भारत में उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद के अध्ययन के लिए मार्क्सवादी दृष्टिकोण की व्याख्या कीजिए।
उत्तर- परिचय
औपनिवेशिक युग से तात्पर्य उस समय काल से होता है, जब कोई शक्तिशाली देश किसी अन्य देश की राजनीतिक व्यवस्था,सामाजिक व्यवस्था और आर्थिक व्यवस्था पर अधिकार कर लेता है और उस पर अनाधिकृत रूप से कब्जा करके उसे अपने साम्राज्य का हिस्सा बनाकर उस पर शासन करता है। भारत पर ब्रिटेन द्वारा लंबे समय तक शासन करना औपनिवेशिक युग का ही काल था।
राष्ट्रवाद- राष्ट्रवाद यह विश्वास है कि लोगों का एक समूह इतिहास, परंपरा, भाषा, जातीयता या जातिवाद और संस्कृति के आधार पर स्वयं को एकीकृत करता है। इन सीमाओं के कारण,वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि उन्हें अपने स्वयं के निर्णयों के आधार पर अपना स्वयं का संप्रभु राजनीतिक समुदाय, राष्ट्र स्थापित करने का अधिकार है।
भारत में उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद के अध्ययन के लिए मार्क्सवादी दृष्टिकोण
1. मार्क्सवादी इतिहासकार भारतीय राष्ट्रवाद पर औपनिवेधिक और राष्ट्रवादी दोनों विचारों के आलोचक थे। वे भारत और उसके लोगों के प्रति भेदभावपूर्ण नजरिया रखने के लिए औपनिवेषिक परिप्रेक्ष्य की आलोचना करते थे, जबकि राष्ट्रवादी टिप्पणीकारों की राष्ट्रवाद की तलाष में प्राचीन जड़ों में जाने के लिए आलोचना करते थे। वे दोनों को राष्ट्रवाद की अपनी अवधारणा के विश्लेषण में आर्थिक कारकों और वर्गीय विभेदों की तरफ ध्यान न देने के लिए आलोचना करते थे।
2. मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य उत्पादन और वर्गों की प्रणाली के विश्लेषण को अपना आधार बनाता है। मार्क्सवादी इतिहासकार इस बात को मानते थे कि साम्राज्यवाद और भारतीय समाज के बीच एक बुनियादी अंतर्विरोध था। लेकिन उसके साथ ही वे भारतीय समाज के भीतर मौजूद वर्गीय अंतर्विरोध को भी नहीं खारिज करते थे। वे इन प्रक्रियाओं की व्याख्या उपनिवेषवाद के भीतर आने वाले आर्थिक बदलावों के संदर्भ में करने की कोषिष करते थे और आखिरी तौर पर उनका विश्वास था कि भारत हमेषा से एक राष्ट्र नहीं था बल्कि एक ऐसा राष्ट्र है जो आधुनिक समय में बना है जब राष्ट्रवादी आंदोलन ने देष में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी शुरू कर दी।
3.वर्ग और उत्पादन की प्रणाली की इन सभी विश्लेषण की श्रेणियों को लागू करने के जरिये 1920 के दशक में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कम्यूनिस्ट आंदोलन की एक बड़ी शख्सियत एम एन राय ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को एक सार्वभौम ढांचे में पेष किया। अपनी किताब इंडिया इन ट्रांजीषन (1922) में उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद के विकास के किसी निश्चित मुकाम पर यह आंदोलन विकसित होता था। उनका यह विचार था कि भारत पूंजीवाद की तरफ अग्रसर है और वैश्विक पूंजी के दायरे में पहले ही आ गया है। इस तरह से भारत में वर्चस्वषाली वर्ग सामंत नहीं बल्कि अब बुर्जुआ है। सामंती वर्चस्व के संदर्भ में उभरता हुआ राष्ट्रीय बुर्जुआ अक्सर क्रांतिकारी होता है। हालांकि भारत में क्योंकि सामंतवाद अपनी आखिरी सांसें ले रहा था, बुर्जुआ प्रकृति में पुरातनपंथी हो गया था और मौजूदा व्यवस्था को बनाए रखना चाहता था। ऐसी स्थिति में केवल मजदूर ही क्रांतिकारी हो सकते थे।
4. भारतीय राष्ट्रवाद के मुद्दे पर राय का मानना था कि ये स्थानीय पूंजीवाद की राजनीतिक विचारधारा थी जो 19वीं सदी के आखिर और 20वीं सदी की शुरूआत में साम्राज्यवाद के साये में विकसित हुई। यह पहले विश्व युद्ध के बाद स्थानीय पूंजी के विकास के साथ परिपक्क हुई। यह दौर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विकास का भी गवाह बना इस तरह से राय के लिए भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ‘युवा बुर्जुआ वर्ग की आकांक्षाओं और राजनीतिक विचारधारा का प्रतिनिधि बना।’
5. तकरीबन 25 साल बाद आर.पी. दत्त ने अपनी मषहूर किताब इंडिया टुडे (1947) में भारतीय राष्ट्रवाद की सबसे प्रभावषाली मार्क्सवादी व्याख्या का निर्माण किया। दत्त ने इस बात को कहा कि 1857 का विद्रोह अपने मूल चरित्र में पुराने रूढ़िवादी और सामंती ताकतों और हटाए गए रजवाड़ों का विद्रोह था। इस तरह से केवल 19वीं सदी के आखिरी चौथाई में दत्त ने भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के शुरूआत की तलाश की। 1885 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इस आंदोलन का मूल संगठन था।
6. भारतीय राष्ट्रवाद के अध्ययन के लिए मार्क्सवादी वर्गीय विश्लेषण को लागू करते हुए उन्होंने कहा कि समय के साथ कांग्रेस और राष्ट्रीय आंदोलन का वर्गीय आधार बदल गया। इस तरह से शुरूआती सालों में भारतीय राष्ट्रवाद ने केवल बड़े बुर्जुआ भूस्वामियों के बीच के प्रगतिषील तत्वों, नया औद्योगिक बुर्जुआ और बुद्धिजीवियों के बीच के संपन्न लोगों का प्रतिनिधित्व किया। बाद के सालों और प्रथम विष्व युद्ध के शुरू होने के साथ शहरी निम्न बुर्जुआ वर्ग ज्यादा प्रभावषाली बनकर सामने आया । युद्ध के बाद भारतीय जनता- किसान और औद्योगिक मजदूर वर्ग ने अपनी मौजूदगी का अहसास कराया।
7. राष्ट्रीय आंदोलन का चरण स्वदेषी आंदोलन के साथ शुरू हुआ और फिर 1918 तक जारी रहा। इस चरण में राष्ट्रीय आंदोलन ने तुलनात्मक तौर पर एक बड़े सामाजिक आधार को पकड़ा जिसमें निम्न मध्य वर्ग के हिस्से भी शामिल थे। रौलट सत्याग्रह से शुरू होकर 1934 में सविनय अवज्ञा आंदोलन पर समाप्त हुआ। जो आंदोलन अब तक केवल ऊपरी और मध्य वर्ग तक सीमित था अब आम जनता के कुछ हिस्सों तक फैलने लगा। हालांकि देसाई के मुताबिक कांग्रेस का नेतृत्व अभी भी उनके हाथों में रहा जो भारतीय पूंजीपति वर्ग के मजबूत प्रभाव में थे। 1918 के बाद औद्योगिक बुर्जुआ वर्ग महात्मा गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के कार्यक्रम, नीतियां, रणनीतियां, कार्यनीति और संघर्ष के रूपों को तय करने का काम करता था।
निष्कर्ष
मार्क्स ने अपनी भारत संबंधी रचनाओं में उपनिवेशवाद पर ख़ास तौर से विचार किया है। मार्क्स और एंगेल्स का विचार था कि उपनिवेशों पर नियंत्रण करना न केवल बाज़ारों और कच्चे माल के स्रोतों को हथियाने के लिए ज़रूरी था, बल्कि प्रतिद्वंद्वी औद्योगिक देशों से होड़ में आगे निकलने के लिए भी आवश्यक था।
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