जाति के प्रश्न के संबंध में ज्योतिबा फुले एवं भीमराव अम्बेडकर के प्रभाव का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर- परिचय
भारतीय समाज में सदियों से कुछ सामाजिक बुराईयां प्रचलित रही है और जाति व्यवस्था भी उन्हीं में से एक है। हालांकि जाति व्यवस्था की अवधारणा में इस अवधि के दौरान कुछ परिवर्तन जरूर आया है और इसकी मान्यताएं अब उतनी रूढ़िवादी नहीं रही है जितनी पहले हुआ करती थी, लेकिन इसके बावजूद यह अभी भी देश में लोगों के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर असर डाल रही है।
जाति के प्रश्न के संबंध में ज्योतिबा फुत्ते एवं भीमराव अम्बेडकर के प्रभाव
ज्योतिबा फुले के अनुसार – जाति प्रथा धर्म नहीं है, बल्कि यह ब्राह्मणों की अन्य लोगों को नीच मानने की प्रवृत्ति है। किसी व्यक्ति द्वारा गुजारा करने के लिए किया गया कर्म उसका धंधा है न कि धर्म” “बाल काटना नाई का धर्म नहीं, धंधा है। चमड़े की सिलाई करना मोची का धर्म नहीं
भीमराव अम्बेडकर के अनुसार – डॉ. अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समानता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती।
जाति के प्रश्न के संबंध में ज्योतिबा फुले
भारतीय समाज वर्ण – व्यवस्था पर आधारित था। फुले ने इसके देवी निर्धारण के विचार को चुनौती दी। उनके विचार से निचले वर्गों को चलने के लिए ही ऐसा दावा किया जाता था। चूंकि वे दावे हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथों के आधार पर किए जाते थे. उन्होंने इन ग्रंथों के खोखलेपन पर पर्दाफाश करने का फैसला किया।
इन ग्रंथों की व्याख्याओं के लिए फुले समकालीन सिद्धांतों और अपनी रचनात्मकता निर्भर करते थे। इस प्रकार ही उनका यह विश्वास बना था कि आर्य रूप में जाने वाले ब्राह्मण कुछ हजार वर्षों पहले संभवतः ईरान से उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में आये थे युद्ध विजेताओं आक्रमणकारियों के रूप में आकर उन्होंने इस क्षेत्र के मूल निवासियों को पराजित किया। ब्रह्मा और परशुरामजस नेताओं के संचालन में ब्राह्मणों ने मल निवासियों के विरुद्ध दीर्घकालिक संघर्ष चलाये थे। आरंभ में वे गंगा के तटवर्ती क्षेत्रों में बसे और बाद में देश के अन्य भागों में फैले गये। जन समुदाय पर पूर्ण नियंत्रण रखने के लिए उन्होंने वर्ण जाति संबंधी मिथक गढ़े तथा अमानवीय निर्मम नियमों की रचना की पुरोहित व्यवस्था की प्रतिष्ठा करके उन्होंने सभी कर्मकांडों में ब्राह्मणों को प्रमुख स्थान दे दिया।
ब्राह्मणों को ही सर्वोच्च अधिकार एवं सुविधाएं दी गई थीं शुद्रों व अतिशुद्रों (अछूतों) को घृणा का पात्र मा गया था, न्यूनतम मानवीय अधिकार भी उनको प्राप्त नहीं थे। उनके स्पर्श अथवा उनकी काया को भी दूषित माना गया था। फुले ने हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथों की पुनव्याख्या करके दिखाया कि मूल निवासियों को आयों ने पराधीन कैसे बनाया। विष्णु के नौ अवतारों को उन्होंने आयों के विजय अभियान की विभिन्न मंजिलों के रूप में देखा था उस काल से ही ब्राह्मण शूद्रों व अतिशूद्रों को दास बनाए हुए हैं जो पीढ़ियों से गुलामी की जंजीरें ढोते आ रहे हैं। मन सरीखे अनेक ब्राह्मण रचनाकारों ने समय-समय पर जनमानस को बंदी बनाए रखने वालों श्रुति कथाओं में योगदान किया है।
फुले ने ब्राह्मणों द्वारा स्थापित दासता की तुलना अमेरिका की दास प्रथा से की है और दिखाया है कि शूद्रों को अमेरिकी हस्तियों की तुलना में बहुत अधिक यातनाएं झेलनी पड़ी हैं। उनके विचार से, स्वार्थगत अंधविश्वास एवं कट्टरता पर आधारित यह व्यवस्था ही भारतीय समाज में बाह्य जड़ता और युगों पुराने दुराचार के लिए जिम्मेदार है।
यहां पर यह ध्यान देना जरूरी है कि माली- शूद्र-जाति से संबंधित फुले शूद्रों के लिए ही नहीं, बल्कि अतिशूद्रों, अछूतो के लिए भी चिंतित थे। इसीलिए उन्होंने ब्राह्मण वर्चस्व के विरुद्ध निचली जातियों और अछूतों के संगठन और समता मूलक समाज के लिए उनके प्रयास का पक्ष पोषण किया। यह आश्चर्य की बात नहीं कि डॉ. अंबेडकर, जिनके विचारों का अध्ययन आप भागे करेंगे, फुले को अपना गुरु मानते थे।
जाति के प्रश्न के संबंध में भीमराव अम्बेडकर
डा. अंबेडकर की चिंता जाति पर प्रहार करने का मात्र दलितों को आजाद कराना ही नहीं था, बल्कि आर्थिक, राजनैतिक और राष्ट्रीयता आदि के सवालों पर बराबर सरोकार हज़ारों वर्ष से उत्पादन, उद्योग, व्यापार में क्यों पीछे रहे, उसके जड़ में सामाजिक व्यवस्था रही है। श्रम करने वालो को नीच और पिछड़ा माना गया और जुबान चलाने और भाषण देने वाले हुकुमरान रहें है। चमड़ा, लोहा, हथियार, कृषि आदि के क्षेत्रों जिन्होंने पसीने बहाए, उन्हें ही नीच और पिछड़ा माना गया। जिस काम का पारितोषिक ही न मिले तो क्यों कोई उसमे रुचि लेगा या अनुसंधान करेगा।
जितने व्यापक स्तर पर डॉ अंबेडकर की जयंती देश में मनाई जाती है, उतना शायद किसी महापुरुष की होती हो। 10 अप्रैल से न केवल 30 अप्रैल तक जयंती के कार्यक्रम चलते रहते हैं। यहां तक कि जून और जुलाई तक कुछ जगहों पर मनाया जाता रहता है। उत्तर भारत में डॉ. अंबेडकर को सबसे ज्यादा कांशीराम जी ने प्रचारित किया। बीएसपी की स्थापना ही डॉ. अंबेडकर की जयंती के दिन पर किया था। दलितों, पिछड़ों एवं अल्पसंख्यकों को हुक्मरान बनने की बात कही। कांशीराम जी के मामले दुखद यह रहा कि उन्होंने अपनी सुविधाओं के अनुसार डॉ. अंबेडकर के कुछ विचारों को उद्धृत किया, लेकिन मूल दर्शन को कभी भी नहीं छुआ। मूल दर्शन था जाति निषेध लेकिन यहां तो जातियों को की गोलबंदी की बात कही। शोषक को सामने रखकर दलितों और पिछड़ों को संगठित किया। भाजपा ने मुसलमानों को दिखाकर हिंदुओं को इकट्ठा किया। बीएसपी ने सत्ता प्राप्ति की बात की और सारे रोजमर्रा, संवैधानिक आरक्षण, शिक्षा, जमीन और न्यायपालिका में भागीदारी आदि के सवाल को छुआ तक नहीं।
निष्कर्ष
भारत में जाति व्यवस्था लोगों को चार अलग-अलग श्रेणियों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में बांटती है। विकास सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक विकास के कारण जाति प्रथा की उत्पत्ति हुई है। सभ्यता के लंबे और मन्द विकास के कारण जाति प्रथा मे कुछ दोष भी आते गए। इसका सबसे बड़ा दोष छुआछूत की भावना है।
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