NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter –24 राष्ट्रीय एकीकरण तथा पंथ निरपेक्षता (National Integration and Secularism) Notes in Hindi

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter –24 राष्ट्रीय एकीकरण तथा पंथ निरपेक्षता (National Integration and Secularism)

TextbookNIOS
Class10th
SubjectSocial Science
Chapter24th
Chapter Nameराष्ट्रीय एकीकरण तथा पंथ निरपेक्षता (National Integration and Secularism)
CategoryClass 10th NIOS Social Science (213)
MediumHindi
SourceLast Doubt

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter –24 राष्ट्रीय एकीकरण तथा पंथ निरपेक्षता (National Integration and Secularism) Notes in Hindi जिसमे हम राष्ट्रीय एकीकरण से आप क्या समझते है?, पंथनिरपेक्षता का क्या अर्थ है?, राष्ट्रीय एकीकरण का उदाहरण क्या है?, पंथनिरपेक्षता और धर्मनिरपेक्षता में क्या अंतर है?, भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र क्यों कहते हैं?, भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है या राज्य?, भारतीय पंथनिरपेक्षता के जनक कौन थे?, भारतीय पंथ निरपेक्षता के जनक कौन थे?, भारत में धर्मनिरपेक्षता कब लागू हुआ?, भारत को एक पंथ निरपेक्ष राज्य क्यों कहा जाता है? आदि के बारे में पढ़ेंगे 

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter –24 राष्ट्रीय एकीकरण तथा पंथ निरपेक्षता (National Integration and Secularism)

Chapter –24

राष्ट्रीय एकीकरण तथा पंथ निरपेक्षता

Notes 

राष्ट्रीय समाकलन

राष्ट्रीय समाकलन अर्थ एवं महत्व

राष्ट्रीय समाकलन पर चर्चा करने से पहले इसका अर्थ समझ लेना बेहतर होगा। इस पद में दो अर्थ हैं? राष्ट्र एक ऐसे देश को कहते हैं जहां की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संरचना एकीकृत होती है। वहां के लोगों में सामान्य इतिहास समाज संस्कृति तथा मूल्यों पर आधारित एकत्व की भावना होती है । यही भावना लोगों को एक राष्ट्र के रूप में एक साथ लांघती है सामान्य अर्थ में इसी भावना को राष्ट्रीय समाकलन कहते हैं। राष्ट्रीय समाकलन देश के नागरिकों में एक सामूहिक पहचान का बोध है। इसका अर्थ यह है कि यद्यपि नागरिक विभिन्न समुदायों के हैं उनकी जातियां भिन्न भिन्न हैं, उनका धर्म और उनकी संस्कृति अलग अलग है वे अलग अलग क्षेत्रों में रहते हैं तथा विभिन्न भाषाएं बोलते हैं लेकिन वे सभी तहे दिल से स्वीकार करते हैं कि वे एक हैं। इस तरह का राष्ट्रीय समाकलन एक मजबूत एवं प्रगतिशील राष्ट्र निर्माण के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है।

राष्ट्रीय आन्दोलन तथा राष्ट्रीय समाकलन

आपको ऐसे अवसर याद होंगे जब आपने पढा था या आपसे कहा गया था कि प्राचीन युग में भारत देश था। हां जिस भारत को हम आज देखते हैं वह प्राचीन युग से ही बना हुआ हैं लेकिन इसके अस्तित्व मात्र भौगोलिक रहा है। क्योंकि यह अनगिनत राजवाड़ों में विभाजित था। उनमें सांस्कृतिक समानताएँ थी, किन्तु यह आज की तरह का एकीकृत तथा समाकलित राष्ट्र नहीं था। ब्रिटिश शासन के दौरान पहली बार भारत प्रशासनिक दृष्टि संगठित हुआ। ब्रिटिश शासकों ने अनेकों रजवाड़ों पर कब्जा किया तथा अन्य पर परोक्ष रूप से अपना शासन स्थापित किया भारत का एक भौगोलिक तथा प्रशासनिक अस्तिव कायम हुआ, किन्तु लागों में राष्ट्रत्व की भावना तथा संवेदनशीलता नहीं थी। बल्कि ब्रिटिश शासकों की तो विभाजित करो और शासन करो की रणनीति थी। उन लोगों ने प्रमुख रूप से हिन्दुओं तथा मुसलमानों में साम्प्रदायिक विभाजन को बढ़ावा दिया। साथ यहाँ के लोगों की आर्थिक विकास की उपेक्षा ने देश को अधिक विभाजित किया ।

अपनाई थी, राष्ट्रीय आन्दोलन ने देश के लोगों में एकता को मजबूत करने पर बल दिया । आन्दोलन के नेतृत्व ने समानता, स्वतंत्रता, पंथ निरपेक्षता एवं सामाजिक आर्थिक विकास पर अधिक बल दिया । यही कारण है कि जब भारत स्वतंत्र हुआ तो इनको भारत के प्रमुख लक्ष्यों के रूप में स्वीकार किया गया।

राष्ट्रीय समाकलन और भारतीय संविधान

जब 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ तो इसके समक्ष अनेक समस्याएँ थीं। राष्ट्रीय समाकलन तो एक बहुत बड़ी चुनौती थी। उसी समय देश का दो भागों, भारत तथा पकिस्तान में विभाजन हुआ था। इस दौरान देश सबसे बुरे सांप्रदायिक दंगो के दौर से गुजरा था। बहुत लोगों को शरणार्थियों की तरह उन क्षेत्रों को छोड़कर दूसरे क्षेत्रों में भागना पडा था, जहाँ वे पीढियों से रह रहे थे । आपने कुछ फिल्मों में तथा टेलीविजन पर वैसे दृश्य देखें होंगे। इसके अतिरिक्त भारतीय नेतृत्व के समक्ष रजवाड़ों को देश में समाहित करने से संबंधित जटिल मुद्दे थे। कई अन्य कारण भी थे जिनमें देश की एकता और अखण्डता के लिए समस्याएँ उत्पन्न करने की क्षमता थी ।

राष्ट्रीय समाकलन की चुनौतियाँ

जैसा कि हमलोगों ने देखा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद भारत के समक्ष राष्ट्रीय समाकलन की अनके चुनौतियाँ थी। यद्यपि उन समस्या का समाधान करने के अनेक उपाय किए गए हैं, चुनौतियाँ जारी हैं । उनमें से सबसे अधिक महत्वपूर्ण चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं :

क. साम्प्रदायिकता

साम्प्रदायिकता वैसी सर्वाधिक जटिल समस्याओं में से एक है, जिसका सामना भारत वर्षो से  करता आया है। यह तब जन्म लेती है जब एक धर्म के लोग अपने धर्म के प्रति अत्यधिक प्रेम तथा दूसरे धर्मों के विरूद्ध घृणा करने लगते हैं । इस तरह की भावना धार्मिक कट्टरवाद और धर्मान्धता को बढ़ावा देती है तथा देश की एकता एंव अखण्डता के लिए खतरा पैदा करती है । ऐसा होने की संभावनाएँ भारत जैसे देश में अधिक रहती हैं। भारत स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से ही साम्प्रदायिकता से परेशान है । हम यह जानते हैं कि ठीक स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हम लोगों को सबसे खराब सांप्रदायिक दंगों का सामना करना पड़ा था। उसके बाद भी देश के विभिन्न भागों में अनको बार साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं।

पिछले छः दशकों के योजनाबद्ध विकास के बावजूद देश के सभी क्षेत्रों का वांछित ढंग से विकास नहीं हो पाया है। अन्य कारणों के साथ-साथ वांछित सामाजिक आर्थिक विकास नहीं होने से

भी अलग राज्य के गठन के लिए मांगें होने लगती हैं। क्या आप जानते हैं कि भारत में कितनी बार क्षेत्रीय आकांक्षाओं पर आधारित आंदोलनों के कारण राज्यों का पुनर्गठन किया गया है ?

लेकिन कई बार क्षेत्रीयवाद राष्ट्रीय हितों की अवहेलना करता है तथा लोगो में दूसरे क्षेत्रों के हितों के विरूद्ध नकारात्मक भावना को प्रोत्साहित करता है । ऐसी स्थिति में क्षेत्रीयवाद हानिकारक होता है। अनेक अवसरों पर क्षेत्रीय विरोध तथा प्रदर्शन राजनीतिक सोच पर आधारित होते हैं ।

आक्रामक क्षेत्रीयवाद तो और भी अधिक खतरनाक होता है, क्योकि यह अलगाववादी हो जाता है । इस तरह की भावनाओं के अनुभव आसाम तथा जम्मू और कश्मीर राज्यों के कुछ भागों से हमें प्राप्त हो रहे हैं ।

ग. भाषावाद

हम यह जानते हैं कि भारत एक बहुभाषा भाषी देश है। भारत के लोग लगभग 2000 भाषाएँ तथा बोलियाँ बोलते हैं। इस बहुलवादिता का कई अवसरों पर, विशेष रूप से स्वतंत्रता के बाद के प्रारम्भिक दशकों में, नकारात्मक उपयोग हुआ है । प्रत्येक देश को एक सामान्य राजभाषा की आवश्यकता होती है। लेकिन भारत के लिए ऐसा करना आसान नहीं रहा है। जब संविधान सभा में यह संस्तुति की गई कि हिन्दी को भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया जाय तो लगभग सभी गैर हिन्दी भाषा भाषी क्षेत्रों के प्रतिनिधियों ने इसका विरोध किया। एक समझौते के अंतर्गत संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा घोषित किया लेकिन यह भी प्रावधान किया कि 15 वर्षो तक अंग्रेजी का केन्द्रीय सरकार के द्वारा प्रयोग होता रहेगा।

जब 1955 में गठित राज-भाषा आयोग ने राजभाषा के रूप में अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी के प्रयोग की सिफरिश की तो गैर – हिन्दी भाषी क्षेत्रों में इसका व्यापक विरोध हुआ। वैसे विरोध एवं प्रदर्शन एक बार फिर 1963 में हुए जब लोक सभा में राज-भाषा विधेयक प्रस्तुत किया गया । अतः एक समझौता के तहत 1963 के अधिनियम के द्वारा सरकारी काम-काज के लिए अंग्रेजी के प्रयोग को जारी रखने की अनुमति दी गई तथा इसके लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है।

घ. उग्रवाद

देश के कई भागों में चलाए जा रहे उग्रवादी आंदोलन राष्ट्रीय समाकलन के लिए एक बड़ी चुनौती बने हुए हैं। आपने नक्सलवादी या माओवादी आंदोलन के बारे में सुना होगा । ये आंदोलन प्रायः हिंसा का प्रयोग करते हैं, सार्वजनिक जीवन में भय पैदा करते हैं, सरकारी कर्मचारीगणों तथा लोगों की जान लेते हैं तथा सार्वजनिक सम्पत्ति को बर्बाद करते हैं । ऐसे आंदोलन में प्रायः युवा भाग लेते हैं। युवाओं के द्वारा हथियार उठाने का आधारभूत कारण उनकी सामाजिक आर्थिक

विकास से वंचित रहने की लगातार बनी हुई स्थिति है । इसके अतिरिक्त दैनिक अपमान, न्याय का नहीं मिलना, मानवाधिकारों का उल्लंघन, विभिन्न प्रकार के शोषण तथा राजनीतिक हाशिए पर बने रहना उन्हें नक्सलवादी आंदोलन में शामिल हो जाने के लिए प्रेरित करते हैं। जो भी हो इस तरह के उग्रवादी आंदोलन प्रभावित क्षेत्रों में कानून और व्यवस्था तथा वहां के लोगों द्वारा शांतिपूर्ण जीवन यापन के लिए खतरा हैं ।

राष्टीय समाकलन को बढ़ावा देने वाले कारक

यघपि उपर्युक्त चुनौतियाँ अभी भी कायम हैं, लेकिन कुछ ऐसे महत्वपूर्ण कारक हैं जो राष्ट्रीय समाकलन को ठोस आधार प्रदान करते हैं। वे हैं :

क. सांविधानिक प्रावधान

जैसा हमने देखा है जो राष्ट्रीय समाकलन को बढ़ावा देने तथा इसे सुनिश्चित करने के लिए संविधान में कई प्रावधान किए गए हैं। संविधान समाजवाद, पंथ निरपेक्षता, लोकतन्त्र, स्वतंत्रता, समानता, न्याय और वन्धुत्व को भारतीय राजनीतिक पद्धति के उद्देश्यों के रूप में स्वीकार करता है। राज्य के नीति निदेशक तत्व नयायसंगत आर्थिक विकास करने, सामाजिक भेदभाव का उन्मूल करने तथा अन्तर्राष्ट्रीय शांति एंव सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए राज्य को निर्देश देता है। इनसे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि विभिन्न संस्थाओं तथा प्रक्रियाओं से संबंधित प्रावधान राष्ट समाकलन की जरूरतों को ध्यान में रखकर किए गए हैं।

ख. सरकारी पहल

राष्ट्रीय समाकलन को बढावा देने के लिए सरकारों द्वारा पहल किए गए हैं। राष्ट्रीय समाकलन से संबंधित मुद्दों पर विचार विमर्श करने तथा उपयुक्त कदम उठाने की अनुसंशा करने के लिए एक राष्ट्रीय एकता परषिद का गठन किया गया है। एक ही योजना आयोग पूरे देश में आर्थिक विकास के लिए योजनाएँ बनाता है तथा एक चुनाव आयोग चुनाव कराता है।

ग. राष्ट्रीय त्योहार एवं प्रतीक

राष्ट्रीय त्योहार एक महत्वपूर्ण समेकक शक्ति की तरह कार्य करते हैं । स्वतन्त्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस, गांधी जयन्ती जैसे राष्ट्रीय त्यौहार सभी भारतीय द्वारा देश के सभी भागों में मनाए जाते हैं, चाहे उनकी भाषा, उनका धर्म या उनकी संस्कृति कुछ भी हो। हमलोग प्रत्येक वर्ष 19 नवम्बर को राष्ट्रीय एकता दिवस मनाते हैं तथा शपथ लेते हैं। इस दिन को ” कौमी एकता दिवस” भी कहा जाता है । इनके अतिरिक्त राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रगान तथा राष्ट्रीय प्रतीक भी यह याद दिलाते हैं कि हम सबों की पहचान एक है। इसीलिए इन प्रतीकों के प्रति उचित आदर दिखाने को हम महन्वपूर्ण मानते हैं। ये सभी हमारी सामान्य राष्ट्रीयता की याद दिलाते रहते हैं ।

घ. अखिल भारतीय सेवाएँ तथा अन्य कारक

अखिल भारतीय सेवाएँ (आई. ए. एस., आई. एफ. एस., आई. पी. एस तथा अन्य) एकीकृत न्यायिक व्यवस्था, डाक तथा रेडियों, टेलीविजन एवं इन्टरनेट सहित संचार तन्त्र भारत राष्ट्र की एकता और अखण्डता को बढ़ावा देते हैं। आप यह जानते होंगे कि अखिल भारतीय सेवाओं के सदस्यों की नियुक्ति केन्द्रीय स्तर पर होती है, लेकिन वे राज्यों में काम करते हैं । उनमें से बहुत राज्य स्तर पर लम्बा अनुभव पाने के बाद केन्द्र सरकार में काम करने आते हैं। तथा पूरे देश के लिए नीति निर्णय लेने में भागीदारी करते हैं। आप रेडियो द्वारा राष्ट्रीय घटनाओं पर होने वाले प्रसारण को सुना होगा या टेलिविजन पर उन घटनाओं को देखा होगा। क्या यह सच नहीं कि देश के सभी भागों के लोग ऐसा करते हैं?

पंथ निरपेक्षता

हम सभी यह जानते हैं कि सांप्रदायिकता राष्ट्रीय समाकलन के लिए बहुत बड़ी चिंता का विषय बना हुआ है। हमलोग यह भी जानते हैं कि भारतीय समाज में गैर-सम्प्रदायवादी परम्परा रही है। सदियों से यह अनके धर्मों तथा संस्कृतियों को अपनाते रहा है तथा अन्तर्लीन करते रहा है । किन्तु ब्रिटिश शासन के दौरान यहाँ के लोगों को बांटने के लिए सांप्रदायिकता का प्रयोग किया गया । औपनिवेशिक शासकों ने इसके लिए विशेष परिस्थितियाँ बनायीं तथा भारतीयों को यह महसूस कराया कि वे अलग-अलग धार्मिक समुदायों के सदस्य हैं तथा उन्हें अपने-अपने धार्मिक समुदायों के हितों पर ध्यान देना चाहिए। संविधान निर्माताओं को सांप्रदायिकता की नकारात्मक क्षमता का ज्ञान हो गया था । यही कारण है कि संविधान में भारत को एक पंथ निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया। यद्यपि मौलिक संविधान में पंथ निरपेक्षता को मजबूत बनाने के लिए अनेक प्रावधान थे, लेकिन देश में होने वाली सांप्रदायिक गतिविधियों के कारण 1976 में इसे और अधिक प्रभावशाली बनाया गया। संविधान के 42वें संशोधन अधिनियम 1976 के द्वारा पंथ निरपेक्षता को संविधान की प्रस्तावना में एक उद्देश्य के रूप में जोड़ा गया। इसे भारतीय लोकतंत्र का एक स्तम्भ माना गया।

पंथ निरपेक्षता का अर्थ

पंथ निरपेक्षता का अर्थ क्या है? इस अवधारणा के बदले कई बार धर्म निरपेक्षता का भी प्रयोग किया जाता है। आपने कुछ व्यक्तियों को यह कहते सुना होगा कि “मैं धर्मनिरपेक्ष हूँ” कुछ लोग, कई राजनीतिज्ञ यह भी कहते हैं कि संविधान में कृत्रिम पंथ निरपेक्षता ( स्यूडो सेकुलरिज्म) का प्रावधान है। इसलिए पंथ निरपेक्षता का सही अर्थ समझना आवश्यक है। पंथ निरपेक्षता का अर्थ अधार्मिक या धर्मविरोधी होना नहीं है । कृत्रिम पंथ निरपेक्षता पद का प्रयोग राजनीतिक उद्देश्य से किया जाता है । वास्तव में पंथ निरपेक्षता का आशय सभी धर्मों की समानता तथा धार्मिक सहिष्णुता है। इसके अर्थ को दो संदर्भों, राज्य के संदर्भ एवं व्यक्ति के संदर्भ में समझना आवश्यक है। राज्य के संदर्भ में पंथ निरपेक्षता का यह अर्थ है कि भारत का कोई औपचारीक राज्य धर्म नही है। सरकारो को किसी धर्म का पक्ष नहीं लेना है, न ही किसी धर्म के विरूद्ध भेदभाव करना है। राज्य सभी धर्मो को समान मानता है तथा उनका आदर करता है। सभी नागरिक चाहे उसका कोई भी धर्म हो, कानून के सामने समान है। सरकारी या सरकार के अनुदान से चलाए जा रहे विद्यालयों में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती किन्तु वहाँ विश्व के सभी धर्मो के बारे में सामान्य सुचनाएँ दी जा सकती हैं। ऐसा करते समय, किसी भी एक धर्म को अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता।

व्यक्ति के संदर्भ में पंथ निरपेक्षता का अर्थ सर्व धर्म समभाव है अर्थात व्यक्ति के द्वारा सभी धर्मों को समान आदर देना है । प्रत्येक व्यक्ति को अपने द्वारा चुने गए धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने अधिकार है। सभी नागरिकों को अन्य सभी धर्मो का वैसा ही आदर करना चाहिए, जैसा वे अपने धर्म का करते हैं । कोई भी धर्म व्यक्ति को दूसरों की अवहेलना करने या घृणा करने की आज्ञा नहीं देता है ।

संवाधान मे पंथ निरपेक्षता

हमने ऊपर यह देखा कि भारत को एक पंथ निरपेक्ष राज्य बनाने के लिए संविधान में विभिन्न प्रावधान हैं। भारतीय संविधान ने अपनी प्रस्तावना तथा विशेष रूप से अपने मौलिक अधिकारों तथा राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों के अध्यायों के माध्यम से भारत में समानता एवं भेदभाव रहित सिद्धान्त पर आधारित एक पंथ निरपेक्ष राज्य का निर्माण किया है। सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र के सिद्धान्तों के साथ-साथ पंथ निरपेक्षता को भी भारतीय संविधान की एक आधारभूत संरचना माना गया है। इसको संविधान में प्राथमिक तौर पर एक मूल्य की तरह प्रतिबिम्बित किया गया है ताकि यह हम लोगों के बहुलवादी समाज को समर्थन दे । पंथ निरपेक्षता भारत के विभिन्न समुदायों के बीच सम्बद्धता को बढ़ावा देता है।

पंथ निरपेक्षता का महत्व

संविधानिक प्रावधानों तथा सुरक्षाओं के बावजूद सभी भारतीय अभी तक सच्चे अर्थो में पंथ निरपेक्ष नहीं हो पाए हैं। हमलोगों को नियमित अन्तराल में साम्प्रदायिक दंगो का अनुभव होता रहता है। यहाँ तक कि बहुत ही अमहत्वपूर्ण कारणों से भी साम्प्रदायिकता तनाव एवं हिंसा होते रहते हैं। यह समझना महत्वपूर्ण है कि पंथ निरपेक्षता साम्प्रदायिक सद्भाव एवं शान्ति कायम रखने के लिए अनिवार्य है। जब भी आप अपने आस-पास देखेंगे तो आप पाएंगे कि आपके मित्र, पडोसी आपके साथ पढ़ने वाले मित्र आपसे भिन्न धर्म में विश्वास रखते हैं तथा उसका आचरण करते हैं । वे अलग-अलग जाति के हैं । जब तक आप उनके धर्म का आदर नहीं करते तथा वे आपके धर्म का आदर नहीं करते तबतक आप उनके साथ एक अच्छे मित्र या पड़ोसी जैसा व्यवहार कैसे कर सकते हैं। चूँकि भारत एक बहुलवादी समाज है अतः यह सभी लोगों के लिए आवश्यक है कि वे एक दूसरे का आदर करें तथा शान्तिपूर्ण सह-अस्तितव का आचरण करें ।

आपने क्या सीखा

• राष्ट्र एक ऐसे देश को कहते हैं जहाँ की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संरचना एकीकृत होती है। वहाँ के लोगों में सामान्य इतिहास, समाज, संस्कृति तथा मूल्यों पर आधारित एकत्व की भावना होती है। यही भावना लोगों को एक राष्ट्र के रूप में एक साथ बाँधती है ।

•  भारत विभिन्नताओं वाला देश है । यहाँ विभिन्न प्रजातियों, समुदायों तथा जातियों के लोग रहते हैं। वे विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में रहते हैं । तथा अलग-अलग भाषाएँ बोलते हैं । वे विभिन्न धर्मो में विश्वास करते हैं और उनका आचरण करते हैं।

• उनकी जीवन शैली में भी काफी विविधताएं हैं। किन्तु इन व्यापक विविधताओं के बावजूद वे सभी भारतीय हैं तथा वैसा ही अनुभव करते हैं।

• राष्ट्रीय समाकलन देश के नागरिकों में एक सामूहिक पहचान का बोध है । इसका अर्थ यह है कि यद्यपि नागरिक विभिन्न समुदायों के हैं, उनकी जातियां भिन्न-भिन्न हैं। उनका धर्म एवं उनकी संस्कृति अलग-अलग हैं। वे अलग-अलग क्षेत्रों में रहते हैं तथा विभिन्न भाषाएं बोलते हैं, लेकिन वे सभी तहे दिल से इसको स्वीकार करते हैं कि वे एक हैं। इस तरह का राष्ट्रीय समाकलन एक मजबूत एवं प्रगतिशील राष्ट्र निर्माण के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है ।

• पहली बार राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लोगों में राष्ट्रत्व की भावना एवं संवेदनशीलता का संचार हुआ तथा राष्ट्रीय समाकलन की आवश्यकता महसूस की गई। इस आंदोलन में विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों, संस्कृतियों, समुदायों, जातियों तथा पंथों के लोग एकजुट हुए ताकि ब्रिटिश सत्ता को भारत से निकाल फेंका जा सके। आंदोलन के नेतृत्व ने समानता, स्वतंत्रता, पंथनिरपेक्षता एवं सामाजिक-आर्थिक विकास पर अधिक बल दिया। जब भारत स्वतंत्र हुआ तो इनको भारत के प्रमुख लक्ष्यों के रूप में स्वीकार किया गया।

• भारतीय संविधान राष्ट्रीय समाकलन पर बहुत अधिक बल देता है। इसकी प्रस्तावना में राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को एक प्रमुख उद्देश्य के रूप में शामिल किया गया ।

• भारतीय संविधान राष्ट्रीय समाकलन पर बहुत अधिक बल देता है। इसकी प्रस्तावना में राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को एक प्रमुख उद्देश्य के रूप में शामिल किया गया है। यह भी प्रावधान किया गया है कि भारत की सम्प्रभुत्ता तथा एकता एवं अखण्डता की रक्षा करना तथा उन्हें अक्षुण्ण बनाए रखना प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है।

• राष्ट्रीय समाकलन को कायम रखने और मजबूत बनाने के प्रयास में भारत अनेक चुनौतियों का सामना करता आया है। उनमें से सबसे अधिक महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं: साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयवाद, भाषावाद तथा उग्रवाद।

• राष्ट्रीय समाकलन को बढ़ावा देने के बहुत से कारक हैं। इसको बढ़ावा देने तथा इसे सुनिश्चित करने के लिए संविधान में कई प्रावधान किए गए हैं। सरकारों द्वारा भी कई प्रयत्न किए गए हैं। राष्ट्रीय समाकलन से सम्बन्धित मुद्दों पर विचार विमर्श करने तथा उपयुक्त कदम उठाने की अनुसंशा करने के लिए एक राष्ट्रीय एकता परिषद का गठन किया गया है। एक ही योजना आयोग पूरे देश की आर्थिक विकास के लिए योजनाएं बनाता है तथा एक चनाव आयोग चुनाव कराता है। राष्ट्रीय त्योहार एक महत्वपूर्ण समेकक शक्ति की तरह कार्य करते हैं। राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रगान तथा राष्ट्रीय प्रतीक भी यह याद दिलाते हैं कि हम सबों की पहचान एक है।

•  पंथ निरपेक्षता का आशय सभी धर्मों की समानता तथा धार्मिक सहिष्णुता है। इसक यह है कि भारत में कोई औपचारिक सरकारी धर्म नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार है। सरकार किसी धर्म का पक्ष नहीं ले सकती न ही किसी धर्म के विरूद्ध भेदभाव कर सकती है। यह सभी धर्मो को समान मानती है और उनका आदर करती है। प्रत्येक नागरिक द्वारा “सर्व धर्म समभाव” के सिद्धान्त का आचरण करना आवश्यक है।

• भारतीय संविधान ने अपनी प्रस्तावना तथा विशेष रूप से अपने मौलिक अधिकारों तथा राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अध्यायों के माध्यम से भारत में समानता एवं भेदभाव रहित सिद्धान्त पर आधारित एक पंथ निरपेक्ष राज्य का निर्माण किया है। पंथनिरपेक्षता केवल सांप्रदायिक सदभाव तथा शान्ति बनाए रखने के लिए ही नहीं, बल्कि देश के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है ।

NIOS Class 10th सामाजिक विज्ञान (पुस्तक – 2) Notes in Hindi

You Can Join Our Social Account

YoutubeClick here
FacebookClick here
InstagramClick here
TwitterClick here
LinkedinClick here
TelegramClick here
WebsiteClick here