NCERT Solutions Class 10th Hindi Grammar व्याकरण निबंध लेखन

NCERT Solutions Class 10th Hindi Grammar व्याकरण निबंध लेखन

TextbookNCERT
Class 10th
Subject हिन्दी व्याकरण
Chapterव्याकरण
Grammar Name निबंध लेखन
CategoryClass 10th  Hindi हिन्दी व्याकरण
Medium Hindi
SourceLast Doubt
NCERT Solutions Class 10th Hindi Grammar निबंध लेखन निबंध में सबसे पहले क्या लिखा जाता है? हिंदी में निबंध कौन कौन से आते हैं? निबंध में प्रस्तावना में क्या लिखते हैं? निबंध का उपसंहार कैसे लिखा जाता है? प्रस्तावना कैसे शुरू करें? प्रस्तावना के पहले कुछ शब्द क्या हैं? प्रस्तावना का मुख्य क्या है? प्रस्तावना में क्या क्या लिखा जाता है? प्रस्तावना किसे कहते हैं? प्रस्तावना कैसे डालते हैं? प्रस्तावना की भाषा कौन सी है? प्रस्तावना की भाषा क्या है? प्रस्तावना का जनक कौन है? प्रस्तावना में कौन से 3 शब्द जोड़े गए हैं? प्रस्तावना में कौन से तीन शब्द जोड़े गए हैं? प्रस्तावना के अध्यक्ष कौन है? प्रस्तावना कहाँ से लिया गया? प्रस्तावना का जनक कौन है? आदि के बारे में पढ़ेंगे और जानने के साथ हम NCERT Solutions Class 10th Hindi Grammar निबंध लेखन व्याकरण करेंगे।

NCERT Solutions Class 10th Hindi Grammar व्याकरण निबंध लेखन

हिन्दी व्याकरण

निबंध लेखन

निबंध-लेखन – निबंध गद्य की वह विधा है जिसमें निबंधकार किसी भी विषय को अपने व्यक्तित्व का अंग बनाकर स्वतंत्र रीति से अपनी लेखनी चलाता है। निबंध दो शब्दों नि + बंध से मिलकर बना है जिसका अर्थ है भली प्रकार कसा या बँधा हुआ। इस प्रकार निबंध साहित्य की वह रचना है जिसमें लेखक अपने विचारों को पूर्णतः मौलिक रूप से इस प्रकार श्रृंखलाबद्ध करता है कि उनमें सर्वत्र तारतम्यता दिखाई दे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है कि “यदि गद्य कवियों की कसौटी है तो निबंध गद्य की कसौटी है।

निबंध की विशेषताएँ-

•  निबंध में विषय के अनुरूप भाषा होनी चाहिए।
•  निबंध लिखते समय वर्तनी की शुद्धता तथा विराम चिह्नों का यथास्थान ध्यान रखना चाहिए।
•  निबंध में वर्णित विचार एक-दूसरे से संबद्ध होने चाहिए।
•  निबंध में विषय संबंधी सभी पत्रों पर चर्चा करनी चाहिए।
•  सारांश में उन सभी बातों को शामिल किया जाना चाहिए जिनका वर्णन पहले हो चुका है।
•  यदि निबंध लेखन में शब्द-सीमा दी गई है तो उसका अवश्य ध्यान रखें।

निबंध के तत्व  – निबंध के निम्नलिखित प्रमुख तत्व माने जाते हैं –

विषय प्रतिपादन-निबंध में विषय के चुनाव की छूट रहती है, परंतु विषय का प्रतिपादन आवश्यक है।

भाव-तत्व – भाव-तत्व होने पर ही कोई रचना निबंध की श्रेणी में आती है अन्यथा वह मात्र लेख बनकर रह जाती है।

भाषा – शैली-निबंध की शैली के अनुरूप ही उसमें भाषा का प्रयोग होता है। निबंध एक शैली में भी लिखा जा सकता है तथा उसमें अनेक शैलियों का सम्मिश्रण भी हो सकता है।

स्वच्छंदता- निबंध में लेखक की स्वच्छंद वृत्ति दिखाई देनी चाहिए, परंतु भौतिकता भी बनी रहनी चाहिए।

व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति – निबंध में लेखक के व्यक्तित्व की झलक अवश्य होनी चाहिए।

संक्षिप्तता- निबंध में सक्षिप्तता उसका अनिवार्य गुण है।

निबंध के अंग – निबंध के मुख्य रूप से तीन अंग माने जाते हैं –

• भूमिका/परिचयं-यह निबंध का आरंभ होता है। इसलिए भूमिका आकर्षक होनी चाहिए जिससे पाठक पूरे निबंध को पढ़ने हेतु प्रेरित हो सके।

• विस्तार- भूमिका के पश्चात निबंध का विस्तार शुरू होता है। इस भाग में निबंध के विषय से संबंधित प्रत्येक पक्ष का अलग अलग अनुच्छेदों में वर्णन किया जाता है। प्रत्येक अनुच्छेद की अपने पहले तथा अगले अनुच्छेद से संबद्धता अनिवार्य है। इसके लिए विचार क्रमबद्ध होने चाहिए।

• उपसंहार-इस अंग के अंतर्गत निबंध में व्यक्त किए गए सभी विचारों का सारांश प्रस्तुत किया जाता है।

निबंध के प्रकार – मुख्य रूप से निबंध के चार प्रकार माने जाते हैं –

1. वर्णनात्मक
2. विवरणात्मक
3. विचारात्मक
4. भावात्मक

वर्णनात्मक – वर्णनात्मक निबंध में स्थान, वस्तु, दृश्य आदि का क्रमबद्ध वर्णन किया जाता है। त्योहारों-दीवाली, रक्षाबंधन, होली तथा वर्षा ऋतु आदि पर लिखे निबंध इसी कोटि में आते हैं।

विवरणात्मक – विवरणात्मक निबंधों में विषय से संबंधित घटनाओं, व्यक्तियों, यात्राओं, उत्सवों आदि का विवरण प्रस्तुत किया जाता है। पं० जवाहरलाल नेहरू, रेल-यात्रा, विद्यालय का वार्षिक उत्सव आदि प्रकार के निबंध इस श्रेणी में आते हैं।

विचारात्मक –  जिन निबंधों में किसी समस्या, विचार, मनोभाव आदि को विश्लेषणात्मक व व्याख्यात्मक शैली में प्रस्तुत किया जाता है, वे विचारात्मक निबंध कहलाते हैं; जैसे-नशाखोरी, विज्ञान से लाभ-हानि आदि।

भावात्मक – जिन निबंधों में भाव-तत्व प्रधान होता है वे भावात्मक निबंध कहलाते हैं। परोपकार, साहस, पर उपदेश कुशल बहुतेरे आदि निबंध इसी श्रेणी में आते हैं।

निबंध लेखन करते समय ध्यान रखने योग्य कुछ आवश्यक बातें-

• प्रश्न-पत्र में दिए गए शब्दों की सीमा का ध्यान रखें।
• भाषा की शुद्धता का ध्यान रखें तथा विराम चिह्नों का यथास्थान प्रयोग करें।
• निबंध लेखन में मौलिकता अवश्य होनी चाहिए।
• विषय के अनावश्यक विस्तार से बचें।
• निबंध के प्रारंभ या अंत में किसी सूक्ति, उदाहरण, सुभाषित या काव्य पंक्ति के प्रयोग से निबंध आकर्षक बन जाता है।
• विचारों की क्रमबद्धता का ध्यान रखें।
• आवश्यकतानुसार मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग करें।

(1) लड़का-लड़की एक समान

संकेत बिंदु –

• प्रस्तावना
• प्राचीन काल में नारी की स्थिति
• आधुनिक काल में नारी की स्थिति
• उपसंहार
• नारी में अधिक मानवीयगुण
• मध्यकाल में नारी की स्थिति
• नारी की स्थिति और पुरुष की सोच

प्रस्तावना – स्त्री और पुरुष जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। जीवन की गाड़ी सुचारु रूप से चलती रहे इसके लिए दोनों पहियों अर्थात स्त्री-पुरुष दोनों का बराबर का सहयोग और सामंजस्य ज़रूरी है। यदि इनमें एक भी छोटा या बड़ा हुआ तो गाड़ी सुचारु रूप से नहीं चल सकेगी। इसी तरह समाज और देश की उन्नति के लिए पुरुषों की नहीं नारियों के योगदान की भी उतनी आवश्यकता है। नारी अपना योगदान उचित रूप में दे सके इसके लिए उसे बराबरी का स्थान मिलना चाहिए तथा यह ज़रूरी है कि समाज लड़के
और लड़की में कोई भेद न करे।

नारी में अधिक मानवीय गुण – स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है। यद्यपि दोनों की शारीरिक रचना में काफ़ी अंतर है फिर भी जहाँ तक मानवीय गुणों की जहाँ तक बात है। वहाँ नारी में ही अधिक मानवीय गुण मिलते हैं। पुरुष जो स्वभाव से पुरुष होता है, उसमें त्याग, दया, ममता सहनशीलता जैसे मानवीय गुण नारी की अपेक्षा बहुत की कम होते हैं। नर जहाँ क्रोध का अवतार माना जाता है वहीं नारी वात्सल्य और प्रेम की जीती-जागती मूर्ति होती है। इस संबंध में मैथिली शरण गुप्त ने ठीक ही कहा है –

एक नहीं दो-दो मात्राएँ नर से भारी नारी।

प्राचीनकाल में नारी की स्थिति-प्राचीनकाल में नर और नारी को समान अधिकार प्राप्त थे। वैदिककाल में स्त्रियों द्वारा वेद मंत्रों, ऋचाओं, श्लोकों की रचना का उल्लेख मिलता है। भारती, विज्जा, अपाला, गार्गी ऐसी ही विदुषी स्त्रियाँ थीं जिन्होंने पुरुषों के साथ शास्त्रार्थ कर उनके छक्के छुड़ाए थे। उस काल में नारी को सहधर्मिणी, गृहलक्ष्मी और अर्धांगिनी जैसे शब्दों से विभूषित किया जाता था। समाज में नारी को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।

मध्यकाल में नारी की स्थिति – मध्यकाल तक आते-आते नारी की स्थिति में गिरावट आने लगी। मुसलमानों के आक्रमण के कारण नारी को चार दीवारी में कैद होना पड़ा। मुगलकाल में नारियों का सम्मान और भी छिन गया। वह पर्दे में रहने को विवश कर दी गई। इस काल में उसे पुरुषों की दासी बनने को विवश किया गया। उसकी शिक्षा-दीक्षा पर रोक लगाकर उसे चूल्हे-चौके तक सीमित कर दिया गया। पुरुषों की दासता और बच्चों का पालन-पोषण यही नारी के हिस्से में रह गया। नारी को अवगुणों का भंडार समझ लिया गया। तुलसी जैसे महाकवि ने भी न जाने क्या देखकर लिखा –

ढोल गँवार शूद्र पशु नारी।
ये सब ताड़न के अधिकारी॥

आधुनिक काल में नारी की स्थिति – अंग्रेजों के शासन के समय तक नारी की स्थिति में सुधार की बात उठने लगे। सावित्री बाई फले जैसी महिलाएँ आगे आईं और नारी शिक्षा की दिशा में कदम बढ़ाया। इसी समय राजा राम मोहन राय, स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी आदि ने सती प्रथा बंद करवाने, संपत्ति में अधिकार दिलाने, सामाजिक सम्मान दिलाने, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा आदि की दिशा में ठोस कदम उठाए, क्योंकि इन लोगों ने नारी की पीड़ा को समझा। जयशंकार प्रसाद ने नारियों की स्थिति देखकर लिखा –

नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में
पीयूष स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में॥

एक अन्य स्थान पर लिखा गया है –

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी॥

स्वतंत्रता के बाद नारी शिक्षा की दिशा में ठोस कदम उठाए गए। उनके अधिकारों के लिए कानून बनाए गए। शिक्षा के कारण पुरुषों के दृष्टिकोण में भी बदलाव आया। इससे नारी की स्थिति दिनोंदिन सुधरती गई। वर्तमान में नारी की स्थिति पुरुषों के समान मज़बूत है। वह हर कदम पर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। शिक्षा, चिकित्सा, उड्डयन, राजनीति जैसे क्षेत्र अब उसकी पहुँच में है।

नारी की स्थिति और पुरुष की सोच – समाज में जैसे-जैसे पुरुषों की सोच में बदलाव आया, नारी की स्थिति में बदलाव आता गया। कुछ समय पूर्व तक कन्याओं को माता-पिता और समाज बोझ समझता था। वह भ्रूण (कन्या) हत्या के द्वारा अजन्मी कन्याओं के बोझ से छुटकारा पा लेता था। यह स्थिति सामाजिक समानता और लिंगानुपात के लिए खतरनाक होती जा रही थी, पर सरकारी प्रयास और पुरुषों की सोच में बदलाव के कारण अब स्थिति बदल गई है। लोग अब लड़कियों को बोझ नहीं समझते हैं। पहले जहाँ लड़कों के जन्म पर खुशी मनाई जाती थी वहीं अब लड़की का जन्मदिन भी धूमधाम से मनाया जाने लगा है। हमारे संविधान में भी स्त्री-पुरुष को समानता का दर्जा दिया गया है, पर अभी भी समाज को अपनी सोच में उदारता लाने की ज़रूरत है।

उपसंहार – घर-परिवार, समाज और राष्ट्र की प्रगति की कल्पना नारी के योगदान के बिना सोचना हवा-हवाई बातें रह जाएँगी। अब समाज को पुरुष प्रधान सोच में बदलाव लाते हुए महिलाओं को बराबरी का सम्मान देना चाहिए। इसके लिए ‘लड़का-लड़की एक समान’ की सोच पैदा कर व्यवहार में लाने की शुरुआत कर देना चाहिए।

(2) विपति कसौटी जे कसे तेई साँचे मीत

संकेत बिंदु –

• प्रस्तावना
• आदर्श मित्रता के उदाहरण
• सच्चे मित्र के गुण
• उपसंहार
• मित्र की आवश्यकता
• छात्रावस्था में मित्रता
• मित्रता का निर्वहन

प्रस्तावना – मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसके जीवन में सुख-दुख का आना-जाना लगा रहता है। उसके अलावा दिन-प्रतिदिन की समस्याएँ उसे तनावग्रस्त करती हैं। इससे मुक्ति पाने के लिए वह अपने मन की बातें किसी से कहना-सुनना चाहता है। ऐसे में उसे अत्यंत निकटस्थ व्यक्ति की ज़रूरत महसूस होती है। इस ज़रूरत को मित्र ही पूरी कर सकता है। मनुष्य को मित्र की आवश्यकता सदा से रही है और आजीवन रहेगी।

मित्र की आवश्यकता – जीवन में मित्र की आवश्यकता प्रत्येक व्यक्ति को पड़ती है। एक सच्चा मित्र औषधि के समान होता है जो व्यक्ति की बुराइयों को दूर कर उसे अच्छाइयों की ओर ले जाता है। मित्र ही सुख-दुख के वक्त साथ देता है। वास्तव में मित्र के बिना सुख की कल्पना नहीं की जा सकती है, क्योंकि

अलसस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतो सुखम् ॥

आदर्श मित्रता के उदाहरण – इतिहास में अनेक उदाहरण भरे हैं जिनसे मित्रता करने और उसे निभाने की सीख मिलती है। वास्तव में मित्र बनाना तो सरल है पर उसे निभाना अत्यंत कठिन है। देखा गया है कि आर्थिक समानता न होने पर भी दो मित्रों की मित्रता आदर्श बन गई, जिसकी सराहना इतिहास भी करता है। राणाप्रताप और भामाशाह की मित्रता, कृष्ण और अर्जुन की मित्रता, राम और सुग्रीव की मित्रता, दुर्योधन और कर्ण की मित्रता कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं। इनकी मित्रता से हमें प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए, क्योंकि इन मित्रों के बीच स्वार्थ आड़े नहीं आया।

छात्रावस्था में मित्रता – ऐसा देखा जाता है कि छात्रावस्था या युवावस्था में मित्र बनाने की धुन सवार रहती है। बस एक दो-बार किसी से बातें किया, साथ-साथ नाश्ता किया, फ़िल्म देखी, हँसमुख चेहरा देखा, अपनी बात में हाँ में हाँ मिलाते देखा और मित्र बना लिया पर ऐसे मित्र जितनी जल्दी बनते हैं, संकट देख उतनी ही जल्दी साथ छोड़कर दूर भी हो जाते हैं। ऐसे ही मित्रों की तुलना जल से करते हुए रहीम ने कहा है –

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह।
रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छाँड़ति छोह ॥

सच्चे मित्र के गुण – जीवन में सच्चे मित्र का बहुत महत्त्व है। एक सच्चे मित्र का साथ व्यक्ति को उन्नति के पथ पर ले जाता है और बुरे व्यक्ति का साथ पतन की ओर अग्रसर करता है। सच्चा मित्र जहाँ व्यक्ति को अवगुणों से बचाकर सदगुणों की ओर ले जाता है वहीं कपटी मित्र हमारे पैरों में बँधी चक्की के समान होता है जो हमें पीछे खींचता रहता है। यदि हमारा कोई मित्र जुआरी या शराबी निकला तो उसका प्रभाव एक न एक दिन हम पर अवश्य पड़ना है। इसके विपरीत सच्चा मित्र सुमार्ग पर ले जाता है। वह मित्र के सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझकर सच्ची सहानुभूति रखता है और दुख से उबारने का हर संभव प्रयास करता है। ऐसे मित्रों के बारे कवि तुलसीदास ने लिखा है –

जे न मित्र दुख होय दुखारी।
तिनहिं विलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज कर जाना।
मित्रक दुख रज मेरु समाना।

सच्चा मित्र अपने मित्र को कुसंगति से बचाकर सन्मार्ग पर ले जाता है और उसके गुणों को प्रकटकर सबके सामने लाता है। मित्रता का निर्वहन-मित्रता के लिए यह माना जाता है कि उनमें आर्थिक समानता होनी चाहिए पर यदि सच्ची मित्रता है तो दो मित्रों के बीच धन, स्वभाव और आचरण की समानता न होने पर भी मित्रता का निर्वाह हुआ है। सच्चे मित्र अपने बीच अमीरी गरीबी को आड़े नहीं आने देते हैं। कृष्ण-सुदामा की मित्रता का उदाहरण सामने है। उनकी हैसियत में ज़मीन-आसमान का अंतर था पर उनकी मित्रता का उदाहरण दिया जाता है।

इसी प्रकार अकबर-बीरबल, कृष्णदेवराय और तेनालीरामन की मित्रता का उदाहरण हमारे सामने है। उपसंहार-मित्रता अनमोल वस्तु है जो जीवन में कदम-कदम पर काम आती है। एक सच्चा मित्र मिल जाना गर्व एवं सौभाग्य की बात है। जिसे सच्चा मित्र मिल जाए, उसे सुख का खज़ाना मिल जाता है। हमें मित्र बनाने में सावधानी बरतना चाहिए। एक सच्चा मित्र मिल जाने पर मित्रता का निर्वहन करना चाहिए। सच्चे मित्र के रूठने पर उसे तुरंत मना लेना चाहिए। हमें भी मित्र के गुण बनाए रखना चाहिए, क्योंकि – विपति कसौटी जे कसे तेई साँचे मीत।

(3) डॉ० ए०पी०जे० अब्दुल कलाम

संकेत बिंदु –

• प्रस्तावना
• शिक्षा-दीक्षा
• राष्ट्रपति डॉ कलाम
• सादा जीवन उच्च विचार निबंध-लेखन
• जीवन-परिचय
• मिसाइल मैन डॉ० कलाम
• सम्मान एवं अलंकरण
• उपसंहार

प्रस्तावना – भारत भूमि ऋषियों-मुनियों और अनेक कर्मवीरों की जन्मदात्री है। यहाँ अनेक महापुरुष पैदा हुए हैं तो देश का नाम शिखर तक ले जाने वाले वैज्ञानिक भी हुए हैं। इन्हीं में एक जाना-पहचाना नाम है- डॉ० ए०पा. ने० अब्दुल कलाम का जिन्होंने दो रूपों में राष्ट्र की सेवा की। एक तो वैज्ञानिक के रूप में और दूसरे राष्ट्रपति के रूप में। देश उन्हें मिसाइल मैन के नाम से जानता-पहचानता है।

जीवन-परिचय – डॉ० कलाम का जन्म 15 अक्टूबर, 1931 को तमिलनाडु राज्य के रामेश्वरम् नामक कस्बे में हुआ था। इनके पिता का नाम जैनुलाबदीन और माता का नाम अशियम्मा था। इनके पिता पढ़े-लिखे मध्यमवर्गीय व्यक्ति थे जो बहुत धनी न थे। इनकी माता आदर्श महिला थीं। इनके पिता और रामेश्वरम मंदिर के पुजारी में गहरी मित्रता थी, जिसका असर कलाम के जीवन पर भी पड़ा। इनके पिता रामेश्वरम् से धनुषकोडि तक आने-जाने के लिए तीर्थयात्रियों के लिए नौकाएँ बनवाने का कार्य किया करते थे।

शिक्षा-दीक्षा – डॉ० कलाम की प्रारंभिक शिक्षा तमिलनाडु में हुई। इसके बाद वे रामनाथपुरम् के श्वार्ज़ हाई स्कूल में भर्ती हुए। हायर सेकंडी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पूरी करने के बाद इंटर की पढ़ाई के लिए सेंट जोसेफ कॉलेज में प्रवेश लिया। यहाँ चार साल तक पढ़ाई करने और बी०एस०सी० प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने ‘हिंदू पत्रिका’ में विज्ञान से संबंधित लेख-लिखने लगे। उन्होंने एअरोनॉटिक्स इंजीनियरिंग में डिप्लोमा भी किया।

मिसाइल मैन डॉ० कलाम – डॉ० कलाम को अपने कैरियर की चिंता हुई। वे भारतीय वायुसेना में पायलट पद के लिए चुने गए पर साक्षात्कार में असफल रहे। इसके बाद वे वर्ष 1958 में रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन से जुड़ गए। उनकी पहली नियुक्ति हैदराबाद में हुई। वहाँ वे पाँच वर्षों तक अनुसंधान सहायक के रूप में कार्य करते रहे। उन्होंने यहाँ वर्ष 1980 तक कार्य किया और अंतरिक्ष विज्ञान को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश भाग अनुसंधान को समर्पित कर दिया। परमाणु क्षेत्र में उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकता है। उनके नेतृत्व में 1 मई, 1998 का प्रसिद्ध पोखरण परीक्षण किया गया। मिसाइल कार्यक्रम को नई ऊँचाई तक ले जाने के कारण उन्हें मिसाइल मैन कहा जाता है।

राष्ट्रपति डॉ० कलाम – भारत के गणराज्य में 25 जुलाई, 2002 को वह सुनहरा दिन आया, जब मिसाइल मैन के नाम से मशहूर डॉ० कलाम ने राष्ट्रपति का पद सुशोभित किया और इसी दिन पद एवं गोपनीयता की शपथ ली। यद्यपि उनका संबंध राजनीति की दुनिया से कोसों दूर था फिर भी संयोग और भाग्य के मेल से उन्होंने भारत के बारहवें राष्ट्रपति के रूप में इस पद को सुशोभित किया। उन्होंने राष्ट्रपति पद पर रहते हुए निष्पक्षता और पूरी निष्ठा से कार्य किया।

सम्मान एवं अलंकरण – डॉ० कलाम ने जिस परिश्रम से परमाणु एवं अंतरिक्ष कार्यक्रम को नई ऊँचाई तक पहुँचाया उसके लिए उन्हें देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित एवं अलंकृत किया गया। उन्हें वर्ष 1981 में पद्म विभूषण एवं वर्ष 1990 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित किया गया। ‘भारत रत्न’ से सम्मानित होने वाले वे देश के तीसरे वैज्ञानिक हैं।

सादा जीवन उच्च विचार – डॉ० कलाम पर गांधी जी के विचारों का प्रभाव था। वे सादगीपूर्वक रहते थे। उनके विचार अत्यंत उच्च कोटि के थे। वे बच्चों से लगाव रखते थे। वे विभिन्न स्कूलों में जाकर बच्चों का उत्साहवर्धन एवं मार्गदर्शन करते थे। वे आज का काम आज निपटाने में विश्वास रखते थे। बच्चों को प्यार करने वाले डॉ० कलाम की मृत्यु भी बच्चों के बीच सन् 2015 में उस समय हुई जब वे उनके बीच अपने अनुभव बाँट रहे थे।

उपसंहार – डॉ० कलाम अत्यंत निराभिमानी व्यक्ति थे। वे परिश्रमी और कर्तव्यनिष्ठ थे। एक वैज्ञानिक होने के साथ ही उन्होंने मिसाइल कार्यक्रम को नई ऊँचाई पर पहुँचाया तो राष्ट्रपति रहते हुए उन्होंने देश की प्रगति में भरपूर योगदान दिया। उनका जीवन हम भारतीयों के लिए प्रेरणा स्रोत है।

(4) क्रिकेट का नया प्रारूप-ट्वेंटी-ट्वेंटी

संकेत बिंदु –

• प्रस्तावना
• टेस्ट क्रिकेट –
• टी-ट्वेंटी प्रारूप
• उपसंहार
• क्रिकेट के विभिन्न प्रारूप
• एक दिवसीय क्रिकेट
• टी-ट्वेंटी का रोमांच एवं सफलता

प्रस्तावना- यूँ तो मनुष्य का खेलों से बहुत ही पुराना नाता है, पर मनुष्य ने शायद ही कभी यह सोचा हो कि ये खेल एक दिन उसे यश, धन और प्रतिष्ठा दिलाने का साधन सिद्ध होंगे। जिन खेलों को वह मात्र मनोरंजन के लिए खेला करता था, वही खेल अब खराब नहीं नवाब बना रहे हैं। खेलों में आज लोकप्रियता के शिखर पर क्रिकेट का स्थान है। इसकी लोकप्रियता के कारण आज हर बच्चा क्रिकेट का खिलाड़ी बनना चाहता है। वर्तमान में क्रिकेट का ट्वेंटी-ट्वेंटी रूप बहुत ही लोकप्रिय है।

क्रिकेट के विभिन्न प्रारूप – भारत में क्रिकेट की शुरुआत अंग्रेज़ों के समय हुई। अंग्रेज़ों का यह राष्ट्रीय खेल था, जिसे वे अपने साथ यहाँ लाए। कालांतर में यह विभिन्न देशों में फैला। उस समय क्रिकेट को मुख्यतया टेस्ट क्रिकेट के रूप में खेलते थे। समय की व्यस्तता और रुचि में आए बदलाव के साथ ही क्रिकेट का प्रारूप बदलता गया। एक दिवसीय क्रिकेट और टी-ट्वेंटी इसका लोकप्रिय रूप है।

टेस्ट क्रिकेट – टेस्ट क्रिकेट पाँच दिनों तक खेला जाने वाला रूप है। इसमें पाँचों दिन 90-90 ओवर की प्रतिदिन गेंदबाजी की जाती है। दोनों टीमें दो-दो बार बल्लेबाज़ी करती हैं। विपक्षी टीम को दोबार आल आउट करना होता है। ऐसा ही दूसरी टीम करती है, परंतु प्राय; पाँच दिन तक मैच चलने के बाद भी खेल का परिणाम नहीं निकलता है और मैच ड्रा कर दिया जाता है। यह प्रारूप धीरे-धीरे अपनी लोकप्रियता खोता जा रहा है।

एक दिवसीय क्रिकेट – यह क्रिकेट का दूसरा प्रारूप है, जिसे एक दिन में एक सौ ओवर अर्थात छह सौ आधिकारिक गेंदें खेलकर पूरा किया जाता है। प्रत्येक टीम 50-50 ओवर खेलती है। पहले बल्लेबाज़ी करने वाली टीम जितने रन बनाती है उससे एक रन अधिक बनाकर दूसरी टीम को मैच जीतना होता है। जो टीम ऐसा कर पाती है, वही विजयी होती है। यह क्रिकेट का बेहद रोमांचक प्रारूप है, जिसे दर्शक खूब पसंद करते हैं। एक ही दिन में प्रायः मैच का परिणाम निकलने और पूरा हो जाने के कारण क्रिकेट स्टेडियमों में दर्शकों की भीड़ देखने लायक होती है।

टी-ट्वेंटी प्रारूप – यह क्रिकेट का सर्वाधिक लोकप्रिय प्रारूप है जिसे चालीस ओवरों में पूरा कर लिया जाता है। प्रत्येक टीम बीस- . बीस ओवर खेलती है। इधर सात-आठ साल पहले ही शुरू हुए उस प्रारूप को फटाफट क्रिकेट कहा जाता है जिसकी लोकप्रियता ने अन्य प्रारूपों को पीछे छोड़ दिया है। यह प्रारूप अधिक रोमांचक एवं मनोरंजक है।

इसे देखकर दर्शकों का पूरा पैसा वसूल हो जाता है। यह क्रिकेट सामान्यतया सायं चार बजे के बाद ही शुरू होता है और आठ-साढ़े आठ बजे तक खत्म हो जाता है। इसमें परिणाम और मनोरंजन के लिए दर्शकों को पूरे दिन स्टेडियम में नहीं बैठना पड़ता है। भारत में शुरू हुई आई०पी०एल० लीग में इसी प्रारूप से खेला जाता है जो भविष्य के खिलाड़ियों के लिए एक नया प्लेटफॉर्म तथा नवोदित खिलाड़ियों के लिए कमाई का साधन बन गया है। अब तो आलम यह है कि इस प्रारूप में चार सौ से अधिक रन तक बन जाते हैं।

टी-ट्वेंटी का रोमांच एवं सफलता – क्रिकेट का यह नया प्रारूप अत्यंत रोमांचक है। 20 ओवरों के मैच में 200 से अधिक रन बन जाते हैं। ट्वेंटी-ट्वेंटी प्रारूप का रोमांच तब देखने को मिला जब युवराज ने अंग्रेज़ गेंदबाज़ किस ब्राड के एक ही ओवर में छह छक्कों को दर्शकों के बीच पहुँचा दिया। ताबड़तोड़ बल्लेबाज़ी ही इस प्रारूप की सफलता का रहस्य है। उपसंहार- हमारे देश में क्रिकेट अत्यंत लोकप्रिय है। खेल के इस नए प्रारूप ने इसे और भी लोकप्रिय बना दिया है। आस्ट्रेलियाई गेंदबाज़ शेनवान और सचिन तेंदुलकर की रिटायर्ड खिलाड़ियों की टीमों ने अमेरिका में तीन मैचों की सीरीज खेलकर दर्शकों की खूब वाह-वाही लूटी। क्रिकेट का यह नया प्रारूप टी-ट्वेंटी दिनोंदिन लोकप्रिय होता जा रहा है।

(5) अनुशासन की समस्या

संकेत बिंदु –

• प्रस्तावना
• छात्र और अनुशासन
• अनुशासनहीनता के कारण
• उपसंहार
• अनुशासन की आवश्यकता
• प्रकृति में अनुशासन
• समाधान हेतु सुझाव

उपसंहार प्रस्तावना-‘शासन’ शब्द में ‘अनु’ उपसर्ग लगाने से अनुशासन शब्द बना है, जिसका अर्थ है- शासन के पीछे अनुगमन करना, शासन के पीछे चलना अर्थात समाज और राष्ट्र द्वारा बनाए गए नियमों का पालन करते हुए मर्यादित आचरण करना अनुशासन कहलाता है। अनुशासन का पालन करने वाले लोग ही समाज और राष्ट्र को उन्नति के पथ पर ले जाते हैं। इसी तरह अनुशासनहीन नागरिक ही किसी राष्ट्र के पतन का कारण बनते हैं।

अनुशासन की आवश्यकता – अनुशासन की आवश्यकता सभी उम्र के लोगों को जीवन में कदम-कदम पर होती है। छात्र जीवन, मानवजीवन की रीढ़ होता है। इस काल में सीखा हुआ ज्ञान और अपनाई हुई आदतें जीवन भर काम आती हैं। इस कारण छात्र जीवन में अनुशासन की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है। अनुशासन के अभाव में छात्र प्रकृति प्रदत्त शक्तियों का न तो प्रयोग कर सकता है और न ही विद्यार्जन के अपने दायित्व का भली प्रकार निर्वाह कर सकता है। छात्र ही किसी देश का भविष्य होते हैं, अतः छात्रों का अनुशासनबद्ध रहना समाज और राष्ट्र के हित में होता है।

छात्र और अनुशासन – कुछ तो सरकारी नीतियाँ छात्रों को अनुशासनविमुख बना रही हैं और कुछ दिन-प्रतिदिन मानवीय मूल्यों में आती गिरावट छात्रों को अनुशासनहीन बना रही है। आठवीं कक्षा तक अनिवार्य रूप से उत्तीर्ण कर अगली कक्षा में भेजने की नीति के कारण छात्र पढ़ाई के अलावा अनुशासन से भी दूरी बना रहे हैं। इसके अलावा अनुशासन के मायने बदलने से भी छात्रों में अब पहले जैसा अनुशासन नहीं दिखता है। इस कारण प्रायः स्कूलों और कॉलेजों में हड़ताल, तोड़-फोड़, बात-बात पर रेल की पटरियों और सड़कों को बाधित कर यातायात रोकने का प्रयास करना आमबात होती जा रही है। छात्रों में मानवीय मूल्यों की कमी कल के समाज के लिए चिंता का विषय बनती जा रही है।

प्रकृति में अनुशासन – हम जिधर भी आँख उठाकर देखें, प्रकृति में उधर ही अनुशासन नज़र आता है। सूरज का प्रातःकाल उगना और सायंकाल छिपना न हीं भूलता। चंद्रमा अनुशासनबद्ध तरीके से पंद्रह दिनों में अपना पूर्ण आकार बिखेरता है और नियमानुसार अपनी चाँदनी लुटाना नहीं भूलता। तारे रात होते ही आकाश में दीप जलाना नहीं भूलते हैं। बादल समय पर वर्षा लाना नहीं भूलते तथा पेड़-पौधे समय आने पर फल-फूल देना नहीं भूलते हैं। इसी प्रकार प्रातः होने का अनुमान लगते ही मुर्गा हमें जगाना नहीं भूलता है। वर्षा, शरद, शिशिर, हेमंत, वसंत, ग्रीष्म ऋतुएँ बारी-बारी से आकर अपना सौंदर्य बिखराना नहीं भूलती हैं। इसी प्रकार धरती भी फ़सलों के रूप में हमें उपहार देना नहीं भूलती। प्रकृति के सारे क्रियाकलाप हमें अनुशासनबद्ध जीवन जीने के लिए प्रेरित करते हैं।

अनुशासनहीनता के कारण – छात्रों में अनुशासनहीनता का मुख्य कारण दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली है। यह प्रणाली रटने पर बल देती है। दस, बारह और पंद्रह साल तक शिक्षार्जन से प्राप्त डिग्रियाँ लेकर भी किसी कार्य में निपुण नहीं होता है। यह शिक्षा क्लर्क पैदा करती है। नैतिक शिक्षा और मानवीय मूल्यों के लिए शिक्षा में कोई स्थान नहीं है। छात्र भी ‘येनकेन प्रकारेण’ परीक्षा पास करना अपना कर्तव्य समझने लगे हैं।

अनुशासनहीनता का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण है – शिक्षकों द्वारा अपने दायित्व का सही ढंग से निर्वाह न करना। अब वे शिक्षक नहीं रहे जिनके बारे में यह कहा जाए –

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागौ पाँय।
बलिहारी गुरु आपनो, जिन गोविंद दियो बताय॥

समाधान हेतु सुझाव –छात्रों में अनुशासनहीनता दूर करने के लिए सर्वप्रथम शिक्षा की प्रणाली और गुणवत्ता में सुधार किया जाना चाहिए। शिक्षा को रोजगारोन्मुख बनाया जाना चाहिए। शिक्षण की नई-नई तकनीक और विधियों को कक्षा कक्ष तक पहुँचाया जाना चाहिए। छात्रों के लिए खेलकूद और अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराई जानी चाहिए। इसके अलावा परीक्षा प्रणाली में सुधार करना चाहिए। छात्रों को नैतिक मूल्यपरक शिक्षा दी जानी चाहिए तथा अध्यापकों को अपने पढ़ाने का तरीका रोचक बनाना चाहिए।

उपसंहार- अनुशासनहीनता मनुष्य को विनाश के पथ पर अग्रसर करती है। छात्रों पर ही देश का भविष्य टिका है, अत: उन्हें अनुशासनप्रिय बनाया जाना चाहिए। हमें अनुशासन का पालन करने के लिए प्रकृति से सीख लेनी चाहिए।

(6) भ्रष्टाचार 

संकेत बिंदु –

• प्रस्तावना
• भ्रष्टाचार के कारण
• उपसंहार
• भ्रष्टाचार के विविध क्षेत्र एवं रूप
• भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय

प्रस्तावना – भ्रष्टाचार दो शब्दों ‘भ्रष्ट’ और ‘आचार’ के मेल से बना है। ‘भ्रष्ट’ का अर्थ है- विचलित या अपने स्थान से गिरा हुआ तथा ‘आचार’ का अर्थ है-आचरण या व्यवहार अर्थात किसी व्यक्ति द्वारा अपनी गरिमा से गिरकर कर्तव्यों के विपरीत किया गया आचरण भ्रष्टाचार है। यह भ्रष्टाचार हमें विभिन्न स्थानों पर दिखाई देता है जिससे जन साधारण को दो-चार होना पड़ता है। आज लोक सेवक की परिधि में आने वाले विभिन्न कर्मचारी जैसे कि बाबू, अधिकारी आदि इसे बढ़ाने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उत्तरदायी हैं।

भ्रष्टाचार के विविधि क्षेत्र एवं रूप – भ्रष्टाचार का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है। इसकी परिधि में विभिन्न सरकारी और अर्धसरकारी कार्यालय, राशन की सरकारी दुकानें, थाने और तरह-तरह की सरकारी अर्धसरकारी संस्थाएँ आती हैं। यहाँ नियुक्त बाबू व अधिकारी, प्रशासनिक अधिकारी, एजेंट, चपरासी, नेता आदि जनसाधारण का विभिन्न रूपों में शोषण करते हैं। इन कार्यालयों में कुछ लिए दिए बिना काम करवाना टेढ़ी खीर साबित होता है। लोगों के काम में तरह-तरह के अड़गे लगाए जाते हैं और सुविधा शुल्क लिए बिना काम नहीं होता है। भ्रष्टाचार के बाज़ार में यदि व्यक्ति के पास पैसा हो तो वह किसी को भी खरीद सकता है। यहाँ हर एक बिकने को तैयार है। बस कीमत अलग-अलग है। यह कीमत काम के अनुसार तय होती है। जैसा काम वैसा दाम। काम की जल्दबाज़ी और व्यक्ति की विवशता दाम बढ़ा देती है।

भ्रष्टाचार के विविध रूप हैं। इसका सबसे प्रचलित और जाना-पहचाना नाम और रूप है-रिश्वत। यह रिश्वत नकद, उपहार, सुविधा आदि रूपों में ली जाती है। आम बोलचाल में इसे घूस या सुविधा शुल्क के नाम से भी जाना जाता है। लोग चप्पलें घिसने से बचाने, समय नष्ट न करने तथा मानसिक परेशानी से बचने के लिए स्वेच्छा या मज़बूरी में रिश्वत देने के लिए तैयार हो जाते हैं।

भ्रष्टाचार का दूसरा रूप भाई- भतीजावाद के रूप में देखा जाता है। सक्षम अधिकारी अपने पद का दुरुपयोग करते हुए अपने चहेतों, रिश्तेदारों और सगे-संबंधियों को कोई सुविधा, लाभ या नौकरी देने के अलावा अन्य लाभ पहुँचाना भाई-भतीजावाद कहलाता है। ऐसा करने और कराने में आज के नेताओं को सबसे आगे रखा जा सकता है। इससे योग्य व्यक्तियों की अनदेखी होती है और वे लाभ पाने से वंचित रह जाते हैं।

कमीशनखोरी भी भ्रष्टाचार का अन्य रूप है। सरकारी परियोजनाओं, भवनों तथा अन्य सेवाओं का काम तो कमीशन दिए बिना मिल ही नहीं सकता है। जो जितना अधिक कमीशन देता है, काम का ठेका उसे मिलने की संभावना उतनी ही प्रबल हो जाती है। इन ठेकों और बड़े ठेकों में करोड़ों के वारे-न्यारे होते हैं। बोफोर्स घोटाला, बिहार का चारा घोटाला, टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कॉमन वेल्थ घोटाला, मुंबई का आदर्श सोसायटी घोटाला तो मात्र कुछ नमूने हैं।

भ्रष्टाचार के कारण – समाज में दिन-प्रतिदिन भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ता ही जा रहा है। इसके अनेक कारण हैं। भ्रष्टाचार के कारणों में महँगी होती शिक्षा और अनुचित तरीके से उत्तीर्ण होना है। जो छात्र महँगी शिक्षा प्राप्त कर नौकरियों में आते हैं, वे रिश्वत लेकर पिछले खर्च को पूरा कर लेना चाहते हैं। एक बार यह आदत पड़ जाने पर फिर आजीवन नहीं छूटती है। इसका अगला कारण हमारी लचर न्याय व्यवस्था है जिसमें पकड़े जाने पर कड़ी कार्यवाही न होने से दोषी व्यक्ति बच निकलता है और मुकदमे आदि में हुए खर्च को वसूलने के लिए रिश्वत की दर बढ़ा देता है। उसके अलावा लोगों में विलासितापूर्ण जीवनशैली दिखावे की प्रवृत्ति, जीवन मूल्यों का ह्रास और लोगों का चारित्रिक पतन भी भ्रष्टाचार बढ़ाने के लिए उत्तरदायी हैं।

भ्रष्टाचार दूर करने के उपाय – आज भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि इसे समूल नष्ट करना संभव नहीं है, फिर भी कठोर कदम उठाकर इस पर किसी सीमा तक अंकुश लगाया जा सकता है। भ्रष्टाचार रोकने का सबसे ठोस कदम है-जनांदोलन द्वारा जन जागरूकता फैलाना। समाज सेवी अन्ना हजारे और दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल द्वारा उठाए गए ठोस कदमों से इस दिशा में काफ़ी सफलता मिली है। इसके अलावा इसे रोकने के लिए कठोर कानून बनाने की आवश्यकता है ताकि एक बार पकड़े जाने पर रिश्वतखोर किसी भी दशा में लचर कानून का फायदा उठाकर छूट न जाए।

उपसंहार – भ्रष्टाचार हमारे समाज में लगा धुन है जो देश की प्रगति के लिए बाधक है। इसे समूल उखाड़ फेंकने के लिए युवाओं को आगे आना चाहिए तथा रिश्वत न लेने-देने के लिए प्रतिज्ञा करनी चाहिए। इसके अलावा लोगों को चारित्रिक बल एवं जीवनमूल्यों का ह्रास रोकते हुए रिश्वत नहीं लेना चाहिए। आइए हम सभी रिश्वत न लेने-देने की प्रतिज्ञा करते हैं।

(7) मनोरंजन के विभिन्न साधन

संकेत बिंदु –

• प्रस्तावना
• मनोरंजन की आवश्यकता और उसका महत्त्व
• प्राचीन काल के मनोरंजन के साधन
• आधुनिक काल के मनोरंजन के साधन
• भारत में मनोरंजन के साधनों की स्थिति
• उपसंहार

प्रस्तावना – मनुष्य को अपनी अनेक तरह की आवश्यकताओं के लिए श्रम करना पड़ता है। श्रम के उपरांत थकान होना स्वाभाविक है। इसके अलावा जीवन संघर्ष और चिंताओं से परेशान होने पर वह इन्हें भूलना चाहता है और इनसे मुक्ति पाने का उपाय खोजता है और वह मनोरंजन का सहारा लेता है। मनोरंज से थके हुए मन-मस्तिष्क को सहारा मिलता है, एक नई स्फूर्ति मिलती है और कुछ पल के लिए व्यक्ति थकान एवं चिंता को भूल जाता है।

मनोरंजन की आवश्यकता और उसका महत्त्व – आदिम काल से ही मनुष्य को मनोरंजन की आवश्यकता रही है। जीवन संघर्ष से थका मानव ऐसा साधन ढूँढ़ना चाहता है जिससे उसका तन-मन दोनों ही प्रफुल्लित हो जाए और वह नव स्फूर्ति से भरकर कार्य में लग सके। वास्तव में मनोरंजन के बिना जीवन नीरस हो जाता है। ऐसी स्थिति में काम में उसका मन नहीं लगता है और न व्यक्ति को कार्य में वांछित सफलता मिलती है। ऐसे में मनोरंजन की आवश्यकता असंदिग्ध हो जाती है।

प्राचीन काल में मनोरंजन के साधन – प्राचीनकाल में न मनुष्य का इतना विकास हुआ था और न मनोरंजन के साधनों का। वह प्रकृति और जानवरों के अधिक निकट रहता था। ऐसे में उसके मनोरंजन के साधन भी प्रकृति और इन्हीं पालतू जानवरों के इर्द-गिर्द हुआ करते थे। वह तोता, मैना, तीतर, कुत्ता, भेड़, बैल, बिल्ली, कबूतर आदि पशु-पक्षी पालता था और तीतर, मुर्गे, भेड़ (नर) भैंसे, साँड़ आदि को लड़ाकर अपना मनोरंजन किया करता था। वह शिकार करके भी मनोरंजन किया करता था। इसके अलावा कुश्ती लड़कर, नाटक, नौटंकी, सर्कस आदि के माध्यम से मनोरंजन करता था। इसके अलावा पर्व-त्योहार तथा अन्य आयोजनों के मौके पर वह गाने-बजाने तथा नाचने के द्वारा आनंदित होता था।

आधुनिक काल के मनोरंजन के साधन- सभ्यता के विकास एवं विज्ञान की अद्भुत खोजों के कारण मनोरंजन का क्षेत्र भी अछूता न रह सका। प्राचीन काल की नौटंकी, नाच-गान की अन्य विधाओं का उत्कृष्ट रूप हमारे सामने आया। इससे नाटक के मंचन की व्यवस्था एवं प्रस्तुति में बदलाव के कारण नाटकों का आकर्षण बढ़ गया। पार्श्वगायन के कारण अब नाटक भी अपना मौलिक रूप कायम नहीं रख सके पर दर्शकों को आकर्षित करने में नाटक सफल हैं। लोग थियेटरों में इनसे भरपूर मनोरंजन करते हैं। सिनेमा आधुनिक काल का सर्वाधिक सशक्त और लोकप्रिय मनोरंजन का साधन है। यह हर आयु-वर्ग के लोगों की पहली पसंद है। यह सस्ता और सर्वसुलभ होने के अलावा ऐसा साधन है जो काल्पनिक घटनाओं को वास्तविक रूप में चमत्कारिक ढंग से प्रस्तुत करता है जिसका जादू-सा असर हमारे मन-मस्तिष्क पर छा जाता है और हम एक अलग दुनिया में खो जाते हैं। इस पर दिखाई जाने वाली फ़िल्में हमें कल्पनालोक में ले जाती हैं।

रेडियो और टेलीविज़न भी वर्तमान युग के मनोरंजन के लोकप्रिय साधन है। रेडियो पर गीत-संगीत, कहानी, चुटकुले, वार्ता आदि सनकर लोग अपना मनोरंजन करते हैं तो टेलीविज़न पर दुनिया को किसी कोने की घटनाएँ एवं ताज़े समाचार मनोरंजन के अलावा ज्ञानवर्धन भी करते हैं। तरह-तरह के धारावाहिक, फ़िल्में, कार्टून, खेल आदि देखकर लोग अपने दिनभर की थकान भूल जाते हैं। मोबाइल फ़ोन भी मनोरंजन का लोकप्रिय साधन सिद्ध हुआ है। इस पर एफ०एम० के विभिन्न चैनलों से तथा मेमोरी कार्ड में संचित गाने इच्छानुसार सुने जा सकते हैं। अकेला होते ही लोग इस पर गेम खेलना शुरू कर देते हैं। कैमरे के प्रयोग से मोबाइल की दुनिया में क्रांति आ गई। अब तो इससे रिकार्डिंग एवं फ़ोटोग्राफी करके मनोरंजन किया जाने लगा है। इन साधनों के अलावा म्यूजिक प्लेयर्स, टेबलेट, कंप्यूटर भी मनोरंजन के साधन के रूप में प्रयोग किए जा रहे हैं।

भारत में मनोरंजन के साधनों की स्थिति – मनुष्य की बढ़ती आवश्यकता और सीमित होते संसाधनों के कारण मनोरंजन के साधनों की आवश्यकता और भी बढ़ गई है, परंतु बढ़ती जनसंख्या के कारण ये साधन महँगे हो रहे हैं तथा इनकी उपलब्धता सीमित हो रही है। आज न पार्क बच रहे हैं और खेल के मैदान। इनके अभाव में व्यक्ति का स्वभाव चिड़चिड़ा, रूखा और क्रोधी होता जा रहा है। इसके लिए मनोरंजन के साधनों को सर्वसुलभ और सबकी पहुँच में बनाया जाना चाहिए।

उपसंहार- मनोरंजन मानव जीवन के लिए अत्यावश्यक हैं, परंतु ‘अति सर्वत्र वय॑ते’ वाली उक्ति इन पर भी लागू होती है। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि मनोरंजन के चक्कर में हम इतने खो जाएँ कि हमारे काम इससे प्रभावित होने लगे और हम आलसी और कामचोर बन जाएँ। हमें ऐसी स्थिति से सदा बचना चाहिए।

(8) दूरदर्शन का मानव जीवन पर प्रभाव

संकेत बिंदु –

• प्रस्तावना
• दूरदर्शन का प्रभाव
• दूरदर्शन से हानियाँ
• दूरदर्शन का बढता उपयोग
• दूरदर्शन के लाभ
• उपसंहार

प्रस्तावना – विज्ञानं ने मनुष्य को एक से बढ़कर एक अद्भुत उपकरण प्रदान किए हैं। इन्हीं अद्भुत उपकरणों में एक है दूरदर्शन। दूरदर्शन ऐसा अद्भुत उपकरण है जिसे कुछ समय पहले कल्पना की वस्तु समझा जाता था। यह आधुनिक युग में मनोरंजन के साथसाथ सूचनाओं की प्राप्ति का महत्त्वपूर्ण साधन भी है। पहले इसका प्रयोग महानगरों के संपन्न घरों तक सीमित था, परंतु वर्तमान में इसकी पहुँच शहर और गाँव के घर-घर तक हो गई है।

दरदर्शन का बढ़ता उपयोग – दूरदर्शन मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धन का उत्तम साधन है। आज यह हर घर की आवश्यकता बन गया है। उपग्रह संबंधी प्रसारण की सुविधा के कारण इस पर कार्यक्रमों की भरमार हो गई है। कभी मात्र दो चैनल तक सीमित रहने वाले दूरदर्शन पर आज अनेकानेक चैनल हो गए हैं। बस रिमोट कंट्रोल उठाकर अपना मनपसंद चैनल लगाने और रुचि के अनुसार कार्यक्रम देखने की देर रहती है। आज दूरदर्शन पर फ़िल्म, धारावाहिक, समाचार, गीत-संगीत, लोकगीत, लोकनृत्य, वार्ता, खेलों के प्रसारण, बाजार भाव, मौसम का हाल, विभिन्न शैक्षिक कार्यक्रम तथा हिंदी-अंग्रेजी के अलावा क्षेत्रीय भाषाओं में प्रसारण की सुविधा के कारण यह महिलाओं, युवाओं और हर आयुवर्ग के लोगों में लोकप्रिय है।

दरदर्शन का प्रभाव – अपनी उपयोगिता के कारण दूरदर्शन आज विलसिता की वस्तु न होकर एक आवश्यकता बन गया है। बच्चेबूढ़े, युवा-प्रौढ़ और महिलाएँ इसे समान रूप से पसंद करती हैं। इस पर प्रसारित ‘रामायण’ और महाभारत जैसे कार्यक्रमों ने इसे जनमानस तक पहुँचा दिया। उस समय लोग इन कार्यक्रमों के प्रसारण के पूर्व ही अपना काम समाप्त या बंद कर इसके सामने आ बैठते थे। गाँवों और छोटे शहरों में सड़कें सुनसान हो जाती थीं। आज भी विभिन्न देशों का जब भारत के साथ क्रिकेट मैच होता है तो इसका असर जनमानस पर देखा जा सकता है। लोग सब कुछ भूलकर ही दूरदर्शन से चिपक जाते हैं और बच्चे पढ़ना भूल जाते हैं। आज भी महिलाएँ चाय बनाने जैसे छोटे-छोटे काम तभी निबटाती हैं जब धारावाहिक के बीच विज्ञापन आता है।

दरदर्शन के लाभ – दूरदर्शन विविध क्षेत्रों में विविध रूपों में लाभदायक है। यह वर्तमान में सबसे सस्ता और सुलभ मनोरंजन का साधन है। इस पर मात्र बिजली और कुछ रुपये के मासिक खर्च पर मनचाहे कार्यक्रमों का आनंद उठाया जा सकता है। दूरदर्शन पर प्रसारित फ़िल्मों ने अब सिनेमा के टिकट की लाइन में लगने से मुक्ति दिला दी है। अब फ़िल्म हो या कोई प्रिय धारावाहिक, घर बैठे इनका सपरिवार आनंद लिया जा सकता है।

दूरदर्शन पर प्रसारित समाचार ताज़ी और विश्व के किसी कोने में घट रही घटनाओं के चित्रों के साथ प्रसारित की जाती है जिससे इनकी विश्वसनीयता और भी बढ़ जाती है। इनसे हम दुनिया का हाल जान पाते हैं तो दूसरी ओर कल्पनातीत स्थानों, प्राणियों, घाटियों, वादियों, पहाड़ की चोटियों जैसे दुर्गम स्थानों का दर्शन हमें रोमांचित कर जाता है। इस तरह जिन स्थानों को हम पर्यटन के माध्यम से साक्षात नहीं देख पाते हैं या जिन्हें देखने के लिए न हमारी जेब अनुमति देती है और न हमारे पास समय है, को साक्षात हमारी आँखों के सामने प्रस्तुत कर देते हैं।

दूरदर्शन के माध्यम से हमें विभिन्न प्रकार का शैक्षिक एवं व्यावसायिक ज्ञान होता है। इन पर एन०सी०ई०आर०टी० के विभिन्न कार्यक्रम रोचक ढंग से प्रस्तुत किए जाते हैं। इसके अलावा रोज़गार, व्यवसाय, खेती-बारी संबंधी विविध जानकारियाँ भी मिलती हैं।

दरदर्शन से हानियाँ दूरदर्शन लोगों के बीच इतना लोकप्रिय है कि लोग इसके कार्यक्रमों में खो जाते हैं। उन्हें समय का ध्यान नहीं रहता। कुछ समय बाद लोगों को आज का काम कल पर टालने की आदत पड़ जाती है। इससे लोग आलसी और निकम्मे हो जाते हैं। दूरदर्शन के कारण बच्चों की पढ़ाई बाधित हो रही है। इससे एक ओर बच्चों की दृष्टि प्रभावित हो रही है तो दूसरी और उनमें असमय मोटापा बढ़ रहा है जो अनेक रोगों का कारण बनता है।

दूरदर्शन पर प्रसारित कार्यक्रमों में हिंसा, मारकाट, लूट, घरेलू झगडे, अर्धनंगापन आदि के दृश्य किशोर और युवा मन को गुमराह करते हैं जिससे समाज में अवांछित गतिविधियाँ और अपराध बढ़ रहे हैं। इसके अलावा भारतीय संस्कृति और मानवीय मूल्यों की अवहेलना दर्शन के कार्यक्रमों का ही असर है।

उपसंहार- दूरदर्शन अत्यंत उपयोगी उपकरण है जो आज हर घर तक अपनी पैठ बना चुका है। इसका दूसरा पक्ष भले ही उतना उज्ज वल न हो पर इससे दूरदर्शन की उपयोगिता कम नहीं हो जाती। दूरदर्शन के कार्यक्रम कितनी देर देखना है, कब देखना है, कौन से कार्यक्रम देखने हैं यह हमारे बुद्धि विवेक पर निर्भर करता है। इसके लिए दूरदर्शन दोषी नहीं है। दूरदर्शन का प्रयोग सोच-समझकर करना चाहिए।

(9) यदि मैं अपने विद्यालय का प्रधानाचार्य होता

संकेत बिंदु –

• प्रस्तावना
• पढ़ाई की उत्तम व्यवस्था
• गरीब छात्रों के लिए विशेष प्रयास
• उपसंहार
• मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था
• परीक्षा प्रणाली में सुधार .
• पाठ्य सहगामी क्रियाओं को बढ़ावा .

प्रस्तावना – मानव मन में नाना प्रकार की कल्पनाएँ जन्म लेती हैं। कल्पना के इसी उड़ान के समय वह खुद को भिन्न-भिन्न रूपों में देखता है। वह सोचता है कि यदि मैं यह होता तो ऐसा करता, यदि मैं वह होता तो वैसा करता है। मानव के इसी स्वभाव के अनुरूप मैं भी कल्पना की दुनिया में खोकर प्रायः सोचता हूँ कि यदि मैं अपने विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो कितना अच्छा होता। इस नई भूमिका को निभाने के लिए क्या-क्या करता, उसकी योजना बनाने लगता हूँ।

मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था – सरकारी विद्यालयों में मूलभूत सुविधाओं की क्या स्थिति होती है, यह बताने की आवश्यकता नहीं होती। यह बात तो सभी को पता ही है। मैं सर्वप्रथम विद्यालय में पीने के लिए स्वच्छ पानी की व्यवस्था करवाता। इसके बाद मेरा दूसरा कदम सफ़ाई की व्यवस्था की ओर होता। इस स्तर पर मैं दयनीय हालत में पहुँच चुके शौचालयों की सफ़ाई और मरम्मत करवाता। इसके बाद बच्चों के बैठने के लिए बेंचों की समुचित व्यवस्था कराता। अब कक्षा-कक्ष में श्यामपट और टूटी-फूटी और श्लोक लिखी दीवारों की मरम्मत कराकर रंग-पेंट करवाता। इसके बाद विद्यालय प्रांगण और खेल के मैदान की साफ़-सफ़ाई करवाता तथा विद्यालय परिसर में असामाजिक तत्वों और आवारा पशुओं के घुस आने से रोकने की पूरी व्यवस्था करता। मैं विद्यालय में इतनी टाट-पट्टियों की व्यवस्था करवाता कि सभी छात्र उस पर बैठकर मध्यांतर का खाना खा सकें।

पढ़ाई की उत्तम व्यवस्था – विद्यालय में मूलभूत सुविधाएँ होने के बाद मैं अध्यापकों की कमी पूरी करने के लिए विभाग को लिखता और जितने भी अध्यापक हैं उन्हें नियमित रूप से कक्षाओं में जाकर पढ़ाने को कहता। प्रत्येक विषय के शिक्षण के बाद बचे समय में छात्रों की खेल-कूद की व्यवस्था करता ताकि छात्र पढ़ाई के साथ-साथ खेलों में भी अच्छा प्रदर्शन करें। समय की माँग को देखते हुए मैं छात्रों को नैतिक शिक्षा अनिवार्य रूप से प्रतिदिन प्रार्थना सभा में देने की व्यवस्था सुनिश्चित करता।

परीक्षा प्रणाली में सुधार – वर्तमान में सरकार की फेल न करने की नीति से शिक्षा स्तर में गिरावट आ गई है। मैं छात्रों की परीक्षा प्रतिमाह करवाकर साल में दो मुख्य परीक्षाएँ आयोजित करवाता और परीक्षा में नकल रोकने पर पूरा जोर देता ताकि छात्रों में शुरू से ही पढ़ने की आदत का विकास हो और वे सरकारी नीति का सहारा लेने को विवश न हों।

गरीब छात्रों के लिए विशेष प्रयास – मैं अपने विद्यालय में गरीब किंतु मेधावी छात्रों की पढ़ाई के लिए विशेष प्रयास करवाता तथा छात्र कल्याण निधि से उनके लिए कापियाँ, स्टेशनरी और अन्य कार्यों के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करता। ऐसे छात्रों को छात्रवृत्ति संबंधी जानकारी समय-समय पर देकर उनको सरकारी सहायता दिलाने का सतत प्रयास करता।

पाठ्य सहगामी क्रियाओं को बढ़ावा – छात्रों के सर्वांगीण विकास के लिए पढ़ाई-लिखाई के अलावा अन्य क्रियाकलापों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। मैं छात्रों की दिल्ली-दर्शन की व्यवस्था कर उन्हें दर्शनीय स्थानों को दिखाता। इसके अलावा बाल सभा के आयोजन में भाषण, कविता-पाठ, वाद-विवाद, नाटक अभिनय जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए छात्रों को प्रोत्साहित करता ताकि छात्र इनमें भाग लेकर इसे पढ़ाई का अंग समझें और पढ़ाई को बोझ मानने की भूल न करें।

उपसंहार – विदयालय का प्रधानाचार्य बनकर मैं चाहूँगा कि छात्रों में पढ़ाई के प्रति रुचि उत्पन्न हो। इसके लिए मैं उन्हें पढ़ाते समय सरल और रुचिकर तकनीक अपनाने के लिए शिक्षकों से कहूँगा। मैं छात्रों को यह अवसर दूंगा कि वे अपनी बात कर सकें। इतने प्रयासों के बाद मेरा विद्यालय निःसंदेह अच्छा बन जाएगा। विद्यालय की उन्नति में ही मेरी मेहनत सार्थक सिद्ध होगी।

(10) देश के विकास में बाधक बेरोज़गारी

संकेत बिंदु –

• प्रस्तावना
• बेरोज़गारी के कारण
• बेरोज़गारी के परिणाम
• बेरोज़गारी का अर्थ
• समाधान के उपाय
• उपसंहार

प्रस्तावना – स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे देश को कई समस्याओं से दो-चार होना पड़ा है। इन समस्याओं में मूल्य वृद्धि, जनसंख्या वृद्धि, प्रदूषण, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी आदि प्रमुख हैं। इनमें बेरोजगारी का सीधा असर व्यक्ति पर पड़ता है। यही असर व्यक्ति के स्तर से आगे बढ़कर देश के विकास में बाधक सिद्ध होता है।

बेरोज़गारी का अर्थ – ‘रोज़गार’ शब्द में ‘बे’ उपसर्ग और ‘ई’ प्रत्यय के मेल से ‘बेरोज़गारी’ शब्द बना है, जिसका अर्थ है वह स्थिति जिसमें व्यक्ति के पास काम न हो अर्थात जब व्यक्ति काम करना चाहता है और उसमें काम करने की शक्ति, सामर्थ्य और योग्यता होने पर भी उसे काम नहीं मिल पाता है। यह देश का दुर्भाग्य है कि हमारे देश में लाखों-हज़ारों नहीं बल्कि करोड़ों लोग इस स्थिति से गुजरने को विवश हैं।

बेरोज़गारी के कारण – बेरोज़गारी बढ़ने के कई कारण हैं। इनमें सर्वप्रमुख कारण हैं- देश की निरंतर बढ़ती जनसंख्या। इस बढ़ती जनसंख्या के कारण सरकारी और प्राइवेट सेक्टर द्वारा रोज़गार के जितने पद और अवसर सृजित किए जाते हैं वे अपर्याप्त सिद्ध होते हैं। परिणामतः यह समस्या सुरसा के मुँह की भाँति बढ़ती ही जाती है। बेरोज़गारी बढ़ाने के अन्य कारणों में अशिक्षा, तकनीकी योग्यता, सरकारी नौकरी की चाह, स्वरोज़गार न करने की प्रवृत्ति, उच्च शिक्षा के कारण छोटी नौकरियाँ न करने का संकोच, कंप्यूटर जैसे उपकरणों में वृद्धि, मशीनीकरण, लघु उद्योग-धंधों का नष्ट होना आदि है।

इनके अलावा एक महत्त्वपूर्ण निर्धनता भी है, जिसके कारण कोई व्यक्ति चाहकर भी स्वरोज़गार स्थापित नहीं कर पाता है। हमारे देश की शिक्षा प्रणाली भी ऐसी है जो बेरोजगारों की फौज़ तैयार करती है। यह शिक्षा सैद्धांतिक अधिक प्रयोगात्मक कम है जिससे कौशल विकास नहीं हो पाता है। ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ लेने पर भी विश्वविद्यालयों और कालेजों से निकला युवा स्वयं को ऐसी स्थिति में पाता है जिसके पास डिग्रियाँ होने पर भी काम करने की योग्यता नहीं है। इसका कारण स्पष्ट है कि उसके पास तकनीकी योग्यता का अभाव है।

समाधान के उपाय – बेरोज़गारी दूर करने के लिए सरकार और बेरोज़गारों के साथ-साथ प्राइवेट उद्योग के मालिकों को सामंजस्य बिठाते हुए ठोस कदम उठाना होगा। इसके लिए सरकार को रोजगार के नवपदों का सृजन करना चाहिए। यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि नवपदों के सृजन से समस्या का हल पूर्णतया संभव नहीं है, क्योंकि बेरोजगारों की फ़ौज बहुत लंबी है जो समय के साथसाथ बढ़ती भी जा रही है। सरकार को माध्यमिक कक्षाओं से तकनीकी शिक्षा अनिवार्य कर देना चाहिए ताकि युवा वर्ग डिग्री लेने के बाद असहाय न महसूस करे।

सरकार को स्वरोजगार को प्रोत्साहन देने के लिए बहुत कम दरों पर कर्ज देना चाहिए तथा युवाओं के प्रशिक्षण की व्यवस्था करते हुए इन उद्योगों का बीमा भी करना चाहिए। सरकार को चाहिए कि वह लघु एवं कुटीर उद्योगों के अलावा पशुपालन, मत्स्य पालन आदि को भी बढ़ावा दे। प्राइवेट उद्यमियों को चाहिए कि वे युवाओं को अपने यहाँ ऐसी सुविधाएँ दे कि युवाओं का सरकारी नौकरी से आकर्षण कम हो। युवा वर्ग को अपनी सोच में बदलाव लाना चाहिए तथा उनकी उच्च शिक्षा बाधक नहीं बल्कि सफलता के मार्ग का साधन है जिसका प्रयोग वे समय आने पर कर सकते हैं। अभी जो भी मिल रही है उसे पहली सीढ़ी मानकर शुरुआत तो करें। इसके अलावा उच्च शिक्षा के साथ-साथ तकनीकी शिक्षा अवश्य ग्रहण करें ताकि स्वरोजगार और प्राइवेट नौकरियों के द्वार भी उनके लिए खुले रहें।

बेरोज़गारी के परिणाम – कहा गया है कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। बेरोज़गार व्यक्ति खाली होने से अपनी शक्ति का दुरुपयोग असामाजिक कार्यों में लगाता है। वह असामाजिक कार्यों में शामिल होता है और कानून व्यवस्था भंग करता है। ऐसा व्यक्ति अपना तथा राष्ट्र दोनों का विकास अवरुद्ध करता है। ‘बुबुक्षकः किम् न करोति पापं’ भूखा व्यक्ति कौन-सा पाप नहीं करता है अर्थात भूखा व्यक्ति चोरी, लूटमार, हत्या जैसे सारे पाप कर्म कर बैठता है। अत: व्यक्ति को रोज़गार तो मिलना ही चाहिए।

उपसंहार- बेरोज़गारी की समस्या पूरे देश की समस्या है। यह व्यक्ति, समाज और देश के विकास में बाधक सिद्ध होती है। जनसंख्या वृद्धि पर अंकुश लगाने के साथ ही इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है। बेरोज़गारी कम करने में सरकार के साथ-साथ समाज और युवाओं की सोच में बदलाव लाना आवश्यक है।