NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 3 भोजन, पोषण, स्वास्थ्य एंव स्वस्थता (Food, Nutrition, Health, and Fitness) Notes In Hindi

NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 3 भोजन, पोषण, स्वास्थ्य एंव स्वस्थता (Food, Nutrition, Health, and Fitness)

TextbookNCERT
classClass – 11th
SubjectPhysical Education
ChapterChapter – 3
Chapter Nameभोजन, पोषण, स्वास्थ्य एंव स्वस्थता
CategoryClass 11th Home Science Notes in hindi
Medium Hindi
SourceLast Doubt

NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 3 भोजन, पोषण, स्वास्थ्य एंव स्वस्थता (Food, Nutrition, Health, and Fitness) Notes In Hindi इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप निम्न को समझ पाएँगे:- भोजन, पोषण, पोषक तत्त्व, स्वास्थ्य तथा स्वस्थता की परिभाषा, स्वास्थ्य को बनाए रखने में भोजन और पोषण की भूमिका, संतुलित आहार तथा आहार तैयार करने और उसे ग्रहण करने में संतुलित आहार की संकल्पना का प्रयोग किया जा सकता है, आहार की निर्धारित मात्रा (आर.डी.ए.) की परिभाषा और आहार संबंधी आवश्यकताओं और आर.डी.ए. के बीच अंतर, भोजन को उपयुक्त वर्गों में वर्गीकृत करने का आधार, किशोरावस्था में भोजन संबंधी आदतों को प्रभावित करने वाले कारक तथा खान-पान संबंधी विकृतियों के कारण, लक्षण और पोषण संबंधी हस्तक्षेप इत्यादि के बारे में पढ़ेंगे।

NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 3 भोजन, पोषण, स्वास्थ्य एंव स्वस्थता (Food, Nutrition, Health, and Fitness) Notes In Hindi

Chapter – 3

भोजन, पोषण, स्वास्थ्य एंव स्वस्थता

Notes

भूमिका ( Introduction)

किशोरावस्था की शुरूआत के साथ ही कई महत्वपूर्ण शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन शुरू हो जाते है। इनमें से शारीरिक परिवर्तन संभवतः सबसे प्रमुख परिवर्तन होता है, जिसकी गति किशोरावस्था के दौरान एकाएक काफी बढ़ जाती है।

किशोरों में होने वाले इस ‘वृद्धि स्फुरण’ (growth spurt) का मुख्य कारण विकास हार्मोनों की गतिविधि होती है जिसके कारण शरीर का प्रत्येक अंग प्रभावित होता हैं। इसी कारण से किशोरावस्था के दौरान पौष्टिक भोजन का महत्व और अधिक बढ़ जाता है।

किशोरावस्था के दौरान तीव्र गति से होने वाले शारीरिक परिवर्तनों को वृद्धि स्फुरण कहते है। बाल्यावस्था की पूरी अवधि के दौरान पोषक तत्त्वों की आवश्यकता बढ़ती रहती है तथा किशोरावस्था के दौरान यह आवश्यकता अपने चरम पर होती है। फिर जैसे-जैसे वयवस्कता की ओर बढ़ता है उसकी पोषण संबंधी आवश्यकताओं में धीरे-धीरे कमी आने लगती है।

एक पुरानी कहावत है कि “जैसा अन्न वैसा तन” अर्थात् आप वैसे ही बनेंगे जैसा आहार लेंगे, किशोरावस्था के दौरान बहुत ही सटीक प्रतीत होती है। हम सब विभिन्न प्रकार का भोजन जैसे कि- दाल, रोटी, चावल, सब्जियाँ, दूध, इत्यादि का सेवन करते हैं। यह सभी भिन्न प्रकार केभोजन हमें स्वस्थ और शारीरिक रूप से चुस्त-दुरूस्त रखने के लिए जरूरी पोषक तत्त्व प्रदान करते हैं। आज के समय में यह जानना बहुत जरूरी है कि, शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने के लिएकिस प्रकार का भोजन करना चाहिए।

भोजन और पोषक तत्त्वों के हमारे स्वास्थ्य पर पड़ने-वाले प्रभाव का विज्ञान “पोषण” कहलाता है।

पोषण और स्वास्थ्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, अर्थात् दोनों काफी हद तक एक-दूसरे पर ही निर्भर करते है। हमारा स्वास्थ्य, काफी हद तक पोषण पर निर्भर करता है और पोषण हमारे द्वारा ग्रहण किए जाने वाले भोजन पर निर्भर करता है। अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि- भोजन, हमारे स्वास्थ्य और पुष्टि को बनाए रखने के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है।

भोजन, पोषण तथा पोषक तत्त्व

1. भोजन (Food) – (वह सभी तरल या ठोस पदार्थ जिन्हें मनुष्य खाता है और अपनी पाचन क्रिया द्वारा अवशोषित करके विभिन्न शारीरिक कार्यों के लिए प्रयोग करता है भोजन कहलाता हैं।)

दूसरे शब्दों में कहें तो- वह सभी ठोस अथवा द्रव पदार्थ जो निगलने, पचाने और अवशोषित होने के पश्चात् शरीर को स्वस्थ्य रखने के पोषक तत्त्व प्रदान करे भोजन कहलाते है। भोजन हमारे जीवन की मूल आवश्यकता है।

भोजन के कार्य (Functions of Food)

(a) शरीर को ऊर्जा प्रदान करना (Provides Energy) :

मनुष्य का शरीर कभी निष्क्रिय नहीं होता। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शरीर में विभिन्न प्रकार की क्रियाएँ निरन्तर होती रहती है। यहाँ तक कि सोते समय भी दिल धड़कता रहता है, सांस चलती रहती है, पाचन क्रिया
होती रहती है। इन सभी क्रियाओं के लिए निरन्तर ऊर्जा की आवश्यकता होती है, और यह ऊर्जा हमें कार्बोज और वसा जैसे पोषक तत्वों के माध्यम से प्राप्त होती है जो हमें भोजन द्वारा ही प्राप्त होते है।

(b) शरीर का निर्माण एवं विकास करना (Helps to Build and Maintain Body) :

भोजन से हमें वह सभी तत्व मिलते हैं जिनसे नए तन्तुओं का निर्माण, टूटे-फूटे तन्तुओं की मरम्मत एवं शारीरिक वृद्धि सम्भव होती है। यह कार्य भोजन से प्राप्त प्रोटीन, खनिज लवणों तथा जल्
के माध्यम से होता है।

शरीर के विभिन्न अंगों की कोशिकाएँ प्रोटीन से ही निर्मित होती हैं। लोहा, रक्त निर्माण में सहायक होता है कैल्शियम, फास्फोरस जैसे खनिज लवण हमारे दाँतों और अस्थि-पंजर के ऊतकों के निर्माण का काम करते हैं। शरीर में इन पोषक तत्व की कमी होने पर शरीर का ढाँचा कमजोर हो जाता है।

(c) रोगों से शरीर की रक्षा करना (Protects from Diseases) :

रोगों से बचाव के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता हमें भोजन से ही प्राप्त होती है। बीमारी में भी भोजन में उपस्थित पोषक तत्व हमें जल्दी ठीक होने में मदद करते हैं। जैसे कि- कैल्शियम, फास्फोरस तथा विटामिन-डी शरीर की प्रक्रियाओं को नियमित रूप से चलाने का काम करते हैं तथा रिकेट्स रोग से बचाव करते हैं।

विटामिन-ए स्वस्थ आयोडीन की कमी नेत्र-दृष्टि के लिए अनिवार्य है। स्वस्थ त्वचा के लिए विटामिन-सी की आवश्यकता होती है यह ‘स्कर्वी’ नामक रोग से भी बचाता है। गलगंठ (goitre) नामक गल ग्रन्थि की बीमारी हो जाती है। लोहा एनीमिया रोग से हमारा बचाव करता है।

(d) मनोवैज्ञानिक कार्य (Psychological Functions) :

प्रत्येक मनुष्य की कुछ भावनात्मक आवश्यकताएँ होती जैसे कि- सुरक्षा, प्रेम और आदर सत्कार इन भावनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भोजन एक माध्यम है। भोजन मानसिक संतोष एवं सुरक्षा का भाव प्रदान करता है। जैसे कि माँ के द्वारा प्यार से परोसा गया भोजन बच्चे को माँ के प्यार और लगाव का एहसास दिलाता है।

(e) सामाजिक-सांस्कृतिक कार्य (Socio-cultural Functions) :

भोजन का अपना ही सामाजिक महत्व है। किसी व्यक्ति के साथ बैठकर भोजन करने से आपसी सांमजस्य की भावना विकसित होती है। परिवार के सभी सदस्यों में एक साथ भोजन करने से पारिवारिक सम्बन्धों घनिष्ठता की भावना बढ़ती है। किसी दावत में परोसे गए व्यंजनों से व्यक्ति को मजबूती मिलती है। दिवाली, क्रिसमस, ईद के मौके पर परिवार एवं आस-पड़ोस के लोगों से विशेष पकवानों के आदान-प्रदान से सामाजिक स्तर का भी एहसास होता है।

2. पोषण (Nutrition)

“भोजन में उपस्थित विभिन्न पोषक तत्वों का शारीरिक क्रियाओं तथा शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयोग पोषण कहलाता है।”

दूसरे शब्दों में कहें तो- “कार्य करता हुआ भोजन पोषण कहलाता है।” वैज्ञानिक रूप से कहा जाए तो “पोषण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा भोजन शरीर द्वारा ग्रहण किया जाता और उपयोग में लाया जाता है।”

हम जो भोजन करते है वह हमारे शरीर का पोषण करता है तथा शरीर को स्वस्थ बनाए रखता है। कोई भी खाद्य पदार्थ तब भोजन कहलात है जब-

(a) उसमें उपस्थित पोषक तत्व पाचक रसों में घुलकर ग्लूकोज के रूप में आतों से अवशोषित होकर रक्त में मिल जाएँ।
(b) खाने के पश्चात् पाचक रसों में उपस्थित एन्जाइम खण्डित हो सकें।
(c) रक्त में पहुँचने के पश्चात् एन्जाइम शारीरिक क्रियाओं के लिए उपयोगी हो सकें।

भोजन हमारे शरीर में विभिन्न प्रक्रियों से होकर गुजरता है जैसे कि- पाचन, अवशोषण और फिर शरीर के विभिन्न भागों में रक्त संचालन द्वारा प्रयुक्त होता है। भोजन के जिस अंश का पाचन व अवशोषण नहीं हो पाता वह शरीर द्वारा मल के रूप में निष्कासित कर दिया जाता है।

व्यक्ति द्वारा ग्रहण किए गए भोजन तथा उस भोजन में उपस्थित पोषक तत्व एवं उनकी मात्रा ही व्यक्ति के पोषण-स्तर (nutritional status) को निर्धारित करती है। व्यक्ति के पोषण स्तर के वैज्ञानिक अध्ययन को पोषण-विज्ञान कहते हैं।

3. पोषक तत्व (Nutrients)

“वे सभी रासायनिक घटक, जो भोजन में विद्यमान होते हैं व जिनसे शरीर अपने सभी कार्य करने में सक्षम होता है पोषक तत्व कहलाते हैं।” भोजन में पोषक तत्व जीवन के लिए अति आवश्यक होते है। पोषक तत्त्व भोजन में विद्यमान घटक होते हैं जिनकी शरीर को पर्याप्त मात्रा में आवश्यकता होती है।

इनमें कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, खनिज, विटामिन, जल तथा रेशा (फाइबर) शामिल हैं। हमें स्वस्थ रहने लिए सभी पोषक तत्त्वों की आवश्यकता होती है। अधिकांश खाद्य पदार्थों में एक से अधिक पोषक तत्त्व होते हैं, जैसे कि- दूध में प्रोटीन, वसा इत्यादि होते हैं।

विभिन्न खाद्य पदार्थों में पाए जाने वाले पोषक तत्व हैं- कार्बोहाइड्रेटस, प्रोटीन, वसा, विटामिन, खनिज लवण। इसके अतिरिक्त जल व फोक पोषक तत्व न होते हुए भी भोजन के अभिन्न अंग हैं क्योंकि ये शरीर की विभिन्न क्रियाओं के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पोषक तत्त्वों को हमारे दैनिक उपभोग के लिए आवश्यक मात्रा के आधार पर वृहत् पोषकों (मैक्रोन्यूट्रिएंट्स) तथा सूक्ष्म पोषकों (माइक्रोन्यूट्रिएंट्स) में वर्गीकृत किया जा सकता है-

पोषक तत्त्व के प्रकार

(i) वृहत् (मैक्रो ) पोषक तत्त्व (Macro Nutrients) :

ऐसे पोषक तत्व जो व्यक्ति के आहार का मुख्य भाग होते हैं अर्थात् अधिक मात्रा में लिए जाते हैं वृहत् पोषक तत्त्व कहलाते हैं। इन पोषक तत्त्वों का मुख्य कार्य ऊर्जा प्रदान करना, शरीर की वृद्धि तथा तंतुओं की मरम्मत करना होता है। कार्बोहाड्रेट, प्रोटीन, वसा तथा जल वृहत् पोषक तत्त्वों के उदाहरण हैं।

वृहद पोषक तत्त्व (अधिक मात्रा में आवश्यकता)

1. कार्बोहाइड्रेट्स
2. प्रोटीन
3. वसा
4. जल
5. रेशा

(ii) सूक्ष्म (माइक्रो ) पोषक तत्त्व (Micro Nutrients) :

सूक्ष्म पोषक तत्त्व वह पोषक तत्त्व होते हैं जिनकी आवश्यकता बहुत कम मात्रा में पड़ती है परंतु यह शरीर के सामान्य रूप से काम करने के लिए अत्यंत आवश्यक होते हैं। इन पोषक तत्त्वों का प्रमुख कार्य शरीर में विभिन्न
रासायनिक प्रक्रियाओं तथा शरीर के सुचारु रूप से कार्य करने में सहायता प्रदान करना है। खजिन तथा विटामिन सूक्ष्म पोषक तत्त्वों के उदाहरण हैं।

सूक्ष्म पोषक तत्त्व (कम मात्रा में आवश्यकता)

1. खनिज
आयोडीन
लौहा
कैल्शियम
2. विटामिन्स

संतुलित आहार (Balanced Diet)

विभिन्न खाद्य पदार्थों के मिश्रण से बना ऐसा आहार जो शरीर की पौष्टिक आवश्यकताओं के अनुरूप सभी पौष्टिक तत्व उपलब्ध कराए, संतुलित आहार कहलाता है।

सरल शब्दों में कहें तो, ऐसा आहार जिसमें सभी पोषक तत्व व्यक्ति की आवश्यकता के अनुसार उचित मात्रा में प्राप्त हो, संतुलित आहार कहलाता है। संतुलित आहार अच्छे स्वास्थ्य के लिए सहायक होने के साथ-साथ शरीर को ऐसे समय में भी पोषक तत्व उपलब्ध करवाता है जब किसी विशेष कारण जैसे कि- उपवास या बीमारी इत्यादि के कारण शरीर को जरूरी पोषक तत्व उपलब्ध न हो पा रहे हो।

नियमित रूप से संतुलित आहार लेने से शरीर में कुछ आवश्यक पोषक तत्वों का भण्डारण हो जाता है, जिनका उपयोग शरीर द्वारा विशेष परिस्थितियों में किया जाता है। यदि किसी आहार की योजना संस्तुत आहारीय मात्रा – आर.डी.ए. (Recommended Dietary Allowance – RDA) के अनुरूप हो तो उस आहार को भी संतुलित आहार कहा जाता है, क्योंकि उस आहार में तत्काल आवश्यकताओं के साथ-साथ अतिरिक्त सुरक्षा मात्रा को भी पहले से ही जोड़ लिया गया होता है।

संतुलित आहार उस आहार को कहते है-

(i) जिससे आहार ग्रहण करने वाले व्यक्ति को ऊर्जा की पूर्ति हो ।
(ii) जिसमें विभिन्न पोषक तत्व जैसे- कार्बोज, प्रोटीन, वसा, खनिज लवण, विटामिन व जल उचित मात्रा में सम्मिलित हों।
(iii) जिसमें शरीर में संचय किए जा सकने वाले पोषक तत्व तात्कालिक आवश्यकता से अधिक हो ताकि भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकें।

निर्धारित आहार संबंधी मात्रा- आर.डी.ए. (Recommended Dietary Allowance – RDA)

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research, ICMR) ने विभिन्न आयु वर्ग, लिंग, कार्य एवं विशेष परिस्थितिय से गुजर रहे भारतीयों को ध्यान में रखते हुए सभी वर्ग के लोगों के लिए विभिन्न पोषक तत्वों की प्रस्तावित दैनिक मात्रा अर्थात् निर्धारित आहार संबंधी मात्रा (आर.डी.ए.) (Recommended Dietary Allowance – RDA) निर्धारित की है।

निर्धारित आहार संबंधी मात्रा (आर.डी.ए.) = आवश्यकता + अतिरिक्त सुरक्षा मात्रा

न्यूनतम आवश्यकता (Minimum Requirement) – शरीर को विभिन्न पोषक तत्वों की कमी से होने वाले रोगों से बचाने के लिए, जितनी मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है वह न्यूनतम आवश्यकता कहलाती हैं। भोजन में न्यूनतम आवश्यकता से कम मात्रा में पोषक तत्व ग्रहण करने से पोषक तत्वों की कमी के कारण व्यक्ति रोगग्रस्त हो जाता है।
प्रस्तावित मात्रा (Recommended Allowances) – न्यूनतम मात्रा में जब व्यक्ति की अवस्था तथा शारीरिक आवश्यकताओं के अनुरूप पोषक तत्वों की कुछ अतिरिक्त मात्रा जोड़ दी जाती है, तो वह प्रस्तावित मात्रा कहलाती हैं। स्वस्थ शरीर के लिए पोषक तत्वों की प्रस्तावित मात्रा हमेशा न्यूनतम मात्रा से अधिक ही होती है।

किसी व्यक्ति के लिए संतुलित आहार का निर्धारण करते समय निम्न बातों पर ध्यान दिया जाता है-

1. इसमें विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ शामिल हो।
2. इसमें सभी पोषक तत्त्व ‘आर. डी. ए.’ के अनुसार हो।
3. इसमें सही अनुपात में पोषक तत्त्व शामिल हो।
4. इसमें पोषक तत्त्वों हेतु अतिरिक्त सुरक्षा मात्रा उपलब्ध हो।
5. अच्छे स्वास्थ्य को बनाए और बचाए रखने में मदद हो।
6. लंबाई के अनुपात में अपेक्षित शारीरिक वजन बनाए हो।

पोषण संबंधी आवश्यकताओं को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Nutritional Requirements)

यह जरूरी नहीं है कि जो आहार किसी एक व्यक्ति के लिए संतुलित हो वह दूसरे व्यक्ति के लिए भी संतुलित हो, क्योंकि हर व्यक्ति की विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है।

जैसे कि- अलग-अलग पोषण संबंधी आवश्यकताएँ होती है। जैसे कि- एक वयस्क पुरुष के लिए जो आहार संतुलित है, वह एक 10 वर्षीय बालक के लिए संतुलित नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों की पोषण संबंधी आवश्यकताएँ अलग-अलग हैं।

किसी व्यक्ति की पोषण संबंधी आवश्यकताएँ विभिन्न कारकों पर निर्भर करती है। जैसे की-

आयु (Age) :

विभिन्न पौष्टिक तत्वों की आवश्यकता व्यक्ति की आयु पर निर्भर करती है। जैसे कि- बच्चों को प्रोटीन, विटामिन, खनिज लवण, ऊर्जा आदि की आवश्यकता प्रति किलोग्राम शरीर भार के हिसाब से वयस्कों से कहीं अधिक होती है, क्योंकि वयस्कों की अपेक्षा बच्चों में अधिक शरीर निर्माणक कार्य होते हैं, जिससे उनकी पौष्टिक आवश्यकताएँ बढ़ जाती है।

शारीरिक आकार (Physical Shape) :

पोषक तत्वों की आवश्यकता शरीर के आकार पर भी निर्भर करती है। लंबे व भारी डील-डौल वाले व्यक्ति के शरीर में मांसपेशियाँ तथा उत्तक आदि अधिक होते हैं, जिसके कारण उनकी पौष्टिक आवश्यकताएँ छोटे व हल्के डील-डौल वाले व्यक्ति की अपेक्षा अधिक होती है।

शारीरिक श्रम (Physical Work) :

पोषक तत्वों की आवश्यकता व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले शारीरिक श्रम के स्तर पर भी निर्भर करती है। शारीरिक श्रम में बढ़ोत्तरी के अनुरूप ऊर्जा के व्यय में भी बढ़ोत्तरी होती है। इसलिए एक मजदूर कि पौष्टिक आवश्यकताएँ विशेषकर ऊर्जा की आवश्यकता किसी ऑफिस में काम करने वाले व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक होती है।

लिंग (Gender) :

किशोर एवं किशोरी की शारीरिक संरचना में जन्म से ही प्रकृतिक भिन्नता होती है। यह भिन्नता उनके आकार, भार, क्रियाशीलता आदि में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। इसी भिन्नता के कारण दोनों की पोषण संबंधी आवश्यकताओं में भी अन्तर होता है।

जलवायु (Climate) :

पोषक तत्वों की आवश्यकता पर जलवायु का भी प्रभाव पड़ता प्रायः गर्म प्रदेशों में ठंडे प्रदेशों की अपेक्षा कम पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। यहीं कारण है कि गर्मियों में हम सर्दियों की अपेक्षा कम खाते हैं।

स्वास्थ्य (Health) :

शरीर में पौष्टिक तत्त्वों की मांग स्वास्थ्य (Health) पर भी निर्भर करती है। बीमारी (अस्वस्थता) की स्थिति में शरीर की क्रियाशीलता कम हो जाती है। परंतु कुछ बीमारियों में कई विशेष पोषक तत्त्वों की मांग बढ़ जाती है तो कुछं पोषक तत्त्वों की मांग
घट जाती है।

विशिष्ट शारीरिक अवस्था (Specific Physical Condition) :

कई विशेष शारीरिक अवस्थाओं जैसे कि- गर्भावस्था, स्तनपान अवधि के दौरान (Lactation Period), दुर्घटना के बाद, शल्य क्रिया (Operation) के बाद शरीर की पौष्टिक आवश्यकताएँ सामान्य अवस्था की अपेक्षा थोड़ी बढ़ जाती है।)

स्वास्थ्य (Health)

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार) – “स्वास्थ्य वह स्थिति है जिसमें शरीर न केवल रोगमुक्त रहता है बल्कि शारीरिक, मानसिक व सामाजिक रूप से सुरक्षित व निरोग महसूस करता है”

उपरोक्त परिभाषा से सिद्ध होता है कि, स्वास्थ्य केवल रोगों की अनुपस्थिति ही नहीं बल्कि एक व्यक्ति के द्वारा अपने वातावरण के साथ शारीरिक, मानसिक, सामाजिक व नैतिक स्तर पर सामंजस्य बैठा कर पूर्ण सन्तुष्ट जीवन जीने की स्थिति है।

हम सभी अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखना चाहते हैं अर्थात् हम सभी शारीरिक, सामाजिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहना चाहते है। स्वास्थ्य की अवधारणा को और अच्छे से समझने के लिए स्वास्थ्य के विभिन्न आयामों (Dimensions of Health) को समझना जरूरी हैं।

स्वास्थ्य के आयाम (Dimensions of Health)

1. शारीरिक स्वास्थ्य (Physical Health) :

शारीरिक स्वास्थ्य का तात्पर्य व्यक्ति की उस स्थिति से है जिसमें वह शारीरिक रूप से चुस्त-दुरुस्त, सजक तथा रोगों से मुक्त हो। शारीरिक स्वास्थ्य का तात्पर्य निम्न से भी है-

(i) अच्छी रोग-प्रतिरोधक क्षमता,
(ii) सजक तथा ऊर्जावान,
(iii) आयु के अनुपात में सही शारीरिक भार तथा ऊँचाई,
(iv) स्वस्थ तथा मजबूत शारीरिक ढाँचा,
(v) अच्छी नींद आना,
(vi) चमकदार आँखें,
(vii) चमकदार त्वचा,
(viii) सामान्य रूप से भूख लगना,
(ix) साफ तथा स्वस्थ दाँत,
(x) चमकदार घने बाल।

2. मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health) :

मानसिक स्वास्थ्य का तात्पर्य व्यक्ति की उस स्थिति से है जिसमें वह अपनी संज्ञानात्मक और भावनात्मक क्षमताओं का उपयोग करने, समाज में कार्य करने और जीवन की रोजमर्रा की सामान्य माँगों की पूर्ति करने में सक्षम होता है।

मानसिक स्वास्थ्य का तात्पर्य निम्न से भी है-

(i) अच्छी मानसिक क्षमता,
(ii) चिंताओं तथा परेशानियों निपटने में सक्षम होना,
(iii) मानसिक रूप से सजक,
(iv) मानसिक विकारों से मुक्त,
(v) दूसरों के प्रति परानुभूति का भाव,
(vi) भावनात्मक रूप से स्थिर,
(vii) मानसिक रूप से समर्थ और सक्षम,
(viii) कठिन परिस्थितियों में उबरने की क्षमता।

3. सामाजिक स्वास्थ्य (Social Health) :

सामाजिक स्वास्थ्य का तात्पर्य व्यक्ति के उन सामाजिक कौशलों तथा योग्यताओं से है जिनके माध्यम से वह समाज के सदस्य के रूप में कार्य कर पाता है। सामाजिक स्वास्थ्य का तात्पर्य निम्न से भी है-

सहन क्षमता तथा सहयोग की भावना,
दूसरों के प्रति जिम्मेदारी का भाव,
सभ्य तथा मधुर व्यवहार,
लोगों के साथ मधुर संबंध।

4. आध्यात्मिक स्वास्थ्य (Spiritual Health) :

आध्यात्मिक स्वास्थ्य का तात्पर्य व्यक्ति की स्वयं के सामर्थ्य तथा मान्यताओं में दृढ़ विश्वास से है। आध्यात्मिक स्वास्थ्य का तात्पर्य निम्न से भी है-

(i) नैतिक मूल्यों जैसे कि- सच्चाई, दूसरो की मदद करना, अपनी जिम्मेदारियों का ईमानदारी से निर्वहन करना,
(ii) दूसरों के प्रति संयमपूर्ण व्यवहार करना।

स्वास्थ्य के उपरोक्त सभी आयामों के अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए आहार में अनिवार्य पोषक तत्त्वों की पर्याप्त मात्रा लेना आवश्यक है।

स्वस्थता / फिटनेस (Fitness) – पुष्टि का तात्पर्य मनुष्य के उन गुणों से है जो उसे कठिन कार्यों को पूरा करने में समर्थ बनाते है।

सरल शब्दों में कहें तो- मनुष्य की बेहतर कार्यक्षमता को ही ‘पुष्टि’ कहते हैं। सामान्य व्यक्ति की शारीरिक पुष्टि का अर्थ उसकी दैनिक कार्य करने की क्षमता से है, जिसे वह थकावट अनुभव किए बिना करता है। इसके साथ-साथ कार्य समाप्त करने के पश्चात् भी उसमें अतिरिक्त कार्य करने की शक्ति होनी चाहिए और पुनः शक्ति प्राप्ति की क्षमता भी होनी चाहिए।

पुष्टि के फलस्वरूप वह प्रतिदिन के कार्य भी करता है, मनोरंजन क्रियाओं में भाग लेता है और किसी आकस्मिक घटना या समस्या का सामना करने के लिए तैयार रहता है। स्वस्थता शब्द का उपयोग दो प्रकार से होता है-

1. सामान्य स्वस्थता (General Fitness) : सामान्य स्वस्थता का तात्पर्य व्यक्ति के अच्छे स्वास्थ्य एवं बेहतर कार्यक्षमता से है।

2. विशिष्ट स्वस्थता (Specific Fitness) : विशिष्ट स्वस्थता का तात्पर्य किसी विशिष्ट कार्य को पूरा करने के लिए जरूरी स्वस्थता से है।

शारीरिक पुष्टि के घटक (Components of Physical Fitness)

शारीरिक पुष्टि के मुख्य घटक निम्नलिखित हैं-

1. कार्डियोरैसपाइरेटरी सहनशीलता (Cardiorespiratory Endurance) : यह निरंतर शारीरिक गतिविधियों के दौरान ईंधन की आपूर्ति करने के लिए शरीर की संचार और श्वसन प्रणाली की क्षमता है।

2. मांसपेशियों की शक्ति (Muscular Strength) : यह किसी गतिविधि के दौरान बल लगाने के लिए मांसपेशियों की क्षमता है।

3. मांसपेशीय सहनशीलता (Muscular Endurance) : यह थकान के बावजूद प्रदर्शन जारी रखने की मांसपेशियों की क्षमता है।

4. शारीरिक रचना (Body Composition) : यह मांसपेशियों, वसा तथा अस्थियों को दर्शाता है। यह स्वास्थ्य और वजन के प्रबंधन के लिए महत्वपूर्ण है।

5. गति (Speed) : कम से कम समय में अधिक दूरी को तय करने की क्षमता को गति कहते हैं।

6. शक्ति (Strengh) : किसी प्रतिरोध का सामना करने की मांसपेशियों की योग्यता को शक्ति कहते है।

7. लचीलापन (Flexibility) : जोड़ों में अच्छा लचीलापन जीवन की सभी अवस्थाओं में चोटों को रोकने में मदद करता है।

8. संतुलन एवं समन्वय (Balance and Coordination) : यह व्यक्ति की ऐसी योग्यताएँ होती हैं, जो उसे विभिन्न गति क्रियाएँ सुचारु तथा प्रभावशाली ढंग से करने के योग्य बनाती हैं।

शारीरिक तथा मानसिक पुष्टि के लाभ (Benifits of Physical and Mental Fitness)

दीर्घायु।
ऊर्जा स्तर में वृद्धि।
अवसाद से बचाव।
शारीरिक शक्ति में वृद्धि।
बेहतर शारीरिक ढाँचा।
आत्मविश्वास में वृद्धि।
समस्याओं का सामना करने की क्षमता में वृद्धि।
विभिन्न प्रकार की बीमारियों से बचाव।

संतुलित आहार की योजना बनाने में आधारभूत खाद्य वर्गों का उपयोग (Using Basic Food Groups for Planning Balanced Diets)

विभिन्न खाद्य पदार्थों में विभिन्न पोषक तत्व भिन्न-भिन्न मात्रा में पाए जाते हैं। लगभग समान पोषक मान वाले विभिन्न खाद्य पदार्थों को एक समूह में इकट्ठा करके जो वर्ग हमें प्राप्त होते हैं उन्हें ICMR के अनुसार खाद्य वर्ग कहा गया है।

समान विशेषताओं वाले विभिन्न खाद्य पदार्थों को वर्गों में विभाजित कर प्रत्येक वर्ग में से किसी-न-किसी खाद्य पदार्थ को भोजन में शामिल करना संतुलित आहार तैयार करने का एक आसान तरीका है। खाद्य पदार्थों का विभिन्न वर्गों में वर्गीकरण उनकी समान विशेषताओं के आधार पर किया जाता है, जैसे कि- खाद्य पदार्थों का स्रोत, उसके द्वारा निष्पादित की जाने वाली शरीर क्रियात्मक क्रियाएँ अथवा उनमें उपस्थित पोषक तत्त्व इत्यादि।

खाद्य वर्ग योजना के लाभ (Aim/Benefits of Planning Food Groups )

(i) खाद्य समूहों का उनमें पाए जाने वाले पोषक तत्वों के आधार पर वर्गीकरण करने से सभी प्रकार के पोषक तत्वों की पूर्ति हो जाती है।
(ii) प्रत्येक समूह में से कोई-न-कोई खाद्य पदार्थ लेने से भोजन में विविधता बनी रहती है।
(iii) प्रत्येक खाद्य समूह में से कम-से-कम एक खाद्य पदार्थ का चयन करने से संतुलित आहार योजना आसानी से तैयार की जा सकती है।

भारत में पाँच खाद्य वर्ग समूहों का उपयोग किया जाता है। इन खाद्य वर्गों का वर्गीकरण करते समय खाद्य पदार्थों की उपलब्धता, लागत, भोजन पद्धति और पोषक तत्वों की कमी से होने वाले प्रचलित रोगों आदि कारकों को ध्यान में रखा गया है। प्रत्येक वर्ग में सम्मलित सभी खाद्य पदार्थों में पोषक तत्त्वों की मात्रा एक बराबर नहीं होती। इसलिए प्रत्येक वर्ग के विभिन्न खाद्य पदार्थों को अदल-बदल कर आहार में शामिल किया जाना चाहिए। ICMR ने भारतीयों के लिए निम्न पांच खाद्य वर्ग अनुमोदित किए है-

खाद्य वर्ग (ICMR द्वारा अनुमोदित)

अनाज, खाद्यान्न और उनके उत्पाद (Cereals, grains and products)
दालें और फलियाँ (Pulses and legumes)
दूध और मांस के उत्पाद (Milk and meat products)
फल और सब्जियाँ (Fruits and vegetables)
वसा और शर्करा (Fats and sugars)

1. अनाज, खाद्यान्न और उनके उत्पाद (Cereals, Grains and Products)

(a) अनाज, खाद्यान्न और उनके उत्पाद (Cereals, Grains and Products) : इस वर्ग में सभी अनाज जैसे- गेहूँ, चावल, मक्का, बाजरा, रागी, सूजी, ज्वार और जौ आदि आते हैं।

(ii) भोजन द्वारा ऊर्जा प्राप्ति का मुख्य स्रोत भी यही खाद्यान्न हैं। यह कार्बोज युक्त पदार्थ सस्ते होने के कारण लोगों के आहार में प्रमुख स्थान रखते हैं। हमारे प्रत्येक आहार में जैसे कि- सुबह का नाश्ता, दोपहर का भोजन, शाम अवश्य सम्मिलित किए जाने चाहिए। की चाय अथवा रात्रि के भोजन में यह खाद्यान्न किसी न किसी रूप में

(iii) विभिन्न खाद्यान्नों में लगभग 75% कार्बोज, 12% प्रोटीन, 10% जल, 2% वसा तथा 10% विटामिन व खनिज लवण पाए जाते हैं।

(iv) खाद्यान्नों द्वारा प्राप्त होने वाले प्रोटीन निम्न श्रेणी के होते है। खाद्यान्नों को दलने व पॉलिश करने से बी-समूह के विटामिन नष्ट हो जाते हैं। अतः जहाँ तक सम्भव हो बिना पॉलिश और साबुत अनाज का प्रयोग करना चाहिए। भूसी रूक्षांश (fibre) भी प्रदान करता है जो शरीर की चयापचय क्रिया में सहायक होता है।

इस खाद्य वर्ग से प्राप्त पोषक तत्व- ऊर्जा, प्रोटीन, अदृश्य वसा, विटामिन-बी, विटामिन-बी, फोलिक अम्ल, कैल्शियम लौह तत्व तथा रेशा।

(b) कंद मूल (Roots and Tubers) :

(i) कुछ कंद मूल जैसे- आलू कचालू, शकरकंदी, टेपियोका तथा जिमीकन्द स्टार्चयुक्त पदार्थ हैं। इनमें कार्बोज की मात्रा अधिक होने के कारण यह कुछ समय के लिए खाद्यान्न का स्थान ले सकते हैं।

(ii) भोजन में अधिक मात्रा में कैलोरी, लौह तत्व, बी-समूह के विटामिन तथा रेशा इसी वर्ग से प्राप्त होते हैं।

(ii) इस वर्ग के खाद्य पदार्थ अपेक्षाकृत सस्ते होने के कारण कम आय वाले लोगों के लिए विशेष महत्व रखते हैं।

2. दालें और फलियाँ (Pulses and Legumes)

(i) इस वर्ग के अन्तर्गत सभी प्रकार की दालें जैसे- मूंग, मसूर, अरहर, चना, उड़द, राजमा, मोठ, काबुली चने तथा सोयाबीन इत्यादि सम्मिलित किए जाते हैं।

(ii) अधिकांश भारतीय शाकाहारी तथा निर्धन अथवा मध्यम वर्गीय होते हैं। ऐसे में प्रोटीन प्राप्ति के लिए वह दालों पर ही निर्भर करते हैं क्योंकि दालों में लगभग 25% प्रोटीन पाया जाता है। इनके आहार में मांसाहारी पदार्थ बहुत कम मात्रा में होते हैं। दालों में उपस्थित प्रोटीन का जैविक मल्य (biological Value कम होता है।

(iii) शाकाहारी आहार में प्रोटीन प्राप्ति के लिए सोयाबीन का बहुत अधिक महत्व है क्योंकि इसमें 40% प्रोटीन होता है। इनके प्रोटीन का जैविक मूल्य भी अधिक होता है।

(iv) दालों में विटामिन-सी की कमी होती है। दालों के अंकुरण से विटामिन-सी व बी-समूह के विटामिनों की मात्रा बढ़ाई जा सकती है। लोहा यौगिक रूप से सरल रूप में बदल कर अवशोषित होने योग्य हो जाता है तथा पाचन क्षमता सहज हो जाती है।

(v) गिरियाँ और तिल के बीजों में वसा और प्रोटीन की प्रचुर मात्रा होती है। वियुक्त प्रोटीन या अलग किए गए प्रोटीन (गिरियों तथा बीजों से तेल निकालने के बाद) आरोग्यकर पदार्थ बनाने के लिए उपयोग में लाए जाते हैं। ये प्रोटीन रोगी तथा कुपोषित व्यक्तियों के लिए संपूरक आहार का महत्वपूर्ण हिस्सा बनते हैं।

(vi) यह वर्ग शारीरिक कोशिकाओं की मरम्मत तथा वृद्धि के लिए शाकाहारी लोगों को प्रोटीन उपलब्ध कराने का सस्ता स्रोत है। इसके अतिरिक्त ये कैल्शियम, लोहा व रेशा भी प्रदान करते हैं।

इस खाद्य वर्ग से प्राप्त पोषक तत्व- ऊर्जा, प्रोटीन, अदृश्य वसा, विटामिन-बी, विटामिन-बी, फोलिक अम्ल, लौह तत्व तथा रेशा।

3. दूध और मांस के उत्पाद (Milk and Meat Products)

इस खाद्य वर्ग को प्रोटीन प्रदान करने वाले सभी पशुजन्य स्रोतों के आधार पर बनाया गया है। इन सभी पदार्थों से प्रथम श्रेणी के प्रोटीन की प्राप्ति होती है और इनमें सभी आवश्यक अमीनो अम्ल उपस्थित होने के कारण इनका जैविक मूल्य भी अधिक होता है।

(a) दूध तथा दूध से बने उत्पाद (Milk and Milk Products) :

दूध में लौह तत्व तथा विटामिन-सी को छोड़कर सभी पौष्टिक तत्वों की उपस्थिति होने के कारण इसे काफी हद तक सम्पूर्ण आहार भी माना जाता है। पनीर, अवक्षेपित प्रोटीन है तथा इसमें वसा और लैक्टोज लगभग नहीं होता। पनीर आसानी से पच जाता है। पनीर निकलने के बाद बचे हुए तरल को दही का पानी या छाछ (whey) कहते हैं। छाछ में खनिज लवणों व दूध की वसा की भरपूर मात्रा होती है।

(b) मांस, अण्डा और मछली (Meat, Egg and Fish) :

इन उत्पादों से प्राप्त प्रोटीन उत्तम श्रेणी का तथा अधिक जैविक मूल्य का होता है। अंडे से प्राप्त होने वाले प्रोटीन को ए-ग्रेड प्रोटीन माना जाता है और अन्य प्रोटीनयुक्त पदार्थों की तुलना अंडे के प्रोटीन से की जाती है। इन खाद्य पदार्थों में लौह तत्व और बी-समूह के विटामिन भी अधिक पाए जाते हैं। कलेजी तथा गुर्दे में विटामिन-ए अधिक पाया जाता है।

इस खाद्य वर्ग से प्राप्त पोषक तत्व- प्रोटीन, वसा, विटामिन-बी, कैल्शियम, विटामिन-बी, विटामिन-ए, सोडियम तथा पोटैशियम।

इस वर्ग के खाद्य पदार्थ पूर्ण प्रोटीन, वसा, विटामिन-बी, कैल्शियम के बहुत अच्छे स्रोत हैं व शारीरिक वृद्धि व निर्माण में सहायक होते है।

4. फल और सब्जियाँ (Fruits and Vegetables)

(a) फल (Fruits) : विभिन्न फलों से विटामिन, खनिज लवण तथा शर्करा प्राप्त होती है। फल अधिकतर कच्चे ही खाए जाते हैं। अतः फलों से प्राप्त विटामिन और खनिज लवण पूरे के पूरे शरीर में उपयोग होते हैं। खट्टे फल जैसे- आंवला, नींबू इत्यादि से विटामिन-सी प्राप्त होता है। पीले तथा लाल रंग के फल, जैसे- आम से विटामिन-ए की प्राप्ति होती है।

(b) सब्जियाँ (Vegetables) : हरी पत्तेदार, गहरी लाल और पीली तथा जड़ वाली सब्जियाँ कैरोटीन, बी-समूह के विटामिनों तथा खनिज लवणों का अच्छा स्रोत होती है।

सभी प्रकार के फल व सब्जियाँ विटामिन, खनिज लवण व रेशे से भरपूर होते हैं तथा शरीर की अभावजनित रोगों से रक्षा करते हैं। ये विभिन्न शारीरिक कार्यों में सहायक होते हैं। इसके साथ ही इनके उपयोग से भोजन को भिन्नता प्रदान कर आकर्षक बनाया जा सकता है।

5. वसा और शर्करा (Fat and Sugar) – इस वर्ग के खाद्य-पदार्थ भोजन को स्वादिष्ट बनाते हैं। इस वर्ग को दो भागों में विभाजित किया गया है-

(a) वसा (Fats / Oils) : इस वर्ग में घी, मक्खन, वनस्पति, सरसों, सूरजमुखी तथा सोयाबीन का तेल आते हैं। मक्खन तथा घी भोजन को घुलनशील विटामिन तथा कैलोरी भी मिलती है। अधिकतर तेलों में विटामिन नहीं होते।

स्वादिष्ट तो बनाते ही हैं, साथ ही इनसे वसा तेलों में उच्च असंतृप्त अंश के कारण भोजन में इनका उपयोग अधिक लोकप्रिय हो रहा है। बहुत से तेलों में विटामिन भी मिलाया जाता घी से सस्ते होते हैं। तेलों में रक्त में प्लाज्मा कोलेस्ट्रॉल का स्तर कम करने की क्षमता होती है।

(b) शर्करा (Sugar) : चीनी, गुड़, शहद व शक्कर इस वर्ग में आते हैं। इस वर्ग से मुख्यत: कार्बोज के रूप में ऊर्जा प्राप्त होती है। चीनी शुद्ध कार्बोज है, गुड़ और शक्कर लोहे के अच्छे स्रोत हैं। अधिक शर्करा के प्रयोग से दाँतों के रोग में वृद्धि होती है। चीनी का अधिक प्रयोग
स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है।

इन मूल खाद्य वर्ग योजनाओं के आधार पर ICMR ने न्यूनतम आवश्यकताओं तथा प्रस्तावित मात्राओं को ध्यान में रखते हुए प्रस्तावित दैनिक पौष्टिक आवश्यकताओं की तालिकाएँ तैयार की हैं, जिनका समय-समय पर संशोधन किया जाता है।

ICMR द्वारा प्रस्तावित खाद्य वर्गों में पोषक तत्व (Nutrients Supplied by Food Groups)

खाद्य वर्गइनसे प्राप्त पोषक तत्व
1. अनाज, खाद्यान्न और उसके उत्पाद
चावल, गेहूँ, रागी, बाजरा, मक्का, ज्वार, जौ तथा उनके उत्पाद जैसे चावल की कनी, गेहूँ का आटा आदि।ऊर्जा, प्रोटीन, परोक्ष वसा, विटामिन-B,, विटामिन-B, फोलिक अम्ल, लौह तत्व तथा रेशा।
2. दालें और फलियाँ
काला चना, उड़द, मूंग, मल्का-मसूर (साबुत और दाल) लोबिया, मटर, राजमा, सोयाबीन, फलियाँ आदि।ऊर्जा, प्रोटीन, परोक्ष वसा, विटामिन-B,, विटामिन B2, फोलिक कैल्शियम, लौह तत्व तथा रेशा।
अम्ल, कैल्शियम, लौह तत्त्व तथा रेशा।
3. दूध, मांस और उनके उत्पाद
दूध, दही, स्किम्ड मिल्क, पनीर, मक्खन, घी आदि।
मीट – मुर्गा, कलेजी, मछली, अंडा, आदि।
प्रोटीन, वसा, विटामिन B12, कैल्शियम, प्रोटीन, वसा, विटामिन-B2,
4. फल और सब्जियाँ
आम, अमरूद, पका हुआ टमाटर, पपीता, संतरा, मौसमी (स्वीट लाइम), तरबूज आदि ।कैरोटीनायड्स, विटामिन-सी, रेशा
सब्जियाँ (हरी पत्तेदार)
चौलाई, पालक, सहजन की पत्तियाँ, धनिया पत्ती, सरसों के पत्ते, मेथी के पत्ते आदि।कैरोटीनायड्स, विटामिन-सी, रेशा विटामिन-B2, फोलिक अम्ल, कैरोटीनायड्स, कैल्शियम तथा रेशा
अन्य सब्जियाँ
गाजर, बैंगन, भिंडी, शिमला मिर्च, सेम, प्याज, सहजन, फूलगोभी आदि।कैरोटीनायड्स, फोलिम एसिड, कैल्शियम तथा रेशा
5. वसा और शर्करा
वसा – मक्खन, घी, हाइड्रोजनीकृत तेल (हाइड्रोजीनिटेड ऑयल्स) खाना ऊर्जा, वसा तथा अनिवार्य वसा अम्ल बनाने का तेल जैसे मूँगफली, सरसों और नारियल का तेल आदि।
शर्करा – चीनी, गुड आदि।
ऊर्जा, वसा तथा अनिवार्य वसा अम्ल, ऊर्जा
याद रहे – एक ग्राम

कार्बोहाइड्रेट से मिलती है – 4 किलो कैलोरी ऊर्जा
प्रोटीन से मिलती है। – 4 किलो कैलोरी ऊर्जा
वसा से मिलती है – 9 किलो कैलोरी ऊर्जा

ध्यान रहे

  • संतुलित आहार की योजना बनाते समय व्यक्ति की सक्रियता को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक खाद्य वर्ग में से खाद्य पदार्थ पर्याप्त मात्रा में चुने जाने चाहिए।
  • अनाज और दालों को पर्याप्त मात्रा में लेना चाहिए।
  • फल और सब्जियाँ भरपूर मात्रा में, मांस आदि आहार सीमित मात्रा में तथा तेल और शर्करा अल्प मात्रा में लेनी चाहिए।
खाद्य वर्गों के प्रयोग संबंधी दिशा-निर्देश

1. अनाज द्वारा कुल कैलोरी के 75 प्रतिशत से अधिक की आपूर्ति नहीं होनी चाहिए।
2. आहार में अनाज व दाल का अनुपात 4:1 तथा 5:1 के बीच में हो।
3. कच्ची सब्जियों और फलों को भोजन में अवश्य शामिल करें। हरी पत्तेदार सब्जियों की मात्रा 80 ग्राम से कम तथा कुल सब्जियों की मात्रा 150 ग्राम से अधिक न हो।
4. कैल्शियम और अन्य पोषक तत्वों की आपूर्ति हेतु कम-से-कम एक बार दूध अवश्य लेना चाहिए क्योंकि दूध में लोहा, विटामिन सी और रेशे के अलावा सभी पोषक तत्व शामिल होते हैं। प्रतिदिन कम-से-कम 100 मिली. दूध का सेवन अवश्य किया जाना चाहिए।
5. प्रत्येक आहार में प्रत्येक खाद्य वर्ग से खाद्य पदार्थों को कम-से-कम एक अथवा अधिक बार परोसना (सर्विंग) चाहिए।
6. खाद्य पदार्थों का चयन प्रत्येक वर्ग में से करें क्योंकि प्रत्येक वर्ग में खाद्य पदार्थ भले ही समान हैं लेकिन उनमें पोषक तत्त्व एक जैसे नहीं हैं।
7. यदि भोजन शाकाहारी है तो आहार में संपूर्ण प्रोटीन गुणवत्ता बढ़ाने के लिए उपयुक्त संयोजनों का उपयोग करें। उदाहरण के लिए, अनाज, दालों एवं हरी सब्जियों का संयोजन अथवा भोजन में थोड़ी मात्रा में दूध अथवा दही भी शामिल करना।
8. वसा द्वारा कुल आवश्यक ऊर्जा का 15% से अधिक प्राप्त न हो।
9. कार्बोज जैसे- चीनी या गुड़ द्वारा कुल आवश्यक ऊर्जा का 5% से अधिक प्राप्त न हो तथा वसा और चीनी द्वारा कुल आवश्यक ऊर्जा का20% अधिक प्राप्त न हो।

खाद्य पिरामिड (Food Pyramid)

संतुलित भोजन के संदर्भ में किए गए विभिन्न वैज्ञानिक शोधों के आधार पर वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि हमारा भोजन एक तरह के खाद्य पिरामिड के अनुरूप होना चाहिए। किसी व्यक्ति के दिनभर के आहार में कितनी मात्रा किस खाद्य पदार्थ की होनी चाहिए, यह खाद्य पिरामिड के माध्यम से समझा जा सकता है।

खाद्य पिरामिड वैज्ञानिक शोधों के उपरान्त निर्धारित की गई वह रूप रेखा है जो यह सुझाती है कि किसी व्यक्ति को सभी आवश्यक पोषक तत्वों की पूर्ति, उपयुक्त शारीरिक भार बनाने रखने के लिए स्वास्थ्यवर्धक आहार चयन करने में सहायता प्रदान करती है-

NCERT Solution Class 11th Home Science Chapter – 3 भोजन, पोषण, स्वास्थ्य एंव स्वस्थता (Food, Nutrition, Health, and Fitness) Notes In Hindi

(v) वसा तथा शर्करा
(iv) दूध, मीट तथा दूध से बने उत्पाद
(iii) दालें और फलियाँ
(ii) फल और सब्जियाँ
(i) अनाज और उत्पाद

खाद्य पिरामिड का आधार : पिरामिड के आधार में अनाज तथा उसके उत्पाद शामिल किए गए हैं जिन्हें ऊर्जा तथा प्रोटीन प्राप्ति के लिए प्रचुर मात्रा में ग्रहण करना चाहिए, ताकि मनुष्य के पोषण का आधार ठोस तथा मजबूत हो सकें तथा वह विभिन्न कार्यों को करने के लिए भरपूर ऊर्जा प्राप्त कर सके। भोजन का ठोस एवं मजबूत आधार ही अच्छे स्वास्थ्य के लिए मजबूत नींव का काम करता है।

खाद्य पिरामिड का दूसरा स्तर : पिरामिड के दूसरे स्तर पर जटिल कार्बोहाइड्रेट समूह के खाद्य पदार्थों को शामिल किया गया हैं। इस स्तर में फाइबर की प्रचूरता वाले आहार जैसे कच्ची सब्जियां और फल, साबुत अनाज और सब्जियाँ आदि को सम्मिलित किया गया है।

यह समूह शरीर को विटामिन और खनिजों, विटामिन बी कम्प्लेक्स, फाइबर आदि की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए उत्तरदायी है। सब्जियां और फल स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होते हैं। ये उच्च रक्त चाप को घटाते हैं, कब्ज दूर करते हैं। यह कम कैलोरी वाला श्रेष्ठ आहार है। फल और सब्जियाँ भोजन को रंग और स्वरूप प्रदान करता है। इसके अलावा यह खनिजों को अवशोषित करने में सहायता प्रदान करता है, जिससे हड्डियां मजबूत होती हैं और खून की गुणवत्ता बढ़ती है। इनका सेवन पर्याप्त मात्रा में करना चाहिए।

खाद्य पिरामिड का तीसरा स्तर : खाद्य पिरामिड के तीसरे स्तर पर प्रोटीनयुक्त खाद्य पदार्थों को रखा गया। इसके अंतर्गत जंतु और पादप दोनों तरह के स्रोतों से प्राप्त प्रोटीन शामिल हैं। प्रोटीन मानव शरीर के सभी ऊतकों के निर्माण की प्रमुख इकाई है, जिनमें हड्डियां, बाल और नाखून शामिल हैं। जंतु प्रोटीन कोलेस्टरॉल वृद्धि करते है। प्रोटीन, दिनभर के भोजन का मात्र एक चौथाई भाग होना चाहिए।

खाद्य पिरामिड का चौथा स्तर :  इस स्तर पर मीट, दूध तथा दूध से बने उत्पादों को शामिल किया गया है। इन पदार्थों का प्रयोग विवेकपूर्ण ढ़ंग (मध्यम मात्रा में) करना चाहिए। आजकल बाजार में स्किम्ड मिल्क, लो फैट पनीर, लो फैट दही इत्यादि आसानी से उपलब्ध है जोकि स्वास्थ्य के लिए अच्छे हैं। भैंस के दूध की अपेक्षा गाय का दूध अधिक फायदेमंद है।

खाद्य पिरामिड का अंतिम और पांचवां स्तर : इस समूह के आहार में लाल मीट, संतृप्त वसा, प्रसंस्कृत अनाज, चीनी और नमक को सम्मिलित किया गया हैं। इस समूह के आहार का अधिक उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। रेड मीट, चीनी, स्टार्च वाले भोजन, और प्रसंस्कृत अनाज उत्पाद की खपत अत्याधुनिक फैशन का हिस्सा बनती जा रही है, लेकिन अत्यधिक मात्रा में खाने पर ये स्वास्थ्य के लिए खतरनाक हो सकते हैं। जंक फूड के लंबे समय तक उपभोग से उच्च रक्तचाप, कोलेस्टेरोल का उच्च स्तर, मधुमेह, मोटापा, जोड़ों के रोग,कैंसर आदि हो सकते हैं। इसलिए दैनिक आहार में (फूड पिरामिड में) इन्हें सबसे कम प्राथमिकता दी गई है, जो सही है। इनका सेवन बहुत कम मात्रा में करना चाहिए।

खाद्य पिरामिड में हर खाद्य वर्ग सभी पोषक तत्त्व प्रदान नहीं करता बल्कि केवल कुछ पोषक तत्त्व प्रदान करते हैं, इसलिए एक वर्ग के खाद्य पदार्थ अन्य वर्ग के खाद्य पदार्थों की जगह प्रयुक्त नहीं किए जा सकते। कोई भी एक वर्ग दूसरे से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है- अच्छे स्वास्थ्य के लिए इन सभी की आवश्यकता है।

शाकाहारी आहार (Vegetarian Food Guide)

ऐसा आहार जो केवल वनस्पतिजन्य खाद्य पदार्थों, जैसे कि विभिन्न प्रकार के खाद्यान्नों, सब्जियों, फल, बीजों तथा सूखे मेवों के सम्मिश्रण से तैयार किया जाता है, शाकाहारी आहार कहलाता है। हालांकि कुछ शाकाहारी आहारों में अंडा, दूध से बनी वस्तुएँ अथवा दोनों ही शामिल होते हैं।

शाकाहारी आहार में विभिन्न प्रकार के खाद्यान्नों, दालों, सब्जियों, फलों एवं तिलहनों आदि के सही चुनाव व उपयुक्त मात्रा में सम्मिश्रण द्वारा संतुलित आहार तैयार किया जा सकता है। विभिन्न खाद्य वर्गों एवं खाद्य पिरामिड को मार्गदर्शक के रूप में प्रयोग करके शाकाहारी आहार को पूर्ण रूप से संतुलित आहार बनाया जा सकता है। जैसे कि-

(i) शाकाहारी लोग मांस के विकल्प के रूप में फली, बीज, सूखे मेवे, टोफू का और जो अंडे खाते हो वे अंडों का चयन कर सकते हैं।

(ii) फली और कम-से-कम एक हरी पत्तेदार सब्जियाँ उतना लौह तत्त्व प्रदान करते हैं जितना सामान्यतया मांस द्वारा प्राप्त होता है।

(iii) जो शाकाहारी लोग गाय का दूध नहीं पीते वे ‘सोया दूध’ ले सकते हैं जो सोयाबीन से बना होता है और इसे अतिरिक्त कैल्शियम, विटामिन डी और विटामिन बी-12 से युक्त करके अधिक पौष्टिक बनाया जा सकता है।

(iv) दालों को अंकुरित कर प्रयोग करने से उनका पोषक मान बढ़ाया जा सकता है।

(v) शाकाहारी आहार में सोयाबीन, मूँगफली व अन्य मेवे के प्रयोग से अच्छे किस्म का प्रोटीन प्राप्त किया जा सकता है। शाकाहारी व्यक्ति सोया, दूध व पीनट मक्खन (peanut butter) का प्रयोग कर सकते है।

(vi) शाकाहारी आहार में पशुजन्य प्रोटीन, दूध व दूध से बने पदार्थों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

(vii) शाकाहारी आहार में प्रोटीन भिन्न-भिन्न स्रोतों व मेलजोल द्वारा प्राप्त किया जा सकता है, जैसे कि- खाद्यान्न व दालें मिलाकर, विभिन्न प्रकार के खाद्यान्न मिलाकर, विभिन्न प्रकार की दालें मिलाकर

(viii) खमीरीकरण द्वारा भी खाद्य पदार्थों का पौष्टिक मान बढ़ाया जा सकता है, जैसे कि- डोसा, इडली, खमीरी रोटी आदि।

(ix) एक समय के आहार में किसी एक पौष्टिक तत्व को प्रमुखता नहीं देनी चाहिए। खाद्य वर्गों के प्रयोग से आहार में भिन्न-भिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों को बदल-बदलकर सम्मिलित करने से पौष्टिक तत्वों का संतुलन बना रहता है।

वेगन डाईट (Vegan Diet) – आजकल विदेशों में वेगन डाईट (Vegan diet) का प्रचलन बहुत बढ़ गया है। वेगन आहार में पशुजन्य स्रोतों से प्राप्त किसी भी आहार (यहाँ तक कि दूध का भी) सेवन नहीं किया जाता है।

किशोरावस्था के दौरान आहारीय शैली/पैटर्न (Dietary Patterns During Adolescence)

किशोरावस्था के दौरान उचित स्वास्थ्य तथा गुणवत्ता बनाने रखने में स्वास्थ्यवर्धक भोजन का बड़ा ही महत्व है। किशोरावस्था के दौरान किशोरों की पोषण संबंधी आवश्यकताएँ अन्य किसी भी अवस्था की आवश्यकताओं से काफी भिन्न होती है, इसका मुख्य कारण किशोरावस्था के दौरान तीव्र गति से होने वाले शारीरिक परिवर्तन एवं वृद्धि हैं।

इस दौरान भावनात्मक तथा शारीरिक स्वास्थ्य बनाने रखने में उचित पोषण बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ऐसा माना जाता है कि इस अवस्था के दौरान खान-पान संबंधी अच्छी आदतें विकसित होने से भविष्य में मोटापे, हृदय रोग, मधुमेह तथा कैंसर जैसी समस्याओं से लम्बे समय तक बचा जा सकता है।

किशोरों के पोषक तत्व अर्न्तग्रहण संबंधी विभिन्न अध्ययन यह दर्शाते है कि अधिकतर किशोरों की भोजन संबंधी आदतें इतनी खराब है कि वह अपनी दैनिक पोषण संबंधी आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं कर पाते जैसे कि- अधिकतर किशोरों में विटामिन-ए, थायमीन, लौह-तत्व तथा कैल्शियम की निर्धारित मात्रा में कमी पाई गई जबकि वसा, शर्करा, प्रोटीन तथा सोडियम की अधिकता पाई गई है।

किशोरावस्था के दौरान किशोरों में स्वतंत्रता की चाह इतनी अधिक होती है कि वह स्वयं पर किसी और का नियंत्रण बर्दाशत नहीं करते और स्वतंत्रता की यहीं चाह उनकी भोजन संबंधी आदतों में झलकती है। वह उसी भोजन को प्राथमिकता देते है जो उन्हें पसंद है। किशोरावस्था शारीरिक रूप से अधिक क्रियाशील रहने की अवस्था है

जिसमें अधिक ऊर्जा तथा पोषण की आवश्कयता होती है। इसके बावजूद अधिकतर किशोर ऐसे आहारों का चयन करते है जिनमें अत्याधिक ऊर्जा, अत्याधिक वसा एवं शर्करा होती है तथा ऐसे भोज्य पदार्थ जिनमें खनिज तथा लवण बहुत ही कम मात्रा में होते है या बिल्कुल ही नहीं होते है।

किशोरावस्था में आहार संबंधी समस्याओं के कारण (Causes of Dietary Problems During Adolescence)

किशोरों में भोजन संबंधी गलत आदतों के मुख्य संभावित कारण निम्नलिखित है-

1. भोजन में अनियमितता (Irregular Meals) : किशोरावस्था के दौरान किशोरों का अधिकतर समय घर से बाहर स्कूल, कॉलेज, ट्यूशन तथा मित्रों के साथ ही बितता है। ऐसे में वह अक्सर सही समय पर नियमित रूप से भोजन नहीं कर पाते हैं।

2. दिन के किसी एक समय के भोजन को छोड़ना (Skipping Meals) : किशोरों में दिन में किसी एक समय का भोजन न करने की आदत आम है। हालांकि यह आदत सबसे ज्यादा मध्य तथा उत्तर किशोरावस्था के दौरान देखी जाती है। इस अवस्था के दौरान सुबह का नाश्ता ही वह आहार है जिसे सबसे ज्यादा छोड़ा जाता है तथा उसके लिए निम्न कारण/बहाने बना दिए जाते है-

(i) समय की कमी।
(ii) शारीरिक भार कम करने के लिए अल्पाहार (Dieting)।
(iii) सुबह अधिक देर तक सोने की चाह।
(iv) भूख की कमी होने के कारण।

जबकि वास्तविकता यह है कि सुबह का नाश्ता न करने का सीधा नकारात्मक प्रभाव किशोरों की एकाग्रता, याद रखने तथा विद्यालय में अच्छे प्रदर्शन पर पड़ता है। किशोरों का मानना होता है कि सुबह का नाश्ता न करने से उनके शारीरिक भार में कमी आएगी, परंतु वास्तव में होता बिल्कुल इससे विपरीत ही है, क्योंकि सुबह का नाश्ता न करने के कारण वह अक्सर दोपहर को अधिक भूख लगने के कारण आवश्यकता से अधिक खा लेते है।

सुबह का नाश्ता न करने से किशोरों की चयापचय दर (metabolism rate) में कमी आती है जिसके कारण भार में वृद्धि होती है। ऐसा देखा गया है कि जो किशोर सुबह का नाश्ता नहीं करते उनमें सुबह का नाश्ता करने वाले किशोरों की तथा खनिज लवणों की काफी कमी रहती है।

रात का भोजन, लगभग हर किशोर द्वारा ग्रहण किया जाने वाला आहार होता है। कुछ किशोर विशेषकर लड़कियाँ दोपहर का भोजन नहीं करती। जबकि ऐसे किशोर जो निम्न आय वर्ग के परिवारों से आते है, उन्हें भी कई बार दिन में पर्याप्त भोजन नहीं मिल पाता। इन सभी स्थितियों में किशोरों में किसी-न-किसी पोषक तत्व की कमी पाई जाती है।

3. स्नैक्स का अधिक सेवन (More of Snacking) : अधिकतर किशोर सामान्य भोजन की अपेक्षा स्नैक्स को अधिक प्राथमिकता देते है। सुबह का नाश्ता या दोपहर का भोजन न कर पाने की स्थिति में अधिकतर किशोर स्नैक्स का सहारा लेते है। यदि स्नैक्स का चयन उनमें उपस्थित पोषक तत्वों को ध्यान में रखकर किया जाए तो स्नैक्स भी पर्याप्त ऊर्जा प्रदान कर सकते है।

अधिकतर किशोर तुरंत एवं आसानी से मिलने वाले स्नैक्स खाना पसंद करते है फिर चाहे उनमें शर्करा, सोडियम एवं वसा की मात्रा अधिक तथा विटामिन तथा खनिज कम मात्रा में ही क्यों न हों। अधिकतर किशोरियाँ पेय के रूप में स्नैक्स लेना पसंद करती है। ऐसे पेय रूपी स्नैक्स जैसे कि- कोल्ड ड्रिंक इत्यादि का अधिक सेवन हड्डियों पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।

4. फास्ट फूड (Tast Food) : किशोरावस्था के दौरान पढ़ाई तथा अन्य कारणों से किशोरों का अधिकतर समय अपने घर से बाहर मित्रों के साथ ही व्यतीत होता है। ऐसे में वह मित्रों के साथ स्कूल में रेस्टॉरेन्ट में, किसी मॉल इत्यादि में ही फास्ट फूड ग्रहण कर लेते है। किशोरों में फास्ट फूड के प्रति बढ़ते रुझान के निम्न कारण हैं-

(i) अधिकतर फास्ट फूड सस्ते तथा मित्रों की भी पहली पसंद होते है।
(ii) व्यस्त दिनचर्या के कारण फास्ट फूड को कहीं भी खाया जा सकता है।
(iii) सीमित विकल्प तथा जल्दी बन जाने के कारण यह किशोरों में तेजी से प्रचलित हुए है।
(iv) आजकल कई फास्ट फूड रेस्टॉरेन्ट किशोरों को मित्रों के साथ बैठकर समय बिताने के लिए उपयुक्त वातावरण एवं स्थान प्रदान कर रहें है।
(v) कई किशोरों का मानना होता है कि फास्ट फूड का चलन आजकल का फैशन में है।

जैसा कि हम जानते है कि फास्ट फूड की अवधारणा तुरंत बन जाना, हर जगह आसान उपलब्धतता तथा कम कीमत पर आधारित है। विभिन्न प्रकार के फास्ट फूड में पदार्थों में उनकी ताजगी एवं स्वाद बनाए रखने के लिए कई प्रकार के पदार्थ डाले जाते है

जो अक्सर उस फास्ट फूड के पोषक मान को कम कर देते है। निम्नलिखित ऐसे ही कुछ तथ्य है जिनके कारण फास्ट फूड उत्पाद काफी प्रसिद्ध होने के बावजूद भी स्वास्थ्य के लिए अच्छे नहीं माने जाते-

(i) आवश्यकता से अधिक कैलोरीयुक्त होना, अधिक सेवन से मोटापे की संभावना को बढ़ाता है।
(ii) अधिकतर फास्ट फूड उत्पादों में नमक अर्थात् सोडियम की मात्रा अधिक होती है जो कि रक्तचाप बढ़ाती है।
(iii) फास्ट फूड उत्पादों में विटामिन तथा खनिज विशेषकर कैल्शियम, राइबोफ्लेविन, विटामिन-ए तथा फोलिक अम्ल न के बराबर मात्रा में होते है।
(iv) फास्ट फूड उत्पाद रेशे की मात्रा बहुत कम होती है। इसी कारण फास्ट फूड उत्पादों का अधिक उपभोग कब्ज का कारण बनता है।

विभिन्न प्रकार के फास्ट फूड भोजनों की पोषण संबंधी सीमाएँ

कैल्शियम, राइबोफ्लेविन, विटामिन ए : दूध अथवामिल्क शेक को छोड़कर बाकी फास्ट फूड में ये तीनों अनिवार्य पोषक तत्त्व कम या नहीं होते हैं।

फोलिक अम्ल, फाइबर : फास्ट फूड्स में यह प्रमुख पोषक तत्व बहुत कम मात्रा में पाए जाते हैं।

वसा : अधिकतर फास्ट फूड भोजन पदार्थों में वसा की मात्रा बहुत अधिक होती है।

सोडियम : अधिकतर फास्ट फूड भोजन पदार्थों में सोडियम की मात्रा बहुत अधिक होती है, जो कि उच्च रक्तचाप तथा ओडिमा सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न करती है।

ऊर्जा : लगभग सभी फास्ट फूड भोजन पदार्थों में ऊर्जा की मात्रा बहुत अधिक होती है।

यद्यपि फास्ट फूड आहार कुछ पोषक तत्त्व प्रदान करते हैं लेकिन वे किशोरों की पोषण संबंधी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करते। किशोरों को यह समझना चाहिए कि फास्ट फूड पोषण की दृष्टि से तभी स्वीकार्य होते हैं यदि इनका उपभोग उपयुक्त तरीके से और संतुलित आहार के एक भाग के रूप में किया जाए। लेकिन जब वे आहार का मुख्य भाग बन जाते हैं तो यह चिंता का विषय बन जाता है।

निम्न उपायों द्वारा फास्ट फूड भोजन को पोषण मानकों के आधार पर स्वीकार्य बनाया जा सकता है। जैसे कि-

(i) फास्ट फूड के साथ तले हुए चिप्स या फ्राईज की जगह ताजे कटे फल या सलाद को अतिरिक्त (Add-ons) भोज्य पदार्थ के रूप में लेकर।
(ii) कोल्ड्र – ड्रिंक के स्थान पर फलों के ताजे रस, नारियल पानी अथवा नींबू पानी का सेवन करें।
(iii) तले हुए फास्ट फूड की जगह भूने हुए फास्ट फूड का सेवन करें।
(iv) पश्चिमी संस्कृति के फास्ट फूड जैसे कि- पिज्जा, बर्गर, चाऊमीन इत्यादि की अपेक्षा दक्षिण भारतीय संस्कृति वाले स्नैक्स जैसे कि- इडली, उपमा, डोसा इत्यादि को प्राथमिकता दें क्योंकि अधिकतर दक्षिण भारतीय भोज्य पदार्थ खाद्य सममिश्रण तथा खमीरीकरण जैसी विधियों के प्रयोग द्वारा बनाए जाते है।
(v) जहाँ तक संभव हो फास्ट फूड के छोटे पैक का सेवन करें, भले ही बड़ा पैक कम दामों पर उपलब्ध क्यों न हो।

5. अल्पाहार/डाइटिंग (Dieting) : किशोरवस्था के दौरान किशोर अपने शारीरिक आकार तथा भार को लेकर बहुत ही संवेदनशील होते है। वह पतले शरीर को खूबसूरती, स्वास्थ्य एवं सफलता का पैमाना मानते है। मीडिया के संपर्क में आने पर उन्हें वजन कम करने के नए-नए उपायों के विषय में पता चलता है। ऐसे में अल्पाहार ही उन्हें वजन कम करने का सबसे आसान एवं सस्ता उपाय लगता है।

शारीरिक भार कम करने के लिए अधिकतर किशोर/किशोरियाँ अल्पाहार को अपनाते है। अल्पाहार के दौरान किशोर/किशोरियाँ कई ऐसे उपाय अपनाते है जो उनके लिए कई पोषण संबंधी समस्याएँ उत्पन्न कर सकता है। जैसे कि वह कई बार पूरे दिन भूखे रहते है, दवाई खाकर भूख खत्म करने का प्रयास करते है, जबरदस्ती पेट साफ करने के लिए दवाईयाँ खाते है या कृत्रिम तरीकों से उल्टी करने का प्रयास करते है। इन सब उपायों के चलते वह अक्सर कुपोषण तथा अन्य शारीरिक एवं मानसिक समस्याओं का शिकार हो जाते है।

अल्पाहार / डाइटिंग के परिणाम : विशेषज्ञों की निगरानी में न की गई डाइटिंग के परिणाम हानिकारक हो सकते है, जैसे कि- किशोरों में खान-पान संबंधी विसंगतियाँ उत्पन्न हो सकती है, इसके अतिरिक्त खान-पान संबंधी विकृतियाँ और मोटापा. आत्मविश्वास में कमी होना और अन्य मनोवैज्ञानिक समस्याएँ भी उत्पन्न हो सकती है। इन सबके परिणामस्वरूप कार्डियोवेस्कुलर अर्थात् हृदय संबंधी समस्याओं की संभावना बढ़ जाती है तथा कई बार तो व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है।

अल्पाहार/डाइटिंग संबंधी समस्याओं को दूर करने का उपाय : डाइटिंग संबंधी समस्याओं को दूर करने का सबसे प्रभावी उपाय यह है कि व्यक्ति स्वस्थ खान-पान संबंधी आदतें विकसित करें। स्वस्थ जीवनशैली जैसे कि नियमित रूप से व्यायाम करना और स्वस्थ आहार पद्धति अपनाने से डाइटिंग की आवश्यकता नहीं पड़ती।

6. गैर-परंपरागत भोजन पद्धति (Non-Traditional Eating Patterns) : अक्सर किशोर गैर-परंपरागत भोजन पद्धति अपनाना पसंद करते है। उनके ऐसा करने के निम्न कारण हो सकते है-

(i) स्वयं की अलग पहचान बनाना किशोरावस्था का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा होता है ऐसे में किशोर अपनी एक अलग गैर-परंपरागत भोजन पद्धति अपनाकर अपने मित्रों को, परिवार को तथा समाज के अन्य लोगों को एक संदेश देने का प्रयास करते है कि वह दूसरों से कुछ हट कर सोचते व करते है।

(ii) गैर-परंपरागत भोजन पद्धति अपनाकर किशोर स्वयं को बड़ों के नियंत्रण से अलग दिखाना चाहते है। यह उनके लिए अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व की एक अभिव्यक्ति का माध्यम होता है।

(iii) कई बार किशोर अपना शारीरिक भार कम करने या बढ़ाने उद्देश्य से भी गैर-परंपरागत भोजन पद्धति अपनाते है।

(iv) तेजी से फलता-फूलता खाद्य उद्योग भी अपने प्रचार माध्यमों द्वारा किशोरों को गैर-परंपरागत भोज्य पदार्थ जैसे कि चिप्स, चॉकलेट, रेड-बुल इत्यादि खरीदने के लिए प्रेरित करता है।

(v) कई बार किशोर कुछ नया करने की चाह में भी गैर-परंपरागत भोजन पद्धति विधि अपना लेते है।

(vi) कई बार किशोर वैश्विक घटनाओं तथा प्रचलन के चलते भी गैर-परंपरागत भोजन पद्धति अपनाते है। उदाहरण के लिए, आजकल किशोरों में ‘वेगन भोज्य पदार्थों का बड़ा प्रचलन है।

7. भोजन संबंधी विकार (Disordered Eating) : कुछ मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों जैसे कि- भय, चिंता, अकेलापन, अवसाद, परिवार के साथ सामंजस्य न बिठा पाने के कारण किशोरों में भोजन संबंधी व्यवहारात्मक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती है।

इन समस्याओं के कारण किशोर अक्सर या तो खाने से परहेज करते है या फिर अत्यधिक भोजन कर लेते है। कई बार खाली बैठने या तनाव के कारण भी किशोरों में भोजन संबंधी विकार उत्पन्न हो जाते है।

आहार/भोजन संबंधी व्यवहार में परिवर्तन (Modifying Diet Related Bahaviour)

किशोरावस्था के दौरान तीव्र गति से हो रहे शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तनों के कारण किशोरों में ऊर्जा की मांग में वृद्धि हो जाती है। इस मांग की पूर्ति के लिए किशोरों को स्वास्थ्यवर्धक एवं संतुलित भोजन उपलब्ध कराना बहुत ही जरूरी होता है, अन्यथा किशोर विभिन्न स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं जैसे कि- मोटापा, मधुमेह इत्यादि से ग्रस्त हो सकते है। वर्तमान समय में अपनी शिक्षण संबंधी व्यस्तता के कारण अधिकतर किशोर अपने दिन का अधिक समय घर से बाहर ही बिताते है। ऐसे में वह अक्सर ऐसा भोजन ग्रहण करते है जो उनकी अवस्था की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं होता। ऐसी स्थिति में किशोरों के भोजन संबंधी व्यवहार में निम्न उपायों द्वारा परिवर्तनों लाया जा सकता है-

1. आलस्यपूर्ण जीवनशैली (Sedentary Life Style) : जहाँ तक संभव हो सके अधिक समय तक बैठे रहने वाली या आलस्यपूर्ण जीवनशैली की अपेक्षा क्रियाशील जीवनशैली अपनाने का प्रयास करना चाहिए। शारीरिक रूप से क्रियाशील रहने से आहार द्वारा ग्रहण की गई कैलोरी का उपयोग होता रहता है अन्यथा व्यक्ति बहुत जल्दी मोटापे से ग्रस्त हो सकता है। इसके लिए टी.वी. देखने, वीडियो गेम खेलने, कम्प्यूटर पर काम करने का समय सीमित ही रखना चाहिए, क्योंकि इनमें बहुत कम ऊर्जा व्यय होती है तथा कई बार बीच-बीच में कुछ-कुछ खाने से दिनभर में अधिक खाया जाता है।

2. खान-पान संबंधी स्वस्थ आदतें (Healthy Eating Habits) : बच्चों में शुरू से ही भोजन संबंधी आदतें विकसित करने का प्रयास किया जाना चाहिए ताकि वह जीवन की अगली अवस्थाओं विशेषकर किशोरावस्था में संतुलित भोजन के महत्व को भली-भांति समझ सके। जहाँ तक संभव हो सके ICMR द्वारा प्रस्तावित आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर भोजन ग्रहण करना चाहिए।

इसके लिए किसी भी एक आहार को कम या अत्यधिक महत्व नहीं देना चाहिए और न ही किसी भी एक समय का भोजन छोड़ना चाहिए। यदि किशोर किसी भी कारण से एक समय का भोजन छोड़ते है तो इस बात की पूरी संभावना है कि भूख लगने पर वह फास्ट फूड या कोई ऐसा अल्पाहार ग्रहण करेगा जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है।

खान-पान संबंधी स्वस्थ आदतें विकसित करने के लिए कुछ सुझाव

(i) अपने बच्चों को नियमित समय पर भोजन उपलब्ध करा कर उन्हें यहाँ-वहाँ असमय भोजन करने से रोकने का प्रयास करें।

(ii) घर पर भोजन बनाते समय बच्चों की पसंद-नापसंद का विशेष ध्यान रखे तथा भोजन बनाने से पूर्व उनकी इच्छा जानने का प्रयास करें।

(iii) फल एवं सब्जियों में कैलोरी की मात्रा कम तथा रेशा, विटामिन एवं खनिजों की मात्रा अधिक होती है। इसलिए रात के भोजन के दौरान इनको प्राथमिकता देनी चाहिए ताकि किशोर का पेट भी भरा रहे और वह अतिरिक्त कैलोरी भी ग्रहण न करें।

(iv) शारीरिक भार को करने के लिए अधिक कैलोरीयुक्त खाद्य पदार्थों के सेवन में कटौती कर देनी चाहिए।

(v) कोलड्रिंक या सोडायुक्त पेय पदार्थ के सेवन की अपेक्षा दूध को प्राथमिकता दे, क्योंकि दूध विटामिन-डी तथा कैल्शियम का अच्छा स्रोत है तथा यह किशोरों की हड्डियों के लिए भी अनिवार्य होता है।

(vi) अक्सर किशोर ऐसे भोजन को प्राथमिकता देते है जोकि आसानी से उपलब्ध हो। जबकि आसानी से उपलब्ध लगभग सभी खाद्य पदार्थों में वसा, नमक तथा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक पदार्थों की मात्रा अधिक होती है। ऐसे हानिकारक स्नैक्स के सेवन से किशोरों को बचाने के लिए उन्हें घर पर बने पौष्टिक स्नैक्स जैसे कि इडली, पोहा इत्यादि उपलब्ध कराने का प्रयास करें।

किशोरों को नियमित रूप से सुबह का नाश्ता करने के लिए प्रोत्साहित करें, क्योंकि सुबह का नाश्ता दिन के अधिकतर समय के लिए ऊर्जा प्रदान करने का कार्य करता है तथा व्यक्ति बाहर के खाने के सेवन से भी बचता है।

तनाव तथा खाली समय के दौरान भोजन करने से बचे। अक्सर ऐसे समय में सामान्य से अधिक भोजन खा लिया जाता है जिसके कारण मोटापे की समस्या होना आम बात है। इससे बचाव के लिए खाली समय या तनाव की स्थिति में अपने किसी मित्र के साथ घर से बाहर सैर पर जाए।

3. स्नैक्स (Snacks) : यदि संभव हो तो स्नैक्स का उपभोग दिन में केवल दो बार अधिक नहीं करना चाहिए और इसमें भी कम कैलोरी वाले खाद्य पदार्थ जैसे कि- फल तथा कच्ची सब्जियों के प्रयोग को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। शामिल की जा सकती हैं। उच्च कैलोरी अथवा उच्च वसा युक्त स्नैक्स जैसे कि- आलू के चिप्स, बिस्कुट और तले हुए खाद्य पदार्थों (समोसे, पकोड़े, छोले-भठूरे इत्यादि) के उपयोग से परहेज ही करना चाहिए।
4. पानी पीना (Drinking Water ) : प्रतिदिन चार से छह गिलास पानी पीना अच्छी आदत है। पानी में कोई कैलोरी नहीं होती और यदि भोजन से पहले पर्याप्त मात्रा में पानी पी लिया जाए तो इससे पेट भरा होने का एहसास होगा तथा व्यक्ति अतिरिक्त भोजन करने से भी बचा रहेगा। केवल ऐसे पेय पदार्थ जिनमें अत्यधिक ऊर्जा/कैलोरी होती है उनके उपभोग से परहेज करना चाहिए, जैसे कि- सॉफ्ट ड्रिंक्स और फलों के जूस बार-बार न पीएँ क्योंकि इनमें अत्यधिक ऊर्जा होती है (150-170 कैलोरी प्रति आपूर्ति)। इसके अतिरिक्त निर्जलीकरण से बचाव के लिए किशोरों को दिन में कई बार पानी, नारियल पानी, नींबू पानी इत्यादि पीने के लिए प्रोत्साहित करें।
5. डाइट जर्नल (Diet Journal) : किशोरों को ऐसी पुस्तकें तथा पत्रिकाएँ उपलब्ध करानी जानी चाहिए जिसमें स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थों संबंधी लेख छपे हो। इससे किशोरों में नियमित रूप से संतुलित आहार लेने की इच्छा को प्रोत्साहन मिलेगा। इसके अतिरिक्त उन्हें एक ऐसीसारणी उपलब्ध करवानी चाहिए जिसमें वह दैनिक आधार पर भौन्य तथा पेय पदार्थ के अंतग्रहण, टीवी देखने, वीडियो गेम खेलने और व्यायाम के समय तथा नियमित अंतराल पर मापा गया अपना शारीरिक भार का ब्यौरा भी दर्ज करते रहे। इससे यह जानने में सहायता मिलेगी कि वह संतुलित भोजन तथा स्वस्थ जीवनशैली का अनुसरण कर रहे है या नहीं।

6. व्यायाम (Exercise) : नियमित रूप से व्यायाम करना स्वस्थ जीवन के लिए मूल मंत्र है। विभिन्न प्रकार के शारीरिक क्रियाकलाप जैसे कि- खेल तथा व्यायाम इत्यादि में भाग लेने से शारीरिक तथा मानसिक सक्रियता स्तर को बेहतर बनाए रखने में सहायता मिलती है तथा शारीरिक भार भी सही बना रहता है। इसके लिए कुछ सामान्य एवं सरल उपाय/सुझाव निम्नलिखित हैं-

(i) जहाँ तक संभव हो सके पैदल चलें अथवा साइकिल चलाएँ। समझ सके।

(ii) जहाँ लिफ्ट की अपेक्षा सीढ़ियों का उपयोग करना चाहिए।

(iii) सप्ताह में 3 से 4 बार 20 से 30 मिनट के लिए नियमित व्यायाम करना चाहिए। इसमें टहलने जॉगिंग करने, तैरने अथवा साइकिल चलाने जैसे क्रियाकलाप लाभदायक रहते है। इसके अतिरिक्त रस्सी कूदना, हॉकी, बास्केट बॉल, वॉलीबॉल, फुटबॉल इत्यादि खेलना और योग करना सभी आयु वर्गों के लिए लाभदायक होता है।

(iv) बच्चों के कम्प्यूटर, टेलीविजन देखने तथा वीडियों गेम खेलने के समय को सख्ती से सीमित करें। ऐसा माना जाता है कि टेलीविजन या कम्प्यूटर देखते समय बच्चे सामान्य की अपेक्षा अधिक खाते है। इसकी अपेक्षा उन्हें विभिन्न शारीरिक क्रियाओं में व्यस्त रखने का प्रयास करें।

(v) किशोरों को लगभग प्रतिदिन कम-से-कम एक घण्टे तक व्यायाम के लिए प्रोत्साहित करें, ताकि उनका उचित शारीरिक भार बना रहें।

7. नशीले पदार्थों का उपयोग एवं दुरुपयोग (Substance Use and Abuse) : आजकल किशोरों द्वारा विभिन्न कारणों से मादक पदार्थों का सेवन और दुरुपयोग करना बहुत ही आम बात है परंतु एक विश्वव्यापी चिंताजनक समस्या है। किशोरों द्वारा विभिन्न प्रकार के नशीले पदार्थों

जैसे कि- तंबाकू, शराब (ऐल्कोहल), मेरीजुआना और अन्य नशीली दवाओं का व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। नशीली दवा और शराब के सेवन से किशोरों के पोषण और स्वास्थ्य के सभी आयामों पर बहुत ही हानिकारक एवं नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस समस्या से ग्रस्त किशोरों की शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक पुनर्वास प्रक्रिया में पोषण संबंधी हस्तक्षेप, समर्थन और परामर्श अर्थात् उन्हें स्वास्थ्यवर्धक तथा संतुलित भोजन उपलब्ध कराना तथा उसके लिए प्रेरित करना महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके साथ-साथ नशे की समस्या से ग्रस्त किशोर के साथ बैठकर नशीले पदार्थों के हानिकारक प्रभावों के विषय में समझाया जाना चाहिए।

उपरोक्त सभी उपाय शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में रहने वाले किशोरों को ध्यान में रखकर सुझाए गए है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले किशोर / किशोरी अलग ही परिवेश में रहते है। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले अधिकतर किशोर/किशोरी अपने माता-पिता के साथ किसी-न-किसी रूप में कृषि संबंधी कार्यों में संलग्न रहते हैं। इसके अतिरिक्त वह मुर्गी पालन, पशु पालन, मधुमक्खी पालन जैसे छोटे उद्यमों में भी कार्यरत रहते है।

गाँवों में माता के खेतो में जाने पर घर के छोटे बच्चों एवं बुजुर्गों की देखभाल, घर की साफ-सफाई तथा खाना बनाने की जिम्मेदारी अक्सर घर की किशोरियों की होती है। इसके साथ-साथ किशोर-किशोरी पशुओं के लिए चारा इकट्ठा करने, लकड़ी इकट्ठा करने और पानी लाने का कार्य भी संभालते है।

उपरोक्त कार्यों में संलिप्त किशोर / किशोरियों की शारीरिक सक्रियता काफी अधिक होती है और इसी कारण से उनकी ऊर्जा संबंधी आवश्यकताएँ अधिक होती है। किशोरावस्था में उच्च वृद्धि दर के कारण प्रोटीन संबंधी आवश्यकताएँ भी अधिक होती हैं। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब समुदायों में रहने वाले किशोरों के कुपोषित होने की संभावनाएँ अधिक होती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों की लड़कियाँ विशेष रूप से रक्ताल्पता (खून में लौह तत्त्व की कमी) से पीड़ित होती हैं और उन्हें स्वस्थ रहने के लिए ऐसे खाद्य पदार्थों की आवश्यकता होती है जिनमें लौह तत्त्व
प्रचुर मात्रा में मौजूद हों।

किशोरावस्था में आहार संबंधी आदतों को प्रभावित करने वाले कारक
व्यक्तिगत आंतरिक कारक  (Personal Internal Factors)बाह्य कारक (External Factors)
शारीरिक एवं क्रियात्मक आवश्यकताएँपरिवार का स्वरूप
शारीरिक छविपालन-पोषण के तरीके
व्यक्तिगत मूल्य एवं मान्यताएँसामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य एवं मान्यताएँ
आहार संबंधी पसंद-नापसंदमित्रों का प्रभाव
मनो-सामाजिक विकासफास्ट फूड्स
किशोरावस्था में स्वास्थ्यमीडिया का प्रभाव
भोजन संबंधी सनक

1. व्यक्तिगत / आंतरिक कारक (Personal / Internal Factors)

बाजार में तैयार खाद्य पदार्थों की उपलब्धता किशोरों का भोजन संबंधी व्यवहार निम्न व्यक्तिगत/आंतरिक कारकों से प्रभावित होता है-

(i) शारीरिक एवं क्रियात्मक आवश्यकताएँ (Physical and Physiological Needs) : किशोरावस्था के दौरान होने वाले तीव्र शारीरिक एवं क्रियात्मक परिवर्तनों एवं विकास के कारण किशोरों की आहार संबंधी आदतों/व्यवहार में परिवर्तन आता हैं, उदाहरण के लिए, व्यस्त दिनचर्या के कारण किशोर/किशोरियाँ घर से बाहर किसी प्रकार का फास्ट फूड लेना अधिक पसंद करते है जोकि अक्सर अधिक ऊर्जा प्रदान करने वाला होता हैं तथा उसमें विभिन्न आवश्यक पौष्टिक तत्वों की कमी होती है।

(ii)  शारीरिक छवि (Physical Image) : सभी किशोर / किशोरियाँ अपनी शारीरिक छवि के प्रति बहुत ही सजग रहते हैं और उसमें सुधार लाने के लिए निरंतर प्रयास करते रहते हैं। इन्हीं प्रयासों के कारण वह अक्सर ऐसे उपाय अपना लेते है जिनका उनके शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जैसे कि बहुत सी किशोरियाँ पतला होने के लिए बहुत ही कम मात्रा में भोजन करती है या एक समय का भोजन करना छोड़ देती है। बहुत-सी किशोरियाँ तो नियमित रूप से उपवास रखने की आदत डाल लेती हैं; जो अंतः उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक ही सिद्ध होता है उसी प्रकार बहुत से किशोर अपना शरीर गठिला बनाने के लिए ऐसे पूरक आहारों को अत्यधिक मात्रा में लेना शुरू कर देते है जिनके कारण उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

(iii)  व्यक्तिगत मूल्य एवं मान्यताएँ (Personal Values and Beliefs) : किशोरों के व्यक्तिगत मूल्य एवं मान्यताएँ भी उनके आहार संबंधी व्यवहार को काफी हद तक प्रभावित करते हैं, जैसे कि कुछ किशोर रोटी एवं दालों को मोटापे का कारण समझते हैं परंतु पास्ता, पिज्जा खाने से परहेज नहीं करते।

(iv)  आहार संबंधी पंसद-नापसंद (Food Preferences) : बाल्यावस्था के दौरान विकसित हुई आहार संबंधी पसंद-नापसंद भी किशोरों की आहार संबंधी व्यवहार को प्रभावित करती हैं; जैसे कि जो किशोर अपने बाल्यावस्था के दौरान से ही दूध पीना पसंद नहीं करते वह अक्सर किशोरावस्था के दौरान भी दूध से परहेज ही रखते हैं।

(v)  मनो-सामाजिक विकास (Psycho-social Development) : अपने जीवनकाल के दौरान हम सभी कई बार किसी-न-किसी प्रकार के मानसिक अथवा सामाजिक तनाव से जूझते हैं। कुछ विशेष प्रकार के भोजन तनाव कम करने में सहायक माने जाते है, जैसे कि- चॉकलेट, केक, पेस्ट्री आदि। प्रत्येक किशोर की तनाव के प्रति प्रतिक्रिया अलग होती है, जैसे कि कुछ किशोर भोजन का त्याग कर देते हैं, तो कुछ अत्यन्त अधिक खाने लगते है। अतः तनाव का प्रबंध सही आहार पद्धति अपनाने के लिए भी अत्यन्त आवश्यक माना जाता है।

(vi)  किशोरावस्था में स्वास्थ्य (Health in Adolescence) : अक्सर देखा गया है कि जो किशोर शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रहते। है वह अपने आहार के प्रति काफी सजग रहते है, अर्थात् वह स्वस्थ रहने के लिए स्वास्थ्यवर्धक भोज्य पदार्थों को ही प्राथमिकता देते है। वहीं जो किशोर अक्सर किसी-न-किसी शारीरिक अथवा मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्या से ग्रस्त रहते है वह अपने आहार प्रति बहुत ही लापरवाह व्यवहार रखते हैं, अर्थात् उनका आहार संबंधी व्यवहार एक स्वस्थ किशोर के आहार संबंधी व्यवहार से काफी अलग होता है।

2. बाह्य कारक (External Factors)

किशोरों का भोजन संबंधी व्यवहार निम्न बाह्य कारकों से भी प्रभावित होता है-

परिवार का स्वरूप (Characteristics of Family) : छोटे तथा बड़े परिवारों में रहने वाले किशोरों की खाद्य संबंधी व्यवहार/आदतें में काफी अंतर होता हैं। जहाँ बड़े/संयुक्त परिवारों (joint families) के बच्चे परिवार के दूसरे सदस्यों एवं बच्चों को देखा-देखी भिन्न-भिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ आराम से खा लेते है, वहीं दूसरी ओर छोटे/एकल परिवारों (nuclear families) के बच्चे खाने में बहुत चयनशील (selective) होते हैं। बचपन के दौरान विकसित हुई खाद्य संबंधी आदतें आमतौर पर किशोरावस्था के दौरान भी बनी रहती है।

पालन-पोषण के तरीके (Parenting Style) : बाल्यावस्था के दौरान बच्चों की पालन-पोषण की शैली भी किशोरावस्था में किशोरों के आहार संबंधी व्यवहार को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिए, जिन परिवारों में हमेशा से ही नियमित समय पर भोजन करने की आदत होती है उन परिवारों के किशोरों में भी वही आदत विकसित होती है। जबकि जिन परिवारों में भोजन नियमित समय पर नहीं किया जाता उन परिवारों के किशोर अक्सर भोजन के प्रति लापरवाह व्यवहार ही करते है।

मित्रों का प्रभाव (Affect of Peers) : किशोरों के आहार संबंधी व्यवहार पर उनके मित्रों का बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ता है। जब स्कूल अथवा कॉलेज में किशोर अपने मित्रों के साथ खाते-पीते हैं, तो वह एक-दूसरे के द्वारा लाए गए भोज्य पदार्थों या एक-दूसरे की पसंद-नापसंद के अनुरूप नए-नए तरह के आहार खाने में रुचि लेने लगते हैं और धीरे-धीरे उनका आहार संबंधी व्यवहार भी अपने मित्रों के आहार संबंधी व्यवहार के अनुरूप ही परिवर्तित होने लगता हैं।

सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य एवं मान्यताएँ (Socio-cultural Values and Norms) : सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य एवं मान्यताएँ भी किशोरों के खाद्य संबंधी व्यवहार को काफी हद तक प्रभावित करते है, जैसे कि- यदि किसी किशोर के परिवार, मित्र समूह या समाज में मांसाहारी भोजन नहीं खाया जाता है तो इस बात की पूरी संभावना है कि किशोर भी मांसाहारी भोजन से परहेज ही करेगा।

मीडिया का प्रभाव (Influence of Media) : वर्तमान समय में मीडिया के विभिन्न माध्यम जैसे कि- टेलीविजन, इन्टरनेट, पत्र-पत्रिकाएँ इत्यादि किशोरों के भोजन संबंधी व्यवहार को प्रभावित करने वाले बहुत ही सशक्त माध्यम बन चुके है। किशोरों का ऐसे खाद्य पदार्थों के प्रति विशेष जिज्ञासा एवं आकर्षण देखा गया है जिनका मीडिया के विभिन्न माध्यमों पर खूब प्रचार किया जाता है। जैसे कि- मेगी, बर्गर, पिज्जा, कोका-कोला इत्यादि।

फास्ट फूड्स (Fast Foods) : फास्ट फूड या तैयार भोजन (रेडी टू ईट) की सरल उपलब्धता भी किशोरों की खान-पान संबंधी आदतों को प्रभावित करती हैं। होम डिलीवरी द्वारा/वेंडिंग मशीनों से, सिनेमा हॉल में, मेलों में, खेल कार्यक्रमों में, फास्ट फूड बिक्री केंन्द्रों पर और सुविधाजनक किराने की दुकानों पर हर समय फास्ट फूड या तैयार भोजन (रेडी टू ईट) उपलब्ध होने के कारण किशोरों में इनके प्रति रूझान बढ़ाता जा रहा है।

भोजन संबंधी सनक (Food Fads) : कई बार किशोरों किसी विशेष खाद्य पदार्थ के प्रति पसंद या नापसंद इतनी अधिक बढ़ जाती है। कि वह धीरे-धीरे भोजन संबंधी सनक बन जाती है, जैसे कि- कई किशोरों में चाऊमीन या मैगी के प्रति पसंद इतनी बढ़ जाती है वह नियमित भोजन की अपेक्षा भी चाऊमीन या मैगी खाना ही पसंद करते है। उसी प्रकार कई किशोरों की दूध के प्रति अरुचि इतनी अधिक हो जाती है कि वह दूध और दूध से बने उत्पादों को ग्रहण करना पूरी तरह त्याग देते है।

पोषण संबंधी ज्ञान (Nutrition Related Knowledge) : अक्सर देखा गया है कि जिन किशोरों को पोषण संबंधी ज्ञान होता है. उनकी आहार संबंधी आदतें भी अच्छी होती हैं और वे अपने स्वास्थ्य के प्रति काफी सजग रहते हैं। इसी कारण से प्राथमिक कक्षाओं से ही बच्चों को पोषण संबंधी ज्ञान दिया जाने लगा है।

बाजार में तैयार खाद्य पदार्थों की उपलब्धता (Availability of Ready to Eat Foods in Market) : बाजार में तैयार खाद्य पदार्थों की सरल उपलब्धता भी किशोरों के भोजन संबंधी व्यवहार को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए, किशोरों में ऐसे भोज्य पदार्थों के प्रति विशेष आकर्षण देखा गया है कि जोकि होम डिलीवरी के माध्यम से, पार्टियों में तथा बाजार एवं मॉल में आसानी से उपलब्ध होते है। फिर चाहे वह संतुलित या स्वास्थ्यवर्धक आहार हो या नहीं।

किशोरावस्था में होने वाली भोजन सम्बन्धी विकृतियाँ (Eating Disorders at Adolescence)

किशोरावस्था जीवनकाल की संभवतः सबसे विशिष्ट/महत्वपूर्ण अवस्था है जिसमें तीव्र शारीरिक विकास के साथ-साथ शारीरिक छवि का भी निर्माण होता हैं। इस अवस्था में प्रवेश करते ही हर किशोर/किशोरी की यही इच्छा होती है कि वह शारीरिक रूप से आकर्षक, गठिले तथा सुंदर दिखे। किशोरावस्था के दौरान हर किशोर/किशोरी का अपना एक आदर्श (Ideal) होता है, जैसे कि कोई खिलाड़ी, कलाकार या मॉडल इत्यादि।

ऐसे में हर किशोर / किशोरी चाहता है कि वह भी अपने आदर्श के सामान ही दिखे। अपने आदर्श के सामान दिखने की चाह में किशोरियाँ दुबली-पतली होना चाहती हैं जबकि किशोर स्वस्थ व सुडौल दिखना चाहते हैं। कई बार अपने शारीरिक स्वरूप को आकर्षक बनाने की चाह किशोरों पर इस हद तक हावी हो जाती है कि उनमें भोजन संबंधी विकार उत्पन्न हो जाते हैं। किशोरावस्था के दौरान किशोरों में मुख्य रूप से तीन प्रकार के भोजन संबंधी विकार उत्पन्न हो सकते है-

1. ऐनोरॉक्सिया नरवोसा (Anorexia Nervosa)

यह भोजन व खान-पान सम्बन्धी डिसऑर्डर/मानसिक रोग है जो प्रारंभिक व मध्य किशोरावस्था में अधिक पाया जाता है। किशोरावस्था में किशोर अपने शारीरिक स्वरूप पर विशेष ध्यान देते हैं। किशोरियाँ जहाँ अपनी शारीरिक बनावट व आकर्षक देह के प्रति सजग होती हैं, वहीं किशोर भी अपने शरीर की सुडौलता व स्वास्थ्य के प्रति अधिक ध्यान देते हैं।

ऐनोरॉक्सिया नरवोसा के कारण (Causes of Anorexia Nervosa)

जैविक कारण (Biological Reasons) : अक्सर देखा गया है कि जिन किशोर/किशोरियों के परिवारों में यदि कोई एनोरॉक्सिया से ग्रसित होता है तो उनमें इस विकार के होने की संभावना भी अधिक होती है।

मानसिक कारण (Psychological Reasons) : ऐसे किशोर/किशोरियाँ जो अधिक बुद्धिमान, विवेकशील व सभी कार्यों में प्रवीण होते हैं। वह यदि अपेक्षित रूप से सफल नहीं हो पाते तो वह कई बार इस रोग से ग्रस्त हो जाते हैं।

परिवार का दबाव (Family Reasons) : सुंदर व सुडौल दिखने की चाह एवं दबाव के कारण भी युवा वह इस विकार से ग्रस्त हो सकते है।

ऐनोरॉक्सिया नरवोसा का शारीरिक प्रभाव (Physical Effects of Anorexia Nervosa)

(i) शारीरिक भार में तेजी से कमी आती है जिसके कारण शारीरिक स्वरूप बहुत ही पतला प्रतीत होता है।
(ii) किशोरियों के मासिक धर्म में अनियमितता होने लगती है।
(iii) उल्टी, शरीर के फूलने का अहसास तथा कब्ज की शिकायत रहती है।
(iv) कई स्वास्थ्य समस्याएँ जैसे- हृदय रोग, मृत्यु, शारीरिक वृद्धि में रुकावट, दांतों की समस्याएँ, लार ग्रंथि की सूजन, ओस्टोपोरोसिस, एनीमिया और रक्त सम्बन्धी बीमारियों की आशंका बढ़ जाती है।

ऐनोरॉक्सिया नरवोसा का व्यवहार पर प्रभाव (Effects of Anorexia Nervosa on Behaviour)

(i) बहुत कम भोजन खाते हैं और कई भोज्य पदार्थ बिल्कुल नहीं खाते जो वे समझते हैं कि उन्हें नुकसान पहुँचाते हैं।
(ii)  भोजन के ऊर्जा मूल्य व वसा की मात्रा के बारे में ज्यादा जानना चाहते हैं।
(iii)  सामाजिक समारोहों में जाने से बचते हैं।
(iv)  वजन कम करने के प्रयास जैसे भोजन के बाद गर्म पानी पीना या अधिक व्यायाम करते हैं।

ऐनोरॉक्सिया नरवोसा का मनोवैज्ञानिक प्रभाव (Psychological Effects of Anorexia Nervosa)

(i)  पीड़ित को हमेशा लगता है कि वे मोटे हो गए हैं। इसलिए हमेशा वजन कम करने के उपायों के बारे में सोचते रहते हैं।
(ii)  किशोर संवेगात्मक रूप से कमजोर और अस्थिर हो जाते हैं। जिसके कारण आत्मविश्वास में कमी आती है और वह निराशावादी हो जाते हैं। इस समस्या से पीड़ित व्यक्ति डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं।
(iii) कमजोरी व कम खाने की इच्छा होती है।

ऐनोरॉक्सिया नरवोसा से बचाव (Prevention of Anorexia Nervosa)

(i)  पीड़ित व्यक्ति को सामान्य वजन पर लाकर।
(ii)  मनोवैज्ञानिक कारकों को ठीक करना।
(iii)  ऐसे कारणों को दूर करना जिनके कारण वे ऐसा करने लगे हैं।

2. बुलिमिया (Bulimia)

यह भी भोजन व खान-पान सम्बन्धी समस्या ही है। इस स्थिति में किशोर बहुत ही अजीव व अस्थिर व्यवहार करते हैं। कभी वे अत्यधिक खाते हैं और दूसरे ही पल अपने वजन को कम करने का प्रयास करते हैं। इसके लिए वह भोजन के पश्चात् उल्टी करना, एनीमा लेना, दवाईयाँ व व्रत उपवास जैसे तरीके अपनाते हैं।

इस समस्या के लक्षण अधिकतर 13 से 14 साल की उम्र के किशोरों में दिखाई देते हैं। यह रोग मुख्य रूप से मध्यम व उच्च वर्गीय परिवारों की किशोरियों व महिलाओं में पाया जाता है। इस रोग के लक्षण अधिकतर वजन घटाने या तीव्र डाईटिंग के पश्चात् देखे जा सकते हैं।

बुलिमिया के कारण (Causes of Bulimia)

(i) कई किशोर/किशोरियाँ अपने वास्तविक शारीरिक स्वरूप को स्वीकार नहीं कर पाते, जिसके कारण वह इस विकार से ग्रस्त हो जाते है।

(ii) कई बार अवसाद या निराशाजनक परिस्थितियों से सामना न कर पाने की स्थिति में भी किशोर इस विकार से ग्रस्त हो जाते है।

(iii) फैशन, मॉडलिंग या अभिनय के क्षेत्र में अपना कॅरियर बनाने की चाह रखने वाले किशोर-किशोरियों पर अपने शारीरिक स्वरूप को सुन्दरव आकर्षक बनाए रखने का इतना दबाव होता है कि वह इस विकार से ग्रस्त हो जाते है।

बुलिमिया के लक्षण (Symptoms of Bulimia)

(i) इस विकार से ग्रस्त किशोरों के खाने की इच्छा नियंत्रित नहीं हो पाती। वह तक खाते है जब तक पेट में दर्द न हों।
(ii) वजन कभी तेजी से बढ़ता है तो कभी तेजी से घटता होता है।
(iii) दांतों की ऊपरी परत ‘ऐनेमल’ नष्ट हो जाती है। जिससे उनमें सड़न-छिद्र हो जाते हैं।

बुलिमिया के मनोवैज्ञानिक प्रभाव (Psychological Effects of Bulimia)

(i) पीड़ित व्यक्ति डिप्रेशन में आ जाता है व अपना स्वाभिमान खो देता है।
(ii) सामाजिक स्थिति में खुद को अटपटा सा अकेला व शर्मिंदा महसूस करता है।
(iii) कभी-कभी वे ड्रग्स व शराब के आदी हो जाते हैं।

बुलिमिया के शारीरिक प्रभाव (Physical Effects of Bulimia)

(i) जबरदस्ती की गई उल्टी से पाचनतंत्र पर गहरा प्रभाव पड़ता है। खाने की नली, पेट, अग्नाशय व छोटी आँत को नुकसान पहुँचता है।
(ii) पेट साफ करने की दवाइयाँ नियमित रूप से लेने पर पेट दर्द व कब्ज की शिकायत हो जाती है।
(iii) बुलिमिया के कारण डीहाइड्रेशन, किडनी में पत्थरी आदि हो सकती है।

बुलिमिया की स्थिति में इलाज (Treatment of Bulimia)

(i) मानसिक व्यवहार थिरैपी (Cognitive Behaviour Therapy) बुलिमिया का सबसे प्रभावी इलाज है।
(ii) पोषण थेरैपी भी कारगर सिद्ध होती है।
(iii) चिकित्सक की सलाह पर डिप्रेशन को ठीक करने वाली दवाईयाँ भी ली जा सकती है।

3. मोटापा (Obesity)

आज भारत में न केवल उच्च आयवर्ग के किशोर अपितु मध्यम तथा निम्न आय वर्ग के किशोरों में भी मोटापे की समस्या ने विकराल रूप ले लिया है। शरीर में वसा ऊत्तकों के अध्याधिक जमाव के कारण शारीरिक आकार एवं वजन में वृद्धि को मोटापा कहते हैं।

मोटापे को मापने के लिए बॉडी मास इंडेक्स (Body Mass Index – BMI) गणना का उपयोग किया जाता है। जिसमें व्यक्ति के शारीरिक भार को उसकी लम्बाई के वर्ग से भाग कर उस व्यक्ति का BMI आंका जाता है।

मोटापे के कारण (Causes of Obesity)

(i) तले हुए तथा कार्बोजयुक्त खाद्य पदार्थों का अधिक सेवन ।
(ii) कम शारीरिक क्रियाशीलता, तनाव तथा व्यस्त जीवनशैली।
(iii) मोटापे के कारण बहुत से रोग जैसे कि- मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोगों की संभावना बढ़ जाती है।
(iv) बचपन तथा किशोरावस्था में मोटापे के कारण समायोजन सम्बन्धी समस्या तथा हीनता की भावना उत्पन्न होती है।

मोटाप से बचाव के लिए सुझाव (Prevention of Obesity)

(i) घर पर बने भोजन को प्राथमिकता, नियमित समय पर भोजन करना तथा अत्याधिक स्नैक्स के सेवन से बचना।
(ii) फल एवं हरी पत्तेदार सब्जियों के सेवन को देनी चाहिए ताकि किशोर का पेट भी भरा रहे और वह अतिरिक्त कैलोरी भी ग्रहण न करें।
(iii) अधिक कैलोरीयुक्त खाद्य पदार्थों के सेवन से बचे।
(iv) नियमित रूप से व्यायाम करें।
(v) तनाव तथा खाली समय के दौरान भोजन करने से बचे।

महत्वपूर्ण शब्द और उनके अर्थ (Key Terms and thier Meaning)

(i) सक्रियता का स्तर (Activity Level) : किसी व्यक्ति द्वारा दिनभर के दौरान की जाने वाली कुल शारीरिक तथा मानसिक गतिविधियों को सक्रियता का स्तर कहा जाता है। सक्रियता का स्तर निम्न तीन प्रकार का होता है-

1. हल्का श्रम (Sedentary or Light Work)
2. मध्यम श्रम (Moderate Work)
3. कठिन श्रम (Hard Work)

(ii) संतुलित भोजन (Balanced Diet ) : संतुलित आहार का तात्पर्य उस आहार से है जिसमें विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ पर्याप्त मात्रा एवं सही अनुपात में सम्मिलित होते हैं तथा जो व्यक्ति के अच्छे स्वास्थ्य को बढ़ावा देने एवं बनाए रखने में सहायक होते है।

(iii) खाद्य वर्ग (Food Group) : खाद्य वर्ग का तात्पर्य समान गुणों वाले विभिन्न खाद्य पदार्थों को एक समूह में रखने से है। खाद्य वर्गों में खाद्य पदार्थों को उनसे प्राप्त होने वाले पोषक तत्व, स्रोत तथा विशेषताओं के आधार पर समूहित किया जाता है।

(iv) स्तनपान (Lactation) : स्तनपान का तात्पर्य धात्री मात्रा द्वारा अपने शिशु को अपना दूध पिलाने से है।

(v) शरीर क्रियात्मक स्थिति (Physiological State) : शरीर क्रियात्मक स्थिति का तात्पर्य उस स्थिति से है जिसमें शरीर की किसी विशेष अवस्था के कारण पोषक तत्वों की आवश्यकता बढ़ जाती है, जैसे कि गर्भावस्था एवं स्तनपान अवस्था।

(vi) प्रस्तावित दैनिक आवश्यकताएँ (Recommended Dietary Allowance) : पोषक तत्वों की न्यूनतम मात्रा में जब व्यक्ति की अवस्था तथा शारीरिक आवश्यकताओं के अनुरूप कुछ अतिरिक्त मात्रा जोड़ दी जाती है, तो वह प्रस्तावित मात्रा कहलाती है। स्वस्थ शरीर के लिए पोषक तत्वों प्रस्तावित मात्रा हमेशा न्यूनतम मात्रा से अधिक ही होती है।

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