NCERT Solutions Class 12th Hindi अंतरा Chapter – 19 यथास्मै रोचते विश्वम्
Textbook | NCERT |
Class | Class 12th |
Subject | Hindi |
Chapter | Chapter – 19 |
Grammar Name | यथास्मै रोचते विश्वम् |
Category | Class 12th Hindi अंतरा |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
NCERT Solutions Class 12th Hindi अंतरा Chapter – 19 यथास्मै रोचते विश्वम् Question & Answer यथास्मै रोचते विश्वम् का अर्थ क्या है? लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से क्यों की है? यथास्मै रोचते विश्वम नामक निबंध के लेखक कौन है? मानव के जीवन में साहित्य का क्या महत्व है? साहित्य का आधार जीवन क्यों है? पंद्रहवी सोलहवीं सदी में हिंदी साहित्य ने मानव जीवन के विकास में क्या भूमिका निभाई? साहित्य का मानव समाज में क्या महत्व है?
NCERT Solutions Class 12th Hindi अंतरा Chapter – 19 यथास्मै रोचते विश्वम्
Chapter – 19
यशास्मै रोचते विश्वम्
प्रश्न – उत्तर
प्रश्न 1. लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से क्यों की है? उत्तर – लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से की है। जिस प्रकार प्रजापति समाज को बनाता है। उसी प्रकार कवि उस समाज से असंतुष्ट होकर नए समाज की रचना करता है। वह अपने दृष्टिकोण से नए मानव संबंध बनाता है। वह सृजन कर्ता है। इसी कारण उसे प्रजापति का दर्जा दिया गया है। |
प्रश्न 2. ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ इस प्रचलित धारणा के विरोध में लेखक ने क्या तर्क दिए हैं? |
प्रश्न 3. दुर्लभ गुणों को एक ही पात्र में दिखाने के पीछे कवि का क्या उद्देश्य है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए। उत्तर – दुर्लभ गुणों को एक ही पात्र में दिखाने के पीछे कवि प्रजापति की तरह नई सृष्टि करता है। इस कार्य से कवि नए संसार की रचना करता है। बाल्मीकि ने अपने चरित्र नायक राम में अनेक दुर्लभ गुण दिखाए। उसने नारद से ऐसे पात्र के बारे में पूछा तो नारद ने पहले यही कहा था कि “बहवो दुर्लभाश्चैव ये त्वया कीर्तिता गुणाः”। कवि ने राम में आदमी और देवता के गुणों को मिलाकर समाज के समक्ष एक नया पात्र प्रस्तुत किया। |
प्रश्न 4.”साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नहीं है। वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है।” स्पष्ट कीजिए। |
प्रश्न 5. ”मानव संबंधों से परे साहित्य नहीं है।” इस कथन की समीक्षा कीजिए। उत्तर – लेखक बताता है कि साहित्य समाज से ही बनता है। उसकी कथा का आधार मानव संबंध होते हैं। जब कवि उन मानव संबंधों में कोई विसंगति देखता है तो वह नए संबंध बनाने के लिए नए पात्र रचता है। साहित्य में सदैव मानव को केंद्र बनाया गया है। रचनाकार किसी निर्जीव का वर्णन नहीं करता और न ही वह एकाकी जीवन का वर्णन करता है। वह सदैव रिश्तों को अपने साहित्य में स्थान देता है जो काल के अनुसार बदलते रहते हैं। |
प्रश्न 6. ‘पंद्रहवीं-सोलहवीं’ सदी में हिंदी-साहित्य ने कौन-सी सामाजिक भूमिका निभाई? उत्तर – पंद्रहवीं-सोलहवीं सदी में हिंदी साहित्य ने सामंती पिंजरे में बंद मानव-जीवन की मुक्ति के लिए वर्ण और धर्म के सींकचों पर प्रहार किए थे। कश्मीरी ललद्यद, पंजाबी नानक, हिंदी सूर – तुलसी – मीरा – कबीर, बंगाली चंडीदास, तमिल तिरुवल्लुवर आदि गायकों ने आगे-पीछे समूचे भारत में उस जीर्ण मानव-संबंधों के पिंजड़े को झकझोर दिया था। इन गायकों की वाणी ने पीड़ित जनता के मर्म को स्पर्श कर उसे नए जीवन के लिए बटोरा, उसे आशा दी, उसे संगठित किया और जहाँ-तहाँ जीवन को बदलने तथा संघर्ष के लिए आमंत्रित भी किया। |
प्रश्न 7. साहित्य के ‘पांचजन्य’ से लेखक का क्या तात्पर्य है? ‘साहित्य का पांचजन्य’ मनुष्य को क्या प्रेरणा देता है? उत्तर – पांचजन्य’ श्रीकृष्ण का शंख है जो नए युग का आरंभ करता है। वह मनुष्य को नया करने की प्रेरणा देता है। साहित्य का पाचजन्य भी यही कार्य करता है। साहित्य का पांचजन्य मनुष्य को संघर्ष करके आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। वह मनुष्य को भाग्य के सहारे बैठने और पराधीनता में रहने की प्रेरणा नहीं देता है। वह इस तरह के लोगों को प्रोत्साहित नहीं करता। यह उदासीन और कायरों को भी संघर्ष करने के लिए प्रेरित करता है। वह संदेश देता है कि हमें भविष्य के निर्माण में लगना चाहिए न कि अतीत का गुणगान करना चाहिए। |
प्रश्न 8. साहित्यकार के लिए स्रष्टा और द्रष्टा होना अत्यंत अनिवार्य है, क्यों और कैसे? उत्तर – लेखक कहता है कि साहित्यकार के लिए द्रष्टा और स्वष्टा होना अनिवार्य है। यदि साहित्यिक मानव संबंधों से संतुष्ट है तो वह नया कुछ नहीं कर पाता। वह समाज में संबंधों से असंतुष्ट हो जाता है। वह पीड़ित मानव की वाणी को स्वर देता है। इसके लिए उसे नए चरित्रों की आवश्यकता होती है और वह सर्जक के तौर पर ही यह कार्य कर सकता है। वह समाज को परिवर्तित करने के लिए नए संबंध बनाता है। |
प्रश्न 9. कवि-पुरोहित के रूप में साहित्यकार की भूमिका स्पष्ट कीजिए। उत्तर – पुरोहित का कार्य यजमान को प्रेरित करना होता है। वह उनका उत्साह बढ़ाता है। यही कार्य साहित्यकार भी करता है। जब जनता परिवर्तन चाहने लगती है और उस परिवर्तन के लिए संघर्ष करने को तैयार हो जाती है तो उस समय कवि को जनता का उत्साह बढ़ाना चाहिए। उसका व्यक्तित्व भी पूरे वेग से तभी निखरता है। पुरोहित के रूप में कार्य करने से ही हिंदी साहित्य उन्नत और समृद्ध होकर भारत के जातीय सम्मान का रक्षा कर सकेगा। |
प्रश्न 10. सप्रसंग सहित व्याख्या कीजिएः (क) ‘कवि की यह सृष्टि निराधार नहीं होती। हम उसमें अपनी ज्यों-की-त्यों आकृति भले ही न देखें, पर ऐसी आकृति ज़रूर देखते हैं जैसी हमें प्रिय है, जैसी आकृति हम बनाना चाहते हैं।’ (ख) ‘प्रजापति-कवि गंभीर यथार्थवादी होता है, ऐसा यथार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं।’ (ग) ‘इसके सामने निरुद्देश्य कला, विकृति काम-वासनाएँ, अहंकार और व्यक्तिवाद, निराशा और पराजय के ‘सिद्धांत’ वैसे ही नहीं ठहरते जैसे सूर्य के सामने अंधकार।’ उत्तर – (क) प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा, भाग-2’ में संकलित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है। इसके लेखक प्रसिद्ध आलोचक, कवि रामविलास शर्मा हैं। यह निबंध ‘विराम चिह्न’ नामक निबंध-संग्रह से उद्धृत है। इस निबंध में कवि की तुलना प्रजापति से करते हुए उसे उसके कर्म के प्रति सचेत किया गया है। सामाजिक प्रतिबद्धता साहित्य की कसौटी है।व्याख्या- लेखक कहता है कि कवि मानवीय संबंधों से असंतुष्ट होकर नए पात्र बनाता है। वह उसमें दुर्लभ गुणों का समावेश करता है। कवि की यह रचना बिना आधार के नहीं होती। समाज के व्यक्ति उस रचना में अपनी हूबहू आकृति भले ही न देख पाएँ, परंतु ऐसी आकृति अवश्य देखते हैं जो उन्हें प्रिय है। वे ऐसी ही आकृति बनाना चाहते हैं। आशय यह है कि कवि जो रचना बनाता है, वह समाज की इच्छा के अनुरूप ही होती है।(ख) प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा, भाग-2’ में संकलित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है। इसके लेखक प्रसिद्ध आलोचक, कवि रामविलास शर्मा हैं। यह निबंध ‘विराम चिह्न’ नामक निबंध-संग्रह से उद्धृत है। इस निबंध में कवि की तुलना प्रजापति से कतरे हुए उसे उसके कर्म के प्रति सचेत किया गया है। सामाजिक प्रतिबद्धता साहित्य की कसौटी है। व्याख्या – प्रजापति रूपी कवि यथार्थवादी होता है। वह धरती का आधार नहीं छोड़ता, वह (ग) प्रसंग – प्रस्तत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘अंतरा, भाग-2′ में संकलित निबंध ‘यथास्मै रोचते विश्वम्’ से अवतरित है इसके लेखक प्रसिद्ध आलोचक कवि रामविलास शर्मा है। यह निबंध ‘विराम चिह्न’ नामक निबंध-संग्रह से उद्धृत है। इस निबंध में कवि की तुलना प्रजापति से करते हुए उसे उसके कर्म के प्रति सचेत किया गया है। सामाजिक प्रतिबद्धता साहित्य की कसौटी है। व्याख्या- यहाँ भारतीय साहित्य की गौरवशाली परंपरा को बताया गया है। लेखक बताता है कि भारतीय साहित्य आत्मनिर्भरता व संघर्ष का पाठ पढ़ाता है। भारतीय साहित्यकारों के लिए बिना |
भाषा शिल्प
प्रश्न 1. पाठ में प्रतिबिंब-प्रतिबिंबित जैसे शब्दों पर ध्यान दीजिए। इस तरह के दस शब्दों की सूची बनाइए।
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प्रश्न 2 पाठ में ‘साहित्य के स्वरूप’ पर आए वाक्यों को छाँटकर लिखिए। उत्तर – पाठ में ‘साहित्य के स्वरूप’ पर आए वाक्य इस प्रकार हैं- (क) साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की बात न उठती। (ख) साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नहीं, वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है। (ग) साहित्य का पाँचजन्य समरभूमि में उदासीनता का राग नहीं सुना। (घ) साहित्य मानव संबंधों से परे नहीं है। |
प्रश्न 3 इन पंक्तियों का अर्थ स्पष्ट कीजिएः (ख) लेखक के अनुसार सृष्टि की रचना करने वाला कवि गंभीर यथार्थवादी होता है। अर्थात वह यथार्थ को कल्पना से नहीं जोड़ता है। वह उसे गंभीरता से लेता है और अपनी रचनाओं में पूरी गंभीरता से उस यथार्थ को दर्शाता है। इस प्रकार के साहित्यकार की विशेषता होती है कि वह अपना कर्तव्य पूरी गंभीरता से निभाता है। उसके पाँव यथार्थ पर पूर्णरूप से टिके होते हैं। अर्थात वह सच्चाई से पूरी तरह से जुड़ा होता है। वह जानता है कि वर्तमान में क्या चल रहा है। वह जानता है कि वर्तमान का यह सत्य कैसे भविष्य के क्षितिज पर दिखाई देखा। (ग) लेखक के अनुसार ऐसे साहित्यकार जिनका साहित्य लोगों को दासता से मुक्ति दिलाने के स्थान पर उन्हें गुलाम बना देता है, उन पर धिक्कार है। ऐसे लोगों को शर्म से डूब मरना चाहिए। उनकी रचनाओं को साहित्य नहीं कहा जा सकता है। साहित्यकार का कर्तव्य है कि वह लोगों को दासता से मुक्ति दिलाए और विकास का मार्ग प्रशस्त करे। |
योग्यता विस्तार
प्रश्न 1.‘साहित्य और समाज’ पर चर्चा कीजिए। उत्तर – साहित्य और समाज का बहुत गहरा नाता है। एक कवि इस समाज का ही अंग होता है। समाज का निर्माण लोगों से हुआ है। अतः एक कवि इसी समाज का अंग माना जाएगा। कवि समाज से थोड़ा-सा अलग होता है। वह समाज में व्याप्त असंगतियों से आहत और क्रोधित होता है। अतः वह रचनाओं का निर्माण करता है। इन्हीं रचनाओं के भंडार को साहित्य कहते हैं। एक कवि या लेखक अपनी रचनाओं के माध्यम से साहित्य का सृजन करता है और समाज को नई दिशा देता है। कवि या लेखक का दायित्व होता है कि वह अपनी रचनाओं से समाज में व्याप्त विसंगतियों को दूर करे और समाज में पुरानी सोच के स्थान पर नई सोच का विकास करे। समाज में कई प्रकार की कुरीतियाँ, परंपराएँ, विद्यमान हैं। ये परपंराएँ और कुरीतियाँ समय के साथ पुरानी पड़ती जा रही हैं और इसमें विसंगतियां विद्यमान हो जाती हैं। साहित्य के माध्यम से उन्हें हटाने तथा क्रांति लाने का प्रयास किया जाता है। हमारे कवियों, लेखकों ने जो कुछ भी लिखा है, वे साहित्य कहलाता है। साहित्य में हर तरह की रचनाएँ सम्मिलित होती हैं। वे चाहे फिर प्रेम, भक्ति, वीरता, सामाजिक-राजनीतिक बदलाव, उनमें हुई उथल-पुथल या व्याप्त विसंगतियां इत्यादि विषय हों। इस तरह से ये रचनाएँ ऐतिहासिक प्रमाण भी बन जाती हैं। आज ढ़ेरों ऐसी रचनाएँ हैं जिनके माध्यम से हम अपने इतिहास के गौरवपूर्ण समय के दर्शन हो पाते हैं। भारतीय साहित्य इतना विशाल है कि उसे बहुत कालों में विभक्त किया गया है। इस तरह हम रचनाओं को उस काल की विशेषताओं के आधार पर व्यवस्थित कर विभक्त कर देते हैं। उनका विस्तृत अध्ययन करते हैं। तब हमें पता चलता है कि उस समय समाज में किस तरह की परिस्थितियाँ विद्यमान थी और क्या चल रहा था। ये रचनाएँ हमें उस समय के भारत के दर्शन कराती हैं। इनके अंदर हमें हर वो जानकारी प्राप्त होती है, जो हमें अपनी संस्कृति व इतिहास से जोड़ती है। हमारे देश का इतिहास इसी साहित्य में सिमटा पड़ा है। यदि हमें अपने देश, समाज, संस्कृति और उसकी परंपराओं को समझना है, तो अपने साहित्य में झाँकना पड़ेगा। साहित्य में समाज की छवि साफ़ लक्षित होती है। एक लेखक या कवि अपनी रचना को लिखते समय उस समय के समाज को हमारे सामने रख देता है। साहित्य में मात्र सामाजिक जीवन का ही चित्रण नहीं मिलता अपितु समाज में हर प्रकार के व्यक्तित्व का भी परिचय मिलता है। इस तरह हम स्वयं को साहित्य से जुड़ा मानते हैं। साहित्य हमारे सामने ऐसा दर्पण बनकर विद्यमान हो जाता है, जिसमें हम अपने समाज के प्राचीन और नवीन स्वरूप को देख पाते हैं। इसलिए कहा गया है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। |
प्रश्न 2.‘साहित्य समाज का दर्पण नहीं है।’ विषय पर कक्षा में बाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन कीजिए। उत्तर – भारतीय साहित्य इतना विशाल है कि उसे बहुत कालों में विभक्त किया गया है। इस तरह हम रचनाओं को उस काल की विशेषताओं के आधार पर व्यवस्थित कर विभक्त कर देते हैं। उनका विस्तृत अध्ययन करते हैं। तब हमें पता चलता है कि उस समय समाज में किस तरह की परिस्थितियाँ विद्यमान थी और क्या चल रहा था। ये रचनाएँ हमें उस समय के भारत के दर्शन कराती हैं। इनके अंदर हमें हर वो जानकारी प्राप्त होती है, जो हमें अपनी संस्कृति व इतिहास से जोड़ती है। हमारे देश का इतिहास इसी साहित्य में सिमटा पड़ा है। यदि हमें अपने देश, समाज, संस्कृति और उसकी परंपराओं को समझना है, तो अपने साहित्य में झाँकना पड़ेगा। साहित्य में समाज की छवि साफ़ लक्षित होती है। एक लेखक या कवि अपनी रचना को लिखते समय उस समय के समाज को हमारे सामने रख देता है। साहित्य में मात्र सामाजिक जीवन का ही चित्रण नहीं मिलता अपितु समाज में हर प्रकार के व्यक्तित्व का भी परिचय मिलता है। इस तरह हम स्वयं को साहित्य से जुड़ा मानते हैं। साहित्य हमारे सामने ऐसा दर्पण बनकर विद्यमान हो जाता है, जिसमें हम अपने समाज के प्राचीन और नवीन स्वरूप को देख पाते हैं। इसलिए कहा गया है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। लेकिन लेखक ने इस पाठ में इस बात को निराधार कहा है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। वह मानता है कि लेखक, कवि तथा साहित्यकार पूर्ण रूप से सत्य नहीं लिखते हैं। कई बार कल्पना में सत्य का रूप मिलता है, तो कई बार सत्य में कल्पना का। इस तरह से सत्य पूर्ण नहीं होता है। उसमें कुछ-न-कुछ ऐसा मिला होता है, जो सत्य को पूर्णतः बाहर नहीं आने देता है। इसके कई कारण हो सकते हैं। इस कारण यदि हम साहित्य पर प्रकाश डालें, तो उसमें कई प्रकार के संदेह विद्यमान हो जाते हैं। उदाहरण के लिए पृथ्वीराज रासो को आज पूर्णतः सत्य नहीं माना जाता है। इसमें तिथियाँ तथा घटनाओं का उल्लेख हुआ है, वह इतिहास से मेल नहीं खाता है। साहित्य को दर्पण की संज्ञा देने का अर्थ यह मान लेना कि साहित्य समाज की बिलकुल असल छवि देता है, यह गलत होगा। एक साहित्यकार अपनी रचना में समाज में व्याप्त विसंगतियों, असमानताओं, समस्याओं, सच्चाइयों का मान एक अंश दिखा पाता है। उसका विस्तार से वर्णन कर पाना उसके लिए संभव नहीं हो पाएगा। प्रायः उसकी रचनाएँ, कविता, काव्य संग्रह, उपन्यास, निबंध, कहानी, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत इत्यादि रूप में हो सकते हैं। अतः इन रुपों में कैसे वह समाज की असल छवि के साथ न्याय कर पाएगा। यही कारण है कि दर्पण बोल देने का अर्थ है, साहित्य को समाज की छवि मान लेना। यह सही नहीं है। अतः साहित्य समाज का दर्पण नहीं हो सकता। |
काव्य खंड
- Chapter – 1 जयशंकर प्रसाद
- Chapter – 2 सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’
- Chapter – 3 सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’
- Chapter – 4 केदारनाथ सिंह
- Chapter – 5 विष्णु खरे
- Chapter – 6 रघुवीर सहाय
- Chapter – 7 तुलसीदास
- Chapter – 8 बारहमासा
- Chapter – 9 पद
- Chapter – 10 रामचंद्रचंद्रिका
- Chapter – 11 कवित्त / सवैया
गद्य खंड
- Chapter – 12 प्रेमघन की छाया – स्मृति
- Chapter – 13 सुमिरिनी के मनके
- Chapter – 14 कच्चा चिट्ठा
- Chapter – 15 संवदिया
- Chapter – 16 गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफ़ात
- Chapter – 17 शेर, पहचान, चार हाथ, साझा
- Chapter – 18 जहां कोई वापसी नहीं
- Chapter – 19 यथास्मै रोचते विश्वम्
- Chapter – 20 दूसरा देवदास
- Chapter – 21 कुटज
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