NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास) Chapter – 8 सामाजिक आंदोलन (Social Movements)
Textbook | NCERT |
class | Class – 12th |
Subject | Sociology (भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास) |
Chapter | Chapter – 8 |
Chapter Name | सामाजिक आंदोलन |
Category | Class 12th Sociology Question Answer in Hindi |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास) Chapter – 8 सामाजिक आंदोलन (Social Movements) Question Answer In Hindi सामाजिक आंदोलन के 4 प्रकार क्या हैं? सामाजिक आंदोलन क्या है और इसकी विशेषताएं? सामाजिक आंदोलन का भारतीय समाज पर क्या प्रभाव पड़ा? सामाजिक परिवर्तन के चार प्रकार कौन से हैं? सामाजिक आंदोलन के तीन सिद्धांत क्या है स्पष्ट कीजिए? सामाजिक परिवर्तन के दो मुख्य सिद्धांत कौन से हैं? सामाजिक आंदोलन के विकास के विभिन्न चरण क्या हैं? सामाजिक क्रांति का सिद्धांत क्या है?सामाजिक क्रांति के जनक कौन थे? समाज क्रांति कब हुई थी? सामाजिक विकास का सिद्धांत किसका है? सामाजिक विकास का अर्थ क्या है? सामाजिक विकास के कितने चरण हैं? सामाजिक विकास का अर्थ क्या है? तीन सामाजिक विकास क्या हैं? सामाजिक विकास की अवस्थाएं कौन कौन से हैं? सामाजिक विकास मॉडल क्या है? सामाजिक मॉडल क्या है? विकास का मॉडल क्या है? सामाजिक परिवर्तन में विकास क्या है? |
NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं विकास) Chapter – 8 सामाजिक आंदोलन (Social Movements)
Chapter – 8
सामाजिक आंदोलन
प्रश्न उत्तर
प्रश्न 1. एक ऐसे समाज की कल्पना कीजिए जहाँ कोई सामाजिक आंदोलन न हुआ हो, चर्चा करें। ऐसे समाज की कल्पना आप कैसे करते हैं,इसका भी आप वर्णन कर सकते हैं?
उत्तर – सामाजिक आंदोलन के बिना समाज कल्पना से परे है लेकिन अगर कोई ऐसा समाज रहा है जहां कोई सामाजिक आंदोलन नहीं हुआ है तो वह निम्न प्रकार का होता-
• यह एक बहुत ही प्रगतिशील समाज होता जहां लोग शांतिपूर्ण तरीके से रहते थे।
• सामाजिक वातावरण सहयोगी और सामंजस्यपूर्ण होता। समाज के सभी सदस्य अपने काम से ही प्रतिष्ठित और चिंतित होते।
• स्व-अनुशासनात्मक प्रणाली और आत्म-जांच प्रणाली वहां बहुत अधिक मौजूद होती।
• यह एक बहुत ही आदर्श प्रकार का समाज होता जिसकी आवश्यकता हर देश को होती है।
प्रश्न 2. निम्न पर लघु टिप्पणी लिखें
• महिलाओं के आंदोलन
• जनजातीय आंदोलन
उत्तर – महिलाओं के आंदोलन – 20वीं सदी के प्रारंभ में महिलाओं के कई संगठन सामने आए। इनमें विपेंस इंडियन एसोसिएशन (WIA-1917) ऑल इंडिया विमेंस कॉफ्रेंस (AIWC-1926), नेशनल काउंसिल फॉर विमेन इन इंडिया – (NCWI-1925) शामिल हैं। हालांकि इनमें से कई की शुरुआत सीमित कार्य क्षेत्र से हुई, तथापि इनका कार्यक्षेत्र समय के साथ विस्तृत हुआ। ऐसा अक्सर माना जाता है कि केवल मध्यम वर्ग ही शिक्षित महिलाएँ ही इस प्रकार के आंदोलनों में शरीक होती हैं। किंतु संघर्ष का एक भाग महिलाओं की सहभागिता के विस्मृत इतिहास को याद करना रहा है।
औपनिवेशिक काल में जनजातीय तथा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रारंभ होने वाले संघर्षों तथा क्रांतियों में महिलाओं ने पुरुषों के साथ भाग लिया। अतएव न केवल शहरी महिलाओं ने बल्कि ग्रामीण तथा जनजातीय क्षेत्रों की महिलाओं ने भी महिलाओं के सशक्तिकरण वाले राजनीतिक आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। 1970 के दशक के मध्य में भारत में महिला आंदोलन का दूसरा चरण प्रारंभ हुआ। उस काल में स्वायत्त महिला आंदोलनों में वृद्धि हुई। इसका अर्थ यह हुआ कि इस प्रकार के महिला आंदोलन राजनीतिक दलों अथवा उस प्रकार के महिला संगठन जिनके राजनीतिक दलों से संबंध थे, स्वतंत्र थे।
शिक्षित महिलाओं ने सक्रियतापूर्वक जमीनी राजनीति में हिस्सा लिया। इसके साथ ही उन्होंने महिला आंदोलनों को भी प्रोत्साहित किया। महिलाओं से संबंधित नए मुद्दों पर अब ध्यान केंद्रित किए जाने लगे-जैसे, महिलाओं के ऊपर हिंसा, विद्यालयों के फार्म पर पिता तथा माता दोनों के नाम कानूनी परिवर्तन, जैसे-भूमि अधिकार, रोजगार, दहेज तथा लैंगिक प्रताड़ना के विरुद्ध अधिकार इत्यादि। इसके उदाहरण हैं, मथुरा बलात्कार कांड (1978) तथा माया त्यागी बलात्कार कांड (1980)। दोनों के ही खिलाफ व्यापक आंदोलन हुए। अतएव यह बात भी स्वीकार की गई है कि महिलाओं के आंदोलनों को लेकर भी विभिन्नता रही है। महिलाएँ विभिन्न वर्गों से संबद्ध होती हैं। अतः इनकी आवश्यकताएँ तथा चिंताएँ भी अलग-अलग होती हैं।
जनजातीय आंदोलन – अधिकांश जनजातीय आंदोलन मध्य भारत के तथाकथित “जनजातीय बेल्ट’ में स्थित रहे हैं। जैसे संथाल, ओरांव तथा मुंडा जो कि छोटानागपुर तथा संथाल परगना में स्थित हैं। झारखंड के सामाजिक आंदोलनों के करिश्माई नेता बिरसा मुंडा थे, जो एक आदिवासी थे तथा जिन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध एक बड़े विद्रोह का नेतृत्व किया। उनकी स्मृतियाँ अभी भी जीवित हैं तथा भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।। जनजातीयों में एक शिक्षित मध्यम वर्ग प्रदान करने का श्रेय ईसाई मिशनरियों को जाता है। इस शिक्षित वर्ग ने अपनी जातिगत जागरूकता, अपनी पहचान, संस्कृति तथा परापराओं को विकसित किया। दक्षिण बिहार के आदिवासियों को अलग-अलग कर दिए जाने का बोध हुआ। उन्होंने अपने सामान्य प्रतिद्वंद्वी–दिकू, प्रवासी व्यापारियों तथा महाजनों को माना। सरकारी पदों पर विराजमान आदिवासियों ने एक बौद्धिक नेतृत्व का विकास किया तथा पृथक राज्य के निर्माण में चलाए जा रहे आंदोलनों को गति प्रदान किया। झांरखंड के आंदोलनकारियों के प्रमुख मुद्दे थे
• सिंचाई परियोजनाओं के लिए भूमि का अधिग्रहण।
• सर्वेक्षण तथा पुनर्वास की कार्यवाही, बंद कर दिए गए कैंप आदि।
• ऋणों की उगाही, लगान तथा सहकारी ऋणों का संग्रह, वन्य उत्पादों का राष्ट्रीयकरण इत्यादि। जहाँ तक पूर्वोत्तर राज्यों के आदिवासियों की बात है, इनके प्रमुख मुद्दे थे-अपने क्षेत्र में पृथक जनजातीय पहचान, जनजातियों की पारंपरिक स्वायत्तता प्रदान करने की माँग इत्यादि। किसी कारण वश के कारण ये जनजातियाँ भारत की मुख्यधारा से पृथक रह गई। इस खाई को पाटने की आवश्यकता है। जनजातियों को कैसे अधिकार प्रदान किए जाएँ, जो उन्हें अपनी सांस्कृतिक संस्थाओं को बचाए रखने तथा शेष भारत के साथ जुड़ने में मददगार साबित हो।
• वनों की जमीन के खोने से जनजातियों के गुस्से का निराकरण किया जाए। इस प्रकार से, जनजातीय आंदोलन समाजिक आंदोलनों का एक अच्छा उदाहरण है। इसमें कई मुद्दे शामिल हैं। जैसे आर्थिक, सांस्कृतिक, पारिस्थितिकीय आदि। पूर्व में कई पूर्वोत्तर क्षेत्रों ने भारत से अलग रहने की प्रवृत्ति का प्रदर्शन किया था, किंतु उन्होंने एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाया है तथा भारतीय संविध न के ढाँचे में अपनी पृथक स्वायत्तता की माँग की है।
प्रश्न 3. भारत में पुराने तथा नए सामाजिक आंदोलनों के बीच अंतर करना कठिन है। चर्चा कीजिए।
उत्तर – पुराने सामाजिक आंदोलन-
• वर्ग आधारित-अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए एकजुट।
• उपनिवेशवाद के विरोध में आंदोलन।
• राष्ट्रवादी आंदोलन तथा एक राष्ट्र के रूप में लोगों का एकजुट होना; जैसे-स्वतंत्रता आंदोलन।
• राष्ट्रवादी आंदोलन, जिसने विदेशी शक्तियों तथा विदेशी पूँजी के विरोध में सक्रियता दिखाई। मुख्यतः साधन संपन्न तथा शासनहीन वर्गों के बीच संघर्ष से संबंधित। मुख्य मुद्दा-शक्तियों का पुनर्गठन। अर्थात शक्तियों पर नियंत्रण कर उसे शक्तिमान लोगों से छीनकर शक्तिहीन लोगों को देना। श्रमिकों ने पूँजीपतियों के विरुद्ध गतिशीलता दिखाई। महिलाओं का पुरुषों के प्रभुत्व के प्रति संघर्ष आदि।
• राजनीतिक दलों के संगठनात्मक ढाँचे के अंदर क्रियाकलाप। जैसे- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने राष्ट्रवादी आंदोलन का नेतृत्व किया। कम्युनिष्ट पार्टी ऑफ चीन ने चीनी क्रांति का नेतृत्व किया।
• राजनीतिक दलों की भूमिका की ही प्रधानता रहती थी तथा गरीब लोगों की बातें प्रभावपूर्ण तरीके से नहीं सुनी जाती थीं।
• इनका संबंध सामाजिक असमानता तथा संसाधनों के असमान वितरण को लेकर था तथा इन आंदोलनों के यही प्रमुख तत्व हुआ करते थे।
नए सामाजिक आंदोलन
• नए सामाजिक आंदोलन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के दशकों में 1960-1970 के दशक के मध्य प्रकाश में आए।
• इन आंदोलनों न केवल संकीर्ण वर्गीय मुद्दों को उठाया, बल्कि एक बड़े सामाजिक समूहों के विस्तृत तथा सर्वव्यापी मुद्दों को भी अपने आंदोलनों में शामिल किया।
• अमेरिका की सेना वियतनाम के खिलाफ खूनी खेल में संलिप्त थी।
• पेरिस में विद्यार्थियों ने श्रमिकों के दल की हड़तालों में शामिल होकर युद्ध के खिलाफ अपना विरोध जतलाया।
• अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग के द्वारा नागरिक अधिकार आंदोलन चलाया गया।
• अश्वेत शक्ति आंदोलन।
• महिलाओं के आंदोलन। पर्यावरण संबंधी आंदोलन।
• शक्तियों के पुनर्गठन के बजाय जीवन-स्तर के सुधार पर अधिक जोर। जैसे-सूचना का अधिकार, पर्यावरण की शुद्धता इत्यादि।
• इस तरह के आंदोलन लंबे समय तक राजनीतिक दलों की छतरी के तले रहना पंसद नहीं करते। इसके बजाय नागरिक सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर गैर सरकारी संगठनों का निर्माण किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि गैर सरकारी संगठन अधिक सक्षम, कम भ्रष्ट तथा स्वतंत्र होते हैं।
भूमंडलीकरण – लोगों की प्रतिबद्धता को आकार देना। संस्कृति, मीडिया, पारराष्ट्रीय कंपनियों, विधिक व्यवस्था-अंतर्राष्ट्रीय। इस कारण से कई सामाजिक आंदोलन अब अं तर्राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण कर चुके हैं। आवश्यक तत्व-पहचान की राजनीति, सांस्कृतिक समग्रता, आकांक्षाएँ।
प्रश्न 4. पर्यावरणीय आंदोलन प्रायः आर्थिक एवं पहचान के मुद्दों को भी साथ लेकर चलते हैं। विवेचना कीजिए।
उत्तर – चिपको आंदोलन पारिस्थतिकीय आंदोलन का एक उपयुक्त उदाहरण है।
यह मिश्रित हितों तथा विचारध राओं का अच्छा उदाहरण हैं। रामचंद्र गुहा अपनी पुस्तक ‘अनक्वाइट वुड्स’ में कहते हैं कि गांववासी अपने गांवों के निकट के ओक तथा रोहडैड्रोन के जंगलों को बचाने के लिए एक साथ आगे आए। जंगल के सरकारी ठेकेदार पेड़ों को काटने के लिए आए तो गाँववासी, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएँ शामिल थीं, आगे बढ़े तथा कटाई रोकने के लिए पेड़ों से चिपक गए। गाँववासी ईंधन के लिए लकड़ी, चारा तथा अन्य दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जंगलों पर निर्भर थे।
उसने गरीब गाँववासियों की आजीविका की आवश्कताओं तथा राजस्व कमाने की सरकार की इच्छा के बीच एक संघर्ष उत्पन्न कर दिया। चिपको आंदोलन ने पारिस्थितिकीय संतुलन के मुद्दे को गंभीरतापूर्वक उठाया। जंगलों का काटा जाना वातावरण के विध्वंस का सूचक है, क्योंकि इससे संबंधित क्षेत्रों में बाढ़ तथा भूस्खलन जैसी प्राकृतिक विपदाओं का खतरा रहता है। इस प्रकार से, अर्थव्यवस्था, पारिस्थितिकी तथा राजनीतिक प्रतिनिधित्व की चिंताएँ चिपको आंदोलन का आधार थी।
प्रश्न 5. कृषक कृषक एवं नव किसानों के आंदोलनों के बीच अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
1. किसान आंदोलन औपनिवेशिक काल से पहले शुरू हुआ। यह आंदोलन 1858 तथा 1914 के बीच स्थानीयता, विभाजन और विशिष्ट शिकायतों से सीमित होने की ओर प्रवृत्त हुआ। कुछ प्रसिद्ध आंदोलन निम्नलिखित है
• 1859 की बंगाल में क्रांति जोकि नील की खेती के विरुद्ध था।
• 1857 का दक्कन विद्रोह जोकि साहूकारों के विरोध में था।
• बारदोली सत्याग्रह जोकि गाँधी जी द्वारा प्रारंभ किया गया तथा भूमि का कर न देने से संबंधित आंदोलन था।
• चंपारन सत्याग्रह (1817-18)-यह नील की खेती के विरुद्ध आंदोलन था।
• तिभागो आंदोलन (1946-47)
• तेलांगना आंदोलन (1946-51)
2. नया किसान आंदोलन 1970 के दशक में पंजाब तथा तमिलनाडु में प्रारंभ हुआ। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्न थीं-
• ये आंदोलन क्षेत्रीय स्तर पर संगठित थे।
• आंदोलनों का दलों से कोई लेना-देना नहीं था।
• इन आंदोलनों में बड़े किसानों की अपेक्षा छोटे-छोटे किसान हिस्सा लेते थे।
• प्रमुख विचारधारा – कड़े रूप में राज्य तथा नगर विरोधी।
• माँग का केंद्रबिंदु – मूल्य आधारित मुद्दे।