NCERT Solution Class 12th History (Part – 2) Chapter – 9 शासक और इतिवृत्त: (King and Chronicles) Question & Answer In Hindi

NCERT Solution Class 12th History (Part – 2) Chapter – 9 शासक और इतिवृत्त: (King and Chronicles)

TextbookNCERT
Class12th
SubjectHistory (Part 2)
Chapter9th
Chapter Nameशासक और इतिवृत्त: (King and Chronicles)
CategoryClass 12th History
Medium Hindi
SourceLast Doubt

NCERT Solution Class 12th History (Part – 2) Chapter – 9 शासक और इतिवृत्त: (King and Chronicles) Question & Answer In Hindi इस अध्याय में हम पांडुलिपियों से आप क्या समझते हैं?, पांडुलिपि बनाने में कौन शामिल थे?, पांडुलिपि के संस्थापक कौन थे?, मुगल दरबार में अभिवादन के तरीके क्या थे?, अकबर के दरबारी कवि का नाम था?, मुगल दरबार की भाषा क्या थी?, मुगल साम्राज्य के पतन के क्या कार्य करें?, भारत का दूसरा राजा कौन था?, भारत में मुगल वंश का संस्थापक कौन था?, मुग़ल साम्राज्य कमजोर क्यों पड़ गया था?, मुगल वंश का पतन कब हुआ था?, आदि के बारे में पढ़ेंगे।

NCERT Solution Class 12th History (Part – 2) Chapter – 9 शासक और इतिवृत्त: (King and Chronicles)

Chapter – 9

शासक और इतिवृत्त:

प्रश्न – उत्तर

अभ्यास-प्रश्न

प्रश्न 1. मुग़ल दरबार में पांडुलिपि तैयार करने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर – पांडुलिपि तैयार करना एक बहुत लंबी प्रक्रिया होती थी। इस प्रक्रिया में कई लोग शामिल होते थे। जो अलग-अलग कार्यो  में दक्ष होते थे। सबसे पहले पांडुलिपि का पन्ना तैयार किया जाता था जो कागज़ बनाने वालों का काम था। तैयार किए गए पन्ने पर अत्यंत सुंदर अक्षर में पाठ की नकल तैयार की जाती थी। उस समय सुलेखन अर्थात हाथ से लिखने की कला अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी। इसका प्रयोग भिन्न-भिन्न शैलियों में होता था। सरकंडे के टुकड़े को स्याही में डुबोकर लिखा जाता था। इसके बाद कोफ्तगार पन्नो  को चमकाने का काम करते थे। चित्रकार पाठ के दृश्यों को चित्रित करते थे। अन्त में, जिल्दसाज प्रत्येक पन्ने को इकट्ठा करके उसे अलंकृत आवरण देता था। तैयार पांडुलिपि को एक बहुमूल्य वस्तु, बौद्धिक संपदा और सौंदर्य के कार्य के रूप में देखा जाता था।

प्रश्न 2. मुग़ल दरबार से जुड़े दैनिक-कर्म और विशेष उत्सवों के दिनों ने किस तरह से बादशाह की सत्ता के भाव को प्रतिपादित किया होगा?
उत्तर – दरबार में किसी की हैसियत इस बात से निर्धारित होती थी कि वह शासक के कितना पास या दूर बैठा है। किसी भी दरबारी को शासक द्वारा दिया गया स्थान बादशाह की नज़र में उसकी महत्ता का प्रतीक था। एक बार जब बादशाह सिंहासन पर बैठ जाता था तो किसी को भी अपनी जगह से कहीं और जाने की अनुमति नहीं थी और न ही कोई अनुमति के बिना दरबार से बाहर जा सकता था। दरबारी समाज में सामाजिक नियंत्रण का व्यवहार दरबार में मान्य संबोधन, शिष्टाचार तथा बोलने के निर्धारित किए गए नियमों के अनुसार होता था। शिष्टाचार का जरा-सा भी उल्लंघन होने पर ध्यान दिया जाता था और उस व्यक्ति को तुरंत ही दंडित किया जाता था।

शासक को किए गए अभिवादन के तरीके से पदानुक्रम में उस व्यक्ति की हैसियत का पता चलता था। जैसे जिस व्यक्ति के सामने ज्यादा झुककर अभिवादन किया जाता था, उस व्यक्ति की हैसियत ज्यादा ऊँची मानी जाती थी। आत्मनिवेदन का उच्चतम रूप सिजदा या दंडवत् लेटना था। शाहजहाँ के शासनकाल में इन तरीकों के स्थान परचाहर तस्लीम (प्रस्तुति) तथा जमीबोसी (जमीन चूमना) के तरीके अपनाए गए। सिंहासनारोहण की वर्षगाँठ, शब-ए-बरात तथा होली जैसे कुछ विशिष्ट अवसरों पर दरबार का माहौल जीवंत हो उठता था। सजे हुए सुगंधित मोमबत्तियाँ और महलों की दीवारों पर लटक रहे रंग-बिरंगे बंदनवार आने वालों पर आश्चर्यजनक प्रभाव छोड़ते थे। ये सभी बादशाह की शक्ति, सत्ता और प्रतिष्ठा को दर्शाते थे।

प्रश्न 3. मुगल साम्राज्य में शाही परिवार की स्त्रियों द्वारा निभाई गई भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर मुग़ल शाही परिवार में बादशाह की पत्नियाँ और उपपत्नियाँ, उसके नजदीकी एवं दूर के रिश्तेदार (जैसे-माता, सौतेली व उपमाताएँ, बहन, पुत्री, बहू, चाची-मौसी, बच्चे आदि) के साथ-साथ महिला परिचारिकाएँ तथा गुलाम होते थे। नूरजहाँ के बाद मुगल रानियों और राजकुमारियों ने महत्त्वपूर्ण वित्तीय स्रोतों पर नियंत्रण रखना शुरू कर दिया। शाहजहाँ की पुत्रियों-जहाँआरा और रोशनआरा, को ऊँचे शाही मनसबदारों के समान वार्षिक आय होती थी। इसके अतिरिक्त जहाँआरा को सूरत के बंदरगाह नगर जो कि विदेशी व्यापार का एक लाभप्रद केंद्र था, से राजस्व प्राप्त होता था। संसाधनों पर नियंत्रण ने मुगल परिवार की महत्त्वपूर्ण स्त्रियों को इमारतों व बागों के निर्माण का अधिकार दे दिया।

जहाँआरा ने शाहजहाँ की नयी राजधानी शाहजहाँनाबाद (दिल्ली) की कई वास्तुकलात्मक परियोजनाओं में हिस्सा लिया। इनमें से आँगन व बाग के साथ एक दोमंजिली भव्य कारवाँसराय थी। शाहजहाँनाबाद के हृदय स्थल चाँदनी चौक की रूपरेखा जहाँआरा द्वारा बनाई गई थी। गुलबदन बेगम द्वारा लिखी गई एक रोचक पुस्तक हुमायूँनामा से हमें मुगलों की घरेलू दुनिया की एक झलक मिलती है। गुलबदन बेगम बाबर की पुत्री, हुमायूँ की बहन तथा अकबर की चाची थी। गुलबदन स्वयं तुर्की तथा फ़ारसी में धाराप्रवाह लिख सकती थी। जब अकबर ने अबुल फज्ल को अपने शासन का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया तो उसने अपनी चाची से बाबर और हुमायूँ के समय के अपने पहले संस्मरणों को लिपिबद्ध करने का आग्रह किया ताकि अबुल फज्ल उनका लाभ उठाकर अपनी कृति को पूरा कर सके। गुलबदन ने जो लिखा वह मुगल बादशाहों की प्रशस्ति नहीं थी बल्कि उसने राजाओं और राजकुमारों के बीच चलने वाले संघर्षों और तनावों के साथ ही इनमें से कुछ संघर्षों को सुलझाने में परिवार की उम्रदराज स्त्रियों की महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं के बारे में विस्तार से लिखा।

प्रश्न 4. वे कौन से मुद्दे थे जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर क्षेत्रों के प्रति मुग़ल नीतियों व विचारों को आकार प्रदान किया?
उत्तर – मुगल बादशाह देश की सीमाओं से परे भी अपने राजनैतिक दावे प्रस्तुत करते थे। अपने साम्राज्य की सीमाओं की सुरक्षा, पड़ोसी देशों से यथासंभव मैत्रीपूर्ण संबंधों की स्थापना, आर्थिक और धार्मिक हितों की रक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों का भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर क्षेत्रों के प्रति मुग़ल नीतियों एवं विचारों को आकार प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण स्थान था। मुग़ल सम्राटों ने इन्हीं मुद्दों को ध्यान में रखते हुए उपमहाद्वीप से बाहर के क्षेत्रों के प्रति अपनी नीतियों का निर्धारण किया।

मध्यकाल में अफ़गानिस्तान को ईरान और मध्य एशिया के क्षेत्रों से अलग करने वाले हिंदूकुश पर्वतों द्वारा निर्मित सीमा का विशेष महत्त्व था। मुगल शासकों के ईरान एवं तूरान के पड़ोसी देशों के साथ राजनैतिक एवं राजनयिक संबंध इसी सीमा के नियंत्रण पर निर्भर करते थे। उल्लेखनीय है कि भारतीय उपमहाद्वीप में आने का इच्छुक कोई भी विजेता हिंदूकुश पर्वत को पार किए बिना उत्तर भारत तक पहुँचने में सफल नहीं हो सकता था। अत: मुग़ल शासक उत्तरी-पश्चिमी सीमांत में सामरिक महत्त्व की चौकियों विशेष रूप से काबुल और कंधार पर अपना कुशल नियंत्रण स्थापित करने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे।

मुगलों के लिए काबुल की सुरक्षा के लिए कंधार पर अधिकार करना नितांत आवश्यक था, क्योंकि कंधार के आस-पास का प्रदेश खुला होने के कारण कंधार की ओर से काबुल पर भी आक्रमण हो सकता था। अत: मुग़ल सम्राट कंधार, जो मुग़ल साम्राज्य की सुरक्षा की प्रथम पंक्ति का निर्माण करता था, पर अधिकार बनाए रखने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे।

प्रश्न 5. मुगल प्रांतीय प्रशासन के मुख्य अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। केंद्र किस तरह से प्रांतों पर नियंत्रण रखता था?
उत्तर  मुग़ल सम्राटों की प्रांतीय शासन व्यवस्था का स्वरूप केंद्रीय शासन व्यवस्था के स्वरूप के समान ही था। प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से साम्राज्य का विभाजन प्रांतों अथवा सूबों में कर दिया गया था। मुगलकाल में विभिन्न सम्राटों के शासनकाल में प्रांतों की संख्या भिन्न-भिन्न रही। अकबर के शासनकाल में प्रांतों की संख्या पंद्रह थी; जहाँगीर के शासनकाल में सत्रह और शाहजहाँ के शासनकाल में यह संख्या बाईस तक पहुँच गई थी। औरंगजेब के शासनकाल में साम्राज्य में इक्कीस प्रांत थे। 

प्रांतीय शासन व्यवस्था के प्रमुख अभिलक्षण इस प्रकार थे-

1. सूबेदार-सूबेदार प्रांत का सर्वोच्च अधिकारी था, जिसे साहिब-ए-सूबा, नाज़िम, सिपहसालार आदि नामों से भी जाना जाता था। सूबेदार की नियुक्ति स्वयं सम्राट के द्वारा की जाती थी और वह सम्राट के प्रति ही उत्तरदायी होता था। सूबे के सभी अधिकारी उसके अधीन होते थे।

2. दीवान-दीवान प्रांत का प्रमुख वित्तीय अधिकारी था। इसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा केंद्रीय दीवान के परामर्श से की जाती थी। प्रांतीय दीवान सूबेदार के अधीन नहीं अपितु केंद्रीय दीवान के अधीन होता था। प्रांतीय खजाने की देखभाल करना, प्रांत की आय-व्यय का हिसाब रखना, दीवानी मुकद्दमों का फैसला करना, प्रांतीय आर्थिक स्थिति के संबंध में केंद्रीय दीवान को सूचना देना तथा राजस्व विभाग के कर्मचारियों के कार्यों की देखभाल करना आदि दीवान के महत्त्वपूर्ण कार्य थे।

3. बख्शी-बख्शी प्रांतीय सैन्य विभाग का प्रमुख अधिकारी था। प्रांत में सैनिकों की भर्ती करना तथा उनमें अनुशासन बनाए | रखना उसके प्रमुख कार्य थे।

4. वाक्रिया-नवीस-वाक़िया-नवीस प्रांत के गुप्तचर विभाग का प्रधान था। वह प्रांतीय प्रशासन की प्रत्येक सूचना केंद्रीय सरकार को भेजता था।

5. कोतवाल-प्रांत की राजधानी तथा महत्त्वपूर्ण नगरों की आंतरिक सुरक्षा, शांति एवं सुव्यवस्था तथा स्वास्थ्य और सफाई का प्रबंध कोतवाल द्वारा किया जाता था।

6. सदर और काज़ी-प्रांत में सदर और काज़ी का पद सामान्यतः एक ही व्यक्ति को दिया जाता था। सदर के रूप में वह प्रजा के नैतिक चरित्र की देखभाल करता था और काज़ी के रूप में वह प्रांत का मुख्य न्यायाधीश था।इन प्रमुख अधिकारियों के अतिरिक्त कुछ प्रांतों में दरोग़ा-ए-तोपखाना तथा मीर-ए-बहर नामक महत्त्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्ति भी की जाती थी। केंद्र का प्रांतों पर नियंत्रण अथवा प्रांतीय प्रशासन की कुशलता के कारण नि:संदेह मुग़ल सम्राटों द्वारा कुशल प्रांतीय प्रशासन की स्थापना की गई थी।

मुग़ल सम्राटों ने प्रांतों पर केंद्र का नियंत्रण बनाए रखने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कदम उठाए थे-

1. सम्राट स्वयं प्रांतीय प्रशासन में पर्याप्त रुचि लेता था।

2. प्रांत के प्रमुख अधिकारी सूबेदार की नियुक्ति स्वयं सम्राट के द्वारा की जाती थी और वह सम्राट के प्रति ही उत्तरदायी होता था।

3. प्रशासनिक कार्यकुशलता को बनाए रखने तथा सूबेदार की शक्तियों में असीमित वृद्धि को रोकने के उद्देश्य से प्रायः तीन या पाँच वर्षों के बाद सूबेदार का एक प्रांत से दूसरे प्रांत में तबादला कर दिया जाता था।

4. प्रांतों में कुशल गुप्तचर व्यवस्था की स्थापना की गई थी। परिणामस्वरूप प्रांतीय प्रशासन से संबंधित सभी सूचनाएँ सम्राट को मिलती रहती थीं।

5. सम्राट द्वारा समय-समय पर स्वयं प्रांतों का भ्रमण किया जाता था।

प्रश्न 6. उदाहरण सहित मुग़ल इतिहास के विशिष्ट अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए।
उत्तर – मुग़ल सम्राटों की धारणा थी कि परम शक्ति द्वारा उनकी नियुक्ति विशाल एवं विजातीय जनता पर शासन करने के लिए की गई थी। इस धारणा के प्रचार-प्रसार का एक महत्त्वपूर्ण उपाय उन्होंने राजवंशीय इतिहास को लिखने-लिखवाने के रूप में ढूंढ निकाला। मुग़ल सम्राटों ने अपने शासन के विवरणों के लेखन कार्य को अपने दरबारी इतिहासकारों को सौंपा, जिन्होंने यह कार्य विद्वतापूर्वक सम्पन्न किया। इन विवरणों में उन्होंने संबद्ध बादशाह अथवा सम्राट के काल में घटित होने वाले घटनाओं का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। इन विवरणों, जिन्हें अंग्रेजी भाषा में लेखन कार्य करने वाले आधुनिक इतिहासकारों ने ‘क्रॉनिकल्स’ अर्थात् इतिवृत्त अथवा इतिहास का नाम दिया है, में घटनाओं का अनवरत एवं कालक्रमानुसार विवरण प्राप्त होता है।

मुग़ल इतिवृत्तों अथवा इतिहासों के प्रमुख लक्षण-

1. मुग़ल इतिवृत्तों के लेखक दरबारी इतिहासकार थे। उन्होंने मुग़ल शासकों के संरक्षण में इतिवृत्तों की रचना की। अतः स्वाभाविक रूप से शासक पर केंद्रित घटनाएँ, शासक का परिवार, दरबार और अभिजात वर्ग के लोग, युद्ध और प्रशासनिक व्यवस्थाएँ उनके द्वारा लिखे जाने वाले इतिहास के केन्द्रीय विषय थे। अकबर, शाहजहाँ और औरंगजेब की जीवन कथाओं पर आधारित इतिवृत्तों के क्रमशः ‘अकबरनामा’, ‘शाहजहाँनामा’ और ‘आलमगीरनामा’ जैसे शीर्षक इस तथ्य के प्रतीक हैं कि इनके लेखकों की दृष्टि में बादशाह का इतिहास ही साम्राज्य व दरबार का इतिहास था।

2. इतिवृत्त हमें मुग़ल राज्य-संस्थाओं के विषय में तथ्यात्मक सूचनाएँ प्रदान करते हैं तथा उन आशयों का भी परिचय देते हैं, जिन्हें मुग़ल शासक अपने साम्राज्य में लागू करना चाहते थे।

3. मुग़ल इतिवृत्तों का एक महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले सभी लोगों के सामने एक प्रबुद्ध राज्य की छवि को प्रस्तुत करना था।

4. इतिवृत्तों का एक अन्य अभिलक्षण मुग़ल शासन का विरोध करने वाले लोगों को यह स्पष्ट रूप से बता देना था कि साम्राज्य की शक्ति के सामने उनके सभी विरोधों का असफल हो जाना सुनिश्चित था।

5. मुग़ल इतिवृत्तों का एक अन्य महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण भावी पीढ़ियों को शासन का विवरण उपलब्ध करवाना था।

6. मुग़ल इतिवृत्तों का एक प्रमुख अभिलक्षण उनकी रचना फ़ारसी भाषा में किया जाना था। मुग़लकाल में सभी दरबारी इतिहास फ़ारसी भाषा में लिखे गए थे। उल्लेखनीय है कि मुग़ल चगताई मूल के थे। अतः उनकी मातृभाषा तुर्की थी, किन्तु अकबर ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए फ़ारसी को राजदरबार की भाषा बनाया। प्रारंभ में फ़ारसी राजा, शाही परिवार और दरबार के विशिष्ट सदस्यों की ही भाषा थी। किंतु शीघ्र ही यह सभी स्तरों पर प्रशासन की भाषा बन गई। अतः लेखाकार, लिपिक तथा अन्य अधिकारी भी इस भाषा का ज्ञान प्राप्त करने लगे। फ़ारसी भाषा में अनेक स्थानीय मुहावरों का प्रवेश हो जाने से इसका भारतीयकरण होने लगा। फ़ारसी और हिन्दवी के पारस्परिक सम्पर्क से एक नयी भाषा का जन्म हुआ, जिसे हम ‘उर्दू’ के नाम से जानते हैं।

7. मुग़ल इतिवृत्तों का एक अन्य अभिलक्षण उनके रंगीन चित्र हैं। मुग़ल पांडुलिपियों की रचना में अनेक चित्रकारों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। एक मुग़ल शासक के शासनकाल में घटित होने वाली घटनाओं का विवरण देने वाले ऐतिहासिक ग्रंथों में लिखित पाठ के साथ-साथ उन घटनाओं को चित्रों के माध्यम से दृश्ये रूप में भी व्यक्त किया जाता था। हमें याद रखना चाहिए कि चित्रों का अंकन केवल किसी पुस्तक के सौंदर्य में वृद्धि करने वाली सामग्री के रूप में ही नहीं किया जाता था। वास्तव में, चित्रांकन ऐसे विचारों के संप्रेषण का भी एक शक्तिशाली माध्यम माना जाता था, जिन्हें लिखित माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता था। उदाहरण के लिए, राजा और राजा की शक्ति के विषय में जिन बातों को लेखबद्ध नहीं किया जा सकता था, उन्हें चित्रों के माध्यम से व्यक्त किया जाता था।

प्रश्न 7. इस अध्याय में दी गई दृश्य-सामग्री किस हद तक अबुल फज्ल द्वारा किए गए ‘तसवीर’ के वर्णन (स्रोत 1) से मेल खाती है?
उत्तर – इसमें कोई संदेह नहीं कि इस अध्याय में दी गई दृश्य सामग्री अबुल फज्ल द्वारा वर्णित ‘तसवीर’ के वर्णन से पर्याप्त सीमा तक मेल खाती है। उल्लेखनीय है कि मुग़लकाल में चित्रकारी अथवा चित्रकला का सराहनीय विकास हुआ था। लगभग सभी मुग़ल सम्राट (अपवादस्वरूप औरंगजेब को छोड़कर) चित्रकारी के प्रेमी थे। प्रथम मुग़ल सम्राट बाबर ने चित्रकला को राज्याश्रय प्रदान किया और अपनी आत्मकथा के कुछ भागों को चित्रित करवाया। बाबर के उत्तराधिकारी हुमायूँ को चित्रकला से विशेष लगाव था। राजनैतिक उथल-पुथल के कारण जब उसे भारत छोड़कर फ़ारस में शरण लेनी पड़ी, तो वहाँ उसे इस कला के अध्ययन का सुअवसर प्राप्त हुआ। यहीं उसका परिचय फ़ारस के उच्चकोटि के चित्रकारों से हुआ।र्ग के सदस्यों के लिए शाही सेवा शक्ति, धन तथा उच्चतम प्रतिष्ठा प्राप्त करने का एक ज़रिया थी। सेवा में आने का इच्छुक व्यक्ति एक अभिजात के जरिए याचिका देता था जो बादशाह के सामने तजवीज प्रस्तुत करता था। अगर याचिकाकर्ता को सुयोग्य माना जाता था तो उसे मनसब प्रदान किया जाता था। मीरबख्शी (उच्चतम वेतनदाता) खुले दरबार में बादशाह के दाएँ ओर खड़ा होता था तथा नियुक्ति और पदोन्नति के सभी उम्मीदवारों को प्रस्तुत करता था; जबकि उसका कार्यालय उसकी मुहर व हस्ताक्षर के साथ-साथ बादशाह की मुहर व हस्ताक्षर वाले आदेश तैयार करता था।
प्रश्न 8. मुग़ल अभिजात वर्ग के विशिष्ट अभिलक्षण क्या थे? बादशाह के साथ उनके संबंध किस तरह बने?
उत्तर – मुग़ल राज्य का महत्त्वपूर्ण स्तम्भ अधिकारियों का दल था जिसे इतिहासकारों ने सामूहिक रूप से अभिजात वर्ग की संज्ञा से अभिहित किया है। अभिजात वर्ग में भर्ती विभिन्न नृ-जातीय तथा धार्मिक समूहों से होती थी। इससे यह सुनिश्चित हो जाता था कि कोई भी दल इतना बड़ा ने हो कि वह राज्य की सत्ता को चुनौती दे सके। मुगलों के अधिकारी-वर्ग को गुलदस्ते के रूप में वर्णित किया जाता था जो वफ़ादारी से बादशाह के साथ जुड़े हुए थे। साम्राज्य के आरंभिक चरण से ही तुरानी और ईरानी अभिजात अकबर की शाही सेवा में उपस्थित थे। इनमें से कुछ हुमायूँ के साथ भारत चले आए थे। कुछ अन्य बाद में मुगल दरबार में आए थे।1560 से आगे भारतीय मूल के दो शासकीय समूहों-राजपूतों व भारतीय मुसलमानों (शेखज़ादाओं) ने शाही सेवा में प्रवेश किया। इनमें नियुक्त होने वाला प्रथम व्यक्ति एक राजपूत मुखिया आंबेर का राजा भारमल कछवाहा था जिसकी पुत्री से अकबर का विवाह हुआ था। शिक्षा और लेखाशास्त्र की ओर झुकाव वाले हिंदू जातियों के सदस्यों को भी पदोन्नत किया जाता था। इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण अकबर के वित्तमंत्री टोडरमल का है जो खत्री जाति का था। जहाँगीर के शासन में ईरानियों को उच्च पद प्राप्त हुए। जहाँगीर की राजनीतिक रूप से प्रभावशाली रानी नूरजहाँ (1645) ईरानी थी। औरंगजेब ने राजपूतों को उच्च पदों पर नियुक्त किया।फिर भी शासन में अधिकारियों के समूह में मराठे अच्छी-खासी संख्या में थे। अभिजात-वर्ग के सदस्यों के लिए शाही सेवा शक्ति, धन तथा उच्चतम प्रतिष्ठा प्राप्त करने का एक ज़रिया थी। सेवा में आने का इच्छुक व्यक्ति एक अभिजात के जरिए याचिका देता था जो बादशाह के सामने तजवीज प्रस्तुत करता था। अगर याचिकाकर्ता को सुयोग्य माना जाता था तो उसे मनसब प्रदान किया जाता था। मीरबख्शी (उच्चतम वेतनदाता) खुले दरबार में बादशाह के दाएँ ओर खड़ा होता था तथा नियुक्ति और पदोन्नति के सभी उम्मीदवारों को प्रस्तुत करता था; जबकि उसका कार्यालय उसकी मुहर व हस्ताक्षर के साथ-साथ बादशाह की मुहर व हस्ताक्षर वाले आदेश तैयार करता था।

प्रश्न 9. राजत्व के मुगल आदर्श का निर्माण करने वाले तत्वों की पहचान कीजिए।
उत्तर – मुगलों के राजत्व सिद्धांत का वास्तविक प्रस्फुटन सम्राट अकबर के शासनकाल में हुआ। अकबर के उत्तराधिकारी जहाँगीर ने पर्याप्त सीमा तक उसके द्वारा प्रतिपादित राजत्व सिद्धांत का ही अनुकरण किया। शाहजहाँ धीरे-धीरे अकबर की नीति से हटने लगा। शाहजहाँ के उत्तराधिकारी औरंगजेब ने इस नीति का परित्याग करके राजत्व के विशुद्ध इस्लामी आदर्श का अनुसरण किया। मुगलों की राजकीय विचारधारा का निर्माण सम्राट अकबर के परम मित्र और वैचारिक सहयोगी अबुल फ़ज़ल द्वारा किया गया था।विद्वानों के विचारानुसार इस पर राजतंत्र के तैमूरी ढाँचे और सुप्रसिद्ध ईरानी सूफ़ी शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी (1191 ई० में मृत्यु) के विचारों का प्रभाव था। शिहाबुद्दीन के विचारानुसार प्रत्येक व्यक्ति में एक दिव्य चमक (फ़र-ए-इज़ादी) है, किंतु केवल उच्चतम व्यक्ति ही अपने युग के नेता हो सकते हैं। अबुल फ़ज़ल द्वारा प्रतिपादित राजत्व सिद्धांत के मूल में भी यही विचारधारा निहित थी।

राजत्व के मुग़ल आदर्श का निर्माण करने वाले तत्व इस प्रकार थे-

1. राजपद का दिव्य सिद्धांत – सभी मुग़ल सम्राट राजपद के दिव्य सिद्धांत में विश्वास करते थे। उनका विचार था कि यह पद सर्वोच्च शक्ति द्वारा व्यक्ति विशेष को ही प्रदान किया जाता था। मुग़ल दरबार के इतिहासकारों ने अनेक साक्ष्यों के आधार पर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि मुग़ल बादशाहों को शक्ति सीधे ईश्वर से प्राप्त हुई थी। उनके द्वारा वर्णित एक दंतकथा में यह बताया गया कि मंगोल रानी अलानकुआ अपने शिविर में आराम करते समय सूर्य की एक किरण द्वारा गर्भवती हुई थी। उसने जिस संतान को जन्म दिया उस दिव्य प्रकाश का प्रभाव था। यह प्रकाश पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित । होता रहा।राजत्व के दिव्य सिद्धांत की व्याख्या करते हुए अबुल फ़ज़ल ने लिखा था, “राजा एक सामान्य मानव से कहीं अधिक है; वह पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि है, ईश्वर का रूप है, और उसे एक सामान्य मनुष्य की अपेक्षा बुद्धि-विवेक का ईश्वरीय वरदान अधिक मात्रा में प्राप्त होता है। उसके अनुसार, “राज्य-शक्ति ईश्वर से फूटने वाला प्रकाश और सूर्य से निकलने वाली किरण है।” राजपद के इसी सिद्धांत के कारण मुग़ल सम्राट स्वयं को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि समझते थे। अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब आदि सभी ने ‘जिल्ल-ए-इलाही’ अर्थात् ‘ईश्वर की छाया’ की उपाधि धारण की थी। राजपद के इस दैवी सिद्धांत ने मुग़ल सम्राटों की शक्ति में वृद्धि की तथा जन-सामान्य में सम्राट पद के प्रति आदर-सम्मान तथा श्रद्धा की भावनाएँ उत्पन्न कीं।

2. चित्रों द्वारा दिव्य सिद्धान्त के विचार का संप्रेषण – उल्लेखनीय है कि इतिवृत्तों के विवरणों के साथ चित्रित किए जाने वाले चित्रों ने इन विचारों के सम्प्रेषण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ये चित्र देखने वालों के मन-मस्तिष्क पर स्थायी प्रभाव डालते थे। 17वीं शताब्दी से मुग़ल कलाकार बादशाहों को प्रभामंडल के साथ चित्रित करने लगे। उन्होंने ईश्वरीय प्रकाश के प्रतीक रूप इन प्रभामंडलों को ईसा और वर्जिन मेरी के यूरोपीय चित्रों में देखा था।

3. धर्म और राजनीति में पृथक्कीकरण – मुग़ल राजत्व सिद्धांत में धर्म और राजनीति में पृथक्कीकरण स्थापित करने का प्रयास किया गया। अकबर को राजनीति में उलेमा वर्ग का अनुचित हस्तक्षेप पसंद नहीं था। वह उलेमा वर्ग के प्रभाव को समाप्त करके अपनी शासन-नीति को जन-हितैषी सिद्धांतों के आधार पर संचालित करना चाहता था। इस उद्देश्य से उसने सितंबर 1579 ई० में ‘निर्भूत घोषणा’ (महज़र) की उद्घोषणा की। इस घोषणा के अनुसार सम्राट को कुरान की व्याख्या संबंधी उठने वाले विवादास्पद विषयों में अंतिम निर्णय लेने वाली सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्वीकार कर लिया गया।

4. सुलह-ए-कुल की नीति का अनुसरण – राजत्व के मुग़ल आदर्श का निर्माण करने वाले तत्वों में सुलह-ए-कुल की नीति का महत्त्वपूर्ण स्थान था। राज्य के लौकिक स्वरूप को स्वीकार करना तथा धार्मिक सहनशीलता की नीति का अनुसरण करना मुगलों के राजत्व सिद्धान्त की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। अबुल फ़ज़ल के अनुसार सुलह-ए-कुल (पूर्ण शान्ति) का आदर्श प्रबुद्ध शासन की आधारशिला था। सुलह-ए-कुल में सभी धर्मों और मतों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी; शर्त केवल यही थी कि वे न तो राजसत्ता को हानि पहुँचाएँगे और न आपस में झगड़ेंगे औरंगजेब के अतिरिक्त प्रायः सभी मुग़ल सम्राट धार्मिक दृष्टि से उदार एवं सहनशील थे, अतः उन्होंने राजपद के संकीर्ण इस्लामी सिद्धांत का उल्लंघन करते हुए अपनी हिन्दू और मुस्लिम प्रजा को समान अधिकार प्रदान किए। अकबर वह पहला मुस्लिम शासक था, जिसने धर्म एवं जाति के भेद-भावों का त्याग करके अपनी समस्त प्रजा के साथ समान एवं निष्पक्ष व्यवहार किया। उसका विचार था कि शासक को प्रत्येक धर्म और जाति के प्रति समान रूप से सहनशीलता | होना चाहिए।

5. राज्य-नीतियों के माध्यम से सुलह-ए-कुल के आदर्श को लागू करनामुग़ल शासकों ने सुलह-ए-कुल के आदर्श को राज्य-नीतियों के माध्यम से लागू किया। मुगलों ने अपने अभिजात वर्ग (अमीर वर्ग) में ईरानी, तूरानी, अफ़गानी, राजपूत, दक्कनी आदि सभी अमीरों को सम्मिलित करके उसे एक मिश्रित रूप प्रदान किया। इन सबको पद और पुरस्कार प्रदान करते हुए उनकी जाति अथवा धर्म को नहीं अपितु राजा के प्रति उनकी सेवा और निष्ठा को ध्यान में रखा गया। अकबर ने 1563 ई० में तीर्थ यात्रा कर और 1564 ई० में जज़िया को समाप्त कर यह सिद्ध कर दिया कि उसका शासन धार्मिक पक्षपात पर आधारित नहीं था। साम्राज्य के अधिकारियों को भी स्पष्ट निर्देश दे दिए गए थे कि वे प्रशासन में ‘सुलह-ए-कुल’ के नियमों का अनुपालन करें। उपासना-स्थलों के रख-रखाव व निर्माण के लिए सभी मुग़ल बादशाहों द्वारा अनुदान प्रदान किए गए। यद्यपि औरंगजेब के शासनकाल में गैर-मुस्लिम प्रजा पर पुनः जज़िया लगा दिया गया था, किंतु, समकालीन स्रोतों से यह पता लगता है कि शाहजहाँ और औरंगजेब के शासनकाल में यदि युद्धकाल में मंदिरों को नष्ट कर दिया जाता था, तो बाद में उनकी मरम्मत के लिए अनुदान जारी कर दिए जाते थे।

6. न्यायपूर्ण संप्रभुता सामाजिक अनुबंध के रूप में – अबुल फ़ज़ल के विचारानुसार संप्रभुता राजा और प्रजा के मध्य होने वाली एक सामाजिक अनुबंध था। बादशाह अपनी प्रजा के चार सत्त्वों-जीवन (जन), धन (माल), सम्मान (नामस) और विश्वास (दोन) की रक्षा करता था और इसके बदले में वह प्रजा से आज्ञापालन तथा संसाधनों में भाग की माँग करता था। केवल न्यायपूर्ण संप्रभु ही शक्ति और दैवी मार्गदर्शन के साथ इन अनुबंधों का सम्मान करने में समर्थ हो पाते थे। अकबर का विचार था कि एक राजा या शासक अपनी प्रजा का सबसे बड़ा शुभचिंतक एवं संरक्षक होता है। उसे न्यायप्रिय, निष्पक्ष एवं उदार होना चाहिए; अपनी प्रजा को अपनी संतान के समान समझना चाहिए और प्रतिक्षण प्रजा की भलाई के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। अकबर के उत्तराधिकारियों ने भी प्रजा-हित के इस सिद्धांत को अपने राजत्व संबंधी विचारों का प्रमुख आधार बनाए रखा।

7. प्रतीकों द्वारा न्याय-विचार का दृश्य रूप में निरूपण करना – न्याय के विचार का दृश्य रूप में निरूपण करने के लिए अनेक प्रतीकों की रचना की गई। मुग़ल राजतंत्र में न्याय के विचार को सर्वोत्तम सद्गुण माना जाता था। शांतिपूर्वक एक-दूसरे के साथ चिपटकर बैठे हुए शेर और बकरी अथवा गाय कलाकारों द्वारा प्रयुक्त सर्वाधिक लोकप्रिय प्रतीक था। इसका उद्देश्य राज्य को एक ऐसे क्षेत्र के रूप में दिखाना था, जहाँ दुर्बल और सबल सभी पारस्परिक सद्भाव से शांतिपूर्वक रह सकते थे। सचित्र ‘बादशाहनामा’ के दरबारी दृश्यों में इस प्रतीक का अंकन बादशाह के सिंहासन के ठीक नीचे बने एक ओले में किया गया है। नि:संदेह मुग़लों का राजत्व सिद्धांत पर्ववर्ती मुस्लिम शासकों के राजत्व सिद्धांत की अपेक्षा अधिक उदार एवं निष्पक्ष था।

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