NCERT Solutions Class 12th Economics (भारत का आर्थिक विकास) Chapter – 9 पर्यावरण और धारणीय विकास (Environment Sustainable Development) Notes In Hindi

NCERT Solutions Class 12th Economics (भारत का आर्थिक विकास) Chapter – 9 पर्यावरण और धारणीय विकास (Environment Sustainable Development)

TextbookNCERT
classClass – 12th
SubjectEconomics (भारत का आर्थिक विकास)
ChapterChapter – 9
Chapter Nameपर्यावरण और धारणीय विकास
CategoryClass 12th Economics Notes In Hindi
Medium Hindi
SourceLast Doubt

NCERT Solutions Class 12th Economics (भारत का आर्थिक विकास) Chapter – 9 पर्यावरण और धारणीय विकास (Environment Sustainable Development)

?Chapter – 9?

✍ग्रामीण विकास✍

?Notes?

धारणीय विकास – धारणीय विकास की कई परिभाषाएँ दी गई हैं परंतु सर्वाधिक उद्धृत परिभाषा आवर कॉमन फ्यूचर ( Our common future ) जिसे बुटलैंड रिपोर्ट के नाम से भी जाना जाता है , ने दी है । ऐसी विकास जो वर्तमान पीढी की आवश्यकताओं को भावी पीढ़ियों की आवश्यकताओं की पूर्ति क्षमता का समझौता किए बिना परा करे ।

धारणीय विकास का अर्थ – धारणीय विकास की अवधारणा मुख्यतः तीन आधारों पर निर्भर करती है जो कि आर्थिक पर्यावरणीय तथा सामाजिक या पारिस्थितिकी , अर्थव्यवस्था और समानता है । कुछ लेखकों ने चौथे आधार के रूप में संस्कृति को भी स्वीकार किया है ।

धारणीय विकास की प्राप्ति के उपाय

ऊर्जा के गैर – पारंपरिक स्रोतों का उपयोग :- भारत अपनी विद्युत आवश्यकताओं के लिए थर्मल और हाइड्रो पॉवर संयंत्रों पर बहुत अधिक निर्भर है । इन दोनों का पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । वाय शक्ति और सौर ऊर्जा गैर – पारंपरिक स्रोतों के अच्छे उदाहरण हैं । तकनीक के अभाव में इनका विस्तृत रूप से अभी तक विकास नहीं हो पाया है ।

अधिक स्वच्छ ईंधनों का उपयोग – शहरी क्षेत्रों में ईंधन के रूप में उच्च दाब प्राकृतिक गैस ( CNG ) के प्रयोग को प्रोत्साहित किया जा रहा है । दिल्ली में जन – परिवहन में उच्च दाब प्राकृतिक गैस के उपयोग से प्रदूषण कम हुआ है और वायु स्वच्छ हुई है । ग्रामीण क्षेत्र में बायोगैस और गोबर गैस को प्रोत्साहित किया जा रहा है जिससे वायु प्रदुषण कम हुआ है ।

लघु जलीय प्लांटों की स्थापना – पहाड़ी इलाकों में लगभग सभी जगह झरने मिलते हैं । इन झरनों पर लघु जलीय प्लांटों की स्थापना हो सकती है । ये पर्यावरण के अनुकूल होते हैं ।

पारंपरिक ज्ञान व व्यवहार – पारंपरिक रूप से भारत की कषि व्यवस्था , स्वास्थ्य सुविधा व्यवस्था , आवास , परिवहन सभी क्रियाकलाप पर्यावरण के लिए हितकर रहे हैं । परंतु आजकल हम अपनी पारंपरिक प्रणालियों से दूर हो गए हैं , जिससे हमारे पर्यावरण और हमारी ग्रामीण विरासत को भारी मात्रा में हानि पहँची है ।

अधारणीय उपभोग तथा उत्पादन प्रवृत्तियों में परिवर्तन – धारणीय विकास प्राप्त करने के लिए हमें उपभोग प्रवृत्ति ( संसाधनों के अति उपयोग और दुरुपयोग की अवहेलना ) तथा उत्पादन प्रवृति ( पर्यावरण अनुकूल तकनीकों का प्रयोग ) में परिवर्तन करने की आवश्यकता है ।

धारणीय विकास की रणनितियाँ

ग्रामीण क्षेत्र के निवासी होने पर

ग्रामीण क्षेत्रों में जलाऊ लकड़ी , उपलों या अन्य जैव पदार्थ के स्थान पर रसोई गैस और गोबर गैस का उपयोग ।
जहाँ पर खुला स्थान है उन गाँवों में वायु मिलों की स्थापना की जा सकती है ।
हमें कृषि , स्वास्थ्य , आवास और परिवहन में ऐसा पारंपरिक ज्ञान और व्यवहार का प्रयोग करना चाहिए जो पर्यावरण के अनुकूल हो ।
रासायनिक कीटनाशकों के स्थान पर जैविक कीटनाशकों का प्रयोग किया जाना चाहिए ।
रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर हमें जैविक कंपोस्ट खाद का प्रयोग करना चाहिए ।

शहरी क्षेत्र के निवासी होने पर :-

फोटोवोल्टिक सेल दवारा सौर ऊर्जा का प्रयोग किया जाना चाहिए ।
वाहनों में पेट्रोल या डीजल की जगह उच्च दाब प्राकृतिक गैस ( CNG ) का प्रयोग किया जाना चाहिए ।
हमें अपनी आवश्यकताओं को कम करना चाहिए ।

संसाधनों पर आर्थिक विकास का प्रभाव

आर्थिक विकास प्राकृतिक संसाधनों के निस्तर पतन का कारण है ।
प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय दोहन ।
निस्तर तीव्र आर्थिक विकास संसाधनों की कमी उत्पन्न कर रहा है तथा उनकी गैर धारणीय बना रहा है ।
उन्नत तकनीक द्वारा संसाधनों की उपलब्धता में वृद्धि ।
संसाधनों का प्रतिस्थापन उत्पन्न करते हैं ।

पर्यावरण – पर्यावरण को कुल ग्रहों की विरासत और सभी संसाधनों की समग्रता के रूप में परिभाषित किया गया है । इसमें सभी बायोटिक और अजैविक तत्व शामिल हैं जो एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। सभी जीवित तत्व-पक्षी, पशु और पौधे, वन, मत्स्य आदि जीव तत्व हैं ।

पर्यावरण के अजैव तत्वों में निर्जीव तत्व जैसे हवा, पानी, भूमि, चट्टानें और सूर्य के प्रकाश आदि शामिल हैं ।

पर्यावरण के कार्य

यह जीवन के लिए संसाधन प्रदान करता है ।
नवीकरणीय तथा गैर – नवीकरणीय दोनों पर्यावरण दवारा ही प्रदान किये जाते हैं ।
यह अवशेष को समाहित करता है ।
यह जनहित और जैविक विविधता प्रदान करके जीवन का पोषण करता है ।
यह सौंदर्य विलयक सेवाएँ भी प्रदान करता है ।

पर्यावरण का आर्थिक विकास प्रभाव

आर्थिक विकास और तीव्र वृद्धि ध्वनि प्रदूषण तथा वायु की गुणवत्ता में कमी आती है ।
यह पर्यावरण संकट उत्पन्न कर सकती है तथा धारणीय विकास में कमी आयेगी ।
वनों का निम्नीकरण के वर्षा में कमी ।
मत्यस्य संसाधनों का अधिक दोहन ।
सभी सड़कें , होटल , माल इत्यादि निर्माण से जैव विविधता की हानि ।

वैश्विक उष्णता

ग्रीन हाउस गैस , जानवरों के अपशिष्ट से निकलने वाली गैस , वनों का विनाश कारण पृथ्वी के औसत तापमान में हाने वाली वृद्धि ही वैश्विक उष्णता है । वैश्विक उष्णता के प्राथमिक स्रोत कार्बनडाइ ऑक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसें , तीव्र उत्सर्जन , जीवाश्म ईंधन का उपयोग और मीथेन का उत्पादन , कृषि तथा अन्य मानवीय गतिविधियाँ हैं ।

वैश्विक तापमान में वृद्धि के परिणाम स्वरूप पृथ्वी के ध्रुवों पर बर्फ पिघल रही है समुद्रस्तर में वृद्धि के कारण तटीय क्षेत्रों में बाढ़ का प्रभाव , भीषण आंधी और कटिबन्धीय तूफान के प्रभाव में वृद्धि के साथ अन्य मौसमी घटनाएं बढ़ी है ।

भारत में पर्यावरण संबंधी महत्त्वपूर्ण मुद्दे

जल संक्रमण – भारत में औद्योगिक अवशिष्ट के कारण पेय जल संक्रामक होता जा रहा है । इससे जल संक्रामक बीमारियाँ फैल रही हैं ।

वायु – प्रदूषण – शहरीकरण के कारण , भारतीय सड़कों पर वाहनों की संख्या लगातार बढ़ रही है । मोटर वाहनों की संख्या 1951 के 3 लाख से बढ़कर 2003 में 67 करोड़ हो गई । भारत विश्व में दसवॉ सर्वाधिक औद्योगिक देश है परंतु यह पर्यावरण पर अनचाहे एवं अप्रत्याशित प्रभावों की अवसर लागत पर हुआ है ।

वनों की कटाई – भारत का वन आवरण बढ़ती जनसंख्या के कारण लगातार कम हो रहा है । इससे वायु प्रदूषण तथा उससे जुड़ी समस्याएँ भी बढ़ रही हैं । भारत में प्रतिव्यक्ति वन भूमि 0 . 08 हेक्टेयर है जबकि आवश्यकता 0 . 47 हेक्टेयर की है ।

भू – क्षय – भू – क्षय वन विनाश के फलस्वरूप वनस्पति की हानि , वन भूमि का अतिक्रमण , वनों में आग और अत्यधिक चराई , भू – संरक्षण हेतु समुचित उपायों को न अपनाया जाना , अनुचित फसल चक्र , कृषि – रसायन का अनुचित प्रयोग , सिंचाई व्यवस्था का नियोजन तथा अविवेकपूर्ण प्रबंधन , संसाधनों की निर्बाध उपलब्धता तथा कृषि पर निर्भर लागतों की दरिद्रता के कारण हो रहा है ।

पर्यावरण संकट के योगदान में सरकार के समक्ष आई समस्याएँ

बढ़ती जनसंख्या – बढ़ती जनसंख्या से प्राकृतिक संसाधनों की माँग बढ़ जाती है । जबकि प्राकृतिक संसाधनों की पूर्ति स्थिर है । इससे अतिरेक माँग उत्पन्न होती है जो प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव डालती है । इन संसाधनों का अत्यधिक उपभोग किया जाता है और उपभोग धारण क्षमता की सीमा से बाहर चला जाता है जिससे पर्यावरणीय हानि होती है । इससे सरकार के समक्ष सर्व की आवश्यकताएँ पूरी करने में असमर्थता की समस्या आती है ।

वायु  प्रदूषण – इससे कई प्रकार की बीमारियाँ जैसे दमा , फेफड़ों का कैंसर , क्षय रोग होती हैं । इससे सरकार के लिए स्वास्थ्य सेवाओं पर अधिक व्यय की समस्या उत्पन्न होती है ।

 जल  प्रदूषण – इससे हैजा , मलेरिया , अतिसार , दस्त जैसी कई बीमारियाँ होती हैं । इससे भी सरकार के लिए स्वास्थ्य सेवाओं पर अधिक व्यय की समस्या उत्पन्न होती है ।

संपन्न उपभोग मानक – इससे प्राकृतिक संसाधनों की माँगें बढ़ जाती हैं । जबकि प्राकृतिक संसाधनों की पूर्ति स्थिर है । इससे अतिरेक माँग उत्पन्न होती है । जो प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव डालती है । इन संसाधनों का अत्यधिक उपभोग किया जाता है और उपभोग धारण क्षमता की सीमा से बाहर चला जाता है । जिससे पर्यावरणीय हानि होती है । इससे समस्या ये उत्पन्न होती है कि अमीर वर्ग तो कुत्तों के खाने , सौंदर्य प्रसाधन और विलासिताओं पर व्यय करते हैं और गरीब वर्ग को अपने बच्चों और परिवार की आधारभूत आवश्यकताओं के लिए भी धन नहीं मिलता ।

निरक्षरता – ज्ञान के अभाव के कारण लोग ऐसे संसाधनों का प्रयोग करते रहते हैं जैसे – उपले , लकड़ी आदि । इससे संसाधनों का दुरुपयोग होता है । यह दुरुपयोग पर्यावरण को हानि पहुंचाता है । सरकार को लोगों के स्वास्थ्य पर अतिरिक्त खर्च करना पड़ता है । जागरूकता के अभाव में स्वच्छता पर ध्यान नही देते । कूड़ा – कचरा का उचित प्रबंध निरक्षर लोग ठीक से नहीं करते ।

औद्योगीकरण – इससे वायु – प्रदूषण , जल – प्रदूषण में और ध्वनि प्रदूषण होता है । इससे काफी बीमारियों फैलती है । जहरीली गैसें हवाओं में तथा जहरीले रसायन नदियो , तालाब व भूजल में मिल जाले हैं । इससे पशु – पक्षी , पेड़ – पौध जीव जंतु सभी बुरी तरह से प्रभावित होते हैं ।

शहरीकरण – इनसे संसाधनों का अति उपयोग होता है और यह उपयोग धारण क्षमता की सीमा को पार कर देता है जिससे पर्यावरण का अपक्षय होता है । इससे भी आय की असमानताओं के कारण अमीर वर्ग कुत्तों के खाने , सौंदर्य प्रसाधन पर खर्च करता है और गरीब वर्ग परिवार की आधारभूत आवश्यकताओं के लिए भी धन नहीं जुटा पाता ।

 वन   क्षेत्र में कमी – इससे पर्यावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाती है । कार्बन डाइऑक्साइड में वृद्धि से वैश्विक उष्णता हो रही है । अतः सरकार को स्वास्थ्य के साथ – साथ ऐसे तकनीकी अनुसंधान पर भी व्यय करना पड़ रहा है जिससे एक पर्यावरण अनुकूल वैकल्पिक तकनीक की खोज की जा सके ।

अवैध वन कटाई – इससे जैविक विविधता प्रभावित हो रही है , मृदा क्षरण , वायु प्रदूषण में वृद्धि हो रही है जिससे खाद्य श्रृंखला पर भी प्रभाव पड़ रहा है ।

वैश्विक ऊष्णता – वैश्विक उष्णता के कारण पूरे विश्व में तापमान बढ़ रहा है । यदि समुद्र के जल का तापमान मात्र 2°C से भी बढ़ गया तो संपूर्ण पृथ्वी जलमयी हो जाएगी ।

वर्तमान पर्यावरण संकट

भारत के पर्यावरण को दो तरफ से खतरा है । एक तो निर्धनता के कारण पर्यावरण का अपक्षय और दूसरा खतरा साधन संपन्नता और तेजी से बढ़ते हुए औद्योगिक क्षेत्रक के प्रदूषण से है । भारत की अत्यधिक गंभीर पर्यावरण समस्याओं में वायु प्रदूषण , दुषित जल , मृदा क्षरण , वन्य कटाव और वन्य जीवन की विलुप्ति है ।

जल – प्रदूषण – भारत में ताजे जल के सर्वाधिक स्रोत अत्यधिक प्रदूषित होते जा रहे हैं । इनकी सफाई में सरकार को भारी व्यय करना पड़ रहा है । 120 करोड़ की जनसंख्या के लिए स्वच्छ जल का प्रबंधन सरकार के लिए एक बड़ी समस्या है । जल जीवों की विविधता भी विलुप्त होती दिखाई दे रही है ।

भूमि अपक्षय – भारत में भूमि का अपक्षय विभिन्न मात्रा और रूपों में हुआ है , जो कि मुख्य रूप से अस्थिर प्रयोग और अनुपयुक्त ( प्रबंधन ) कार्य प्रणाली का परिणाम है ।

ठोस अवशिष्ठ प्रबंधन – विश्व की 17 % जनसंख्या और विश्व पशुधन की 20 % जनसंख्या भारत की मात्र 2 . 5 % क्षेत्रफल में रहती है । जनसंख्या और पशुधन का अधिक घनत्व और वानिकी , कृषि , चराई , मानव बस्तियाँ और उद्योगों के प्रतिस्पर्धी उपयोगों से देश के निश्चित भूमि संसाधनों पर भारी दबाव पड़ता है ।