NCERT Solution Class 11th गृह विज्ञान (Home Science) Chapter – 2 (B) स्वयं को समझना – स्वयं का विकास एवं विशेषताएँ (Understanding The Self Development and Characteristics of the Self)
Textbook | NCERT |
class | Class – 11th |
Subject | Physical Education |
Chapter | Chapter – 2(B) |
Chapter Name | स्वयं को समझना – स्वयं का विकास एवं विशेषताएँ |
Category | Class 11th Home Science Notes in hindi |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NCERT Solution Class 11th गृह विज्ञान (Home Science) Chapter – 2 (B) स्वयं को समझना – स्वयं का विकास एवं विशेषताएँ (Understanding The Self Development and Characteristics of the Self) Notes In Hindi इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप निम्न को समझ पाएँगे:- शैशवावस्था के दौरान स्व का निर्माण (जन्म से 2 वर्ष, शैशवावस्था के दौरान स्वयं की विशेषताएँ, प्रारंभिक बाल्यावस्था के दौरान स्वयं (3-6 वर्ष), मध्य तथा उत्तर बाल्यावस्था के दौरान स्वयं, किशोरावस्था के दौरान स्वयं और किशोरावस्था में ‘स्वयं’ की भावना की विशेषताएँ इत्यादि के बारे में पढ़ेंगे।
NCERT Solution Class 11th गृह विज्ञान (Home Science) Chapter – 2 (B) स्वयं को समझना – स्वयं का विकास एवं विशेषताएँ (Understanding The Self Development and Characteristics of the Self)
Chapter – 2 (B)
स्वयं को समझना – स्वयं का विकास एवं विशेषताएँ
Notes
भूमिका (Introduction)
जन्म के समय कोई भी शिशु ‘स्वयं की भावना’ (sense of self) के साथ पैदा नहीं होता, अपितु जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है विभिन्न अनुभवों के फलस्वरूप उसमें ‘स्वयं’ की भावना का निर्माण एवं विकास होता जाता है। अध्याय के इस खंड में हम जीवन चक्र के विभिन्न चरणों जैसे कि- शैशवकाल, प्रारंभिक बाल्यावस्था, मध्य बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था के दौरान ‘स्वयं’ के विकास और विशेषताओं के विषय में पढ़ेंगे। |
शैशवावस्था के दौरान स्व का निर्माण (जन्म से 2 वर्ष) [Self During Infancy (Birth to 2 Years)] जन्म के समय किसी भी शिशु को अपने अनूठे अस्तित्व के विषय में कोई जानकारी या ज्ञान नहीं होती है, अर्थात् शिशु इस तथ्य से पूरी तरह अनजान होता है कि वह दूसरों से अलग अथवा स्वयं में एक विशिष्ट व्यक्ति (unique) है। दूसरे शब्दों में कहें तो, शिशु की स्वयं के प्रति कोई जानकारी या समझ या पहचान (self-awareness or self-understanding or self-recognition) नहीं होती है, या यूँ कहें कि- शिशु के दिमाग में स्वयं के प्रति कोई मानसिक चित्रण नहीं होता है। उदाहरण के लिए, जब एक शिशु अपना हाथ अपने चेहरे के सामने लाता है और उसे देखता है, तो उसे इस बात का एहसास तक नहीं होता है कि वह हाथ उसका है। इसी प्रकार, वह यह तक महसूस नहीं कर पाता है कि वह अपने आसपास के अन्य लोगों से अलग और विशिष्ट (different and unique) है। |
शैशवावस्था के दौरान स्वयं की विशेषताएँ (Characteristics of Self During Infancy) (i) ‘स्वयं’ की भावना शैशवकाल के दौरान क्रमिक रूप से उत्पन्न होती है और लगभग 18 महीने की आयु तक स्वयं की छवि की पहचान होने लगती है। (ii) स्वयं की पहचान की शुरूआत शिशु की स्वयं के प्रति जागरूकता के साथ शुरू होती है कि वह दूसरों से अलग और विशिष्ट है। स्वयं के प्रति जागरूकता के प्रारंभिक संकेत शैशवावस्था के दौरान दिखने लगते हैं जब बच्चा खुद को पहचानना शुरू कर देता हैं। उदाहरण के लिए, जब शोधकर्त्ताओं ने एक दो वर्षीय बच्चे को दर्पण के सामने खड़ा कर दिया जाए तो वह बच्चा दर्पण के प्रतिबिंब में स्वयं को छूने लगता हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वह स्वयं की प्रतिबिंबित छवि को पहचानने लगते हैं। (iii) दूसरे वर्ष की लगभग दूसरी छमाही के दौरान शिशु व्यक्तिगत सर्वनामों का उपयोग करना शुरू कर देते हैं, जैसे कि- मैं, मेरा इत्यादि। वे इन शब्दों का उपयोग किसी व्यक्ति या वस्तु पर अपने अधिकार को जताने के लिए करते हैं, जैसे कि- “मेरा खिलौना” या “मेरी माँ” इत्यादि इसके अतिरिक्त वह अपने बारे में अथवा जो कार्य वह कर रहा है उसे बताने अथवा अपने अनुभवों को बताने जैसे “मैं खाना खा रहा हूँ”, के लिए भी इनका उपयोग करते हैं। (iv) इस समय तक शिशु स्वयं को तस्वीरों में भी पहचानने लगते हैं। |
प्रारंभिक बाल्यावस्था के दौरान स्वयं (3-6 वर्ष) [‘Self During Early Childhood (3-6 Years) ] सामान्यतः 3 वर्ष तक की आयु के बच्चों में भाषा का विकास हो जाता है, जिसके फलस्वरूप उनकी अपने बारे में समझ (self-understanding) को जानने के लिए उनसे बातचीत भी करी जा सकती है। इस आयु वर्ग के बच्चे धीरे-धीरे अपनी क्षमताओं तथा विशिष्टताओं के विषय में समझने लगते हैं, जैसे वह कहते है कि- मैं बहादुर बच्चा हूँ, मैं फुटबॉल से खेलता हूँ, इत्यादि। पूर्व बाल्यावस्था की शुरूआत में बच्चों में स्वयं की संकल्पना उभरने लगती है। |
3-6 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए स्वयं की अवधारणा भिन्न-भिन्न विशिष्टताओं के आधार पर निम्न प्रकार से वर्गीकृत की जा सकती है- 1. शारीरिक विशिष्टताओं के आधार पर (On the Basis of Physical Characteristics) : पूर्व बाल्यावस्था में बच्चे अपने शारीरिक स्वरूप को लेकर अत्यन्त उत्साहित तथा गर्वित महसूस करते हैं। उनके लिए उनकी शारीरिक रचना अपने आप में पूर्ण तथा सबसे सुन्दर होती है। हालांकि इस अवस्था में वह अपने स्वरूप की तुलना दूसरों से नहीं कर पाते। उदाहरण के लिए, 3-6 वर्ष का बालक स्वयं के लिए कहेगा कि वह लम्बा है, वह मजबूत है। हालांकि वह अभी यह नहीं समझ पाता कि किसी बच्चे से लम्बा तो किसी बच्चे छोटा दिखता है। |
2. मूर्त गतिविधियों के आधार पर (On the Basis of Concrete Activities) : 3-6 वर्ष के बच्चों के लिए स्वयं की पहचान, उनके द्वारा किए गए कार्यों के आधार पर भी बनती है। उदाहरण के लिए, ‘मैं बहुत तेज साइकिल चलाता हूँ’ या ‘मैं बहुत अच्छा क्रिकेट खेलता हूँ।’ वे स्वयं को खुद की क्षमताओं के आधार पर आंकते है। |
3. स्मरण शक्ति के आधार पर (On the Basis of Memory Power) : इस आयु में उनकी स्वयं के प्रति संकल्पनाओं में वह वाक्य होते है जिन्हें वे अक्सर अपने माता-पिता तथा परिवारजनों से उनके विषय में सुनते हैं। जैसे कि अक्सर माता-पिता बच्चे से यह कहते हैं कि- जब यह छोटा था तो बहुत हँसता था या बहुत सुन्दर नर्सरी कविताएँ बोलता था। बच्चे इन वाक्यों से स्वयं को जोड़कर देखते हैं तथा ये विशेषताएँ उनके लिए स्वयं की पहचान का आधार बन जाती हैं। |
4. आन्तरिक कल्पनाओं के आधार पर (On the Basis of Inner Imagination) : इस आयु के बच्चे कविता, कहानी, टेलीविजन पर कार्टुन इत्यादि बहुत ध्यानपूर्वक देखते हैं। अक्सर बच्चों में अपने पसंदीदा कार्टून किरदार या सुपर हीरो की छवि मन में बस जाती है तथा वह स्वयं को भी उन्हीं की तरह देखने व समझने लगते है। उदाहरण के लिए, बच्चे जब स्पाइडरमैन के वस्त्र पहनकर उसी तरह के हाव-भाव में व्यवहार करते हैं या डॉक्टर की तरह व्यवहार करते हुए अपनी गुड़ियाँ या खिलौने का इलाज करते है। सेट से डॉक्टर की तरह मरीज का इलाज करते हैं। |
5. अपने अलग-अलग गुणों को पहचानने में असमर्थ (Unable to Recognise Their Different Attributes) : छोटे बच्चे यह पहचानने में भी असक्षम होते हैं कि उनमें भिन्न-भिन्न गुण हो सकते हैं, जैसे कि वे अलग-अलग समय में “अच्छे” या “बुरे”, “मतलबी’ या ‘आकर्षक’ हो सकते हैं। अपने प्री-स्कूल समय के दौरान, बच्चा अन्य बच्चों के संपर्क में आता हैं और वहाँ पर वह स्वयं और दूसरे के बच्चों के बीच अंतर और समानता समझने लगता है। इस समय के दौरान, वे संख्याएँ, अक्षर सीखते हैं और यहाँ तक कि अपना नाम, वर्ग, माता-पिता के नाम आदि भी बताने में सक्षम हो जाते हैं। |
मध्य तथा उत्तर बाल्यावस्था के दौरान स्वयं (7-11 वर्ष) [Self During Middle and Late Childhood (7-11 Years)] 7- 11 वर्ष की आयु को मध्य तथा उत्तर बाल्यावस्था कहते है। इस अवस्था में बच्चों की स्वयं प्रति सोच अधिक जटिल हो जाती है। वे स्वयं को दूसरों की तुलना में आंकने लगते है तथा अपनी क्षमताओं के प्रति अधिक सचेत हो जाते हैं। यद्यपि अभी भी उनकी अवधारणाएँ अपरिपक्व स्तर पर ही होती है। इस अवस्था में बच्चों की स्वयं की अवधारणा निम्न विशिष्टताओं के आधार पर निर्मित होती है- |
1. आंतरिक विशेषताओं के आधार पर (On the Basis of internal charactertics) : इस अवस्था के दौरान बच्चा अपनी शारीरिक विशेषताओं के अपेक्षा अपनी आंतरिक विशेषताओं को अधिक महत्व देने लगता है, बच्चे अपने शारीरिक स्वरूप की अपेक्षा अपनी कार्यक्षमता को सिद्ध करने पर गर्वित महसूस करते हैं। उदाहरण के लिए, मैं बहुत तेज दौड़ना हूँ या फिर मैं बहुत अच्छा डांस करती हूँ, मुझे मित्रों के साथ खेलना अच्छा लगता है, मैं पढ़ने में तेज हूँ, इत्यादि। |
2. सामाजिक पहचान के आधार पर (On the Basis of Social Indentity) : इस अवस्था के बच्चों का सामाजिक दायरा बढ़ने लगता है। वे स्वयं को अन्य लोगों विशेषकर अपने हमउम्र मित्रों द्वारा स्वीकारे जाने तथा उनसे तुलना के प्रति अधिक जागरुक होने लगते है। उदाहरण – सामाजिक बच्चा अपना विवरण अपने सामाजिक गुट (social group) व अपनी अलग पहचान द्वारा देता है, उदाहरण के लिए, “मैं अपनी क्लास का मॉनीटर हूँ” या “मैं क्लास की जंगल टीम का हिस्सा हूँ।” अपने दोस्तों द्वारा पार्टी पर बुलाए जाना, किसी स्पोर्टस क्लब का सदस्य होना उनके लिए महत्त्वपूर्ण होता है, क्योंकि इन सबसे उसे एक विशेष सामाजिक पहचान प्राप्त होती है। |
3. सामाजिक तुलना के आधार पर (On the Basis of Social Comparisons) : उत्तर बाल्यावस्था में बच्चे दूसरो की तथा स्वयं की क्षमताओं को आंकने तथा उनकी तुलना करने लगते हैं। इस अवस्था में अधिकतर बच्चे स्वयं को दूसरों से तुलना में अधिक आंकने लगते हैं। उदाहरण के लिए, अधिकतर बच्चे अपनी कल्पनाओं में स्वयं को दूसरों से अच्छा तैराक, डांसर तथा गायक इत्यादि समझते हैं। जैसे कि- “मैं अपनी कक्षा में सबसे अधिक होशियार हूँ”, “मैं अपने भाई से लंबा हूँ”, “मुझे अपनी बहन से अधिक अच्छी ड्राइंग आती है”। |
4. वास्तविक एवं आदर्श स्वं के आधार पर (On the Basis of Real and Ideal Self) : इस अवस्था के दौरान बच्चे अपने वास्तविक स्वयं और आदर्श स्वयं में अंतर समझने एवं करने लगते हैं। अतः वे अपनी वास्तविक क्षमताओं, जो उनके पास हैं, और जो उसके पास होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, इस अवस्था के दौरान वह यह समझ जाते है कि अच्छे अंक प्राप्त करने के लिए उन्हें अधिक परिश्रम करने की आवश्यकता है, मित्रता बनाए रखने के लिए उन्हें अधिक विनम्र होना पड़ेगा इत्यादि। |
5. मित्र समूह की स्वीकार्यता के आधार पर (On the Basis of Acceptance Among Friend) : मध्य तथा उत्तर बाल्यावस्था में बच्चे के मन में स्वयं की छवि उसके मित्रों की स्वीकार्यता के आधार पर भी निर्धारित होती है। हर बच्चा स्वयं को अपने मित्रों के समरूप या उनसे ऊपर देखना चाहता हैं। इसके लिए वह स्वयं के लिए हर वह गुण अर्जित करना चाहते हैं, जो उन्हें दूसरों की नजरों में सम्मान तथा स्वीकार्यता दें। |
6. आयु बढ़ने के अनुरूप बच्चे का स्वयं का विवरण अधिक वास्तविक होता जाता है। ऐसा वस्तुओं और स्थितियों को अन्य लोगों के नज़रिए से देखने की क्षमता के विकास के कारण होता है। |
किशोरावस्था के दौरान स्वयं (‘Self’ During Adolescence) किशोरावस्था के दौरान स्वयं की समझ अत्यधिक जटिल हो जाती है। ‘स्वयं’ की पहचान के विकास के लिए किशोरावस्था को बहुत ही महत्वपूर्ण समय माना गया है। पहचान के विकास हेतु किशोरावस्था महत्वपूर्ण क्यों है? (Why is Adolescence a Critical Time for Identity Development?) प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एरिक एच. एरिक्सन के अनुसार-विकास की प्रत्येक अवस्था अर्थात् शैशवावस्था से वृद्धावस्था तक, हर व्यक्ति को कुछ ऐसे विशेष विकासोचित कार्य (developmental task) पूरे करने होते है जिन्हें पूरे किए बिना व्यक्ति विकास के अगले चरण में प्रवेश नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, उत्तर शैशवास्था तथा प्रारंभिक बाल्यावस्था (2-4 वर्ष की आयु के बीच) के दौरान बच्चों के लिए अपनी आंतों व मूत्राशय की क्रियाओं पर नियंत्रण प्राप्त करना जरूरी है, इसके बिना बच्चे के लिए विभिन्न प्रकार की सामाजिक तथा सामुदायिक क्रियाकलापों में भाग लेना असंभव सा हो जाएगा। एरिक्सन का यह भी मानना था कि, स्वयं की पहचान की भावना विकसित करना अर्थात् स्वयं को संतोषजनक रूप में दर्शाना भी किशोरावस्था का एक मुख्य कार्य है। किशोरावस्था के दौरान किशोरों का अधिकतर समय एवं ध्यान उनके स्वयं के विकास पर ही केंद्रित रहता है इसलिए किशोरावस्था व्यक्ति की पहचान के विकास के लिए महत्वपूर्ण अवस्था है। |
निम्न कारणों से किशोरावस्था को ‘स्वयं’ की पहचान बनाने के संदर्भ में कठिन समय माना जाता है- 1. ऐसा माना जाता है कि, किशोरावस्था ही वह अवस्था है जिससे पहले कभी भी व्यक्ति ‘स्वयं’ को जानने में इतना आतुर नहीं होता अर्थात् किशोरावस्था के दौरान ही व्यक्ति पहली बार स्वयं को समझने के लिए अत्यधिक चिंतित होता है। 2. किशोरावस्था ही वह अवस्था है जिसके अंतिम वर्षों में व्यक्ति ‘स्वयं’ और ‘पहचान’ की लगभग स्थाई भावना (everlasting sense) निर्मित कर लेता है और लगभग पक्के तौर पर यह कह सकता है कि- “मैं यह हूँ।” 3. किशोरावस्था ही जीवन की एक मात्र ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति की पहचान पर तीव्र गति से हो रहे शारीरिक परिवर्तनों और तेजी से बदलती सामाजिक अपेक्षा का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। |
किशोरावस्था के दौरान ‘स्वयं’ का विकास (Developmnet Self During Adolescence) 1. किशोरावस्था के दौरान हर किशोर से यह अपेक्षा की जाती है कि वह बड़ों की तरह परिपक्व व्यवहार करें अर्थात् वह भी पारिवारिक तथा सामाजिक कार्यों में अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करें। यहाँ इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि किशोरों का निर्भर से आत्मनिर्भर बनने का सफर विभिन्न संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न रूप से होता है। जैसे कि- पश्चिमी संस्कृति में किशोरों का अपने माता-पिता से अलग होकर कहीं और रहना, आत्मनिर्भरता माना जाता है, जबकि गैर-पश्चिमी संस्कृतियों और भारतीय संस्कृति में परिवार में रहकर अंतर-निर्भरता पर अधिक ध्यान दिया जाता है। |
2. किशोरावस्था, किशोरों और अन्य लोगों के बीच दुविधाओं और असहमतियों की अवस्था होती है। उदाहरण के लिए, आमतौर पर देखा जाता है कि किशोर साथ बच्चों की तरह व्यवहार करने पर वह विद्रोह कर बैठते है लेकिन साथ ही अपने लिए वैसी ही सांत्वना भी पाना चाहता है, जैसे कि- मुश्किल समय में एक छोटा बच्चा चाहता है। |
3. हर माता-पिता अपने किशोर बच्चों से बड़ों के अनुरूप व्यवहार करने की अपेक्षा करते है लेकिन कई बार वहीं माता-पिता किशोरों के साथ बच्चों की तरह व्यवहार करते हैं। माता-पिता का अपने किशोरों के प्रति ऐसा व्यवहार, संस्कृति और परिवार की अपेक्षाओं के अनुसार तथा लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग हो सकता है। उदाहरण के लिए, हर माता-पिता चाहते है कि उनके किशोर बच्चे पारिवारिक तथा सामाजिक कार्यकर्मों में बड़ों के अनुरूप वस्त्र पहने तथा उन्हीं की तरह व्यवहार करें परंतु जब परिवार को कोई अहम निर्णय लेना हो तो उस समय किशोरों की राय को कोई एहमियत नहीं दी जाती है अर्थात् उस समय उन्हें केवल बच्चा ही समझा जाता है। ऐसी स्थिति में किशोर परस्पर विरोधी भावनाओं का अनुभव करते है। |
4. हर व्यक्ति अलग-अलग परिस्थितियों में अपने-अपने ढंग से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। किशोरावस्था के दौरान परिवार और समाज की अत्यधिक अपेक्षाएँ, किशोर की स्वयं की बदलती हुई आवश्यकताएँ और परस्पर विरोधी संवेग उसके नए-नए विकसित हो रहे स्वत्व को प्रभावित करते हैं। ऐसी स्थिति में किशोर अपनी ‘भूमिका संबंधी उलझन’ अथवा ‘पहचान संबंधी उलझन’ का अनुभव करते हैं। इसे स्वयं की पहचान बनाने का संकट (identity crisis) भी कहते है। किशोर उन परिस्थितियों में ‘पहचान के संकट की भावना’ अथवा ‘भूमिका संबंधी उलझन’ का अनुभव करता है जब वह यह महसूस करता है कि पहले की तुलना में अब जिन कार्यों को करने की और जिस तरह का व्यवहार करने की उससे अपेक्षा की जाती है, उनमें बहुत अंतर है (gap between what is expected to do and how to behave as compared to earlier)। |
5. यह समझना बहुत जरूरी है कि- किशोर का पहचान बनाना विकास की प्रक्रिया का एक सामान्य हिस्सा है। इस प्रक्रिया के दौरान किशोर जिन भी विरोधाभासी भावनाओं और संवेगों को अनुभव करता है, वह वास्तव में विकास प्रक्रिया का ही भाग है। |
किशोरावस्था में ‘स्वयं’ की भावना की विशेषताएँ (Characteristics of an Adolescent’s Sense of ‘Self’) किशोरावस्था के दौरान किशोरों की स्वयं की भावनाओं की निम्न विशेषताएँ होती है- 1. अमूर्त आत्म-वर्णन (Abstract Self-descriptions) : किशोरावस्था के दौरान किशोरों का आत्म-विवरण अमूर्त रूप में होता है। इस अवस्था के दौरान वह अपनी शारीरिक विशेषताओं जैसे कि- लंबाई, मजबूती, खूबसूरती इत्यादि पर जोर देने की अपेक्षा स्वयं के व्यक्तित्व के आंतरिक गुणों पर अधिक बल देते है। इस अवस्था के दौरान वह अक्सर स्वयं का विवरण शांत, संवेदनशील, बहादुर, भावुक अथवा सच्चा होने के रूप में दे सकते हैं। |
2. विरोधाभासी आत्म-विवरण (Contradictory Self-descriptions ) : किशोरावस्था के दौरान किशोरों के स्वयं के विवरण में कई विरोधाभास होते हैं, जैसे कि, कई किशोर अपने बारे में कुछ इस प्रकार से विवरण देते है- “वैसे तो मैं शांत रहता हूँ लेकिन आसानी से विचलित हो जाता हूँ” अथवा “वैसे तो मैं काफी चुपचाप रहता हूँ परंतु मित्रों की संगती में बहुत बातें करता हूँ”। |
3. स्वयं की समझ में अस्थिरता (Fluctuating in Sense of Self) : किशोर स्वयं के प्रति भावनाओं में काफी उतार-चढ़ाव का अनुभव करते है। इसका मुख्य कारण यह है कि किशोर भिन्न-भिन्न परिस्थितियों का अनुभव करते हैं और उन पर अपनी प्रतिक्रिया अलग-अलग ढंग से व्यक्त करते हैं। इन सबके चलते किशोरों की स्वयं के बारे में समझ परिस्थिति और समय के अनुसार बदलती रहती है। जैसे कि- जब आपने दसवीं कक्षा को पास कर ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश किया तो आपने यह जरूर महसूस किया होगा कि अब आप वयस्क होने लगे परंतु घर पर जब आपके माता-पिता आपको पहले की तरह बच्चा समझ कर ही व्यवहार करते है तो आप निश्चित ही सोच में पड़ जाते होगें कि क्या आप अभी भी बच्चे ही है या बड़े हो गए है। |
4. आत्म-वर्णन में आदर्श और वास्तविक आत्म शामिल हैं (Self-descriptions contains The Ideal and The Real Self) : प्रत्येक किशोर को इस बात का अंदाजा होता है कि वह आदर्श रूप से क्या और कैसे बनना चाहता है। इसे ‘आदर्श स्वयं’ कहा जा सकता है। हम सब अपने आदर्श स्वयं के समान ही बनना चाहते है। उदाहरण के लिए, एक लड़की जो वास्तव में गेहूँए रंग की और दिखने में साधारण सी होती है, गोरी और सुंदर दिखना चाहती है। किशोरों के स्व-विवरण में उनका ‘आदर्श-स्वयं’ और ‘वास्तविक-स्वयं’ शामिल होता हैं। हालांकि किशोरावस्था के दौरान उनका आदर्श स्वयं अधिक प्रमुख हो जाता है। |
5. आत्म-सचेत (Self-conscious) : किशोरावस्था वह अवधि होती है जब किशोर स्वयं के प्रति बहुत अधिक आत्म-सचेत होते हैं और स्वयं में ही मगन रहते हैं। इस अवधि के दौरान उन्हें यह लगता है कि उन्हें हर समय देखा (notice) जा रहा है। संभवत: इसी कारण से अधिकतर किशोर अपनी शारीरिक बनावट और रूप-रंग को लेकर हर समय चिंतित रहते हैं। किशोरावस्था के दौरान व्यक्तिगत पहचान की सकारात्मक भावना विकसित करना बहुत जरूरी है। इससे किशोरों को अन्य लोगों के साथ स्थायी. सार्थक (meaningful) संबंध बनाने में आसानी होती हैं। नकारात्मक स्व की भावना से ग्रस्त व्यक्ति दूसरों के साथ कभी भी स्थायी तथा मधुर संबंध स्थापित नहीं कर सकता। इसके अतिरिक्त ऐसे लोग आसानी से अकेलेपन और अवसाद का शिकार हो सकते है। |
N.C.E.R.T. Textbook Question-Answers
उदाहरण देते हुए निम्नलिखित अवस्थाओं के दौरान ‘स्वयं’ की विशेषताएँ बताएँ? (a) शैशवकाल के दौरान उत्तर – (a) शैशवकाल के दौरान : स्वयं के प्रत्यय का निर्माण क्रमिक रूप से होता हैं- (i) 1½ वर्ष के शिशु को स्वयं की छवि (प्रतिबिंब) की पहचान होने लगती है। (ii) 2-2½ वर्ष का बच्चा सर्वनाम का प्रयोग जैसे ‘मैं’, ‘मेरा’ का प्रयोग करने लगता है। (iii) तस्वीरों में स्वयं की तस्वीर पहचानने लगता है अर्थात् स्वयं को दूसरों में अलग एवं विशिष्ट आंक सकता है। |
(b) प्रारंभिक बाल्यावस्था के दौरान : (i) 3 वर्ष तक की आयु तक भाषा के विकास के फलस्वरूप बच्चे स्वयं के लिए विशेषणात्मक भाषा का प्रयोग करने लगते हैं जैसे कि- ‘मैं अच्छा बच्चा हूँ’। (ii) इस अवस्था में बच्चे के लिए स्वयं का निर्माण उसकी शारीरिक विशिष्टताओं पर आधारित होता है, जैसे कि- ‘मैं लम्बा हूँ’ तथा ‘मैं मजबूत हूँ’। (iii) वे अपने आप को केवल मूर्त गतिविधियों एवं आन्तरिक कल्पनाओं के आधार पर पहचानते हैं। |
(c) मध्य बाल्यावस्था के दौरान : (i) 6-9 वर्ष का बच्चा अपनी आन्तरिक विशिष्टताओं का महत्व देने लगता है, जैसे कि- ‘मैं सबसे तेज दौड़ता हूँ’ तथा स्वयं की दूसरों से तुलना करने लगते है। (ii) इस आयु में बच्चे स्वयं को आदर्श एवं वास्तविक स्व के अन्तर के आधार पर आंकना शुरू कर देते है अर्थात् वे समझते हैं कि कक्षा में सबसे अधिक अंक लाने के लिए उन्हें अधिक मेहनत करनी पड़ेगी। (iii) इस आयु में बच्चों के लिए मित्र महत्वपूर्ण होने लगते हैं। वे अपने मित्रों जैसे कि- कपड़े, खिलौने इत्यादि लेना चाहते हैं। |
(d) किशोरावस्था के दौरान : (i) इस अवस्था में किशोर विभिन्न कारणों से तनाव तथा मानसिक उथल-पुथल की स्थिति से गुजरते हैं अतः उनका स्वयं के लिए विवरण विरोधाभासी हो जाता है, जैसे कि मैं तो शांत रहता हूँ पर कभी-कभी विचलित हो जाता हूँ। (ii) स्वयं के लिए आदर्श तथा अमूर्त विवरण जैसे अत्यधिक संवेदनशील, ईमानदार इत्यादि। |
2. “किशोरावस्था ऐसा समय है जब सभी किशोर पहचान के संकट का अनुभव करते हैं”। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने उत्तर के पक्ष में कारण दें। उत्तर – जी हाँ, मैं इस कथन से पूरी तरह से सहमत हूँ कि- “किशोरावस्था के दौरान सभी किशोर पहचान के संकट का अनुभव करते हैं”। किशोरावस्था के दौरान परिवार एवं समाज की किशोरों से अत्याधिक अपेक्षाएँ तथा किशोरों की बदलती आवश्यकताएँ एवं परस्पर विरोधी संवेग पहचान संबंधी संकट उत्पन्न करते हैं। इसी अवस्था में किशोर स्वयं के बारे में अत्याधिक चिन्तित होता है तथा परिवार तथा समाज में अपनी भूमिका के प्रति भी सचेत रहना चाहता है। |
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