NCERT Solutions Class 8th History Chapter – 7 महिलाएँ, जाति एवं सुधार (Women Castes And Reforms)
Text Book | NCERT |
Class | 8th |
Subject | Social Science (इतिहास) |
Chapter | 7th |
Chapter Name | महिलाएँ, जाति एवं सुधार (Women Castes And Reforms) |
Category | Class 8th Social Science (इतिहास) |
Medium | Hindi |
Source | Last Doubt |
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NCERT Solutions Class 8th History Chapter – 7 महिलाएँ, जाति एवं सुधार (Women Castes And Reforms)
Chapter – 7
महिलाएँ, जाति एवं सुधार
Notes
महिलाओं की स्थिति (Status of Women)
• आज हमारे देश में महिलाओं को बराबरी का दर्जा मिला हुआ है। लड़कियाँ स्कूल जाती हैं, महिलाएँ नौकरी करती हैं और उन्हें वोट डालने का अधिकार मिला हुआ है। लेकिन पुराने जमाने में ऐसा नहीं था।
• इस चैप्टर में आप उन्नीसवीं सदी में महिलाओं और निचली जाति के लोगों के प्रति होने वाले भेदभाव के बारे में पढ़ेंगे। आप उन प्रयासों के बारे में पढ़ेंगे जो इनकी स्थिति में सुधार के लिए किए गए।
• आज से दो सौ वर्ष पहले, महिलाओं की स्थिति बहुत अलग थी। बाल विवाह आम बात होती थी। हिंदू और मुस्लिम पुरुष एक से अधिक औरतों से शादी कर सकते थे।
• यदि कोई हिंदू महिला विधवा हो जाती थी तो उसे उसके पति की चिता पर ही जला दिया जाता था। इस प्रथा को सति प्रथा कहते थे। सति होने वाली औरत का महिमामंडन किया जाता था।
• संपत्ति पर महिलाओं का कोई अधिकार नहीं होता था। अधिकतर महिलाओं को शिक्षा से दूर रखा जाता था।
परिवर्तन की दिशा में उठते कदम
1. उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से ही हमें सामाजिक रीति-रिवाज़ों और मूल्य-मान्यताओं से संबंधित बहस-मुबाहिसे और चर्चाओं का स्वरूप बदलता दिखाई देता है। इसकी एक अहम वजह यह थी कि संचार के नए तरीके विकसित हो रहे थे।
2. पहली बार किताबें, अख़बार, पत्रिकाएँ, पर्चे और पुस्तिकाएँ छप रही थीं। ये चीज़ें न केवल पुराने साधनों के मुकाबले सस्ती थीं बल्कि उन पांडुलिपियों के मुकाबले ज़्यादा लोगों की पहुँच में भी थीं
3. उनमें से बहुत सारे अपनी भाषाओं में लिख सकते थे और अपने विचार व्यक्त कर सकते थे। नए शहरों में तमाम तरह के सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और धार्मिक मुद्दों पर पुरुषों (और कभी-कभी महिलाओं) के बीच चर्चा होती रहती थी।
4. राजा राममोहन रॉय (1772-1833) इसी तरह के एक सुधारक थे। उन्होंने कलकत्ता में ब्रह्म सभा के नाम से एक सुधारवादी संगठन बनाया था (जिसे बाद में ब्रह्मो समाज के नाम से जाना गया)।
5. राममोहन रॉय जैसे लोगों को सुधारक इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे मानते थे कि समाज में परिवर्तन लाना और अन्यायपूर्ण तौर-तरीकों से छुटकारा पाना ज़रूरी है।
6. उनका विचार था कि इस तरह के परिवर्तन लाने के लिए लोगों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए कि वे पुराने व्यवहार को छोड़कर जीवन का नया ढंग अपनाने के लिए तैयार हों।
विधवाओं की ज़िंदगी में बदलाव लाने की कोशिश
1. राममोहन रॉय संस्कृत, फ़ारसी तथा अन्य कई भारतीय एवं यूरोपीय भाषाओं के अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने अपने लेखन के ज़रिए यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि प्राचीन ग्रंथों में विधवाओं को जलाने की अनुमति कहीं नहीं दी गई है।
2. राममोहन रॉय इस बात से काफ़ी दुखी थे कि विधवा औरतों को अपनी ज़िंदगी में भारी कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसी बात को ध्यान में रखते उन्होंने सती प्रथा के खिलाफ़ मुहिम छेड़ी थी।
3. उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ तक बहुत सारे अंग्रेज़ अफ़सर भी भारतीय परंपराओं और रीति-रिवाज़ों की आलोचना करने लगे थे। वे राममोहन रॉय के विचारों को सही मानते थे क्योंकि उनकी एक विद्वान व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठा थी। फलस्वरूप, 1829 में सती प्रथा पर पाबंदी लगा दी गई।
4. राममोहन रॉय ने इस अभियान के लिए जो रणनीति अपनाई उसे बाद के सुधारकों ने भी अपनाया। जब भी वे किसी हानिकारक प्रथा को चुनौती देन चाहते थे तो अकसर प्राचीन धार्मिक ग्रंथों से ऐसे श्लोक या वाक्य ढूँढ़ने का प्रयास करते थे जो उनकी सोच का समर्थन करते हों। इसके बाद वे दलील देते संबंधित वर्तमान रीति-रिवाज़ प्रारंभिक परंपरा के खिलाफ़ हैं।
लड़कियाँ स्कूल जाने लगती हैं
• बहुत सारे सुधारकों को लगता था कि महिलाओं की दशा सुधारने के लिए लड़कियों को शिक्षित करना ज़रूरी है।
• कलकत्ता में विद्यासागर और बम्बई में बहुत सारे अन्य सुधारकों ने लड़कियों के लिए स्कूल खोले। उन्नीसवीं सदी के मध्य में जब इस तरह के प्रारंभिक स्कूल खुले तो बहुत सारे लोग उनसे डरते थे।
• लोगों को भय था कि स्कूल वाले लड़कियों को घर से निकाल ले जाएँगे और उन्हें घरेलू कामकाज नहीं करने देंगे। स्कूल जाने के लिए लड़कियों के सार्वजनिक स्थानों से गुज़र कर जाना पड़ता था।
• बहुत सारे लोगों को लगता था कि इससे लड़कियाँ बिगड़ जाएँगी। उनकी मान्यता थी कि लड़कियों को सार्वजनिक स्थानों से दूर रहना चाहिए।
महिलाओं के बारे में महिलाएँ लिखने लगीं
• बीसवीं सदी की शुरुआत से बहुत सारी मुस्लिम महिलाओं ने महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अहम भूमिका अदा की। जैसे, भोपाल की बेगम ने अलीगढ़ में लड़कियों के लिए प्राथमिक स्कूल ‘खोला।
• बेगम रुकैया सख़ावत हुसैन भी इस दौर की एक प्रभावशाली महिला थीं जिन्होंने कलकत्ता और पटना में मुस्लिम लड़कियों के लिए स्कूल खोले।
• वह रूढ़िवादी विचारों की कटु आलोचक थीं और उनका मानना था कि प्रत्येक धर्म के धार्मिक नेताओं ने औरतों को निचले दर्जे में रखा है।
जाति और समाज सुधार
1. कई लोग ऐसे थे जो जाति आधारित समाज व्यवस्था में होने वाले अन्याय के विरुद्ध थे। राममोहन रॉय ने जाति व्यवस्था की आलोचना करने वाले एक पुराने बौद्ध ग्रंथ का अनुवाद किया।
2. प्रार्थना समाज भक्ति परंपरा का समर्थक था जिसमें सभी जातियों की आध्यात्मिक समानता पर ज़ोर दिया गया था। जाति उन्मूलन के लिए काम करने के लिए बम्बई में 1840 में परमहंस मंडली का गठन किया गया।
3. नए कारखानों और नगरपालिकाओं में नई नौकरियाँ निकल रही थीं। शहर जाने वालों में से बहुत सारे ‘“निम्न” जातियों के लोग भी थे। कुछ लोग असम, मॉरिशस, त्रिनीदाद और इंडोनेशिया आदि स्थानों पर बाग़ानों में काम करने भी चले गए।
4. नए स्थानों पर काम अकसर बहुत कठोर था। परंतु गरीबों, निचली जातियों के लोगों को यह गाँवों में सवर्ण ज़मींदारों द्वारा उनके जीवन पर दमनकारी कब्ज़े और दैनिक अपमान से छूट निकलने का एक मौका था।
समानता और न्याय की माँग
1. उन्नीसवीं सदी के दूसरे हिस्से तक गैर-ब्राह्मण जातियों के भीतर से भी लोग जातीय भेदभाव के खिलाफ़ आवाज़ उठाने लगे थे। उन्होंने सामाजिक समानता और न्याय की माँग करते हुए आंदोलन शुरू कर दिए थे।
2. मध्य भारत में सतनामी आंदोलन की शुरुआत घासीदास ने की, जिन्होंने चमड़े का काम करने वालों को संगठित किया और उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए आंदोलन छेड़ दिया।
3. पूर्वी बंगाल में हरिदास ठाकुर के तु पंथ ने चांडाल काश्तकारों के बीच काम किया। हरिदास ने जाति व्यवस्था को सही ठहराने वाले ब्राह्मणवादी ग्रंथों पर सवाल उठाया। जिसे आज केरल कहा जाता है।
गुलामगीरी – “निम्न जाति” नेताओं में ज्योतिराव फुले सबसे मुखर नेताओं में से थे। 1827 में जन्मे ज्योतिराव फुले ने ईसाई प्रचारकों द्वारा खोले गए स्कूलों में शिक्षा पाई थी। बड़े होने पर उन्होंने जाति आधारित समाज में फैले अन्याय के बारे में अपने विचार व्यक्त किए। उन्होंने ब्राह्मणों के इस दावे पर खुलकर हमला बोला कि आर्य होने के कारण वे औरों से श्रेष्ठ हैं।
मंदिरों में कौन जा सकता था?
1. अम्बेडकर एक महार परिवार में पैदा हुए थे। बचपन में उन्होंने इस बात को बहुत नज़दीक से देखा था कि रोज़ाना की ज़िंदगी में जातीय भेदभाव और पूर्वाग्रह क्या होता है। स्कूल में उन्हें कक्षा के बाहर ज़मीन पर बैठना पड़ता था।
2. सन् 1927 में अम्बेडकर ने मंदिर प्रवेश आंदोलन शुरू किया जिसमें महार जाति के लोगों ने बड़ी संख्या में हिस्सा लिया। ब्राह्मण पुजारी इस बात पर बहुत आग-बबूला हुए कि दलित भी मंदिर के जलाशय का पानी इस्तेमाल कर रहे हैं।
3. 1927 से 1935 के बीच अम्बेडकर ने मंदिरों में प्रवेश के लिए ऐसे तीन आंदोलन चलाए। वह पूरे देश को दिखाना चाहते थे कि समाज में जातीय पूर्वाग्रहों की जकड़ कितनी मज़बूत है।
गैर-ब्राह्मण आंदोलन – बीसवीं सदी के आरंभ में गैर-ब्राह्मण आंदोलन शुरू हुआ। यह प्रयास उन गैर-ब्राह्मण जातियों का था जिन्हें शिक्षा, धन और प्रभाव हासिल हो चुका था। उनका तर्क था कि ब्राह्मण तो उत्तर से आए उन आर्य आक्रमणकारियों के वंशज हैं जिन्होंने यहाँ के मूल निवासियों – देशी द्रविड़ नस्लों – को हराकर दक्षिणी भूभाग पर विजय हासिल की थी। उन्होंने सत्ता पर ब्राह्मणवादी दावे को भी चुनौती दी।
ब्रह्मो समाज – ब्रह्मो समाज की स्थापना 1830 में की गई थी। यह संस्था सभी प्रकार की मूर्ति पूजा और बलि के विरुद्ध थी और इसके अनुयायी उपनिषदों में विश्वास रखते थे। इसके सदस्यों को अन्य धार्मिक प्रथाओं या परंपराओं की आलोचना करने का अधिकार नहीं था। ब्रह्मो समाज ने विभिन्न धर्मों के आदर्शों – ख़ासतौर से हिंदुत्व और ईसाई धर्म – के विचारों की आलोचनात्मक व्याख्या करते हुए उनके नकारात्मक और सकारात्मक पहलुओं पर प्रकाश डाला।
डेरोज़ियो एवं यंग बंगाल – 1820 के दशक में हेनरी लुई विवियन डेरोज़ियो हिंदू कॉलेज, कलकत्ता में अध्यापक थे। उन्होंने अपने विद्यार्थियों को आमूल परिवर्तनकारी विचारों से अवगत कराया और उन्हें तमाम तरह की सत्ता पर सवाल खड़ा करने के लिए प्रोत्साहित किया। उनके द्वारा शुरू किए गए यंग बंगाल मूवमेंट में उनके विद्यार्थियों ने परंपराओं और रीति-रिवाज़ों पर उँगली उठाई, महिलाओं के लिए शिक्षा की माँग की और सोच व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अभियान चलाया।
रामकृष्ण मिशन और विवेकानंद
1. रामकृष्ण मिशन का नाम स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस के नाम पर रखा गया था। यह मिशन समाज सेवा और निस्वार्थ श्रम के ज़रिए मुक्ति के लक्ष्य पर ज़ोर देता था।
2. स्वामी विवेकानंद (1863–1902) जिनका मूल नाम नरेंद्रनाथ दत्त था, उन्होंने श्री रामकृष्ण की सरल शिक्षाओं को अपने प्रतिभाशाली संतुलित आधुनिक विचारधारा से जोड़ कर संपूर्ण विश्व में प्रसारित किया। 1893 में शिकागो में विश्व धर्म संसद में उन्हें सुनने के बाद न्यूयॉर्क हेराल्ड ने विवरण दिया कि, “ऐसे विद्वान राष्ट्र में धर्म प्रचारकों को भेजना कितना मूर्खतापूर्ण है”।
3. वास्तव में, स्वामी विवेकानंद आधुनिक समय पहले भारतीय थे जिन्होंने विश्वव्यापी स्तर पर वेदांत दर्शन के आध्यात्मिक गौरव को पुनर्स्थापित किया, लेकिन उनका उद्देश्य केवल धर्म की व्याख्या करना नहीं था। अपने देशवासियों की निर्धनता और दुर्दशा से उन्हें अतिशय दुःख हुआ। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि कोई भी सुधार तभी सफल हो सकता है जनसमूह की दशा उन्नत हो। अतः भारत के लोगों को उन्होंने ‘रसोईघर के धर्म’ की संकीर्ण चारदीवारी से बाहर निकलने और राष्ट्र की सेवा में एक जुट होने का आह्वान किया।
4. इस आह्वान द्वारा भारतीय राष्ट्रवाद की प्रारंभिक अवस्था में उन्होंने असाधारण योगदान दिया। किंतु राष्ट्रवाद के बारे में उनका भाव संकीर्ण नहीं था। उन्हें यह विश्वास था कि मानवजाति को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है उन पर तभी काबू पाया जा सकता है जब विश्व के सभी राष्ट्र एक समान धरातल पर एक साथ आएँ। अतः एक सामान्य आध्यात्मिक विरासत के आधार पर उन्होंने युवाओं को एक होने का उपदेश दिया। इस उद्बोधन में वह वास्तव में ‘नई विचारधारा के प्रतीक और भविष्य के लिए एक महान शक्ति का स्रोत’ बन गए।
प्रार्थना समाज – 1867 में बम्बई में स्थापित प्रार्थना समाज ने जातीय बंधनों को ख़त्म करने और बाल विवाह के उन्मूलन के लिए प्रयास किया। प्रार्थना समाज ने महिलाओं की शिक्षा को प्रोत्साहित किया और विधवा विवाह पर लगी पाबंदी के खिलाफ़ आवाज़ उठाई। उसकी धार्मिक बैठकों में हिंदू, बौद्ध और ईसाई ग्रंथों पर विचार-विमर्श किया जाता था।
वेद समाज – मद्रास (चेन्नई) में 1864 में वेद समाज की स्थापना हुई। वेद समाज ब्रह्मो समाज से प्रेरित था। वेद समाज ने जातीय भेदभाव को समाप्त करने और विधवा विवाह तथा महिला शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए काम किया। इसके सदस्य एक ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते थे। उन्होंने रूढ़िवादी हिंदुत्व के अंधविश्वासों और अनुष्ठानों की सख्त निंदा की।
अलीगढ़ आंदोलन – सैय्यद अहमद खाँ द्वारा 1875 में अलीगढ़ में खोले गए मोहम्मदन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज को ही बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नाम से जाना गया। यहाँ मुसलमानों को पश्चिमी विज्ञान के साथ-साथ विभिन्न विषयों की आधुनिक शिक्षा दी जाती थी। अलीगढ़ आंदोलन का शैक्षणिक सुधारों के क्षेत्र में गहरा प्रभाव रहा है।
सिंह सभा आंदोलन – सिखों के सुधारवादी संगठन के रूप में सिंह सभाओं की स्थापना 1873 में अमृतसर से शुरू हुई थी। बाद में 1879 में लाहौर में भी सिंह सभा का गठन किया गया। इन सभाओं ने सिख धर्म को अंधविश्वासों, जातीय भेदभाव और ऐसे आचरण जिसे वे गैर-सिख समझती थीं, से मुक्त कराने का प्रयास किया। उन्होंने सिखों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया जिसमें अकसर आधुनिक ज्ञान के साथ-साथ सिख धर्म के सिद्धांतों को भी पढ़ाया जाता था।
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