क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) एक अंतरराष्ट्रीय संधि है, जो 1997 में अपनाई गई थी और 2005 में लागू हुई। इसका उद्देश्य ग्रीनहाउस गैसों (GHGs) के उत्सर्जन को नियंत्रित और कम करना था। यह संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) का एक विस्तार है।
क्योटो प्रोटोकॉल के तहत विकासशील देशों को उत्सर्जन में कमी लाने की बाध्यताओं से मुक्त रखा गया था। इसके पीछे कई महत्वपूर्ण कारण थे:
1. ऐतिहासिक जिम्मेदारी का सिद्धांत – विकसित देश औद्योगिक क्रांति (18वीं सदी से) से लेकर आधुनिक काल तक ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े उत्सर्जक रहे हैं।
क्योटो प्रोटोकॉल के तहत “सामान्य लेकिन विभेदित जिम्मेदारियों” (Common but Differentiated Responsibilities – CBDR) का सिद्धांत अपनाया गया, जिसमें विकसित देशों को उत्सर्जन कम करने का मुख्य जिम्मा दिया गया।
विकासशील देशों का तर्क था कि उन्हें ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का प्राथमिक दोषी नहीं माना जा सकता, क्योंकि उनके कुल उत्सर्जन का ऐतिहासिक योगदान बहुत कम है।
2. आर्थिक और सामाजिक विकास की प्राथमिकता – विकासशील देशों की प्राथमिकता गरीबी उन्मूलन, बुनियादी ढांचे का निर्माण, और आर्थिक विकास थी।
यदि इन देशों पर उत्सर्जन में कमी की बाध्यता लगाई जाती, तो उनकी औद्योगिक और आर्थिक प्रगति बाधित हो सकती थी।
यह उनके विकास के अधिकार (Right to Development) के खिलाफ होता।
3. औद्योगिक क्षमता और प्रौद्योगिकी की कमी – विकासशील देशों के पास ग्रीन टेक्नोलॉजी और कम-कार्बन उत्सर्जन वाली तकनीकों तक सीमित पहुंच थी।
उत्सर्जन कम करने के लिए आवश्यक वित्तीय और तकनीकी संसाधन इन देशों के पास उपलब्ध नहीं थे।
ऐसे में उत्सर्जन घटाने की बाध्यता उनके लिए व्यावहारिक और न्यायसंगत नहीं थी।
4. विकसित देशों का नेतृत्व करने का दायित्व – क्योटो प्रोटोकॉल ने विकसित देशों को “Annex I देशों” के रूप में वर्गीकृत किया और उन्हें कानूनी रूप से बाध्य उत्सर्जन कटौती लक्ष्यों को स्वीकार करने के लिए कहा।
उद्देश्य यह था कि पहले विकसित देश अपने उत्सर्जन को कम करें और वित्तीय तथा तकनीकी सहायता देकर विकासशील देशों को सहयोग करें।
यह जिम्मेदारी विकसित देशों पर इसलिए दी गई, क्योंकि वे आर्थिक और तकनीकी रूप से अधिक सक्षम थे।
5. न्याय और समानता का मुद्दा – विकासशील देशों ने तर्क दिया कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना करने में वे सबसे अधिक असुरक्षित हैं, जबकि इसका मुख्य कारण विकसित देशों का लंबे समय तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करना रहा है।
उनके विकास को सीमित करना उनके साथ “जलवायु अन्याय” (Climate Injustice) के समान होता।
6. उत्सर्जन का असमान स्तर – विकसित देशों की प्रति व्यक्ति ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन दर विकासशील देशों की तुलना में बहुत अधिक थी।
उदाहरण: अमेरिका और यूरोपीय देशों की प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर, भारत या अफ्रीकी देशों की दर से कई गुना अधिक थी।
इसलिए उत्सर्जन में कटौती का भार असमान रूप से वितरित करना उचित माना गया।
निष्कर्ष:
विकासशील देशों को क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं से मुक्त रखना इस संधि का एक न्यायसंगत और व्यावहारिक दृष्टिकोण था। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि इन देशों को विकास का अधिकार मिले, जबकि विकसित देश अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी निभाएं। हालांकि, प्रोटोकॉल ने विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील बनने और अंतरराष्ट्रीय सहयोग के माध्यम से टिकाऊ विकास की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित किया।