CBSE Class 12th Hindi Grammar व्याकरण फ़ीचर लेखन

CBSE Class 12th Hindi Grammar व्याकरण फ़ीचर लेखन

TextbookNCERT
Class Class 12th
Subject Hindi
Chapterहिन्दी व्याकरण  (Grammar)
Grammar Nameफ़ीचर लेखन
CategoryClass 12th  Hindi हिन्दी व्याकरण प्रश्न अभ्यास 
Medium Hindi
SourceLast Doubt

CBSE Class 12th Hindi Grammar व्याकरण फ़ीचर लेखन

✍?हिन्दी व्याकरण✍?

?फ़ीचर लेखन?

प्रश्नः 1. फ़ीचर की आवश्यकता क्यों होती है?
?‍♂️उत्तर – फ़ीचर पत्रकारिता की अत्यंत आधुनिक विधा है। भले ही समाचार पत्रों में समाचार की प्रमुखता अधिक होती है लेकिन एक समाचार-पत्र की प्रसिद्धि और उत्कृष्टता का आधार समाचार नहीं होता बल्कि उसमें प्रकाशित ऐसी सामग्री से होता है जिसका संबंध न केवल जीवन की परिस्थितियों और परिवेश से संबंधित होता है प्रत्युत् वह जीवन की विवेचना भी करती है। समाचारों के अतिरिक्त समाचार-पत्रों में मुख्य रूप से जीवन की नैतिक व्याख्या के लिए ‘संपादकीय’ एवं जीवनगत् यथार्थ की भावात्मक अभिव्यक्ति के लिए ‘फ़ीचर’ लेखों की उपयोगिता असंदिग्ध है।

समाचार एवं संपादकीय में सूचनाओं को सम्प्रेषित करते समय उसमें घटना विशेष का विचार बिंदु चिंतन के केंद्र में रहता है लेकिन समाचार-पत्रों की प्रतिष्ठा और उसे पाठकों की ओर आकर्षित करने के लिए लिखे गए ‘फ़ीचर’ लेखों में वैचारिक चिंतन के साथ-साथ भावात्मक संवेदना का पुट भी उसमें विद्यमान रहता है। इसी कारण समाचार-पत्रों में उत्कृष्ट फ़ीचर लेखों के लिए विशिष्ट लेखकों तक से इनका लेखन करवाया जाता है। इसलिए किसी भी समाचार-पत्र की लोकप्रियता का मुख्य आधार यही फ़ीचर होते हैं। इनके द्वारा ही पाठकों की रुचि उस समाचार-पत्र की ओर अधिक होती है जिसमें अधिक उत्कृष्ट, रुचिकर एवं ज्ञानवर्धक फ़ीचर प्रकाशित किए जाते हैं।

‘फ़ीचर’ का स्वरूप कुछ सीमा तक निबंध एवं लेख से निकटता रखता है, लेकिन अभिव्यक्ति की दृष्टि से इनमें भेद होने के कारण इनमें पर्याप्त भिन्नता स्पष्ट दिखाई देती है। जहाँ ‘निबंध एवं लेख’ विचार और चिंतन के कारण अधिक बोझिल और नीरस बन जाते हैं वहीं ‘फ़ीचर’ अपनी सरस भाषा और आकर्षण शैली में पाठकों को इस प्रकार अभिभूत कर देते
हैं कि वे लेखक को अभिप्रेत विचारों को सरलता से समझ पाते हैं।

प्रश्नः 2. फ़ीचर का स्वरूप बताइए।
?‍♂️उत्तर – ‘फ़ीचर’ (Feature) अंग्रेजी भाषा का शब्द है। इसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के फैक्ट्रा (Fectura) शब्द से हुई है। विभिन्न शब्दकोशों के अनुसार इसके लिए अनेक अर्थ हैं, मुख्य रूप से इसके लिए स्वरूप, आकृति, रूपरेखा, लक्षण, व्यक्तित्व आदि अर्थ प्रचलन में हैं। ये अर्थ प्रसंग और संदर्भ के अनुसार ही प्रयोग में आते हैं। अंग्रेज़ी के फ़ीचर शब्द के आधार पर ही हिंदी में भी ‘फ़ीचर’ शब्द को ही स्वीकार लिया गया है। हिंदी के कुछ विद्वान इसके लिए ‘रूपक’ शब्द का प्रयोग भी करते हैं लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में वर्तमान में ‘फ़ीचर’ शब्द ही प्रचलन में है।

विभिन्न विदवानों ने ‘फ़ीचर’ शब्द को व्याख्यायित करने का प्रयास किया है, लेकिन उसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं है। फिर भी कतिपय विद्वानों की परिभाषाओं में कुछ एक शब्दों में फेरबदल कर देने मात्र से सभी किसी-न-किसी सीमा तक एक समान अर्थ की अभिव्यंजना ही करते हैं। विदेशी पत्रकार डेनियल आर० विलियमसन ने अपनी पुस्तक ‘फ़ीचर राइटिंग फॉर न्यूजपेपर्स’ में फ़ीचर शब्द पर प्रकाश डालते हुए अपना मत दिया है कि-“फ़ीचर ऐसा रचनात्मक तथा कुछ-कुछ स्वानुभूतिमूलक लेख है, जिसका गठन किसी घटना, स्थिति अथवा जीवन के किसी पक्ष के संबंध में पाठक का मूलतः मनोरंजन करने एवं सूचना देने के उद्देश्य से किया गया हो।” इसी तरह डॉ० सजीव भानावत का कहना है-“फ़ीचर वस्तुतः भावनाओं का सरस, मधुर और अनुभूतिपूर्ण वर्णन है।

फ़ीचर लेखक गौण है, वह एक माध्यम है जो फ़ीचर द्वारा पाठकों की जिज्ञासा, उत्सुकता और उत्कंठा को शांत करता हुआ समाज की विभिन्न प्रवृत्तियों का आकलन करता है। इस प्रकार फ़ीचर में सामयिक तथ्यों का यथेष्ट समावेश होता ही है, साथ ही अतीत की घटनाओं तथा भविष्य की संभावनाओं से भी वह जुड़ा रहता है। समय की धड़कनें इसमें गूंजती हैं।” इस विषय पर हिंदी और अन्य भाषाओं के अनेक विद्वानों द्वारा दी गयी परिभाषाओं और मतों को दृष्टिगत रखने के उपरांत कहा जा सकता है कि किसी स्थान, परिवेश, वस्तु या घटना का ऐसा शब्दबद्ध रूप, जो भावात्मक संवेदना से परिपूर्ण, कल्पनाशीलता से युक्त हो तथा जिसे मनोरंजक और चित्रात्मक शैली में सहज और सरल भाषा द्वारा अभिव्यक्त किया जाए, फ़ीचर कहा जाता है।

‘फ़ीचर’ पाठक की चेतना को नहीं जगाता बल्कि वह उसकी भावनाओं और संवेदनाओं को उत्प्रेरित करता है। यह यथार्थ की वैयक्तिक अनुभूति की अभिव्यक्ति है। इसमें लेखक पाठक को अपने अनुभव से समाज के सत्य का भावात्मक रूप में परिचय कराता है। इसमें समाचार दृश्यात्मक रूप में पाठक के सामने उभरकर आ जाता है। यह सूचनाओं को सम्प्रेषित करने का ऐसा साहित्यिक रूप है जो भाव और कल्पना के रस से आप्त होकर पाठक को भी इसमें भिगो देता है।

प्रश्नः 3. फ़ीचर का महत्त्व लिखिए।
?‍♂️उत्तर – प्रत्येक समाचार-पत्र एवं पत्रिका में नियमित रूप से प्रकाशित होने के कारण फ़ीचर की उपयोगिता स्वतः स्पष्ट है। समाचार की तरह यह भी सत्य का साक्षात्कार तो कराता ही है लेकिन साथ ही पाठक को विचारों के जंगल में भी मनोरंजन और औत्सुक्य के रंग बिरंगे फूलों के उपवन का भान भी करा देता है। फ़ीचर समाज के विविध विषयों पर अपनी सटीक टिप्पणियाँ देते हैं। इन टिप्पणियों में लेखक का चिंतन और उसकी सामाजिक उपादेयता प्रमुख होती है।

लेखक फ़ीचर के माध्यम से प्रतिदिन घटने वाली विशिष्ट घटनाओं और सूचनाओं को अपने केंद्र में रखकर उस पर गंभीर चिंतन करता है। उस गंभीर चिंतन की अभिव्यक्ति इस तरह से की जाती है कि पाठक उस सूचना को न केवल प्राप्त कर लेता है बल्कि उसमें केंद्रित समस्या का समाधान खोजने के लिए स्वयं ही बाध्य हो जाता है। फ़ीचर का महत्त्व केवल व्यक्तिगत नहीं होता, बल्कि यह सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर भी समाज के सामने अनेक प्रश्न उठाते हैं और उन प्रश्नों के उत्तर के रूप में अनेक वैचारिक बिंदुओं को भी समाज के सामने रखते हैं।

वर्तमान समय में फ़ीचर की महत्ता इतनी अधिक बढ़ गयी है कि विविध विषयों पर फ़ीचर लिखने के लिए समाचार-पत्र उन विषयों के विशेषज्ञ लेखकों से अपने पत्र के लिए फ़ीचर लिखवाते हैं जिसके लिए वह लेखक को अधिक पारिश्रमिक भी देते हैं। आजकल अनेक विषयों में अपने-अपने क्षेत्र में लेखक क्षेत्र से जुड़े लेखकों की माँग इस क्षेत्र में अधिक है लेकिन इसमें साहित्यिक प्रतिबद्धता के कारण वही फ़ीचर लेखक ही सफलता की ऊँचाईयों को छू सकता है जिसकी संवेदनात्मक अनुभूति की प्रबलता और कल्पना की मुखरता दूसरों की अपेक्षा अधिक हो।

प्रश्नः 4. फ़ीचर कितने प्रकार के होते हैं?
?‍♂️उत्तर – फ़ीचर विषय, वर्ग, प्रकाशन, प्रकृति, शैली, माध्यम आदि विविध आधारों पर अनेक प्रकार के हो सकते हैं। पत्रकारिता के क्षेत्र में जीवन के किसी भी क्षेत्र की कोई भी छोटी-से-छोटी घटना आदि समाचार बन जाते हैं। इस क्षेत्र में जितने विषयों के आधार पर समाचार बनते हैं उससे कहीं अधिक विषयों पर फ़ीचर लेखन किया जा सकता है। विषय-वैविध्य के कारण इसे कई भागों-उपभागों में बाँटा जा सकता है। विवेकी राय, डॉ० हरिमोहन, डॉ० पूरनचंद टंडन आदि कतिपय विद्वानों ने फ़ीचर के अनेक रूपों पर प्रकाश डाला है। उनके आधार पर फ़ीचर के निम्नलिखित प्रकार हो सकते हैं –

सामाजिक सांस्कृतिक फ़ीचर – इसके अंतर्गत सामाजिक संबंधी जीवन के अंतर्गत रीति-रिवाज, पर परंपराओं, त्योहारों, मेलों, कला, खेल-कूद, शैक्षिक, तीर्थ, धर्म संबंधी, सांस्कृतिक विरासतों आदि विषयों को रखा जा सकता है।

घटनापरक फ़ीचर – इसके अंतर्गत युद्ध, अकाल, दंगे, दुर्घटनायें, बीमारियाँ, आंदोलन आदि से संबंधित विषयों को रखा जा सकता है। प्राकृतिक फ़ीचर-इसके अंतर्गत प्रकृति संबंधी विषयों जैसे पर्वतारोहण, यात्राओं, प्रकृति की विभिन्न छटाओं, पर्यटन स्थलों आदि को रखा जा सकता है।

राजनीतिक फ़ीचर – इसके अंतर्गत राजनीतिक गतिविधियों, घटनाओं, विचारों, व्यक्तियों आदि से संबंधित विषयों को रखा जा सकता है।

साहित्यिक फ़ीचर – इसके अंतर्गत साहित्य से संबंधित गतिविधियों, पुस्तकों, साहित्यकारों आदि विषयों को रखा जा सकता है।

प्रकीर्ण फ़ीचर – जिन विषयों को ऊपर दिए गए किसी भी वर्ग में स्थान नहीं मिला ऐसे विषयों को प्रकीर्ण फ़ीचर के अंतर्गत रखा जा सकता है। लेकिन उपर्युक्त विषयों के विभाजन और विषय वैविध्य को दृष्टिगत रखा जाए तो फ़ीचर को अधिकांश विद्वानों ने दो भागों में बाँटा है जिसके अंतर्गत उपर्युक्त सभी विषयों का समावेश हो जाता है –

समाचार फ़ीचर अथवा तात्कालिक फ़ीचर – तात्कालिक घटने वाली किसी घटना पर तैयार किए गए समाचार पर आधारित फ़ीचर को समाचारी या तात्कालिक फ़ीचर कहा जाता है। इसके अंतर्गत तथ्य अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं, जैसे कुरुक्षेत्र में एक बच्चे के 60 फुट गहरे गड्ढे में गिरने की घटना एक समाचार है लेकिन उस बच्चे द्वारा लगातार 50 घंटे की संघर्ष गाथा का भावात्मक वर्णन उसका समाचारी-फ़ीचर है।

विशिष्ट फ़ीचर – जहाँ समाचारी फ़ीचर में तत्काल घटने वाली घटनाओं आदि का महत्त्व अधिक होता है वहीं विशिष्टफ़ीचर में घटनाओं को बीते भले ही समय क्यों न हो गया हो लेकिन उनकी प्रासंगिकता हमेशा बनी रहती है। जैसे प्रकृति की छटाओं या ऋतुओं, ऐतिहासिक स्थलों, महापुरुषों एवं लम्बे समय तक याद रहने वाली घटनाओं आदि पर लिखे गए लेखक किसी भी समय प्रकाशित किए जा सकते हैं। इन विषयों के लिए लेखक विभिन्न प्रयासों से सामग्री का संचयन कर उन पर लेख लिख सकता है। ऐसे फ़ीचर समाचार पत्रों के लिए प्राण-तत्त्व के रूप में होते हैं। इनकी प्रासंगिकता हमेशा बनी रहती है इसलिए बहुत से पाठक इनका संग्रहण भी करते हैं। इस तरह के फ़ीचर किसी दिन या सप्ताह विशेष में अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं; जैसे-दीपावली या होली पर्व पर इन त्यौहारों से संबंधित पौराणिक या ऐतिहासिक संदर्भो को लेकर लिखे फ़ीचर, महात्मा गांधी जयंती या सुभाषचंद्र बोस जयंती पर गांधी जी अथवा सुभाषचंद्र बोस के जीवन और विचारों पर प्रकाश डालने वाले फ़ीचर आदि।

प्रश्नः 5. फ़ीचर की विशेषताएँ बताइए।
?‍♂️उत्तर – फ़ीचर लेखन के विविध पक्षों एवं लेखक की रचना-प्रक्रिया से संबंधित पहलुओं पर प्रकाश डालने से पहले फ़ीचर की विशेषताओं के बारे में जान लेना आवश्यक है। अपनी विशेषताओं के कारण ही एक फ़ीचर समाचार, निबंध या लेख जैसी विधाओं से भिन्न अपनी पहचान बनाता है। एक अच्छे फ़ीचर में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए –

सत्यता या तथ्यात्मकता – किसी भी फ़ीचर लेख के लिए सत्यता या तथ्यात्मकता का गुण अनिवार्य है। तथ्यों से रहित किसी अविश्वनीय सूत्र को आधार बनाकर लिखे गए लेख फ़ीचर के अंतर्गत नहीं आते हैं। कल्पना से युक्त होने के बावजूद भी फ़ीचर में विश्वसनीय सूत्रों को लेख का माध्यम बनाया जाता है। यदि वे तथ्य सत्य से परे हैं या उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है तो ऐसे तथ्यों पर फ़ीचर नहीं लिखा जाना चाहिए।

गंभीरता एवं रोचकता – फ़ीचर में भावों और कल्पना के आगमन से उसमें रोचकता तो आ जाती है किंतु ऐसा नहीं कि वह विषय के प्रति गंभीर न हो। समाज की सामान्य जनता के सामने किसी भी सूचना को आधार बनाकर या विषय को लक्ष्य में रखकर फ़ीचर प्रस्तुत किया जाता है तो वह फ़ीचर लेखक विषय-वस्तु को केंद्र में रखकर उसके विभिन्न पहलुओं पर विचार करता है। उसके गंभीर चिंतन के परिणामों को ही फ़ीचर द्वारा रोचक शैली में संप्रेषित किया जाता है।

मौलिकता -सामान्यतः एक ही विषय को आधार बनाकर अनेक लेखक उस पर फ़ीचर लिखते हैं। उनमें से जो फ़ीचर अपनी मौलिक पहचान बना पाने में सफल होता है वही फ़ीचर एक आदर्श फ़ीचर कहलाता है। विषय से संबंधित विभिन्न तथ्यों का संग्रहण और विश्लेषण करते हुए फ़ीचर लेखक की अपनी दृष्टि अधिक महत्त्वपूर्ण होती है लेकिन साथ ही वह सामाजिक एवं राष्ट्रीय दृष्टि से भी उन तथ्यों को परखता है जिससे उसकी प्रामाणिकता अधिक सशक्त हो जाती है। लेखक जितने अधिक तथ्यों को गहनता से विश्लेषित कर उसे अपनी दृष्टि और शैली से अभिव्यक्ति प्रदान करता है उतना ही उसका फ़ीचर लेख मौलिक कहलाता है।

सामाजिक दायित्व बोध – कोई भी रचना निरुद्देश्य नहीं होती। उसी तरह फ़ीचर भी किसी न किसी विशिष्ट उद्देश्य से युक्त होता है। फ़ीचर का उद्देश्य सामाजिक दायित्व बोध से संबद्ध होना चाहिए क्योंकि फ़ीचर समाज के लिए ही लिखा जाता है इसलिए समाज के विभिन्न वर्गों पर उसका प्रभाव पड़ना अपेक्षित है। इसलिए फ़ीचर सामाजिक जीवन के जितना अधिक निकट होगा और सामाजिक जीवन की विविधता को अभिव्यंजित करेगा उतना ही अधिक वह सफल होगा।

संक्षिप्तता एवं पूर्णता – फ़ीचर लेख का आकार अधिक बड़ा नहीं होना चाहिए। कम-से-कम शब्दों में गागर में सागर भरने की कला ही फ़ीचर लेख की प्रमुख विशेषता है लेकिन फ़ीचर लेख इतना छोटा भी न हो कि वह विषय को पूर्ण रूप से अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम ही न हो। विषय से संबंधित बिंदुओं में क्रमबद्धता और तारतम्यता बनाते हुए उसे आगे बढ़ाया जाए तो फ़ीचर स्वयं ही अपना आकार निश्चित कर लेता है।

चित्रात्मकता –फ़ीचर सीधी-सपाट शैली में न होकर चित्रात्मक होना चाहिए। सीधी और सपाट शैली में लिखे गए फ़ीचर पाठक पर अपेक्षित प्रभाव नहीं डालते। फ़ीचर को पढ़ते हुए पाठक के मन में उस विषय का एक ऐसा चित्र या बिम्ब उभरकर आना चाहिए जिसे आधार बनाकर लेखक ने फ़ीचर लिखा है।

लालित्ययुक्त भाषा – फ़ीचर की भाषा सहज, सरल और कलात्मक होनी चाहिए। उसमें बिम्बविधायिनी शक्ति द्वारा ही उसे रोचक बनाया जा सकता है। इसके लिए फ़ीचर की भाषा लालित्यपूर्ण होनी चाहिए। लालित्यपूर्ण भाषा द्वारा ही गंभीर से गंभीर विषय को रोचक एवं पठनीय बनाया जा सकता है। उपयुक्त शीर्षक-एक उत्कृष्ट फ़ीचर के लिए उपयुक्त शीर्षक भी होना चाहिए। शीर्षक ऐसा होना चाहिए जो फ़ीचर के विषय, भाव या संवेदना का पूर्ण बोध करा पाने में सक्षम हो। संक्षिप्तता एवं सारगर्भिता फ़ीचर के शीर्षक के अन्यतम गुण हैं। फ़ीचर को आकर्षक एवं रुचिकर बनाने के लिए काव्यात्मक, कलात्मक, आश्चर्यबोधक, भावात्मक, प्रश्नात्मक आदि शीर्षकों को रखा जाना चाहिए।

प्रश्नः 6. फ़ीचर लेखक में किन-किन गुणों का होना आवश्यक है?
?‍♂️उत्तर – फ़ीचर लेखक में निम्नलिखित योग्यताओं का होना आवश्यक है।

विशेषज्ञता – फ़ीचर लेखक जिस विषय को आधार बनाकर उस पर लेख लिख रहा है उसमें उसका विशेषाधिकार होना चाहिए। चुनौतीपूर्ण होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक विषय पर न तो शोध कर सकता है और न ही उस विषय की बारीकियों को समझ सकता है। इसलिए विषय से संबंधित विशेषज्ञ व्यक्ति को अपने क्षेत्राधिकार के विषय पर लेख लिखने चाहिए।

बहुज्ञता – फ़ीचर लेखक को बहुज्ञ भी होना चाहिए। उसे धर्म, दर्शन, संस्कृति, समाज, साहित्य, इतिहास आदि विविध विषयों की समझ होनी चाहिए। उसके अंतर्गत अध्ययन की प्रवृत्ति भी प्रबल होनी चाहिए जिसके द्वारा वह अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न लेखक अपने फ़ीचर को आकर्षक, प्रभावशाली तथा तथ्यात्मकता से परिपूर्ण बना सकता है।

परिवेश की प्रति जागरूक – फ़ीचर लेखक को समसामयिक परिस्थितियों के प्रति सदैव जागरूक रहना चाहिए। अपनी सजगता से ही वह जीवन की घटनाओं को सक्ष्मता से देख, समझ और महसूस कर पाता है जिसके आधार पर वह एक अच्छा फ़ीचर तैयार कर सकने योग्य विषय को ढूँढ लेता है। समाज की प्रत्येक घटना आम आदमी के लिए सामान्य घटना हो सकती है लेकिन जागरूक लेखक के लिए वह घटना अत्यंत महत्त्वपूर्ण बन सकती है।

आत्मविश्वास – फ़ीचर लेखक को अपने ऊपर दृढ़ विश्वास होना चाहिए। उसे किसी भी प्रकार के विषय के भीतर झाँकने और उसकी प्रवृत्तियों को पकड़ने की क्षमता के लिए सबसे पहले स्वयं पर ही विश्वास करना होगा। अपने ज्ञान और अनुभव पर विश्वास करके ही वह विषय के भीतर तक झाँक सकता है।

निष्पक्ष दृष्टि – फ़ीचर लेखक के लिए आवश्यक है कि वह जिस उद्देश्य की प्रतिपूर्ति के लिए फ़ीचर लेख लिख रहा है उस विषय के साथ वह पूर्ण न्याय कर सके। विभिन्न तथ्यों और सूत्रों के विश्लेषण के आधार पर वह उस पर अपना निर्णय प्रस्तुत करता है। लेकिन उसका निर्णय विषय के तथ्यों और प्रमाणों से आबद्ध होना चाहिए। उसे अपने निर्णय या दृष्टि को उस पर आरोपित नहीं करना चाहिए। उसे संकीर्ण दृष्टि से मुक्त हो किसी वाद या मत के प्रति अधिक आग्रहशील नहीं रहना चाहिए।

भाषा पर पूर्ण अधिकार – फ़ीचर लेखक का भाषा पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए। भाषा के द्वारा ही वह फ़ीचर को लालित्यता और मधुरता से युक्त कर सकता है। उसकी भाषा माधुर्यपूर्ण और चित्रात्मक होनी चाहिए। इससे पाठक को भावात्मक रूप से अपने साथ जोड़ने में लेखक को कठिनाई नहीं होती। विषय में प्रस्तुत भाव और विचार के अनुकूल सक्षम भाषा में कलात्मक प्रयोगों के सहारे लेखक अपने मंतव्य तक सहजता से पहँच सकता है।

प्रश्नः 7. फ़ीचर लेखन की तैयारी कैसे करें।
?‍♂️उत्तर – फ़ीचर लेखन से पूर्व लेखक को निम्नलिखित तैयारियाँ करनी पड़ती हैं।
विषय चयन – फ़ीचर लेखन के विविध प्रकार होने के कारण इसके लिए विषय का चयन सबसे प्रथम आधार होता है। उत्कृष्ट फ़ीचर लेखन के लिए फ़ीचर लेखक को ऐसे विषय का चयन करना चाहिए. जो रोचक और ज्ञानवर्धक होने के साथ-साथ उसकी अपनी रुचि का भी हो। यदि लेखक की रुचि उस विषय क्षेत्र में नहीं होगी तो वह उसके साथ न्याय नहीं कर पाएगा। रुचि के साथ उस विषय में लेखक की विशेषज्ञता भी होनी चाहिए अन्यथा वह महत्त्वपूर्ण से महत्त्वपूर्ण तथ्यों को भी छोड़ सकता है और गौण-से-गौण तथ्यों को भी फ़ीचर में स्थान दे सकता है। इससे विषय व्यवस्थित रूप से पाठक के सामने नहीं आ पाएगा।

फ़ीचर का विषय ऐसा होना चाहिए जो समय और परिस्थिति के अनुसार प्रासंगिक हो। नई से नई जानकारी देना समाचार-पत्र एवं पत्रिकाओं का उद्देश्य होता है। इसलिए तत्काल घटित घटनाओं को आधार बनाकर ही लेखक को विषय का चयन करना चाहिए। त्यौहारों, जयंतियों, खेलों, चुनावों, दुर्घटनाओं आदि जैसे विशिष्ट अवसरों पर लेखक को विशेष रूप से संबंधित विषयों का ही चयन करना चाहिए। लेखक को विषय का चयन करते समय पत्र-पत्रिका के स्तर, वितरण-क्षेत्र और पाठक-वर्ग की रुचि का भी ध्यान रखना चाहिए। दैनिक समाचार-पत्रों में प्रतिदिन के जीवन से जुड़े फ़ीचर विषयों की उपयोगिता अधिक होती है। इसलिए समाचार-पत्र के प्रकाशन अवधि के विषय में भी लेखक को सोचना चाहिए।

सामग्री संकलन – फ़ीचर के विषय निर्धारण के उपरांत उस विषय से संबंधित सामग्री का संकलन करना फ़ीचर लेखक का अगला महत्त्वपूर्ण कार्य है। जिस विषय का चयन लेखक द्वारा किया गया है उस विषय के संबंध में विस्तृत शोध एवं अध्ययन के द्वारा उसे विभिन्न तथ्यों को एकत्रित करना चाहिए। सामग्री संकलन के लिए वह विभिन्न माध्यमों का सहारा ले सकता है। इसके लिए उसे विषय से संबंधित व्यक्तियों के साक्षात्कार लेने से फ़ीचर लेखक के लेख की शैली अत्यंत प्रभावशाली बन जाएगी।

फ़ीचर लेखक अपने लेख को अत्यधित पठनीय और प्रभावी बनाने के लिए साहित्य की प्रमुख गद्य विधाओं में से किसी का सहारा ले सकता है। आजकल कहानी, रिपोर्ताज, डायरी, पत्र, लेख, निबंध, यात्रा-वृत्त आदि आधुनिक विधाओं में अनेक फ़ीचर लेख लिखे जा रहे हैं। पाठक की रुचि और विषय की उपयोगिता को दृष्टिगत रखकर फ़ीचर लेखक इनमें से किसी एक या मिश्रित रूप का प्रयोग कर सकता है।

अंत -फ़ीचर का अंतिम भाग उपसंहार या सारांश की तरह होता है। इसके अंतर्गत फ़ीचर लेखक अपने लेख के अंतर्गत प्रस्तुत की गई विषय-वस्तु के आधार पर समस्या का समाधान, सुझाव या अन्य विचार-सूत्र देकर कर सकता है लेकिन लेखक के लिए यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वह अपने दृष्टिकोण या सुझाव को किसी पर अनावश्यक रूप से न थोपे। अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता को ध्यान में रखकर वह उस लेख का समापन इस तरह से करे कि वह पाठक की जिज्ञासा को शांत भी कर सके और उसे मानसिक रूप से तृप्ति भी प्रदान हो। अंत को आकर्षक बनाने के लिए फ़ीचर लेखक चाहे तो किसी कवि की उक्ति या विद्वान के विचार का भी सहारा ले सकता है। इसका कोई निश्चित नियम नहीं है। बस अंत ऐसा होना चाहए कि विषय-वस्तु को समझाने के लिए कुछ शेष न रहे।

फ़ीचर लेखक को अपना लेख लिखने के उपरान्त एक बार पुनः उसका अध्ययन करके यह देखना चाहिए कि कोई ऐसी बात उस लेख के अंतर्गत तो नहीं आई जो अनावश्यक या तथ्यों से परे हो। अगर ऐसा है तो ऐसे तथ्यों को तुरंत लेख से बाहर निकालकर पुनः लेख की संरचना को देखना चाहिए। अंत में अपने फ़ीचर को आकर्षक बनाने के लिए फ़ीचर लेखक उसकी विषय-वस्तु को इंगित करने वाले उपयुक्त ‘शीर्षक’ का निर्धारण करता है। शीर्षक ऐसा होना चाहिए कि पाठक जिसे पढ़ते ही उस फ़ीचर को पढ़ने के लिए आकर्षित हो जाए। इसके लिए नाटकीय, काव्यात्मक, आश्चर्यबोधक, प्रश्नसूचक आदि विभिन्न रूपों के शीर्षकों का सहारा फ़ीचर लेखक ले सकता है।

अपने लेखक को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए फ़ीचर लेखक अपने लेख के साथ विषय से संबंधित सुंदर और उत्कृष्ट छायाचित्रों का चयन भी कर सकता है। इसके लिए चाहे तो वह स्वयं किसी चित्र को बनाकर या प्रासंगित चित्रों को स्वयं ही कैमरे से खींचकर उसे लेख के साथ छापने के लिए प्रस्तुत कर सकता है। छायाचित्रों से फ़ीचर में जीवंतता और आकर्षण का भाव भर जाता है। छायाचित्रों से युक्त फ़ीचर विषय-वस्तु को प्रतिपादित करने वाले और उसे परिपूर्ण बनाने में सक्षम होने चाहिए।

नीचे फ़ीचर लेखन के तीन उदाहरण आपके लिए प्रस्तुत किए जा रहे हैं जिनसे आप फ़ीचर लेखन की संरचना को समझ सकते हैं।

उदाहरण

प्रश्नः 1. ‘नींद क्यूँ रात भर नहीं आती’
?‍♂️उत्तर – आजकल महानगरों में अनिद्रा यानि की नींद न आने की शिकायत रोज़ बढ़ती जा रही है। अक्सर आपको आपके परिचित मित्र शिकायत करते मिल जायेंगे कि उन्हें ठीक से नींद नहीं आती। रात भर वे या तो करवटें बदलते रहते हैं या घड़ी की ओर ताकते रहते हैं। कुछेक तो अच्छी नींद की चाह में नींद की गोली का सहारा भी लेते हैं।

नींद न आना, बीमारी कम, आदत ज़्यादा लगती है। वर्तमान युग में मनुष्य ने अपने लिए आराम की ऐसी अनेक सुविधाओं का विकास कर लिया है कि अब ये सुविधाएँ ही उसका आराम हराम करने में लगी हुई हैं। सूरज को उगते देखना तो शायद अब हमारी किस्मत में ही नहीं है। ‘जल्दी सोना’ और ‘जल्दी उठना’ का सिद्धांत अब बीते दिनों की बात हो चला है या यूँ कहिए कि समय के साथ वह भी ‘आऊटडेटेड’ हो गई है। देर रात तक जागना और सुबह देर से उठना अब दिनचर्या कम फ़ैशन ज्यादा हो गया है। लोग ये कहते हुए गर्व का अनुभव करते हैं कि रात को देर से सोया था जल्दी उठ नहीं पाया। जो बात संकोच से कही जानी चाहिए थी अब गर्व का प्रतीक हो गयी है। एक ज़माना था जब माता-पिता अपने बच्चों को सुबह जल्दी उठने के संस्कार दिया करते थे। सुबह जल्दी उठकर घूमना, व्यायाम करना, दूध लाना आदि ऐसे कर्म थे जो व्यक्ति को सुबह जल्दी उठने की प्रेरणा देते ही थे साथ ही उससे मेहनतकश बनने की प्रेरणा भी मिलती थी। मगर धीरे-धीरे आधुनिक सुख-सुविधाओं ने व्यक्ति को काहित बना दिया और इस काहिली में उसे अपनी सार्थकता अनुभव होने लगी है।

आराम की इस मनोवृत्ति ने मनुष्य को मेहनत से बेज़ार कर दिया है जिसका परिणाम यह हुआ है कि मनुष्य की रोग-प्रतिरोधक क्षमता धीरे-धीरे कम होने लगी है और वह छोटी-छोटी बीमारियों के लिए भी दवाईयाँ खाने की कोशिश करता है जबकि इन बीमारियों का ईलाज केवल दिनचर्या-परिवर्तन से ही हो सकता है। नींद न आना ऐसी ही एक बीमारी है जो आधुनिक जीवन की एक समस्या है। हमारी आराम तलबी ने हमें इतना बेकार कर दिया है कि हम सोने में भी कष्ट का अनुभव करते हैं। रात भर करवटें बदलते हैं और दिन-भर ऊँघते रहते हैं। नींद न आने के लिए मुख्य रूप से हमारी मेहनत न करने की मनोवृत्ति जिम्मेदार है।

हम पचास गज की दूरी भी मोटर कार या स्कूटर से तय करने की इच्छा रखते हैं। सुबह घूमना हमें पसंद नहीं है, सीधे बैठकर लिखना या पढ़ना हमारे लिए कष्ट साध्य है। केवल एक मंजिल चढ़ने के लिए हमें लिफ्ट का सहारा लेना पड़ता है। ये हमारी आरामतलबी की इंतहा है। इसी आराम ने हमें सुखद नींद से कोसों दूर कर दिया है। नींद एक सपना होती जा रही है। अच्छी नींद लेने के लिए हमें विशेषज्ञों की राय की आवश्यकता पड़ने लगी है जबकि इसका आसान-सा नुस्खा हमारी दादी और नानी ने ही बता दिया था कि खूब मेहनत करो, जमकर खाओ और चादर तानकर सो जाओ।

हज़ारों लाखों रुपये जोड़कर भी नींद नहीं खरीदी जा सकती। नींद तो मुफ्त मिलती है –कठोर श्रम से। शरीर जितना थकेगा, जितना काम करेगा, उतना ही अधिक आराम उसे मिलेगा। कुछ को नरम बिस्तरों और एयर कंडीश्नर कमरों में नींद नहीं आती और कुछ चिलचिलाती धूप में भी नुकीले पत्थरों पर घोड़े बेचकर सो जाते हैं। इसीलिए अच्छी नींद का एक ही नुस्खा है वो है-मेहनत-मेहनत-मेहनत। दिन-भर जी-तोड़ मेहनत करने वाले इसी नुस्खे को आजमाते हैं। नींद पाने के लिए हमें भी उन जैसा ही होना होगा। किसी शायर ने क्या खूब कहा है –

सो जाते हैं फुटपाथ पे अखबार बिछाकर,
मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते।

(लेखक : हरीश अरोड़ा)

प्रश्नः 2. भारतीय साहित्य की विशेषताओं पर एक फ़ीचर लिखिए।
?‍♂️उत्तर – समस्त भारतीय साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता, उसके मूल में स्थित समन्वय की भावना है। उसकी यह विशेषता इतनी प्रमुख है कि केवल इसके बल पर संसार के अन्य साहित्यों के सामने वह अपनी मौलिकता का पताका फहराता रहा है और अपने स्वतंत्र अस्तित्व की सार्थकता प्रमाणित करता रहा है। जिस तरह धर्म के क्षेत्र में भारत के ज्ञान, भक्ति तथा कर्म के समन्वय प्रसिद्ध हैं, ठीक उसी तरह साहित्य तथा अन्य कलाओं में भी भारतीय प्रकृति समन्वय की ओर रही है। साहित्यिक समन्वय से हमारा तात्पर्य साहित्य में प्रदर्शित सुख-दुख, उत्थान-पतन, हर्ष-विषाद आदि विरोधी तथा विरपरीत भावों के सामान्यीकरण तथा एक अलौकिक आनंद में उनके विलीन हो जाने से है। साहित्य के किसी भी अंग को लेकर देखिए? सर्वत्र यही समन्वय दिखाई देगा। भारतीय नाटकों में ही सुख और दुख के प्रबल घात-प्रतिघात दिखाए गए हैं, पर सबका अवसान आनंद में ही किया गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि भारतीयों का ध्येय सदा से जीवन का आदर्श स्वरूप उपस्थित करके उसका आकर्षण बढ़ाने और उसे उन्नत बनाने का रहा है। वर्तमान स्थिति से उसका इतना संबंध नहीं है, जितना भविष्य उत्कर्ष से है। इसीलिए हमारे यहाँ यूरोपीय ढंग के दुखांत नाटक दिखाई नहीं पड़ते हैं।

प्रश्नः 3. पर्यटन के महत्त्व पर एक फ़ीचर लिखिए।
?‍♂️उत्तर – पर्यटन करना, घूमना, घुमक्कड़ी का ही आधुनिकतम नाम है। आज के पर्यटन के पीछे भी मनुष्य की घुमक्कड़ प्रवृत्ति ही कार्य कर रही है। आज भी जब वह देश-विदेश के प्रसिद्ध स्थानों की विशेषताओं के बारे में जब सुनता-पढ़ता है, तो उन्हें निकट से देखने, जानने के लिए उत्सुक हो उठता है। वह अपनी सुविधा और अवसर के अनुसार उस ओर निकल पड़ता है। आदिम घुमक्कड़ और आज के पर्यटक में इतना अंतर अवश्य है कि आज पर्यटन उतना कष्ट-साध्य नहीं है जितनी घुमक्कड़ी वृत्ति थी। ज्ञान-विज्ञान के आविष्कारों, अन्वेषणों की जादुई शक्ति के कारण एवं सुलभ साधनों के कारण आज पर्यटन पर निकलने के लिए अधिक सोच-विचार की आवश्यकता नहीं होती। आज तो मात्र सुविधा और संसाधन चाहिए। इतना अवश्य मानना पड़ेगा कि पर्यटक बनने का जोखिम भरा आनंद तो उन पर्यटकों को ही आया होगा जिन्होंने अभावों और विषम परिस्थितियों से जूझते हुए देश-विदेश की यात्राएँ की होगी। फाह्यान, वेनसांग, अलबेरुनी, इब्नबतूता, मार्को पोलो आदि ऐसे ही यात्री थे।

पर्यटन के साधनों की सहज सुलभता के बावजूद आज भी पर्यटकों में पुराने जमाने के पर्यटकों की तरह उत्साह, धैर्य साहसिकता, जोखिम उठाने की तत्परता दिखाई देती है।

आज पर्यटन एक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय उद्योग के रूप में विकसित हो चुका है। इस उद्योग के प्रसार के लिए देश-विदेश में पर्यटन मंत्रालय बनाए गए हैं। विश्वभर में पर्यटकों की सुविधा के लिए बड़े-बड़े पर्यटन केंद्र खुल चुके हैं।

प्रश्नः 4. आतंकवाद के प्रभाव पर एक फ़ीचर लिखिए।
?‍♂️उत्तर – इस युग में अतिवाद की काली छाया इतनी छा गई है कि चारों ओर असंतोष की स्थिति पैदा हो रही है। असंतोष की यह अभिव्यक्ति अनेक माध्यमों से होती है। आतंकवाद आज राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए एक अमोघ अस्त्र बन गया है। अपनी बात मनवाने के लिए आतंक उत्पन्न करने की पद्धति एक सामान्य नियम बन चुकी है। आज यदि शक्तिशाली देश कमज़ोर देशों के प्रति उपेक्षा का व्यवहार करता है तो उसके प्रतिकार के लिए आतंकवाद का सहारा लिया जा रहा है। उपेक्षित वर्ग भी अपना अस्तित्व प्रमाणित करने के लिए आतंकवाद का सहारा लेता है।

स्वार्थबदध संकचित दृष्टि ही आतंकवाद की जननी है। क्षेत्रवाद, धर्मांधता, भौगोलिक एवं ऐतिहासिक कारण, सांस्कृतिक टकराव, भाषाई मतभेद, आर्थिक विषमता, प्रशासनिक मशीनरी की निष्क्रियता और नैतिक ह्रास अंततः आतंकवाद के पोषण एवं प्रसार में सहायक बनते हैं। भारत को जिस प्रकार के आतंकवाद से जूझना पड़ रहा है, वह भयावह और चिंतनीय है। यह चिंता इसलिए है क्योंकि उसके मूल में अलगाववादी और विघटनकारी ताकतें काम कर रही हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही देश के विभिन्न भागों में विदेशी शह पाकर आतंकवादी सक्रिय हो उठे थे। इसका दुष्परिणाम यह है कि आज कश्मीर का एक बहुत बड़ा भाग पाकिस्तानी कबाइलियों और उनके देश में आए पाक सैनिकों के हाथ पहुँच गया है। आज भारत का सबसे खूबसूरत हिस्सा पाक अधिकृत कश्मीर कहलाता है।

प्रश्नः 5. भारतीय संस्कृति की महत्ता अथवा अखंड परंपरा पर एक फ़ीचर लिखिए।
?‍♂️उत्तर – सामाजिक संस्कारों का दूसरा नाम ही संस्कृति है। कोई भी समाज विरासत के रूप में इसे प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि संस्कृति एक विशिष्ट जीवन शैली है। संस्कृति ऐसी सामाजिक विरासत है जिसके पीछे एक लंबी परंपरा होती है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम तथा महत्त्वपूर्ण संस्कृतियों में से एक है। यह कब और कैसे विकसित हुई? यह कहना कठिन है प्राचीन ग्रंथों के आधार पर इसकी प्राचीनता का अनुमान लगाया जा सकता है। वेद संसार के प्राचीनतम ग्रंथ हैं। भारतीय संस्कृति के मूलरूप का परिचय हमें वेदों से ही मिलता है। वेदों की रचना ईसा से कई हजार वर्ष पूर्व हुई थी। सिंधु घाटी की सभ्यता का विवरण भी भारतीय संस्कृति की प्राचीनता पर पूर्णरूपेण प्रकाश डालता है। इसका इतना कालजयी और अखंड इतिहास इसे महत्त्वपूर्ण बनाता है। मिस्र, यूनान और रोम आदि देशों की संस्कृतियाँ आज केवल इतिहास बन कर सामने हैं। जबकि भारतीय संस्कृति एक लंबी ऐतिहासिक परंपरा के साथ आज भी निरंतर विकास के मार्ग पर अग्रसर है। इकबाल के शब्दों में कहा जा सकता है कि –

यूनान, मिस्र, रोम, सब मिट गए जहाँ से।
कुछ बात है, कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।

प्रश्नः 6. नारी के संदर्भ में कही गई “नारी तू नारायणी” बात पर फ़ीचर लिखिए।
?‍♂️उत्तर – प्राचीन युग में नारी केवल भोग की वस्तु थी। पुरुष नारी की आशा-आकांक्षाओं के प्रति बहुत उदासीन रहता था। अभागी नारी घर की लक्ष्मण रेखा को पार करने का दुस्साहस करने में बिलकुल असमर्थ थी। नारी को किसी भी क्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। नारी की स्थिति जिंदा लाश की तरह थी। वह बच्चे पैदा करने वाली मशीन के अतिरिक्त कुछ और न थी लेकिन आधुनिक युग में नारी ने अपने महत्ता को पहचाना। उसने दासता के बंधनों को तोड़कर स्वतंत्र वातावरण में सांस ली। आधुनिक नारी ने शिक्षा, राजनीति, व्यवसाय आदि विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा प्रदर्शन करके सबको चौंका दिया। इसीलिए आजकल किशोरों की अपेक्षा किशोरियाँ शिक्षा के क्षेत्र में कहीं आगे हैं। वह कला विषयों में ही नहीं बल्कि वाणिज्य और विज्ञान विषयों में भी अत्यंत सफलतापूर्वक शिक्षा ग्रहण कर रही हैं।

आधुनिक नारी ने राजनीति के क्षेत्र में भी अपनी महत्ता एवं प्रतिभा का परिचय दिया है। भारत की भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का कालजयी उदाहरण हमारे सामने है। भारत की राजनीति में ही नहीं बल्कि विश्व की राजनीति में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान था। वर्तमान समय में मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान आदि प्रदेशों की बागडोर भी महिला मुख्यमंत्रियों के हाथों में है। इंग्लैंड की भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती मारग्रेट थैचर भी एक महिला है। यूरोपीय देशों में नारियाँ किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से पीछे नहीं हैं। हमारे देश की नारियाँ भी प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति करने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। आज की नारी नौकरी द्वारा धन का अर्जन करती है। इस प्रकार वह आर्थिक क्षेत्र में भी पुरुष को सहयोग देती है। आधुनिक नारी प्राचीन अंधविश्वास की बेड़ियों से सर्वथा मुक्त हो चुकी है। आज की नारी भावुकता के स्थान पर बौद्धिकता को अधिक प्रश्रय देने लगी है।

आधुनिक नारियाँ नित नए क्षेत्र में कदम रख रही हैं। वे उन क्षेत्रों में मज़बूती से पाँव जमा रही हैं जिन पर कभी पुरुषों का एकाधिकार समझा जाता था। श्रीमती मधु जैन ने नारी की बढ़ती शक्ति के बारे में लिखा है कि-“आधुनिक नारी हवाई जहाज़ उड़ा रही है और कंपनी प्रबंधक पद पर पहुंच रही है।” अब तक केवल पुरुषों का क्षेत्र समझे जाने वाले शेयर बाज़ार में भी वह मौजूद है तो पत्रकारिता में भी। गैराज में वह कार दुरुस्त करती नज़र आती है तो ज़मीन-जायदाद के व्यवसाय में भी वह पीछे नहीं है। एकल परिवारों के बढ़ने से इस नई भारतीय नारी का आविर्भाव हुआ है। जो पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती देती प्रतीत होती है।

प्रश्नः 7. भ्रष्टाचार की फैलती विष बेल पर फ़ीचर लिखिए।
?‍♂️उत्तर – आधुनिक युग को यदि भ्रष्टाचार का युग कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रत्येक व्यक्ति भ्रष्टाचार का प्रतीक बनकर रह गया है। सामाजिक धरातल पर देखें तो यही नज़र आता है कि समाज में धन कमाने की लालसा बढ़ती ही जा रही है। प्रत्येक व्यक्ति अधिक धनी बनने के लालच के कारण अनेक प्रकार के अनुचित बुरे अथवा भ्रष्ट आचरण करता है। व्यापारी लोग अधिक धन कमाने के लिए खाने-पीने की सामान्य वस्तुओं में मिलावट करते हैं। सिंथेटिक दूध बेचकर लोग लाखों लोगों के स्वस्थ्य के साथ खिलवाड़ करते हैं। इस दूध में यूरिया तथा अन्य हानिकारक पदार्थ मिलाए जाते हैं। विभिन्न समाचार चैनलों तथा समाचार पत्रों में बताया गया था कि कोल्ड ड्रिंक्स में भी कीटनाशक जहर मिलाया जा रहा है। नकली दवाइयाँ खाकर लोग अपने जीवन से हाथ धो बैठते हैं। इसी प्रकार फलों और सब्जियों को भी रासायनिक पदार्थों द्वारा धोकर और पकाकर आकर्षक बनाया जाता है।

प्रश्नः 8. बेरोज़गारी की गंभीर समस्या पर फ़ीचर लिखिए।
?‍♂️उत्तर – एक ज़माना था कि कोई अपने आपको स्नातक या एम०ए० कहते हुए गर्व से फूला न समाता था लेकिन आज के समय में एम०ए० करने वाला भी बगले झांकने को मजबूर हैं। वह समझ नहीं पाता कि एम०ए० की डिग्री को लेकर क्या करे? आज नौकरी प्राप्त करने के लिए एम० ए० की कोई अहमियत नहीं। नौकरी छोटी हो या बड़ी, सरकारी हो या निजी सब काम को देख रहे हैं, अनुभव को देख रहे हैं, प्रोडक्शन को देख रहे हैं। उनके लिए शिक्षा कोई अर्थ नहीं रखती। सन् 2000 तक तो डिग्रियों की फिर भी कुछ पूछ थी, किंतु इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करते ही शिक्षा के निजीकरण का बोलबाला हो गया। तकनीकी शिक्षा और कंप्यूटर अनिवार्य कर दिए गए। कॉलेज की सैद्धांतिक शिक्षा बिलकुल बेकार हो चुकी है। आज स्थिति यह है कि बी०ए०, एम०ए० किए हुए लड़के लगभग बेकार घूमते हैं। जब तक वे कंप्यूटर, बी०एड० या अन्य कोई व्यावसायिक डिग्री न ले लें, उनके लिए नौकरी के द्वारा बंद ही समझो।

ठीक यही स्थिति बी०कॉम० तथा बी०एस०सी० की भी है। इन्हें भी आजीविका के लिए कार्य-अनुभव या फिर व्यासायिक पाठ्यक्रम से गुजरना पड़ता है। कुछ समय पहले हर छात्र कक्षा दस-बारह तक पढ़ने के बाद कॉलेज में पढ़ने का सपना सँजोता था। उसके लिए शिक्षित होना सुनहरे सपने के समान था। शिक्षित होने के लिए वह आजीविका या व्यावसायिकता को भी नज़रअंदाज कर जाता था, परंतु अब ज़माना बदल चुका है वह जागरूक हो गया है।

आज स्थिति यह है कि स्कूल-कॉलेजों की शिक्षा-प्रणाली हाशिए पर आ चुकी है। जागरूक माता-पिता प्राइवेट प्रशिक्षण को महत्त्व देने लगे हैं। बच्चे के पैदा होते ही उन्हें प्री-प्राइमरी स्कूल में प्रवेश पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। इसके लिए घर-घर खुले हुए प्रशिक्षण केंद्रों की शरण में जाना पड़ता है। स्कूल में पढ़ते हुए भी बच्चे ट्यूशन पर अधिक निर्भर रहने लगे हैं। अच्छे से अच्छे स्कूलों की भी यही दशा है माता-पिता को कहीं शांति अथवा चैन नहीं। वे चाहते हैं कि उनका बच्चा 90 प्रतिशत से ऊपर अंक के साथ प्रथम आए। इसके चलते योग्य शिक्षकों ने प्राइवेट डॉक्टरों की तरह प्राइवेट ट्यूशन अकादमियाँ खोल ली हैं। वे 8 से 10 हज़ार की सीमित आय के बजाय हज़ारों लाखों कमाने लगे हैं। घर-घर में ट्यूशन सेंटर खुल चुके हैं। जिसके फलस्वरूप कितने ही बेरोजगारों को रोजगार मिला है।

कक्षा बारहवीं तो मनो वाटर लू का मैदान हो गई है। यह साल बच्चे के लिए टर्निंग प्वाइंट होता है। इसलिए माता-पिता बच्चे पर इस वर्ष सबसे ज्यादा ध्यान देते हैं। विज्ञान के बच्चे पूरा वर्ष ट्यूशन और कोचिंग का बोझ उठाते हैं। उसके बाद प्रवेश परीक्षा के लिए रिफ्रेशर या क्रैश कोर्स करते हैं। आज पढ़ाई मानो युद्ध का मैदान हो गई है। अब लोग अच्छी शिक्षा के लिए प्राइवेट कोचिंग केंद्रों पर ज्यादा भरोसा करने लगे हैं। इन केंद्रों में मोटी फीस वसूल की जाती है।

बारहवीं कक्षा के बाद अधिकतर योग्य छात्र इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, चार्टेड अकाउंटेंट आदि के निश्चित व्यवसाय खोज लेते हैं। जो इन क्षेत्रों में असफल रहते हैं, वे ही दूसरे विकल्प के रूप में कॉलेज की परंपरागत शिक्षा की ओर रुख करते हैं। इसलिए कॉलेज की पढ़ाई तो दूसरी श्रेणी की पढ़ाई बनकर रह गई है। कुछ अच्छे कॉलेजों में चल रहे व्यावसायिक या तकनीकी पाठ्यक्रमों को छोड़ दें, तो शेष सब कॉलेज मानो टाइम पास करने का माध्यम बनकर रह गए हैं। किशोर-किशोरियाँ आते हैं
और गप्पे लड़ाकर घर लौट जाते हैं।

प्रश्नः 9. लत है ज़रा बचकर ।
?‍♂️उत्तर – शॉपिंग करने में सबको मजा आता है। कुछ लोग ज़रूरत होने पर ही शॉपिंग करते हैं। वहीं कुछ लोग शॉपिंग का बहाना ढूँढ़ते हैं। वह आदतन बाज़ार जाकर कुछ न कुछ खरीददारी करते रहते हैं। ऐसे लोग कई दिनों तक बाज़ार न जा पाएं, तो उन्हें अजीब सा महसूस होने लगता है। ऐसे लोगों को शॉपहोलिक माना जाता है। एक शोध के मुताबित अमेरिका में लगभग 6 प्रतिशत लोग शॉपहोलिक हैं। आज जिस तरीके से रिटेलर्स अपने उत्पादों की ब्रांडिंग और उनका प्रमोशन कर रहे हैं, उस लिहाज से शॉपहोलिक लोगों की संख्या भारत में भी लगातार बढ़ रही है। ऑनलाइन बाजार में तेजी आने से लोगों को खरीदारी की लत लग रही है। वे घर बैठे ऐसे ढेरों आइटम ऑर्डर कर देते हैं, जिनकी ज़रूरत उन्हें नहीं है। मनोचिकित्सकों का मानना है कि शॉपहोलिक होना एक तरह की समस्या है और सिर्फ अपने को खुश रखने के लिए इस आदत पर कंट्रोल बहुत ज़रूरी है।

कहीं आपमें तो यह लक्षण नहीं…

अगर बाजार से लौटने के दो-तीन दिन बाद ही आपको लगता है कि बाज़ार गए काफ़ी दिन हो गए हैं, तो यह शॉपहोलिक
होने का एक लक्षण है।
बिना प्लानिंग के आप मार्किट चले जाते हैं और फिजूल में ढेर सारी चीजें खरीद लेते हैं।
जो चीजें पहले से आपके पास हैं और मार्किट में उसके नए डिजाइन आपको दिखते हैं, तो आप उन्हें भी खरीद लेते हैं।
अक्सर इलेक्ट्रोनिक सामान के मामले में ऐसा होता है।
यदि अपनी कमाई का ज़्यादा हिस्सा शॉपिंग पर उड़ाते हैं, तो भी आप शॉपहोलिक हैं।

..तो उपाय क्या है

लोग सेल के लुभावने ऑफर के चलते ज़रूरत से ज़्यादा शॉपिंग करते हैं। अपनी जेब को ध्यान में रखें और ज़रूरत की ही शॉपिंग करें।
अगर आपके पास क्रेडिट कार्ड हैं, तो शॉपिंग पर कंट्रोल करना मुश्किल होता है। इसलिए इस आदत से बचें।
बिना प्लानिंग के शॉपिंग न करें। अगर मन है, तो पहले प्लानिंग करें कि क्या खरीदना है।
खाली समय में शॉपिंग करने की आदत है, तो उस समय का इस्तेमाल दूसरे कामों में करें।

प्रश्नः 10. शहर से पहले समाज को स्मार्ट बनाएँ
?‍♂️उत्तर – आजकल स्मार्ट सिटी बनाने की चर्चा जोरों पर है। एक ऐसा शहर, जहाँ जीवन की सभी आधारभूत सुविधाएँ ऑनलाइन उपलब्ध हो जाएँ। न भाग-दौड़, न घूस, न सिफारिश की ज़रूरत पड़े। जहाँ आवागमन, पर्यावरण, स्वच्छता, स्वास्थ्य, पानी, बिजली, सुरक्षा और मनोरंजन की अति आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध हों। जहाँ का जीवन बाधा रहित हो। जहाँ का समाज देश और मानव मूल्यों के उच्च स्तर से स्वयं को जोड़े, ऐसे शहर या गांव की परिकल्पना बुरी नहीं है। इसका हर कोई स्वागत करेगा, करना भी चाहिए। मगर ऐसी परिकल्पना केवल कुछ लोगों के लिए या उदाहरण मात्र हो और बाकी समाज नारकीय जिंदगी जीने को अभिशप्त हो, तो इस पर उँगलियाँ उठेगी ही। दुनिया ने जन सुविधाओं को बेहतर बनाकर जो मुकाम हासिल किया है, उसको देखते हुए, हमारी स्थिति अब भी आदिम स्तर की है। देश में हमने जीवन के कई स्तरों का निर्माण किया है। कुछ के पास

खर्च करने को अथाह पैसा है, तो बहुतों का पूरा दिन रोटी के जुगाड़ में बीत जाता है। किसी का एक वक्त में पेट हज़ारों में भरता है, तो कोई महज 26 रुपए में पूरे परिवार को पालता है। ऐसे में स्मार्ट सिटी बनाने की नीति क्या कुछ धनाढ्यों के लिए है या देश के सभी नागरिकों के लिए, यह स्पष्ट कर देना चाहिए।

स्मार्ट सिटी में रहने वाले नागरिक, जाहिर है, स्मार्ट होंगे। मसलन स्मार्ट समाज ही स्मार्ट सिटी में रह सकता है, हकीकत में हमारा समाज, ज्ञान, विज्ञान और सभ्यता के क्षेत्र में कबीलाई और ‘ई’ मानसिकता में एक साथ जी रहा है। देश के सभी नागरिकों के जीवन स्तर में बहुत ज्यादा असमानता होने का मतलब यही होगा कि स्मार्ट योजनाएँ, चंद गिनती के लोगों के लिए तो संभव बना दी जाएंगी, मगर सबके लिए नहीं। अभी तक हमारे पास यह योजना नहीं कि आने वाले दिनों में बढ़ती जनसंख्या और उसके उपयोग की सारी चीज़ों, मसलन आवागमन के साधन, शिक्षा, स्वास्थ्य या रहने के लिए मकान कैसे उपलब्ध कराए जाएंगे?

शहर स्मार्ट बनें, जन सुविधाएँ बेहतर हों और आम नागरिक का जीवन सुखमय हो, यही तो विकास का पैमाना है। हमारे यहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य और संचार के साधन आम नागरिकों के हिस्से में किस स्वरूप में उपलब्ध हैं, और आने वाले दिनों में किस स्वरूप में उपलब्ध होंगे, स्मार्ट बनने की दिशा में ये ही मुख्य कारक होंगे। स्मार्ट सिटी को लेकर जो पैमाने गढ़े जा रहे हैं, उन्हें पढ़कर एक भ्रम पैदा हो रहा है कि क्या हमारी जनसंख्या को स्मार्ट बनाने की दिशा में हम बेहतर तरीके अपना रहे हैं? शिक्षा की स्थिति दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। दलित, अल्पसंख्यकों और निर्बल समाज पर जुल्म बढ़ रहे हैं। साक्षर होने का मतलब हमने महज अक्षर ज्ञान से लगा लिया है। ऐसे में यह विचार किया जाना चाहिए कि क्या अल्पशिक्षित आबादी किसी स्मार्ट सिटी का हिस्सा बनने में सक्षम होगी, यह हम ऐसी अल्पशिक्षित आबादी को निकाल कर कोई शहर बसाने जा रहे हैं ? अगर नहीं, तो क्या पहले लोगों को स्मार्ट बनाने की दिशा में हमें आगे नहीं बढ़ना चाहिए। क्या महानगरों में रेल की पटरियों पर शौच करती एक बड़ी आबादी को पहले शौचालयों तक नहीं पहुँचाना चाहिए? क्या जनसंख्या का जो विस्फोट शहरों में समाता जा रहा है, उसको नियंत्रित करने या समाहित कर लेने की क्षमता हमारे नियोजन में है ? हमारे जीवन के संसाधन सिमटते जा रहे हैं। हवा, पानी और अन्न विषैले होते जा रहे हैं। इस दिशा में चिंता करना ही स्मार्ट समाज निर्माण की पहली ज़रूरत होनी चाहिए।

प्रश्नः 11. हँसने की वजह
?‍♂️उत्तर – हास्य एक-आयामी नहीं है, इसमें मनुष्य की आत्मा के तीनों आयाम हैं। जब तुम हँसते हो, तो तुम्हारा शरीर उसमें सम्मिलित होता है, तुम्हारा मन उसमें सम्मिलित होता है, तुम्हारी आत्मा उसमें सम्मिलित होती है। हास्य में भेद खो जाते हैं, विभाजन खो जाते हैं, खंडमना व्यक्तित्व खो जाता है लेकिन यह उन लोगों के विपरीत पड़ता था, जो मनुष्य का शोषण करना चाहते थेराजे-महाराजे, चालबाज़ राजनीतिज्ञ। उनके समस्त प्रयास जैसे-तैसे मनुष्य को कमज़ोर व रुग्ण करने के थे : मनुष्य को दुखी बना दो और वह कभी विद्रोह नहीं करेगा।

मनुष्य का हास्य उससे छीन लेना उसका जीवन ही छीन लेना है। दुखी लोग खतरनाक हैं, सिर्फ इस कारण क्योंकि यह पृथ्वी बचे या नष्ट हो जाए, उन्हें कोई परवाह नहीं। वे इतने दुखी हैं कि गहरे में वे सोच सकते हैं कि सबकुछ विनष्ट हो जाता तो बेहतर होता। अगर तुम दुख में जी रहे हो तो कौन फिक्र करता है? केवल आनंदित लोग, मस्त लोग, नाचते हुए लोग चाहेंगे कि यह ग्रह सदा-सदा रहे।

क्या तुमने स्वयं पृथ्वी पर हँसने का कोई कारण नहीं पाया? ऐसा है, तो तुमने खोज बुरी तरह की। एक बच्चा भी कारण पा सकता है। वास्तव में, केवल बच्चे ही खिलखिलाते व हंसते पाए जाते हैं और वयस्क लोग सोचते हैं कि चूंकि वे अज्ञानी बच्चे हैं, उन्हें क्षमा किया जा सकता है-अभी वे ‘सभ्य’ नहीं हुए हैं, आदिम ही हैं। मां-बाप, समाज आदि का सारा प्रयास ही यही है कि कैसे उन्हें ‘सभ्य’ बना देना, गंभीर बना देना, कैसे ऐसा बना देना कि वे गुलामों की तरह व्यवहार करें, स्वतंत्र व्यक्तियों की तरह नहीं।

बच्चे हँस सकते हैं, क्योंकि उन्हें किसी बात की अपेक्षा नहीं है। उनकी आँखों में एक स्पष्टता है चीज़ों को देखने की-और दुनिया इतने बेतुकेपन से, इतनी हास्यास्पदताओं से भरी हुई है! केले के छिलकों पर फिसलकर इतना गिरना हो रहा है कि बच्चा उसे देखने से बच नहीं सकता! ये हमारी अपेक्षाएँ हैं, जो हमारी आँखों पर परदे का काम करती हैं।

जिस दिन मनुष्य हँसना भूल जाता है, जिस दिन मनुष्य हंसी-खेलपूर्ण रहना भूल जाता है, जिस दिन मनुष्य नाचना भूल जाता है, वह मनुष्य नहीं रह जाता। वह अर्ध-मानवीय योनियों में गिर गया। खिलंदड़पन उसे हलका बनाता है, प्रेम उसे हलका बनाता है, हास्य उसे पंख देता है। हर्षोल्लास से नाचते हुए वह सुदूरतम सितारों को छू सकता है, वह जीवन के रहस्यों में प्रवेश पा सकता है।

गंभीर आदमी हँस नहीं सकता, नाच नहीं सकता, खेल नहीं सकता। वह निरंतर स्वयं को नियंत्रित कर रहा है, अपना ही जेलर बन गया है। निष्ठावान व्यक्ति निष्ठा से खुशियाँ मना सकता है, नाच सकता है, हँस सकता है और हँसने में व्यक्ति का शरीर, मन, आत्मा सम्मिलित हो जाते हैं। खंड विलीन हो जाते हैं, खंडित व्यक्तित्व खो जाता है।

हास्य तुम्हें वापस ऊर्जा से भर देता है। क्या तुमने कभी अपने भीतर इसका निरीक्षण किया है-जब तुम प्रसन्न होते हो, आनंदित होते हो, तो कुछ सृजन करना चाहते हो। जब तुम दुखी और पीड़ित होते हो, तुम कुछ नष्ट करना चाहते हो।

एक ही वाक्य में कहना हो, तो मैं कह सकता हूँ कि हम मानवता को प्रमुदित कर सकें, तो तीसरा महायुद्ध नहीं होगा।

प्रश्नः 12. दो झंडे पर रोक
?‍♂️उत्तर – जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय की एक बड़ी बेंच द्वारा राज्य सरकार के फ्लैग ऑर्डर पर, जिसमें सरकारी इमारतों और गाड़ियों पर राष्ट्रीय ध्वज के साथ राज्य का झंडा फहराए जाने का प्रावधन है, रोक लगाने के ताजा फैसले को उसकी समग्रता में समझने की ज़रूरत है। दरअसल राज्य में पीडीपी-भाजपा की गठबंधन सरकार के सत्ता में आने के बाद भाजपा के मंत्रियों-विधायकों ने जिस तरह राज्य के झंडे की अनदेखी शुरू की, उसे देखते हुए सरकार ने फ्लैग ऑर्डर पर अमल करने के लिए परिपत्र जारी किया था, पर भाजपा की आपत्ति के बाद उसे वापस ले लिया गया। इस पर जब एक नागरिक ने एक याचिका दायर की, तब उच्च न्यायालय की डिविजनल बेंच ने तिरंगे के साथ राज्य का झंडा फहराने का निर्देश दिया था। हाई कोर्ट की दो जजों वाली बेंच ने अब उस फैसले पर रोक लगाई है। यह इतना गंभीर मामला है कि इस पर तत्काल प्रतिक्रिया देने में संयम बरतना चाहिए। जम्मू-कश्मीर न केवल बेहद संवेदनशील राज्य है, बल्कि वहां के क्षोभ या अस्थिरता का फायदा उठाने के लिए अलगाववादी तत्व हमेशा तैयार रहते हैं।

इसलिए जो लोग इसे राज्य की पहचान खत्म करने की कोशिश बता रहे हैं, उन्हें अदालत के अगले आदेश तक इंतजार करना चाहिए। दूसरी ओर, अदालत की इस रोक को तिरंगे की सर्वोच्चता के रूप में व्याख्यायित करने वाले लोगों को समझना होगा कि जम्मू-कश्मीर इंस्ट्रमेंट ऑफ एसेसन या विलय की जिन शर्तों के साथ भारतीय गणतंत्र का हिस्सा बना था, उनमें राज्य का अलग संविधान और अलग झंडा भी था। संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का जो दर्जा प्राप्त है, उसे अचानक खत्म नहीं किया जा सकता। भाजपा चूंकि राज्य की गठबंधन सरकार में भागीदार है, लिहाजा सांविधानिक यथास्थिति और सूबे में शांति और स्थिरता बहाल रखना उसकी भी जिम्मेदारी है। उसे भूलना नहीं चाहिए कि विधानसभा चुनाव के समय खासकर घाटी के मतदाताओं ने उसकी नीतियों पर संदेह जताया था। ऐसे में, अब अगर वह सूबे के विशिष्ट सांविधानिक चरित्र पर सवाल उठाती है, तो उसकी छवि तो प्रभावित होगी ही, इसका दूसरे कई मामलों में असर दिखेगा।

प्रश्नः 13. छोटे सिनेमाघरों का बढ़ता दौर
?‍♂️उत्तर – नए वर्ष में भी फ़िल्म उद्योग में सफलता का प्रतिशत बदलने की कोई आशा नहीं है और यह भी सही है कि संयोगवश किसी को अवसर मिलेगा और वह सफल फ़िल्म बना लेगा और यह भी सही है कि असाधारण प्रतिभाशाली लोग फिर कोई ‘मसान’ प्रस्तुत कर दे, कहीं से कोई ‘कहानी’ या ‘विकी डोनर’ आ जाए। विगम 103 वर्षों में ये दोनों धाराएँ हर वर्ष मौजूद रही हैं। दरअसल, फ़िल्म उद्योग की मूल समस्या सरकार का स्लीपिंग पार्टनर होना नहीं है। मूल समस्या यह है कि सवा सौ करोड़ की आबादी में किसी भी सफल फ़िल्म को 2.25 करोड़ लोगों ने ही सिनेमाघर में देखा है, क्योंकि पूरे देश में मात्र 9 हज़ार एकल सिनेमा हैं।

अनगिनत कस्बों और छोटे शहरों में सिनेमाघर ही नहीं है। भारत में 30 हजार छोटे एकल सिनेमाघरों की आवश्यकता है ताकि पहले सप्ताह की आय भी मौजूदा सौ करोड़ से बढ़कर 3000 करोड़ की हो जाए। सबसे बड़ा भ्रम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने सौ, दो सौ और तीन सौ करोड़ की आय के आंकड़े प्रकाशित करके फैलाया है। वास्तव में यह ग्रॉस यानी सकल आय है और इसका 45 फीसदी ही शुद्ध आय है। उदाहरण के लिए ‘दिलवाले’ और ‘बाजीराव मस्तानी’ ने छुट्टियों से भरे बारह दिनों में 130 करोड़ की प्रॉस आय अर्जित की है अर्थात शुद्ध आय पचास के ऊपर नहीं है और दोनों की लागत 150 करोड़ प्रति फ़िल्म है तथा अब आने वाले दिनों में वे अपनी लागत तक नहीं पहुँच पाएंगे।

डेढ़ सौ सीटों के एकल सिनेमाओं की वृद्धि की परम आवश्यकता है। मल्टीप्लेक्स टिकिट बिक्री के आधार पर नहीं टिके हैं, जो बमुश्किल औसतन 30 प्रतिशत से अधिक नहीं है वरन् पॉपकॉर्न, शीतल पेय और पार्किंग लॉट से वे मुनाफे में हैं। एकल सिनेमा निर्माण की राह में सबसे बड़ा रोड़ा लायसेंसिंग नियमावली है और प्रदर्शन के क्षेत्र में कॉर्पोरेट भागीदारी आवश्यक कर दी गई है। सबसे बडी त्रासदी यह है कि कॉर्पोरेट और औदयोगिक घरानों को अभी तक भारत की विराट संभावनाओं की कल्पना तक नहीं है। आप टूथपेस्ट या साबुन केवल महानगरों और मध्यम शहरों में बेचकर खुश हैं, जबकि ग्रामीण और आंचलिक विराट मार्केट की आपको कल्पना ही नहीं है। समर्थ लोगों की सोच यही है कि सूर्य का प्रकाश-वृत्त छोटी ही बना रहे और उस पर उनका कब्जा रहे। अगर प्रकाश-वृत्त चहुं ओर पहुँच जाए तो पृथ्वी जगमगा उठेगी। इन घरानों ने फ़िल्म निर्माण में धन लगाया और इसमें पूँजी निवेश बढ़ाने पर भी वे सितारों की दासता करते रहेंगे परंतु डेढ़ सौ सीट के हजारों सिनेमाघर बनाकर वे फ़िल्म उद्योग के राजा हो सकते हैं। अभी तक देश के सारे उद्योगों का हाल यह है कि वे अपनी कूप मंडूकता के शिकार हैं। उनकी अपनी संकीर्णता उन्हें आगे नहीं बढ़ने देती। सारे मामले को शैलेंद्र ने क्या खूबी से प्रस्तुत किया है, ‘मन का घायल पंछी उड़ने को है बेकरार, पंख हैं कोमल, आँख है धुंधली, जाना है सागर पार, अब तू ही हमें बता, कौन दिशा से आए हम।’

प्रश्नः 14. असफलता को उत्सव की तरह मनाएँ
?‍♂️उत्तर – हम दो चीज़ों से बहुत डरते हैं। एक भगवान से और दूसरा असफलता से। भारतीय समाज में असफलता का इतना आतंक है कि नाकाम होने वाले इंसान में दोबारा कोशिश करने की हिम्मत ही नहीं रहती। इसके खौफ से घबरा कर कई लोग तो अपनी जान तक दे देते हैं। इसी डर की वजह हम न तो कुछ नया सोच पाते हैं और न ही किसी प्रयोग के लिए तैयार होते हैं। हम करना तो बहुत कुछ चाहते हैं। काबिलियत भी होती है लेकिन फेल न हो जाएँ, इस डर से कदम खींच लेते हैं। हम डरते हैं, कहीं गलती न हो जाए। निर्णय गलत न लिया जाए। कहीं बेवकूफ न बन जाएँ। अगर नाकाम रहे तो जग हँसाई हो जाएगी। इसे विडंबना कहेंगे कि जहाँ पूरी दुनिया प्रयोगों पर केंद्रित हो रही है, हम आज भी डरों की चादर में दुबके बैठे हैं। असफलता को गले लगाना तो दूर, उसका सामना करने को तैयार नहीं हैं। इस पर खुली चर्चा और बहस होनी चाहिए।

मेरी नज़र में असफलता अधूरा और भ्रामक शब्द है और न ही यह सफलता का विपरीत शब्द है। क्योंकि असफलता नाम की कोई वस्तु नहीं होती। हाँ यह सफलता का एक हिस्सा आवश्य है। एक पड़ाव है। हर प्रयास या कोशिश से व्यक्ति कुछ न कुछ नया सीखता है। अनुभवी होता है। फिर वह असफल कैसे हुआ? जो नाकाम रहता है वो उन लोगों की तुलना में अधिक साहसी, आत्मविश्वासी और काबिल होता है, जिन्होंने डर की वजह से कभी कोशिश ही नहीं की। अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था अगर आप कभी असफल नहीं हुए तो इसका अर्थ है कि आपने कभी नया करने की कोशिश ही नहीं की। एडीसन ने अपने प्रयासों को कभी असफल नहीं कहा अपितु बताया कि उन्हें दस हज़ार ऐसे तरीकों का ज्ञान हआ जो इस दिशा में काम नहीं करते।

आज पूरी दुनिया में असफलता के मायने बदल चुके हैं। गूगल, थ्री-एम, आईबीएम, जैसी कंपनियाँ नए प्रयोगों के लिए अपने कर्मियों को निरंतर प्रेरित करती हैं। असफल रहने पर उनके प्रयासों और प्रयोगों से कई दफा ऐसे आइडिए निकल आते हैं, जिनकी कभी कल्पना ही नहीं की गई होती। स्वाभाविक है, जिस मुल्क में जितनी अधिक असफलताएँ होंगी वहाँ उतनी ज्यादा कामयाबियाँ भी होंगी। यही वजह है हम भारतीय लोग रचनाशीलता की ग्लोबल तालिका में फिसड्डी हैं।

‘इंजीनियर्स विदाउट बार्डर्स’ कनाडा की ऐसी संस्था है जो अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के इंजीनियरिंग समाधान ढूढ़ती है। यह संस्था हर वर्ष बाकायदा अपनी फेलयोर रिपोर्ट प्रकाशित करती है। इसके माध्यम से बताना चाहते हैं कि हम जोखिम उठाते हैं, असफल भी रहते हैं, दसलिए हम अपनी इनोवेशन की ताकत से दुनिया भर की समस्याएँ सुलझा लेते हैं।

आस्ट्रेलिया की फ़ौज में केवल उन्हीं आवेदकों को चुना जाता है जो कभी न कभी असफल ज़रूर हुए हों। उनका मानना है यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में असफल नहीं हुआ तो वह किसी भी संकट में असफलता के डर से घबरा सकता है।

असफलता के प्रति हमारे सामाजिक नज़रिए में बदलाव की ज़रूरत है क्योंकि कोशिश करना और असफल होना कोई मजाक नहीं है। उसमें समय पैसा, उत्साह और सपने बहुत कुछ दांव पर लगा होता है जिसकी वजह से निराशा आती है। गुस्सा और खीझ भी पैदा होती है। कई बार उखड़ भी जाते हैं। ऐसे में सामाजिक दबाव दोबारा कोशिश के दरवाज़े बंद कर देता है।

दरअसल हमारी जिंदगी एक प्रयोगशाला यानि लोबोरेट्री है, जहाँ संभावनाओं को तलाशने के लिए निरंतर प्रयोग करने चाहिए। इसके बिना हम जान ही नहीं पाते कि हमारे भीतर क्या-क्या छिपा है। हमें खोजना चाहिए। बार-बार खोजना चाहिए। ई-कॉमर्स की दुनिया के बादशाह और ऑमेज़न के मालिक जेफ बेजोस कहते हैं जो व्यक्ति या कंपनी निरंतर प्रयोग नहीं करते और फेलियर को गले नहीं लगाते वे निराशाजनक स्थिति में पहुँच जाते हैं।
इसलिए हम असफलताओं को न केवल गले लगाएँ बल्कि उनका उत्सव मनाएँ।

प्रश्नः 15. लॉलीवुड को भारत का इंतज़ार
?‍♂️उत्तर – भारतीय एयरटेल डिश टेलीविज़न पूरे पाकिस्तान में देखा जाता है और खास तौर पर यह रावलपिंडी में सैन्यकर्मियों की पत्नियों के बीच काफ़ी लोकप्रिय है। भले नियंत्रण रेखा पर दोनों मुल्कों के बीच छोटी-मोटी झड़पें हो रही हों, पर ‘सास-बहू’ वाले धारावाहिकों की पाकिस्तान में काफ़ी माँग है। जो लोग भारतीय राजनीति में दिलचस्पी रखते हैं, उन्हें विभिन्न चैनलों पर चलने वाले न्यूज टॉक शो देखना अच्छा लगता है। इसके बावजूद पाकिस्तानी दर्शक जी टीवी पर दिखाए जा रहे नए धारावाहिक के प्रोमो से दुखी हैं, जो सांप्रदायिक दंगे की पृष्ठभूमि में एक प्रेम कहानी पर आधारित है और जिसमें हिंदू एवं मुस्लिमों को एक दूसरे के खून का प्यासा दिखाया गया है। अब तक जो दृश्य दिखाए गए हैं, वे काफी भयावह हैं।

पाकिस्तान के धारावाहिकों में इतना कुत्सित दृश्य कभी नहीं दिखाया जाएगा। मुल्क का बंटवारा एक सच्चाई है। पर आज जब सहिष्णुता का बिलकुल अभाव है, तब ऐसे धारावाहिक न तो दोनों मुल्कों और न ही दो समुदायों के रिश्ते को बेहतर बना सकते हैं। दोनों समुदायों के बीच का तनाव खत्म करने में भी यह धारावाहिक कैसे मदद करेगा? टीवी और सिनेमा का दर्शकों पर काफ़ी प्रभाव पड़ता है, लिहाजा घृणा फैलाने वाले ऐसे दृश्य नफ़रत ही ज़्यादा पैदा करेंगे।

भारत को पाकिस्तानी फ़िल्मों का भी आयात करना चाहिए, ताकि दुनिया भर की फिल्में देखने वाले भारतीय दर्शक लॉलीवुड (पाकिस्तानी फ़िल्म उद्योग) की फिल्में भी देख सकें। आखिर अब माहिरा और फवाद खान जैसे लॉलीवुड के बड़े कलाकार बॉलीवुड में काम करते हैं। पाकिस्तान के आधुनिक और कव्वाली जैसे शास्त्रीय संगीत के गायक भी भारत में काफी लोकप्रिय हैं।

पाक टीवी ने कुछ अनूठे धारावाहिक बनाए हैं, जैसे हमसफर, जिसे भारत में जी टीवी ने प्रसारित किया। इसी तरह पाकिस्तानी फिल्मों के पुनरुद्धार की कहानी दुनिया भर की सुर्खियों में है। ऐसे में अगर भारतीय दर्शकों को पाकिस्तानी फ़िल्म देखने का मौका दिया जाए, तो फवाद और माहिरा खान जैसे सितारों के लिए उनका दिल भी धड़केगा।

आज भारतीय फ़िल्में पूरे पाकिस्तान में देखी जाती हैं, जहाँ बजरंगी भाईजान और वेलकम बैक बॉक्स ऑफिस पर बेहद सफल रही हैं। लॉलीवुड में मंटो फ़िल्म बनाई है, जो हाउस फुल चल रही है। ऐसा इससे पहले कभी नहीं हुआ कि बॉलीवुड की फ़िल्म की तुलना में किसी पाक फ़िल्म की इतनी ज़्यादा मांग रही हो। कट्टी-बट्टी के प्रदर्शन के दौरान सिनेमा हॉल की सीटें खाली पड़ी थीं। ऐसी प्रतिस्पर्धा अच्छी बात है, इससे पाकिस्तानी फ़िल्मों में सुधार आएगा।

राजनीति भारतीय फ़िल्म निर्माताओं एवं सितारों को पाकिस्तान में काम करने से हतोत्साहित करेगी, पर इतिहास साक्षी है कि कला एवं संस्कृति हमेशा राजनीति से श्रेष्ठ और स्थायी रही है। पाकिस्तान में हिंदू शासन नहीं कर पाए, पर कटासराज मंदिर तमाम राजनीति से बचा हुआ है। उसी तरह भारत में मुसलमान सत्ता में नहीं हैं, पर उनकी विरासत ताजमहल अब भी बचा हुआ है।

खबर है कि महेश भट्ट लॉलीवुड के साथ फ़िल्म बनाएंगे, ऐसे में अन्य भारतीय फ़िल्म निर्माता भी पाकिस्तान का रुख कर सकते हैं। भारतीय सितारे चूंकि काफ़ी पैसे लेते हैं, ऐसे में पाकिस्तानी निर्माताओं के लिए उतना भुगतान करना बहुत मुश्किल होगा। मोटे पैसे के लालच में ही पाक सितारे भारत में काम करने जाते हैं।

फ़िल्मों और टीवी में अगर कड़वे इतिहास की कहानी दिखानी ही हो, तो इसे पेशेवर ढंग और संवेदनशील तरीके से दिखाना चाहिए, ताकि नफ़रत भरे दृश्य कम दिखें। मुगले आजम, मदर इंडिया, शोले और कई अन्य फ़िल्में नफरत से आजाद हैं, पर
इन फ़िल्मों ने इतिहास रचा है।

प्रश्नः 16. ट्रेन में बैठा है शहरों का भविष्य
?‍♂️उत्तर – आप किसी भी शहर में क्यों न हों आपको पूरी तरह स्वचालित और सुविधाओं से लैस ट्रेनों की सुविधा मिलेगी, जो घड़ी के कांटे के साथ एक के बाद एक स्टेशन पर आती रहेंगी। न वेटिंग लिस्ट और न टिकट के लिए कतार में लगने का झंझट। यह कोई दिन में देखा गया ख्वाब नहीं है, इनमें से कुछ बातें तो कई देशों में साकार हो चुकी हैं। हमें ट्रेनों में बदलाव नहीं दिखाई देता, लेकिन कम लागत, कम प्रदूषण और सड़क परिवहन की तुलना में एक-तिहाई जगह की ज़रूरत के कारण रेल भविष्य की तरक्की का ‘इंजन’ है।

अब गांवों की बजाय शहरों में लोग बढ़ते जा रहे हैं तो देश में मेट्रो ट्रेन महानगरों से मझले शहरों में प्रवेश कर रही है। जहाँ तक सुविधाओं की बात है तो दक्षिण कोरिया के सिओल की ट्रेन में टीवी और ठंड के दिनों के लिए गरम सीटों की सुविधा है तो कोपेनहेगन में कम लागत की ड्राइवरलेस ट्रेन चल रही है। 2030 तक दुनिया की 60 फीसदी आबादी शहरों में होगी। इसमें भारत भी शामिल है।

19वीं सदी की शुरुआत में घोडागाडी परिवहन का लोकप्रिय साधन रहा है। घोड़े के पीछे लगे कोच को स्टेजकोच कहा जाता था। इसी से 1830 के दशक में रेलवे कोच का विचार आया। शुरुआत के कुछ कोच में से एक था ‘स्टैनहॉप।’ इसमें हालांकि छत होती थी, लेकिन फर्श पर छेद बने होते थे ताकि बारिश के दिनों में दरवाजे व खिड़कियों से आने वाला पानी निकल सके। इसके साथ दिक्कत यह थी कि यात्रियों को पूरी यात्रा में खड़े रहना पड़ता था। फिर कोच की श्रेणियाँ बनीं। प्रथम व द्वितीय श्रेणी के कोच बंद होते थे जबकि तृतीय श्रेणी के कोच खुले होते थे और वे बंद कोच के पीछे लगे होते थे। इनमें बैठने के लिए बेंचें होती थीं।

साल गुज़रने के साथ बैठने की व्यवस्था में अधिक आराम का ख्याल रखा जाने लगा। अब तृतीय श्रेणी, गार्ड और सामान को भी कोच के भीतर जगह दी जाने लगी। पुराने चार पहियों वाले कोच की जगह छह पहिये वाले अधिक आरामदेह कोच ने ले ली।

पश्चिम के ठंडे देशों में ट्रेन में गरमी की व्यवस्था करने की समस्या थी। वहाँ शुरू में तो स्टेशनों पर गरम पानी की बोतलें व कंबल किराए पर मिलते थे। बाद में इंजन से मिलने वाली भाप से डिब्बों को गरम रखा जाने लगा। शुरुआत में गार्ड के पास हैंड ब्रेक होता था और यात्रियों के लिए ट्रेन रोकने की जंजीर, लेकिन अधिक सुरक्षा के लिहाज से बाद में सारे डिब्बों में ‘कंटीन्यूअस ब्रेक’ की व्यवस्था रखी जाने लगी, जिसका नियंत्रण आज की तरह ड्राइवर के पास था। आपको जानकर अचरज होगा कि शुरुआत में कोच में रोशनी की व्यवस्था लालटेन से होती थी। हालांकि खास लोगों के लिए ‘सलून’ होते थे, जिनकी छत में रोशनी के लिए कांच लगे होते थे।

फिर लालटेन की जगह गैस वाले लैंप आए, लेकिन आग लगने की कुछ भयावह दुर्घटनाओं के बाद बिजली का इस्तेमाल होने लगा। 1900 आते-आते ट्रेनों में ‘बोगी’ कोच आ गए, जो लगभग वैसे ही थे, जैसे आज हम जानते हैं। इनके पहियों और बोगियों के बीच ससपेंशन स्प्रिंग होने से यात्रा में लगने वाले झटके बहुत कम हो गए और सफर आरामदेह हो गया। चूंकि भारत में ट्रेन आने तक कोच का काफ़ी कुछ विकास हो चुका था, इसलिए यहां कभी खुले और खड़े रहकर सफर किए जाने वाले कोच नहीं आए। बोगी कोच के बाद स्लीपिंग कार या यानी स्लीपर कोच का विचार आया।

प्रश्नः 17. ऑनलाइन निमंत्रण, हाजिर मेहमान
?‍♂️उत्तर – घर में शादी होती थी, तो निमंत्रण कार्ड का हल्दी और चावल से पूजन होता था। इसके बाद प्रथम निमंत्रण भगवान को देने के बाद रिश्तेदारों और परिचितों को कार्ड बांटे जाते थे, लेकिन जैसे-जैसे हमारी जीवनशैली में इंटरनेट की दखलअंदाजी बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे कार्ड बांटने की जगह ऑनलाइन निमंत्रण का चलन बढ़ता जा रहा है। दूर-दराज रह रहे लोगों को कार्ड देने जाना किसी चुनौती से कम नहीं है। शादी की तैयारियों के बीच कार्ड बांटने में काफ़ी समय लगता है।

इसलिए ऑनलाइन निमंत्रण एक आसान माध्यम है मेहमानों और परिचितों तक संदेश पहुँचाने का। खासबात यह है कि ऑनलाइन निमंत्रण भी विशेष रूप से डिजाइन किए जा रहे हैं। ऑनलाइन निमंत्रण में भी कई तरह से सेग्मेंट होते हैं। जैसे वीडियो निमंत्रण और ऑडियो निमंत्रण। आप अपनी ज़रूरत और पसंद के हिसाब से कार्ड डिजाइन करा सकते हैं और फेसबुक, व्हाट्सऐप, ट्विटर और मेल के जरिए भेज सकते हैं। रेस्पॉन्स के चांसेज ज़्यादा होते हैं। अगर आपने व्हाट्सऐप, फेसबुक या मेल के माध्यम से किसी को निमंत्रण भेजा है, तो जवाब तुरंत मिल जाता है।

प्रश्नः 18. एप : जिसने उँगली तले ला दिया नेट
?‍♂️उत्तर – स्मार्टफ़ोन से यदि एप निकाल दिए जाएँ, तो वो मात्र एक डिवाइस रह जाएगा। एप ही स्मार्टफ़ोन की स्मार्टनेस हैं। एक समय था, जब मोबाइल का काम केवल बातें करना और मैसेज भेजना होता था। स्मार्टफ़ोन बनने से उसका उपयोग बढ़ गया। इसी तरह एप तैयार करने की संभावनाएँ बढ़ीं और फिर क्रांति ही आ गई। आज पूरी दुनिया एप बना रही है, लेकिन 10 देशों का कब्जा है। उनमें भारत भी प्रमुख है।

एप ऑपरेट करने के लिए ऑपरेटिंग सिस्टम ज़रूरी था। ब्रिटेन की माइक्रोकंप्यूटर सिस्टम कंपनी सायन (Psion) के संस्थापक व चेयनमैन डेविट ई. पॉटर ने इसके लिए पर्सनल डिजिटल असिस्टेंट (पीडीए) बनाया। उनकी कंपनी घरेलू कंप्यूटरों के लिए गेम्स सॉफ्टवेयर पहले से बनाती थी। डेविड इसे उँगलियों से चलने वाले मोबाइल फ़ोन में लाना चाहते थे। वर्ष 1984 में उनकी कंपनी ने पहला पीडीए ‘सायन ऑर्गेनाइज़र’ बनाया। उसे हाथ पर चलने वाला कम्प्यूटर कहा गया। दिखने में वह पॉकेट केलकुलेटर जैसा था। फिर वर्ष 1986 में सायन ऑर्गेनाइज़र-2 आया, जो ज़्यादा सफल रहा।

वर्ष 1987 में डेविड ने 16 बिट वाला ऑर्गेनाइज़र डिवाइस बनाना शुरू किया। वह एडवांस पीडीए का मल्टीटास्किंग ऑपरेटिंग सिस्टम ‘ईपीओसी’ कहलाया। वर्ष 1989 में पहली बार वह बाज़ार में आया। उसमें वर्ड प्रोसेसर, डेटाबेस, स्प्रेडशीट, टू डू लिस्ट और डायरी एप थे। इसी के 32 बिट वाले मॉडल में सॉफ्टवेयर पैक से अतिरिक्त एप शामिल किए जा सकते थे। उसकी प्रोग्रामिंग लैंग्वेज ओपन होती थीं, जिससे कोई भी एप बना सकता था, लेकिन डेविड की नज़र में एप की राह अभी मुश्किल थी। उन्होंने वर्ष 1991 में पीडीए का एडवांस टच स्क्रीन वाला ‘सायन सीरीज़-3’ बनाया, जो वर्ष 1993 में सीरीज़-3ए नाम से बाज़ार में आया।

यही वह दौर था, जब एपल ने भी अगस्त 1993 में टच स्क्रीन वाला ‘न्यूटन’ पीडीए रिलीज़ कर दिया था। न्यूटन के लिए एप बनाने की जिम्मेदारी कंपनी के संस्थापक स्टीव जॉब्स ने अपने डेवलपरों को सौंपी। उसमें भी वेब, ई-मेल, कैलेंडर और एड्रेस बुक थी। वे एप का महत्त्व समझ गए थे। वे उसे ज़्यादा एडवांस बनाना चाहते थे, जिसमें यूज़र को उँगली रखते ही कई तरह की जानकारी मिल जाए। जून 1983 में जॉब्स ने भविष्यवाणी कर दी थी आगे चलकर सॉफ्टवेयर डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम बनाना होगा।

एक ऐसा प्लेटफॉर्म, जिसे फ़ोन लाइन से संचालित किया जा सके। ब्रिटिश मूल के सॉफ्टवेयर प्रोग्रामर एवं लेखक चार्ल्स स्ट्रॉस ने सीरीज-3ए पीडीए को सबसे नायाब डिवाइस माना, क्योंकि उसकी बैटरी 20 से 35 घंटे चलती थी। इसे पॉकेट कंप्यूटर भी कहा गया। वर्ष 1996 में कैलिफोर्निया की पाम कंप्यूटिंग ने जेफरी (जेफ) हॉकिन्स के नेतृत्व में ज़्यादा पीडीए बना दिया, जो मोबाइल ऑपरेटिंग सिस्टर ही था। नई श्रेणी के डिवाइस बनाने का श्रेय इसी कंपनी को जाता है। यही वह कंपनी थी, जिसने दूसरी कंपनियों को इस दिशा में आगे बढ़ने की मदद की।

वर्ष 1997 में नोकिया मोबइल 6110 में पहली बार स्नैक गेम आया, यह पहला मौका था, जब कोई एप एवं मोबाइल फ़ोन में शामिल किया गया था। पीडीए के एप्लीकेशन ही वर्ष 1997 के बाद एप कहलाए। एप ऑपरेट करने के लिए मोबाइल यूज़र इंटरफेस (यूआई) ज़रूरी था, जिसमें किसी डिवाइस की स्क्रीन, इनपुट और डिजाइन तय होता है। हालांकि यूआई से पहले ग्राफिकल यूज़र इंटरफेस (जीयूआई) आया। स्टैनफोर्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट के डगलस इंजेलबार्ट की टीम ने उसका आविष्कार किया, जिससे एप ऑपरेट करने में मदद मिली और मोबाइल फ़ोन में बड़े बदलाव की शुरुआत हुई।

प्रश्नः 19. कैंपस हैं या धर्म के अखाड़े?
?‍♂️उत्तर – देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विश्वविद्यालयों के बारे में कहा था, ‘अगर विश्वविद्यालय ठीक रहेंगे तो देश भी ठीक रहेगा।’ सवाल यह है कि क्या उच्च शिक्षा के हमारे गढ़ों में देश को ठीक बनाए रखने का पाठ पढ़ाया जा रहा है या फिर राजनीतिक वर्चस्व के जरिए हमारी पीढ़ियाँ धार्मिक और जातिवादी हस्तक्षेप के चक्रव्यूह में फँसती जा रही है। उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजी एसआर दारापुरी कहते हैं, ‘कई राज्यों में सत्ता बदलने के साथ एसपी व थानेदार बदल जाते हैं, इसलिए वह जनता की जिम्मेदारी को समझते ही नहीं। कुछ वर्षों से लग रहा है कि सरकारें विश्वविद्यालयों को थाना और वीसी को एसपी समझने लगी हैं।

अगर इसे नहीं रोका गया तो देश की मेधा राजनीतिज्ञों की फुटबॉल बन जाएगी। सवाल यह है कि आखिर वह कौन-सी लकीर है, जिसके बाद लगने लगता है कि एक कैंपस हिंदूवादी, मुस्लिमपंथी, वामपंथी या कांग्रेसी होने लगा है। नैनीताल विवि के पूर्व शिक्षक और पद्मश्री शेखर पाठक मानते हैं, ‘एक कैंपस में जब सीधा राजनीतिक हस्तक्षेप होने लगता है और शिक्षक से लेकर नीतियों तक में सरकार दखल देने लगती है तब लकीर गाढ़ी हो जाती है।’ हाल ही में हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी के मामले की जड़ में भी कहीं न कहीं यह लकीर ही नज़र आती है।

लखनऊ यूनिवर्सिटी के प्रो. सुधीर पंवार के अनुसार, ‘एकध्रुवीय संस्कृति को हावी करने में जुटा संघ सरकार बदलने के बाद से शिक्षा को बतौर हथियार इस्तेमाल कर रहा है। उनको पता है कि किसी चुनाव से भी ज्यादा असर शिक्षा परिसरों का होगा।’ हाल ही में मैग्ससे पुरस्कार विजेता और बीएचयू आईआईटी प्रोफेसर संदीप पांडेय को यूनिवर्सिटी ने नक्सल समर्थक कहकर निकाल दिया। इस बारे में संदीप कहते हैं, ‘इन दिनों काबिलियत को जेब में रख विचारधारा के आधार पर कैंपसों को पाटा जा रहा है।’ पूरे देश की यूनिवर्सिटीज़ में इस तरह के राजनीतिक या धार्मिक झुकाव और उनके कारण विवाद के मामले देखे जाते रहे हैं।

प्रश्नः 20. सोच बदलेगी चेहरा बदलेगा
?‍♂️उत्तर – फैशन को हम अक्सर बिना ज़्यादा सोचे अपनी जिंदगी में शामिल कर लेते हैं। ऐसा कम देखने को मिलता है कि फ़ैशन ने हमें अपनी जिंदगी में शामिल किया हो। लेकिन इस बार कुछ ऐसा ही हो रहा है।

साल 2005 में लक्ष्मी का नाम खबरों में था। वजह था एसिड अटैक। यह साल.2016 है। एक बार फिर लक्ष्मी चर्चा में हैं। वजह है फैशन की दुनिया में उनका नया अवतार। एसिड अटैक के बाद लक्ष्मी खुद भी अपने आप को पहचानना नहीं चाहती थीं, मगर आज उनकी पहचान लोगों के लिए मिसाल बन गई है। ऐसे और भी कई उदाहरण धीरे-धीरे सामने आ रहे हैं, जिनसे फ़ैशन की दुनिया एक नये सिरे से बनती और संवरती हुई लगती है। जहाँ न गोरे होने की गरज है, न साइज जीरो बनने का दबाव। जहाँ सिर्फ आप हैं, जैसे हैं, जो हैं, उसी तरह।

एसिड अटैक की शिकार लक्ष्मी को फैशन रैंप तक पहुँचाने के पीछे उनके अपनों का साथ और लोगों की प्रेरणा तो है ही, इसमें अहम भूमिका निभाई है भारतीय एपेरल ब्रांड ‘वीवा एन दीवा’ ने। ‘वीवा एन दीवा’ ने अपने ब्रांड कैंपेन के लिए एक एसिड अटैक सर्वाइवर के चेहरे का चुनाव कर फैशन की दुनिया से जुड़ी कई मान्यताओं (स्टीरियोटाइप) को तोड़ने की एक सकारात्मक पहल की है। इनके ब्रांड कैंपेन ‘फेस ऑफ करेज’ का उद्देश्य है एसिड अटैक सर्वाइवर्स के लिए फ़ैशन इंडस्ट्री में ज्यादा से ज्यादा संभावनाएँ तैयार करना।

खूबसूरत चेहरों से भरे इसे फ़ैशन जगत में अपना पहला कदम रख चुकी लक्ष्मी इस नई शुरुआत से बेहद खुश हैं। लक्ष्मी कहती हैं, ‘बात पिछले साल की है। एसिड सर्वाइवर रूपा के तैयार किए गए कुछ परिधानों में दिल्ली के फोटोग्राफर राहल सहारण ने तीन-चार एसिड अटैक सर्वाइवर्स का फोटो शूट किया था। उन्होंने कुछ तसवीरों को फेसबुक पर पोस्ट भी किया, जिन्हें देखने के बाद ‘वीवा एन दीवा’ ने अपने डिजाइनर कपड़ों के प्रचार के लिए मुझे अपना नया चेहरा चुना। सोलह भारतीय परिधानों में मेरा फोटोशूट हुआ। पहली बार बतौर मॉडल मैंने कैमरा फेस किया। लाइट्स, कैमरा, मेकअप आर्टिस्ट, पूरी तरह से एक अलग दुनिया थी, जिसके हर पल को मैंने जिया। हर पल मुझे महसूस हुआ जैसे मैं किसी प्रोफेशनल मॉडल से कम नहीं हूँ। इस कैंपेन के जरिए मैं लोगों को यही संदेश देना चाहूँगी कि चेहरे की खूबसूरती ही सब कुछ नहीं। शारीरिक रूप से सुंदर न होने के बावजूद भी हम किसी से कम नहीं हैं।’

जहाँ वर्षों से फ़ैशन और खूबसूरती का पुराना रिश्ता रहा है, वहां ‘वीवा एन दीवा’ की इस पहल का कारण क्या था? इसका जवाब देते हैं ‘वीवा एन दीवा’ के को-फाउंडर और डायरेक्टर रूपेश झवर, ‘हमारी आंखें हर दिन कैमरे के सामने खूबसूरत और बेदाग त्वचा वाली मॉडल्स को देखने की आदी हो गई थीं। जब पहली बार मैंने फोटोशूट में एसिड अटैक सर्वाइवर्स की तस्वीरें देखीं, तो एक पल में मैंने खूबसूरती के नए अंदाज को महसूस किया और फिर हमने सोचा क्यों न इस बार इनकी जिंदगी में कुछ नए रंग घोलें। उन्हें भी एक ऐसा मंच व प्लेटफॉर्म दें, जिसमें रोज़गार के साथ-साथ जीने की नई आशा मिले और वे भी एक सामान्य महिला की तरह स्टाइल में इतरा सकें, खुद पर नाज़ कर सकें। हमने कोशिश की और ये रंग भी लाई। ये कोशिश आगे भी जारी रहेगी।’

बेशक भारत में ऐसा कम या शायद पहली बार ही देखने को मिला हो, मगर न्यूयॉर्क और टोक्यो फैशन वीक में प्लस-साइस
मॉडल्स, हैंडिकैप्ड मॉडल्स और डाउन सिंड्रोम पीड़ित मॉडल्स रैंप पर पहले भी अलग-अलग अंदाज़ में नज़र आ चुके हैं।

प्रश्नः 21. अब गुमसुम सी हारमोनियम की धुन
?‍♂️उत्तर – तबले की थाप सुनी, तो याद आया, ‘वाह ताज’!, ढोलक की आवाज़ सुनी, तो याद आ गए वे सारे गीत जिन पर कभी भजन संध्या हुई, तो कभी शादी-ब्याह के गीत गाए गए। वीणा के तार छिड़े, तो प्रार्थनाएँ जुबान पर आने लगीं। मगर हारमोनियम की बात हुई, तो क्या याद आया! बाजे वाले और पेटी वाले, या फिर शायद कुछ भी नहीं। लोकगीत, भजन संध्या, कव्वाली, ठुमरी, सबद, गजल से लेकर बॉलीवुड के कई मशहूर गानों का महत्त्वपूर्ण हिस्सा होने के बावजूद हारमोनियम आज भी कहीं गुम सा है। इसे हमेशा सहायक वाद्ययंत्र ही माना गया जबकि सिनेमा का पहला गीत हारमोनियम के सुरों से ही सजा था। सन् 1931 में पहली बोलती हुई फ़िल्म आई ‘आलमआरा’। इसके गाने ‘दे दे खुदा के नाम पर…’ में पहली बार हारमोनियम पर गीत गाया गया था। फ़िल्म और गाना दोनों सफल हुए।

इस गाने के जरिये प्लेबैक सिंगिंग शुरू हुई थी। इसे तबला और हारमोनियम पर रिकॉर्ड किया गया था। इसका प्रभाव कुछ ऐसा रहा कि वर्ष 1940 के बाद हारमोनियम ने फ़िल्म इंडस्ट्री में अपने लिए अच्छी खासी जगह बना ली। आगे भी यह सिलसिला जारी रहा। फ़िल्म ‘पड़ोसन’ का गाना ‘एक चतुर नार’ याद कीजिए… किशोर कुमार और महमूद इस गाने में हारमोनियम के जरिये ही एक-दूसरे के सामने अपने संगीत का हुनर दिखाते हैं इसके अलावा फ़िल्म ‘दोस्ती’ का ‘कोई जब राह नाम आए’ और ‘अपनापन’ फ़िल्म का ‘आदमी मुसाफिर’ है भी हारमोनियम की धुन पर ही हैं। इसके आगे के दौर में हारमोनियम के हुनर के साथ ही म्यूजिक डायरेक्टर्स की जोड़ी भी बनीं। इसका उदाहरण हैं शंकरजयकिशन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल जैसी संगीतकार जोड़ियाँ। एक जोड़ी में जहाँ जयकिशन माहिर हारमोनियम प्लेयर थे, वहीं दूसरी में प्यारेलाल हारमोनियम के उस्ताद थे। हारमोनियम के माहिर संगीत निर्देशकों की बात करें, तो नौशाद अली का ज़िक्र भी ज़रूरी है।

एक दौर वह भी आया, जब ढोलक से अलग संगीत को लचकबद्ध करने के लिए हारमोनियम एक ज़रूरी साज बन गया। फैमिली फंक्शन, सामाजिक, धार्मिक आयोजनों में भी इसका बोलबाला था। फ़िल्म ‘वक्त’ के ‘ए मेरी जौहरजबी’ गाने को कौन भूल सकता है, जिसमें बैकग्राउंड में हारमोनियम बजता है। इसके अलावा अमिताभ बच्चन की फ़िल्में जैसे ‘मंजिल’ फ़िल्म का गाना ‘रिमझिम गिरे सावन’, ‘सिलसिला’ का ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली’, ‘चुपके-चुपके’ के ‘सारेगामा’ में भी हारमोनियम के सुर लगे हैं। 21वीं सदी में भी हारमोनियम की धुन पर कई यादगार गाने हैं, जो लोगों की जुबान पर चढ़ गए। सन् 2010 में आई फ़िल्म ‘तीस मार खाँ’ का गाना ‘शीला की जवानी’ याद करें।

बेशक विशाल शेखर की आवाज़ और कैटरीना कैफ के डांसिंग स्टैप्स ने इसे पॉपुलर बनाया लेकिन, हारमोनियम का इस्तेमाल भी इस गाने की बड़ी खासियत रही। गाने के अंतरे के दौरान हारमोनियम का जिस तरह इस्तेमाल हुआ, उससे संगीत प्रेमियों की हारमोनियम से जुड़ी पुरानी यादें ताजा हो गई होंगी। साल 2006 में आई फ़िल्म ‘ओमकारा’ का गाना ‘नमक इश्क का’ भी उस वक्त सभी की जुबां पर चढ़ा था। इसके बोलों के साथ-साथ हारमोनियम की धुन ने भी इसे मशहूर बनाया था। हारमोनियम के जरिये सिनेमा की दुनिया बेशक निखरी और संवारी हो, मगर हारमोनियम का वास्तविक वजूद बनना-संवरना अभी बाकी है।