NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 2 मध्यकालीन विश्व (Medieval World) Notes in Hindi

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 2 मध्यकालीन विश्व (Medieval World)

TextbookNIOS
class10th
SubjectSocial Science
Chapter2nd
Chapter Nameमध्यकालीन विश्व (Medieval World)
CategoryClass 10th NIOS Social Science (213)
MediumHindi
SourceLast Doubt

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 2 मध्यकालीन विश्व (Medieval World) Notes in Hindi मध्य युग के 3 काल क्या हैं?, मध्यकाल की शुरुआत कब हुई?, मध्यकाल की शुरुआत कब हुई?, मध्यकाल की रचना किसने की?, मध्य काल का दूसरा नाम क्या है?, मध्यकाल का अर्थ क्या है?, भारत पर सबसे पहले शासन किसने किया?, मध्यकालीन भारत का पहला राजा कौन था?, मध्यकालीन इतिहास कब से कब तक है?, इतिहास की शुरुआत कब हुई?

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 2 मध्यकालीन विश्व (Medieval World)

Chapter – 2

मौलिक अधिकार तथा मौलिक कर्त्तव्य

Notes

मध्य युग में यूरोप

मध्यकाल को मध्ययुग भी कहते हैं। क्योंकि जैसा कि नाम से जाहिर है यह वह काल है जो प्राचीन काल के बाद और आधुनिक काल से पहले आता है। लेकिन क्या यह उन सदियों का उचित चित्रण है? क्या यह महज दो महान युगों के बीच फंसा एक ‘मध्य’ युग है जिसकी अपनी कोई विशेषता नहीं? सचमुच ऐसा नहीं है। मध्यकाल मानव समाज के क्रम विकास का एक महत्वपूर्ण चरण है जिसका अध्ययन उसकी अपनी विशेषताओं के लिए किया जाना चाहिए। सिर्फ यही बात नहीं है। मध्यकाल की उपलब्धियां और गौरव आधुनिक काल की दिशा में महत्वपूर्ण कदम भी है। एक मायने में ‘आधुनिकता’ की जड़ ‘मध्यकालीनता’ में है।

आपको यह बात दिलचस्प लगेगी कि ‘मध्य युग’ का शब्द यूरोपवासियों ने सत्रहवीं सदी में गढ़ा क्योंकि उन्होंने इसे प्राचीन यूनानी और रोमन क्लासिकी काल और अपने आधुनिक काल के बीच संकट के एक लंबे और अंधकार से युक्त काल के रूप में देखा। लेकिन मध्यकाल पूरी दुनिया के लिए अनिवार्यत कोई संकट या अंधकार से युक्त काल नहीं था।

इस्लामी जगत के लिए यह एक ऐसा काल था जब एक सभ्यता का जन्म हुआ और वहपरवान चढ़ और अपनी बुलंदियों पर पहुंचा। भारत में मध्यकाल मेलजोल और संश्लेषण का युग था। पुरानी और नई राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक व्यवस्थाएं आपस में घुली-मिलीं। घुलने-मिलने और संश्लेषण की इस प्रक्रिया से सहअस्तित्व और सहिष्णुता का एक अनूठा सांस्कृतिक रुझान उभरा जो मध्यकालीन भारत की पहचान बन गया। यूरोप में भी तस्वीर इतनी स्याह नहीं थी जितना कभी – कभी समझा जाता है। बेशक, वहां मध्यकाल की शुरुआत में भौतिक और सांस्कृतिक उपलब्धियां थोड़ी कम थीं। लेकिन बाद में यूरोपवासियों ने अपने जीवन स्तर में बहुत सुधार किया। उन्होंने ज्ञान-विज्ञान की नई संस्थाएं और चिन्तन कीं नई प्रणालियां विकसित की और वे साहित्य एवं कला में बहुत उन्नत स्तर पर पहुंचें दरअसल, उस समय जो नए विचार उभर कर आए उन्होंने न सिर्फ यूरोप को रूपांतरित किया, बल्कि बाद में शेष दुनिया को भी प्रभावित किया। आइए, मध्यकाल के नाम से जाने वाले इस महत्वपूर्ण काल में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में रोचक परिवर्तन हुए थे। 

रोमन साम्राज्य का पतन

हमने पिछले पाठ में रोमन साम्राज्य की ताकत और महानता के बारे में पढ़ा। इस बीच रोमन साम्राज्य पश्चिमी और पूर्वी क्षेत्रों में बंट चुका था। पश्चिमी प्रांतों की राजधानी रोम था। जबकि कुस्तुनतुनिया पूर्वी प्रांतों की राजधानी बना। रोमन सम्राट कांस्टेंटाइन ने 330 ई. में बेतिया के पुराने यूनानी शहर में पूर्वी क्षेत्रों की नई राजधानी स्थापित की थी। नई राजधानी उसके नाम पर कुस्तुनतुनिया के रूप में जानी गई। पश्चिमी हिस्से में साम्राज्य के पतन के करीब एक हजार साल बाद भी पूर्वी हिस्से में रोमन साम्राज्य टिका रहा। यह पूर्वी रोमन साम्राज्य या बैज तियां साम्राज्य के नाम से जाना गया। ऐसे समय में जब पश्चिमी यूरोप अपेक्षाकृत पिछड़ी स्थिति में था, यूनानी भाषी लोगों की पूर्वी सभ्यता आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में बहुत बुलंदी पर पहुंच गई थी। गॉथ, वंडल, विसीगोथ ओर फेक जैसे विभिन्न जर्मनिक कबीलों के हमलों के बाद पश्चिम में रोमन साम्राज्य ढह गया। 476 ई. में रोमन साम्राज्य का तख्तापलट कर इन हमलावरों ने अपने अलग-अलग उत्तरवर्ती (successor) राज्य स्थापित कर लिए।

क्या इन तमाम राजनीतिक उथल से जटिल परिवर्तन आए? क्या रोमनों ने जो राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्थाएं बनाई थीं, वे पूरी तरह से लुप्त हो गई? नए जर्मन शासक पुरानी व्यवस्थाओं की जगह अपनी व्यवस्थाएं नहीं लाए। दरअसल, रोमन और जर्मनिक समाज एक-दूसरे के संपर्क में आए और एक-दूसरे में घुलमिल गए। इसके और उस समय की राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों के कारण यूरोप एक नई किस्म के समाज का जन्म हुआ। इस समाज की संस्थाएं और व्यवस्थाएं रोमन और जर्मनिक दोनों से भिन्न थीं। इन नए समाज की सबसे महत्वपूर्ण संस्था सामंतवाद थीं। सामंतवाद ने सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक संगठनों को पूरी तरह बदल दिया।

सामंती अर्थव्यवस्था में परिवर्तन : खुशहाली और संकट

क्या समूचे मध्यकाल के दौरान यह प्रणाली जस की तस रही? नहीं, सामंती अर्थव्यवस्था में खुशहाली और संकट के रुझान रहे। आइए इन रुझानों को शुरू से देखें।

रोमन साम्राजय के पतन के बाद की कुछ सदियों के दौरान आर्थिक जीवन स्तर निम्न था। हम पहले से ही जानते हैं कि यह राजनीतिक परिवर्तनों और अशांति का दौर था। इस दौर की कुछ विशेषताओं में नगरीय जीवन, व्यापार और मुद्रा विनिमय में गिरावट शामिल हैं। रोमन काल के कुछ शहर टिके रहे। लेकिन वे महल खाली बोतलों की तरह थे। उनकी कोई वास्तविक आर्थिक भूमिका नहीं थी। सड़कें टूट-फूट गई थी। और वस्तु विनिमय प्रणाली ने मुद्रा की जगह ले ली थी। यूरोपीय अर्थव्यवस्था लगभग पूरी तरह कृषि पर और बेहद सीमित स्थानीय व्यापार पर आधारित थी। उस समय मुख्य आर्थिक इकाई आत्मनिर्भर जागीरें या सामंती मेनर थी। कृषि में इस्तेमाल होने वाली तकनीक पिछड़ी थी और उपज कम थी। ये हालात करीब दसवीं सदी ईस्वी तक बानी रही थी।

दसवीं सदी के दौरान उत्पादन की सामंती पद्धति में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए। 11वीं और 12वीं ईस्वी में यह व्यवस्था पूरे यूरोप में लगातार फलती-फूलती रही। जैसे-जैसे व्यवस्था स्थिरता पाती गई, कृषि उपज में इजाफा होता गया। कृषि तकनीक में सुधार एक अन्य कारक था। जिसकें कारण कृषि उत्पादकता में इजाफा हुआ। रोमन काल से इस्तेमाल में आने वाले हल्के हल ‘अरेट्रम’ की जगह एक नए हल लिया जो ‘चैरय’ कहलाता है। नयस हल भारी था। यह पहियों से युक्त था और उसे बैलों का एक दल खींचता था। इसने उत्तरी यूरोप की सख्त और चिपचिपी मिट्टी की बेहतर जुताई में मदद की। खेती दो भूखण्डों के तरीकों पर आधारित थी जिसमें जमीन के हिस्से पर खेती की जाती थी और दूसरा हिस्सा परती छोड़ दिया जाता था। बाद में इसके बजाय तीन भूखण्डों का तरीका अपनाया गया। इसके तहत एक तिहाई जमीन परती छोड़ दी जाती, एक तिहाई जमीन पर शरत फसल उपजाई जाती और बाकी पर बंसत फसल लगाई जाती। जमीन के सिर्फ तीसरे हिस्से को परती छोड़ देने से फसल बोई गई जमीन का क्षेत्र काफी बढ़ गया। नए हल, तीन भूखण्ड कृषि पद्धति और कृषि तकनीकों में अन्य नई खोजों के इस्तेमाल से उपज में कई गुना वृद्धि हुई।

कृषि में विस्तार के साथ ही दसवीं सदी से 12वीं सदी के बीच के दौर में व्यापार की बहाली हुई और नगरीय जीवन में वृद्धि हुई । स्थानीय हाट में अतिरिक्त अनाज और अंडों की खरीद-फरोख्त से लेकर शराब, और कपास जैसी वस्तुओं की भी दूरी के व्यापार का एक लंबा सिलसिला था। सड़कों के निर्माण से व्यापार में इजाफा हुआ। नदी और समुद्री रास्ते भी व्यापार के लिए इस्तेमाल किए जाते थे। व्यापार की बहाली से भुगतान भुगतान के नए तरीके जरूरी हो गए क्योंकि वस्तु विनिमय इसके लिए अपर्याप्त थे। नतीजतन लगभग चार सौ साल बाद मुद्रा अर्थव्यवस्था का दौर फिर लौटा । साथ ही शहरों का बड़ा तेज विकास हुआ। लंबी दूरी के व्यापार और अगल-बगल के ग्रामीण इलाकों में खेती से आई खुशहाली से उसे बड़ा बल मिला। जल्द ही शहर कुछ खास उद्यमों के लिए जाने जाने लगे। उदाहरण के लिए, वस्त्र निर्माण शहरों के सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्योगों में से एक बन गया था। दस्तकारों के संघ महत्व धारण करने लगे। व्यापारिक गतिविधियां और दस्तकारी आधारित उत्पादन दोनों शिल्पसंघों के ही ईद-गिर्द संगठित हुए। इससे मध्यकालीन शहरों का महत्व बढ़ता गया और अंततः ये ग्रामीण इलाकों में सामंती संबंधों को तोड़ने वाले महत्वपूर्ण कारक बने।

आर्थिक प्रगति का यह रुझान 12वीं सदी के अंत तक अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया तेरहवीं सदी तक सामंती व्यवस्था में उल्लेखनीय परिवर्तन देखे जा सकते थे जिसने प्रगति की प्रक्रिया उलट दी। आर्थिक प्रगति और खुशहाली के काल के चलते आबादी बढ़ी। इसका मतलब हुआ सामंतों के लिए श्रम की आपूर्ति में बढ़ोत्तरी । इसलिए सामंतों ने उन मेन को अब बनाए रखना जरूरी नहीं समझा। मेनर को अब डीमेन के एक बड़े हिस्से की छोटी-छोटी जोतों में बांट दिया गया और किसानों को भाड़े पर दे दिया गया। चूंकि ये जोते बहुत छोटी थीं, पहले डीमेन के विशाल भूखण्ड में इस्तेमाल होने वाली प्रौद्योगिकी का अब वहां उपयोग संभव नहीं था। साथ ही बड़ी संख्या में श्रमिकों के मौजूद होने के चलते श्रम- शक्ति बचाने वाली प्रौधोगिकी को इस्तेमाल करने वाले कुछेक ही थे। इसके साथ ही, चूंकि डीमेन खत्म हो चुके थे, किसानों से श्रम-सेवा वसूलने का तरीका भी खत्म हो गया। इसलिए सामंत अब श्रम-सेवा के बजाय मद्रा या जिस सामंती लगान की मांग करने लगें। मुद्रा-आधारित अर्थव्यवस्था शहरी केन्द्रों और व्यापार में वृद्धि ने इस विकास को बढ़ाया दिया। श्रम-सेवा में गिरावट और कृषि में प्रौद्योगिकी की गतिरुद्धता ने अन्य कारकों के साथ मिल कर कृषि उपज में जबर्दस्त गिरावट ला दी । अनाज की किल्लत और अकाल का सिलसिला शुरू हो गया। प्लेग की महामारी का प्रकोप टूट पडा। इन सब के कारण अर्थव्यवस्था में एक साथ गिरावट आई। लेकिन यूरोपीय समाज दसवीं सदी ईस्वी से पहले के संकट के मुकाबले इस संकट से आसानी से उबर गया। 1450 ई. के करीब अर्थव्यवस्था में बहाली का सिलसिला शुरू हो गया।

हमारें पास अब कुछ जानकारी हो गई है कि मध्यकालीन यूरोप में लोग किन स्थितियों में रहते थे। कई सदियों के एक कालखण्ड में उन स्थितियों में होने वाले परिवर्तनों को भी रेखांकित कर पाए हैं। भौगोलिक स्थिति में हुई इन परिवर्तनों ने मध्यकालीन यूरोप में समाज और संस्कृति को किस तरह प्रभावित किया। आइए हम इस पर विचार करें। दसवीं सदी से पहले के काल के आर्थिक जीवन के अपेक्षाकृत निम्न स्तर को देखते हुए हमें यह जानकर आश्चर्य नही होना चाहिए। कि यह ज्ञान-विज्ञान या कला के लिए अच्छा दौर नहीं था। इस दौरान शिक्षा कुछ चुनिंदा लोगों का ही विशेषाधिकार बनी रही। आम लोगो ं को कोई औपचारिक शिक्षा नहीं दी जाती थीं । कुलीनों के ज्यादातर सदस्य तक अशिक्षित थे। सिर्फ पूरोहित वर्ग के सदस्यों को थोड़ी शिक्षा मिलती थी। यह थोड़ी शिक्षा भी बड़ी संर्कीण प्रकृति की थी । यह ज्यादातर तोतारटंत पर आधारित थी और उसमें तर्क-वितर्क और विवके की गुंजाइश नहीं थी। सीखने की पूरी प्रक्रिया पर धर्म का आधिपत्य था। स्वाभाविक है कि ऐसी स्थितियों में विज्ञान में मुश्किल से कोई विकास हो सका। पुनरुत्थान के कुछ प्रयास हुए लेकिन उससे भी कोई वास्तविक बौद्धिक सृजनात्मकता नहीं आ पाई। बहरहाल, उसका एक फायदा यह हुआ कि पुरोहितों और मठाधीश जमात के सदस्यों को इतनी शिक्षा मिल गई कि वे रोमन साहित्य की कुछ महत्वपूर्ण कृतियों की नकल कर सकें और उसका संरक्षण कर सके इसने कम से कम शिक्षा-दीक्षा के उस दौर के आधार का काम किया जो 11 वीं और 12वीं सदी में शुरू हुआ।

साक्षरता के निम्न स्तर के कारण इस काल में साहित्य के क्षेत्र में कोई ज्यादा उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ। यही बात कला के क्षेत्र में भी रही। बहरहाल, इस दौरान पांडुलिपियों के चित्रण और अलंकरण की एक अनूठी शैली विकसित हुई। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस दौर में, अभिजात वर्ग के कुछ लोगों को छोड़कर, पूरे यूरोप में लोग भुखमरी की स्थिति में रह रहे थे। सांस्कृतिक उपलब्धियां कम और छुटपुट थीं। यूरोपीय सभ्यता पड़ोस बैजंटाइन सभ्यता और इस्लामी सभ्यता की तुलना से बेहद पिछड़ी थी। दरअसल दसवीं सदी के एक अरब भूगोलशास्त्री ने उन्हें ‘स्थूल प्रकृति, अप्रिय तौर-तरीके और निम्न बुद्धि वाले लोगों’ की संज्ञा दी थी।

दसवीं सदी के बाद से आए खुशहाली और अपेक्षाकृत शांति के दौर ने इस काल के सांस्कृतिक जीवन में परिवर्तन लाया। इस दौर मे प्राथमिक शिक्षा का प्रसार हुआ । विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई और उनका विस्तार हुआ। क्लासिकी ज्ञान और साथ ही इस्लामी सभ्यता से ज्ञान और दर्शन क्षेत्र में प्रगति हुई। यह बौद्धिक विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था जो आधुनिक काल में अपने उत्कर्ष पर पहुंचा। चर्च ने शिक्षा पर अपना एकाधिकार खो दिया । ज्ञान एवं विद्या

क्रमशः धर्मनिरपेक्ष होती गई। पहले ज्ञान और शिक्षा तर्क-वितर्क और विवके स पूरी तरह कटी थी, अब इस दौर से आलोचनात्मक अध्ययन का एक सिलसिला धीरे-धीरे शुरू हुआ। महिलाएं भी अब शिक्षा पाने लगी, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी।

मध्य काल में अरब सभ्यता

मध्यकाल में अरब में एक शानदार सभ्यता का उदय हुआ। इसके उदय का कारण वहां इस्लाम का जन्म होना था। इसने न सिर्फ पश्चिम एशिया बल्कि यूरोप, अफ्रीका और भारत समेत एशिया के दूसरे हिस्सों को प्रभावित किया। दरअसल, इस्लाम का जन्म इस काल की इतनी महत्वपूर्ण घटना है कि मध्यकालीन विश्व की दास्तान का जन्म इस काल की इतनी महत्वपूर्ण घटना है कि मध्यकालीन विश्व की दास्तान से इस्लाम की कहानी अलग नहीं की जा सकती। आइए, यहां इसके बारे में थोड़ा पढ़ें।

इस्लाम की दास्तान अरब से शुरू होनी चाहिए क्योंकि यही उसका जन्म हुआ हैं अरब रेगिस्तानों का एक प्रायद्वीप है। इस्लाम के उदय से पहले ज्यादातर अरब बहू जाति के थे, अर्थात ऊंट पर घूमने वाले चरवाहे थे । उनकी आजीविका का मुख्य स्त्रोत पशुपालन और नखलिस्तानों में उगने वाले खजूर थे। शिल्प उत्पादन काफी सीमित था, व्यापार भी धीमा ही था, और शहरीकरण बहुत ही कम।

छठी सदी के उत्तरार्द्ध में लंबी दूरी का व्यापार करने वाले कारवों के रास्तों में परिवर्तन के बाद अरब अर्थव्यवस्था में थोड़ी तेजी आई। अरब के दो पड़ोसी साम्राज्यों – रोमन साम्राज्य और फारसी साम्राज्य के बीच जंग छिड़ी थी। इन जंगों के कारण अरब अफ्रीका और एशिया बीच व्यापार के लिए आने-जाने वाले कारवों का सुरक्षित रास्ता बन गया। इससे कुछ महत्वपूर्ण शहरों के विकास को बढ़ावा मिला। उन्होंने उसका फायदा उठाया। उन ्होंने उसका फायदा उठाया। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण शहरों मक्का था। जो कुछ प्रमुख व्यापार मार्गों के संधिस्थल पर था। काबा के कारण मक्का को एक स्थानीय धार्मिक महत्व हासिल था और इसके कारण भी वह महत्वपूर्ण था। उस समय काबा अरब के विभिन्न कबीलों के लिए एक पूजनीय स्थल था। इस धर्मस्थल पर कुश कबीले का नियंत्रण था जो मक्का के आर्थिक जीवन में एक शक्तिशाली भूमिका निभाते थे। इस्लाम के संस्थापक हजरत मोहम्मद का जन्म करीब 570 ई. में कुरैश कबीले में हुआ। हजरत मोहम्मद के माता-पिता का निधन उनके बचपन में ही हो गया। उनकी परवरिश उनके चाचा ने की। बड़े होकर वह एक खुशहाल सौदागर बने। उन्होंने एक धनी विधवा खदीजा के लिए व्यापार किया। बाद में उन्होंने खदीजा से शादी कर ली। करीब 610 ई. में हजरत मौहम्मद एक धार्मिक अनुभूति से गुजरे जिसमें माना जाता है कि उन्होंने एक आवाज सुनी जो कह रही थी कि अल्लाह एक है और उसके सिवा कोई भगवान नहीं है। उस समय अरब अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते थे और अल्लाह को उनमें से एक, लेकिन उनसे थोड़ा उच्च और शक्तिशाली माना जाता था। हजरत मोहम्मद के अलौकिक अनुभव के कारण इस बहुईश्वरवाद या अनेक देवी-देवताओं पर आस्था की जगह एकेश्वरवाद ने ले ली। उसके बाद हजरत मोहम्मद को और भी आकाशीय संदेश आए जो उनके नए धर्म के आधार बने। नया धर्म इस्लाम के नाम से जाना गया और हजरत मोहम्मद उसके पेगंबर- माने गए। शुरू में वह कुरैश के ज्यादा लोगों को नए धर्म में शामिल कराने में सफल नहीं रहे। उनकी पत्नी समेत कुछ ही लोगों ने नया धर्म स्वीकार किया।

इसी बीच उत्तर में एक दूसरे शहर यसरिब के प्रतिनिधियों ने हजरत मोहम्मद को अपने यहां आने और वहां के विवाद सुलझाने का न्योता दिया। 622 ई. में हजरत मोहम्मद अपने अनुयाइयों के साथ यसरिब चले गए। इसे हिजरत कहते हैं । हिजरत के साल को इस्लामी कैलेंडर का पहला साल माना जाता है हजरत मोहम्मद ने इस शहर का नाम मदीना रखा और वह वहां के शासक बनने में सफल रहे। अब उन्होंने सचेत रूप से इस्लाम धर्म स्वीकार करने वालों को एक राजनीतिक और धार्मिक समुदाय में सगठित करना शुरू किया। मक्का में इस्लाम को फैलाने के लिए वह और उनके अनुयाइयों ने कुरैश के काफिलों पर हमला करना शुरू किया। हजरत मोहम्मद अंततः : 630 ई. में सफल रहे और कुरैश को परास्त कर मक्का में प्रवेश किया। कुरैश ने नया धर्म स्वीकार कर लिया और इसके बाद से काबा इस्लाम का मुख्य धर्मस्थल बना । मक्का विजय के बाद समूचे अरब के विभिन्न कबीलों ने भी इस्लाम कबूल कर लिया।

इस्लाम की शिक्षाएं सीधी-सादी हैं। ‘इस्लाम’ शब्द का अर्थ है धर्म की अधीनता और पालन, अर्थात ईश्वर के समक्ष संपूर्ण समर्पण। इसके अनुयाई मुस्लिम या मुसलमान कहलाए। इस्लाम के अनुसार ईश्वर एक है। मुसलमान हजरत मोहम्मद को आखिरी और महानतम पैगंबर मानते

हैं। वे यहूदियों और ईसाईयों के पैगंबरों को भी मान्यता देते हैं। मुसलमान मानते हैं कि कयामत या महाप्रलय आएगा और नेक तथा अच्छे लोगों को जन्नत में शाश्वत जीवन मिलेगा जबकि दुष्ट और पापी लोगों को जहन्नुम का आग में हमेशा के लिए झुलसना होगा। नेक जीवन बिताने के लिए कुरान की हिदायत पर अमल करना होगा जो मुसलमानों का पवित्र ग्रंथ है। कुरान को उन संदेशों का संकलन माना जाता है जो हज़रत मोहम्मद को ईश्वर से मिले थे। इन कदमों में सदाचार और दया करुणा का जीवन बिताना, निश्चित समय पर नमाज और रोजा जैसे धार्मिक अनुष्ठान करना, हज (मक्का की तीर्थ यात्रा) करना और कुरान का पाठ करना शामिल है। कुरान के अतिरिक्त मुसलमानों को सुन्नत या हजरत मोहम्मद के वचनों और आदर्शो और हदीस या पैगंबर की शिक्षाओं पर अमल करना होता है। इस्लाम में अल्लाह के बचनों और आदर्शो और हदीस या पैगंबर की शिक्षाओं पर अमल करना होता है। इस्लाम में अल्लाह और इंसान के बीच कोई मध्यस्थ नहीं है। वहां पुरोहि नहीं है। बस धार्मिक विद्वान या आलिम है जो धर्म और धार्मिक कानूनों पर टिप्पणी कर सकते हैं। इस्लाम तमाम लोगों की बराबरी की शिक्षा देता है । उसूलों के मामले में यहूदी और ईसाई धर्म के साथ इस्लाम की बड़ी समानता है।

अब हमारे पास इसकी हल्की-फुल्की समझ बन गई है कि हजरत मोहम्मद ने इस्लाम धर्म की स्थापना कैसे की और उसकी प्रमुख विशेषताएं क्या क्या हैं। लेकिन अरब के दूर-दराज इलाके में शुरू हुआ यह सीधा-सादा धर्म कैसे एक विश्वव्यापी परिघटना बन गया।

इस्लाम का प्रसार

हजरत मोहम्मद के निधन के बाद उनके राजनीतिक उत्तराधिकार के बारे में अरबों में कोई स्पष्ट समझ नहीं थी। वास्तव में इस नवजात धार्मिक समुदाय के विखंडन का खतरा पैदा हो गया था। लेकिन हजरत मोहम्मद के कुछ निकटतम अनुयाइयों ने उनके ससुर अबु बक्र को उनका खलीफा या उत्तराधिकारी चुन कर उसे इस खतरे से उबार लिया। उसके बाद से एक लंबे काल तक खलीफा को तमाम मुसलमानों का सर्वोच्च धार्मिक और राजनीतिक नेता माना जाता रहा। खलीफा बनने के तुरंत बाद अबु बक ने उन तमाम अरब कबीलों के खिलाफ सैनिक अभियान शुरू किया जिन्होंने हजरत मोहम्मद के निधन के बाद उनके उत्तराधिकारी का प्राधिकार माने से इनकार कर दिया था। यह सैनिक अभियान बेहद सफल रहा। इसे इसके बाद उत्तर की दिशा में अरब की सीमाओं को आगे बढ़ाया गया। आश्चर्य की बात है कि उन्हें इन सैनिक अभियानों में बैजतिया और फारस जैसे शक्तिशाली साम्राज्यों की ओर से बेहद कम प्रतिरोध का सामना करना पड़ा।

अबु बक्र के निधन के बाद उमर खलीफा बने । उमर ने पड़ोस के साम्राज्यों पर हमला करने का सिलसिला जारी रखा। अरब सेना को लगातार सफलता मिलती गई। जल्द ही अरबों ने पूरे सीरिया पर और एंतियोक, दमिश्क तथा यरुशलम के प्रमुख शहरों पर कब्जा कर लिया। उन्होंने फारस की सेना की परास्त कर दिया। 651 ई. तक समूचे फारस पर अरबों का कब्जा हो चुका था । अरब बैजतिया साम्राज्य से मिसर छीनने में कामयाब रहे। इसके बाद वे पश्चिम में उत्तरी अफ्रीका को ओर बढ़े यहां से वे 711 ई. में स्पेन में घुसे उन्होंने लगभग समूचे स्पेन को जीत लिया। इस तरह एक सदी से कम समय में इस्लाम ने प्राचीन फारस को पूरा और पुराने रोमन जगत का ज्यादातर हिस्सा जीत लिया। इतिहासकारों ने अक्सर अरबों की इस जीत के पीछे के कारणों पर आश्चर्य जताया है। कुछ मानते हैं कि मजहबी जोश और इस्लाम के प्रसार की धुन थी जिसने अरबों को प्रेरित किया। लेकिन अब अधिकाधिक इतिहासकारों की दलील है कि जहां धर्म ने अरबों का एकताबद्ध रखने में भूमिका निभाई, वहीं जिस चीज ने उन्हें रेगिस्तान से निकलकर बारे जाने के लिए वास्तव में प्रेरित किया वह वास्तव में समृद्ध क्षेत्र और माल-ए-गनीमत (यानि युद्धों में लूटी गई दौलत था। बैजतिया और फारस जैसे उनके दुश्मनों की कमजोरी ने भी अरबो की मदद की।

उमर के बाद उस्मान खलीफा बने, लेकिन उस्मान मजबूत नेता नहीं थे। उनके अनेक विरोधी भी थे। उनकी हत्या कर दी गई और पैगंबर के चचेरे भाई एवं अली को खलीफा बनाया गया। लेकिन जल्द ही अली की हत्या कर दी गई और उस्मान के समर्थक प्रभुत्वशाली पक्ष बनकर उभरे। उसके बाद से मुसलमानें में दरार हैं अली के अनुयायियों ने एक अलग पंथ बना लिया और शिया कहलाये । बाकी मुसलमान सुन्नी कहलाए। अली की मृत्यु के बाद उमैया परिवार के एक सदस्य ने खिलाफत संभाली उस्मान इसी परिवार के थे। उमैया वंश 950 ई. तक शासन करता रहा। बै ंतिया साम्राज्य की राजधानी पर जबरदस्त हमले में असफलता के बाद उनकी ताकत कमजोर पड़ गई। उमैया वंश के पतन के बाद अब्बासियों ने सत्ता संभाली। जहां उमैया ने अपनी ताकत सीरिया में केद्रित की, अब्बासियों ने अपनी राजधानी बदलकर फारसी राजधानी के पास इराक में बगदाद को बनाया। फारसी क्षेत्र में राजधानी के स्थानान्तरण के साथ ही अब्बासी शासन में फारसी तत्वों प्रमुखता मिली। इस शासन के दौरान शुरुआती इस्लाम के समता और भाईचारे के उसूलों की समाप्ति हो गई। उसकी जगह निरंकुश राजशाही ने ले ली। उनके भव्य दरबार में बड़ा तामझाम था। दरबार की यह शानशौकत और कायदे-कानून फारस की परंपराओं से उधार लिए गए थे। अब्बासी शिक्षा और साहित्य के बड़े संरक्षक थे। 10वीं सदी में अब्बासी सत्ता कमजोर पड़ने लगी। इसके बाद विकेन्द्रीकरण एक विस्तृत दौर रहा। म ंगोलो ने 1258 में बगदाद को नष्ट कर दिया। अराजकता का यह दौर तब तक जारी रहा जब तक सल्जूक तुर्को ने बगदाद पर कब्जा नहीं कर लिया। इसने मुस्लिम साम्राज्य पर अरब शासन समाप्त कर दिया। बाद की सदियों में इस्लामी जगत पर तुर्कों का दबदबा रहा।

हमने इस्लामी साम्राज्य के विकास क्रम को रेखांकित किया है कि कैसे यह कुछ एक लोगों की आस्था से विकसित होते हुए एक विशाल साम्राज्य की स्थापना तक पहुंचा। कैसे इस विकास ने लोगों के समाजिक व सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया।

राजनीतिक क्रम

महमूद के हमलों के बाद तुर्क आए। तेरहवीं सदी तक तुर्की ने उत्तर भारत के ज्यादातर हिस्सों पर अपना शासन कायम कर लिया था। वे सुल्तान नाम से जाने जाते थे। उनका साम्राज्य दिल्ली सल्तनत कहलाया। खिलजी और तुगलक जैसे ताकतवर राजवंश एक-एक कर आए। उनमें से ज्यादातर शासकों को मंगोलों के हमलों का सामना करना पड़ा उन्होंने इस स्थिति से निबटने के लिए विभिन्न कदम उठाए। इस बीच दक्षिण में विजयनगर और बहमनी के दो शक्तिशाली राज्य राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए लगातार एक-दूसरे से होड़ कर रहे थे।

सोलहवीं सदी की शुरूआत में मुगलों के आगमन ने भारतीय इतिहास में एक नए युग की शुरूआत की। राजनीतिक स्तर पर इतने बड़े पैमाने पर एक अखिल भारतीय साम्राज्य का सुदृढ़ीकरण हुआ जो इससे पहले एक लंबे अरसे से नहीं देखा गया था। राजनीतिक एकीकरण और एक लंबे अरसे तक शांति तथा स्थिरता से आर्थिक प्रगति और खुशहाली आई। सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर सामाजिक जीवन में, धार्मिक क्रिया-कलापों और आस्थाओं में और परस्पर सहिष्णुता तथा सौहार्दपूर्ण सहअस्तित्व पर आधारित कला की विभिन्न विधाओं में यह संश्लेषण का दौर था।

दिल्ली सल्तनत और मुगल साम्राज्य जैसे केन्द्रीकृत साम्राज्यों के समानांतर अनेक छोटे- छोटे क्षेत्रीय और प्रांतीय स्वतंत्र शासक वंश भी रहे। इनमें बंगाल का इल्यास शाही और हुसैन शाही वंश, असम के अहोम, उड़ीसा के गजपति वंश, राजस्थान के मेवाड़ और मारवाड़ वंश और जौनपुर के शर्की वश शामिल हैं। इन स्वतंत्र वंशों के शासनकाल में क्षेत्रीय एवं उपक्षेत्रीय अस्मिताओं के साथ यहां की भाषा, साहित्य और संस्कृति का विकास हुआ।

राजनीतिक संस्थाएं

तुर्कों और मुगलों के आगमन से संप्रभुता और शासन के नए विचार आए। सर्वप्रथम राजव्यवस्था की इस्लामी परिकल्पना में राजशाही के लिए स्पष्ट रूप से कोई वैधानिक स्थान नहीं है क्योंकि इस्लामी राजव्यवस्था बराबरी पर आधारित है। लेकिन उमैया और अब्बासी खिलाफत (इनके बारे में हम पिछले खंडों में पढ़ चुके हैं) और पश्चिम एशिया में सत्ता का बंटवारा सुलतान और ताकतवर तुर्क सरदारों या कुलानों के बीच होता था । लेकिन बल्बन के शासनकाल में सुल्तान का रुतबा इतना ऊंचा हुआ कि वह राज्य और शासन के तमाम मामलों में निरंकुश अधिकारी बन गया। तुर्क कुलीनों की ताकत में खासी कमी की गई। मुगलों ने राजा की ताकत और रुतबे को अभूतपूर्व बुलंदियों पर पहुंचा दिया।

दिल्ली के सुलतानों और मुगलों ने प्रशासनिक व्यवस्था में कुछ नई चीजे जोड़ी दिल्ली सलतनत में सैनिक कमांडरों को ‘इकता’ दिया जाता था । इकता क्षेत्रीय इकाई है। लेकिन इकता धारकों को जमीन का मालिकाना हक नहीं सौंपा जाता था। अपने क्षेत्र के राजस्व पर उनका नियंत्रण था। यह राजस्व इकतेदार की अपनी जरूरत और उसके सैनिकों की जरूरतें पूरी करने के लिए था। उससे अपेक्षा की जाती थी कि सुलतान जब भी आदेश करेगा, वह अपने सैनिकों से उसे सैन्य सहायता देगा। बहरहाल, पहले से मौजूद जमीन के नियंत्रण का ढ़ाचा और गांव के पदानुक्रम में कुल मिलाकर कोई फर्क नहीं पड़ा।

मुगलों की प्रणाली ज्यादा व्यापक थी। राजस्व और भूमि लगान पर उनका नियंत्रण ज्यादा गहरा था जो गांव के स्तर तक जाता था। मुगलों ने मनसबदार बहाल किए जो सैन्य और नागरिक जिम्मेदारियां निभाता था। मनसब वास्तव में ओहदा या रुतबा होता था जो अधिकारी की योग्यता और उसके अधीन सैनिकों की संख्या के आधार पर तय होता था। यह इकता से मिलता-जुलता था। सिवा इसके कि इकता में प्रशासनिक जिम्मेदारी भी सम्मिलित होती थी लेकिन जागीर में नहीं। मुगलशाही व्यवस्था मनसबदारी और जागीरदारी प्रणाली के निर्बाध कामकाज पर आधारित थी।

अर्थव्यवस्था

दिल्ली सल्तनत और साथ ही मुगल साम्राज्य किसानों के कृषिगत उत्पादन के अधिशेष था जिसकी वसूली राजस्व के रूप में की जाती थी। मुगल साम्राज्य में, खासकर अकबर के शासनकाल में राजस्त वसूली की पद्धति में दूरगामी परिवर्तन किए गए। अब राज्य और किसान या जागीरदारों जैसे भूस्वामी वर्ग के साथ कोई मनमाना संबंध नहीं रहा। जमीन की अब पैमाइश की गई और उसके रकबे के मुताबिक भू-राजस्व निर्धारित किया गया। जमीन की उर्वरता का भी हिसाब रखा गया। उसके बाद बाजार की तत्कालीन कीमत के आधार पर उत्पादन में राज्य के हिस्से का नकद-मूल्य का गया। इसी अनुरूप नकद के रूप में राजस्व तय किया गया। यह कृषि के वाणिज्यकरण का दौर था और राज्य नकदी फसल को बढ़ावा देता था। राज्य ने उन इलाकों में भी खेती को बढ़ावा दिया जहां उस वक्त तक खेती नहीं होती थी या जहां जंगल थे। उसने उद्यमी किसानों को प्रोत्साहन दिए। राज्य ने फसल नष्ट होने पर कर्ज दिए और राजस्व वसूली में राहत दी।

गुप्त वंश के बाद व्यापार और वाणिज्य में बहुत गिरावट आई थी। इसमें भी सुधार हुआ। एक लंबे समय तक गिरावट सहने के बाद शहरी केन्द्र फले- फुले | इस नए शहरीकरण के कारण तेरहवीं और चौदहवीं सदी में व्यापार में इजाफा हुआ। इन शहरी केन्द्रों को जोड़ने सड़कों का एक बड़ा जाल अस्तित्व में आया। इसने व्यापार में मदद की। दिल्ली, आगरा, लाहौर, अहमदाबाद, सूरत और कैबे जैसे शहरों का महत्व बढ़ा पंजाब से पश्चिम और मध्य एशिया के बाजारों में माल भेजे जाते थे। मुगलों ने जो राजनीतिक स्थिरता और अपेक्षाकृत शांति का वातावरण कायम किया था, उससे साम्राज्य के किन्हीं दो शहरों के बीच का स्तर ऊंचा था और उसमें ईमानदारी बरती जाती थी। सेठ, बोहरा और मोदी लंबी दूरी का व्यापार करते थे जो खासकर खाद्य पदार्थों का व्यापार करते थे। सरार्फ या श्राफ मुद्रा बदलने वाले थे और हुंडियां जारी करते थे। हुंड़ी एक साख पत्र थी जिसकी अदायगी बाद में एक तय जगह पर की जा सकती थी। इसने देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक मालों को लाने-ले जाने में मदद की क्योंकि इसने दूर के इलाकों में मुद्रा का संचलन आसान बना दिया।

सांस्कृतिक और धार्मिक ज़ीवन

धर्म और संस्कृति के क्षेत्र में मध्यकाल में परंपराएं आपस में बहुत घुली मिलीं। धर्म के क्षेत्र में भक्ति और सूफी आ ंदोलन इसकी मिसालें हैं भक्ति आ ंदोलन ने व्यक्तिगत उपासना और भक्ति से भगवान के साथ आत्मसात होने पर जोर दिया। यह आम लोगों की राजमर्रा जिंदगी से जुड़ा। इसने कर्मकाण्डों और बलि की जगह शुद्धता और भक्ति पर जोर दिया। इसने जाति व्यवस्था और ब्राह्मणों के एकाधिकार पर सवालिया निशान लगाए। रामानंद, कबीर, रविदास, मीराबाई, गुरु नानक, तुकाराम, और चैतन्य जैसे भक्ति आंदोलन के संतों ने जनमानस पर गहरा प्रभाव डाला जो आज भी जारी है। इनमें से कई सन्त ऐसे थे जिनके बड़ी संख्या में भक्त बने। उदाहरण के तौर पर गुरु नानक का पंजाब के लोगों पर गहरा असर पड़ा। उनके भक्तों का एक अलग पंथ बन गया जो सिक्ख धर्म कहलाया और इस पंथ को मानने वाले लोगों को सिक्ख कहा जाने लगा। इसी तरह सूफियों ने भी अकीदत और प्यार पर जोर दिया। उन्होंने सहिष्णुता और करुणा पर जोर दिया। सूफी, खासकर चिश्ती सिलसिले के सूफी राज-पाट, पार्थिव और भौतिक चीजों से अलग-थलग रहा।

उन्होंने बेहद सादी जिंदगी बिताई और आमजन के दुखों और चिंताओं में भागीदारी निभाई। नतीजतन आम लोगों, हिन्दू-मूसलमान दोनो ं पर उनका जबर्दस्त प्रभाव था। सूफी और भक्ति आंदोलन के बीच बहुत संपर्क रहा। दोनों ने दार्शनिक विचारों का खूब आदान-प्रदान किया। वास्तव में दोनों परंपराओं ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सेतु का काम किया।

भाषा, साहित्य, कला, वास्तुकला, संगीत और नृत्य पर भी विभिन्न परंपराओं के संश्लेषण की इस प्रक्रिया का प्रभाव पड़ा जहां फारसी और संस्कृत जैसी क्लासिकी भाषा फली- फूली इस काल का उल्लेखनीय विकास क्षेत्रीय भाषा का आगे बढ़ना रहा। अब हिन्दी, बंगाली, राजस्थानी, उड़िया और गुजराती जैसी अनेक क्षेत्रीय भाषाओं में परिपक्वता आई । साहित्यिक कृतियों में उनका इस्तेमाल होने लगा। तुलसीदास का रामचरित मानस, मलिक मोहम्मद जायसी का पद्मावत बंगाली में अलाल की रचना, मराठी में एकनाथ और तुका राम की रचनाएं इसी काल में लोकप्रिय हुई।

मध्यकालीन भारत में सास्कृतिक जीवन का एक अन्य मजेदार पहलू हिन्द-इस्लामी वास्तुकला में उजागर होता है। इसमे भारतीय संसाधनों, विशेषज्ञता, प्रतीकों, डिजाइनों को इस्लामी, मुख्यतः ईरानी शैली में आत्मसात किया गया। महराब और गुम्बद जैसी विशेषताओं को घण्टों, स्वास्तिक, कमल और कलश जैसे हिन्दू प्रतीकों के साथ जोड़ा गया। कुतुबमीनार, अलाई दरवाजा और गियासुद्दीन तुगलक के मकबरे ज ैसे तुगलककालीन विभिन्न स्मारक दिल्ली सल्तनत के काल की वास्तुकला के शानदार उदाहरण हैं। मुगल काल के स्मारकों में हिन्द-इस्लामी शैली के आत्मसात करने की प्रक्रिया ज्यादा गहरी है। पांच महल, बीरबल का महल और इबादतखाना जैसे फतेहपुर सीकरी के स्मारक, दिल्ली में हुमायूंका मकबरा, सिकन्दरा में अकबर का मकबरा, आगरा का इत्मातुद्दुदौला का मकबरा और बेशक ताजमहल मुगल वास्तुकला की शानदार मिसालें हैं।

मध्यकालीन भारत के ज्यादातर राजाओं ने संगीत की अरब, ईरानी और मध्य एशियाई परंपराओं के साथ हुआ। नए रंग रचे गए। भक्ति और सूफी परंपराओं ने भी भक्ति संगीत की नई शैली को गति दी।

इस तरह सुस्पष्ट राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन के साथ भारतीय इतिहास का मध्यकाल प्राचीन काल के बाद का एक और महत्वपूर्ण एवं शानदार दौर था।

आपने क्या सीखा

  • मध्यकाल को एक अंधकारमय काल नहीं कहा जा सकता। क्योंकि इस दौरान विश्व के अनेक हिस्सों में जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण विकास हुआ।
  • मध्यकाल में यूरोप के समाज में सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्था सामंतवाद थी।
  • सामंती व्यवस्था में राजनीति एकाधिकार का एक क्रमिक संगठन होता था।
  • आर्थिक रूप से सामंतवाद की विशेषता भूदासता और उत्पादन की मेनर प्रणाली थी।
  • सामंती व्यवस्था स्थिर नहीं थी। यह खुशहाली और संकट के सिलसिला से गुजरी। यूरोप में दसवीं सदी से पहले के दौर में सांस्कृतिक उपलब्धियों का स्तर बहुत निम्न था। दसवीं सदी के बाद खुशहाली के दौर के आने के बाद सांस्कृतिक जीवन में सुधार आया। विद्या और बौद्धिक विकास फलने-फूलने लगा।
  • इस्लाम एक नया धर्म था जिसे मोहम्मद ने सातवीं सदी में शुरू किया। इसके नियम आसान है।
  • इस्लाम दुनिया के एक बड़े हिस्से में फैला।

NIOS Class 10th सामाजिक विज्ञान (पुस्तक – 1) Notes in Hindi

You Can Join Our Social Account

YoutubeClick here
FacebookClick here
InstagramClick here
TwitterClick here
LinkedinClick here
TelegramClick here
WebsiteClick here