ समझ न आए तो उसे पढ़ाई में सहायता की आवश्यकता होती है। वह (i) अतिरिक्त पाठ्य सामग्री खरीदेगा (ii) ट्यूशन पढ़ने की व्यवस्था करेगा (iii) अपने किसी साथी की सहायता लेगा। प्रथम दोनों विकल्पों के लिए उसे अतिरिक्त धन व्यय करना पड़ेगा तथा तीसरे विकल्प के लिए उसे अपने साथी के ज्ञान व कुशलता का उपयोग करना होगा।

4. प्रबंधनीय (Manageable) : सभी संसाधनों का प्रबंधन योग्य होना भी उनकी प्रमुख विशेषता है। लगभग सभी संसाधन सीमित होते हैं इसलिए उनका उचित एवं प्रभावी प्रबंधन करना जरूरी होता है ताकि उनको इष्टतम तरीके से उपयोग किया जा सके। सभी संसाधनों का संसाधनों के उपयोग से अधिकतम लाभ प्राप्त हो सकें,

जैसे कि- रोज थोड़े से कपड़े धोने की अपेक्षा यदि तीन-चार दिन बाद एक साथ कपड़े धोएँ जाए तो इससे श्रम, समय, जल तथा साबुन इत्यादि जैसे संसाधनों की बचत की जा सकती है।

संसाधनों का प्रबंधन (Managing Resources)

संसाधनों के प्रबंधन का अर्थ है, उपलब्ध संसाधनों का सर्वोत्तम उपयोग करना। कोई भी संसाधन असीमित नहीं होता अर्थात् सभी संसाधन सीमित मात्रा में उपलब्ध होते है इसलिए विभिन्न लक्ष्यों/उद्देश्यों को शीघ्र और दक्षता से प्राप्त करने के लिए संसाधनों का प्रभावी ढंग से उपयोग करना अर्थात् उनका उचित प्रबंधन करना जरूरी है ताकि संसाधन बर्बाद नहीं जाए।

उदाहरण के लिए, हर व्यक्ति के पास दिन में 24 घण्टे ही उपलब्ध होते है। एक ओर जहाँ कुछ लोग समय सारणी बनाते है और अपने लक्ष्यों/उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हर पल का उचित उपयोग करते है वहीं कुछ लोग बिना किसी प्रबंधन योजना के अपना प्रत्येक समय ऐसे ही व्यर्थ कर देते है।

संसाधनों के प्रबंधन की आवश्यकता (Need to Manage Resources)

हमें सभी संसाधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं होते। ये सभी के पास सीमित मात्रा में ही होते हैं। इसलिए इन्हें व्यर्थ प्रयोग करके गँवाना नहीं चाहिए। संसाधनों को यदि उचित प्रकार से व्यवस्थित किया जाए तो इनके प्रयोग से अधिक-से-अधिक आवश्यकताओं व लक्ष्यों की पूर्ति की जा सकती है। संसाधनों के प्रबंधन की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से होती हैं-

1. सभी साधन सीमित होते हैं : मनुष्य की इच्छाएँ असीम होती हैं जबकि उपलब्ध साधन सीमित होते हैं। जैसे कि दिन में केवल 24 घंटे. निश्चित वेतन तथा सीमित ऊर्जा इत्यादि। ऐसी स्थिति में उपलब्ध साधनों की व्यवस्था करना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। साधनों के उपयोग से पहले उनकी सीमा को ध्यान में रखना चाहिए। यदि एक साधन सीमित है तो उसके विकल्प में दूसरा साधन प्रयुक्त किया जा सकता है।

जैसे कि- यदि आपको अपने जन्मदिन पर पहनने के लिए नया परिधान लेना है और आपके पास सीमित धन है तो आप खुद सिलाई-कढ़ाई करके समय तथा कौशल जैसे कि- साधनों का प्रयोग करके अपने लिए परिधान बना सकती हैं। यदि समय व कौशल कम हों तो अधिक धन व्यय करना पड़ेगा।

2. संसाधनों की दीर्घकालिक उपलब्धता बनी रहे : जैसा कि हम जानते हैं कि- सभी साधन सीमित होते हैं अतः सभी को उनका उपभोग समझदारी से तथा विवेकपूर्ण ढंग से करना चाहिए ताकि संसाधन न केवल वर्तमान पीढ़ी के लिए बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी लम्बे समय तक उपलब्ध रह सकें। उदाहरण के लिए, पेट्रोल, डीजल आदि ऊर्जा के महँगे एवं अनवीकरणीय स्रोत हैं यदि हम केवल इन्हें इसलिए खरीदते एवं उपयोग करते रहे क्योंकि हममें इन्हें क्रय करने क्षमता है, अर्थात् इन्हें व्यर्थ खर्च करते रहे तो आने वाले समय से इनकी उपलब्धता अत्यन्त सीमित हो जाएगी। इसी प्रकार अन्य संसाधन, जैसे कि- धन, ऊर्जा, जल इत्यादि सभी का व्यय सावधानीपूर्वक करने की आवश्यकता होती है ताकि लम्बे समय तक विभिन्न लक्ष्य प्राप्ति में इनका उपयोग किया जा सके।
3. सभी को संसाधन उचित मात्रा में उपलब्ध रहे : मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तथा विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्य व्यक्तियों तथा साधनों की उपलब्धता पर निर्भर रहता है। यदि समाज का एक वर्ग सभी संसाधनों का वहन करके उनका उपयोग करने लगे तो समाज का उपेक्षित वर्ग उन्हें अपनी सेवाओं तथा निष्ठा से वंचित कर देगा। अतः कुछ साधन जैसे कि- साफ जल, ऊर्जा, विद्युत आदि का प्रयोग सभी को सावधानी से करना चाहिए ताकि वे सभी को आवश्यकतानुसार प्राप्त हो सके।
4. पर्यावरणीय क्षति को कम किया जा सके : आधुनिक युग का मानव अपने प्रत्येक क्रियाकलाप में तकनीक का अत्यधिक प्रयोग करने लगा है। कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, इंटरनेट, विद्युनीय उपकरणों का असीमित प्रयोग पर्यावरण के सन्तुलन को बिगाड़ता है, जैसे कि- अत्याधिक वर्षा, बाढ़, सूखा तथा भूकम्प इसका मुख्य उदाहरण है। अतः हमें अपने संसाधनों का उपयोग करते समय ध्यान देना चाहिए कि वे वातावरण को कम-से-कम क्षतिग्रस्त करें।
5. जनसंख्या वृद्धि के कारण साधनों में निरन्तर कमी आ रही है : जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि के कारण कई साधन सीमित होते जा रहे हैं तो कई निरंतर घट रहे हैं। इस कारण से भी साधनों को उचित रूप से व्यवस्थित करना और भी आवश्यक हो जाता है।

प्रबंधन की प्रक्रिया (Process of Management)

प्रबंधन/व्यवस्था एक ऐसी प्रक्रिया है जिसकी आवश्यकता सुगम जीवनयापन तथा लक्ष्यों/उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हमेशा बनी रहती है। जैसे कि- एक विद्यार्थी को अच्छे अंक लाने के लिए अपने समय को ऐसे व्यवस्थित करना पड़ता है जिससे कि वह सभी विषयों पर ध्यान दे सके। उसी प्रकार एक गृहिणी को अपने घर का खर्च सीमित आय में चलाने के लिए विभिन्न संसाधनों को व्यवस्थित रूप से प्रयोग करना पड़ता है तो वहीं एक नौकरीपेशा आदमी को अपने दिन को इस प्रकार व्यवस्थित करना पड़ता है कि काम के बाद वह बिना थके अपने परिवार के साथ भी कुछ समय बिता सके।

प्रबंधन का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Management)

‘प्रबंधन वह प्रक्रिया है जिसमें उपलब्ध साधनों का उचित तथा कुशलतापूर्वक प्रयोग करके लक्ष्यों को प्राप्त किया जाता है।’

1. नियोजन यह प्रबंधन किसी भी कार्य को सम्पन्न करने के लिए कई साधनों की आवश्यकता होती है। साधन सीमित होने के कारण, अपने लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु, उनका उचित प्रबंधन किया जाना अनिवार्य है। उचित प्रबंधन/व्यवस्था वर्तमान युग की आवश्यकता है। सुनियोजित प्रबंधन द्वारा वांछित लक्ष्य कम समय और दक्षता द्वारा प्राप्त किए जा सकते है। दूसरे शब्दों में कहें तो, अपने लक्ष्यों को उपलब्ध साधनों के व्यवस्थित प्रयोग द्वारा प्राप्त करना ही प्रबंधन/व्यवस्था कहलाता है।

प्रबंधन की आवश्यकता (Need of Management)

प्रबंधन की आवश्यकता निम्न कारणों से होती है-

(i) उचित प्रबंधन द्वारा ही सभी उपलब्ध संसाधनों की सीमाओं का ज्ञान होता है।
(ii) प्रबंधन करने से अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक लक्ष्य निर्धारित करने में सहायता मिलती है।
(iii) प्रबंधन करने से लक्ष्यों की प्राप्ति को उनके महत्व के अनुसार क्रमबद्ध करने में सहायता मिलती है।
(iv) उचित प्रबंधन द्वारा ही लक्ष्यों को अपेक्षाकृत कम खर्च (शक्ति, समय तथा धन) में प्राप्त किया जा सकता है।
(v) लक्ष्य प्राप्ति की प्रक्रिया में किए गए प्रबंधन का समय-समय पर मूल्यांकन करते रहने से व्यवस्थापन हेतु लिए गए निर्णय के गुण-दोष पता चलते रहते हैं। इससे भविष्य में लिए जाने वाले निर्णय, व्यवस्थापन प्रक्रिया व लक्ष्य प्राप्ति में सहायता मिलती है।
(vi) उचित प्रबंधन परिवार का जीवन स्तर ऊँचा उठाने में सहायक होती हैं जबकि कुप्रबंधन (Mismanagement) परिवार के सदस्यों के विकास में बड़ी बाधा साबित होती है।

प्रबंधन प्रक्रिया के चरण (Steps of Management Process)

  1. नियोजन (Planning) = योजना बनाना
  2. आयोजन (Organising) = संसाधनों को एकत्रित करना
  3. क्रियान्वयन (Implementing) = संसाधनों के उपयोग लाना अर्थात् उपयोग करना
  4. नियंत्रण (Controlling) = संसाधनों के उपयोग का निरीक्षण करना
  5. मूल्यांकन (Evaluation) = सफलताओं तथा असफलताओं को जाँचना

1. नियोजन (Planning)

यह प्रबंधन प्रक्रिया का प्रथम चरण तथा सम्पूर्ण क्रिया का मूल आधार भी है। इस चरण के बिना हम प्रबंधन प्रक्रिया के अन्य चरणों तक नहीं पहुँच सकते।

“वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए भविष्य में किए जाने वाले कार्यों की योजना बनाना नियोजन कहलाता है।”
कूंटूज और ओं डौनेल (Koontz and O Donnel) के अनुसार, “नियोजन एक ज्ञानात्मक प्रक्रिया है जिसमें कार्य करने का रास्ता अपनाना, अपने निर्णयों के कारण, तथ्यों और अनुमानित खर्च पर आधारित करना सम्मिलित है।”

नियोजन/ योजना बनाने के दौरान ध्यान रखने योग्य बातें-

वर्तमान स्थिति क्या है? अर्थात् इस बात को सुनिश्चित करना कि तभी हमारे पास क्या है और भविष्य में हम क्या पाना चाहते है?

कहाँ पहुँचना है? अर्थात् वर्तमान और भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान रखते हुए भावी उद्देश्यों एवं लक्ष्यों का निर्धारण करना।

अंतराल अर्थात् वर्तमान तथा वांछित स्थिति के बीच के अंतर का ज्ञान ताकि इन दोनों के बीच के अंतराल को ध्यान में रखकर योजना बनाई जा सके।

वांछित उद्देश्यों को कैसे प्राप्त कर सकते है? अर्थात् अपने लक्ष्य/उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए क्या करना है और कैसे करना हैं जैसे निर्णय लिए जा सके।

(वर्तमान स्थिति)
1. वर्तमान स्थिति क्या है?

(भावी लक्ष्य)
2. कहाँ पहुँचना है?

3. अंतराल
4. वांछित उद्देश्यों को कैसे प्राप्त कर सकते है?

नियोजन के विभिन्न चरण (Steps in Planning)

(i) योजना बनाते समय सबसे पहले योजना बनाने का कारण अथवा उद्देश्य ध्यान में रखना चाहिए।
(ii) उसके बाद दीर्घकालिक व अल्पकालिक लक्ष्यों को निर्धारित किया जाता है।
(iii) उपलब्ध साधनों को सूचीबद्ध किया जाता है।
(iv) उपलब्ध साधनों को आधार मानकर लक्ष्य प्राप्ति के लिए योजना तैयार की जाती है।
(v) उचित कार्य विधि का चुनाव प्रत्येक साधन के उपयोग के आधार पर किया जाता है।
(vi) साधनों के प्रयोग के पश्चात् जीवन स्तर पर उसका प्रभाव भी आंका जाता है।
(vii) योजनाएँ लोचपूर्ण होनी चाहिए जिससे उनमें स्थितिनुसार परिवर्तन लाया जा सके।

एक उदाहरण द्वारा हम नियोजन की प्रक्रिया को समझने का प्रयास करते हैं

रजनी अपने जन्मदिन पर अपने स्कूल की सभी सखियों को घर पर एक पार्टी देना चाहती है (कारण)। योजना बनाते समय सबसे पहले यह निर्धारण करना होगा कि पार्टी में कितनी सखियों को आमंत्रित करना है (लक्ष्य निर्धारण)। उसके बाद परोसे जाने वाले पकवान, पकवान बाजार से मंगवाना अथवा घर में ही तैयार करना तथा बाजार से लाए जाने वाले सामान आदि के विषयों पर योजना बनाई जाएगी। घर की साफ-सफाई एवं सजावट तथा मेहमानों के मनोरंजन की तैयारी आदि पर भी विचार किया जाएगा। अपनी कल्पना तथा पूर्व अनुभव के आधार पर यह योजना बनाई जाएगी। (योजना तैयार करना) योजना में लचीलापन लाने के लिए आमंत्रित अतिथियों की संख्या से अतिरिक्त अतिथियों के लिए पकवानों की व्यवस्था की जाएगी (लोचपूर्ण योजना)।

एक सफल योजना की निम्न विशेषताएँ होती हैं (Characteristics of Planning)

(i) योजना सरल होनी चाहिए तकि उसे आसानी से कार्यान्वित किया जा सके।
(ii) योजना कार्यशील हो, काल्पनिक नहीं।
(iii) योजना समग्र होनी चाहिए ताकि कार्य में विघ्न न पड़े।
(iv) योजना में परिवार के सदस्यों का पूर्ण सहयोग सम्मिलित होना चाहिए।
(v) योजना में लचीलापन होना चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर उसमें बदलाव किए जा सकें।
(vi) योजना में मूल आवश्यकताओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

नियोजना के लाभ (Benefits of Planning)

(i) योजना द्वारा परिणामों का अनुमान लगाया जा सकता है।
(i) इससे धन, समय तथा श्रम का अपव्यय नहीं होता।
(i) लक्ष्य प्राप्ति की सभी विधियों तथा विकल्पों के लाभ तथा हानियों का अनुमान लगाया जा सकता है।
(i) योजना द्वारा लक्ष्य प्राप्ति का सम्पूर्ण कार्यक्रम नियोजित तथा लक्ष्य तक पहुँचने का रास्ता छोटा हो जाता है।

2. आयोजन (Organising)

यह प्रबंधन प्रक्रिया का एक कठिन चरण है। प्रबंधन प्रक्रिया की सफलता/असफलता काफी हद तक इसी चरण पर निर्भर करती हैं। साधारण शब्दों में आयोजन का अर्थ है ‘साधनों तथा वस्तुओं को ठीक ढंग से व्यवस्थित करना’। इसमें विभिन्न साधनों को व्यवस्थित करने के अतिरिक्त अलग-अलग सदस्यों को कार्य सौंपना तथा साधनों का उचित उपयोग भी सम्मिलित है।

उपलब्ध साधनों के उचित समायोजन द्वारा लक्ष्य तक पहुँचना ही आयोजन का उद्देश्य है। इस चरण में लक्ष्य प्राप्ति के लिए यदि कार्य करने वालों की संख्या अधिक हो तो योजना का महत्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि योजना द्वारा ही कार्य करने वाले सभी व्यक्तियों में आपसी सामंजस्य स्थापित करना होता है। इस चरण में निम्न क्रियाएँ आती हैं-

(i) साधनों को एकत्रित करना (Obtaining Resources) : योजना बनाते समय बनाई गई साधनों की सूची से एकत्रित करना आयोजन का पहला चरण है। जैसे कि- किसी पार्टी के लिए धन, स्थान व उन लोगों की सूची बनाना जो पार्टी के आयोजन में सहयोग देंगे उन्हें सूचीबद्ध करना।

(ii) कार्य का विभाजन (Division of Work) : सभी सम्मिलित व्यक्तियों में उनकी कार्यकुशलता तथा रुचिनुसार कार्य का विभाजन किया जाता है जिससे कार्य उचित रूप से क्रियान्वित हो सके। जैसे कि- यदि घर में कोई पार्टी हो तो पकवान इत्यादि बनाने में माँ की सहायता के लिए ऐसे व्यक्ति का चयन करना जो भोजना बनाने में कुशल हो उसी प्रकार घर की सजावट के लिए परिवार किसी ऐसे सदस्य को सजावट का जिम्मा सौपना जो सजावट का शौक रखता हों।

(ii) साधनों का समुचित उपयोग (Proper Utilization of Resources) : लगभग सभी साधनों के सीमित होने के कारण इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता है कि प्रयोग होने वाले सभी साधनों का समुचित उपयोग हो तथा किसी भी साधन का अपव्यय न हो। लक्ष्य प्राप्ति के लिए किए जाने वाले कार्य का विभाजन कार्यकुशल व्यक्तियों को सौंपने से ही साधनों का समुचित उपयोग लगभग निश्चित हो जाता है। जैसे कि- घर में किसी पार्टी का आयोजन हो तो एक व्यक्ति पूरे आयोजन पर होने वाले खर्च का हिसाब रखेंगा।

3. क्रिर्यान्वयन (Implementing)

नियोजन एवं आयोजन प्रक्रिया के पश्चात् प्रबंधन योजना के क्रियान्वयन का चरण आता है। इसी चरण में योजना पर वास्तविक रूप से अमल होता है। क्रियान्वन का अर्थ- ‘उन क्रियाकलापों को करना जिनकी योजना लक्ष्य प्राप्ति के लिए बनाई गई है, क्रियान्वन कहलाता है।’ दूसरे शब्दों में कहें तो ‘योजना को क्रियाशील बनाना क्रियान्वन कहलाता है।’ आयोजन के पश्चात् सभी साधनों को एकत्रित करके योजना को क्रियाशील किया जाता है। इस चरण में योजना तथा आयोजन को व्यावहारिक रूप देते समय कई समस्याओं व कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ सकता है।

कई बार समस्याओं के प्रभाव से मूल योजना को आवश्यकतानुसार परिवर्तित भी करना पड़ सकता है। अधिकतर व्यवस्थापक योजना बनाते समय विभिन्न समस्याओं तथा विकल्पों को ध्यान में रखकर शुरूआत से ही योजना में लचीलापन रखकर उसे क्रियान्वित करते हैं। ऐसा करने से भविष्य में समस्याओं की स्थिति से प्रभावित होकर उन्हें योजना में अवांछित परिवर्तन नहीं करना पड़ेगा।

जैसे कि- पार्टी के लिए दोस्तों को निमन्त्रण देना, सभी पकवान समय से पहले तैयार करना व समय पर सजावट करना।

4. नियंत्रण (Controlling)

प्रबंधन प्रक्रिया में नियंत्रण एक महत्वपूर्ण चरण है। योजना के क्रियान्वयन के दौरान सबसे महत्वपूर्ण यह रेखना है कि कार्य निर्धारित योजना के अनुसार हो रहा है या नहीं। उचित नियंत्रण की अनुपस्थिति में सम्पूर्ण परिश्रम व्यर्थ जा सकता है। नियंत्र का अर्थ- योजना की विभिन्न प्रक्रियाओं का ध्यानपूर्वक निरीक्षण करना तथा उन्हें नियंत्रित करना ।

क्रियान्वयन करते समय योजना पर पूर्ण रूप से नियंत्रण रखना आवश्यक होता है जिससे लक्ष्य प्राप्ति में सफलता मिले। यदि योजना के पहले किसी चरण में कोई गलती हुई हो तो नियंत्रण प्रक्रिया द्वारा उसे ठीक किया जाता है। उदाहरण के लिए, किसी पार्टी के क्रियान्वयन की प्रक्रिया में मेहमानों की सूची दोबारा चेक करना कि कहीं किसी को निमन्त्रण देना छूट तो नहीं गया अथवा सभी पकवान ठीक से तैयार हुए या नहीं।

नियंत्रण, कार्य निरीक्षण, उचित मार्गदर्शन तथा आवश्यक परिवर्तनों द्वारा किया जाता है-

(a) निरीक्षण (Checking) : योजना का समय-समय पर निरीक्षण करने से योजना के दोष पता चल जाते हैं। जिससे कि समय रहते ही उन्हें सुधारा जा सकता है। इसके अतिरिक्त नियमित निरीक्षण करने से इस बात का ज्ञान रहता है कि सब कुछ तय समयानुसार हो रहा है के नहीं।

(b) उचित मार्गदर्शन (Proper Guidance) : व्यक्तियों को दिए गए कार्यों को करते समय यदि उन्हें कोई परेशानी हो तो मार्गदर्शन द्वारा उनकी यह परेशानी दूर की जा सकती है। ऐसा करने से कार्य करने वाले व्यक्ति का मनोबल बना रहता है। किसी भी व्यक्ति का मार्गदर्शन उसकी कार्यक्षमता तथा व्यक्तिगत गुणों के आधार पर किया जाता है।

(c) समायोजन (Adjustment) : कार्य करते समय नई अथवा आकस्मिक परिस्थितियों के अनुसार समायोजन करके ही लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सकती है। हालांकि यह समायोजन योजना के लचीलेपन पर निर्भर करता है। जैसे कि- यदि किसी ग्रहणी ने शाम के नाश्ते के लिए पकोड़े बनाने की योजना बनाई हो और समय की कमी के चलते वह ऐसा न कर पाए तो वह पकोड़ों के स्थान पर जल्दी-जल्दी सैंडविच बनाकर परोस सकती है, अन्यथा रात का भोजन तैयार करने में देरी हो सकती है।

5. मूल्यांकन (Evaluation)

‘योजना के अनुसार कार्य की पूर्ति तथा लक्ष्यों की प्राप्ति को जांचना ही मूल्यांकन कहलाता है।’

मूल्यांकन प्रबंधन प्रक्रिया का अंतिम तथा अनिवार्य चरण है। योजना के पूर्ण हो जाने के बाद उसका मूल्यांकन करना जरूरी है ताकि जिस कार्य के लिए योजना बनाई गई थी उसकी लक्ष्य प्राप्ति में सफलता या असफलता को आंका जा सके। हालांकि यह जरूरी नहीं कि मूल्यांकन केवल लक्ष्य प्राप्ति के बाद ही किया जाए। यह प्रबंधन प्रक्रिया के प्रत्येक चरण में निर्णय लेने के लिए किया जा सकता है। जैसे कि- पार्टी के दौरान तथा बाद में सोचना तथा जांचना कि योजना के अनुसार पार्टी आयोजित हो पाई या नहीं।

मूल्यांकन दो प्रकार का होता है-

(i) सापेक्ष मूल्यांकन (Relative Evaluation) : जब किसी व्यवस्था का मूल्यांकन पहले भी की गई सफल व्यवस्था से तुलना करके किया जाता है तो उसे सापेक्ष मूल्यांकन कहते हैं। अधिकतर इसी मूल्यांकन का प्रयोग किया जाता है।

(ii) निरपेक्ष मूल्यांकन (Absolute Evaluation) : जब किसी व्यवस्था का मूल्यांकन बिना तुलना के केवल लक्ष्य के आधार पर किया जाता है तो उसे निरपेक्ष मूल्यांकन कहते हैं। इसमें केवल लक्ष्यों की प्राप्ति हुई अथवा नहीं हुई हीं जाना जाता है।

मूल्यांकन के लाभ (Benefits of Evaluation)

(i) इससे निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति में सफलता अथवा असफलता का ज्ञान होता है।
(ii) लक्ष्यों के पूरा होने अथवा पूरा न होने के कारणों का ज्ञान होता है।
(iii) भविष्य में बनाई जाने वाली योजनाओं में सहायता मिलती है।
(iv) उचित मूल्यांकन द्वारा ज्ञात लक्ष्यों की पूर्ति अथवा आपूर्ति से संतुष्टि अथवा असंतुष्टि की प्राप्ति होती हे, जो नई कल्पना व सूझ-बूझ प्रदान करती है।

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