NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारतीय समाज) Chapter – 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरंतरता एवं परिवर्तन (The Social Institutions: Continuity and Change) Notes In Hindi

NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारतीय समाज) Chapter – 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरंतरता एवं परिवर्तन (The Social Institutions: Continuity and Change) 

TextbookNCERT
class12th
SubjectSociology (भारतीय समाज)
Chapter3rd 
Chapter Nameसामाजिक संस्थाएँ : निरंतरता एवं परिवर्तन (The Social Institutions: Continuity and Change)
CategoryClass 12th Sociology (भारतीय समाज)
Medium Hindi
SourceLast Doubt
NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारतीय समाज) Chapter – 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरंतरता एवं परिवर्तन (The Social Institutions: Continuity and Change) Notes In Hindi में आज हम सभी सामाजिक निरंतरता क्या है?, भारतीय समाज निरंतरता कैसे बनाए रखता है? जाति व्यवस्था में पृथक्करण और अधिकतम की क्या भूमिका है?, समाज कितने प्रकार के होते हैं?, समाज में व्यक्ति की क्या जिम्मेदारी होनी चाहिए? समुदाय, समाज, भारतीय समाज की प्रमुख संस्थाएँ, जाति एवं जाति व्यवस्था, भारतीय समाज में वर्ण, विभिन्न वर्गों के कार्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, वर्ण और जाति में अन्तर, भारत सरकार का अधिनियम (1935) और प्रबल जाति, इत्यादि के बारे में पढ़ेंगे। 

NCERT Solutions Class 12th Sociology (भारतीय समाज) Chapter – 3 सामाजिक संस्थाएँ : निरंतरता एवं परिवर्तन (The Social Institutions: Continuity and Change) 

Chapter – 3

सामाजिक संस्थाएँ : निरंतरता एवं परिवर्तन

Notes

समुदाय और समाज – जनसंख्या सिर्फ अलग-अलग अनजान व्यक्तियों का समूह नहीं है। बल्कि यह विभिन्न प्रकार के आपस में संबंधित वर्गों व समुदाय से बना हुआ समाज है।

भारतीय समाज की प्रमुख संस्थाएँ – भारतीय समाज की तीन प्रमुख संस्थाएँ है

1. जाति
2. जनजाति
3. परिवार

भारत में जाति एवं जाति व्यवस्था – प्रत्येक भारतीय नागरिक की तरह हम सभी यह जानते है की ‘जाति’ एक प्राचीन नाम व्यवस्था या फिर संस्था है जो कि आज से नहीं बल्कि हजारों वर्षों से भारतीय इतिहास एवं भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है परंतु 21वीं सदी में रहने वाले किसी भी भारतवासी की तरह आप यह भी जानते होंगे कि ‘जाति’ केवल हमारे अतीत का नहीं बल्कि हमारे आज का भी एक अभिन्न अंग है।

जाति 

• जाति एक ऐसी सामाजिक संस्था है जो भारत में हजारों सालों से प्रचलित है।
• जाति अंग्रेजी के शब्द-कास्ट (Caste) जो कि पुर्तगाली शब्द कास्ट से बना है। इसका अर्थ है-विशुद्ध नस्ल।
• जाति एक ऐसा शब्द है जो किसी वंश को संबोधित करने के लिए किया जाता है। इसमें पेड़-पौधे, जीव जन्तु तथा मनुष्य भी शामिल हैं।
• भारत में दो विभिन्न शब्दों है जैसे वर्ण एवं जाति।

वर्ण का अर्थ – वर्ण का अर्थ ‘रंग’ होता है।

हमारे समाज में वर्ण – भारतीय समाज में चार वर्ण माने गए हैं 

1. ब्राह्मण
2. क्षत्रिय
3. वैश्य
4. शूद्र

विभिन्न वर्गों के कार्य 

ब्राह्मण

• यह पुस्तकों तथा ग्रंथों का अध्ययन करते थे
• वेदों से शिक्षा प्राप्त करते थे
• यज्ञ करवाना और यज्ञ करना इनका कार्य था
• यह दान दक्षिणा लेते थे एवं देते थे 

क्षत्रिय

• यह समय पड़ने पर युद्ध करते थे
• यह राजाओं को सुरक्षा प्रदान करते थे
• वेदों को पढ़ना और यज्ञ कराने का कार्य करते थे
• यह जनता के बीच न्याय कराने का कार्य करते थे

वैश्य 

• यह व्यापार करते थे
• पशुपालन करते थे
• कृषि करना इनका का मुख्य कार्य था
• दान दक्षिणा देना इनके मुख्य कार्यो में से एक है 

शुद्र – यह तीनों वर्गों की सेवा करने का कार्य करते थे इनका मुख्य कार्य इन तीनों की सेवा करने का था।

वर्ण और जाति में अन्तर

वर्णजाति
वर्ण कर्म प्रधान हैजाति जन्म प्रधान है
वर्ण व्यवस्था लचीली हैजाति व्यवस्था कठोर है
वर्ण व्यवस्था में मात्र चार भाग होते हैंजातीय में अनेकों जातियां होती हैं

भारतीय जाति की विशेषताएं – जी . एस . घुरिये (G. S. Ghurye) ने जाति की निम्नलिखित विशेषताओं का वर्णन किया है 

1. समाज का खण्डात्मक विभाजन – जाति व्यवस्था की यह प्रमुख विशेषता है। इसके अनुसार हिन्दु समाज को चार खण्डों में बांटा गया है – बाह्मण, क्षेत्रिय, वेश्य व शुद्र। प्रत्येक की अलग जीवनशैली है।

2. संस्तरण – जातियों का खण्डात्मक विभाजन समानता के आधार पर नहीं है। इनके मध्य संस्तरण पाया जाता है अर्थात् इनमें उच्चता व निम्नता का क्रम होता है। जाति व्यवस्था में ब्राह्मणो का सर्वोच्च क्रम पर रखा गया है तत्पश्चात, क्षत्रिय, वेश्य व शुद्र आते है।

3. परम्परागत व्यवसाय – पारंपरिक तौर पर जातियाँ व्यवसाय से जुड़ी होती थीं। एक जाति जन्म लेने वाला व्यक्ति उस जाति से जुड़े व्यवसाय को ही अपना सकता था, अतः वह व्यवसाय वंशानुगत थे। वह व्यवसाय दुसरी जातियों को करने की स्वीकृति नहीं थी।

4. भोजन व सहवास संबंधी प्रतिबंध – जाति सदस्यता में खाने और खाना बाँटने के बारे में नियम भी शामिल होते हैं। किस प्रकार का खाना खा सकते हैं और किस प्रकार का नहीं यह निर्धारित है और किसके साथ खाना बाँटकर खाया जा सकता है यह भी निर्धारित होता है।

5. अंतर्विवाही- जातियों की निरन्तरता का एक कारण जातियों का अन्तर्विवाही होना है। व्यक्तियों का विवाह अपनी ही जाति में किया जाता है। इस नियम का कठोरता से पालन किया जाता था। वर्तमान मे भी अधिकांश विवाह अपनी जाति समूह में किये जाते हैं।

6. जन्मजात सदस्यता – जाति की सदस्यता प्रदत्त होती है जो जन्म से प्राप्त हो जाती है। यह आजीवन बनी रहती है। इसे बदला नहीं जा सकता है।

7. धार्मिक व सामाजिक विशेषाधिकार व निर्योग्यताएं – जातियों के धार्मिक व सामाजिक विशेषाधिकार व निर्योग्यताए जुड़ी हुई है। जैसे ब्राह्मणों का धार्मिक कार्य करने के लिए विशेषाधिकार प्रदान किये गये हैं। दूसरी तरफ दलित जातियों पर अनेक प्रकार की निर्योग्यताए थोपी गई है। जैसे मन्दिरो में प्रवेश न देना। 

8. जातियों का उप जातियों में विभाजन – प्रत्येक जाति अनेक उप जातियों में बंटी होती है। जिसे हम गौत्र कहते है। प्रत्येक अपनी उपजातियों से बाहर विवाह करते है। इस प्रकार कह सकते है कि जाति व्यवस्था एक भारतीय अवधारणा है विश्व के अन्य समाजों ऐसी विशेषता नहीं मिलती।

भारत के प्राचीन समय मे जाति व्यवस्था – वैदिक काल में जाति व्यवस्था बहुत विस्तृत तथा कठोर नहीं थी। लेकिन वैदिक काल के बाद यह व्यवस्था बहुत कठोर हो गई। जाति जन्म निर्धारित होने लगी। विवाह, खान-पान आदि के कठोर नियम बन गए। व्यवसाय को जाति से जोड़ दिया जो वंशानुगत थे, इसे एक सीढ़ीनुमा व्यवस्था बना दिया, जो ऊपर से नीचे जाती है।

जाति को समझना – जाति को दो समुदायों के मिश्रण के रूप में जाना जा सकता है।

1. भिन्नता व अलगाव
2. सम्पूर्णता व अधिकम

प्रत्येक जाति अन्य जाति से भिन्न है – शादी, पेशे व खान-पान के सम्बन्ध में प्रत्येक जाति का एक विशिष्ट स्थान होता है 

श्रेणी अधिक्रम में जातियों का अधार – ‘शुद्धता’ और ‘अशुद्धता’ होता है। वे जातियाँ शुद्ध या पवित्र मानी जाती है जो कर्मकाण्डो और धार्मिक कृत्यों में संलग्न रहती है। इसके विपरीत अंसस्कारित जातियाँ अशुद्ध या अपवित्र मानी जाती है।

उपनिवेशवाद तथा जाति व्यवस्था – आधुनिक काल में जाति पर औपनिवेशिक काल व स्वतंत्रता के बाद का प्रभाव है। ब्रिटिश शासकों के कुशलता पूर्वक शासन करने के लिए जाति व्यवस्था की जटिलताओं को समझने का प्रयास किया। 1901 में हरबर्ट रिजले ने जनगणना शुरु की जिसमें जातियाँ गिनी गई।

भूराजस्व व्यवस्था व उच्च जातियों को वैध मान्यता दी गई।

प्रशासन ने पददलित जातियों, जिन्हें उन दिनों दलित वर्ग कहा जाता था, के कल्याण में भी रूचि ली।

भारतीय सरकार का अधिनियम (1935) – भारत सरकार का अधिनियम -1935 में अनुसूचित जाति व जनजाति को कानूनी मान्यता दी गई। इसमें उन जातियों को शामिल किया गया जो औपनिवेशिक काल में सबसे निम्न थी। इनके कल्याण की योजनाएँ बनीं।

जाति को समझना – जाति को दो समुदायों के मिश्रण के रूप में जाना जा सकता है।

1. भिन्नता व अलगाव
2. सम्पूर्णता व अधिकम

प्रत्येक जाति अन्य जाति से भिन्न है – शादी, पेशे व खान-पान के सम्बन्ध में प्रत्येक जाति का एक विशिष्ट स्थान होता है 

श्रेणी अधिक्रम में जातियों का अधार – ‘शुद्धता’ और ‘अशुद्धता’ होता है। वे जातियाँ शुद्ध या पवित्र मानी जाती है जो कर्मकाण्डो और धार्मिक कृत्यों में संलग्न रहती है। इसके विपरीत अंसस्कारित जातियाँ अशुद्ध या अपवित्र मानी जाती है।

उपनिवेशवाद तथा जाति व्यवस्था – आधुनिक काल में जाति पर औपनिवेशिक काल व स्वतंत्रता के बाद का प्रभाव है। ब्रिटिश शासकों के कुशलता पूर्वक शासन करने के लिए जाति व्यवस्था की जटिलताओं को समझने का प्रयास किया। 1901 में हरबर्ट रिजले ने जनगणना शुरु की जिसमें जातियाँ गिनी गई।

भूराजस्व व्यवस्था व उच्च जातियों को वैध मान्यता दी गई।

प्रशासन ने पददलित जातियों, जिन्हें उन दिनों दलित वर्ग कहा जाता था, के कल्याण में भी रूचि ली।

भारतीय सरकार का अधिनियम (1935) – भारत सरकार का अधिनियम -1935 में अनुसूचित जाति व जनजाति को कानूनी मान्यता दी गई। इसमें उन जातियों को शामिल किया गया जो औपनिवेशिक काल में सबसे निम्न थी। इनके कल्याण की योजनाएँ बनीं।

जाति का समकालीन रूप – आजाद भारत में राष्ट्रवादी आन्दोलन हुए, जिनमें दलितों को संगठित किया गया। ज्योतिबा फूले, पेरियार, बाबा अम्बेडकर इन आन्दोलनों के अग्रणी थे।

राज्य के कानून जाति प्रथा के उन्मूलन के लिए प्रतिबद्ध थे। इसके लिए कुछ ठोस कदम उठाए गए जैसे अनुसूचित जाति तथा जनजाति को आरक्षण, आधुनिक उद्योगों में जाति प्रथा नहीं है, शहरीकरण द्वारा जाति प्रथा कमजोर हुई है।

सांस्कृतिक व घरेलू क्षेत्रों में जाति सुदृढ़ सिद्ध हुई। अंतर्विवाह, आधुनिकीकरण व परिवर्तन से भी अप्रभावित रही पर कुछ लचीली हो गई।

संस्कृतिकरण – ऐसी प्रक्रिया जिसके द्वारा (आमतौर पर मध्यम निम्न) निम्न जाति के सदस्य उच्च जाति की धार्मिक क्रियाएँ, घरेलू या सामाजिक परिपाटियों को अपनाते हैं, संस्कृतिकरण कहलाती है। एम. एन. श्री निवास ने संस्कृतिकरण व प्रबल जाति की संकल्पना बनाई।

प्रबल जाति – वह जाति जिसकी संख्या बड़ी होती है, भूमि के अधिकार होते हैं तथा राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक रूप से प्रबल होते हैं, प्रबल जाति कहलाती है। बिहार में यादव, कर्नाटक में बोक्कलिंग, महाराष्ट्र में मराठी आदि।

वर्तमान में जाति व्यवस्था – समकालीन दौर में जाति व्यवस्था उच्च जातियों, नगरीय मध्यम व उच्च वर्गों के लिए अदृश्य होती जा रही है।

अभिजात वर्ग – आज विशेषकर शहरों में विभिन्न जातियों के लोग अच्छी व तकनीकी शिक्षा और योग्यता पाकर एक विशेष वर्ग में परिवर्तित हो गए है। वे अभिजात वर्ग कहलाते है। राजनीति और उद्योग व्यापार में भी इन जातियों का वर्चस्व बढ़ने लगा है। इस प्रकार हम कह सकते है कि अभिजात वर्ग के सदस्यों की मूल जाति अदृश्य हो गई है।

दूसरी ओर अनुसूचित जातियाँ, जनजातियाँ और पिछड़ी जातियाँ सरकारी नीतियों के तहत आरक्षण का लाभ प्राप्त कर उच्च स्तर की नौकरियों में और उच्च शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश पा रही है। इस प्रकार हम कह सकते है कि आरक्षण का लाभ पाने के कारण जाति उजागर या दृश्य हो जाती है।

जनजातीय समुदाय – जनजातियाँ ऐसे समुदाय थे जो किसी लिखित धर्मग्रन्थ के अनुसार किसी धर्म का पालन नहीं करते। ये विरोध का रास्ता गैर जनजाति के प्रति अपनाते हैं। इसी का परिणाम है कि झारखण्ड व छत्तीसगढ़ बन गए।

जनजातीय समाजों का वर्गीकरण 

1. स्थायी विशेषक
2. अर्जित विशेषक

स्थायी विशेषक – इसमें क्षेत्र, भाषा, शारीरिक गठन सम्मिलित हैं।

अर्जित विशेषक – जनजातियों में जीवन यापन के साधन तथा हिन्दु समाज की मुख्य धारा से जुड़ना है।

मुख्यधारा के समुदायों का जनजातियों के प्रति दृष्टिकोण – जनजातियों समाजों को राजनीतिक तथा आर्थिक मोर्चे पर साहूकारों तथा महाजनों के दमनकारी कुचक्रों को सहना पड़ा। 1940 के दशक के दौरान पृथक्करण बनाम एकीकरण विषय पर बहस चली तो यह तस्वीरें सामने आईं।

पृथक्करण – कुछ विद्वानों को मानना था कि जनजातियों की गैर जनजातीय समुदाय से रक्षा की जानी चाहिए। क्योंकि ये सभी लोग जनजातियों का अलग अस्तित्व मिटाकर उन्हें भूमिहीन श्रमिक बनाना चाहते हैं।

एकीकरण – कुछ विद्वानों का मत था कि जनजातियों के विकास पर ध्यान देना चाहिए।

राष्ट्रीय विकास बनाम जनजातीय विकास – बड़ी बड़ी परियोजनाओं के परिणाम स्वरूप जातीय समुदायों को बुरी तरह प्रभावित किया है। बड़े-बड़े बांध बनाए गए, कारखाने स्थापित किए गए और खानों की खुदाई शुरु की गई। इस प्रकार के विकास से जनजातियों की हानि की कीमत पर मुख्यधारा के लोग लाभान्वित हुए। अधिकांश जनजातीय समुदाय वनों पर आश्रित थे, इसलिए वन छिन जाने से उन्हें भारी धक्का लगा। जनजातीय संस्कृति विलुप्त हो रही है। विकास की आड़ में बड़े पैमाने पर उन्हें उजाड़ा गया है।

दो प्रकार के मुद्दों ने जनजातिय आन्दोलन को तूल देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण तथा नृजातीय सांस्कृतिक पहचान ये दोनों साथ-साथ चल सकते हैं, परन्तु जनजातीय समाज में विभिन्नताएँ होने से ये अलग भी हो सकते हैं।

एक लंबे संघर्ष के बाद झारखंड और छत्तीसगढ़ को अलग-अलग राज्य का दर्जा मिल गया है। सरकार द्वारा उठाए गए कठोर कदम और फिर उनसे भड़के विद्रोहों ने पूर्वोत्तर राज्यों की अर्थव्यवस्था, संस्कृति और समाज को भारी हानि पहुँचाई है। एक अन्य महत्वपूर्ण विकास जनजातीय समुदायों में शनैः शनैः एक शिक्षित मध्य वर्ग का उद्भव है।

परिवार – सदस्यों का वह समूह जो रक्त, विवाह या गोत्र संबंधों पर नातेदारों से जुड़ा होता है।

परिवार के प्रकार

1. मूल या एकाकी परिवार
2. विस्तृत या संयुक्त परिवार

मूल या एकाकी परिवार – माता-पिता और उनके बच्चे साथ रहते हैं।

विस्तृत या संयुक्त परिवार – दो या अधिक पीढ़ियों के लोग एक साथ रहते हैं।

निवास स्थान के आधार पर परिवार के प्रकार 

1. पितृस्थानीय परिवार
2. मातृस्थानीय परिवार

पितृस्थानीय परिवार – नवविवाहित जोड़ा, वर के माता-पिता के साथ रहता है।

मातृस्थानीय परिवार – नवविवाहित जोड़ा वधु के माता पिता के साथ रहता है।

सत्ता के आधार पर परिवार के प्रकार 

1. पितृवंशीय परिवार
2. मातृवंशीय परिवार

पितृवंशीय परिवार – जायदाद और वंश पिता से पुत्र को मिलता है।

मातृस्थानीय परिवार – नवविवाहित जोड़ा वधु के माता पिता के साथ रहता है।

सत्ता के आधार पर परिवार के प्रकार 

1. पितृवंशीय परिवार
2. मातृवंशीय परिवार

पितृवंशीय परिवार – जायदाद और वंश पिता से पुत्र को मिलता है।

मातृवंशीय परिवार – जायदाद और वंश माँ से बेटी को मिलती है।

वंश के आधार पर परिवार के प्रकार 

1. पितृसत्तात्मक परिवार
2. मातृसत्तात्मक परिवार

पितृसत्तात्मक परिवार – पुरुषों की सत्ता व प्रभुत्व होता है।

मातृसत्तात्मक परिवार – स्त्रियाँ समान प्रभुत्वकारी भूमिका निभाती है।

परिवारिक ढांचे में बदलाव – सामाजिक संरचना में बदलावों के परिणामस्वरूप परिवारिक ढांचे में बदलाव होता है। उदाहरण के तौर पर, पहाड़ी क्षेत्रों के ग्रामीण अंचलो से रोजगार की तलाश में पुरुषों को शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन जिससे महिला प्रधान परिवारों की संख्या काफी बढ़ गई है।

उद्योगों में नियुक्त युवा अभिभावकों का कार्यभार अत्याधिक बढ़ जाने से उन्हे अपने बच्चों की देखभाल के लिए अपने बूढ़े माता-पिता को अपने पास बुलाना पड़ता है। जिससे शहरों में बूढ़े माता-पिता की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। लोग व्यक्तिवादी हो गए है। युवा वर्ग अपने अभिभावकों की पसंद की बजाय अपनी पसंद से विवाह जीवन साथी का चुनाव करते है।

(खासी जनजाति) परिवारिक ढांचे में बदलाव – खासी जनजाति और मातृवंशीय संगठन खासी जनजाति मातृवंशानुक्रम संगठन का प्रतीक है। मातृवंशीय परम्परा के अनुसार खासी परिवार में विवाह के बाद पति अपनी पत्नी के घर रहता है।

वंश परम्परा के अनुसार परिवारिक ढांचे में बदलाव – वंश परम्परा के अनुसार उत्तराधिकार भी पुत्र को प्राप्त न होकर पुत्री को ही प्राप्त होता है। खासी लोगों में माता का भाई (यानी मामा) माता को पुश्तैनी सम्पत्ति की देख रेख करता है। अर्थात सम्पत्ति पर नियन्त्रण का अधिकार माता के भाई को दिया गया है। इस स्थिति में वह स्त्री उत्तराधिकार के रूप में मिली सम्पत्ति का अपने ढंग से उपयोग नहीं कर पाती है। इस प्रकार खासी जनजाति में मामा की अप्रत्यक्ष सत्ता संघर्ष को जन्म देती है।

खांसी पुरुषों की दोहरी भूमिका – खांसी पुरुषों को दोहरी भूमिका निभानी पड़ती है। एक ओर तो खांसी पुरुष अपनी बहन की पुत्री की सम्पत्ति की रक्षा करता है और दूसरी ओर उस पर अपनी पत्नी तथा बच्चों के लालन पालन का भी उत्तरदायित्व होता है। दोनों पक्षों की स्त्रियाँ बुरी तरह प्रभावित होती है। मातृवंशीय व्यवस्था के बावजूद खांसी समाज में शक्ति व सत्ता पुरुषों के ही आसपास घूमती है।

नातेदारी – नातेदारी व्यवस्था में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे संबंध आते हैं जो अनुमानित और रक्त संबंधों पर आधारित हों – जैसे चाचा, मामा आदि।

नातेदारी के प्रकार 

विवाह मूलक नातेदारी – जैसे – साला-साली, सास-ससुर, देवर भाभी आदि।
रक्तमूलक नातेदारी – जैसे – माता-पिता, भाई बहन आदि।

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