NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारतीय समाज) Chapter – 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ (The Challenges of Cultural Diversity)
Textbook | NCERT |
class | 12th |
Subject | Sociology (भारतीय समाज) |
Chapter | 6th |
Chapter Name | सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ |
Category | Class 12th Sociology Question Answer in Hindi |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारतीय समाज) Chapter – 6 सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ (The Challenges of Cultural Diversity)
Chapter – 6
सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ
प्रश्न – उत्तर
अभ्यास प्रश्न – उत्तर
प्रश्न 1. सांस्कृतिक विविधता का क्या अर्थ है? भारत को एक अत्यंत विविधतापूर्ण देश क्यों कहा जाता है?
उत्तर – विविधता से तात्पर्य विभिन्नता से है। अवमानना से नहीं।
जब हम यह कहते हैं कि भारत एक विविधताओं वाला देश है, तो इसका मतलब विभिन्न प्रकार के समुदायों से हैं। भारत में विभिन्न समुदायों के बीच संस्कृतियों की विभिन्नता भाषा, धर्म, कुल, जाति, पंथ इत्यादि के रूप में प्रतिबिंबित होती है।
भारत एक बहुलतावादी समाज है। यहाँ विविधता में एकता है, किंतु अत्यधिक विविधता भारत के लिए एक चुनौती भी है।
जब विभिन्न समुदाय (भाषागत समुदाय, धार्मिक समुदाय, सांप्रदायिक समुदाय इत्यादि) एक राष्ट्र के रूप में समाहित हो जाते हैं तो उनमें एक प्रतिस्पर्धा की भावना उत्पन्न हो जाती है।
सांस्कृतिक विविधता एक चुनौती का रूप ले सकती। है, क्योंकि यह इस बात का सूचक है कि सांस्कृतिक पहचान बहुत ही शक्तिशाली है। इससे एक गहन उत्तेजना की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है तथा अकसर यह अधिसंख्य लोगों के लिए प्रेरणा का काम करती है।
कभी-कभी सांस्कृतिक विभिन्नता आर्थिक तथा सामाजिक अवमानना की वजह से भी उत्पन्न होती है। इससे आगे जटिलता उत्पन्न होती है।
एक समुदाय के साथ हो रहे नाइंसाफ़ी को दूर करने के प्रयास दूसरे समुदाय के लोगों को उत्तेजित कर सकते हैं।
यह स्थिति तब बहुत ही खराब हो जाती है जब सीमित संसाधन जैसे-पानी, रोजगार अथवा सरकारी कोष का वितरण सबों के बीच किया जाता है।
1632 भाषाएँ तथा बोलियाँ, विविध धर्म, मौसम की विविधता तथा प्राकृतिक विविधता भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है।
प्रश्न 2. सामुदायिक पहचान क्या होती है और वह कैस बनती है?
उत्तर – सामुदायिक पहचान जन्म तथा अपनापन पर आधारित होती है न कि किसी अर्जित योग्यता। अथवा उपलब्धि के आधार पर।
इस प्रकार की पहचानें प्रदत्त कहलाती हैं। अर्थात् ये जन्म से निर्धारित होती हैं तथा संबंधित व्यक्तियों की पसंद अथवा नापसंद इसमें शामिल नहीं होती।
लोग उन समुदायों से संबंधित होकर अत्यंत सुरक्षित एवं संतुष्ट महसूस करते हैं।
प्रदत्त पहचाने जैसे कि सामुदायिक पहचान से मुक्ति पाना कठिन होता है। यहाँ तक कि यदि हम इसे अस्वीकार करने की कोशिश करते हैं तब भी लोग उन्हीं चिह्नों से जोड़कर हमारी पहचान हूँढ़ने की कोशिश करते हैं।
सामुदायिक संबंधों के बढ़ते हुए दायरे। जैसे – परिवार, रिश्तेदारी, जाति, भाषा हमारी सार्थकता प्रदान करते हैं तथा हमें पहचान देते हैं।
प्रदत्त पहचाने तथा सामुदायिक भावना सर्वव्यापी होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति की एक मातृभूमि होती है, एक मातृभाषा होती है तथा एक निष्ठा होती है। हम सभी अपनी-अपनी पहचान के प्रति प्रतिबद्ध होते हैं।
समुदाय हमें मातृभाषा, मूल्य एवं संस्कृति प्रदान करता है, जिसके माध्यम से हम विश्व का आकलन करते हैं। यह हमारी स्वयं की पहचान को भी संबंध प्रदान करता है।
समाजीकरण की प्रक्रिया में हमारे आसपास से जुड़े लोगों के साथ निरंतर संवाद शामिल होता है। इसमें माता-पिता, संबंधी, परिवार तथा समुदाय सम्मिलित होता है। अतएव समुदाय हमारी पहचान का एक प्रमुख हिस्सा है।
सामुदायिक प्रतिद्वंद्विता से निपटना बहुत कठिन होता है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक पक्ष एक-दूसरे को अपना दुश्मन समझता है तथा अपनी अच्छाइयों को तथा दूसरों की बुराइयों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करने की उनकी प्रवृत्ति होती है।
यह बात उनके लिए समझना कठिन है, जो कि रचनात्मक जोड़े हैं किंतु दोनों की छवियाँ एक-दूसरों के विपरीत हैं।
कभी दोनों ही पक्ष बिलकुल सही या गलत हो सकते हैं तो कभी इतिहास यह तय करता है कि कौन आक्रामक है और कौन पीड़ित।
लेकिन यह तब होता है जब मामला शांत हो गया होता है।
पहचान संबंधी द्वंद्व की स्थिति में परस्पर सम्मत सच्चाई के किसी भाव को स्थापित करना बहुत कठिन होता है।
प्रश्न 3. राष्ट्र को परिभाषित करना क्यों कठिन है? आधुनिक समाज में राष्ट्र और राज्य कैसे संबंधित हैं?
उत्तर – राष्ट्र एक अनूठे किस्म का समुदाय होता है, जिसका वर्णन तो आसान है पर इसे परिभाषित करना कठिन है।
हम ऐसे अनेक विशिष्ट राष्ट्रों का वर्णन कर सकते हैं, जिनकी स्थापना साझे – धर्म, भाषा, नृजातीयता, इतिहास अथवा क्षेत्रीय संस्कृति जैसी साझी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक संस्थाओं के आधार पर की गई है।
किंतु किसी राष्ट्र के पारिभाषिक लक्षणों को निर्धारित करना कठिन है।
प्रत्येक संभव कसौटी के लिए अनेक अपवाद तथा विरोधी उदाहरण पाए जाते हैं।
उदाहरण के लिए, ऐसे बहुत से राष्ट्र हैं जिनकी एक समान भाषा, धर्म, नृजातीयता इत्यादि नहीं हैं। दूसरी तरफ ऐसी अनेक भाषाएँ, धर्म या नृजातियाँ हैं जो कई राष्ट्रों में पाई जाती हैं। लेकिन इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि यह सभी मिलकर एक एकीकृत राष्ट्र का निर्माण करते हैं। सरल शब्दों में कहें तो राष्ट्र समुदायों का समुदाय है। एक राजनीतिक समूहवाद के अंतर्गत किसी देश में नागरिक अपनी आवश्यकताओं का सहभाजन करते हैं। राष्ट्र ऐसे समुदायों से निर्मित होते हैं, जिनके अपने राज्य होते हैं।
आधुनिक काल में राष्ट्र तथा राज्य के बीच एकैक (एक-एक) का संबंध है। लेकिन यह एक नया विकास है। पूर्व में यह बात सत्य नहीं थी कि एक अकेला राज्य केवल एक ही राष्ट्र का प्रतिनिधित्व कर सकता है। तथा प्रत्येक राष्ट्र को अपना एक राज्य होना जरूरी है।
उदाहरण के तौर पर, सोवियत संघ ने यह स्पष्ट रूप से मान रखा था कि जिन लोगों पर उनका शासन था, वे विभिन्न राष्ट्रों के थे।
इसी प्रकार से, एक राष्ट्र का अस्तित्व प्रदान करने वाले लोग हो सकता है कि विभिन्न राज्यों के नागरिक या निवासी हों। उदाहरणार्थ, संपूर्ण जमैकावासियों में जमैका से बाहर रहने वालों की संख्या इसके भीतर रहने वालों की संख्या से अधिक दोहरी नागरिकता’ की स्थिति भी संभव है। यह कानून किसी राज्य विशेष के नागरिक को एक ही समय में दूसरे राज्य का नागरिक बनने की अनुमति देता है। उदाहरणार्थ, यहूदी जाति के अमेरिकी लोग एक ही साथ इजराइल तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के नागरिक हो सकते हैं।
अतएव राष्ट्र एक ऐसा समुदाय है, जिसके पास अपना राज्य होता है। यह देखने में आया है कि राज्य यह दावा करना ज्यादा आवश्यक मान रहे हैं। कि वो एक राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हैं।
आधुनिक युग का एक विशिष्ट लक्षण है राजनीतिक वैधता के प्रमुख स्रोतों के रूप में लोकतंत्र तथा राष्ट्रवाद की स्थापना। इसका तात्पर्य यह है कि आज एक राज्य के लिए राष्ट्र एक सर्वाधिक स्वीकृत अथवा औचित्यपूर्ण आवश्यकता है, जबकि लोग राष्ट्र की वैधता के अहं स्रोत हैं
प्रश्न 4. राज्य अकसर सांस्कृतिक विविधता के बारे में शंकालु क्यों होते हैं?
उत्तर – राज्यों ने अपने राष्ट्र निर्माण की रणनीतियों के माध्यम से अपनी राजनीतिक वैधता को स्थापित करने के प्रयास किए हैं।उन्होंने आत्मसातकरण और एकीकरण की नीतियों के जरिए अपने नागरिकों की निष्ठा तथा आज्ञाकारिता प्राप्त करने के प्रयास किए हैं।
ऐसा इसलिए था क्योंकि अधिकांश राज्य ऐसा मानते थे कि सांस्कृतिक विविधता खतरनाक है। तथा उन्होंने इसे खत्म करने अथवा कम करने का पूरा प्रयास किया। अधिकांश राज्यों को यह डर था। कि सांस्कृतिक विविधता जैसे भाषा, नृजातीयता, धार्मिकता इत्यादि की मान्यता प्रदान किए जाने से सामाजिक विखंडन की स्थिति उत्पन्न की जाएगी और समरसतापूर्ण समाज के निर्माण में बाधा आएगी।
इसके अतिरिक्त इस प्रकार के अंतरों को समायोजित करना राजनीतिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण होता है।
इस प्रकार से अनेक राज्यों ने इन विविध पहचानों को राजनीतिक स्तर पर दबाया या नजरअंदाज किया।
प्रश्न 5. क्षेत्रवाद क्या होती है? आमतौर पर यह किन कारकों पर आधारित होता है?
उत्तर – भारत में क्षेत्रवाद की जड़े यहाँ की विविध भाषाओं, संस्कृतियों-जनजातियों तथा विविध धर्मों पर आधारित हैं।
इस तरह के विशेष क्षेत्रों को उनके पहचान चिह्नों की भौगोलिक संकेंद्रण के कारण भी प्रोत्साहन मिलता है तथा क्षेत्रीय वंचने का भाव आग में घी का काम करता है। भारत का बँटवारा इस प्रकार के क्षेत्रवाद को संरक्षण प्रदान करने का एक माध्यम रहा है। ‘प्रेसीडेंसी’ से राज्य तक का सफर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी प्रारंभ में भारतीय राज्यों में ब्रिटिश-भारतीय व्यवस्था ही बनी रही। इसके अंसर्गत भारत बड़े-बड़े प्रांतों, जिन्हें, ‘प्रेसीडेंसी’ कहा जाता था, बँटा हुआ था। भारत में उस समय तीन बड़ी प्रेसीडेंसियाँ-मद्रास, बंबई तथा कलकत्ता थीं।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद तथा संविधान को अंगीकार किए जाने के पश्चात् औपनिवेशिक काल की इन सभी इकाइयों को तीव्र लोक आंदोलनों के कारण भारतीय संघ के भीतर नृजातीय-भाषाई राज्यों के रूप में पुनर्गठित करना पड़ा।
धर्म के बजाय भाषा ने क्षेत्रीय तथा जनजातीय पहचान के साथ मिलकर भारत में नृजातीय राष्ट्रीय पहचान बनाने के लिए अत्यंत व्यस्त माध्यम का काम किया है?
किंतु इसका मतलब यह नहीं है कि सभी भाषाई समुदायों को पृथक राज्य प्राप्त हो गया। उदाहरण के तौर पर तीन राज्यों-छत्तीसगढ़, उत्तरांचल तथा झारखंड के निर्माण को देखा जा सकता है। इन राज्यों के निर्माण में भाषा की कोई भूमिका नहीं थी। इनकी स्थापना के पीछे जनजातीय पहचान, भाषा, क्षेत्रीय वंचन तथा परिस्थिति पर आधारित नृजातीयता की प्रमुख भूमिका थी।
प्रश्न 6. आपकी राय में, राज्यों के भाषाई पुनगठन ने भारत का हित या अहित किया है?
उत्तर – धर्म ही नहीं बल्कि भाषा ने क्षेत्रीय तथा जनजातीय पहचान के साथ मिलकर भारत में नृजातीय-राष्ट्रीय पहचान बनाने के लिए एक अत्यंत सशक्त माध्यम का काम किया। भाषा के कारण संवाद सुगम बना तथा प्रशासन और अधिक प्रभावकारी हो पाया।
मद्रास प्रेसीडेंसी मद्रास, केरल तथा मैसूर राज्यों में विभाजित हो गया। राज्य पुनर्गठन आयोग (SRC) की रिपोर्ट, जिसका कि क्रियान्वयन 1 नवंबर, 1956 में किया गया – ने राष्ट्र को राजनीतिक तथा संस्थागत जीवन की एक नई दिशा दी।
केन्नड़ और भारतीय, बंगाली और भारतीय, तमिल और भारतीय, गुजराती और भारतीय के रूप में देश में एकात्मकता बनी रही।
सन् 1953 में पोट्टि श्रीमुलु की अनशन के कार मृत्यु हो जाने के पश्चात् हिंसा भड़क उठी। तत्पश्चात् आंध्र प्रदेश राज्य का गठन हुआ। इसके कारण ही राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना करनी पड़ी जिसने 1956 में भाषा आधारित सिद्धांत के अनुमोदन पर औपचारिक रूप से अंतिम मोहर लगा दी। भाषा पर आधारित राज्य कभी-कभी आपस में लड़ते-भिड़ते हैं। यद्यपि इस तरह के विवाद अच्छे नहीं होते, किंतु ये और भी खराब हो सकते थे। वर्तमान में 29 राज्य (संघीय इकाई) तथा 7 केंद्रशासित प्रदेश भारतीय राष्ट्र-राज्य में विद्यमान हैं।
प्रश्न 7. ‘अल्पसंख्यक’ (वर्ग) क्या होता है? अल्पसंख्यक वर्गों को राज्य से संरक्षण की क्यों ज़रूरत होती है?
उत्तर – अल्पसंख्यक शब्द से तात्पर्य आमतौर पर सुविधा वंचित समूह होता है। सुविधासंपन्न अल्पसंख्यक वर्ग जैसे कि धनी अल्पसंख्यक वर्ग को सामान्यतः अल्पसंख्यक नहीं माना जाता। यदि उन्हें इस श्रेणी में रखा भी जाता है, तो उन्हें ‘सुविधासंपन्न अल्पसंख्यक’ कहा जाता है।
जब अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग वगैर किसी योग्यता के किया जाता है तो यह तुलनात्मक रूप से बड़े तथा सुविधावंचित समूह को प्रतिबिंबित करता है। समाजशास्त्रीय अवधारणा के अनुसार अल्पसंख्यक समूह के सदस्यों में सामूहिकता की भावना होती है। उनमें सामूहिक एकता तथा एक दूसरे के जान-माल के साथ घनिष्ठतापूर्वक जुड़े रहने की भावना होती है।
यह सुविधाहीनता से जुड़ा हुआ है ताकि पूर्वाग्रह। तथा भेदभाव के शिकार होने के कारण इन समूहों में अंतर-सामूहिक निष्ठा तथा आत्मीयता बढ़ जाती है।
जो समूह सांख्यिकीय दृष्टि से अल्पसंख्यक होते हैं, जैसे बाएँ हाथ से काम करने वाले अथवा 29 फरवरी को पैदा होने वाले, समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से अल्पसंख्यक नहीं होते, क्योंकि वे किसी सामूहिकता का निर्माण नहीं करते। धार्मिक तथा सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों के प्रभुत्व के कारण संरक्षण की आवश्यकता होती है।
इस तरह के समूह राजनीतिक रूप से भी असुरक्षित होते हैं। उन्हें इस बात का हमेशा डर बना रहता है कि बहुसंख्यक समुदाय सत्ता पर कब्ज़ा करके उनकी सांस्कृतिक तथा धार्मिक संस्थाओं पर दमन करना प्रारंभ कर देगा तथा अंततोगत्वा उन्हें अपनी पहचान से हाथ धोना पड़ेगा।
अपवाद
धार्मिक अल्पसंख्यक जैसे पारसी अथवा सिख यद्यपि आर्थिक रूप से संपन्न समुदाय हैं, किंतु सांस्कृतिक दृष्टि से वे अब भी वंचित समुदाय हैं, क्योंकि हिंदू समुदाय की तुलना में उनकी संख्या बहुत ही कम है।
दूसरी बड़ी समस्या राज्य की उस प्रतिबद्धता को लेकर है, जिसमें कि वह एक तरफ तो धर्मनिरपेक्षता की बात कहता है और दूसरी तरफ अल्पसंख्यकों के संरक्षण की भी बात करता है।
अल्पसंख्यकों को सरकार के द्वारा संरक्षण प्रदान किया जाना, इसलिए भी आवश्यक है ताकि वे राजनीति की मुख्यधारा में बहुसंख्यकों की तरह ही शामिल हो सकें।
किंतु इसे कुछ लोग पक्षपातपूर्ण नीति का एक अंग भी मानते हैं, लेकिन संरक्षण के समर्थन करने वाले लोगों का मानना है कि यदि अल्पसंख्यकों को सरकार द्वारा इस प्रकार से संरक्षण नहीं प्रदान किए जाने पर अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों के मूल्य तथा मान्यताओं को वलात् झेलने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।
प्रश्न 8. सांप्रदायवाद या सांप्रदायिकता क्या है?
उत्तर – सांप्रदायिकता या सांप्रदायवाद का अर्थ है-पहचान पर आधारित आक्रामक उग्रवाद। उग्रवाद एक ऐसी प्रवृत्ति है जो अपने ही समूह को वैध अथवा सर्वश्रेष्ठ मानती है तथा अन्य समूहों को निम्न, अवैध तथा अपना विरोधी समझती है।
सांप्रदायिकता धर्म से जुड़ी एक आक्रामक राजनीतिक विचारधारा है।
यह एक अनूठा भारतीय या संभवत: दक्षिण एशियाई अर्थ है जो साधारण अंग्रेज़ी शब्द के भाव से भिन्न अंग्रेजी भाषा में ‘कम्युनल’ (Communal) का अर्थ होता है – समुदाय अथवा सामूहिकता से जुड़ा हुआ, जो कि व्यक्तिवाद से भिन्न होता है। इस शब्द का अंग्रेज़ी अर्थ तटस्थ है जबकि दक्षिण एशियाई अर्थ प्रबल रूप से आवेशित है।
सांप्रदायिकता का सरोकार राजनीति से है, धर्म से नहीं। यद्यपि संप्रदायवादी धर्म के साथ गहन रूप से जुड़े होते हैं तथापि व्यक्तिगत विश्वास और संप्रदायवाद के बीच अनिवार्य रूप से कोई संबंध नहीं होता। एक संप्रदायवादी श्रद्धालु हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। इसी प्रकार से श्रद्धालु लोग संप्रदायवादी हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते।
संप्रदायवादी आक्रामक राजनीतिक पहचान बनाते हैं। और ऐसे प्रत्येक व्यक्ति की निंदा करने या उस पर आक्रमण करने के लिए तैयार रहते हैं, जो उनकी पहचान की साझेदारी नहीं करता।
सांप्रदायिकता की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह अपनी धार्मिक पहचान के रास्ते में आने वाली हर चीज को रौंद डालता है। यह एक विशाल तथा विभिन्न प्रकार के सजातीय समूहों का निर्माण करता है।
भारत में सांप्रदायिक दंगों के उदाहरण-सिख विरोधी दंगे 1984, गुजरात के दंगे इत्यादि।
किंतु भारत में धार्मिक बहुलवाद की भी एक सुदीर्घ पंरपरा रही है। इसमें शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व से लेकर वास्तविक अंतर मिश्रण या समन्वयवाद शामिल है। यह समन्वयवादी विरासत भक्ति और सूफी आंदोलनों के भक्ति गीतों और काव्यों में स्पष्टतः दृष्टिगोचर होती है।
प्रश्न 9. भारत में वह विभिन्न भाव (अर्थ) कौन से हैं, जिनमें धर्मनिरपेक्षता या धर्मनिरपेक्षतावाद को समझा जाता है?
उत्तर – भारत में धर्मनिरपेक्षतावाद से तात्पर्य यह है कि राज्य किसी भी धर्म का समर्थन नहीं करेगा। यह सभी धर्मों को समान रूप से आदर प्रदान करता है। यह धर्मों से दूरी बनाए रखने का भाव प्रदर्शित नहीं करता।
पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्षतावाद का अर्थ चर्च तथा राज्य के बीच अलगाव से लिया जाता है। यह सार्वजनिक जीवन से धर्म को अलग करने का एक प्रगतिशील कदम माना जाता है, क्योंकि धर्म का एक अनिवार्य दायित्व के बजाय स्वैच्छिक व्यक्तिगत व्यवहार के रूप में बदल दिया गया।
धर्मनिरपेक्षीकरण स्वयं आधुनिकता के आगमन और विश्व को समझने के धार्मिक तरीकों के विकल्प के रूप में विज्ञान और तर्कशक्ति के उदय से संबंधित था।
कठिनाई तथा तनाव की स्थिति तब पैदा हो जाती है। जबकि पाश्चात्य राज्य सभी धर्मों से दूरी बनाए रखने के पक्षधर हैं, जबकि भारतीय राज्य सभी धर्मों को समान रूप से आदर देने के पक्षधर हैं।
प्रश्न 10. आज नागरिक समाज संगठनों की क्या प्रासंगिकता है?
उत्तर – नागरिक समाज उस व्यापक कार्यक्षेत्र को कहते हैं।
जो परिवार के निजी क्षेत्र से परे होता है किंतु राज्य तथा बाज़ार दोनों ही क्षेत्रों से बाहर होता है।नागरिक समाज सार्वजनिक क्षेत्रों का गैर-राज्यीय तथा गैर-बाजारी हिस्सा ही है। इसमें व्यक्ति संस्थाओं तथा संगठनों के निर्माण के लिए एक-दूसरे के साथ जुड़ जाते हैं।
यह राष्ट्रीय नागरिकता का क्षेत्र है। व्यक्ति सामाजिक मुद्दों को उठाते हैं। सरकार को प्रभावित करने तथा अपनी माँगों को मनवाने की कोशिश करते हैं। अपने सामूहिक हितों को सरकार के समक्ष रखते हैं तथा विभिन्न मुद्दों पर लोगों का सहयोग माँगते हैं।
इसमें नागरिकों के समूहों के द्वारा बनाई गई स्वैच्छिक संस्थाएँ शामिल होती हैं। इसमें राजनीतिक दल, जनसंचार की संस्थाएँ, मजदूर संगठन, गैर सरकारी संगठन, धार्मिक संगठन तथा अन्य प्रकार के सामूहिक संगठन शामिल होते हैं।
नागरिक समाज के गठन की एक प्रमुख शर्त यह है कि यह राज्य द्वारा नियंत्रित नहीं होना चाहिए तथा यह विशुद्ध रूप से लाभ कमाने वाली संस्था नहीं होनी चाहिए।
उदाहरण के तौर पर दूरदर्शन नागरिक समाज का हिस्सा नहीं है जबकि अन्य निजी चैनल हैं। भारतीयों की सत्तावादी भावना का अनुभव आपातकाल के दौरान हुआ था जोकि जून 1975 से 1977 तक रहा था। आपातकाल के दौरान जबरदस्ती वंध्याकरण के कार्यक्रम चलाए गए, मीडिया पर सेंसरशिप लागू कर दी गई तथा सरकारी कर्मियों पर अनुचित दबाव डाला गया। इस तरह से नागरिक स्वतंत्रता का हनन कर दिया गया।
वर्तमान काल में नागरिक समाज
आज नागरिक समाज संगठनों की गतिविधियाँ विभिन्न मुद्दों को लेकर व्यापक स्वरूप ग्रहण कर चुकी हैं। इनमें राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय अभिकरणों के साथ तालमेल के साथ ही प्रचार करने तथा विभिन्न आंदोलनों में सक्रियतापूर्वक भाग लेना स्वाभाविक है।
नागरिक संगठनों के द्वारा जिन प्रमुख मुद्दों को उठाया गया है, वे हैं- भूमि के अधिकारों के लिए जनजातीय संघर्ष, नगरीय शासन का हस्तातंरण, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा तथा बलात्कार के विरुद्ध आवाज, प्राथमिक शिक्षा में सुधार इत्यादि।
नागरिक समाज के क्रियाकलापों में जनसंचार के माध्यमों की भी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
उदाहरण के तौर पर, सूचना के अधिकार को लिया जा सकता है। इसकी शुरुआत ग्रामीण राजस्थान के विभिन्न हिस्सों में एक ऐसे आंदोलन के साथ हुई थी, जो वहाँ के गाँवों के विकास पर खर्च की गई सरकारी निधियों के बारे में सूचना देने के लिए चलाया गया था। आगे चलकर इस आंदोलन ने राष्ट्रीय अभियान का रूप ग्रहण कर लिया। नौकरशाही के विरोध के बावजूद सरकार को इस अभियान की सुनवाई करनी पड़ी तथा औपचारिक रूप से एक नया कानून बनाना पड़ा। इसके अंतर्गत नागरिकों के सूचना के अधिकार को मान्यता देनी पड़ी।