NCERT Solution Class 11th गृह विज्ञान (Home Science) Chapter – 2 (A) स्वयं को समझना मुझे “मैं” कौन बनता है? (Understanding Yourself Who makes me “I”?) Notes In Hindi

NCERT Solutions Class 11th गृह विज्ञान (Home Science) Chapter – 2 (A) स्वयं को समझना मुझे “मैं” कौन बनता है? (Understanding Yourself Who makes me “I”?)

TextbookNCERT
classClass – 11th
SubjectPhysical Education
ChapterChapter – 2
Chapter Nameस्वयं को समझना मुझे “मैं” कौन बनता है?
CategoryClass 11th Home Science Notes in hindi
Medium Hindi
SourceLast Doubt

NCERT Solution Class 11th गृह विज्ञान (Home Science) Chapter – 2 (A) स्वयं को समझना मुझे “मैं” कौन बनता है? (Understanding Yourself Who makes me “I”?) Notes in hindi इस अध्याय को पढ़ने के बाद आप निम्न को समझ पाएँगे:- स्वतत्व क्या है?, व्यक्तिगत आयाम, सामाजिक आयाम, तादात्मय/पहचान क्या होती है?, स्वाभिमान/आत्म-सम्मान/स्वमान (Self-Esteem) और व्यक्ति को स्व-संकल्पना और पहचान का विकास निम्नलिखित कारकों से प्रभावित होता है इत्यादि के बारे में पढ़ेंगे।

NCERT Solutions Class 11th गृह विज्ञान (Home Science) Chapter – 2 (A) स्वयं को समझना मुझे “मैं” कौन बनता है? (Understanding Yourself Who makes me “I”?)

Chapter – 2 (A)

स्वयं को समझना मुझे “मैं” कौन बनता है?

Notes

भूमिका (Introduction)

हम सब में ऐसी कई बातें है जो काफी हद तक हमारे माता-पिता, भाई-बहन, किसी रिश्तेदार या मित्र से काफी हद तक मिलती-जुलती हैं, जैसे कि- हमारा चेहरा या रंगत माता या पिता से मिलता-जुलता हैं, हमारी कोई विशेष आदत किसी भाई-बहन या रिश्तेदार इत्यादि से मिलती-जुलती हैं या फिर हमारी कोई रुचि हमारे मित्र की रुचि के अनुरूप हो सकती है।

ऐसी ही कई समानताओं के बावजूद भी हम सब इन सबसे किसी-न-किसी रूप में अलग हैं और हमारी दूसरों से यहीं असमानता हमें एक अलग व्यक्ति बनाती है। दूसरों से अलग होने की अनुभूति ही हम में स्वयं/मैं (self) होने का एहसास जगाती है। ‘मैं’ होने की अनुभूति, ‘आप’ ‘वे’ और ‘अन्य’ से काफी अलग होती है। अध्याय के इस खण्ड में हम निम्न के विषय में पढ़ेंगे।

  • हम ‘स्वयं’ की इस अनुभूति का विकास कैसे करते हैं? (How do we develop the sense of self?)
  • हम अपने बारे में क्या सोचते हैं और हम अपना वर्णन किस प्रकार करते हैं- क्या यह समय के साथ बदल जाता है? (What we think and how we describe ourselves, and does it change over the years?)
  • ‘स्वयं’ के कौन से तत्त्व हैं? (What are the elements of the self?)
  • हमें ‘स्वयं’ के बारे में अध्ययन क्यों करना चाहिए? (Why should we study about the self?)
  • क्या हमारा ‘स्वयं’ हमारे लोगों से मेलजोल के ढंग को प्रभावित करता है? (Does our self influence the way we interact with people?)
  • ‘स्वयं’ के अन्य रोचक पक्ष (Other interesting aspects of the self)

पहचान और व्यक्तित्व दो ऐसी महत्वपूर्ण अवधारणाएँ हैं जो स्वयं की संकल्पना के जुड़ी हुई हैं। हालांकि बहुत से मनोवैज्ञानिक अपनी-अपनी परिभाषाओं के आधार पर आत्म/स्वयं, पहचान और व्यक्तित्व की अवधारणाओं के बीच अंतर करते हैं. लेकिन फिर भी ये तीनों अवधारणाएँ एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। पहचान और स्वयं हर व्यक्ति के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग हैं।

परिभाषाएँ

(i) ‘स्व’ (self) को व्यक्ति के विशिष्ट चरित्र या व्यवहार के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
(ii) ‘पहचान’ (identity) को किसी व्यक्ति के विशिष्ट चरित्र या व्यक्तित्व के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
(iii) ‘व्यक्तित्व’ (personality) को उन विशेषताओं के समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो किसी व्यक्ति को दूसरों से अलग करते हैं।

स्वतत्व क्या है? (What is Self?)

(i) स्वयं की अनुभूति का अर्थ है, यह अनुभव करना कि हम कौन हैं, और कौन-सी बातें हमें दूसरों से अलग बनाती है।

किशोरावस्था वह अवस्था होती है जब लगभग हर किशोर/किशोरी यह सोचना शुरू कर देता है कि- मैं कौन हूँ तथा वह कौन-सी बातें हैं। जो मुझे दूसरों से अलग बनाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो, किशोरावस्था वह अवस्था होती है जब कोई व्यक्ति खुद को परिभाषित करना शुरू करता हैं। ‘आत्म’ एक व्यक्ति की पहचान होती है।

यदि एक कक्षा में किशोर/किशोरियों को एक पंक्ति में स्वयं को परिभाषित करने के लिए कहा जाए तो इस बात की पूरी सम्भावना है कि हर छात्र का स्वयं के प्रति विवरण दूसरों छात्रों से अलग होगा, जैसे कि- कुछ छात्र अपनी शारीरिक छवि के संदर्भ में अपने आप को वर्णित करेंगे तो वहीं कुछ छात्र अपनी मानसिक तथा सामाजिक कौशलों, क्षमताओं अथवा सम्भावनाओं के संदर्भ में स्वयं को वर्णित करेंगे।

‘स्व’ शब्द का तात्पर्य किसी व्यक्ति के अनुभवों, विचारों और भावनाओं की समग्रता से है जो वह स्वयं के संबंध में रखता है। स्वयं को परिभाषित करने का यह एक विशिष्ट तरीका है। हम अपने बारे में जो विचार रखते हैं वास्तव में वही स्वयं की धारणा है।

उपरोक्त चित्र एवं उदाहरण में किशोरों द्वारा स्वयं को विभिन्न आयामों में वर्णित करने से यह सिद्ध होता है कि हर व्यक्ति का स्वयं के बारे में अपना अलग दृष्टिकोण/आयाम होता है। आमतौर पर स्वयं को निम्नलिखित आयामों में वर्णित किया जा सकता है

1. व्यक्तिगत आयाम (Physical Dimension) : व्यक्तिगत आयाम वे पहलू है जो केवल व्यक्ति से संबंधित होते हैं। स्वयं के व्यक्तिगत आयाम में निम्नलिखित शामिल हैं।

(a) शारीरिक आयाम (Physical Dimension) : शारीरिक आयाम, ‘स्वयं की अवधारणा’ के निर्माण के लिए संभवतः सबसे महत्वपूर्ण आयाम है। यह स्वयं की अवधारणा के लिए आधार का कार्य करता है। व्यक्ति के शारीरिक गुण, क्षमता और कौशल उसके शारीरिक आयाम का निर्माण करते है।

(b) भावनात्मक आयाम (Emotional Dimension) : भावनात्मक आयाम किसी व्यक्ति की उन भावनाओं से संबंधित है, जो आंतरिक या बाहरी परिवर्तनों के कारण उभरती हैं। प्रेम, ईर्ष्या, क्रोध, भय और घृणा विभिन्न प्रकार की मानवीय भावनाओं के उदाहरण हैं।

(c) मानसिक आयाम (Mental Dimension) : किसी व्यक्ति के मानसिक आयाम का तात्पर्य उसकी बुद्धि, विचारों, धारणाओं और इच्छाशक्ति आदि से हैं।

(d) आध्यात्मिक आयाम (Spiritual Dimension) : आध्यात्मिक का तात्पर्य व्यक्ति की भीतरी शक्ति एवं ऊर्जा से है जिसे हम अक्सर ‘आध्यात्मिकता’ कहते हैं। इसे ‘आंतरिक आवाज’ के रूप में भी समझा जा सकता हैं।

2. सामाजिक आयाम (Social Dimensions) : सामाजिक आयाम या सामाजिक आत्म का तात्पर्य उन पहलुओं से है जो किसी व्यक्ति में तब विकसित होते है जब वह दूसरों के साथ संपर्क में आता है, जैसे कि- वस्तुओं और संसाधनों को एक-दूसरे के साथ सांझा करना, दूसरों का सहयोग करना, समर्थन करना और आपसी सौहार्द बनाए रखना इत्यादि।

हम जो भी हैं या भविष्य में होंगे उसे बनाने में हमारा समाज प्रमुख भूमिका निभाता है। समाजीकरण की प्रक्रिया जन्म के साथ ही शुरू हो जाती है और जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं उसका विस्तार होता जाता है। ‘स्वयं की समझ’ और ‘दूसरों के प्रति जागरूकता’ समाजीकरण की एक प्रमुख विशेषता है।

‘आत्म’ ऐसा कुछ नहीं है जो आप के साथ पैदा होता है, लेकिन यह वह भाव है जो व्यक्ति स्वयं पैदा करता हैं और विकसित करता हैं, जैसे कि- जन्म के पश्चात् 18 महीने की आयु तक शिशु स्वयं की पहचान करने लगता है।

स्वयं को समझने का महत्व – हम स्वयं को तभी दूसरों से अलग और विशिष्ट समझ पाएँगे जब हम स्वयं को बेहतर ढंग से समझ पाएँगे। स्वयं की बेहतर समझ व्यक्ति को अपने कौशलों के और बेहतर करने के लिए प्रेरित करती है और साथ-ही-साथ उन क्षेत्रों की पहचान करने भी सहायता प्रदान करती है जहाँ सुधार किए जाने की विशेष आवश्यकता हैं। आमतौर पर आत्म जागरूकता (self-awareness) ही स्वयं के लिए लक्ष्य निर्धारित करने का पहला कदम है।

स्व-संकल्पना और आत्म-सम्मान (Self-Concept and Self-Esteem) – स्व-संकल्पना (Self-Concept) – स्व-संकल्पना, स्वयं के बारे में अनुभूतियों और विचारों का एक संग्रह है।

स्वयं और दूसरों को समझने में, ‘स्व-संकल्पना’ बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। विद्यालय में हम दूसरों छात्रों को अक्सर यह कहते हुए सुनते हैं कि “मैं यह कर सकती हूँ”, ‘मैं बहुत अच्छी फुटबॉल खेलता हूँ’ या मैं कक्षा में हमेशा प्रथम आती हूँ। इस प्रकार की टिप्पणियाँ वास्तव में व्यक्ति की विशिष्ट योग्यता तथा कौशल अर्थात् उसकी छवि की ओर इशारा करती हैं। व्यक्ति की आत्म- छवि जितनी अधिक सकारात्मक होती है, उसकी स्व-संकल्पना उतनी ही अधिक बेहतर होती है।

स्व-संकल्पना का विकास प्रारंभिक बाल्यावस्था में ही शुरू हो जाता है और फिर आयु बढ़ने के साथ बढ़ने के साथ-साथ जीवन के अनुभवों से आकार लेता है, अर्थात् किसी भी व्यक्ति की स्व-संकल्पना उसके अतीत तथा वर्तमान के अनुभवों के आधार पर बनती है। स्व-संकल्पना, आत्म-सम्मान, आत्म-ज्ञान और सामाजिक स्वयं के मिश्रण का ही नतीजा है। सरल शब्दों में कहें तो, स्व-संकल्पना, स्वयं का वर्णन है। ‘मैं कौन हूँ?’ जैसे सवाल का जवाब है। हमारे गुण, कौशल, क्षमताएँ, भावनाएँ और विचार इत्यादि मिलकर हमारी स्व-संकल्पना का निर्माण करते है।

स्वाभिमान/आत्म-सम्मान/स्वमान (Self-Esteem) – आत्म-सम्मान/स्वमान, स्वयं का मूल्यांकन है।

आत्म-सम्मान, स्व-संकल्पना का एक महत्वपूर्ण पहलू है। व्यक्ति के रूप में हम सदैव अपने मूल्य या मान और अपनी योग्यता के बारे में निर्णय या आकलन करते रहते हैं। व्यक्ति का अपने बारे में यह मूल्य-निर्णय ही आत्म-सम्मान (self-esteem) कहा जाता है। व्यक्ति का आत्म-सम्मान काफी हद तक उसके समाज से भी प्रभावित होता हैं। लोगों का स्वयं के प्रति सकारात्मक या नकारात्मक दृष्टिकोण हो सकता है-

(a) सकारात्मक आत्म-सम्मान ( Positive Self-esteem) : सकारात्मक आत्म-सम्मान स्वयं के प्रति सकारात्मक ढंग से किए गए मूल्यांकन के कारण उत्पन्न होता है। सकारात्मक आत्म-सम्मान वाला व्यक्ति स्वयं को दूसरों के लिए मूल्यांवन/महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखता है। सकारात्मक आत्म-सम्मान वाला व्यक्ति सदैव-

(i) आशावादी होता है।
(ii) स्वयं को अच्छे व्यक्ति के रूप में देखता है।
(iii) अपनी क्षमताओं में विश्वास रखता है।
(iv) इस बात की चिंता नहीं करता कि दूसरे उसके बारे में क्या सोचते हैं।

(b) नकारात्मक आत्म-सम्मान (Negative Self-esteem) : नकारात्मक आत्म-सम्मान स्वयं के प्रति नकारात्मक ढ़ंग से किए गए मूल्यांकन के कारण उत्पन्न होता है। नकारात्मक आत्म-सम्मान वाला व्यक्ति स्वयं को समाज के लिए ‘बेकार’ या ‘किसी काम का नहीं’ समझते है। नकारात्मक आत्म-सम्मान वाला व्यक्ति सदैव-

(i) निराशावादी होते है।
(i) अपनी क्षमताओं पर भरोसा नहीं करते।
(i) किसी दूसरे की तरह बनना/दिखना चाहते हैं।
(i) हमेशा इस बात की चिंता करते है कि- दूसरे उनके बारे में क्या सोचते हैं।

तादात्मय/पहचान क्या होती है? (What is Identity?)

पहचान को व्यक्ति की स्वयं के प्रति मानसिक छवि के रूप में परिभाषित किया जा सकता हैं अर्थात् ऐसी छवि जिसमें वह यह निर्धारित का सकें कि वह कौन है?

व्यक्ति की स्वयं के प्रति मानसिक छवि अर्थात् उसकी पहचान में व्यक्तिगत निरंतरता और अन्य लोगों से विशिष्ट (unique) होने की भावना शामिल होती है। पहचान द्वारा व्यक्ति को स्वयं तथा दूसरों की नजरों में स्वयं को परिभाषित करने में मदद मिलती है। किसी व्यक्ति की पहचान बनने की प्रक्रिया बाल्यावस्था के दौरान से ही शुरू हो जाती है तथा किशोरावस्था के दौरान यह प्रक्रिया अपने चरम पर होती है।

तादात्मय/पहचान को निम्न दो प्रकार से परिभाषित कर सकते हैं-

1. व्यक्तिगत पहचान (Personal Identity) : व्यक्तिगत पहचान का तात्पर्य व्यक्ति की उन विशेषताओं से है जो उसे अन्य लोगों से भिन्न बनाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो, व्यक्तिगत पहचान का अर्थ है- ‘वे गुण तथा योग्यताएँ जो एक व्यक्ति को अन्य लोगों से अलग बनाते हैं तथा जिन्हें किशोर पहचान कर न केवल स्वीकार करते हैं बल्कि उनमें सुधार लाने का प्रयास भी करते हैं। उदाहरण के लिए, व्यक्तिगत स्वरूप को स्वस्थ व सुन्दर बनाने के लिए जिम जाना, अच्छे स्वास्थ्य के लिए संतुलित भोजन करना इत्यादि।

2. सामाजिक पहचान (Social Identity) : सामाजिक पहचान का तात्पर्य उन क्षमताओं तथा योग्यताओं से हैं जो किसी व्यक्ति को उसके समाज से जोड़ने तथा समाज में एक अलग पहचान बनाने में मदद करती है। वास्तव में, एक व्यक्ति की एक ही समय में अलग-अलग सामाजिक पहचान हो सकती है। उदाहरण के लिए, जैसे कोई व्यक्ति स्वयं को भारतीय मानने के साथ-साथ स्वयं को सांस्कृतिक स्तर पर बंगाली, पंजाबी अथवा राजपूत मानता हो।

अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘स्व का निर्माण मानव जीवन की सम्पूर्ण यात्रा का निष्कर्ष है’ जिसे व्यक्ति जीवन पर्यन्त अपने गुणों, योग्यताओं, क्षमताओं तथा अनुभवों के आधार पर बनाता तथा परिवर्तित करता रहता है ताकि वह अंततः एक सही व सन्तुष्ट मानव जीवन यात्रा कर सके।

स्व-संकल्पना और पहचान के विकास को प्रभावित करने वाले कारक (Factors that Influence the Development of Selfhood and Identity)

व्यक्ति को स्व-संकल्पना और पहचान का विकास निम्नलिखित कारकों से प्रभावित होता है-

1. आयु (Age) : व्यक्ति की स्व-संकल्पना जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है जो बाल्यावस्था के दौरान शुरु हो जाती है तथा किशोरावस्था के दौरान अपने चरम पर होती है बच्चे स्वयं को शारीरिक आकार जैसे लम्बा, मोटा तथा वास्तविकता से अधिकतर समझते है जैसे कि- मैं शेर से नहीं डरता या मैं स्पाइडर मैन हूँ।

2. लिंग (Gender) : विभिन्न अध्ययनों के उपरान्त यह देखा गया है कि बारह वर्ष की आयु के बाद से लड़कों की अपेक्षा लड़कियों की स्व-संकल्पना थोड़ी निम्न स्तर होती है।

3. शिक्षा (Education) : उचित शिक्षा, व्यक्ति की स्व-संकल्पना तथा पहचान के निर्माण एवं विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। शिक्षा के साथ-साथ अनुभवी लोगों द्वारा उचित मार्गदर्शन तत्संकल्पना तथा पहचान को लि की सकारात्मक स्व-अवधारणा बनाने में सहायक होता है।

4. मीडिया (Media) : समकालीन समाज में, मीडिया व्यक्ति की स्व-संकल्पना के विकास को काफी हद तक प्रभावित करता है। शारीरिक छवि संभवतः एक ऐसा पहलू है जो मीडिया के विभिन्न माध्यमों द्वारा प्रचारित किए गए विज्ञापनों के द्वारा सबसे अधिक प्रभावित होती है। मीडिया के प्रभाव के चलते व्यक्ति अक्सर अपनी वास्तविक शारीरिक छवि को आदर्श शारीरिक छवि के अनुरूप न पाकर परेशान हो उठता है। जिसका नतीजा अक्सर भोजन संबंधी विकारों अथवा अवसाद के रूप में सामने आता है।

5. संस्कृति (Culture) : व्यक्ति की संस्कृति का भी स्व-संकल्पना तथा आत्म-सम्मान की भावना के निर्माण पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अक्सर देखा गया है कि पश्चिमी संस्कृति के लोग परिवार द्वारा अधिक स्वतंत्रता दिए जाने के कारण ज्यादा आत्म-विश्वासी होते हैं जबकि एशियाई संस्कृति में किशोर अधिकतर अपने माता-पिता के नियंत्रण में रहते है जिसके कारण उनकी स्व-संकल्पना एवं आत्म-सम्मान की भावना नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है।

6. मित्र समूह (Peer Group) : व्यक्ति के मन में स्वयं की छवि उसके मित्रों की स्वीकार्यता के आधार पर भी निर्धारित होती है। प्रत्येक व्यक्ति, बच्चा, किशोर अथवा वयस्क स्वयं को समाज का अभिन्न अंग समझना चाहता है तथा मित्रों के समरूप ही स्वयं को देखना चाहता है। उनके द्वारा सम्मान तथा स्वीकार्यता व्यक्ति के स्वयं के प्रति दृष्टिकोण को प्रभावित करती है।

N.C.E.R.T. Textbook Question-Answers

1. “स्वयं” शब्द से आप क्या समझते हैं? समझाएँ। उदाहरण देकर इसके विभिन्न आयामों पर चर्चा करें।

उत्तर – विश्व के विभिन्न शब्द कोषों में ‘स्व’ शब्द के लिए लगभग 500 से भी अधिक शब्दावलियों का प्रयोग हुआ हैं। इसका अर्थ है कि, विभिन्न लोगों के लिए ‘स्व’ यानि स्वयं का बोद्ध क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। ऐसा माना जाता है कि मानव जीवन का सारांश स्व-पहचान (अपनी अलग पहचान बनाना) की संघर्ष यात्रा है। किशोरावस्था के दौरान तीव्र गति से होने वाले शारीरिक, लैंगिक, सामाजिक व भावनात्मक परिवर्तनों के कारण यह संघर्ष किशोरावस्था में अपनी चरम सीमा पर होता है।

इस दौरान ‘मैं कौन हूँ’ का प्रश्न अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाता है। यदि आप में से प्रत्येक से यह पूछा जाए कि आप कौन है? तो आप में से प्रत्येक के उत्तर भिन्न-भिन्न होगे। उदाहरण के लिए, कोई कहेंगा कि मैं सुन्दर हूँ, मैं मोटी हूँ मैं आत्मविश्वासी हूँ, में लम्बी हूँ, मैं हँसमुख हूँ इत्यादि।

(a) व्यक्तिगत पहचान : व्यक्तिगत पहचान का अर्थ है- वे गुण तथा योग्यताएँ जो एक किशोर को अन्य लोगों से अलग करते हैं तथा जिन्हें किशोर पहचान कर न केवल स्वीकार करते हैं बल्कि उनमें सुधार लाने का प्रयास भी करते हैं। उदाहरण के लिए, व्यक्तिगत स्वरूप को स्वस्थ व सुन्दर बनाने के लिए जिम जाना, अच्छे स्वास्थ्य के लिए संतुलित भोजन करना इत्यादि।

(b) सामाजिक पहचान : सामाजिक पहचान का तात्पर्य उन क्षमताओं तथा योग्यताओं से हैं जो किसी व्यक्ति को उसके समाज से जोड़ने तथा समाज में एक अलग पहचान बनाने में मदद करती है। वास्तव में, एक व्यक्ति की एक ही समय में अलग-अलग सामाजिक पहचान हो सकती है) उदाहरण के लिए, जैसे कोई व्यक्ति स्वयं को भारतीय मानने के साथ-साथ स्वयं को सांस्कृतिक स्तर पर बंगाली, पंजाबी अथवा राजपूत मानता हों।

अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘स्व का निर्माण मानव जीवन की सम्पूर्ण यात्रा का निष्कर्ष है’ जिसे व्यक्ति जीवन पर्यन्त अपने गुणों, योग्यताओं, क्षमताओं तथा अनुभवों के आधार पर बनाता तथा परिवर्तित करता रहता है ताकि वह अंततः एक सही व सन्तुष्ट मानव जीवन यात्रा कर सके।

2. ‘स्वयं’ को समझना महत्वपूर्ण क्यों है?

उत्तर – हम स्वयं को तभी दूसरों से अलग और विशिष्ट समझ पाएंगे जब हम स्वयं को बेहतर ढंग से समझ पाएँगे। स्वयं की बेहतर समझ व्यक्ति को अपने कौशलों को और बेहतर करने के लिए प्रेरित करती है और साथ ही साथ उन क्षेत्रों की पहचान करने भी सहायता प्रदान करती है जहाँ सुधार किए जाने की विशेष आवश्यकता हैं। आमतौर पर आत्म जागरूकता (self-awareness) ही स्वयं के लिए लक्ष्य निर्धारि करने का पहला कदम है।

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