कांग्रेस समाजवादी दल

कांग्रेस समाजवादी दल

परिचय

कांग्रेस समाजवादी दत्त भारत का एक राजनैतिक दल था जिसकी स्थापना 1934 में हुई थी। कांग्रेस में समाजवादी विचारधारा के सर्वप्रमुख प्रेरणा प्रतीक जवाहरलाल नेहरू तथा सुभाषचंद्र बोस थे। जयप्रकाश नारायण, फूलनप्रसाद वर्मा एवं कुछ अन्य लोगों ने मिलकर जुलाई 1931 में बिहार में समाजवादी पार्टी की स्थापना की। 1933 में पंजाब में एक समाजवादी पार्टी का गठन किया गया था। सपा के सभी सदस्य मानते थे कि कांग्रेस राष्ट्रीय संघर्ष का नेतृत्व करनेवाली आधारभूत संस्था है जयप्रकाश नारायण ने समाजवाद ही क्यों? तथा आचार्य नरेंद्र देव ने ‘समाजवादी एवं राष्ट्रीय आंदोलन जैसी पुस्तकों की रचना की। कांग्रेस समाजवादी पार्टी ने एक पंद्रह सूत्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत देश की आर्थिक विकास की प्रक्रिया राज्य द्वारा नियोजित एवं नियंत्रित करने की घोषणा की।

• 1927 के बाद पूरे देश में युवा संगठन स्थापित हुये और युवाओं के सैकड़ों अधिवेशन हुए। जवाहरलाल नेहरू तथा सुभाषचंद्र ने पूरे देश का दौरा किया। 1928 में जवाहरलाल नेहरू ने अखिल बंगाल छात्र सम्मेलन’ को संबोधित किया। जवाहरलाल नेहरू ने अपने दौरे में साम्राज्यवाद पूँजीवाद और जमींदारी प्रथा की आलोचना की और समाजवादी विचारधारा को अपनाने की शिक्षा दी।

• भगतसिंह और चंद्रशेखर आजादवाले अतिवादी क्रांतिकारी समाजवाद की ओर झुके 1929 की आर्थिक मंदी, पूँजीवादी देशों की दुर्गति और सोवियत संघ की आर्थिक संकट से मुक्ति जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस के कारण समाजवादी विचार अधिक लोकप्रिय हुए समाजवाद और समाजवादी विचारधारा के प्रतीक जवाहरलाल नेहरू 1929 में ऐतिहासिक लाहौर कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए।

• 1936 तथा 1937 में पुनः जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। जवाहरलाल नेहरू ने अपने दौरों, पुस्तकों, लेखों तथा भाषणों के द्वारा समाजवादी विचारों को प्रचारित किया। समाज के आर्थिक ढाँचे को समाजवादी रूप देने के लिए सुभाषचंद्र बोस ने भी जवाहरलाल नेहरू का साथ दिया।

कांग्रेस समाजवादी पार्टी (कांसपा)

• राम मनोहर लोहिया समाजवादी विचारधारा के जनक थे जिन्होंने समाज के सभी वर्गों के तरक्की के लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष किया।

• जयप्रकाश नारायण, फूलनप्रसाद वर्मा एवं कुछ अन्य लोगों ने मिलकर जुलाई 1931 में बिहार में समाजवादी पार्टी की स्थापना की। 1933 में पंजाब में एक समाजवादी पार्टी का गठन किया गया था।

• 1934 में जेल में बंद कुछ युवा कांग्रेसी नेताओं ने पारस्परिक विचार-विमर्श कर समाजवादी पार्टी बनाने का प्रस्ताव रखा था। आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण मीनू मसानी और अशोक मेहता जैसे नेताओं ने 22-23 अक्टूबर 1934 को बंबई में कांग्रेस समाजवादी पार्टी (कांसपा) का गठन किया।

• कांसपा के सभी सदस्य मानते थे कि कांग्रेस राष्ट्रीय संघर्ष का नेतृत्व करनेवाली आधारभूत संस्था है। कांग्रेस समाजवादी पार्टी का मुख्य उद्देश्य कांग्रेस का अभिन्न अंग बने रहकर समाजवादी ढंग से स्वराज्य की प्राप्ति और उसके बाद समाजवाद की स्थापना करना था। जयप्रकाश नारायण ने “समाजवाद ही क्यों?” तथा आचार्य नरेंद्रदेव ने “समाजवादी एवं राष्ट्रीय आंदोलन” जैसी पुस्तकों की रचना की।

• कांग्रेस समाजवादी पार्टी विचारधारात्मक आधार पर कांग्रेस को समाजवादी दृष्टि अपनाने और वर्तमान आर्थिक मुद्दों पर कांग्रेस समाजवादी पार्टी ने एक पंद्रहसूत्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत देश की आर्थिक विकास की प्रक्रिया राज्य द्वारा नियोजित एवं नियंत्रित करने की घोषणा की।

4. श्रमिक और महिला आंदोलन

परिचय 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी की शुरुआत में औद्योगिक क्रांति के दौरान श्रम आंदोलन की उत्पत्ति यूरोप में हुई, जब कृषि और कुटीर उद्योग की नौकरियां गायब हो गई और उन्हें मशीनीकरण के रूप में बदल दिया गया और औद्योगीकरण ने कारखाने के कस्बों जैसे अधिक औद्योगिक क्षेत्रों में रोजगार को कम कर दिया।

श्रम आंदोलन या लेबर मूवमेंट श्रमवर्ग लोगों के एक सामूहिक संगठन के विकास के लिए अपने कर्मचारियों और सरकारों से, विशेष रूप से श्रम संबंधों को शासित करने वाले विशिष्ट कानूनों के कार्यान्वयन के माध्यम से बेहतर आचरण के लिए अपने स्वयं के हित में अभियान चलाने में इस्तेमाल किया जाने वाला एक व्यापक शब्द है।

श्रमिक आंदोलन के जनक- नारायण मेघाजी लोखंडे ब्रिटिश भारत में श्रमिक आंदोलन के आयोजन में नारायण मेघाजी लोखंडे अग्रणी थे। लोखंडे को भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन के जनक के रूप में प्रशंसित किया गया है। भारत में पहला श्रम संघ, ‘बॉम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन’ उनके द्वारा शुरू किया गया था।

श्रमिक आन्दोलनों के मुख्य मुद्दों में शामिल है वेतन, बोनस, कार्मिक (विभाग), अवकाश तथा कार्य के घण्टे हिंसा तथा अनुशासनहीनता, औद्योगिक तथा श्रम नीतियाँ, आदि। “अराजनीतिक” श्रमिक संघों का उदय इसलिए हुआ कि श्रमिक उन विद्यमान श्रमिक संघों से असंतुष्ट थे जो राजनीतिक दलों से संबद्ध थे।

श्रमिक वर्ग का उदय

• भारत में आधुनिक मज़दूर वर्ग का उदय 19वीं शताब्दी में औपनिवेशिक शासन के तहत पूंजीवाद के आगमन के साथ हुआ।

• यह श्रम के अपेक्षाकृत आधुनिक संगठन और श्रम के लिये मुक्त बाज़ार के अर्थ में एक आधुनिक मजदूर वर्ग था।

• यह विकास के लिये आधुनिक कारखानों, रेलवे, डॉकयार्ड, सड़कों और भवनों से संबंधित निर्माण गतिविधियों की स्थापना के कारण हुआ था।

• बागान और रेलवे भारतीय उपमहाद्वीप में औपनिवेशिक पूंजीवाद के युग की शुरुआत के उद्यम थे।

भारत में स्वतंत्रता पूर्व श्रमिक आंदोलन

•  श्रमिकों की दशा सुधारने के प्रारंभिक प्रयासः वर्ष 1870 1880 में कानून द्वारा श्रमिकों की कार्य दशाओं को बेहतर बनाने का प्रयास किया गया।

• वर्ष 1903-08 के स्वदेशी आंदोलन तक मज़दूरों की काम करने की स्थिति को बेहतर बनाने के लिये कोई ठोस प्रयास नहीं किया गया था।

• वर्ष 1915-1922 के बीच फिर से होमरूल आंदोलन और असहयोग आंदोलन के साथ-साथ श्रमिक आंदोलन का पुनरुत्थान हुआ।

• श्रमिकों की आर्थिक स्थिति में सुधार के शुरुआती प्रयास परोपकारी प्रकृति के थे जो अलग-थलग छिटपुट और विशिष्ट स्थानीय शिकायतों के उद्देश्य से प्रेरित थे।

महिला आंदोलन

1. सती प्रथा

महिलाओं पर हो रहे इस अत्याचार के खिलाफ ब्रह्म समाज के संस्थापक राजा राम मोहन राय ने आवाज उठाई। उन्हीं के प्रयासों से 4 दिसंबर, 1829 को ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में सती प्रथा पर रोक लगाई गई।

भारत में प्राचीन हिन्दू समाज की एक घिनौनी एवं गलत प्रथा है। इस प्रथा में जीवित विधवा पत्नी को मृत पति की चिता पर जिंदा ही जला दिया जाता था। सती (सती, सत्य शब्द का स्त्रीलिंग रूप है) हिंदुओं के कुछ समुदायों की एक प्रथा थी, जिसमें हाल में ही विधवा हुई महिला अपने पति के अंतिम संस्कार के समय स्वंय भी उसकी जलती चिता में कूदकर आत्मदाह कर लेती थी। इस शब्द को देवी सती (जिसे दक्षायनी के नाम से भी जाना जाता है) से लिया गया है। देवी सती ने अपने पिता राजा दक्ष द्वारा उनके पति शिव का अपमान न सह सकने करने के कारण यज्ञ की अग्नि में जलकर अपनी जान दे दी थी। यह शब्द सती अब कभी-कभी एक पवित्र औरत की व्याख्या करने में प्रयुक्त होता है। यह प्राचीन हिन्दू समाज की एक घिनौनी एवं गलत प्रथा है।

2. शिक्षा आदोलन

स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण

ज्योतिबा फुले विश्व के पहले महापुरुष थे जिन्होंने स्त्री को पुरुष से भी श्रेष्ठ माना है। उनकी दृष्टि में स्त्री को वे सभी अधिकार प्राप्त होने चाहिए, जो पुरुषों को प्राप्त है। यदि पुरुष बहुपनि विवाह का अधिकारी है, तो स्त्री भी बहुविवाह की अधिकारिणी होनी चाहिए अन्यथा पुरुषों के ये अधिकार निषिद्ध कर देना चाहिए।”

स्त्री शिक्षा में महात्मा ज्योतिबा फुले व सावित्रीबाई फुले का योगदान

19वीं सदी के सुधार आन्दोलनों व सुधारवादियों को स्त्री की स्थिति को लेकर काफी गहरी चिन्ता थी स्त्री की सामाजिक स्थिति ठीक न थी स्त्रियों की भूमिका केवल गृह कार्य तक ही सीमित थी। बच्चों का पालन-पोषण तो प्रकृति से ही स्त्रीत्व से सम्बद्ध है। प्राचीन काल से वर्तमान तक स्त्रियों की यही भूमिका मान्य रही। वे चाहे खेतों में कार्य करें या सफेदपोश नौकरियों में आज भी उसकी यही कार्यकारी भूमिका गौण है। ज्योतिबा ने शिक्षा के माध्यम से स्त्रियों को जो अधिकार दिलाये वह स्मरणीय है। ज्योतिबा के क्रांतिकारी विचारों ने भारतीय सामाजिक इतिहास को शक्ति तथा गरिमा प्रदान की है। 21वीं सदी की ओर जाते समय देश को उनके विचारों की यह विरासत नये काल की प्रेरणाओं का परिचय देगी। आज जिसे हम शिक्षा कहते हैं, वह ज्योतिबा के जन्म से पूर्व अस्तित्व नहीं थी, न ही समाज के सभी वर्गों को शिक्षा का अधिकार ही प्राप्त था।

शिक्षा नीति को सही दिशा देने में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षतः ज्योतिबा फुले का अमूल्य योगदान है जो निम्रवत् है-

विद्यालय एवं स्थानीय भाषा का विकास अगस्त 1848 ई. में ज्योतिबा द्वारा स्थापित किये गये बालिका विद्यालय से सारे समाज के साथ-साथ अंग्रेज सरकार की भी आंखें खुल गयीं संस्कृत केवल उच्चवर्गीय भाषा होने से एकाधिकार की द्योतक बन गयी ज्योतिबा फुले ने स्थानीय भाषा में ही शिक्षण की व्यवस्था की, पाठ्यक्रम भी मराठी में था। उनकी नजर में उसी भाषा के माध्यम से शिक्षा की प्राप्ति हो जो रोजमर्रा की भाषा हो। मनुष्य उसी के माध्यम से अच्छी तरह सीख पायेगा। अंधकारमय समाज में ज्योतिबा द्वारा ज्ञान के एक दीपक ने अंग्रेजों को भी सुझाव दिए कि भारत में विभिन्न प्रांत है। विभिन्न प्रांतों की अपनी स्थानीय भाषा है। अतः उसी स्थानीय भाषा के माध्यम से ही शिक्षा प्राप्त करानी चाहिए। अंग्रेजों द्वारा 1854 ई. की शिक्षा नीति चार्ल्स वूड डिस्पैच में प्राथमिक स्तर पर स्थानीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया गया ज्योतिबा फुले विद्यालयों के विकास के लिए जगह-जगह विद्यालय खोले एवं शिक्षा का प्रसार किया और भारतीय समाज को वास्तविकता से अवगत कराने हेतु ज्योतिबा फुले ने स्थानीय भाषा साहित्य का सृजन किया जिससे कम पढ़ा लिखा व्यक्ति भी अपने साहित्य को दूसरों से सुनकर या पढ़कर अपनी वास्तविक स्थिति को जान सके और ऊपर उठ सके। ज्योतिबा फुले द्वारा पूरे महाराष्ट्र में विद्यालयों का विकास कराया गया उनके द्वारा संचालित 18 विद्यालय का जिक्र बंबई प्रेसीडेंसी के शिक्षा अभिलेखों से मिलता है।

प्रौढ़ शिक्षा ज्योतिबा ने 1855 ई. में प्रौढ़ शिक्षा को आरम्भ किया। उन्होंने खेतों में या अन्य जगह काम करने वाले मजदूरों और गृहणियों के लिए रात्रि पाठशालाएं खोली एवं अध्यापन कार्य चलाया यह भारत की पहली रात्रि पाठशाला व प्रौदशाता थी। उस समय शिक्षा घर-घर पहुंचाने की पहल चल रही थी। ज्योतिबा फुले ने श्रमिकों के लिए रात्रि स्कूल खोलकर उन लोगों का शिक्षा की तरफ ध्यान आकर्षित किया था। वर्तमान में भारत सरकार साक्षरता अभियान व सर्वशिक्षा अभियान पूरे देश में चला रही है जो 19वीं सदी में ज्योतिबा फुले ने पुणे के आस-पास के गांवों में प्रारम्भ किया था।

छात्रावास की व्यवस्था ज्योतिबा फुले ने अनेक स्कूल सोते जब बच्चे दूरदराज से पढ़ने आने लगे तो उन्होंने अपने घर के समीप ही एक छात्रावास की व्यवस्था की इस छात्रावास में बंबई, ठाणे एवं जुनार आदि स्थानों के 25-30 छात्र थे गरीब छात्रों के लिए निःशुल्क व्यवस्था थी। ज्योतिबा की मृत्यु के बाद छात्रावास सावित्रीबाई फुले एवं उनका पुत्र यशवंत राव ने चलाया।

• महिला आंदोलन की कमजोरियों और सुधार के सुझाव महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी बहुत जरूरी है। अतः शिक्षा और महिलाओं के लिए आरक्षण बहुत जरूरी है।

• भारत में महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए धार्मिक कारकों जैसे परंपराओं, रूढ़िवादी, पुराने रीतिरिवाजों, दरों आदि में आवश्यक सुधार जरूरी है।

• भारत में महिलाओं से संबंधित कानूनों को अधिकतर बड़े पैमाने पर प्रचार करना बहुत जरूरी है।

निष्कर्ष

श्रम से जुड़े कई लोगों ने महसूस किया कि पूरे भारत में ट्रेड यूनियनों के कार्यों के समन्वय के लिये श्रम के एक केंद्रीय संगठन की आवश्यकता है। वर्ष 1919 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (LC) के गठन ने इसके लिये उत्प्रेरक का काम किया। महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि बहुत जरूरी है और भागीदारी में बढ़ोतरी के लिए इस आंदोलन इसका प्रमुख उद्देश्य है आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है, और जिनके कारण महिलाओं को एक नई पहचान मिली और उनकी शक्ति को पहचाना गया।

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