NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 20 केन्द्रीय स्तर पर शासन (Governance at the central level) Notes in Hindi

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 20 केन्द्रीय स्तर पर शासन (Governance at the central level)

TextbookNIOS
class10th
SubjectSocial Science
Chapter20th
Chapter Nameराज्य स्तर पर शासन (Governance at the state level)
CategoryClass 10th NIOS Social Science (213)
MediumHindi
SourceLast Doubt

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 20 केन्द्रीय स्तर पर शासन (Governance at the central level) Notes in Hindi जिसमे हम भारत में शासन के कितने स्तर?, केंद्रीय शासन प्रणाली क्या है?, शासन के तीन स्तर कौन से हैं?,, भारत में कौन सा शासन चल रहा है?, शासन कितने प्रकार होते हैं?, भारत में सरकार के 3 स्तर क्यों हैं?, भारत में शासन के तीसरे स्तर को क्या कहा जाता है? केंद्र सरकार के मुख्य अंग कौन से हैं?, केंद्र सरकार का प्रमुख कौन होता है?, केंद्र सरकार और राज्य सरकार में क्या अंतर होता है?, देश में शासन का कार्य कौन मिलकर करता है? आदि के बारे में पढ़ेंगे 

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 20 केन्द्रीय स्तर पर शासन (Governance at the central level)

Chapter – 20

केन्द्रीय स्तर पर शासन

Notes

20.1 राष्ट्रपति

निम्नलिखित चित्र गणतन्त्र दिवस परेड का है। हम प्रतिवर्ष 26 जनवरी को गणतन्त्र दिवस मनाते हैं। भारत को एक गणतन्त्र के रूप में जाना जाता है। क्या आप इसका कारण जानते हैं? इसका कारण है कि भारत का राष्ट्रपति निर्वाचित होता है। ब्रिटेन में ऐसा नहीं है अपितु वहाँ का राज्य प्रमुख राजा अथवा महारानी होती है। वहाँ यह पद वंशानुगत है।

20.1.1 राष्ट्रपति निर्वाचन की प्रक्रिया

राष्ट्रपति का निर्वाचन एक निर्वाचक मण्डल द्वारा किया जाता है जिसमें संसद् के दोनों सदनों के निर्वाचित सांसद् तथा सभी राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं। इसके अतिरिक्त केन्द्र शासित क्षेत्र दिल्ली तथा पुदुच्चेरी (पूर्व में पाण्डिचेरी) की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य भी भाग लेते हैं । निर्वाचन गुप्त मतदान द्वारा होता है। राष्ट्रपति का चुनाव अनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर एकल संक्रमणीय मत प्रणाली से होता है।

राष्ट्रपति निर्वाचन होने के लिए अर्हताएँ

राष्ट्रपति पद के निर्वाचन हेतु एक व्यक्ति में निम्नलिखित योग्यताएँ होनी चाहिए :

(i) वह भारत का नागरिक होना चाहिए,

(ii) वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो,

(iii) वह लोक सभा का सदस्य निर्वाचित होने के लिए आवश्यक योग्यता रखता हो और

(iv) वह भारत सरकार, किसी राज्य सरकार अथवा किसी स्थानीय प्राधिकरण अथवा किसी सरकारी प्राधिकरण में किसी लाभकारी पद पर आसीन नहीं होना चाहिए।

कार्यकाल

राष्ट्रपति पाँच वर्ष के कार्यकाल के लिए निर्वाचित होता है, परन्तु वह अपना कार्यकाल पूरा होने के बाद भी तब तक पद पर बने रहता है जब तक उसका उत्तराधिकारी पद पर आसीन नहीं हो जाता है। राष्ट्रपति पद पर आसीन अथवा आसीन रह चुके व्यक्ति द्वारा पुनः चुनाव लड़ने का प्रावधान है। राष्ट्रपति का पद निम्नलिखित कारणों में से किसी एक के कारण रिक्त हो सकता है।

(i) उसकी मृत्यु हो जाने के कारण,

(ii) त्याग-पत्र देने के कारण,

(iii) महाभियोग द्वारा पद से हटा दिये जाने के कारण। महाभियोग (राष्ट्रपति को उसके असंवैधानिक कृत्यों के कारण हटाने का प्रस्ताव) को संसद् के दोनों सदनों के विशेष बहुमत से पारित किया जाना जरूरी है।

संविधान के प्रावधानों के अनुसार राष्ट्रपति का पद रिक्त होने पर उपराष्ट्रपति तब तक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है, जब तक कि नया राष्ट्रपति निर्वाचित होकर अपना कार्यभार न सम्भाल ले। उपराष्ट्रपति 6 महीने से अधिक राष्ट्रपति के रूप में कार्य नहीं कर सकता। राष्ट्रपति के लिए वेतन, भत्ते तथा सुविधाएँ संसद् द्वारा पारित कानून द्वारा निर्धारित होते हैं। संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को 10,000 रुपये मासिक वेतन मिलता था जिसे 1998 में बढ़ा कर 50 हजार रुपये कर दिया गया था तथा फिर से 2008 में बढ़ाकर एक लाख पचास हजार रुपये कर दिया गया। इसके अतिरिक्त अन्य कई भत्ते तथा सुविधाएँ भी मिलती हैं और वह नई दिल्ली में स्थित राष्ट्रपति भवन में निवास करता है।

20.1.2 राष्ट्रपति की शक्तियाँ

जैसा कि हम पूर्व में जान चुके हैं कि राष्ट्रपति देश का मुखिया होता है। यह हमारे देश का सर्वोच्च पद है। भारत सरकार के सभी कार्य उसके नाम पर होते हैं। भारत के राष्ट्रपति की निम्नलिखित शक्तियाँ हैं।

(अ) कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियाँ

भारत का संविधान संघ की कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियाँ राष्ट्रपति को प्रदान करता है। वह ऐसे समूह का नेता होता है जिसे लोक सभा में बहुमत प्राप्त हो। वह प्रधानमन्त्री की सिफारिश प्रधानमन्त्री को नियुक्त करता है जो लोक सभा में बहुमत प्राप्त पार्टी का अथवा पार्टियों के पर मन्त्रिपरिषद् के अन्य सदस्यों को भी नियुक्त करता है। प्रशासन का औपचारिक मुखिया होने के कारण संघ के सभी कार्य राष्ट्रपति के नाम पर किए जाते हैं। राष्ट्रपति की कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियों में राज्यों के राज्यपालों, महान्यायवादी, महालेखापरीक्षक, राजदूतों एवं उच्चायुक्तों संघीय क्षेत्रों के प्रशासकों को नियुक्त करने की शक्ति भी शामिल है। वह संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों के साथ-साथ सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति भी करता है। राष्ट्रपति सशस्त्र सेनाओं का प्रधान सेनापति होता है तथा तथा सेना के तीनों अंगों-थल सेना, वायु सेना और जल सेना के अध्यक्षों की नियुक्ति करता है।

(ब) विधायी शक्तियाँ

राष्ट्रपति संसद् का एक अभिन्न अंग है और अपनी इस हैसियत के आधार पर उसे कई विधायी शक्तियाँ प्राप्त हैं। राष्ट्रपति प्रतिवर्ष आहूत होने वाले संसद् के प्रथम अधिवेशन तथा प्रत्येक के बाद आहूत लोक सभा को संबोधित करता है। वह संसद के सदनों के अधिवेशन बुला अथवा स्थगित कर सकता है और मन्त्रिपरिषद् की सिफारिश पर लोक सभा को भंग कर सकता है। उसकी सहमति और स्वीकृति के बिना कोई बिल कानून नहीं बन सकता। यदि राज्य सभा और लोक सभा के बीच किसी बिल को पारित करने में सहमति नहीं बनती है तो वह मुद्दे का हल निकालने के लिए दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुला सकता है। जब संसद् का अधिवेशन न चल रहा हो तो राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की सलाह पर अध्यादेश जारी कर सकता है जिसे कानून की शक्ति प्राप्त होती है।

(स) वित्तीय शक्तियाँ

उपरोक्त कार्यपालिका एवं विधायी शक्तियों के साथ राष्ट्रपति को कुछ वित्तीय शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। लोक सभा में कोई भी धन विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति के बिना प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में लोक सभा में प्रस्तुत सभी धन विधेयकों को राष्ट्रपति की स्वीकृति और सहमति प्राप्त होती है। आपने बजट के बारे में अवश्य सुना होगा। यह भारत सरकार की वार्षिक आय और व्यय का ब्यौरा प्रस्तुत करने वाला दस्तावेज होता है। राष्ट्रपति प्रत्येक वित्तीय वर्ष के प्रारम्भ में इसको लोक सभा के सम्मुख प्रस्तुत करने हेतु अपनी सहमति प्रदान करता है।

क्या आप जानते हैं?

राष्ट्रपति की विधायी शक्तियों पर चर्चा करते समय प्रयुक्त शब्दों अधिवेशन बुलाना, स्थगित करना, ‘भंग करना’ तथा ‘अध्यादेश’ के क्या अर्थ हैं?

संसद् का अधिवेशन बुलाना : राष्ट्रपति संसद् के सदस्यों को एक औपचारिक सूचना भेजता है कि लोक सभा और राज्य सभा का अधिवेशन एक निश्चित तिथि को शुरू होकर एक निश्चित तिथि तक जारी रहेगा।

संसद् का अधिवेशन स्थगित करना : राष्ट्रपति संसद के सदस्यों को एक औपचारिक सूचना जारी करता है कि लोक सभा राज्य सभा का अधिवेशन एक निश्चित तिथि के बाद नहीं होगा।

लोक सभा को भंग करना : जब राष्ट्रपति लोक सभा को भंग करता है तो इसका अर्थ होता है कि सदन अगला चुनाव होने तथा पुनर्गठित होने तक वर्तमान सदन का अस्तित्व नहीं रहेगा।

अध्यादेश : यदि संसद् का अधिवेशन नहीं चल रहा हो और किसी कानून की तुरन्त आवश्यकता ही तो इसको एक अध्यादेश जारी करके लागू किया जा सकता है। अध्यादेश, प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में मन्त्रिपरिषद् की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा जारी किया जाता है। यह कानून की भाँति ही प्रभावी होता है। लेकिन जैसे ही संसद् का अधिवेशन शुरू होता है तो इसको संसद्  की स्वीकृति मिलना आवश्यक होता है। यदि किसी भी कारणवश संसद् इसको 6 सप्ताह में स्वीकार नहीं करती तो अध्यादेश निरस्त हो जाता है।

न्यायिक शक्तियाँ : राज्य का प्रमुख होने के नाते राष्ट्रपति के पास कुछ निश्चित न्यायिक शक्तियाँ होती हैं। किसी अपराध में दण्डित किसी व्यक्ति को क्षमा करने अथवा उसके दण्ड को कम करने की उसको शक्ति प्राप्त होती है। उदाहरण के लिए वह किसी अदालत अथवा सैन्य न्यायालय द्वारा दण्डित किसी अपराधी की सजा को स्थगित, माफ अथवा कम कर सकता है।
20. 1.5 राष्ट्रपति और आपात उपबंध

अब तक हमने भारत के राष्ट्रपति की उन शक्तियों की चर्चा की है जिसका प्रयोग वे सामान्य समय में करते हैं। इन शक्तियों से अलग उसके पास महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ हैं जिनका प्रयोग वह असामान्य स्थिति में करता है। इन्हें आपातकालीन शक्तियाँ कहा जाता है। संविधान में तीन विशेष परिस्थितियों अथवा असामान्य स्थितियों से निपटने के लिए इन शक्तियों का प्रावधान किया गया है। ये स्थितियाँ (अ) युद्ध अथवा बाहरी आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह (ब) किसी राज्य में संवैधानिक तन्त्र की विफलता और (स) वित्तीय संकट हो सकती हैं।

(i) युद्ध, बाहरी आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह : यदि राष्ट्रपति इस बात से सन्तुष्ट हो कि भारत की सुरक्षा अथवा इसके किसी भाग की सुरक्षा को युद्ध, बाहरी आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह से खतरा है तो वह ‘आपातकाल की घोषणा कर सकता है। यद्यपि राष्ट्रपति इस प्रकार की घोषणा केवल तब करता है जब उसे मन्त्रीमण्डल का निर्णय (प्रधानमन्त्री तथा कैबिनेट मन्त्रियों का निर्णय) लिखित में भेजा जाता है। प्रत्येक घोषणा को संसद् के सदनों के समक्ष रखा जाता है तथा यदि इसको एक मास के भीतर स्वीकृति प्राप्त नहीं होती तो यह स्वतः ही निष्प्रभावी हो जाती है। आपातकाल की घोषणा के साथ ही संघीय सरकार राज्य सरकारों को उनकी कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियों के प्रति निर्देश दे सकती है और संसद् राज्य विधान सभा के विधायी कार्यों को अपने हाथ में ले सकती है। राष्ट्रपति मौलिक अधिकारों को भी स्थगित कर सकता है।

(ii) दूसरे प्रकार का आपातकाल राज्य की स्थिति से संबंधित है। इसकी घोषणा उस समय की जा सकती है जब किसी राज्य में संवैधानिक तन्त्र विफल हो गया हो। यदि राष्ट्रपति राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर सन्तुष्ट हो अथवा सन्तुष्ट हो कि राज्य का प्रशासन संविधान के प्रावधानों के आधार पर नहीं चलाया जा सकता तो वह आपातकाल की घोषणा कर सकता हैं। इसको राष्ट्रपति शासन कहा जाता है। ऐसी घोषणा को दो मास के भीतर संसद् के दोनों सदनों का अनुमोदन प्राप्त होना चाहिए। यदि संसद् का अनुमोदन प्राप्त नहीं होता तो यह घोषणा दो मास की अवधि के बाद निष्प्रभावी हो जाती है । संसद् के अनुमोदन के बाद यह एक बार में छः महीने से अधिक जारी नहीं रह सकती और किसी भी स्थिति में तीन वर्ष से अधिक जारी नहीं रह सकती। इस काल के दौरान राज्य की विधान सभा को या तो भंग कर दिया जाता है अथवा स्थगित रखा जाता है। राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति के नाम पर सभी कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियों का प्रयोग करता है। संसद् उस राज्य विशेष की विधायी शक्तियों को ग्रहण कर लेती है।

(iii) तीसरे प्रकार के आपातकाल को वित्तीय संकट कहते हैं और इसकी घोषणा तब की जाती है जब भारत अथवा इसके किसी भाग की वित्तीय स्थिरता अथवा साख को खतरा हो । अन्य दो आपातकालीन स्थितियों की ही तरह इस घोषणा को भी दो मास के भीतर संसद् की स्वीकृति मिलना अनिवार्य है। एक बार संसद् की स्वीकृति मिलने पर यह निरन्तर तब तक जारी रह सकती है जब तक कि इसको वापस नहीं ले लिया जाए। इस स्थिति में राष्ट्रपति, सभी सरकारी कर्मचारियों तथा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के वेतन कम कर सकता है। भातर में अब तक वित्तीय संकट की घोषणा नहीं की गई है।

20.1.4 राष्ट्रपति की स्थिति

क्या आपने देखा है कि जब संघीय सरकार की कार्य-प्रणाली की चर्चा संसद् अथवा समाचार-पत्रों अथवा टेलीविजन पर की जाती है तो प्रायः प्रधानमन्त्री और मन्त्रियों की भूमिका की चर्चा होती है। लेकिन हमने पहले देखा है कि संविधान कार्यपालिका सम्बन्धी शक्तियाँ राष्ट्रपति को प्रदान करता है। उसके पास आपातकाल सम्बन्धी शक्तियाँ भी व्यापक हैं। क्या इसका अर्थ यह है कि राष्ट्रपति सर्व शक्ति सम्पन्न है? नहीं । वास्तव में राष्ट्रपति नाममात्र का कार्यकारी अथवा राज्य का संवैधानिक अध्यक्ष है। निःसन्देह सरकार उसके नाम से चलती है लेकिन भारत के संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को अपनी शक्तियों का प्रयोग प्रधान मन्त्री की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल की सलाह और सहायता से करना होता है। यह केवल साधारण परामर्श नहीं है अपितु बाध्यकारी है। इससे संकेत मिलता है कि प्रधानमन्त्री और मन्त्रीमण्डल ही सरकार में वास्तविक शासक हैं। सभी निर्णय प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल द्वारा लिए जाते हैं। राष्ट्रपति को इन निर्णयों की सूचना पाने का अधिकार है। इसी प्रकार आपातकालीन प्रावधान भी राष्ट्रपति को कोई वास्तविक शक्तियाँ प्रदान नहीं करते ।

भारत के संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति को वही स्थान प्राप्त है जो ब्रिटिश संविधान में राजा / रानी को प्राप्त है। वह राज्य का अध्यक्ष है परन्तु कार्यपालिका नहीं है। वह देश का प्रतिनिधित्व करता है परन्तु शासन नहीं करता। वह राष्ट्र का प्रतीक है। प्रशासन में उसका स्थान केवल एक औपचारिक अध्यक्ष का है जिसकी मुहर से देश के निर्णय जाने है 

-डॉ. भीमराव अम्बेडकर (संविधान सभा में बोलते हुए) 

उपरोक्त कथन के आलोक में कुछ संवैधानिक विशेषज्ञों का मानना है कि राष्ट्रपति की तुलना एक रबड़ स्टैम्प से की जा सकती है। लेकिन यह निष्कर्ष भी सत्य नहीं है । राष्ट्रपति को संविधान को बनाए रखने, रक्षा करने और बचाए रखने का कार्य सौंपा गया है। वह संविधान में दर्ज लोकतान्त्रिक प्रणाली का संरक्षक है। अनिश्चित राजनीतिक स्थिति में वह सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभा सकता है। ऐसे कई अवसर आए हैं जब राष्ट्रपति ने अपनी शक्ति को दिखाया है। फिर भी व्यवहार में राष्ट्रपति नाममात्र अथवा संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में कार्य करता है। ठीक ही कहा गया है कि हमारी संवैधानिक व्यवस्था में राष्ट्रपति को सर्वोच्च सम्मान, गरिमा और प्रतिष्ठा तो प्राप्त है परन्तु वास्तविक शक्ति प्राप्त नहीं हैं

क्या आप जानते है

उपराष्ट्रपति के विषय में कुछ तथ्य जैसा कि हम जानते हैं कि राष्ट्रपति के त्याग-पत्र देने, राष्ट्रपति को हटाने अथवा राष्ट्रपति की मृत्यु के कारण रिक्त हुए पद पर उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति की भाँति कार्य करता है। संविधान के अनुसार उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सभापति होता है। पदेन सभापति होने का अर्थ है कि वह उपराष्ट्रपति होने के कारण सभापति होता है। वह एक निर्वाचक मण्डल द्वारा निर्वाचित होता है जिसमें संसद् के दोनों सदनों के सदस्य सम्मिलित होते हैं। वह आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा गुप्त मतदान से चुना जाता है। उपराष्ट्रपति के लिए आवश्यक योग्यताएँ वही हैं जो राष्ट्रपति पद के लिए हैं। उसका मुख्य कार्य राज्य सभा की बैठकों की अध्यक्षता करना होता है जैसा कि लोक सभा अध्यक्ष द्वारा किया जाता है।

20.2 प्रधानमन्त्री

क्या आप जानते हैं कि भारत का पहला प्रधानमन्त्री कौन था? हाँ, वह चाचा नेहरू ही थे अर्थात् जवाहर लाल नेहरू। आप सोचिये कि जब उन्होंने यह महत्त्वपूर्ण पद लिया होगा तो उन्हें कैसा महसूस हुआ होगा? याद कीजिए कि उस समय भारत को अंग्रेजों के शासन से स्वतन्त्रता प्राप्त हुई ही थी। उनके सामने कौन-सी चुनौतियाँ थीं? आइए हम उनके ही शब्दों से जानें (उनकी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इण्डिया में लिखित : “भारत एक गरीब देश नहीं है। उसके पास वह सब कुछ है जिससे एक देश अमीर बनता है और फिर भी यहाँ के लोग बहुत गरीब हैं-भारत के पास संसाधन हैं तथा तेजी से आगे बढ़ने के लिए बुद्धिमत्ता, कौशल और क्षमता है।” उसने आगे लिखा, “हमारा लक्ष्य समानता होना चाहिए सबको केवल समान अवसर प्रदान करना ही नहीं अपितु शैक्षिक, आर्थिक और सांस्कृतिक उन्नति के लिए विशेष अवसर प्रदान करने चाहिए ताकि वह अपने से आगे वालों तक पहुँचने के योग्य हो सकें। भारत में अवसरों के द्वार सबके लिए खोलने के किसी भी प्रयास से इस देश को विस्मयकारी दर से बदलने की अपार ऊर्जा और योग्यता प्राप्त होगी।” नेहरू ने देश को आगे ले जाने के महान दायित्व का अनुभव किया क्योंकि प्रधानमन्त्री के रूप में उसको एक प्रमुख भूमिका निभानी थी।

यदि आप टेलीविजन अथवा रेडियो पर समाचार सुनें तो पाएँगे कि आज भी हम संघीय सरकार के किसी अन्य पद से कहीं अधिक प्रधानमन्त्री के विषय में सुनते हैं। वास्तव में प्रधानमन्त्री केन्द्र में अति महत्वपूर्ण पद है। यदि आप संविधान पढ़ें तो आपको एक अलग छवि प्राप्त हो सकती है, क्योंकि सभी शक्तियों को राष्ट्रपति की शक्तियाँ बताया गया है लेकिन केवल एक प्रावधान सारी स्थिति को पलट देता है। संविधान में दर्ज है कि राष्ट्रपति को सहायता और परामर्श देने के लिए प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में एक मन्त्रिमण्डल होगा और राष्ट्रपति इस परामर्श के अनुसार कार्य करेगा। वास्तव में राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल की सलाह (परामर्श) पर कार्य करने के लिए बाध्य है । प्रधानमन्त्री ही संघीय कार्यपालिका का वास्तविक अध्यक्ष (मुखिया) है।

प्रधानमन्त्री को राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है लेकिन राष्ट्रपति को केवल उसी व्यक्ति को प्रधानमन्त्री पद के लिए आमन्त्रित करना होता है जो लोक सभा में बहुमत का नेता हो । पूर्व में आमन्त्रित किया जाने वाला व्यक्ति किसी एक राजनीतिक पार्टी का नेता होता था। जिसको लोक सभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त होता था। लेकिन मिली-जुली और गठबन्धन की सरकारों का दौर शुरू होने के साथ वह एक से अधिक पार्टियों के समूह का नेता हो सकता है। परिवर्तित स्थिति में राष्ट्रपति उस व्यक्ति को आमन्त्रित करता है जो लोक सभा में सबसे अधिक सीट जीतने वाली पार्टी का नेता होता है तथा जिसे आवश्यक बहुमत जुटाने के लिए अन्य पार्टियों से समर्थन प्राप्त होता है। प्रधानमन्त्री बनने के लिए बहुमत का नेता होने के साथ-साथ उसे संसद् का सदस्य होना भी अनिवार्य है। यदि वह अपनी नियुक्ति के समय सदस्य नहीं है तो उसे अपने प्रधानमन्त्री नियुक्त होने की तिथि से छः मास के अन्तर्गत सदस्यता प्राप्त करनी होती है।

क्या आप जानते हैं।

ऐसी सरकार जिसको विधायिका के एक से अधिक पार्टियों के सदस्य मिलकर बनाते हैं, उसे गठबन्धन की सरकार कहते हैं। भारत में गठबन्धन की सरकारों का दौर 1967 के आम चुनावों के बाद शुरू हुआ जब पहली बार कांग्रेस विरोधी राजनीतिक पार्टियों की कई राज्यों में सरकारें गठित हुई। केन्द्र में यह दौर 1977 में चुनावों के बाद जनता पार्टी की सरकार के साथ शुरू हुआ और निम्नलिखित गठबन्धन की सरकारों का गठन हुआ। (यहाँ प्रधानमन्त्री के नाम से पहचान निश्चित की गई है।)

पहली – मोरार जी देसाई दूसरी – चौ. चरण सिंह
तीसरी – वी.पी. सिंह                      1989-90चौथी – चन्द्रशेखर          1990-91
पाँचवीं – अटल बिहारी वाजपेयी      1996-1996छठी – एच.डी. देवगौड़ा          1996-1997
सातवीं – आई.के. गुजराल                1997-98आठवीं – अंटल बिहारी वाजपेयी   1998-99
नौवीं – अटल बिहारी वाजपेयी         1999-2004दसवीं – मनमोहन सिंह             2004-2009
ग्यारहवीं – मनमोहन सिंह                  2009-

(राजग और संप्रग दो मुख्य गठबन्धन है जिनका नेतृत्व क्रमशः भाजपा और कांग्रेस कर रही है।)

20.2.1 प्रधानमन्त्री के कार्य

क्या यह रोचक नहीं है कि भारत का संविधान प्रधानमन्त्री की शक्तियों के विषय में कोई विशिष्ट उल्लेख नहीं करता जबकि यह संघीय सरकार का सबसे अधिक शक्तिशाली पद है। संविधान में केवल इतना प्रावधान है कि राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में मन्त्रीमण्डल की सहायता और सलाह पर अपनी शक्तियों का प्रयोग करेगा और यह सलाह राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी होगी। परन्तु व्यावहार में प्रधानमन्त्री ही मन्त्रीमण्डल को बनाता और तोड़ता है। केवल प्रधानमन्त्री की सलाह पर ही राष्ट्रपति मन्त्रीमण्डल के सदस्यों को नियुक्त करता है तथा उनमें विभाग बाँटता है। वह मन्त्रीमण्डल की बैठकों की अध्यक्षता करता है और इसके निर्णयों से राष्ट्रपति को अवगत कराता है। प्रधानमन्त्री राष्ट्रपति और मन्त्रीमण्डल के बीच एक कड़ी का काम करता है। यदि किसी कारणवश वह अपने पद से त्याग-पत्र देता / देती है तो पूरा मन्त्रीमण्डल भंग हो जाता है। जब कभी आवश्यकता उत्पन्न होती है तो वह राष्ट्रपति को लोक सभा भंग करने और फिर से चुनाव करवाने की सिफारिश कर सकता है। वास्तव में प्रधानमन्त्री केवल बहुमत वाली पार्टी अथवा संसद् का नेता ही नहीं होता अपितु वह राष्ट्र का भी नेता होता है। उसका पद शक्ति का पद है जबकि राष्ट्रपति का पद सम्मान, गरिमा और प्रतिष्ठा का पद है। प्रधानमंत्री योजना आयोग तथा राष्ट्रीय विकास परिषद् का पदेन अध्यक्ष होता है । वह अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में सरकार के अध्यक्ष के रूप में राष्ट्र का नेतृत्व करता है।

20.2.2 संघीय मन्त्रीपरिषद्

जैसा कि आपने पहले पढ़ा है कि भारत का संविधान कहता है कि “राष्ट्रपति को सहायता और परामर्श देने के लिए प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में एक मन्त्रीपरिषद् होगी जिसके परामर्श राष्ट्रपति अपने शक्तियों का प्रयोग करेगा। राष्ट्रपति, मन्त्रीपरिषद् द्वारा दिए गए परामर्श पर पुनर्विचार करने के लिए मन्त्रीपरिषद् को कह सकता है परन्तु राष्ट्रपति पुनर्विचार के बाद भेजे गए परामर्श के अनुसार ही कार्य करेगा।”

मन्त्रीपरिषद् के सदस्यों की नियुक्ति प्रधानमन्त्री की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। मन्त्रीपरिषद् में मन्त्रियों के तीन वर्ग हैं – कैबिनेट मन्त्री, राज्यमन्त्री और उपमन्त्री । ये मन्त्री प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में एक टीम की तरह काम करते हैं।

मन्त्री राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त अपने पद पर बने रहते हैं, लेकिन उन्हें तब तक हटाया नहीं जा सकता जब तक उन्हें प्रधानमंत्री का विश्वास प्राप्त है। वास्तव में संविधान के अनुसार मन्त्री सामूहिक रूप से लोक सभा के प्रति उत्तरदायी हैं। यदि लोक सभा अविश्वास प्रस्ताव पारित कर देती है तो प्रधानमन्त्री सहित पूरी मन्त्रिपरिषद् को त्यागपत्र देना पड़ता है। मन्त्रीपरिषद् में अविश्वास दर्शाने के लिए लोक सभा के सदस्यों द्वारा लाए गए विधायी प्रस्ताव को ‘अविश्वास प्रस्ताव’ कहा जाता है। इसलिए कहा जाता है कि मन्त्री साथ तैरते और साथ डूबते हैं।

कैबिनेट (मन्त्रीमण्डल) अथवा मन्त्रीपरिषद् की कार्यवाही को गुप्त रखा जाता है। मन्त्रीपरिषद् मन्त्रियों की एक बड़ी इकाई है। गत वर्षों में हमने देखा है कि कैबिनेट स्तर के 20 से 25 मन्त्री होते हैं जिनके पास महत्त्वपूर्ण विभाग होते हैं। इसके बाद राज्य मन्त्री होते हैं जिनमें से कुछ के पास महत्त्वपूर्ण मन्त्रालय होते हैं और अन्य कुछ कैबिनेट मन्त्रियों के साथ सम्बद्ध होते हैं। इसके अतिरिक्त मन्त्रियों का एक वर्ग ‘उपमन्त्री’ के रूप में होता है जो कैबिनेट मन्त्रियों अथवा राज्य मन्त्रियों के साथ सम्बद्ध होते हैं। कैबिनेट की बैठक में केवल कैबिनेट मन्त्री ही उपस्थित होते हैं। परन्तु यदि जरूरत हो तो राज्य मन्त्रियों को भी ऐसी बैठक में शामिल होने के लिए। आमन्त्रित किया जा सकता है।

20.2.3 प्रधानमन्त्री की स्थिति

उपरोक्त चर्चा की पृष्ठभूमि में यह स्पष्ट है कि संघीय सरकार में प्रधानमन्त्री की स्थिति अति महत्त्वपूर्ण है। वह संसद् में सरकार की नीतियों का मुख्य प्रवक्ता और रक्षक होता है। मन्त्रीपरिषद् उसकी टीम की तरह कार्य करती है। पूरा राष्ट्र आवश्यक नीतियों, कार्यक्रमों और कार्रवाइयों के लिए उसकी ओर देखता है। सभी अन्तर्राष्ट्रीय समझौते और दूसरे देशों के साथ सन्धियाँ प्रधानमन्त्री की सहमति से होती हैं। सरकार और संसद् में उसकी विशेष हैसियत होती है। प्रधानमन्त्री अपनी टीम का चयन बहुत ध्यान से करता है और उनसे अपेक्षित सहयोग प्राप्त करता है। यह भी सत्य है कि गठबन्धन की सरकारों में प्रधानमन्त्री को समान विचार वाली राजनीतिक पार्टियों से भी सहायता लेनी पड़ती है। पिछले दस-बारह वर्षों का अनुभव बताता है कि ऐसे परिदृश्य में प्रधानमन्त्री को बहुत सर्तक तथा कूटनीतिक रहना पड़ता है । उसको देश की रक्षा और सुरक्षा के सम्बन्ध में बड़े निर्णय लेने पड़ते हैं । उसको न केवल बेहतर जीवन स्थितियाँ प्रदान करने के लिए ही नीतियाँ बनानी होती हैं अपितु शान्ति बनाए रखने तथा पड़ोसी देशों के साथ अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए भी नीतियाँ बनानी पड़ती हैं। उपरोक्त तथ्यों के कारण ही प्रधानमन्त्री कैबिनेट की नींव का पत्थर होता है।

20.8.1 लोक सभा

लोक सभा को संसद् का निम्न सदन कहते हैं। यह लोगों के प्रतिनिधियों की संस्था है। लोक सभा के सदस्य सीधे भारत के लोगों द्वारा चुने जाते हैं। इसके सदस्यों की संख्या 550 से अधिक नहीं हो सकती। इनमें से 530 को सीधे भारत के विभिन्न राज्यों के लोग चुनते हैं और शेष 20 सदस्य केन्द्र शासित क्षेत्रों से चुने जाते हैं। ऐसे सभी नागरिक जो 18 वर्ष अथवा उससे अधिक आयु के हैं, को मत देने का अधिकार है और वे लोक सभा के सदस्यों को चुनते हैं। भारत के संविधान के अनुसार यदि लोक सभा में एंग्लो इण्डियन समुदाय का कोई सदस्य न हो तो राष्ट्रपति इस समुदाय के दो सदस्यों को नामांकित कर सकता है। जब चुनावों की घोषणा की जाती है तो प्रत्येक राज्य और केन्द्र शासित क्षेत्रों को जनसंख्या के आधार पर विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में विभाजित कर दिया जाता है। इन्हें संसदीय क्षेत्र कहते । प्रत्येक संसदीय क्षेत्र से लोक सभा के लिए एक प्रतिनिधि चुना जाता है

लोक सभा का कार्यकाल पाँच वर्ष है। लेकिन इसको राष्ट्रपति भी पहले भी भंग कर सकते हैं। आपातकाल के दौरान इसके कार्यकाल को एक वर्ष के लिए बढ़ाया जा सकता है। लोक सभा का चुनाव लड़ने वाला व्यक्ति (i) भारत का नागरिक होना चाहिए, (ii) उसकी आयु 25 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए, (iii) उसके पास केन्द्रीय, राज्य अथवा स्थानीय सरकारों में लाभ का कोई पद नहीं होना चाहिए। उसके पास वह सब योग्यताएँ होनी चाहिए जो समय-समय पर संसद् द्वारा बनाए गए कानून द्वारा निश्चित की गई हों ।

20.3.2 राज्य सभा

राज्य सभा संसद् का उच्च सदन है। इसके सदस्यों की संख्या 250 से अधिक नहीं हो सकती। इनमें से 238 राज्यों तथा केन्द्र शासित क्षेत्रो से होते हैं तथा शेष 12 सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किया जाता है। राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य साहित्य, कला, विज्ञान और समाज सेवा के क्षेत्र से प्रतिष्ठित लोग होते हैं। इन सदस्यों का चुनाव अनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के माध्यम से एकल संक्रमणीय मत द्वारा राज्यों की विधान सभाओं के सदस्यों द्वारा किया जाता है। प्रत्येक राज्य से सदस्यों की संख्या उस राज्य की जनसंख्या पर निर्भर करती हैं। राज्य सभा को कभी भंग नहीं किया जा सकता। राज्य सभा के सदस्यों का निर्वाचन 6 वर्ष के लिए किया जाता है। लेकिन एक व्यवस्था के अन्तर्गत कुल सदस्यों का एक तिहाई प्रति दो वर्ष बाद सेवानिवृत्त हो। जाता है और नए सदस्य निर्वाचित किए जाते हैं। सेवानिवृत्त होने वाले सदस्य का पुनः निर्वाचित किया जा सकता है। राज्य सभा का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता के लिए एक व्यक्ति को (अ) भारत का नागरिक होना चाहिए, (ब) उसकी आयु 30 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए, (स) अन्य योग्यताएँ वही हैं जो लोक सभा सदस्य बनने के लिए आवश्यक हैं। संसद् के अधिवेशन राष्ट्रपति द्वारा बुलाए जाते हैं। दो अधिवेशनों के बीच 6 मास से अधिक का अन्तर नहीं होना चाहिए। राष्ट्रपति के पास अधिवेशन स्थगित करने का अधिकार है। राष्ट्रपति के पास लोक सभा भंग करने का अधिकार तो है, परन्तु राज्य सभा भंग करने का अधिकार नहीं है क्योंकि यह एक स्थायी सदन है।

20 3.5 पीठासीन पदाधिकारी

लोक सभा का अध्यक्ष स्पीकर कहलाता है और वह लोक सभा की अध्यक्षता करता है तथा उसकी अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष अध्यक्षता करता है। लोकसभा सदस्य अपने सदस्यों के बीच से ही अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का निर्वाचन करते हैं; वह निचले सदन मं अनुशासन और व्यवस्था बनाए रखता है तथा कार्यवाही का निरीक्षण करता है। वह यह निर्णय करता है कि कौन-सा सदस्य कितने समय के लिए बोलेगा। आमतौर पर वह मतदान में भाग नहीं लेता परन्तु निर्णय न होने की स्थिति में अपना मत डाल सकता है। अध्यक्ष ही निर्णय करता है कि कौन-सा विधेयक साधारण अथवा धन विधेयक है और उसका निर्णय अन्तिम होता है। वह सदस्यों के अधिकारों तथा सुविधाओं का संरक्षक होता है। लोक सभा और राज्य सभा की संयुक्त बैठक के मामले में लोक सभा का अध्यक्ष ही बैठक की अध्यक्षता करता है।

राज्य सभा का सभापति उपराष्ट्रपति होता है जो कि पदेन सभापति होता है। यह राज्य सभा का सदस्य नहीं होता है। उसका निर्वाचन एक निर्वाचक मण्डल द्वारा किया जाता है जिसमें दोनों ‘सदनों के सदस्य शामिल होते हैं। लोक सभा अध्यक्ष की भाँति राज्य सभा का अध्यक्ष भी प्रायः श्रुतदान नहीं करता, परन्तु मत बराबर होने की स्थिति में मतदान कर सकता है।

220-8.4 संसद् के कार्य

संसद् विधायी कार्यों की सर्वोच्च संस्था है। इसके द्वारा किए जाने वाले कार्यों को निम्नलिखित ढंग से वर्गीकृत किया जा सकता है।

(i) विधायी कार्य : संसद कानून बनाने वाली संस्था है। यह संविधान में उल्लिखित संघीय सूची और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाती है। यदि संघीय सरकार और राज्य सरकार के बीच समवर्ती विषय को लेकर कोई विवाद अथवा टकराव हो जाए तो संघीय सरकार का कानून माना जाएगा। इसके अतिरिक्त यदि कोई विषय किसी भी सूची में दर्ज नहीं है तो उस अवशिष्ट विषय पर कानून बनाने का अधिकार संसद् के पास है। साधारण विधेयक को संसद् के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। यदि कोई विधेयक लोक सभा में पारित हो जाए तो उसे राज्य सभा में भेजा जाता है जो इसको पारित कर सकती है अथवा कुछ संशोधन का सुझाव दे सकती है। यदि दोनों सदनों में असहमति बनी रहती है तो इसको दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में सुलझाया जाता है। संयुक्त बैठक में लोक सभा का पलड़ा भारी होता है क्योंकि राज्य सभा के 250 सदस्यों की तुलना में लोक सभा के 550 सदस्य होते हैं। आज तक केवल तीन बार दोनों सदनों की संयुक्त बैठकें हुई हैं। यदि दोनों सदन विधेयक को पारित कर देते हैं तो विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और उनकी स्वीकृत मिलते ही यह विधेयक कानून बन जाता है।

(ii) कार्यपालिका सम्बन्धी कार्य : संसदीय प्रणाली में विधायिका और कार्यपालिका के बीच निकट का सम्बन्ध होता है। जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है कि वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रीपरिषद् है, जो सामूहिक रूप से लोक सभा के प्रति उत्तरदायी है और लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव पारित करके मन्त्रीपरिषद् को अपपदस्थ कर सकती है। 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार लोक सभा में अविश्वास प्रस्ताव में हार गई और उन्हें त्याग-पत्र देना पड़ा। संसद के दोनों सदन मन्त्रीपरिषद् पर अन्य कई तरीकों से अपना नियन्त्रण बनाए रखते हैं; जैसे कि –

(अ) प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछ कर : संसद के प्रत्येक कार्य दिवस का पहला घण्टा प्रश्न काल का होता है जिसमें मन्त्रियों को सदस्यों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देने होते हैं।

(ब) विधेयकों पर चर्चा और पारित करने द्वारा : ध्यानाकर्षण प्रस्ताव, स्थगन प्रस्ताव अथवा निन्दा प्रस्ताव प्रस्तुत करके सरकार की नीतियों पर बहस की जा सकती है और उनकी आलोचना की जा सकती है।

(स) अविश्वास प्रकट करके लोक सभा बजट अथवा धन विधेयक अथवा साधारण विधेयक को अस्वीकार कर कार्यपालिका के प्रति अविश्वास प्रकट कर सकती है।

(iii) वित्तीय कार्य : भारत की संसद को महत्त्वपूर्ण वित्तीय कार्य करने का दायित्व सोपा गया है। यह सरकारी धन की संरक्षक है। यह संघीय सरकार के पूरे कोष पर नियन्त्रण रखती है। प्रभावशाली ढंग से तथा सफलतापूर्वक प्रशासन चलाने के लिए यह समय-समय पर सरकार के लिए धनराशि स्वीकृत करती है। संसद् सरकार द्वारा प्रस्तुत अनुदानों की मांगों को पारित, कम अथवा अस्वीकार कर सकती है। संसद् की स्वीकृति के बिना न तो कोई कर लगाया जा सकता है और न ही कोई खर्च किया जा सकता है। यद्यपि राज्य सभा की कुछ सीमाएँ हैं। (अ) कोई भी धन विधेयक राज्य सभा में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। इसके पास धन विधेयक को स्वीकार अथवा अस्वीकार या संशोधन करने की कोई शक्ति नहीं है। यह धन विधेयक पर केवल सिफारिशें कर सकती हैं। यदि राज्य सभा किसी धन विधेयक को 14 दिन के भीतर अपनी सिफारिशों के साथ नहीं लौटाती तो इस विधेयक को दोनों सदनों द्वारा पारित माना जाता है। वार्षिक वजट (वार्षिक वित्तीय विवरण) लोक सभा में ही प्रस्तुत किया जाता है और राज्य सभा इस पर केवल चर्चा कर सकती है और इसको कानून बनने से नहीं रोक सकती।

(iv) न्यायिक कार्य : संसद् कानून बना कर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या निश्चित करने की शक्ति रखती है। यह दो अथवा अधिक राज्यों के लिए एक ही उच्च न्यायालय गठित करने का अधिकार रखती है और किसी केन्द्र शासित क्षेत्र के लिए भी उच्च न्यायालय स्थापित कर सकती है। सर्वोच्च न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अथवा किसी न्यायाधीश को राष्ट्रपति संसद् के दोनों सदनों में महाभियोग की प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही पद से हटा सकता है।

(v) विविध कार्य : संसद् एक विशेष बहुमत से राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति को अपने पद से हटा सकने की शक्ति रखती है। इस प्रक्रिया को महाभियोग कहते हैं। इसके पास संविधान संशोधन की शक्ति है। संविधान के कुछ भागों को केवल साधारण बहुमत से संशोधित किया जा सकता है। संविधान के कुछ अन्य भागों के संशोधन हेतु दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। संविधान के कुछ अन्य भागों को विशेष बहुमत द्वारा तथा आधे राज्यों की विधान सभाओं की स्वीकृति से ही संशोधित किया जा सकता है। 
20.3.5 संसद् के दोनों सदनों की तुलनात्मक स्थिति

किसी संसदीय प्रणाली में निचला सदन सदैव महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। तदनुसार हमारे देश में भी लोक सभा अधिक शक्तिशाली एवं प्रभावशाली है। दोनों सदनों की तुलनात्मक स्थिति को समझने के लिए निम्नलिखित बिन्दु महत्त्वपूर्ण हैं।

(i) लोक सभा का निर्वाचन प्रत्यक्ष होता है तथा यह भारत के लोगों की सच्ची प्रतिनिधि सभा है। दूसरी ओर राज्य सभा का निर्वाचन अप्रत्यक्ष होता है। राज्य सभा एक स्थायी सदन है जबकि लोक सभा का निर्वाचन एक निश्चित अवधि अर्थात पाँच वर्ष के लिए होता है। इसका कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है और कार्यकाल पूरा होने से पहले भी भंग किया जा सकता है।

(ii) साधारण विधेयक के सम्बन्ध में दोनों के पास बराबर शक्ति है। लेकिन यदि दोनों सदनों के बीच मतभेद पैदा हो जाए तो दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाया जाता है जिसमें लोक सभा का पलड़ा भारी रहता है क्योंकि उसके सदस्यों की संख्या राज्य सभा के सदस्यों के दुगने से भी अधिक है।

(iii) मन्त्रीपरिषद् पर नियन्त्रण रखने के मामले में भी लोक सभा अधिक शक्तिशाली है। राज्य सभा सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों पर चर्चा करके अथवा सरकार की आलोचना से ही कुछ नियन्त्रण रखती है परन्तु लोकसभा के पास अविश्वास प्रस्ताव को पारित करने की शक्ति है जिसके पारित होने पर मन्त्रीपरिषद् को त्याग-पत्र देना पड़ता है।

(iv) संविधान संशोधन, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों पर महाभियोग चलाने अथवा हटाने के मामले में लोक सभा तथा राज्य सभा को एक से ही अधिकार प्राप्त हैं।

(v) वित्तीय मामलों में जहां लोक सभा का पलड़ा भारी है वहीं केवल राज्य सभा ही नई अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन कर सकती है और राज्य सूची में दर्ज किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय घोषित कर सकती है।

उपरोक्त तुलना के दृष्टिगत निश्चित रूप से लोक सभा राज्य सभा से अधिक शक्तिशाली है। लेकिन यह कहना उपयुक्त नहीं होगा कि राज्य सभा न केवल दूसरा सदन है अपितु इसका स्थान भी दूसरा है। हमने पढ़ा है कि राज्य सभा किस प्रकार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है और कुछ कार्य तो केवल राज्य सभा ही कर सकती है।

20.3.6 संघीय सरकार का नागरिकों तथा उनके दैनिक जीवन पर प्रभाव

संघीय सरकार राष्ट्रीय स्तर के कई कार्यक्रम और योजनाएं बनाती है तथा लागू करती है जिनका हमारे जीवन की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता है। इन कार्यक्रमों में शिक्षा और बच्चों की देखभाल के कई कार्यक्रम जैसे एकीकृत बाल विकास योजना (आई.सी.डी.एस.), बच्चों के पोषण और देख-भाल के लिए आँगनवाड़ियाँ उपलब्ध कराना, प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण के लिए सर्व शिक्षा अभियान तथा माध्यमिक शिक्षा के सार्वभौमिकीकरण हेतु राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान इत्यादि शामिल है। संघीय सरकार के कुछ अन्य कार्यक्रम है- राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी अधिनियम, इन्दिरा आवास योजना इत्यादि ।

20.4.1 सर्वोच्च न्यायालय का न्यायिक क्षेत्राधिकार

सर्वोच्च न्यायालय के तीन प्रकार के क्षेत्राधिकार हैं- मूल, अपील सम्बन्धी तथा मन्त्रणा सम्बन्धी।

(i) मूल क्षेत्राधिकार : कुछ मुकदमों को सर्वोच्च न्यायालय केवल सीधे ही सुनने का अधिकार रखता है, ये हैं
(अ) संघीय सरकार तथा एक या अधिक राज्य सरकारों के बीच विवाद के मामले।
(ब) दो अथवा अधिक राज्यों के बीच विवाद ।
(स) एक तरफ संघीय सरकार तथा एक या अधिक राज्य तथा दूसरी ओर एक या अधिक राज्यों के बीच विवाद ।

(ii) अपीलीय क्षेत्राधिकार : किसी भी निचली अदालत द्वारा दिए गए निर्णय के विरुद्ध अपील सुनने के अधिकार को अपीलीय क्षेत्राधिकार कहते हैं। सर्वोच्च न्यायालय सवैधानिक, दीवानी और फौजदारी मामलों की अपील सुनने वाला न्यायालय है। यह उच्च न्यायालयों के विरुद्ध अपील सुन सकता है। इसके पास अपने ही निर्णय पर पुनरावलोकन करने का अधिकार है। यह अपनी स्वेच्छा से किसी भी न्यायालय अथवा भारत के सीमा क्षेत्र के भीतर किसी ट्रिब्यूनल द्वारा दिए गए किसी भी निर्णय के विरुद्ध अपील सुनने के लिए विशेष अनुमति प्रदान कर सकता है।

किसी भी फौजदारी मामले में सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है यदि उण न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय में अपील योग्य है। अपील की विशेष शक्ति न्यायालय के हाथ में एक ऐसा हथियार बन गया है जिससे वह चुनाव तथा श्रम एवं औद्योगिक न्यायायिकरणों के निर्णयों का पुनरावलोकन कर सकता है।

(iii) मन्त्रणा सम्बन्धी क्षेत्राधिकार : सर्वोच्च न्यायालय के पास विशेष रूप से राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए मामलों पर परामर्श देने की विशेष अधिकारिता है। यदि राष्ट्रपति को किसी भी समय ऐसा लगे कि कानून अथवा तथ्य सम्बन्धी प्रश्न उठ खड़ा हुआ है या उठेगा जो जन साधारण के लिए महत्त्वपूर्ण है तथा उस पर सर्वोच्च न्यायालय की राय लेना आवश्यक है तो वह उस मामले में सर्वोच्च न्यायालय से राय (परामर्श) ले सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मामलों में यथा आवश्यक सुनवाई कर अपने विचार राष्ट्रपति को भेजता है। यह रिपोर्ट अथवा विचार राष्ट्रपति पर बाध्यकारी नहीं होते। ठीक इसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के लिए भी परामर्श देना अनिवार्य नहीं है।

सर्वोच्च न्यायालय अभिलेख न्यायालय भी है। सर्वोच्च न्यायालय के अभिलेखों को संविधान अथवा कानून की व्याख्या के रूप में जब निचली अदालतों में प्रस्तुत किया जाता है; तो उसे स्वीकार करना पड़ता है। उपरोक्त अधिकार क्षेत्रों के अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय के कुछ और विशेष कार्य हैं। ये हैं-

(i) संविधान का संरक्षण : संविधान के व्याख्याता के रूप में सर्वोच्च न्यायालय के पास संविधान की रक्षा और बचाव करने की शक्ति है। यदि न्यायालय को लगता है कि कोई कानून अथवा कार्यपालिका का आदेश संविधान के विरुद्ध है तो उसको असंवैधानिक अथवा अमान्य घोषित किया जा सकता है। इसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के संरक्षक तथा रक्षक की भूमिका भी निभाता है। यदि किसी नागरिक को लगता है कि उसके अधिकारों का
उल्लंघन किया जा रहा है तो वह अपने अधिकारों की रक्षा के लिए सीधे सर्वोच्च न्यायालय
जा सकता/सकती है। संवैधानिक उपचारों का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को संविधान
के संरक्षक के रूप में कार्य करने की शक्ति देता है।

(ii) न्यायायिक पुनरावलोकन : भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पास कानूनों तथा कार्यपालिका के आदेशों की वैधता का परीक्षण करने का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय के पास संविधान की व्याख्या करने की शक्ति है तथा इसी के माध्यम से इसने न्यायिक समीक्षा की शक्ति ग्रहण की है।

20.4.2 न्यायिक सक्रियता

न्यायिक सक्रियता को न्यायालय द्वारा संविधान की व्याख्या के रूप में परिभाषित किया गया है। प्रायः न्यायपालिका द्वारा विधायी शक्तियों को हथियाने की कोशिश के रूप में इसकी आलोचन की जाती है। लेकिन भारत में इसको लोगों का समर्थन प्राप्त है क्योंकि यह वंचित लोगों तक न्याय को पहुँचा देने पर केन्द्रित रहा है। यह जनहित याचिका का प्रयोग करता है। न केवल समस्या से प्रभावित व्यक्ति ही बल्कि, जनहित में कोई भी व्यक्ति न्यायालय के समक्ष किस भी समस्या के बारे में याचिका दाखिल कर सकता है। जनहित याचिका का प्रयोग प्रायः गरी और वंचित लोगों द्वारा किया जाता है जिनके पास न्यायालय तक पहुँचने के साधन नहीं हैं न्यायिक सक्रियता और जन हित याचिका के माध्यम से न्यायालयों ने प्रदूषण, समान नागरिक आचार संहिता, अनाधिकृत भवनों को खाली करवाने, खतरनाक व्यावसायों में बाल श्रम को रोकने तथा अन्य मुद्दों पर निर्णय दिए गये हैं।

आपने क्या सीखा

  • संघीय सरकार का ढाँचा और कार्यप्रणाली संसदीय प्रकार की सरकार के सिद्धान्तों और परम्पराओं पर आधारित है। राष्ट्रपति तथा प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में मन्त्रीपरिषद् कार्यपालिका है; संसद् के दोनों सदन विधायिका हैं तथा सर्वोच्च न्यायालय सबसे उच्च न्यायपालिका है।
  • संविधान कार्यपालिका सम्बन्धी सारी शक्तियाँ राष्ट्रपति को देता है जो राज्य का अध्यक्ष होता है। उसका निर्वाचन एक निर्वाचक मण्डल द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से होता है जिसमें संसद् के दोनों सदनों तथा राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य शामिल होते हैं। उसका कार्यकाल 5 वर्ष का होता है परन्तु उसको महाभियोग द्वारा इससे पूर्व भी हटाया जा सकता है। उसके पास कार्यपालिका सम्बन्धी, विधायी, न्यायिक और आपातकालीन शक्तियाँ होती हैं।
  • संघीय सरकार की कार्यपालिका का वास्तविक मुखिया प्रधानमन्त्री होता है। उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति करता है जो मन्त्रिपरिषद् के अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति भी प्रधानमन्त्री की सलाह से करता है। राष्ट्रपति अपनी शक्तियों का प्रयोग प्रधानमन्त्री की अध्यक्षता में मन्त्रिपरिषद् की सहायता और सलाह से करता है तथा उनकी सलाह बाध्यकारी होती है । मन्त्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोक सभा के प्रति उत्तरदायी होती है। इसका अर्थ है कि वे लोक सभा का विश्वास खो बैठते हैं तो प्रधानमन्त्री के त्याग-पत्र के साथ मन्त्रिपरिषद् अपदस्थ हो जाती है ।
  • संसद, जिसमें लोक सभा और राज्य सभा होती है, विधायिका होती है। लोकसभा का प्रत्यक्ष निर्वाचन नागरिकों द्वारा किया जाता है जबकि राज्य सभा का चुनाव अप्रत्यक्ष होता है। लोक सभा का कार्यकाल 5 वर्ष है जबकि राज्य सभा एक स्थायी सदन है जिसको भंग नहीं किया जाता। कानून और वार्षिक बजट पारित करने के साथ संसद सरकार की दैनिक कार्यप्रणाली को नियन्त्रित करती है। यह राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेती है।
  • सर्वोच्च न्यायालय भारत की एकीकृत न्यायपालिका के शीर्ष पर है। मुख्य न्यायधीश तथा अन्य न्यायधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। इसके अधिकार क्षेत्र में मूल, अपील सम्बन्धी तथा मन्त्रणा सम्बन्धी अधिकार क्षेत्र आते हैं। यह एक अभिलेख न्यायालय है। यह संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करता है। इसकी न्यायिक सक्रियता, विशेष रूप से जनहित याचिकाओं के माध्यम से, का प्रयोग उन गरीब और वंचित लोगों की ओर से किया गया जिनके पास न्यायपालिका तक पहुँचने के लिए साधन नहीं थे।

NIOS Class 10th सामाजिक विज्ञान (पुस्तक – 2) Notes in Hindi

You Can Join Our Social Account

YoutubeClick here
FacebookClick here
InstagramClick here
TwitterClick here
LinkedinClick here
TelegramClick here
WebsiteClick here