NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 8 भारत का राष्ट्रीय आंदोलन (National Movement of India) Notes in Hindi

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 8 भारत का राष्ट्रीय आंदोलन (National Movement of India)

TextbookNIOS
class10th
SubjectSocial Science
Chapter8th
Chapter Nameभारत का राष्ट्रीय आंदोलन (National Movement of India)
CategoryClass 10th NIOS Social Science (213)
MediumHindi
SourceLast Doubt

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 8 भारत में कितने राष्ट्रीय आंदोलन हुए हैं?, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत कब हुई?, राष्ट्रीय आंदोलन के जनक कौन है?, राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख नेता कौन थे?, नंबर 1 स्वतंत्रता सेनानी कौन है?, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन क्यों हुआ?, भारत को आजादी किसने मिली?, भारत का सबसे बड़ा सेनानी कौन है?, भारत की आजादी के लिए किसने लड़ाई लड़ी?, परमवीर चक्र कितने बार दिया जाता है?, भारत में कितने परमवीर चक्र विजेता है?, भारत में कुल कितने युद्ध हुए हैं?, अंग्रेज भारत में कब आए थे?, कौन सा देश आजादी नहीं चाहता था?, प्रथम परमवीर चक्र कौन है?, सबसे बड़ा चक्र कौन सा होता है?, देश का सबसे बड़ा वीरता पुरस्कार कौन सा है?, भारत का सबसे बड़ा सम्मान क्या है?, भारत का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान कौन सा है?, भारत में कितने बहादुरी पुरस्कार हैं?, बहादुर बच्चा कौन है?, राष्ट्रीय पुरस्कार कितने हैं?, भारत में 2023 में वीरता पुरस्कार किसे मिला?, 2000 के बाद कौन सा पुरस्कार नहीं दिया जाता है?, परम वीर चक्र किसे मिला?, प्रथम अशोक चक्र कब प्रदान किया गया था? इतियादी के बारे में पढ़ेंगे।

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 8 भारत का राष्ट्रीय आंदोलन (National Movement of India)

Chapter – 8

भारत का राष्ट्रीय आंदोलन

Notes

भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन

पिछले कुछ अध्यायों में आपने हमारी सभ्यता के इतिहास के बारे में पढ़ा। आपने प्रागैतिहासिक काल से प्रारंभ किया और इस अध्याय में भारत का स्वतंत्रता आंदोलन तक की यात्रा की। यह अवश्य ही बहुत मजेदार यात्रा रही होगी। आपने पढ़ा कि कैसे लोग जंगल में रहते थे, जानवरों को मारकर भोजन प्राप्त करने के लिए तथा अपनी रक्षा के लिए कठोर पत्थरों का प्रयोग करते थे। आपने ताम्र युग के बारे में भी पढ़ा होगा जब धातु की खोज की गई और उसका प्रयोग छोटे जंगलों को काटने में किया गया और कैसे इसके प्रयोग ने जीवन को आसान बना दिया। इसने हमें लौह युग और औद्योगीकरण की शुरूआत की ओर अग्रसर किया। आपने पढ़ा कि जैसे ही समाज का जन्म हुआ कुछ लोग अन्य लोगों के अपेक्षा ज्यादा शक्तिशाली हो गए। हमने यह भी पढ़ा कि कैसे धन और जमीन शक्तिशाली देशों के लिए लालच का स्रोत बन गये। हमने यह भी पढ़ा कि किस प्रकार इसने राज्यों और राष्ट्रों का विरोध किया जिसने प्राकृतिक एवं मानव संसाधनों का शोषण कर और उनके ऊपर निर्ममता पूर्वक शासन कर उसे नियंत्रित करने की कोशिश की। उनमें से एक राज्य हमारा देश भारत भी हुआ। हम इस अध्याय में भारत की स्वतंत्रता के लम्बे संघर्ष के बारे में पढेंगे।

उद्देश्य

  • भारत में राष्ट्रवाद के उत्थान के कारणों को पहचान सकेंगे।
  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उद्भव को चिन्हित कर सकेंगे।
  • भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के विभिन्न चरणों पर चर्चा कर सकेंगे।
  • राष्ट्रीय आन्दोलन में गाँधीजी की भूमिका पर चर्चा कर सकेंगे।
  • भारतीयों पर राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभाव को स्थापित कर सकेंगे।

राष्ट्रवाद का उद्भव

राष्ट्रवाद का उद्भव यूरोप के नवजागरण के उत्साह में प्रतिबिंबित हुआ, जब धार्मिक प्रतिबन्ध मुक्ति ने राष्ट्रीय अस्मिता को बढ़ावा दिया। राष्ट्रवाद की यह अभिव्यक्ति फ्रांसीसी क्रांति द्वारा इस राजनीतिक परिवर्तन के फलस्वरूप संप्रभुता राजा के हाथ से फ्रांसीसी नागरिक के हाथों में चली गई। राजा जिसके पास राष्ट्र का निर्माण करने और भाग्य तय करने की शक्ति थी। फ्रांसीसी क्राति का नारा “उदारता, समानता एवं भ्रातृत्व” ने सम्पूर्ण संसार को प्रेरणा दी। अन्य कई आन्दोलन जैसे अमेरिकी क्रांति रूसी क्रान्ति इत्यादि ने भी राष्ट्रवाद के विचार को शक्ति दी, जिसके बारे में आप पहले ही अध्याय 3 में पढ़ चुके हैं। यहां आप भारत में राष्ट्रवाद के उदय जो 1857 की क्रांति के बाद 19 शताब्दी में प्रकट हुआ था।

भारत में राष्ट्रवाद का उदय

भारत के लिए राष्ट्रीय पहचान का बनना एक लम्बी प्रक्रिया थी जिसका मूल प्राचीन युग से लिया जा सकता है। भारत में संपूर्णत: प्राचीन काल में अशोक और समुद्रगुप्त द्वारा तथा मध्य युग में अकबर से औरंगजेब तक के द्वारा शासन किया गया। लेकिन राष्ट्रीय अस्मिता और राष्ट्रीय जागरण केवल 19वीं शताब्दी में ही प्रकट हुआ। यह उदय उपनिवेश विरोध की आन्दोलन से गहरे रूप से जुड़ा था जो आप पिछले अध्याय में पढ़ चुके हैं। सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक तत्वों ने लोगों को राष्ट्रीय पहचान को परिभाषित करने और उसे प्राप्त करने में प्रेरणा दी। लोगों ने उपनिवेशवाद के विरूद्ध संघर्ष के क्रम में अपनी एकता को खोजना प्रारंभ कर दिया।

औपनिवेशिक शासन के अधीन सताये जाने के भाव ने एक सामूहिक बंधन प्रदान किया जिसमें विभिन्न समूह के लोग एक साथ आये। उनके अनुभव भिन्न थे और उनके राष्ट्र की आजादी हमेशा एक जैसी नहीं थी। साथ ही कई अन्य कारणों ने भी राष्ट्रवाद के उद्भव और विकास में योगदान दिया। कई क्षेत्रों में ब्रिटिश सरकार का एक कानून राजनीतिक और प्रशासनिक एकता की ओर ले गया। इसने नागरिकता और भारतीयों के लिए एक राष्ट्र की अवधारणा को बल प्रदान किया। आपने प्रसिद्ध विरोध आंदोलन पढ़ा था वह याद है? क्या आपको वह तरीका याद है जिससे किसानों व आदिवासियों ने विद्रोह किया था, जब उनकी जमीन और जीविका का अधिकार उनसे छीन लिया गया था। इसी प्रकार, अंग्रेजों द्वारा आर्थिक शोषण ने अन्य लोगों को एक होने एवं उनके जीवन और संसाधन पर ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण के विरूद्ध प्रतिक्रिया करने के लिए उकसाया। 19वीं सदी के सामाजिक व धार्मिक सुधार आन्दोलनों ने भी राष्ट्रवाद की भावना को उत्पन्न करने में भूमिका निभाई आपने स्वामी विवेकानन्द, एनीबेसेंट, हेनरी डेरोजियो एवं कई अन्य के बारे में पहले अवश्य पढ़ा होगा। उन्होंने प्राचीन भारत के गौरव को फिर से जगाया, लोगों में उनके धर्म और संस्कृति में विश्वास पैदा किया और इस प्रकार उन्हें उनकी मातृभूमि से प्रेम का संदेश दिया। राष्ट्रवाद के बौद्धिक और आध्यात्मिक पक्ष को बंकिम चंद्र चटर्जी, स्वामी दयानन्द सरस्वती और अरबिन्द घोस सरीखे लोगों द्वारा स्वर दिया गया। बंकिम का मातृभूमि के लिए श्लोक ‘वन्दे मातरम्’ राष्ट्रवादी देशभक्तों का वैचारिक स्वर बन गया।

इसने आने वाली पीढ़ियों को सबसे बड़े आत्म – बलिदान के लिए प्रेरित किया। यह इतना मजबूत स्वर था कि अंग्रेजों को इस पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। स्वामी विवेकानन्द का लोगों को संदेश “उठो, जागो और तब तक मत रूको जब तक कि लक्ष्य को प्राप्त न कर लो।” सभी भारतीयों से अनुरोध किया। इसने भारतीय राष्ट्रवाद के क्रम में एक महत्वपूर्ण ताक के रूप में काम किया।

इस समय के आसपास कई संगठन स्थापित हो रहे थे। जिन्होंनें ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपनी आवाज उठायी। इनमें से ज्यादातर संगठन क्षेत्रीय स्वरूप के थे। इनमें से कुछ संगठन काफी सक्रिय थे जैसे कि बंगाल इंडियन एसोसिएशन, बंगाल प्रेसिडेंसी एसोसिएशन, पुणे पब्लिक मीटिंग, आदि। यद्यपि यह अनुभव किया गया कि यदि ये सभी क्षेत्रीय संगठन सम्मिलित रूप से कार्य करेंगे तो भारतीय जनसमुदाय को ब्रिटिश शासन के खिलाफ अपनी आवाज उठाने में बहुत मदद मिलेगी। इसलिए वर्ष 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का निर्माण हुआ। इस अध्याय के अगले भाग में हम इसके बारे में चर्चा करेंगे।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का आविर्भाव (1885)

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में एलेन ऑक्टावियन ह्यूम द्वारा की गई। ह्यूम एक सेवानिवृत सिविल सेवा अधिकारी थे। उसने भारतीयों में राजनीतिक सजगता को बढ़ते देखा और वे इसे एक सुरक्षित संवैधानिक स्वरूप देना चाहते थे ताकि उनका असंतोष भारत में अंग्रेजी शासन के विरूद्ध सार्वजनिक क्रोध के रूप में विकसित न हो सके। इस योजना में उन्हें वायसराय लॉर्ड डफरिन एवं प्रसिद्ध भारतीयों के एक समूह की मदद मिली। कलकत्ता (कोलकाता) के वोमेश चन्द्र बनर्जी इसके पहले अध्यक्ष के रूप में चुने गए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस राजनैतिक रूप से सजग भारतीयों का उनकी बेहतरी के लिए काम करने के लिए राष्ट्रीय संगठन स्थापित करने के लिए काम करने के हेतु विचार रखते थे। इनके नेताओं का ब्रिटिश सरकार और इसके न्याय में पूरा विश्वास था। वे मानते थे कि यदि वे सरकार के सामने तर्क पूर्ण ढंग से शिकायत रखेंगे तो अंग्रेज निश्चित रूप से उनमें सुधार करेंगे। इन उदार नेताओं में सबसे प्रसिद्ध फिरोजशाह मेहता, गोपाल कृष्ण गोखले, दादा भाई नौरोजी, रास बिहारी बोस, बदरूद्दीन तयैबजी इत्यादि थे। 1885 से 1905 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का बहुत संकीर्ण सामाजिक आधार था। इसका प्रभाव शिक्षित शहरी भारतीयों तक ही सीमित था । इस संगठन का पहले ब्रिटिश सरकार से भारतीयों की ओर से संवाद करना और उनकी शिकायत को आवाज देने जैसे सीमित उद्देश्य थे। वास्तव में, इस युग को नरमपंथियों का युग कहा गया है। क्यों? इसका पता आप शीघ्र ही लगा पाएंगे।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का आरंभिक चरण

इसके प्रथम बीस वर्षो के दौरान कांग्रेस ने नरमी से अपनी मांगे रखी।
(क) – विधानसभा में प्रतिनिधित्व
(ख) – सेवाओं का भारतीयकरण
(ग) – सेना के खर्च में कमी
(घ) – कृषकों के बोझ में कमी
(ङ) – नागरिक अधिकारों की रक्षा
(च) – न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण
(छ) – काश्तकार नियम में बदलाव
(ज) – भूमि से आय एवं नमक कर में कमी
(झ) – भारतीय उद्योग एवं हस्तशिल्प के विकास में मदद हेतु नीति
(ज) – लोगों के लिए कल्याण कार्यक्रम लाने के लिए कहा।

कांग्रेस ने सरकार के सामने अपनी मांग हमेशा आवेदन के रूप में रखी और कानूनी नियमों में रहकर काम किया। यही कारण था कि कांगेस के पहले के नेताओं को नरमपंथी कहा गया। यह प्रयास भारत में अंग्रेजों की नीति एवं प्रशासन में कोई सुधार नहीं ला पाया। प्रारंभ में कांग्रेस के प्रति सहयोग अंग्रेजों की पूर्ण मानसिकता थी। लेकिन 1887 के बाद यह मानसिकता बदलने लगी। वे नरमपंथियों की मांग को पूरा नहीं करते थे। कांगेस की एक मात्र सफलता भारतीय परिषद् अधिनियम 1892 को लागू करना है जिसने कुछ गैर-कार्यालीय सदस्यों को शामिल कर विधान सभा का विस्तार किया और भारतीय सिविल सेवा परीक्षा को भारत और लन्दन में एक साथ आयोजित कराने का समाधान पास किया। धीरे- धीरे बहुत सारे नेता संवैधानिक प्रक्रिया में विश्वास खोने लगे । यहाँ तक कि कांग्रेस अपने लक्ष्य को पाने में असफल हो गयी। किन्तु राष्ट्रीय जागृति लाने एवं लोगों के मन में एक देश से सम्बद्ध होने का भाव लाने में सफल हुई। उसने भारतीयों को बड़े राष्ट्रीय मुद्दे पर बातचीत करने के लिए एक मंच प्रदान किया। सरकार की नीतियों की आलोचना करके इसने लोगों को राजनीति का बहुमूल्य प्रशिक्षण दिया। वे आक्रामक कदम बढ़ाने की स्तिथि में नहीं ये जो उनको सरकार से सीधे संघर्ष की स्थिति में ला देता। सबसे बड़ी सफलता एक राष्ट्रीय आन्दोलन की नींब रखने की थी।

अंग्रेज जो कि पहले नरमपंथियों की मदद करते थे, शीघ्र ही यह अनुभव करने लगे कि यह आन्दोलन एक राष्ट्रीय शक्ति के रूप में बदल सकता है जो उन्हें देश से बाहर कर देगी।

इससे उसकी मानसिकता पूरी तरह बदल गई। उन्होंने शिक्षा को नियंत्रित करने और प्रेस को कुचलने के लिए कड़े नियम पारित किए। कांग्रेसी नेताओं को शांत रखने के लिए कुछ छूट दी गई। ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड कर्जन भारत में राष्ट्रवाद को दबाने के लिए प्रयासरत था। कर्जन एक कट्टर साम्राज्यवादी था और अंग्रेजों के अन्य लोगों की तुलना में बेहतर होने में विश्वास रखता था। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लोगों को उत्तेजित करने का अपराध बनाकर उसने 1898 में एक नियम पारित किया। उसने भारतीय विश्वविद्यालयों पर कड़े नियम आरोपित कर 1904 में विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया जिन्हें आप अगले भाग में पढ़ेगे।

बंगाल का विभाजन (1905)

जो बंगाल में 1905 में हुआ उसे आप क्या सोचते हैं? कर्जन ने बंगाल के विभाजन की घोषणा की। विभाजन का कारण प्रशासन में सुधार की कोशिश दिया गया। लेकिन मुख्य लक्ष्य ‘फूट डालो और शासन करो’ का था। यह विभाजन मुसलमानों को एक अलग राज्य देने के लिए किया गया जिससे देश में साम्प्रदायिकता का बीज फैलाया जा सके। यद्यपि भारतीयों ने इसे अंग्रेजों द्वारा बंगाल में उभरते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन को नष्ट करने और इस क्षेत्र के हिन्दुओं और मुसलमानों को बांटने की कोशिश के रूप में देखा। आन्दोलन और गलियों में बड़े पैमाने पर फैल गया। हिन्दुओं और मुसलमानों ने दूसरे की कलाई पर राखी बाँध कर अपनी एकता और विरोध का प्रदर्शन किया। स्वदेशी गहरे गुस्से से भरा और जोशीला आन्दोलन था जो सबका मातृभूमि के प्रति अविर्भाव प्रेम का परिचायक था। आत्मविश्वास का यह नया राष्ट्रवादी जोश सम्पूर्ण भारतीय क्षितिज पर गिरफ्तारी, दर्दनाक यातना के साथ अंग्रेजों का दमनकारी शासन बनकर छा गया। उस समय बालगंगाधर तिलक ने एक शस्त्र के रूप में बहिष्कार के महत्व को स्वीकार किया जिसे भारत में सम्पूर्ण ब्रिटिश प्रशासनिक व्यवस्था को शिथिल करने में उपयोग किया जा सकता था। बहिष्कार और स्वदेशी आन्दोलन कपड़ा मिल, राष्ट्रीय बैंक, होजियरी, चमड़ा उद्योग, रासायनिक उद्योग और बीमा कम्पनी के स्थापना में सहायक सिद्ध हुआ । स्वदेशी भ ंडार खोले गए। स्वयंसेवी स्वदेशी सामानों को प्रत्येक घर के दरवाजे तक पहुँचाते थे। यह आन्दोलन लोगों के हरेक वर्ग और सभी समूह तक फैला। प्रत्येक व्यक्ति यहाँ तक कि महिलाएँ और बच्चे भी हिस्सा लेने को आगे आए। सबसे ज्यादा सक्रिय स्कूल और कॉलेज के छात्र थे। 1911 अंग्रेजों ने बंगाल का विभाजन वापस ले लिया और बंगाल पुनः एक हो गया। उस समय के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस खास कर गरम दल की भूमिका को सराया जाना चाहिए। उसने सभी वर्ग व सभी समुदाय के लोगों यहाँ तक कि किसानों कामगारों, छात्रों एवं महिलाओं को भी आन्दोलन में शामिल करने का प्रयत्न किया। वे सबके दुश्मन अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय लोगों को एक करने सफल रहे। युवा लोग देशभक्ति के उच्चतम स्तर तक भड़क गए थे और देश को आजाद करने का जोश था। उन्होने लोगों को आत्मविश्वासी व आत्मनिर्भर बनाने में मदद की। उन्होनें भारतीय कुटीर उद्योगों को भी पुर्नजीवित किया।

गरम दल का उदय

कांग्रेस में नरमपंथियों की विनम्र नीति ही अति वादी एवं उग्रसुधार राष्ट्रवादी आन्दोलन का प्रथम दौर एक ओर का ंग्रेस के विरूद्ध सरकार की प्रतिक्रिया और दूसरी ओर का ंग्रेस में 1907 में आये दरार के साथ ही खत्म हो गया । वह इसलिए कि 1905 से 1918 तक की अवधि को ‘अतिवादी उग्र राष्ट्रवादियों या गरम दल का युग’ कहा जा सकता है। लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक एवं विपिन चन्द्र पाल (लाल-बाल-पाल ) इस (गरम) उग्र पंथी दल के महत्वपूर्ण नेता थे। जब नरमपंथी इस कार्य में आगे थे तब उन्होंने निम्न रूप रेखा को बनाये रखा किन्तु अब ये अतिशीघ्र और पूरे जोश के साथ हरकत में आ गए। इनके प्रवेश ने एक नई प्रवृत्ति और भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में एक नये चेहरे को चिह्नित किया। उनके अनुसार नरमपंथी भारत का राजनीतिक लक्ष्य तय करने में असफल रहे उनके द्वारा अपनाया गया तरीका नरम और प्रभावहीन था। इसके अलावा वे उच्च, जमींदार वर्ग तक सीमित रहे और ब्रिटिशों से बातचीत के अंधकार के रूप में बड़े वर्ग के समर्थन में असफल रहे।

मुस्लिम लीग का गठन (1906)

जैसे-जैसे उग्र परिवर्तनवादी आन्दोलन शक्तिशाली हुए ब्रिटिश भारतीयों की एकता को तोड़ने का रास्ता तलाशने लगे। ऐसा उसने बंगाल के विभाजन द्वारा और भारतीयों के बीच साम्प्रदायिकता का बीज-बोकर कोशिश की। उन्होंने मुसिलमों को अपना खुद का एक स्थाई राजनीतिक संगठन बनाने को उकसाया। दिसम्बर, 1906 में ढाका में मोहम्डन एजुकेशनल कॉनफरेन्स के दौरान नवाब सलीम उल्लाह खान ने मुस्लिम हितों की देखभाल के लिए सेन्ट्रल मोहम्डन एसोसिएशन की स्थापना का विचार दिया । उसी के अनुसार 30 दिसम्बर 1906 ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना हुई । अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति जिसने मुस्लिम लीग का नेतृत्व किया वह आगा खान थे जो अध्यक्ष चुने गए। मुस्लिम लीग का मुख्य उद्देश्य मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा करना एवं उन्हें उन्नत करना तथा उनकी जरूरतों को सरकार के सामने रखना था। अलग निर्वाचन क्षेत्र के मुद्दे को बढ़ावा देकर सरकार ने भारतीयों में साम्प्रदायिकता व अलगाव के बीज बो दिए। मुस्लिम लीग के गठन को ब्रिटिश मुख्य रणनीति ‘बाँटों और शासन करो’ के प्रथम परिणाम के रूप में माना जाता है। बाद में मोहम्मद अली जिन्ना मुस्लिम लीग के सदस्य बने।

मॉर्ले-मिंटो सुधार (1909)

क्या आपको भारत विधान परिषद् अधिनियम 1892 याद है जिसने केन्द्रीय विधान सभा में सदस्यों की संख्या बढ़ाकर विधायिका का विस्तार कर दिया था। 1909 परिषद् अधिनियम; 1892 के सुधारों का एक विस्तार था जिसे राज्य सचिव (लार्ड मॉर्ले) एवं वायसराय (लॉर्ड मिंटो) के नाम पर मॉर्ले-मिंटो सुधार के नाम से जाना गया। उसने विधान सभा में सदस्य संख्या सोलह से बढ़ाकर साठ कर दिया। कुछ अनिर्वाचित सदस्यों को भी शामिल कर लिया गया। यद्यपि विधान परिषद सदस्यों की संख्या बढ़ गई किन्तु उसके पास वास्तव में शक्ति नहीं थी। वे किसी कानून को पारित होने से रोक नहीं सकते थे। न उनके पास बजट पर कोई शक्ति थी। वे मुख्यत: केवल सलाहकार की भूमिका में थे। अंग्रेजों द्वारा मुस्लिमों को अलग निर्वान क्षेत्र देना उसके ‘बाँटो और शासन करो’ का दूसरा प्रयास था। इसका अर्थ यह था कि मुस्लिम प्रभाव वाले निर्वाचन क्षेत्र में केवल मुस्लिम प्रत्याशी ही चुने जाएँगे। हिन्दू केवल हिन्दू को वोट देंगे और मुस्लिम केवल मुस्लिम को। यह भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिकता का बीज बोने का जान-बूझ कर किया गया काम था।बहुत नेताओं ने साम्प्रदायिक निर्वाचन क्षेत्र का विरोध किया।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान राष्ट्रीय आन्दोलन

प्रथम विश्व युद्ध वर्ष 1914 में प्रारंभ हुआ जिसके बारे में आप पिछले अध्याय में पढ़ चुके हैं। यह युद्ध यूरोप के देशों के बीच औपनिवेशिक एकाधिकार पाने के लिए लड़ा गया। युद्ध के समय ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं से अपील की, कि उनके संकट की घड़ी में उनका साथ दें। भारतीय नेता तैयार हो गए किन्तु इन्होंने अपनी एक शर्त रख दी। वह यह कि जब युद्ध समाप्त हो जाये तब ब्रिटिश सरकार भारतीय लोगों को संवैधानिक (विधायी और प्रशासनिक) शक्ति दे दे। दुर्भाग्यवश, प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार द्वारा उठाये गये कदम ने भारतीय लोगों में असंतोष पैदा कर दिया वह इसलिए कि ब्रिटिश सरकार ने युद्ध के दौरान एक बहुत बड़ा कर्ज ले रखा था जिसे उन्हें वापस करना था। उन्होने जमीन का किराया अर्थात् लगान बढ़ा दिए। उन्होंने ब्रिटिश फौज में भारतीयो की जबरदस्ती भर्ती की। उन्होंने आवश्यक वस्तुओं के दाम बढ़ा दिए और व्यक्तिगत एवं पेशे से प्राप्त आय पर कर लगा दिए। परिणामस्वरूप, उन्हें भारतीय समाज के विरोध का सामना करना पड़ा।

चम्पारण, बारदोली, खेड़ा और अहमदाबाद के किसानों एवं कामगारों ने ब्रिटिश सरकार की शोषणकारी नीतियों के खिलाफ डटकर विरोध किया। लाखों छात्रों ने स्कूल और कॉलेज छोड़ दिए, सैकड़ों वकीलों ने अपनी वकालत छोड़ दी। महिलाएँ ने भी इस आन्दोलन में विशेष रूप से योगदान दिया और उनकी भागीदारी गाँधीजी के आंदोलन के दौरान ज्यादा विस्तृत रही । विदेशी कपड़ों का बहिष्कार एक बड़ा आंदोलन बन गया, विदेशी कपड़ों के हजारों होलिका दहन भारतीय आक्रोश को आलोकित कर रही थी। पर बिना न्यायालय में मुकदमा चलाने गिरफ्तार करने और जेल भेजने का अधिकार देता था। इसने भारतीयों को किसी प्रकार के हथियार रखने पर भी प्रतिबंध लगा दिया। इससे सिख क्रुद्ध हो गए जो अपने धर्म के अनुसार अपने साथ कृपाण (एक प्रकार की छोटी तलवार) रखते थे। भारतीयों ने इस अधिनियम को अपना अपमान समझा। 13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी मेले के अवसर पर जालियाँवाला बाग (अमृतसर) में लोग इस अधिनियम के शान्तिपूर्ण विरोध के लिए एकत्र हुए। अचानक एक ब्रिटिश अधिकारी, जनरल डायर बाग में अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ आया और भीड़ पर अपनी मशीनगन से गोलियाँ चलाने का आदेश दे दिया। यह सब बिना लोगों को कोई चेतावनी दिए किया गया। जलियाँवाला बाग का दरवाजा बन्द था और लोग आदमी औरत और बच्चे सुरक्षा के लिए नहीं भाग सके। कुछ मिनट में ही लगभग एक हजार व्यक्ति मार दिए गए। इस नरसंहार ने भारतीय लोगों के उग्र क्रोध को भड़का दिया। रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अपना क्रोध और दर्द दिखाते हुए ब्रिटिश सरकार को नाइटहुड की उपाधि लौटा दी।

गाँधीजी का उदय

मोहनदास करमचन्द गाँधी एक ब्रिटेन से प्रशिक्षित वकील थे। वे 1893 में दक्षिण अफ्रीका गए और वहाँ इक्कीस वर्षों तक रहे। अंग्रेजों द्वारा दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार ने उनकी अंतरात्मा को झकझोड़ दिया। उसने दक्षिण अफ्रीकी सरकार के जातीय विभेद के खिलाफ लड़ने का निर्णय किया। सरकार से संघर्ष करने के दौरान उसने सत्याग्रह (सत्य और न्याय के लिए अहिंसक विरोध) की तकनीक विकसित की। गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका में इस संघर्ष में सफल रहे। वे 1915 में भारत लौटे। 1916 में उन्होंने सत्य के विचार एवं अहिंसा पर अभ्यास के लिए अहमदाबाद में साबरमती आश्रम की स्थापना की। गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें देश भ्रमण मुख्यत: गावों में लोगों और उनकी समस्याओं को समझने की सलाह दी। सत्याग्रह में उनका प्रथम प्रयोग बिहार के चम्पारण में 1917 में प्रारंभ हुआ यहाँ वे किसानों की समस्याओं को सुनने के लिए आमंत्रित किए गए थे। इस समझ के आधार पर उसने चम्पारण, खेड़ा और अहमदाबाद के स्थानीय हलचल का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया।

असहयोग आंदोलन (1920-22)

उस समय तक, गाँधीजी समझते थे कि सरकार को समर्थन देकर कोई उपयोगी काम नहीं हो सकता। बीती घटनाओं के प्रकाश में और ब्रितानी सरकार के कार्य के बाद, उन्होंने सरकार के सामने कुछ मांगें रखी। जैसे, सरकार को अमृतसर की घटनाओं पर पछतावा व्यक्त करना चाहिए, इसे तुर्की के प्रति उदार प्रवृति दर्शानी चाहिए और भारतीयों की संतुष्टि के लिए सुधार की नई योजनाएँ प्रारंभ करनी चाहिए। यदि सरकार उनके माँगों को स्वीकार में असफल हुई उन्होंने असहयोग आंदोलन प्रारंभ करने की धमकी दी। सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। इस प्रकार गाँधी ने अपना असहयोग आंदोलन अगस्त 1920 में प्रारंभ किया जिसमें उन्होंने लोगों से ब्रितानी सरकार का साथ न देने की अपील की। इसी समय, मुस्लिमों के द्वारा प्रारंभ खिलाफत आंदोलन और गाँधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन मिलकर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक मोर्चा बना। इसके लिए गाँधीजी ने एक विस्तृत कार्यक्रम तय किया।

(1) – पदवी तथा सम्मान लौटाना, कार्यालय तथा स्थानीय निकाय के पदों से त्यागपत्र।
(2) – कार्यालय और गैर कार्यालय के कार्यों में उपस्थित होने से इनकार।
(3) – सरकार के द्वारा संचालित विद्यालयों तथा कॉलेजों से धीरे-धीरे छात्रों को हटाना।
(4) – वकीलों के द्वारा ब्रिटिश न्यायालय का बहिष्कार आदि।
(5) – सैनिक, लिपिक तथा मजदुर वर्गों की सेवा की नियुक्ति का इनकार।
(6) – विधानसभा के चुनाव में प्रत्याशी तथा मतदाताओं का बहिष्कार।
(7) – विदेशी सामानों का।

दांडी मार्च

उसी समय सरकार ने एक नया कानून बनाया। उन्होंने नमक के उपयोग पर टैक्स लगा दिया जिसका लोगों ने विरोध किया क्योंकि नमक लोगों की मूलभूत आवश्यकता थी। लेकिन लोगों की माँग पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। मार्च- अप्रैल 1930 के समय गाँधी जी ने अपने साबरमती आश्रम से गुजरात के तट दांडी तक सरकार के नमक कानून को तोड़ने के उद्देश्य से यात्रा की। यह एक शांतिपूर्ण यात्रा थी। गाँधीजी ने 06 अप्रैल 1930 को नमक कानून को कुशलतापूर्वक तोड़ने के लिए मन बना लिया था। 06 अप्रैल 1930 को उन्होंने बिखड़े पड़े समुद्री नमक को उठाकर इस कानून को तोड़ा। इस आ ंदोलन में किसान व्यापारी तथा औरतों ने भी बड़ी संख्या में हिस्सा लिया। सरकार ने उन्हें मई 1930 में गिरफ्तार कर लिया तथा पूना के यरवदा जेल में रख दिया। इस यात्रा का पूरी बदलती दुनिया पर और अंग्रेजों की भारतीय प्रवृति पर बहुत महत्वपूर्ण असर हुआ। 1931 का गाँधी-इरविन समझौता।

क्रांतिकारी

अंग्रेजों की प्रतिक्रियात्मक नीति ने भारत के युवा पीढ़ी के लोगों के बीच एक गहरी घृणा पैदा की। यह पीढ़ी विश्वास करती थी कि एक संगठित आंदोलन के द्वारा भारत स्वतंत्रता पा सकता है। परिणामस्वरूप, उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियाँ प्रारंभ करने के लिए गुप्त समूह संगठित किया। अंग्रेजों के खिलाफ ताकत के लिए युवाओं को हिंसा के उग्र तरीकों से प्रशिक्षित किया गया। उन्होंने कम प्रसिद्धि वाले अंग्रेज अधिकारियों को मारने का प्रयास किया, अपने क्रियाकलापों में धन के लिए डकैती की और हथियारों को लूटा। उनमें से अधिकतर भारत की आजादी पाने के लिए हिंसा की मार्ग पर चले गए। उन्हें क्रा ंतिकारी कहा जाने लगा। पंजाब, महाराष्ट्र, बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उड़ीसा उनके क्रियाकलापों का केन्द्र था। इन क्रा ंतिकारियों में खुदीराम बोस, प्रफुल चाकी, भुपेन्द्र नाथ दत्त, वी. डी. सावरकर, सरदार अजीत सिंह, लाला हरदयाल और उसकी गदर पार्टी, सरदार भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद आदि प्रमुख थे। इन क्रांतिकारियों ने गुप्त संघ बनाया, संघ बनाया, कई ब्रिटिश कर्मचारियों को मारा गया, रेलवे यातायात बाधित किया और ब्रिटिश धन पर संगठित होकर आक्रमण करते रहे। 1925 में रामप्रसाद बिस्मिल असफ्फाक-उल्लाह खान तथा हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एशोसिएशन के सदस्यों ने हथियार के बल पर ब्रिटिश शासन को पलटने के लिए काकोरी षडयंत्र की योजना बनाई। 1928 में, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त और अन्य ने मिलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एशोसिएशन का निर्माण किया। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने पब्लिक सेफ्टि बिल तथा ट्रेड डिस्प्युट बिल के पास होने के विरोध में केन्द्रीय विधान सभा में 8 अप्रैल 1929 को विरोध करते हुए बम फेका तथा ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाते रहे, यद्यपि इस घटना क्रम में न कोई मारा गया न हीं कोई घायल हुआ। दूसरे केस के लिए उनपर बाद में मुकदमा चला और भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को 1931 में फाँसी दे दी गई। उनके बलिदान ने लोगों के लिए प्रेरणा का काम किया। उन्हें शहीद का दर्जा दिया गया और वे भारत की एकता और प्रेरणा के प्रतीक बने।

सामाजिक विचारों का विकास

बीसवीं सदी की महत्वपूर्ण बातें कांग्रेस में और इससे बाहर सामाजिक विचारों का उत्थान थी। अब किसान भूमि सुधार, जमींदारी प्रथा का अंत और राजस्व में कमी और कर्ज में छूट के लिए कहने लगे थे। अखिल भारतीय व्यापार संघ कांग्रेस जिसकी स्थापना 1920 में हुई थी मजदुरों के काम तथा रहन-सहन की व्यवस्था के विकास के लिए काम करता था। इसने पूर्ण स्वतंत्रता के लिए लोगों को प्रेरित किया जिसने आंदोलन को विस्तृत करने में मदद किया। कुछ महत्वपूर्ण सामाजिक और कम्युनिष्ठ नेता थे एम. एन. रॉय, एस. ए. डॉग, अंबनी मुखोपाध्याय नलिनी गुप्ता मुजाफ़र अहमद, शौकत उसमानी, गुलाम हुसैन सिंगारावल चेतैर, जी. एम. अधिकारी और पी. सी. जोशी। उन लोगों ने क्रांति की राह तय की, पृथक हड़ताल से उसका सामान्य राजनीतिक हड़ताल में रूपांतरण किसानों की अपने आप हड़ताल का विकास, पूर्ण स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन, पुलिस और सेना में क्रांतिकारी विचार फैलाना। साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई एक प्रमुख नारा था। 1936 में जब नेहरू कांगेस के अध्यक्ष थे तब उन्होंने लखनऊ अधिवेशण में घोषणा की कि भारत की समस्याओं का सामाजिक विचारों को अपनाने में निहित है। नेहरू कार्ल मार्क्स से काफी हद तक प्रभावित थे। सुभाष चन्द्र बोस भी सामाजिक विचारों से प्रभावित थे। गाँधीजी से मतभेद होने के कारण सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और अपने “फारवर्ड ब्लॉक” की स्थापना की।

सांप्रदायिक विभाजन

‘फूट डालो शासन करो नीति’ का प्रारंभ ईस्ट इंडिया कंपनी ने दिनों में किया था जब अंग्रेज अपने भारत के शासक के रूप में स्थापित कर रहे थे। आपने पढ़ा होगा कैसे कंपनी ने एक शासक को दूसरे के खिलाफ किया और अंत: वे स्वतंत्र शासक बन गये। आपने देखा कि अर्द्ध उन्नीसवी शताब्दी की समाप्ति के पश्चात् से ही राष्ट्रीयता उत्पन्न होने लगी थी। अब ब्रिटिश सरकार ने पाया कि फुट डालो और करो की नीति को बढ़ाकर हिन्दु और मुस्लिम के बीच द्वैष पैदा करना ही बुद्धिमानी है । अंग्रेजों को 1857 के विद्रोह से ही मुस्लिम अप्रिय और संदेहास्पद होने के कारण अच्छे नही लगते थे। लेकिन अब उन्हें लगा कि बढ़ते राष्ट्रवाद को रोकने के मुस्लिमों को खुश करने का समय आ गया है। सरकार ने उन सभी अवसरों पर अपने अधिकार कर लिया जिनसे भारतीय धर्म के अंधकार पर एक-दूसरे के समक्ष होते और उन लोगों के बीच उन्होंने शत्रुता उत्पन्न कर दी थी। अंततः इसी नीति के कारण मुसलमानों का अलग चुनाव क्षेत्र स्थापित हुआ। आपने मुस्लिम लीग के निर्माण के बारे में पढ़ा होगा जिसने सांप्रदायिकता के बीज बोए थे। आपको याद होगा कि ब्रिटिश अधिकारियों के बढ़ावे के कारण ही लीग की स्थापना हुई थी।

1932 का कम्युनल अवार्ड इसी नीति की एक पहल थी क्योंकि इसने ही समाज के कमजोर वर्गों के लिए सीटों का आरक्षण और अलग चुनाव क्षेत्र की अनुमति दी थी। अलग चुनाव क्षेत्र की पहली बार मांग 1906 में मुस्लिम लोग ने किया और 1907 के मार्ले-मिंटो सुधार में इसे लागु किया गया। इसे भारतीय राष्ट्रवाद के खिलाफ मुस्लिम सांप्रदायवाद को बढ़ाने को ध्यान में रखकर बनाया गया। मोंटफोर्ड सुधार (1919) के तहत उसे सिक्ख युरोपियन, ओग्ल-इंडियन, इंडियन – क्रिश्चन आदि तक बढ़ाया गया। 1935 वे अधिनियम के अधीन-सत्रह अलग चुनाव क्षेत्र बनाए गए। दो राष्ट्र सिद्धांत 1938 में आया और जिन्ना ने 1940 में खुलकर इसका समर्थन किया। जब पाकिस्तान की माँग की गई तो अंग्रेज हुकुमत ने सीध और परोक्ष रूप से इसको प्रोत्साहित किया। पाकिस्तान की माँग के प्रकट होने का तात्कालिक कारण 1937 के चुनाव के बाद कांग्रेस का मिली-जुली सरकार बनाने से इंकार था। देश अराजकता और बर्बाद होने के कगार पर था। इन घटनाओं के बीच, पूरी तरह कानून व्यवस्था को टूटने से बचाने तथा ब्रिटिश शासन से छुटकारा पाने का एकमात्र रास्ते के रूप में विभाजन को आवश्यक अभिशाप के रूप में स्वीकार किया गया।

स्वतंत्रता की प्राप्ति (1935-47)

मार्च 1933 में अंग्रेजी सरकार ने श्वेत पत्र तैयार किया। इस श्वेत पत्र के आधार पर एक बिल बनाया गया तथा उसे दिसंबर 1934 में संसद में प्रस्तुत किया गया। बिल अंततः 2 अगस्त 1935 को भारत सरकार अधिनियम 1935 के नाम से पारित हुआ। 1935 के अधिनियम की सबसे सुस्पष्ट विशेषता अखिल भारतीय परिसंघ का विचार था जो ब्रिटिश भारतीय प्रांत औरदेशी प्रांतों से बना था। प्रांतों को इस प्रस्तावित परिसंघ में शामिल होना अनिवार्य था। देशी रियासतों के लिए यह ऐच्छिक था। प्रांतों के सदस्यों को चुना जाना था जबकि रिसायतों के उम्मीदवारों को वहाँ का शासन मनोनीत करता था। ब्रिटिश भारत में जनसंख्या के 14% लोगों को ही वोट देने का अधिकार था। विधानसभा की शक्ति सीमित और प्रतिबंधित थी। रक्षा और विदेशी संबंधों पर कोई नियंत्रण नहीं था। अधिनियम अंग्रेजों के खुद के अधिकारों की रक्षा करता था। राष्ट्रीय एकता के उदभव को हतोत्साहित करता था, जबकि अलगाव और सांप्रदायिकता को बढ़ावा देता था। नेहरू, जिन्ना समेत सभी राष्ट्रवादियों ने इस अधिनियम की भर्त्सना की।

कांग्रेस का अधिवेशण 25 अप्रैल 1935 को लखनऊ में हुआ । यद्यपि अधिनियम की भर्त्सना की गई पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरोध के लिए, विभिन्न नियम कानून और अधिनियम जो भारतीय राष्ट्रवाद के खिलाफ प्रारंभ किये गये थे के अंत के लिए चुनाव लड़ने का निर्णय लिया गया।

1937 के चुनाव में कांगेस बहुमत में आई। ग्यारह प्रांतों में से सात प्रांतों में कांग्रेस सरकार बनी। 18 मार्च 1937 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने विधानसभा में कांगेस की नीतियों पर एक प्रस्ताव अपनाया। इसमें कहा गया कि कांग्रेस स्वतंत्रता और नए संविधान पूर्ण अस्वीकृति के उद्देश्य से चुनाव लड़ी थी और इसमें भारत का संविधान बनाने के लिए संविधान सभा की माँग की। कांग्रेस की नई घोषित नीति, नए अधिनियम और उसको खत्म करने की लड़ाई थी। कांग्रेस मंत्रिमंडल के आने का तात्कालिक प्रभाव राहत का अनुभव था। राजनीतिक बंदिओं को रिहा किया गया और बड़ी मात्रा में नागरिक स्वतंत्रता स्थापित की गई। किसान विधान पारित हुआ और इसने किसानों को काफी हद तक राहत दी। प्रत्येक बच्चों को अनिवार्य और निःशुल्क मौलिक शिक्षा की इच्छा व्यक्त की गई।

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान राष्ट्रीय आंदोलन

1939 में जब द्वितीय विश्व युद्ध शुरु हुआ, काँग्रेस का रवैया सहानुभूतिपूर्ण था। जबकि इसने बिना शर्त सहयोग देने से इंकार कर दिया। कांग्रेस ने मांग की कि भारत को एक स्वतंत्र संघ घोषित कर दिया जाये और अंग्रेज सहमत नहीं हुए परिणामस्वरूप, 1939 में सभी मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया। 1940 में सी. राजगोपालाचारी के अनुरोध पर केन्द्र में अस्थायी राष्ट्रीय सरकार की माँग की गई इसे वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो द्वारा अस्वीकार कर दिया गया। अक्टूबर, 1940 में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया गया। आचार्य विनोवा भावे व्यक्तिगत सत्याग्रह देने वाले थे।

एब्ली की अध्यक्षता में कैबिनेट की अखिल भारतीय समिति गठित की गई और घोषणापत्र का एक प्रारूप बनाया गया। मार्च 1942 में सर स्टेफोर्ड क्रिप्स घोषणापत्र लेकर भारत आए। इसमें युद्ध के बाद भारत को ‘प्रभुत्व राज्य का दर्जा देने की ब्रिटिश सरकार की इच्छा व्यक्त की गई थी । सम्पूर्ण स्वतंत्रता का वादा नहीं किया गया था। भारतीय लोगों की राष्ट्रीय सरकार की कोई चर्चा नहीं थी। कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। मुस्लिम लीग ने एक ही संघ बनाने का विरोध किया, इस प्रकार यह योजना अस्वीकार्य रही क्योंकि इसमें पाकिस्तान को स्पष्टतः नहीं माना गया। क्रिप्स मिशन सफल हो गया।

सुभाषचन्द्र बोस द्वारा विदेश से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष को चलाया गया। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध की शुरूआत को भारत की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों पर चोट करने का एक सुविधाजनक अवसर पाया। बोस को 1940 में उनके घर में ही कैद कर दिया गया लेकिन 28 मार्च 1941 को वे बर्लिन निकल भागने में सफल रहे। वहाँ भारतीय समुदाय में उन्हें ‘नेताजी’ के रूप में सम्मान दिया गया। उनका ‘जय हिन्द’ से स्वागत किया गया। उन्होंने एक भारतीय सेना की शुरुआत की कोशिश की और अपने देश के लोगों को ब्रिटिश के विरुद्ध हथियार उठाने को प्रेरित किया। 1942 में इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की गई और भारत को आजादी के लिए इंडियन नेशनल आर्मी के गठन का निर्णय लिया गया। रासबिहारों बोस के एक आमंत्रण पर 13 जून 1943 को सुभाष चन्द्र बोस पूर्वी एशिया आए। उन्हें इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का अध्यक्ष और आइ. एन. ए. जिन्हें आजाद हिन्द फौज कहा जाता है, के अध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने प्रसिद्ध युद्ध घोष ‘चलो दिल्ली’ दिया। उन्होंने भारतीयों से स्वतंत्रता का वादा यह कहते हुए किया कि ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा।’ मार्च 1944 में कोहिमा में भारतीय झंडा फहराया गया। दुर्भाग्यवश, आन्दोलन खत्म हो गया। अगस्त 1945 में एक हवाई दुर्घटना में सुभाष की मृत्यु की सूचना दी गई। लेकिन आई.एन.ए ने भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में एक सम्मानित स्थान पर अपना कार्य करता रहा। बोस एवं आई. एन. ए. की सेना की अति देशभक्ति ने भारतीय लोगों के लिए प्रेरणा का बहुत बड़ा स्रोत सिद्ध हुआ।

भारत छोड़ो आन्दोलन और उसके बाद

किप्स मिशन की असफलता ने भारतीयों को निराश व क्रोधित कर दिया। उस समय यह अनुभव किया गया कि ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध एक विशाल आन्दोलन शुरू करने का समय आ गया है। भारतीयों का असंतोष युद्ध समय की कमी एवं बेरोजगारी की वृद्धि के कारण बढ़ रहा था। जापान के आक्रमण का लगातार भय बना हुआ था। भारतीय नेताओं को विश्वास दिलाया गया कि भारत जापानी आक्रमण का दोषी होगा क्योंकि भारत में अंग्रेज मौजूद हैं। गाँधीजी ने कहा- “भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति जापान को भारत पर आक्रमण का निमंत्रण है।” सुभाष चन्द्र बोस जी 1941 में भारत से निकल भागे थे, वे बार- बार बार्लिन से रेडियो पर अंग्रेज विरोधी भावनाओं को उठाते हुए बोलते थे जिसने जापानी समर्थन की भावनाओं को बढ़ावा दिया।

गाँधी जी के अधीन कांग्रेस ने यह अनुभव किया कि अंग्रेजों को भारतीयों की मांगों को मानने के लिए मजबूर किया जाए या भारत छोड़ने को बाध्य किया जाना चाहिए। 14 जुलाई 1942 को वर्धा में कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक में भारत छोड़ो प्रस्ताव को पारित किया गया। जिसका देर से लिखित समर्थन मिला और 8 अगस्त को कांग्रेस ने अहिंसा के आधार पर विस्तृत पैमाने पर एक व्यापक संघर्ष प्रारम्भ करने का निर्णय लिया। 8 अगस्त की रात में कांग्रेस प्रतिनिधियों को सम्बोधित करते हुए गांधी जी ने अपनी आत्मा को झकझोड़ते हुए भाषण में कहा।

लेकिन इससे पहले कि कांग्रेसी नेता आंदोलन प्रारम्भ कर पाते, सभी महत्वपूर्ण कांग्रेसी नेताओं को 9 अगस्त 1942 से पूर्व ही गिरफ्तार कर लिया गया। कांग्रेस को प्रतिबंधित कर दिया गया और एक अवैध संगठन घोषित कर दिया गया। प्रेस पर पाबंदी लगा दी गई।

जनप्रिय नेताओं की गिरफ्तारी की खबर ने राष्ट्र को सदमे में डाल दिया। उनका क्रोध और असंतोष असंख्य विरोधों हड़तालों जुलूसों और विरोध प्रदर्शनों द्वारा देश के सभी भागों में व्यक्त हुआ। अधिकांश नेताओं के जेलों में होने से आन्दोलन ने विभिन्न जगहों पर विभिन्न रूप ले लिया। लोगों ने सरकारी भवन, पुलिस स्टेशन, पोस्ट ऑफिस और अन्य कोई भी चीज जो अंग्रेजों के अधिकार में आता था, को जलाकर अपने क्रोध को खुलकर व्यक्त किया। रेल और टेलिग्राफ की लाइनें तोड़ दी गई। कुछ स्थानों पर जैसे उत्तर प्रदेश के बलिया जिला में, पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिला में एवं बम्बई के सतारा में विद्रोह ने गम्भीर मोड़ ले लिया। गाँधीजी के मंत्र से प्रेरित होकर लोग अपना सर्वस्व त्याग करने को तैयार थे। अंग्रेज अपनी सेना और पुलिस के साथ भारतीय लोगों पर अत्याचार करने लगे। लोग बर्बरता पूर्वक मारे गए। भारत छोड़ो आन्दोलन । ऐतिहासिक महत्व के जन-आन्दोलनों में एक बन गया। इसने राष्ट्रीय भावनाओं की गहराई का प्रदर्शन किया और भारतीय लोगों ने बलिदान और लगनशील संघर्ष की क्षमता का संकेत दिया। इस दोलन के बाद पनाह की कोई जगह नहीं थी। भारत की आजादी से अब ज्यादा लाभ उठाने की बात नहीं थी। इसे अब सच में होना था।

1945 में विश्व-युद्ध के अन्त में ब्रिटिश सरकार भारतीयों और मुसलमानों से शक्ति हस्तांतरित करने के सम्बन्ध में बातचीत प्रारंभ कर दिया। प्रथम चक्र की बातचीत सफल नहीं हो सकी क्योंकि मुस्लिम नेता सोचते थे कि मुस्लिम ही एक मात्र वे लोग है जो भारतीय मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कर सकती है। कांग्रेस इस पर सहमत नहीं हुई। 1946 में कैविनेट मिशन भारतीय समस्या का परस्पर सहमति से समाधान ढूँढने के लिए भारत आया मिशन ने सभी प्रसिद्ध राजनीतिक दलों के नेताओं से बातचीत की और तब भारत में गणतंत्रात्मक सरकार की स्थापना की योजना का प्रस्ताव रखा। प्रारंभ में सभी दलों द्वारा योजना की आलोचना की गई किन्तु बाद में सभी ने इस पर अपनी स्वीकृति दे दी। अब संविधान सभा का चुनाव हुआ, कांग्रेस ने एक सौ निन्यानवे सीटों पर कब्जा कर लिया और मुस्लिम लीग को तिहत्तर सीट मिले।

भारत की आजादी और विभाजन

संविधान सभा की शक्ति को लेकर कांग्रेस मुस्लिम लीग में शीघ्र ही मतभेद उभर आये। अतः लीग ने 1946 के मध्य में केविनेट मिशन की योजना को अस्वीकार कर दिया। सितम्बर, 1946 में कांग्रेस ने केन्द्र में सरकार बनाई। लीग ने इसमें हिस्सा लेने से इनकार कर दिया। मुस्लिम लीग ने 16 अगस्त 1946 के दिन पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए ‘सीधी कार्यवाही दिवस’ मनाया। संघर्ष के परिणामस्वरूप भारत के विभिन्न हिस्से में बड़े पैमाने पर साम्प्रदायिक दंगे फैल गए। हजारों लोग दंगे में मारे गए, लाखों लोग बेघर हो गए। इसी बीच लॉर्ड माउण्टबेटेन को वायसराय बनाकर भारत भेजा गया। उसने अपनी योजना जून 1947 में रखी जिसमें भारत का विभाजन शामिल था। गाँधीजी के प्रबल विरोध के ‘बावजूद सभी दल विभाजन के लिए राजी हो गए और भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 अस्तित्व में आया। इसने भारतीय उपमहाद्वीप को दो भागों में कर बाँट दिया, वे थे भारतीय संघ और पाकिस्तान। भारत ने 15 अगस्त 1947 ने अपनी स्वतंत्रता पाई। ठीक आधी रात (14वाँ – 15वाँ अगस्त 1947) को शक्ति का हस्तांतरण हुआ।

आपने क्या सीखा

• नव जागरण, फ्रांसीसी क्रांति, अमेरिकी क्रांति, रूसी क्रांति ने राष्ट्रवाद वे विचार को आगे बढ़ाया।

• उपनिवेश विरोधी आन्दोलन 19वीं शताब्दी में राष्ट्रवाद के उदय का कारण बना। समकालीन सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आन्दोलनों ने भी राष्ट्रवाद की भावना पैदा करने में भूमिका निभाई।

• भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1885 में केवल ब्रिटिश सरकार से भारतीय जनता की ओर से बातचीत करने एवं उनकी शिकायतों को आवाज देने के लिए स्थापित किया गया।

• 1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल विभाजन की घोषण की। भारतीयों ने इस विभाजन को अंग्रेजों द्वारा बंगाल में उभरते राष्ट्रीय आंदोलन को नष्ट करने और क्षेत्र के हिन्दू एवं मुस्लिम को बाँटने के रूप में देखा।

• 1906 में ढाका में मुस्लिम लीग बना। इस का उद्देश्य भारत में मुस्लिमों के अधिकारों की रक्षा करना और उन्हें उन्नत बनाना तथा सरकार को उनकी आवश्यकताओं को बताना था।

• विचारों में अन्तर 1907 में कांग्रेस में विभाजन का कारण बना। दो समूह – नरम दल और गरम दल बने ।

• प्रथम विश्व-युद्ध में भारतीय नेता इस शर्त के साथ ब्रिटिश सरकार की मदद करने को सहमत थे कि युद्ध के बाद भारतीयों को संवैधानिक शक्ति सौंप दी जाएंगी।

NIOS Class 10th सामाजिक विज्ञान (पुस्तक – 1) Notes in Hindi

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