जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु (27 मई 1964) के बाद भारत में राजनीतिक उत्तराधिकार एक महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण मुद्दा था। नेहरू स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री और देश के सबसे करिश्माई नेता थे, जिन्होंने न केवल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को बल्कि भारतीय राजनीति को भी लंबे समय तक एक दिशा दी।
उनकी मृत्यु के बाद भारत को नए नेतृत्व की आवश्यकता थी, जो न केवल नेहरू की विरासत को संभाल सके, बल्कि देश के सामने मौजूद राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों का समाधान भी कर सके।
इस समय की राजनीतिक परिस्थितियों और उत्तराधिकार से संबंधित चुनौतियों का परीक्षण निम्नलिखित बिंदुओं में किया जा सकता है:
1. नेहरू के बाद एक निर्विवाद नेता की अनुपस्थिति
नेहरू का करिश्माई नेतृत्व पूरे देश में सर्वमान्य था। उनके बाद ऐसा कोई नेता नहीं था, जिसे समान रूप से व्यापक समर्थन प्राप्त हो।
कांग्रेस पार्टी के भीतर नेतृत्व को लेकर कोई स्पष्ट योजना नहीं थी, क्योंकि नेहरू ने अपना कोई राजनीतिक उत्तराधिकारी नामित नहीं किया था।
पार्टी के अंदर कई धड़े थे, जो अपना नेतृत्व स्थापित करना चाहते थे।
2. लाल बहादुर शास्त्री का चयन
नेहरू के निधन के बाद, राजनीतिक उत्तराधिकार का प्रश्न कांग्रेस कार्यसमिति और संसद के भीतर महत्वपूर्ण हो गया।
लाल बहादुर शास्त्री को एक समझौतावादी नेता के रूप में चुना गया।
वे पार्टी के भीतर किसी भी गुट से जुड़े नहीं थे।
उनकी छवि ईमानदार, साधारण और विनम्र नेता की थी।
शास्त्री का चयन वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं (जैसे मोरारजी देसाई और इंदिरा गांधी) के बीच टकराव को टालने के लिए किया गया था।
3. कांग्रेस पार्टी में गुटबाजी
नेहरू के बाद कांग्रेस पार्टी के भीतर गुटबाजी बढ़ने लगी।
कामराज योजना के तहत वरिष्ठ नेताओं को राज्यों और केंद्र में संगठन का काम संभालने के लिए कहा गया था, लेकिन इससे सत्ता के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ गई।
शास्त्री के नेतृत्व को चुनौती देने वाले कई नेता सक्रिय थे, जैसे मोरारजी देसाई, जिन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रमुख दावेदार माना जाता था।
4. भारत-चीन युद्ध और कश्मीर मुद्दा
नेहरू के नेतृत्व में 1962 में चीन के साथ युद्ध में भारत की हार ने देश में राजनीतिक अस्थिरता और जनता के बीच असंतोष को बढ़ाया था।
कश्मीर जैसे जटिल मुद्दों पर नेहरू की विदेश नीति का आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन किया जा रहा था।
नए प्रधानमंत्री के सामने इन राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों से निपटने की बड़ी चुनौती थी।
5. लाल बहादुर शास्त्री का नेतृत्व और असमय मृत्यु
शास्त्री ने अपने छोटे से कार्यकाल (1964-1966) में देश को सफलतापूर्वक नेतृत्व दिया।
जय जवान, जय किसान का नारा दिया।
भारत-पाक युद्ध (1965) में उन्होंने दृढ़ नेतृत्व दिखाया।
लेकिन उनकी अचानक मृत्यु (11 जनवरी 1966) ने एक बार फिर नेतृत्व संकट खड़ा कर दिया।
6. इंदिरा गांधी का उदय और नई चुनौतियां
शास्त्री की मृत्यु के बाद, कांग्रेस ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री चुना।
इंदिरा गांधी को पहले “कमजोर नेता” माना गया, जिन्हें पार्टी के वरिष्ठ नेताओं (सिंडिकेट) द्वारा नियंत्रित किया जा सकता था।
लेकिन उन्होंने धीरे-धीरे अपनी राजनीतिक ताकत और स्वतंत्र नेतृत्व साबित किया।
इंदिरा गांधी के नेतृत्व के दौरान कांग्रेस पार्टी में विभाजन हुआ (1969), जो नेहरू की विरासत के बाद कांग्रेस में बढ़ते गुटीय संघर्ष का परिणाम था।
7. लोकतंत्र की स्थिरता के लिए चुनौतियां
नेहरू के बाद नेतृत्व का संकट भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को चुनौती दे सकता था, लेकिन कांग्रेस पार्टी ने अंततः सफलतापूर्वक नेतृत्व का हस्तांतरण किया।
यह भारत के लोकतांत्रिक और संसदीय प्रणाली की मजबूती को भी दर्शाता है।
निष्कर्ष
नेहरू की मृत्यु के बाद का राजनीतिक उत्तराधिकार भारतीय राजनीति के लिए एक चुनौतीपूर्ण दौर था। हालांकि, लाल बहादुर शास्त्री और बाद में इंदिरा गांधी के नेतृत्व ने इस संकट से देश को बाहर निकाला। इस पूरी प्रक्रिया ने न केवल कांग्रेस पार्टी की संगठनात्मक क्षमताओं को बल्कि भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों और राजनीतिक परिपक्वता को भी मजबूत किया।