NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 16 मौलिक अधिकार तथा मौलिक कर्तव्य (fundamental rights and fundamental duties) Notes in Hindi

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 16 मौलिक अधिकार तथा मौलिक कर्तव्य (fundamental rights and fundamental duties) 

TextbookNIOS
class10th
SubjectSocial Science
Chapter16th
Chapter Nameमौलिक अधिकार तथा मौलिक कर्त्तव्य (fundamental rights and fundamental duties)
CategoryClass 10th NIOS Social Science (213)
MediumHindi
SourceLast Doubt

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 16 मौलिक अधिकार तथा मौलिक कर्तव्य (fundamental rights and fundamental duties) Notes in Hindi जिसमे हम मौलिक अधिकार और मौलिक कर्तव्य में क्या अंतर है?, मौलिक अधिकार और कर्तव्य कितने हैं?, मौलिक कर्त्तव्य क्या है?, कर्तव्य कौन कौन से हैं?, कर्तव्य कितने प्रकार के होते हैं?, मूल कर्तव्य कितने हैं उनके नाम?, मौलिक अधिकार कौन से हैं?, कर्तव्य का मतलब क्या होता है?, मौलिक अधिकार कितनी होती है?, मौलिक अधिकार कहाँ से लिया गया है?, मौलिक अधिकार का दूसरा नाम क्या है?, मौलिक अधिकार से क्या समझते हैं?, मौलिक अधिकार कैसे कहते हैं? आदि के बारे में पढ़ेंगे 

NIOS Class 10th Social Science (213) Chapter – 16 मौलिक अधिकार तथा मौलिक कर्तव्य (fundamental rights and fundamental duties) 

Chapter – 16

मौलिक अधिकार तथा मौलिक कर्तव्य

Notes

16.1 अधिकारों तथा कर्तव्यों का अर्थ तथा

हम अकसर अधिकारों की बात तो करते हैं लेकिन क्या आप जानते हैं कि अधिकार शब्द का क्या अर्थ है। अधिकार लोगों के बीच पारस्परिक सम्बन्ध एवं क्रिया के नियम हैं। ये राज्य और व्यक्ति अथवा समूह के कार्यों पर कुछ सीमाएं तथा दायित्व लगाते हैं। उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति को जीने का अधिकार है तो इसका अर्थ है कि किसी दूसरे व्यक्ति को किसी की जान लेने का अधिकार नहीं है।

अधिकार किसी व्यक्ति द्वारा अपेक्षित ऐसे अधिकार हैं जो उसके स्वयं के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक हैं तथा समाज या राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त हैं। अधिकार स्वतंत्रता या हकदारी के कानूनी, सामाजिक अथवा नैतिक सिद्धान्त हैं। कानूनी व्यवस्था, सामाजिक परम्परा अथवा नैतिक सिद्धांतों के अनुसार अधिकार मूलभूत आदर्श नियम हैं जो लोगों को कुछ करने अथवा कुछ पाने का हक देते हैं। अधिकार सामान्यतः समाज अथवा संस्कृति के आधार स्तंभों के रूप में किसी भी सभ्यता के मूल माने जाते हैं। परंतु अधिकारों का वास्तविक अर्थ तभी जब व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हैं। कर्त्तव्य किसी व्यक्ति से कुछ किये जाने की अपेक्षा करते हैं। उदाहरण के लिए अपने बच्चे का ठीक से ध्यान रखना माता-पिता का कर्त्तव्य है। आपके भी अपने माता-पिता के प्रति कर्त्तव्य है। अध्यापक का कर्त्तव्य है कि वह छात्रों को शिक्षित करें। वास्तव में अधिकार तथा कर्त्तव्य जीवनरूपी गाड़ी के दो पहिये हैं, जिनके ठीक से पालन से जीवन सरलता से चल सकता है।

अधिकार तथा कर्त्तव्यों के एक दूसरे के पूरक बन जानें तथा दोनों के ठीक से पालन करने से जीवन बहुत ही आसान बन सकता है। अधिकार वे हैं जो हम अपने लिए दूसरों द्वारा किये जाने की आशा करते हैं जबकि कर्त्तव्य वे कार्य हैं, जो हम दूसरों के प्रति करते हैं। इस तरह अधिकार दूसरों के अधिकारों का सम्मान करने के दायित्वों के साथ मिलते हैं। ये दायित्व जो अधिकारों के साथ जुड़े होते हैं, कर्त्तव्य कहलाते हैं। यदि हम यातायात अथवा स्वास्थ्य जैसी सार्वजनिक सेवाओं के उपयोग का अधिकार रखते हैं तो यह हमारा कर्त्तव्य है कि दूसरे व्यक्ति भी इन सेवाओं का उपयोग कर सकें। यदि हमें स्वतंत्रता का अधिकार है तो हमारा यह कर्त्तव्य भी है कि हम इसका दुरुपयोग न करें तथा दूसरों को किसी तरह की हानि न पहुँचायें।

16.2 मौलिक अधिकार

जैसा कि हम देखते हैं किसी भी व्यक्ति के जीवन के लिए तथा विकास के लिए अधिकारों का होना आवश्यक है। इस अर्थ में अधिकारों की एक लंबी सूची होगी। जबकि ये सब अधिकार समाज द्वारा पहचाने जाते हैं, इनमें से कुछ अति महत्त्वपूर्ण अधिकारों को राज्य द्वारा मान्यता दी गयी है तथा संविधान में स्थान दिया गया है। ऐसे अधिकारों को मौलिक अधिकार कहते है। ये दो कारणों से मौलिक अधिकार कहे जाते हैं। प्रथम, ये संविधान में उल्लिखित है जिनकी सविंधान गारंटी देता है और दूसरा, ये न्याय योग्य हैं अर्थात न्यायालयों द्वारा बाध्यकारी हैं। न्याय योग्य होने का अर्थ है कि इन अधिकारों का हनन होने पर व्यक्ति इनकी रक्षा के लिए न्यायालय में जा सकता है। यदि सरकार द्वारा कोई ऐसा कानून बनाया जाता है जो इनको सीमित करता है तो न्यायालय उस कानून को अमान्य कर देते हैं।

भारतीय संविधान के खण्ड III में ऐसे अधिकारों का प्रावधान है। संविधान भारतीय नागरिक को छः मौलिक अधिकार प्रदान करता है। ये हैं :

102.1 समानता का अधिकार

हमारे जैसे समाज के लिए समानता का अधिकार बहुत महत्वपूर्ण है। इस अधिकार का उद्देश्य कानून का शासन स्थापित करना है जहाँ पर कानून के समक्ष सभी नागरिकों के साथ समानता का व्यवहार किया जाता है। भारत में सभी लोगों को कानून का समान संरक्षण तथा कानून के समक्ष समानता उपलब्ध कराने के लिए पांच प्रावधान (अनुच्छेद 14-18) किये गये हैं। साथ ही यह धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी भेदभाव पर रोक लगाता है।

(i) कानून के समक्ष समानता : संविधान यह सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिक कानून के समक्ष समान होंगे। इसका तात्पर्य है कि देश के कानूनों द्वारा सभी को समान संरक्षण मिलेगा। कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। इसका अर्थ है कि यदि दो व्यक्ति एक प्रकार का अपराध करते हैं तो उन्हें बिना किसी भेदभाव के समान दण्ड मिलेगा।

(ii) धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर कोई भेदभाव नहीं : राज्य धर्म  नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगा। यह सामाजिक समानता के लिए आवश्यक है। भारत के प्रत्येक नागरिक की दुकान, जलपान गृह, मनोरंजन के सार्वजनिक स्थानों तक समान पहुंच होगी तथा वह कुओं, तालाबों अथवा सड़कों का प्रयोग बिना किसी भेदभाव के कर सकेगा। हालांकि राज्य द्वारा महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान व छूट की व्यवस्था की जा सकती है।

(iii) सार्वजनिक रोजगार के मामले में सभी नागरिकों को अवसर की समानता : सार्वजनिक रोजगार के मामलों में राज्य के द्वारा किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। सभी नागरिक आवेदन कर सकते हैं तथा राज्य के कर्मचारी बन सकते हैं। वरीयता तथा योग्यता के आधार पर रोजगार उपलब्ध होंगे। हालांकि उस के कुछ अपवाद हैं। अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्ग के नागरिकों के लिए रोजगार में आरक्षण के विशेष प्रावधान किये गये हैं।

(iv) छुआछूत का उन्मूलन : किसी भी प्रकार के छुआछूत को कानून के अंर्तगत दण्डनीय बनाया गया है। यह प्रावधान ऐसे लाखों भारतीयों की सामाजिक स्थिति को ऊपर उठाने के लिए किया गया प्रयास है जो जाति या व्यवसाय के कारण तिरस्कृत रहे हैं। परंतु यह वास्तव में बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद भी यह सामाजिक बुराई आज भी बनी हुई है। एक नर्स द्वारा एक मरीज की देखभाल, मां द्वारा अपने बच्चे की सफाई तथा एक औरत द्वारा टॉयलेट की सफाई करने में आप कोई अंतर पाते हैं? टॉयलेट साफ करने को लोग बुरी निगाह से क्यों देखते हैं?

(v) उपाधियों का उन्मूलन : ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठावान रहने वाले व्यक्तियों को दी जाने वाली सर (नाइटवुड) या राय बहादुर जैसी सभी उपाधियों का अंत कर दिया गया है क्योंकि ये सब कृत्रिम अंतर पैदा करते थे। हालांकि विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्र की उत्तम सेवा करने वालों को भारत के राष्ट्रपति द्वारा नागरिक और सैन्य पुरस्कार दिये जाते हैं। नागरिक पुरस्कारों के रूप में भारत रत्न, पद्म विभूषण, पदम भूषण तथा पदम श्री एवं सैन्य पुरस्कार जैसे- वीर चक्र, परमवीर चक्र, अशोक चक्र आदि प्रदान किये जाते हैं। क्या आप जानते हैं कि ये पुरस्कार पट्टियां नहीं हैं। शैक्षिक तथा सैन्य पुरस्कार व्यक्ति के नाम के आगे लगाये जा सकते हैं।

16.2.2 स्वतंत्रता का अधिकार

आप इस बात से सहमत होंगे कि स्वतंत्रता प्रत्येक प्राणी की सबसे महत्त्वपूर्ण इच्छा होती है। मानव जाति के लिए निश्चित रूप से स्वतंत्रता अपेक्षित और आवश्यक है । आप भी स्वतंत्रता का आनंद लेना चाहते हैं। भारत के संविधान में सभी नागरिकों को स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। ये अधिकार अनुच्छेद 19 से लेकर अनुच्छेद 22 में उल्लिखित हैं। अधिकारों की निम्नलिखित चार श्रेणियां हैं:

छः स्वतंत्रताएं – संविधान के अनुच्छेद 19 में निम्नलिखित छः स्वतंत्रताएं दी गयी हैं :
(अ) विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
(ब) शांतिपूर्वक और बिना हथियार सभा और सम्मेलन करने की स्वतंत्रता
(स) संघ और संगठन बनाने की स्वतंत्रता
(ड) भारत के राज्यक्षेत्र में अबाध भ्रमण की स्वतंत्रता
(इ) भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने की स्वतंत्रता
(छ) कोई वृति, आजीविका, व्यापार या कारोबार करने की स्वतंत्रता

उपर्यक्त स्वतंत्रताओं का उद्देश्य लोकतंत्र के लिए समुचित वातावरण बनाये रखना है। यद्यपि संविधान राज्य को कुछ युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाने का अधिकार देता है:

1. विचार अभिव्यक्ति – स्वतंत्रता पर भारत की प्रभुता और अखण्डता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, लोक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय की अवमानना, मानहानि या अपराध उद्दीपन के संबंध में युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं।

2. शांतिपूर्वक और बिना हथियार सभा और सम्मेलन करने की स्वतंत्रता पर भारत की प्रभुता और अखण्डता या लोक व्यवस्था के हितों में युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं।

3. संघ और संगठन बनाने की स्वतंत्रता पर भारत की प्रभुता और अखण्डता या लोक व्यवस्था या सदाचार के हितों में युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं।

4. भारत के राज्य क्षेत्र में सर्वत्र अबाध भ्रमण की स्वतंत्रता तथा बस जाने की स्वतंत्रता पर साधारण जनता के हितों में या किसी अनुसूचित जनजाति के हितों के संरक्षण के लिए युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाये जा सकते हैं।

5. कोई वृत्ति, आजीविका, व्यापार या कारोबार की स्वतंत्रता पर साधारण जनता के हितों में युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। राज्य द्वारा कोई वृत्ति, आजीविका, व्यापार या कारोबार करने के लिए आवश्यक व्यावसायिक या तकनीकी अर्हताएं लगायी जा सकती हैं।

II. अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण- संविधान के अनुच्छेद 20 में अपराधों से दोष सिद्धि के संबंध में संरक्षण दिया गया है। कोई व्यक्ति अपराध के लिए तब तक सिद्धदोष नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करने के समय, अपराध के रूप में आरोपित है, किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है या वह उससे अधिक शास्ति का भागी नहीं होगा, जो उस अपराध के किए जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती थी। किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दण्डित नहीं किया जायेगा तथा किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरूद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।

III. प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण : जैसाकि संविधान के अनुच्छेद 21 में दिया गया। है किसी व्यक्ति को, उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं।

IV. कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध के संरक्षण – जैसा कि अनुच्छेद 22 में दिया गया है कि किसी व्यक्ति को, जो गिरफ्तार किया गया है, ऐसी गिरफ्तारी के कारणों से यथाशीघ्र अवगत कराए बिना अभिरक्षा प्रतिरूद्ध नहीं रखा जाएगा या अपनी रूचि के विधि व्यवसायी से परामर्श करने और प्रतिरक्षा कराने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जाएगा। प्रत्येक व्यक्ति को जो गिरफ्तार किया गया है और अभिरक्षा में निरूद्ध रखा गया है, गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट के न्यायालय तक यात्रा के लिए आवश्यक समय को छोड़कर ऐसी गिरफ्तारी से 24 घंटे की अवधि में निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जायेगा और ऐसे किसी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के प्राधिकार के बिना उक्त अवधि से अधिक अविध के लिए अभिरक्षा में निरूद्ध नहीं रखा जाएगा। निवारक निरोध का उपबंध करने वाली किसी विधि के अधीन गिरफ्तार या निरूद्ध व्यक्ति को तीन माह की अवधि के भीतर सलाहकार बोर्ड के समक्ष पेश किया जाएगा।

स्वतंत्रताएंयुक्तियुक्त प्रतिबंध
1 . विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

2. संघ और संगठन बनाने की स्वतंत्रता

3. शांतिपूर्वक और बिना हथियार सभा और सम्मेलन की स्वतंत्रता

4. भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध भ्रमण की स्वतंत्रता

5. भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने की स्वतंत्रता

6. कोई वृत्ति, आजीविका, व्यापार या कारोबार करने की स्वतंत्रता

(अ) हिंसा को भड़काने के लिए व्यक्ति/समूहों के भ्रमण पर प्रतिबंध

(ब) जुआ, वेश्यावृत्ति, नशीले पदार्थ के व्यापार जैसे कारोबार की अनुमति नहीं देना।

(स) हवाई अड्डे के पास निवास स्थान के लिए मनाही

(द) लोगों में सांप्रदायिक हिंसा भड़काने वाली भाषा के प्रयोग पर प्रतिबंध

(य) आतंकवादी गतिविधियों की सहायता करने के लिए संगम के निर्माण की मनाही

(र) शांतिपूर्वक तथा बिना हथियार भाग लेना

16.2.3 शोषण के विरूद्ध अधिकार

क्या आपने कभी सोचा है कि हमारे समाज में कितनी तरह से शोषण किया जाता रहा है? आपने छोटे बच्चे को चाय की दुकान पर काम करते हुए देखा होगा या गरीब और निरक्षर व्यक्तियों को अमीर लोगों के घरों में जबरदस्ती काम कराते हुए देखा होगा। पारम्परिक रूप से, भारतीय समाज श्रेणियों में विभाजित रहा है जो शोषण को कई रूपों में प्रोत्साहित करता रहा है। इसलिए संविधान में शोषण के विरूद्ध प्रावधान दिये गये हैं। संविधान के अनुच्छेद 23 तथा अनुच्छेद 24 में शोषण के विरूद्ध अधिकारों को दिया गया है। ये प्रावधान निम्न हैं:

1. मानव के दुर्व्यापार तथा बलात श्रम का प्रतिषेध – मानव का दुर्व्यापार और बेगार तथा इसी प्रकार अन्य बलात श्रम को प्रतिषिद्ध किया गया है और इस उपबंध का कोई भी उल्लंघन अथ योगा जो विधि के अनुसार दण्डनीय होगा।

2. पूर्व में विशेषतौर पर सामंतवादी भारतीय समाज में, गरीब तबकों तथा पददलित वर्गों के व्यक्ति जमींदारों तथा अन्य बलशाली लोगों के लिए मुफ्त में काम करते थे। इस तरह का चलन बेगार या बलात श्रम कहलाता था ।

3. कारखानों आदि में बच्चों के रोजगार पर प्रतिबेध – जैसा कि संविधान में दिया गया है। चौदह वर्ष से कम आयु के किसी बच्चे को किसी कारखाने या खान में काम पर नहीं लगाया जायेगा या किसी अन्य जोखिम भरे नियोजन में नहीं लगाया जायेगा। इस अधिकार का उद्देश्य भारत में युगों से चल रहे बाल श्रम जैसी प्रमुख गंभीर समस्या से छुटकारा पाना है। बच्चे समाज की परिसम्पत्ति हैं। खुशहाल बचपन तथा शिक्षा प्राप्त करना उनका आधारभूत अधिकार है। जैसा कि नीचे चित्र में दिखाया गया है तथा आपने भी देखा होगा कि संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद अनेक स्थानों पर बालश्रम की समस्या आज भी देखी जा रही है। इस दुर्भावना को इसके विरोध में जनमत के आधार पर ही दूर किया जा सकता

16.2.4 धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार

जैसा कि आप जानते हैं, प्रस्तावना के एक उद्देश्य के रूप में “नागरिकों के लिए विश्वास, धर्म तथा उपासना की स्वतंत्रता प्राप्त करने” की घोषणा की गयी है। चूंकि भारत में अनेक धर्म है, जहाँ हिन्दु, मुस्लिम, सिख, ईसाई तथा अन्य समुदाय साथ-साथ रहते हैं, संविधान में भारत को ‘पंथनिरपेक्ष राज्य’ घोषित किया गया है। इसका अर्थ है कि भारत राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है। परंतु नागरिकों को अपनी पसंद से किसी भी धर्म को मानने और पूजा करने की स्वतंत्रता दी गयी है। परंतु इससे अन्य लोगों के धार्मिक विश्वासों अथवा आराधना पद्धतियों में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। यह स्वतंत्रता विदेशियों को भी प्राप्त है। धार्मिक स्वतंत्रता के संबंध में संविधान में अनुच्छेद 25-28 में उपबंध किये गये हैं :

अन्तःकरण की स्वतंत्रता और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता : सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान अधिकार है। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि बल पूर्वक अथवा लालच देकर किसी एक व्यक्ति द्वारा दूसरे का धर्म परिवर्तन कराया जाये। साथ ही, कुछ अमानवीय, गैरकानूनी तथा अंधविश्वासी चलन पर रोक लगा दी गयी है।

देवी-देवताओं तथा किसी आलौकिक शक्तियों को प्रसाद स्वरूप पशुबलि या नरबलि जैसे चलन पर रोक लगा दी गयी है। इसी तरह, सती प्रथा के नाम पर विधवा को अपने पति के शव के साथ (इच्छा से अथवा बलपूर्वक) जिंदा जलाने पर भी रोक लगा दी गयी है। विधवाओं को दूसरी शादी की अनुमति नहीं देना अथवा सिर का मुण्डन करना अथवा सफेद कपड़े पहनने पर मजबूर करना अन्य सामाजिक बुराई है जो धर्म के नाम पर बलपूर्वक की जा रही है। ऊपर उल्लेखित प्रतिबंधों के अलावा राज्य के पास धर्म से जुड़ी हुई आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक अथवा अन्य पंथनिरपेक्ष गतिविधियों को संचालित करने की शक्ति होती है। लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के आधार पर राज्य द्वारा इस अधिकार पर प्रतिबंध भी लगाये जा सकते हैं।

2. धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता : लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए, प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग को (क) धार्मिक और परोपकारी प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना और संचालन का (ख) अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का (ग) चल-अचल सम्पत्ति के अर्जन और स्वामित्व का और (द) ऐसी संपत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का अधिकार होगा।

3. किसी विशिष्ट धर्म को बढ़ावा देने के लिए करों के भुगतान के बारे में स्वतंत्रता : किसी भी व्यक्ति को ऐसे करों का भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा जिससे किसी विशिष्ठ धर्म या धार्मिक संप्रदाय को बढ़ावा देने या संचालन पर व्यय करने के लिए विशेष तौर पर उपयोग किया जाय।

4. कुछ शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थि स्वतंत्रताः पूर्णतः राज्य निधि से पोषित किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जायेगी। यद्यपि यह ऐसी शिक्षा संस्था में लागू नहीं होगी जिसका प्रशासन राज्य करता है किन्तु जो किसी ऐसे न्यास के अधीन स्थापित हुई है जिसके अनुसार उस संस्था में धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है। परंतु राज्य से मान्यता प्राप्त या राज्य निधि से सहायता पाने वाली शिक्षा संस्था में उपस्थित होने वाले किसी व्यक्ति को ऐसी संस्था में दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए या ऐसी संस्था में या उससे संलग्न स्थान में की जाने वाली धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के लिए तब तक बाध्य नहीं किया जायेगा, जब तक कि उस व्यक्ति ने या यदि वह नाबालिग है तो उसके संरक्षक ने, इसके लिए अपनी सहमति नहीं दे दी है।

162.5 संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार

भारत संस्कृति, लिपि, भाषा एवं धर्मों की विविधता लिये हुए दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। जैसा कि हम जानते है लोकतंत्र बहुमत का शासन है। परंतु इसके सफलता पूर्वक संचालन के लिए अल्पसंख्यक भी समान रूप से महत्वपूर्ण है। इसलिए अल्पसंख्यकों की भाषा, संस्कृति और धर्म का संरक्षण भी आवश्यक हो जाता है ताकि बहुमत के शासन के प्रभाव में अल्पसंख्यक उपेक्षित और कमजोर महसूस न कर सकें। चूंकि लोग अपनी संस्कृति तथा भाषा पर गर्व महसूस करते हैं, इसलिए एक विशेष अधिकार जिसे सांस्कृतिक तथा शैक्षिक अधिकार के नाम से जाना जाता है, मूलाधिकार अध्याय में सम्मिलित किया गया है। अनुच्छेद 29-30 में इस संबंध में प्रावधान किये गये हैं:

1. अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण : किसी भी अल्पसंख्यक वर्ग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाये रखने का अधिकार होगा। राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, नस्ल, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जायेगा।

2. शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यकों वर्गों का अधिकार : धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी पसंद की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा। धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा स्थापित और प्रशासित शिक्षा संस्था की संपति के अनिवार्य अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधि बनाते समय, राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि ऐसी संपत्ति के अर्जन के लिए ऐसी विधि

द्वारा नियत या उसके अधीन अवधारित रकम इतनी हो कि उस खण्ड के प्रत्याभूत अधिकार निर्बन्धित या निराकृत न हो जाये। शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में राज्य किसी शिक्षा संस्था के विरूद्ध इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रबंध में है।

16.2.6 संवैधानिक उपचारों का अधिकार चूंकि

मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं, इसी तरह वे प्रत्याभूत हैं। ये प्रवर्तनीय हैं, यदि किसी व्यक्ति के मूलाधिकारों का उल्लंघन होता है तो वह सहायता के लिए न्यायालय में जा सकता है। परंतु वास्तविकता ऐसी नहीं है। हमारे दैनिक जीवन में मूलाधिकारों का अतिक्रमण और उल्लंघन एक विचारणीय विषय बन गया है। यहीं कारण है कि हमारा संविधान विधायिका तथा कार्यपालिका को इन अधिकारों को प्रतिबंधित करने की अनुमति नहीं देता। संविधान हमारे मूलाधिकारों के संरक्षण के लिए कानूनी उपचार प्रदान करता है। अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उल्लिखित उसे संवैधानिक उपचारों का अधिकार कहा जाता है। यदि हमारे किसी मूलाधिकार का उल्लंघन होता है तो हम न्यायालय द्वारा न्याय की मांग कर सकते हैं। हम सीधे उच्चतम न्यायालय में भी जा सकते हैं जो इन मूलाधिकारों के प्रवर्तन के लिए निर्देश, आदेश अथवा रिट जारी कर सकता है।

16.2.7 शिक्षा का अधिकार (आर.टी.आई.)

शिक्षा का अधिकार वर्ष 2002 में 86 वें संविधान संशोधन द्वारा मूलाधिकारों के अध्याय में एक नया अनुच्छेद 21A के रूप में जोड़ा गया। लंबे समय से उसकी मांग की जा रही थी ताकि 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चे (और उनके माता-पिता) मूलाधिकार के रूप में अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का दावा कर सकें। देश को निरक्षरता से मुक्त करने की दिशा में उठाया गया यह एक बड़ा कदम है। परंतु इसे जोड़ा जाना अर्थहीन बना रहा, क्योंकि 2009 तक इसे लागू नहीं किया जा सका। 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम संसद द्वारा पारित किया गया। इस अधिनियम का उद्देश्य 6 से 14 वर्ष के उन सभी बच्चों को जो भारत में स्कूलों से बाहर हैं, उन्हें स्कूलों तक लाना तथा उन्हें गुणवत्ता युक्त शिक्षा, जो कि उनका अधिकार है, सुनिश्चित करना है।

16.3 मानवाधिकारों के रूप में मूल अधिकार अधिकार

आप यह पहले ही पढ़ चुके हैं कि प्रत्येक नागरिक की खुशहाली के लिए मूल में बहुत आवश्यक हैं। हम यह भी जानते हैं कि अच्छा परिवेश, अच्छी जीवन दशाएं तथा मानवीय गरिमा के संरक्षण के लिए मानव हमेशा से ही अन्याय, उत्पीड़न तथा असमानता के विरोध में संघर्षमय रहा है। सभी मानवों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे बहुत से अधिकारों को प्राप्त करने के प्रयास किये गये हैं जिन्हें मानव अधिकार कहा जाता है। संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने 1948 में मानव अधिकारों को अंगीकृत किया तथा मानवाधिकारों का सार्वभौमिक घोषणापत्र में सुनिश्चित किया जिसे आप बाद में पढ़ेंगे। कुछ मानवाधिकार है: कानून के समक्ष समता, भेदभाव से मुक्ति, जीवन, स्वतंत्रता और वैयक्तिक सुरक्षा का अधिकार, अबाध भ्रमण का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, शादी एवं परिवार बनाने का अधिकार, विचारों, अन्तःकरण तथा धर्म की स्वतंत्रता, शांतिपूर्वक सम्मलेन और संघ बनाने का अधिकार, समुदाय के सांस्कृतिक जीवन में भाग लेने का अधिकार आदि। यदि आप उपरोक्त अधिकारों का सावधानी पूर्वक परीक्षण करेंगे तो महसूस करेंगे कि ये मानवाधिकार कितने महत्वपूर्ण हैं ।

यही कारण है कि इनको भारतीय संविधान के मूलाधिकारों के अध्याय में स्थान दिया गया है। कुछ मानवाधिकार जो मूलाधिकारों के अध्याय में उल्लेखित नहीं है उन्हें राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के अध्याय में शामिल किया गया है। इसके अतिरिक्त मानवाधिकारों के महत्व को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार द्वारा 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया ताकि इन अधिकारों को भारतीय नागरिकों के लिए प्रत्याभूत किया जा सके।

मूल कर्त्तव्य

मूल अधिकारों को जान लेने के बाद, आपने महसूस किया होगा कि प्रत्येक अधिकार के एवज में नागरिकों से समाज भी कुछ आशा करता है जिन्हें सामूहिक रूप से मूल कर्त्तव्य कहा जाता है। ऐसे कुछ महत्वपूर्ण कर्त्तव्य भारतीय संविधान में भी सम्मिलित किये गये हैं। 26 जनवरी 1950 को लागू मूल संविधान में मौलिक कर्त्तव्यों का उल्लेख नहीं किया गया था। यह आशा की गयी थी कि स्वतंत्र भारत के नागरिक अपने कर्त्तव्यों का पालन अपनी इच्छा से करेंगे। परंतु जैसी आशा की गयी थी वैसा हुआ नहीं। इसलिए, 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान के भाग IV में अनुच्छेद 51अ में दस मूल कर्त्तव्यों को शामिल किया गया। यद्यपि जहाँ मूल अधिकार न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय है, वहीं मौलिक कर्त्तव्य न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं बनाये गये हैं। इसका अर्थ है कि मौलिक कर्त्तव्यों के उल्लंघन होने पर अर्थात मौलिक कर्त्तव्यों का ठीक से पालन नहीं किये जाने पर नागरिकों को दण्डित नहीं किया जायेगा । निम्नलिखित दस मूल कर्त्तव्य संविधान में दिये गये हैं-

18.3.1 मौलिक कर्त्तव्यों की प्रकृति

ये कर्त्तव्य प्रकृति से आचार संहिता हैं । चूंकि ये न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है, अतः इनके पीछे कोई कानूनी अनुशास्ति नहीं है । जैसा कि आप देखेंगे, इनमें कुछ कर्त्तव्य अस्पष्ट हैं। उदाहरण के लिए मिश्रित संस्कृति, गौरव शाली परम्परा, ‘मानववाद’ अथवा व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष आदि का अर्थ एक सामान्य नागरिक की समझ से परे है। इन कर्त्तव्यों के महत्व को तभी समझ सकते हैं जब इनको स्पष्ट शब्दों में वर्णित किया जाये।

वर्तमान सूची की भाषा को स्पष्ट करने तथा उन्हें यथार्थवादी एवं अर्थवान बनाये जाने और साथ ही कुछ आवश्यक और यथार्थवादी कर्त्तव्यों को जोड़ने के लिए संशोधन की मांग रामय-समय पर की जाती रही है। जितना संभव हो सके इन्हें न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय भी बनाया जाना चाहिए। क्या आप जानते हैं

आपने क्या सीखा

  • अधिकार व्यक्ति द्वारा अपेक्षित ऐसे दावे हैं जो उसके स्वयं के विकास के लिए आवयश्यक होते हैं तथा राज्य या समाज द्वारा मान्यताप्राप्त है। कर्त्तव्य व्यक्ति से नैतिक और कानूनी अन्योन्याश्रित हैं।
  • जहां समाज द्वारा सभी अधिकारों को मान्यता दी जाती है, राज्य द्वारा कुछ महत्वपूर्ण अधिकारों अधिकार को स्वीकृति दी जाती है जिनका संविधान में उल्लेख किया जाता है, ऐसे अधिकारों को मौलिक अधिकार कहते हैं।
  • संविधान द्वारा भारतीय नागरिकों को निम्न छः मौलिक अधिकार प्रत्याभूत किये गये हैं : (i) समता का अधिकार (ii) स्वतंत्रता का अधिकार (iii) शोषण के विरूद्ध अधिकार (iv) धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (i) सांस्कृतिक तथा शैक्षिक अधिकार तथा (v) सवैधानिक उपचारों का अधिकार । ये मूल अधिकार यद्यपि सार्वभौमिक है परंतु संविधान में इनके कुछ अपवाद तथा प्रतिबंध दिये गये है।
  • संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा 1948 में मानव अधिकारों को अंगीकृत किया गया तथा मानवाधिकारों का  सार्वभौमिक घोषण पत्र सुनिश्चित किया गया। इनमें से अनेक मानवाधिकारों को भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों में स्थान दिया गया है ताकि इनका कार्यान्वयन सरकार का कानूनी कर्त्तव्य बन सके। ऐसे मानवाधिकारों, जिनका समावेश मूलाधिकारों में नहीं हो सका, उन्हें राज्य के नीति निदेशक तत्वों में समाविष्ट किया गया है।
  • 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान के भाग IV में अनुच्छेद 51 अ में दस मूल कर्त्तव्यों का उल्लेख किया गया है। मूल अधिकारों के विपरीत, जो कि न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय है, मूल कर्त्तव्य न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है। इसका अर्थ है कि मौलिक कर्त्तव्यों का उल्लंघन होने पर अर्थात ठीक से पालन नहीं किये जाने पर नागरिकों को दण्डित नहीं किया जायेगा ।

NIOS Class 10th सामाजिक विज्ञान (पुस्तक – 2) Notes in Hindi

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